प्रतिदिन/आलोक तोमर / जो एक साथ गुलाम भी हैं, आजाद भी
जब गुलाम नबी आजाद को साझे की सत्ता में तीन साल के लिए जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री बना कर भेजा गया था तो कांग्रेस में बहुत सारे लोग नाराज थे। कुछ गुलाम नबी से जलने वाले भी थे मगर ज्यादातर का कहना था कि कश्मीर में हालात और बिगड़ने वाले हैं, आतंकवाद और भड़कने वाला है और ऐसे में कांग्रेस को सत्ता अपने हाथ में ले कर कलंक का रास्ता नहीं खोजना चाहिए। फिर भी गुलाम नबी आजाद कश्मीर के मुख्यमंत्री बने और कई दूसरे मुख्यमंत्रियों से बेहतर काम किया। बाद में साथी पार्टी पीडीपी के साथ और खास तौर पर शादी नहीं होने के कारण पूरी दुनिया से नाराज चल रही महबूबा मुफ्ती से उनकी नहीं पटी और यह झगड़ा आखिरकार इस रिश्ते को ले डूबा।
गुलाम नबी आजाद कांग्रेस की विचित्रताओं में भी काफी विचित्र नेताओं में से गिने जा सकते है। जम्मू के पास एक गांव के रहने वाले हैं और कश्मीर में हालांकि जम्मू को अपना हिस्सा नहीं माना जाता फिर भी पूरे कश्मीर के नेता हैं। राज्यसभा और लोकसभा के लिए अलग अलग राज्यों से निर्वाचित हो कर आते रहे हैं। यहां तक कि महाराष्ट्र के रामटेक से भी लोकसभा के सदस्य रह चुके हैं।
पटना में पराए के बाद कांग्रेस अभी थकी हुई सांसे ले ही रही थी कि आंध्र प्रदेश का राजनैतिक संकट सामने आ गया। जगन रेड्डी सहसा अतिवादी से उग्रवादी हो गए और उनकी राजनीति के निशाने पर सोनिया और राहुल गांधी दोनों आ गए। हालात बदलने के लिए रोशैया की जगह एक और रेड्डी के तौर पर किरण रेड्डी को लाया गया और हैदराबाद में दंगा शुरू हो गया।
आंध्र प्रदेश के प्रभारी वीरप्पा मोइली थे और दिल्ली के आंध्र भवन में आ कर, दही भात और बड़े खा कर राजनीति के लिए निकलने वाले सब उनके घर के आस पास जमा होते थे और जब उनसे हालत नहीं सुधर रही थी तो सोनिया गांधी ने अहमद पटेल को भी इस अभियान में शामिल किया। मगर जगन रेड्डी किसी के पल्ले नहीं पड़ रहे थे और जो रोशैया तीन महीने तक मुख्यमंत्री की शपथ लेने के बावजूद मुख्यमंत्री के कमरे में नहीं बैठे थे वे भी बागी होते नजर आ रहे थे। तब सोनिया गांधी ने इस उम्र में भी कांग्रेस के बजरंग बली माने जाने वाले प्रणब मुखर्जी को काम पर लगाया।
ऐसा तो कोई नहीं कहेगा कि प्रणब मुखर्जी इन दिनों संकट मोचक की मुद्रा में नहीं हैं लेकिन यह सब जानते हैं कि आंध्र प्रदेश की सारी राजनैतिक आफतों से इन दिनों गुलाम नबी आजाद उलझ रहे हैं। गुलाम अली ही सोनिया गांधी को हैदराबाद की राजनीति से अवगत कराते हैं और पिछले काफी समय से दस जनपथ में उनके जाने का औसत भी कई गुना बढ़ गया है।
भाई लोगों को तकलीफ होना स्वाभाविक है। जो दो लोग अचानक सोनिया गांधी के अंतरंग दरबार मंडल से बाहर हुए थे उनमें से एक गुलाम नबी आजाद और दूसरी अबिका सोनी थी। अंबिका सोनी को खैर अब तक उस अंतरंग वृत में नहीं आ पाई लेकिन गुलाम नबी आजाद सोनिया गांधी की किचन कैबिनेट में शामिल हो गए हैं इसमें किसी को कोई शंका नहीं है। यह एक ऐसा अविश्वसनीय घटनाक्रम है जिस पर शुरू में तो खुद आजाद भी विश्वास नहीं कर पा रहे थे। मगर कांग्रेस के नेता इसे सोनिया गांधी की नजर से इस बात का प्रतीक मान कर भी चल रहे है कि पार्टी का परंपरागत ढांचा हमेशा काम नहीं आता।
केंद्रीय मंत्री होने के बावजूद गुलाम नबी आजाद पार्टी के महासचिव बने हुए हैं और एक व्यक्ति एक पद का फैसला जब होगा तब अकेले आजाद को पार्टी या सरकार नहीं छोड़नी पड़ेगी। वे खुद कहते हैं कि सरकार से ज्यादा उन्हें पार्टी में रहना पसंद हैं। इसके पहले आजाद संसदीय कार्यमंत्री के तौर पर अपने डंके बजवा चुके हैं और आज भी कांग्रेस के अलावा दूसरे राजनैतिक दलों से उनके काफी अंतरंग संबंध हैं। यह शिकायत नाजायज नहीं हैं कि आजाद के पास खुद अपने मंत्रालय के लिए समय नहीं है। वीरप्पा मोइली आहत है क्योंकि आधिकारिक रूप से आंध्र प्रदेश की कक्षा के हेडमास्टर वे ही है मगर फिलहाल तो उन्हें क्लास में घुसने की अनुमति नहीं है। आजाद से मंत्रालय को ले कर उनका झगड़ा हो चुका है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि मनमोहन सिंह को बहुत सारे लोगों ने समझाया है कि अगर गुलाम नबी आजाद संसदीय कार्य मंत्री होते तो टू जी और राजा को ले कर जो संगीन किस्म का संसदीय हंगामा चला वह टाला जा सकता था या रोका जा सकता था। पहले भी आजाद इस तरह के झंझटों से आसानी से और एक हद तक सुरेश पचौरी की मदद से पार पाते रहे हैं। हो सकता है कि अनौपचारिक रूप से यह जिम्मेदारी उन्हें फिर मिल जाए।
नए साल के पहले महीने में सोनिया गांधी कांग्रेस का पुनर्गठन करना चाहती है और खास तौर पर कांग्रेस कार्यकारिणी को और अधिक ताकतवर बनाना चाहती है। इसके लिए जरूरी है कि कार्यकारिणी निर्णायक मंडल रहे और शंकर जी की बारात न बन जाए, कार्यकारिणी का आकार छोटा करना पड़ेगा। इस चक्कर में बड़ों बड़ों के सिर कलम होंगे। अभी जो दिख रहा है उससे जाहिर है कि गुलाम नबी आजाद कार्यकारिणी में जरूर होंगे चाहे वह कितनी भी सुक्ष्म क्यों न हो?
फिलहाल संसदीय मामले और संसद से जुड़ी राजनीति के लिए प्रणब मुखर्जी है, उनका साथ देते रहने के लिए अहमद पटेल हैं और जब राजनैतिक आफते आती है तो दिग्विजय सिंह के अलावा और किसी महासचिव को नहीं पूछा जाता। वी के हरि प्रसाद, जर्नादन द्विवेदी, मोहसिना किदवई, मुकुल वासनिक, वी नारायण स्वामी और यहां तक राहुल गांधी का भी राजनैतिक प्रबंधन में कोई ठिकाना नहीं होता।
जहां तक दिग्विजय सिंह की बात है तो अचानक बढ़ी उनका मुखरता से उनसे नाराज लोगों की संख्या कम नहीं हैं। पृथ्वीराज चव्हाण खामोश रह कर बहुत सारा प्रबंधन करते थे मगर मुंबई में ही उनकी जान की इतनी आफते है कि वे क्या करे और क्या न करें, यह कोई नहीं समझ पा रहा। वैसे मनमोहन सिंह अब भी पृथ्वी राज चव्हाण से फोन पर ही राय मशविरा करते रहते हैं और मदद मिलती रहती है लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र आखिर रिमोट कंट्रोल से तो नहीं चल सकता। इसके लिए तो ऐसे ही लोग चाहिए जो गुलाम और आजाद एक साथ हो।