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रवि अरोड़ा ली नजर से

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 करना क्या है /  रवि अरोड़ा


अभी अभी एक मित्र ने कल्याणी पश्चिम बंगाल में हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विशाल रैली का एक वीडियो भेजा है । इस चुनावी रैली में अपार भीड़ को देख कर मोदी जी गदगद नज़र आ रहे हैं और मंच से भीड़ को कह रहे हैं कि आपका इतनी बड़ी संख्या में आना मेरे लिये बड़े सौभाग्य की बात है । कोरोना के मामले में पाँचवे स्थान पर पहुँच चुके पश्चिम बंगाल की इस रैली में न प्रधानमंत्री ने मास्क पहन रहा है और न ही हजारों की भीड़ ने । कहना न होगा कि दो गज़ की दूरी वाला प्रधानमंत्री का डायलोग तो उनकी उपस्थिति में भी अर्थहीन दिखाई दे रहा था । सच बताऊँ तो मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आसपास चल क्या रहा है ? क्या यह चार्ली चैपलिन की हास्य फ़िल्म द ग्रेट डिकटेटर अथवा द सर्कस जैसा कुछ है या फिर त्रासदी लेखन के पितामह विलियम शैक्सपियर का नाटक हैमलेट अथवा आथेलो मेरे इर्दगिर्द खेला जा रहा है । आँखों के सामने ऐसी ऐसी भयावह त्रासदी हो रही हैं कि पूरा अस्तित्व डावाँडोल हुआ जा रहा है और कभी कभी इस त्रासदी में विद्रूपताओं का भी ऐसा दीदार हो रहा है कि रुलाई के माहौल में भी हँसी आ घेरती है । पता नहीं हम लोग हमेशा से ही इतने मूर्ख थे या हाल ही के वर्षों में हमे ऐसा बना दिया गया है अथवा मान लिया गया है । जो भी हो अपने पल्ले तो वाक़ई कुछ भी नहीं पड़ रहा । चुपचाप तमाशा देख रहे हैं और मुसीबत यह है कि टिक कर देखा भी नहीं जा रहा ।


कोरोना हर दूसरे घर में दिखाई दे रहा है मगर सरकारी आँकड़ा उतना भी नहीं जितना मेरे मोहल्ले का है । कोरोना प्रोटोकोल से ही कम से कम दस शव रोज़ हिंडन श्मशान घाट पर जलाये जा रहे हैं और सामान्य रूप से भी तीन गुना लाशें यहाँ रोज़ाना पहुँच रही हैं मगर सरकारी आँकड़ा हिलने को भी तैयार नहीं है । हमें कार में अकेले बैठने पर भी मास्क लगाना है और देश के प्रधानमंत्री-गृहमंत्री को लाखों की भीड़ में भी इसकी कोई ज़रूरत नहीं । सामान्य आदमी शादी में पचास और अंत्येष्टि में बीस से अधिक लोगों को नहीं बुला सकता मगर कुम्भ में लाखों लोगों को भी जाना हो तो कोई पाबंदी नहीं । चुनावी रैलियों के लिये तो पैसे देकर भीड़ जुटाई जा सकती है । जब दस पाँच हज़ार मरीज़ थे तब पत्ता भी खड़कने नहीं दिया और अब ढाई लाख मरीज़ का सरकारी आँकड़ा रोज का  है तो महीनों लम्बे चुनाव कराये जा रहे हैं । अस्पतालों में बेड नहीं , दवा की दुकानों पर ज़रूरी दवा नहीं , आक्सीजन और वेंटिलेटर के लिये वीवीआईपी भी धक्के खा रहे हैं मगर पूरी की पूरी केंद्र सरकार बंगाल में दीदी ओ दीदी का गीत गा रही है । श्मशान घाटों पर लम्बी लम्बी क़तारें हैं और पहली बार वहाँ टोकन बँट रहे हैं मगर सरकार नाम की चिड़िया कहाँ फुर्र है किसी को पता नहीं ।


समझ नहीं आ रहा कि जब अस्पताल बढ़ाने चाहिए थे तब कोई आदमी दाढ़ी बढ़ा रहा था । जब वैक्सींन और रेमडीसिवर हमें मिलनी चाहिये थी तब कोई महात्मा गांधी और नेलसन मंडेला बनने के चक्कर में उसे निर्यात करवा रहा था । जब अस्पतालों के लिये पैसे जुटाने चाहिये थे तब कोई मंदिर के लिये घर घर जाकर रसीद कटवा रहा था । अजब हालात हैं पब्लिक क़ोरोना से लड़ रही है और नेता चुनाव लड़ रहे हैं । बच्चे एग्ज़ाम नहीं दे सकते मगर नेता लाखों की भीड़ वाली रैलियाँ कर सकते हैं । लूट के नये अड्डों अस्पतालों को खुली छूट है । नेता अफ़सर इस डर से चुप हैं कि हमें कुछ हुआ तो यही माई-बाप होंगे । जीएसटी कलेक्शन का आँकड़ा हर महीने बताते हैं मगर प्रधान मंत्री केयर फ़ंड का कुछ पता नहीं । पता नहीं कैसा कोमेडी शो चल रहा है कि पिछले साल जो बंदा रोज़ टीवी पर आकर हमें डराता था इस साल वो ख़ुद ही निडर हुआ घूम रहा है । अजी साहब सही सही बताओ तो .. करना क्या है ?


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