प्याज की खुशबू संपादक जी को इतनी देर से अनुभूत हुई कि आज के दिन पिछले बरस पहले भेजा गया यह व्यंग्य कल छपा था। उन दिनों प्याज महाराज आसमां का मुंह चूमने की कोशिश में थे और लेखक दिन - ओ - रात कलम लेकर उनके पीछे पड़े हुए थे। बहरहाल, रात को संपादक महोदय से कतरन प्राप्त हुई👇
लग न जाए, प्याज की खुशबू पर टैक्स
मैं बाजार से गुजर रहा था कि कहीं से प्याज के तलने की सौंधी गंध आती प्रतीत हुई। मैं ठिठक गया। कई माह बाद वह खुशबु बाजार में तारी हुई थी। दिशा बोध करने के लिए, अपनी ज्ञानेंद्रियों को उस महकती महक पर केन्द्रित किया तो पाया कि सड़क के दूसरे किनारे पर खड़े एक कचौड़ी-पकौड़ी के ठेले से वह वातावरण में बिखर रही थी। मैं, मंत्रमुग्ध सा उस ओर चलता चला गया। कुछ लोग उस ठेले के इर्द-गिर्द घेरा डाले खड़े थे। प्याज की पकौड़ियों के सिकने की अंतिम अवस्था चल रही थी।
उस दिन मौसम बड़ा बेईमान था। कोहरे में लिथड़ा हुआ दिन था। सर्द बयार बदन भेदे जा रही थी। कड़ाही के नीचे, सिगड़ी से लपलपाती हुई लपटों की उष्मा और प्याज की अलौकिक सुगंध, स्वर्गिक आनंदानुभूति दे रही थी। कड़ाही से उतार कर थाल में पकौड़िया डालकर, विक्रेता लालायित लोगों को तौलने लगा। जब, सब निबट गए तो उसने मुझसे पूछा, ‘‘आपको कितना दूं, बाबू?’’
मैं हकबका गया, ‘‘नहीं भाई....मुझे नहीं लेनी।’’
‘‘फिर यहां क्या तेल लेने खड़े हो? तेल में नया मसाला पूरते हुए वह भुनभुना गया।
‘‘मैं तो प्याज की खुशबू सूंघ कर रूक गया था। बहुत दिनों बाद बाजार में पकौड़ियां तली गयीं है।’’
वह हिकारत से बोला, ‘‘अपने रस्ते जाओ, भाई! सरकार को पता लग गया तो वह प्याज की खुशबू पर जी.एस.टी. लगा देगी। मैं गरीब कैसे चुका पाऊंगा?’’ मैं वहां से चल दिया। थोड़ा आगे एक ठेला और खड़ा था लेकिन उसकी कड़ाही ठंडी थी। मैंने पूछा, ‘‘तुम नहीं तल रहे प्याज की पकौड़िया?’’
वह बेचारगी से बोला, ‘‘प्याज के भाव आसमान छू रहे हैं, साहब! कैसे तलें?’’ मैंने कहा, ‘‘वो जो नीम के नीचे ठेलेवाला है, वह तो बड़े मजे से बना रहा है।’’
पकौड़ीवाला फुसफुसा कर कहने लगा, ‘‘वह एक नेताजी का पिट्ठू है। कल शहर में बढती कीमतों के विरोध में प्याज की माला पहन कर जो जुलूस निकला था, उसका कर्त्ताधर्त्ता वही था। उसी में से दस-पंद्रह किलो मार लिए लगता है।’’
पकौड़ी विक्रेता की माला प्रदर्शन वाली बात मुझे 1980 में ले गयी। 1977 में मुंह के बल गिरी कांग्रेस को 1980 में प्याज ने संजीवनी बूटी पिला दी थी। तब, पहली बार सांसद सी.एस. स्टीफन प्याज की माला पहन कर संसद आए थे। उसके बाद अनेक दिनों तक अनेक सांसद भी माला पहन कर आए। इंदिराजी ने सड़कों पर प्याज की माला पहन कर मार्च किया था। तब, राजनीतिक विशलेषकों ने कहा था कि जनता पार्टी की हवा निकालने में प्याज की भी अहम भूमिका रही है।
1998 में प्याज ने फिर कीमतें उछलीं तो विपक्षी दल भी उछल पड़े। महाराष्ट् के मुख्यमंत्री को प्याज के तोहफे भेंट किए गए और जसपाल भट्टी की टीम ने प्याज की माला तथा प्याज के अन्य श्रृंगार कर ‘फैशन परेड’’ नाम हास्य शो किया।
दरअसल, प्याज कभी सरकारों की प्राथमिकता रहा ही नहीं। कृषि और वित्त मंत्रालय ने इसे सदा कमतर करके ही आंका। इसको समर्थन मूल्य का समर्थन भी नहीं मिला। यह बेचारगी से स्टोरेज में खराब होता रहा। मंहगाई सूचकांक के स्तर पर इसका शेयर एक प्रतिशत से भी कम निर्धारित किया गया। 1980 की बात करें तो उस वक्त सरकार ने तर्क दिया था कि प्याज मंहगा हुआ तो क्या चीनी तो सस्ती है। वित्तमंत्री महोदय ने भी अजीबोगरीब बात कही थी, ‘‘प्याज स्वास्थ्य के लिए कोई बहुत जरूरी चीज नहीं है।’’ तो क्या सरकार की दृष्टि में शक्कर स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी थी। हाल ही में वित्तमंत्री महोदया ने भी इसी प्रकार का बयान दिया कि मैं और मेरा परिवार प्याज नहीं खाते। मानों कि वे भी 1980 की बात को पुष्ट कर रही हों?
मगर, उस गरीब से कोई पूछे कि दो सूखी रोटियों को एक सुड़ौल प्याज साथ खाकर कितने सुकून से अपना दिन गुजार दिया करता था।