भारतीय सिनेमा की पहली स्टार अभिनेत्री 'देविका रानी'अपने गर्म स्वभाव के चलते इन्हें 'ड्रैगन लेडी'भी कहा जाता था। जिस दौर में लड़कियों को घर से निकलने की इजाजत नहीं थी, उस दौर में उन्होंने अभिनेत्री बनकर लड़कियों के लिए नए रास्ते खोले।
'देविका रानी चौधरी'का जन्म ३० मार्च १९०८ को वाल्टेयर (विशाखापटनम) में हुआ था। वे विख्यात कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर के वंश से सम्बंधित थीं, श्री टैगोर उनके चचेरे परदादा थे। देविका रानी के पिता कर्नल एम.एन. चौधरी मद्रास के पहले 'सर्जन जनरल'थे। उनकी माता का नाम श्रीमती लीला चौधरी था। स्कूल की शिक्षा समाप्त करने के बाद १९२० के दशक के आरंभिक वर्षों में देविका रानी नाट्य शिक्षा ग्रहण करने के लिये लंदन चली गईं और वहाँ वे 'रॉयल एकेडमी आफ ड्रामेटिक आर्ट' (RADA) और रॉयल 'एकेडमी आफ म्युजिक'नामक संस्थाओं में भर्ती हो गईं। वहाँ उन्हें 'स्कालरशिप'भी प्रदान किया गया। उन्होंने 'आर्किटेक्चर', 'टेक्सटाइल'एवं 'डेकोर डिजाइन'विधाओं का भी अध्ययन किया और 'एलिजाबेथ आर्डन'में काम करने लगीं। अध्ययन काल के मध्य देविका रानी की मुलाकात हिमांशु राय से हुई। हिमांशु राय ने देविका रानी को 'लाइट ऑफ एशिया'नामक अपने पहले प्रोडक्शन के लिया सेट डिजाइनर बना लिया। सन् १९२९ में उन दोनों ने विवाह कर लिया।
विवाह के बाद हिमांशु राय को जर्मनी के प्रख्यात यू॰एफ॰ए॰ स्टुडिओ में 'ए थ्रो ऑफ डाइस'नामक फिल्म बनाने के लिये निर्माता का काम मिल गया और वे देविका के साथ जर्मनी आ गये। देविका रानी जर्मन सिनेमा से बहुत इंस्पायर्ड थीं। जर्मन एक्ट्रेस मार्लिन डीट्रिच को वो काफी फॉलो करती थीं। उनकी एक्टिंग स्टाइल की तुलना ग्रेटा गार्बो से भी की गई। जिस कारण उन्हें ‘इंडियन गार्बो’ जैसे कॉम्प्लिमेंट भी दिए गए।
हिमांशु राय ने जब वर्ष १९३३ में फ़िल्म कर्मा का निर्माण किया तो उन्होंने नायक की भूमिका स्वयं निभायी और अभिनेत्री के रूप में देविका रानी का चुनाव किया। यह किसी इंडियन द्वारा बनाई गई पहली अंग्रेजी संवादों वाली फिल्म थी। फ़िल्म में देविका रानी ने हिमांशु राय के साथ लगभग चार मिनट तक "लिप टू लिप"दृश्य देकर उस समय के समाज को अंचभित कर दिया। इसके लिए देविका रानी की काफ़ी आलोचना भी हुई और फ़िल्म को प्रतिबंधित भी किया गया। इस फ़िल्म ने अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता हासिल की और उन्हें प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया। यह यूरोप में रिलीज होने वाली अंग्रेज़ी भाषा में बनी पहली भारतीय फ़िल्म थी। जिसके लंदन में विशेष शो आयोजित किए गए और विंडसर पैलेस में शाही परिवार के लिए इसका विशेष प्रदर्शन भी किया गया।
मुंबई आकर देविका रानी और उनके पति हिमांशु राय ने मिलकर बांबे टाकीज़ स्टुडिओ की स्थापना की जो कि भारत के प्रथम फिल्म स्टुडिओं में से एक है। बांबे टाकीज़ को जर्मनी से मंगाये गये उस समय के अत्याधुनिक उकरणों से सुसज्जित किया गया। और वर्ष १९३५ में फ़िल्म 'जवानी की हवा'का निर्माण किया, देविका रानी अभिनीत यह फ़िल्म सफल रही। अशोक कुमार, लीला चिटनिस, मधुबाला (बेबी मुमताज) आदि कलाकार फ़िल्म जगत को बांबे टाकीज़ की ही देन हैं। यूसुफ ख़ान को भी 'ज्वार-भाटा'में हीरो बनाकर 'दिलीप कुमार'नाम देविका रानी ने ही दिया।
१९३६ में आई फिल्म ‘अछूत कन्या’ में देविका ने एक दलित लड़की का किरदार निभाया और खुद इसमें गाना भी गाया। इस फिल्म के बाद उन्हें ‘फर्स्ट लेडी ऑफ इंडियन स्क्रीन’ और ‘ड्रीमगर्ल’ की उपाधि भी मिली। सरोजिनी नायडू उन दिनों देविका की फ्रेंड थीं। उनके ही कहने पर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘अछूत कन्या’ देखी। फिल्म देखकर वे काफी प्रभावित हुए। उन दिनों मुंबई के गवर्नर 'सर रिचर्ड टेंपल'भी उनके फैन थे। अछूत कन्या के अलावा किस्मत, शहीद, मेला जैसी तमाम लोकप्रिय फिल्मों का निर्माण वहाँ पर हुआ। अछूत कन्या उनकी बहुचर्चित फिल्म रही है क्योंकि वह फिल्म एक अछूत कन्या और एक ब्राह्मण युवा के प्रेम प्रसंग पर आधारित थी|
सन् १९४० में हिमांशु राय का निधन हो गया। देविका रानी ने बॉम्बे टॉकीज का पूरा कार्यभार संभाला। चीफ कंट्रोलर और डायरेक्टर के नाते उन्हें स्टूडियो मैनेजमेंट से लेकर बिजनेस तक सारा काम देखना पड़ा। फिर भी उन्होंने अपने निर्देशन में बनी किसी भी फिल्म का स्तर नहीं कम होने दिया। ‘पुनर्मिलन’, ‘किस्मत’ जैसी फिल्में उसी समय की देन हैं। हालांकि एक तरफ वे स्टूडियो का कार्यभार देख रही थी, तो दूसरी तरफ उनके मन में अभिनय को लेकर भी कश्मकश चल रही थी। और बॉम्बे टाकीज़ के साथ जुड़े सशधर मुखर्जी और अशोक कुमार अलग होके फिल्मिस्तान स्टूडियो से जुड़ गए।इन्हीं दिनों जब वे दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ (१९४४) के प्रोडक्शन पर काम कर रही थीं तब सेट के डिज़ाइन के लिए उनकी मुलाकात रूसी चित्रकार स्वेतोस्लाव रॉरिक से हुई। दोनों ने एक साल बाद १९४५ में शादी कर ली और कुछ समय बाद १९५४ में बॉम्बे टॉकीज बंद कर दी। फिल्मी कॅरिअर छोड़कर कुल्लू में रहने चली गईं फिर चार साल बाद ही बेंगलुरू शिफ्ट हो गईं।
उनकी प्रमुख फ़िल्में रहीं कर्मा (१९३३) जीवन-नैया (१९३४)जवानी की हवा (१९३५) जन्मभूमि (१९३६) अछूत कन्या (१९३६) सावित्री (१९३७) जीवन प्रभात (१९३७) इज्जत (१९३७) निर्मला (१९३८) वचन (१९३८) दुर्गा (१९३९) अंजान (१९४१) पुनर्मिलन (१९४०) हमारी बात (१९४३)
देविका रानी को भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार सहित दर्जनों सम्मान मिले। फ़िल्मों से अलग होने के बाद भी वह विभिन्न कलाओं से जुड़ी रहीं। वह नेशनल एकेडमी के अलावा ललित कला अकादमी, राष्ट्रीय हस्तशिल्प बोर्ड तथा भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद जैसी संस्थाओं से संबद्ध रहीं। इसके अलावा देविका रानी फ़िल्म इंडस्ट्री की प्रथम महिला बनी जिन्हें पद्मश्री से नवाजा गया। ९ मार्च १९९४ को देविका रानी रॉरिक का निधन हो गया।
देविका भारतीय रजतपट की पहली स्थापित नायिका रहीं जो अपने युग से कहीं आगे की सोच रखने वाली अभिनेत्री थीं और उन्होंने अपनी फ़िल्मों के माध्यम से जर्जर सामाजिक रूढ़ियों और मान्यताओं को चुनौती देते हुए नए मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं को स्थापित करने का काम किया था। उनकी हर फ़िल्म को क्लासिक का दर्जा हासिल है। विषय की गहराई और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी उनकी फ़िल्मों ने अंतरराष्ट्रीय और भारतीय फ़िल्म जगत् में नए मूल्य और मानदंड स्थापित किए। हिंदी फ़िल्मों की पहली स्वप्न सुंदरी और ड्रैगन लेडी जैसे विशेषणों से अलंकृत देविका को उनकी ख़ूबसूरती, शालीनता धाराप्रवाह अंग्रेज़ी और अभिनय कौशल के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जितनी लोकप्रियता और सराहना मिली उतनी कम ही अभिनेत्रियों को नसीब हो पाती है।
स्त्रोत ~ गूगल