प्रतिदिन/आलोक तोमर /असली पत्रकारिता कौन
कर रहा है?
इंटरनेट पर एक विज्ञापन निकला है जिसमें मुंबई से निकलने वाली
एक हिंदी पत्रिका के लिए दिल्ली प्रतिनिधि की मांग की गई है। इस पद के लिए आवेदन
की कोई अंतिम तिथि नहीं है। इस पत्रिका का नाम है ''अपने आप''। पद सहायक संपादक
का होगा और मासिक पत्रिका के लिए इस सहायक संपादक को मानव तस्करी और वेश्यावृत्ति
में धकेल दी गई महिलाओं के अनुभवों को पाठको तक पहुंचने वाली भाषा में लिखना
पड़ेगा।
हम और आप सब जानते हैं कि दुनिया के सबसे पुराने धंधे देह
व्यापार में शामिल कर दी गई लड़कियों और महिलाओ के लिए बहुत सारे सरकारी और गैर
सरकारी, विदेशों से कोष पाने वाले और फोकट वाले भी संगठन बने है लेकिन जिसे लाल
बत्ती इलाका कहते हैं वह देश के लगभग हर शहर में किसी न किसी रूप में मौजूद है। आम
तौर पर बंगाल, नेपाल और बिहार से ये लड़कियां कभी शादी तो कभी नौकरी के बहाने लालच
दे कर लाई जाती है और कोठो पर बिठा दी जाती है। इन कोठो का सुरक्षा तंत्र
अंडरवर्ल्ड से भी ज्यादा भयानक होता है इसलिए इन लड़कियों की आवाज बाहर तक नहीं
पहुंचती।
पता नहीं कितने लोग जानते हैं कि ऐसी ही महिलाओं के लिए, उनके
दुख, संकट और शोषण को दूर दूर तक पहुंचाने के लिए और खास तौर पर समाज को सचेत करने
के लिए अच्छी खासी और सफल पत्रकारिता कर रही रुचिरा गुप्ता ने 2006 में गांधी
जयंती पर अपने आप नाम की संस्था बनाई थी। रुचिरा तब भी मानती थी और आज भी मानती है
कि देह व्यापार महिलाआें के खिलाफ एक हिंसा है और इस हिंसा से अहिंसा के सिद्वांत
सहित लड़ा जा सकता है।
रुचिरा गुप्ता पत्रकार थी और उन्हें मालूम था कि देह व्यापार
के नाम पर जो कहानियां कहीं जाती है और किस्से सुनाए जाते है उन पर लोग आसानी से
भरोसा नहीं करते या उन्होंने इन घटनाआें को स्वीकार कर लिया है। उन तक असहाय और
बेसहारा लड़कियाें के साथ हो रही हिंसा की खबर पहुंचाने के लिए 2008 में रुचिरा ने
रेड लाइट डिस्पेच के नाम से एक पत्रिका भी शुरू की और चूकि ये लड़कियां हिंदी,
बांग्ला इलाकों से आती थी और दुर्भाग्य से भारत में नीतियां तय करने का ठेका
अंग्रेजी बोलने और पढ़ने वालों ने ले रखा है, इसलिए पत्रिका का अंग्रेजी संस्करण भी
निकाला गया।
साधन सीमित है और संस्था को पत्रिका निकालने से पहले स्त्री
मुक्ति के अपने काम काज का ज्यादा ध्यान है इसलिए प्रचार और विज्ञापन पर पैसा खर्च
नहीं किया जाता फिर भी इस पत्रिका ने एक आधार बनाया है, एक चेतना जगाई है और खास
तौर पर देह व्यापार में अभिशप्त हो कर आई लड़कियों और महिलाओं के लिए यह आशा की एक
किरण बन कर आई है। बहुत सारी महिलाओं का पुनर्वास हुआ है और कम से कम एक उम्मीद तो
जागी है कि कहीं कोई मंच हैं जहां हम अपनी आवाज उठा सकते हैं।
सामुदायिक पत्रकारिता और खास तौर पर सकारात्मक और साकार
निशाना साध कर की जा रही पत्रकारिता का महत्व समकालीन समाज में हमारे देश में बहुत
नहीं समझा जा रहा मगर सच यह है कि सूचनाएं देने के अलावा दिशा देने का जो काम
पत्रकारिता को करना चाहिए वह अब कम हो रहा है और इसके कारण सिर्फ यह नहीं है कि
लोगों की नीयत खराब है। इस पत्रकारिता में कमाई नहीं हैं और एनजीओ शैली की
पत्रकारिता बहुत लंबी नहीं चल सकती।
महात्मा गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी, विष्णु पराडकर अनाड़ी
नहीं थे जो उन्होंने आंदोलन खड़ा करने के लिए पत्रिकाएं और अखबार निकाले। माखन लाल
चतुर्वेदी खंडवा से जब कर्मवीर निकाला करते थे तो उनका इरादा इसे पचास संस्करणों
का अखबार बना देने का नहीं था। वे जगाना चाहते थे। आजादी के बाद भी जयप्रकाश
नारायण, राम मनोहर लोहिया और काफी दिनों तक खरे समाजवादी रहे जॉर्ज फर्नांडीज ने
भी वैचारिक पत्रिकाएं निकाली और उनसे कम से कम विचार करने और विचार पर अमल करने
वालों का एक समुदाय तो तैयार हुआ है। गांधी शांति प्रतिष्ठान आज भी गांधी मार्ग
निकाल रहा है और देश भर में बहुत सारी संस्थाएं हैं जो समाज के बहुत सारे हिस्सों
में काम करती हैं, और अपने अनुभवों को ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ बांटना चाहती
है।
यह काम समाज के लिए वे पत्रिकाएं और अखबार तथा अब मीडिया के
दूसरे माध्यम ही नहीं करेंगे जो व्यावसायिक संस्थानों की ओर से उत्पाद की तर्ज पर
चलाए जा रहे है। वह उनका धंधा हैं और जब तक वे काला धन नहीं बटोर रहे और तस्करी
नहीं कर रहे तब तक उन पर अंगुली उठाने का कोई कारण नहीं बनता है मगर सामुदायिक
पत्रकारिता का जो समीकरण है उसे भी जीवित रखना बहुत जरूरी है वरना समाज में गंभीर
विमर्श की बजाय लोग एक दूसरे से यही पूछते रह जाएंगे कि उसकी कमीज मेरी कमीज से
सफेद क्यों?
यहां वैकल्पिक पत्रकारिता की बात नहीं की जा रही। यहां नए
मीडिया की बात भी नहीं हो रही। यहां बात सिर्फ सरोकार वाली अभिव्यक्ति की हो रही
है। सरोकार इतने है और उन्हें निराकार मान कर चलते रहने से समाज का पूरा ढांचा ही
ध्वस्त हो जाएगा और इस हिसाब से गरीबी से ले कर बेरोजगारी और कुपोषण ऐसे सैकड़ो
विषय है जो तुरंत ध्यान आकर्षित करने की अपेक्षा रखते हैं लेकिन उनके लिए मंच सुलभ
नहीं है।
ऐसी पत्रिकाएं और प्रकाशन निकालना आसान नहीं है लेकिन जरूरी
बहुत है। जब तक हम सरोकार की बात नहीं करेंगे, समाज को बदलने के लिए सिर्फ निबंध
लिखते रहेंगे तब तक उस पत्रकारिता का न कोई साध्य है और न कोई लक्ष्य। ऐसी
पत्रकारिता कर के कोई किसी पर एहसान नहीं कर रहा होगा बल्कि इस समाज में अपने होने
की और बने रहने की कीमत अदा कर रहा होगा। यह कीमत अदा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि
अगर हम विचार शून्य हो गए और टीवी पर सासो और बहुओ के बीच उलझे रह गए तो यह शून्य
पूरे समाज को विचारहीनता के निर्वात में खींच ले जाएगा।