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यादों के दरीचे / प्रभा शंकर चतुर्वेदी

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:यादों के दरीचे /  प्रभा शंकर चतुर्वेदी 

   (1960-2018)

‘‘जिन्दगी के अनेक लम्हे, जो वक्त की कोख से जन्मे और अनंत में खो गए। यदा-कदा, उसी अनंत से खुलता है, याद का एक दरीचा और कभी कभी इन दरीचों के खुलने का एक अंतहीन सिलसिला चल पड़ता है।’’ मेरी खुशफहमी है कि वरिष्ठ व्यंग्यकार साथी श्री बुलाकी शर्मा ने इस पुस्तक को प्रकाशक से मंगवाया और आद्योपांत पढा तथा इसके तीन अंश व्यंग्यशाला में प्रस्तुत किए। इस किताब की कुछ प्रतियां और मित्रों को भेजनी थी किन्तु उसी बीच दूसरा संस्करण भी आउट ऑफ स्टॉक हो गया। तीसरा संस्करण संभवतः हस्तलिपि फांट में आएगा। डायमंड बुक्स की पत्रिका में प्रखर समालोचक श्री एम.एम. मित्रा ने इसका एक संस्मरण- ‘जब, मैंने अपने अपहरण का समाचार पढा’ को प्रकाशित किया था। मैं इन दोनों का आभारी हूं। चुनांचे, पेश है तीनों अंशों की साफ्ट कॉपी-

[12/19, 11:26] +91 94140 45857: दरीचा- वर्ष 1977


इस दरीचे से मुझे दृष्टिगत् हो रहा है, एक अदभुत् दृश्य। एक तोंदियल मंत्री हैं। उनके संग भारी भरकम लवाजमा है। छुटभैये नेता हैं और वे सब एक गरीब के घर नाश्ता कर रहे हैं। 

1977 की उस घटना ने मुझे व्यंग्य के लिए विषय दिया। यद्यपि, व्यंग्य की वह किताब उस घटना के बीस वर्ष बाद अर्थात् 1997 में आयी किन्तु उसका ताना-बाना तो उसी नज़ारे को देख कर बुना गया था। लिहाजा, उस घटना का संक्षिप्त वर्णन करता हूं। आपातकाल के बाद हुए चुनावों में इंदिराजी बुरी प्रकार परास्त हुई थीं और देश में जनता पार्टी शासित हो गयी थी। राजस्थान में भी उसी पार्टी की सरकार बनी। एक दिन राजस्थान के तत्कालीन विद्युत मंत्री (नाम नहीं दे रहा हूं) गंगापुर के दौरे पर आए। उन्होंने यह इच्छा जतायी कि वे इस कस्बे के किसी ऐसे गरीब के घर भोजन करेंगे जो आपातकाल में जेल गया हो। उनकी इच्छा की पालना हेतु एक टाइपिस्ट (उस नाम को भी गुप्त रखूंगा) का चयन किया गया जो कि उन दिनों जेल गया था। उसकी दुकान कचहरी रोड तिराहे पर थी। हुआ यूं कि उस टाइपिस्ट के पास इतना धन तो था नहीं कि वह मंत्रीजी और उनके लवाजमे को भोजन करा पाता। लिहाजा, बात नाश्ते पर तय हुई तथा खाना एक सेठजी के घर रख लिया गया। यूं भी सेठजी पार्टी को तगड़ा चंदा देते थे, तो भला, ऐसे दानवीर के प्रस्ताव को कैसे नज़र अंदाज किया जाता।

टाइपिस्ट महोदय तो नाश्ते की बात पर ही फूले नहीं समा रहे थे। चुनांचे, उन महोदय ने पत्रकारों को भी नाश्ते का निमंत्रण दे दिया। नाश्ते में क्या हुआ इसकी बात बाद में करेंगे, पहले यह जान लीजिए कि वह गरीब जेल क्यों गया? दरअसल, इमर्जेंसी के बाद जो नेता भूमिगत हुए थे, वे विरोध स्वरूप कुछ परचे छपवाते थे और उन्हें गुपचुप तरीके से जनता में वितरित कराते थे। चूंकि अखबारों पर सेंसरशिप लागू थी अतः अपनी बात संप्रेषित करने का वही एक मात्र माध्यम था। इसके अलावा कुछ लोग टाइपराइटर के जरिए स्टेंसिल कटवा कर, सॉइक्लोस्टाइल्ड प्रतियां बांट देते थे। पुलिस प्रिंटिंग प्रेस या टाइपिस्टों के यहां छापा मारकर ऐसी सामग्री का स्त्रोत पता लगाती रहती थी। इस सिलसिले में कुछ गिरफ्तारियां भी हुई थीं।

ऐसे भय पूर्ण माहौल में पर्चे छापना या स्टंेसिल काटना, सर पर कफन बांधने के समान था किन्तु उस गरीब ने अपनी रोजी-रोटी के लिए वह कफन भी बांध लिया। पर्चे छपे और बंटे तो पुलिस ने पता लगाने के लिए टाइपिस्टों की दुकानों पर छापा मारा। उस टाइपिस्ट की दुकान पर भी खाना तलाशी ली गयी किन्तु कोई सबूत हाथ न आया। पुलिस दल लौट ही रहा था कि हवा का एक झोंका आया और कटा हुआ स्टेंसिल अपनी कहानी बयां करता हुआ सिपाहियों के कदमों में आ गिरा। टाइपिस्ट महोदय ने पुलिस को आते देख, कदाचित हड़बड़ी में उसे टांड पर फेंका होगा लेकिन पवन बैरी हो गया। बस, फिर क्या था, बंदा गया जेल की सलाखों के पीछे।

 इस प्रकार वह गरीब मंत्री जी की मेहमान नवाजी का योग्यताधारी सिद्ध हुआ। बहरहाल, नाश्ते का कार्यक्रम संपन्न हुआ। मंत्री महोदय ने काजू का कोई एकाध टुकड़ा ही कुतरा होगा? दरअसल, उन्हें लोगों से बात करने और मुस्करा कर फोटो खिंचाने से ही फुरसत नहीं थी, लेकिन मंत्रीजी के पिछलग्गुओं और हम जैसे पत्रकारों ने माल खींचने में कोई कोताही नहीं बरती। उस समय बोले गए मेरे एक पत्रकार साथी का वह वाक्य मुझे आज तक याद है, ‘‘इधर उधर क्या देख रहे हो गुरू, पहले माल खेंचो....।’’ किन्तु, मेरे मन में तो माल की उस खेंचा-खेंची को देखते हुए एक कहानी उपज रही थी। ठीक दस साल बाद उस कहानी ने व्यंग्य कथा का रूप अख्तियार किया और 1987 में वह सरिता में छपी। शीर्षक था-‘‘नाश्ता मंत्री का, गरीब के घर’’। उस वक्त उसे पाठकों का अच्छा रेसपोंस मिला। सरिता ने बीस वर्ष के बाद अर्थात् सन् 2007 में उस व्यंग्य कथा का पुनर्प्रकाशन किया। वह कथा पंजाबी भाषा में अनुवाद होकर एक पंजाबी की एक पत्रिका में भी छपी और अंततः इसने मेरी पुस्तक के शीर्ष के तौर पर स्थान पाया। अलबत्ता, खा-पीकर मंत्रीजी का काफिला आगे बढ गया। यत्र-तत्र बिखरी सामग्री को गरीब निर्निमेष दृष्टि से देख रहा था। कवि नीरज के शब्दों में बयान करें तो ‘काफिला गुजर गया, गुबार देखते रहे’ वाले हालात थे। राज्य स्तर के समाचार पत्रों में मंत्रीजी का खूब बखान हुआ, फोटोएं भी छपीं। दीनवत्सल के रूप में मंत्रीवर की खूब वाह वाही हुई। पर, उस दीन को क्या मिला, उसका नाम तो अखबारों में सूक्ष्मदर्शी से ढूंढने पर भी नाम नहीं मिल रहा था। हां, नाश्ते और उसकी व्यवस्था का भारी भरकम व्यय अवश्य ही उसके मत्थे आ पड़ा था।

[12/19, 11:28] +91 94140 45857: दरीचा- वर्ष 1981


इस मोखे से दिखाई देता एक भूत। वह गंगापुर सिटी के एक बाजार में भटक रहा है कि एक महिला उसके बिल्कुल सामने आ गयी। उस भूत के चेहरे को देखकर वह, वहीं गश खाकर गिर पड़ी। बाजार में हडकंप मच गया। भूत भी वहीं ठिठक कर खड़ा हो गया। मैंने वह समाचार सुना। तत्क्षण, अपना कैमरा और डायरी ली और निकल पड़ा उस भूत से भेंट करने। एक अद्भुत साक्षात्कार था, वह। पहले मैंने बाजार में चलते हुए उस भूत का चित्र खींचा फिर, उसे रोककर, बातचीत की। भूत के चित्र के साथ मेरा एक लेख नवभारत टाइम्स में दिनांक 14 जुलाई 1982 को प्रकाशित हुआ था। उस लेख ने अनेक भ्रांतियों का निवारण कर दिया। किस प्रकार? आइए इसे जानते हैं-

वस्तुतः, वह एक भिखारी था। उसका उसका नाम था, अन्नाराम मेघवाल। वह बाड़मेर जिले की गिडा की ढाणी का रहने वाला था। उसका चेहरा बड़ा अजीबोगरीब था। उसे, अगर झुरपुटे यानी कम रोशनी में देखें तो भूत होने का अहसास होना संभव था। कमजोर दिल की उस महिला के साथ भी कदाचित यही हुआ। दरअसल, अन्नाराम के चेहरे का मांस बढकर, लोथड़ों के रूप में लटक गया था। पलकों ने बढकर दोनों आंखों का ढंक लिया था। कान बढकर लटक गए थे। गालों की चमड़ी भी लटकी हुई थी। नाक लोथड़ा होकर मुंह पर आ गयी थी। ऊपरी ओठ ने बढकर, निचले ओठ को कवर कर लिया था। जब, वह खाना खाता था तो एक हाथ से अपनी भौंडी नाक तथा बढे हुए ओठ को ऊंचा करता तथा दूसरे हाथ से खाना खाता था। उसे थोड़ा थोड़ा दिखाई भी देता था, एक छिद्र से जिसे, उसने एक शल्य क्रिया से अपनी पलकों के एक कोने पर बनवा लिया था। वह लाठी के सहारे गंगापुर के बाजारों में भीख मांगता घूम रहा था। जब, बोलता तो उसका उच्चारण स्पष्ट नहीं होता था। संभवतः, उसकी जीभ भी अनियंत्रित रूप से बढ गयी होगी? मुझे लगा कि उसे शायद चेहरे का कैंसर हो गया था जिसके परिणामस्वरूप उसकी मांस पेशियां असामान्य रूप से बढ गयी थीं। इस बात की पुष्टि उस वक्त हो गयी जब मैंने उससे कहा कि उसे कैंसर टाइप की कोई बीमारी हो गयी है तो उसने अपने झोले से एक मेडीकल रिपोर्ट निकाल कर मुझे दिखाई। अन्नाराम को लायपोमा नामक एक चेहरे का दुर्लभ कैंसर था।

[12/19, 11:29] +91 94140 45857: दरीचा - वर्ष 2011


      चतुर्वेदीजी ने अपनी पुस्तक में विराम बाबा के नाम से चर्चित मुस्लिम पहलवान और करौली नरेश से उनकी कुश्ती होने का एक और रोचक वाकया प्रस्तुत किया है। लिहाजा, मैं, उस दास्तान को प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। करीब दो सौ वर्ष पूर्व संपूर्ण जगर क्षेत्र में उस पहलवान का बड़ा नाम था। प्रत्येक कुश्ती में वह अजेय रहता। एक बार करौली का राज पहलवान हिण्डौन आया और उसने विराम को मल्ल युद्ध की चुनौती दी। बाबा ने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि एक भारी शिला को अपने कंधे पर लादा तथा पास खड़े इमली के एक वृक्ष की दो फाड़ों के बीच फंसा दिया। बाबा विराम ने करौली के पहलवान को चुनौती दी कि यदि वह उस पत्थर को पेड़ से निकाल दे तो वे अपनी हार बिना लड़े स्वीकार कर लेंगे। पुस्तक में जिक्र है कि करौली के पहलवान ने उस चुनौती को स्वीकार किये बिना ही अपनी पराजय मान ली।

      जब पहलवान ने अपनी हार की कहानी करौली दरबार में बयान की तो राजा को बड़ा क्रोध आया। बड़े शर्म की बात थी कि उनका पहलवान बिना लड़े हार मान आया। चूंकि राजा भी नित अखाड़ेबाजी का अभ्यास करते थे। अतः उन्होंने हिण्डौन के पहलवान को अपनी चुनौती भेज दी। निश्चित समय पर करौली में दोनों की कुश्ती प्रारंभ हुई। राजा का सम्मान करते हुए, बाबा विराम ने दिखावे की कुश्ती की। करौली नरेश समझ गए कि उन्हें सामने देख, हिण्डौन का पहलवान अपनी ताकत जान बूझकर नहीं दिखा रहा है। तब, उन्होंने विराम को अभय दिया कि यदि वे हार गए तो भी क्रोधित नहीं होंगे, अतः तुम निर्भीक होकर कुश्ती लड़ो।

      यह सुनकर, अगले ही क्षण बाबा ने राजा को पटखनी दे दी। राजा ने खुश होकर बाबा विराम को अपना राज पहलवान नियुक्त करने की घोषणा कर दी तथा स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल भी भेंट किया। किन्तु, राजा की हार से रानी साहिबा बौखला गयीं। रानी ने उस पहलवान को पान का एक बीड़ा भिजवाया। उस तजुर्बेकार पहलवान ने रानी की मंशा भांप ली किन्तु रानी साहिबा का सम्मान करते हुए, गिलौरी को हाथ में लेकर बाबा बोले, ‘‘महाराज! मैं यह बीड़ा खा लेता हूं लेकिन मेरी एक शर्त है।’’

      राजा ने पूछा, ‘‘कैसी शर्त?’’

      पान चबाते हुए, विराम बाबा बोले, ‘‘आपसे प्रार्थना है कि मेरी मौत के बाद मेरी लाश को हिण्डौन में दफनाया जाए।’’ किताब में लिखा है कि प्रतिशोध स्वरूप, रानी ने उस पान में शेर की मूंछ के बाल रखवा दिए थे जो जहर समान थे और उससे कुछ ही देर में उस पहलवान की मृत्यु हो गयी। हिण्डौन में एक जीर्ण-शीर्ण छतरी को उसी विराम बाबा की छतरी बताया जाता है।

[12/19, 11:48] +91 98339 20630: *प्रभशंकर जी* की डायरी के तीनों पृष्ठ पढ़े। इनमें एक टायपिस्ट के घर मंत्रीजी के जलपान वाले किस्से में चुटकियां हैं। दूसरा वाला किस्सा लिपोमा से ग्रसित भिखारी की करुण गाथा है। तीसरे पन्ने में राजा और पहलवान वाला दो सौ साल पुराना किस्सा सरस और पठनीय है।

कुल मिलाकर  इस डायरी से गुजरना अतीत के सुन्दर किस्सों/ प्रसंगों/ पात्रों से रूबरू होना है।  प्रभाषणकर जी की लेखन शैली का तो मैं मुरीद हूं।

उन्हें बहुत बधाई

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