जल जंगल जमीन और वन्य पशुओ की तलाश में आखेंट
अकसर बड़े सांस्कृतिक प्रयत्न संसाधनों से नहीं हौसले से संभव होते हैं। फिल्म जैसी खर्चीली विधा में ऐसा खास तौर से देखा जाता है। इस क्षेत्र में संसाधनों की कमी के बावजूद केवल जज्बे और जिद से कई कलाकारों ने असाधारण कार्य किए और स्मृति में दर्ज हो गए। इसकी सबसे ताजा कड़ी के रूप में हम फिल्म आखेट की चर्चा कर सकते हैं। हिंदी फिल्म जगत के विशाल तंत्र औऱ तामझाम के बरक्स सिर्फ अपनी कला और लगन के बूते कोई फिल्म बना लेना और दर्शकों तक पहुंचा देना कोई मामूली चुनौती नहीं है।
आशुतोष पाठक और रवि बुले ने संसाधनों की कमी और अन्य बाधाओं से जूझते हुए एक सार्थक फिल्म बनाकर एक मिसाल पेश की है और इस धारणा को भी तोड़ा है कि हिंदी की साहित्यिक रचनाओं पर अच्छी फिल्में नहीं बन सकतीं। यह फिल्म हिंदी के चर्चित कथाकार कुणाल सिंह की कहानी आखेटक पर आधारित है। इस फिल्म के निर्देशक रवि बुले एक जानेमाने कहानीकार हैं लेकिन उनके भीतर एक सधा हुआ निर्देशक भी बैठा है, यह अब समझ में आया है। फिल्म देखते हुए कहीं से भी अहसास नहीं होता कि यह उनकी पहली फिल्म है। जाहिर है निर्देशकीय दृष्टि और कल्पनाशीलता केवल तकनीकी ज्ञान और प्रशिक्षण से हासिल होने वाली चीज नहीं है। रवि ने कुणाल की कहानी को एक अलग माध्यम में ढाला है और ऐसा करते हुए थोड़ी छूट भी ली है। जैसे कहानी के नेपाल बाबू युवा हैं और अविवाहित हैं, लेकिन फिल्म में नेपाल बाबू अपेक्षाकृत प्रौढ़ हैं और विवाहित हैं, लेकिन अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट। वे अपनी पत्नी से अलग शहर में रहते हैं। संभवतः नेपाल बाबू के भीतर का खालीपन और खिन्नता उनके शिकार पर निकलने और जीवन को दांव पर लगाने के उनके रवैये को बेहतर जस्टिफाई करती है। नेपाल बाबू शिकार के लिए जंगल के पास के इलाके में जाते हैं और वहां उन्हें गाइड मुर्शिद मिलता है। फिल्म मुर्शिद के जीवन की विडंबना के ही इर्द-गिर्द चलती है। मुर्शिद जंगल में बाघ पाए जाने को लेकर आश्वस्त नहीं है लेकिन वह टूरिस्टों के भीतर जंगल में बाघ निश्चित रूप से पाए जाने का भ्रम बनाए रखता है। इसके लिए वह तरह-तरह की मुद्राएं बनाता हैं। वह अपने मेहमानों से एक तरह से छल करता है, पर इसके पीछे उसकी विवशता है। टूरिस्टों के भरोसे ही उन जैसों की रोजी-रोटी चल रही है। हालात इतने भयावह हैं कि उन्हें मेहमानों को फंसाए रखने के लिए अपनी औऱतों तक का इस्तेमाल करना पड़ता है। लेकिन मुर्शिद कहीं से भी बेईमान नज़र नहीं आता बल्कि वह बेहद भोला और लाचार दिखता है और यही फिल्म की ताकत है। वह अपराधबोध से ग्रस्त है। इसलिए वह नेपाल बाबू के शिकार किए बिना लौटने पर उन्हें बख्शीश की राशि लौटाता है और सचाई बता देता है। नेपाल बाबू की शहर में खिल्ली न उड़े इसलिए वह उनके लिए बाघ की एक खाल भी खरीद कर ला देता है। लेकिन इसके पीछे उसका स्वार्थ भी है। वह लोगों में यह विश्वास बनाए चाहता है कि वाकई जंगल में बाघ हैं। पर फिल्म का एक नया मोड़ तब आता है जब नेपाल बाबू भी स्वीकार करते हैं कि उनकी बंदूक भी चलती है या नहीं, उन्हें नहीं मालूम। तब यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि कौन असल में स्वांग कर रहा है और दूसरों को या खुद को ज्यादा छल रहा है। कहानी में मुर्शिद के भाई को पागल बताया गया है पर उसके पागल होने की वजह नहीं बताई गई है। पर फिल्म में उसका पागलपन भी बाघ के प्रसंग से जुड़ा है। पागल रफीक का बाघ बनकर लोगों को डराना फिल्म को एक वृहत्तर आयाम देता है। इसी तरह दुर्गापूजा विसर्जन के दौरान नेपाल सिंह का यह भ्रम कि बाघ बने रफीक को उन्होंने मार दिया है, फिल्म में एक अद्भुत प्रभाव पैदा करता है। यह दृश्य इसकी अंतर्वस्तु को अपने तरीके से खोलता भी है।
दरअसल फिल्म में एक जानवर अदृश्य होकर मनुष्य की लालसा, भय और बेबसी को उघाड़कर दिखाता है। इस बात को एक गीत में भी कहा गया है। फिल्म के अनेक पहलुओं पर और भी बातें की जा सकती हैं। मैं मानता हूं कि एक फिल्म की सफलता की एक बड़ी कसौटी है उसका स्मृति में दर्ज होना और उसे फिर से देखने की इच्छा होना। आखेट के साथ यह बात लागू होती है। रवि बुले से उम्मीदें बढ़ गई हैं। उन्हें और उनकी पूरी टीम को बधाई।