Quantcast
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

व्यंगशाला टीका टिप्पणी -2

 उपाध्याय जी! मेरी समझ से किसी रचना के आकलन में यह देखा जाना चाहिए कि उसका सरोकार क्या है? उसमें व्यंग्य प्रवृतिपरक है या नहीं! विन्यास, शैली, कहन भंगिमा, जैसे कि आपने इंगित किया, भी महत्वपूर्ण हैं।

किसी  भी रचना में दो बातें मुख्य होती हैं- कथ्य और शिल्प। कथ्य ही महत्त्वपूर्ण है, पर शिल्प की अनदेखी नहीं कि जा सकती। शिल्प के अंतर्गत भाषा-शैली आती है। पंच भाषा का विषय है जो किसी भाव विशेष को तीव्रता से व्यक्त करता है। इस प्रकार यह शिल्पगत हुई। मेरा मानना है कि अगर रचना में  पंच न भी हों, तो रचना अन्य उपादानों के चलते सशक्त बनी रह सकती है। शर्त बस इतनी है कि भाषा में धार हो।


पिस्ता बादाम खाने का हक किसानों को भी है। यदि किसान ऐसा कर पा रहे हैं तो खुशी की बात है। यद्यपि ऐसा कुछ ही किसान कर पाते हैं। बहुतायत तो अभी भी होरी की ही राह पर चल रहे हैं। अन्नदाता किसानों के प्रति व्यंग्य नहीं संवेदना ही व्यक्त की जा सकती है। व्यंग्य के विषय तो वे हैं जो उनके परिश्रम से उत्पन्न अन्य  खाकर उनके प्रति असंवेदनशील बने हुए हैं।


 सभी विधाओं में सक्रिय दिल्ली की सुनीता सानू का सवाल___


आदरणीय मेरा सवाल बहुत छोटा सा है, व्यंग्य में कविताओं का प्रयोग व्यंग्य को धारदार बनाता है, व्यंग्य की कटार पर मक्खन का काम करता है, या शब्दों की खानापूर्ति कर व्यंग्य में जबर्दस्ती का भराव लाता है।

सुनीता शानू


[जबलपुर मध्यप्रदेश से व्यंंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव ने पूछा है ____

प्रश्न  - वर्मा जी कविता ,व्यंग्य, निबंध या अन्य लेखन में से आपकी सर्वाधिक विधा कौन सी है ? इन दिनों ऐसा क्यों लगता है कि व्यंग्य लेखन अपने लक्ष्य से भटक गया है , केवल छपने के लिए लिखने वाले बढ़ गए हैं , पाठक भी महज मनोरंजन के लिए व्यंग्य पढ़ता लगता है । इस समस्या का निदान क्या हो सकता है ?


- विवेक रंजन श्रीवास्तव , जब

 दिल्ली से प्रसिद्ध आलोचक, व्यंंग्यकार श्री एम एम चन्द्रा का सवाल


कुछ लेखक किसान आन्दोलन के खिलाफ व्यंग्य लिखकर सरकार की पीपनी बजा रहे हैं....ऐसे लेखक सत्ताधारी लेखन और सत्ता के प्रवक्ता होने का दावा डंके की चोट पर कर रहे हैं...  क्या अब से पहले इतनी धूर्ततापूर्ण स्वीकृति लेखक और लेखन थी या यह सिर्फ आज का नंगा सच है?


टीकमगढ़ मध्यप्रदेश से वरिष्ठ व्यंंग्यकार, कवि श्री रामस्वरूप दीक्षित जी ने आदरणीय श्री राजेन्द्र वर्मा जी से दो सवाल पूछे हैं।


1 वर्तमान में समूहबाजी का जो  दौर चल रहा है वह व्यंग्य के फायदेमंद है या इससे व्यंग्य का नुकसान हो रहा है ?


2 एक व्यंग्य समूह में किसानों के विरुद्ध बहुत ही निंदनीय पोस्ट फारवर्ड कर डाली गई जिसका किसी के भी द्वारा विरोध नहीं किया गया , ऐसे में क्या यह माना जाय कि व्यंग्य लेखन की हमारी प्राथमिकताएं बदल रही हैं और व्यंग्यकार इस तरह से सत्ता समर्थक होते जा रहे हैं कि वे किसान मजदूर के ही खिलाफ खड़े नजर आ रहे हैं ।

क्या सोद्देश्य लेखन करने वाले व्यंग्यकारों को इस स्थिति के विरोध में खड़ा नहीं होना चहिये ?


: मेरी गति छंदोबद्ध कविता में अपेक्षाकृत अधिक रही है। गद्य में मैंने व्यंग्यात्मक निबंध अधिक लिखे हैं।

     आजकल व्यंग्यकारों की भीड़-सी है, विशेषतः अख़बार में किसी सामयिक समस्या पर टिप्पणी करनेवालों की। जल्दबाज़ी, शब्दसीमा आदि के कारण ऐसी रचनाएँ प्रायः वांछित प्रभाव नहीं छोड़ पातीं। व्यंग्य गंभीर लेखन-कर्म है। वह धैर्य और परिश्रम माँगता है। हमें किताबों की ओर लौटना होगा और अपने पूर्वजों से सीखना होगा। तब शायद कुछ हल निकले।


यह घोर मूल्यहीनता का समय है। व्यंग्यकार तो सत्ता का प्रतिपक्ष होता है, पर जो  लेखक कतिपय कारणों से अपनी मूल भूमिका से भटके हुए हैं, वे भी एक दिन सोचने-समझने पर विवश होंगे। समय से बड़ा शिक्षक कोई नहीं।


प्रतीक भाषा की लक्षणा शक्ति प्रकट करते हैं। व्यंग्य रikना में प्रतीकों का महत्व है, लेकिन कभी-कभी इनके आधिक्य या असफल प्रयोग व्यंग्य को बोझिल बना देते हैं। व्यंग्य में भाषा की व्यंजना शक्ति का अच्छा उपयोग कर उसे अधिक रोचक और पठनीय बनाया जा सकता है। मेरी समझ से व्यंग्य में भाषा का चुटीला होना ही पर्याप्त है। यह अभिधा में भी हो सकता है।क्या

 व्य़ंग्यकार को हमेशा सत्ता के विपक्ष में ही रहना चाहिए।?

मेरे विचार हैं कि सरकार जब सकारात्मक काम करें या निर्णय  करें तब व्य़ंग्यकार का दायित्व होता है कि वह अपनी सोच बदले और और देश हित में सरकार सरकार  साथ दे।



 सत्ता यदि कोई अच्छा काम करती है तो उसकी मीमांसा में व्यंग्य के उत्पन्न होने की संभावना ही नहीं रहती। फिर व्यंग्यकार के दायित्व की बात ही नहीं है। हाँ, कोई लेखक यदि सत्ता पक्ष की विचारधारा का है तो वह विपक्षियों द्वारा उठाये गए प्रश्नों के विरोध में खड़ा होगा। व्यंग्यकार का काम निष्पक्ष आलोचना का है, उसकी प्रतिबद्धता किसके साथ है, यह विचारणीय है।

[12/17, 13:13] +91 98939 44294: निश्चित ही साथ देना चाहिए किन्तु व्यंग्यकार की बजाए एक प्रबुध्द नागरिक की तरह समर्थन अवश्य करना चाहिए। व्यंग्य विधा में समर्थन कैसे किया जाए,यह अभी खोजा जाना चाहिए। व्यंग्यकार समर्थन में विपक्ष और असहमत पर कटाक्ष करेगा यदि विधा व्यंग्य हुई। प्रशंसा करने में रचना पर विरुदावली या आरती हो जाने की आशंका हो जाती है या फिर व्यंग्यकार पर पार्टी विशेष के प्रवक्ता होने के आरोप लग सकते हैं।

इस संकट का हल खोजा जाना चाहिए व्यंग्यकारों द्वारा।



भटके हुए की कसौटी क्या है?? व्यंंग्य तो संगत के लिए विसंगत का प्रतिपक्ष है। राजनीति से बंधे पालों के व्यंग्यकार या सर्जक दूसरे पाले को भटका हुआ ठहराएंगे। इसीलिए सभी कोणों पर  विवेकसम्मत नजरिया अध्य्यन के बगैर नहीं आता।


: व्यंग्य को सत्ता विरोध की सर्जना मान लेना उसकी परिधि को छोटा कर लेना है।


बिल्कुल। हर काल में पक्ष विपक्ष बदलते रहते हैं। प्रतिबद्धता और सरोकार यदि सदैव जन कल्याण या लोकतंत्रातिक पक्ष रहे तो विधा को ऐसे आरोपों से बचाया जा सकता है।


सत्ता की विसंगतियों को रेखांकितस  करने व्यंग्य का प्रमुख धर्म है। खूबियों के बखान के लिए अन्य कई विधाएं उपलब्ध हैं। हालांकि व्यंग्य मात्र सत्ता विरोध ही नहीं। समाज की अनेक विडम्बनाएं,आचरण इसके लक्ष्य होते हैं और विषय बने हैं। खूब लिखा भी जा रहा। इस पर भी व्यापकता से सहिष्णुता से विचार होना चाहिए। यदि इस शब्द को मन और आचरण में खारिज न किया जाए।🙏🏼💐



Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>