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रवि अरोड़ा की नजर सेव......

 देखो एक नदी जा रही है  / रवि अरोड़ा



सोशल मीडिया पर सुबह से डॉटर्स डे के मैसेज छाए हुए हैं । इन मैसेज के बीच हौले से किसी ने नदी दिवस का भी मैसेज भेज दिया । याद आया अरे आज तो नदी दिवस भी है । हालांकि ये दिवस विवस अपने समझ में नहीं आते और मुझे अच्छी तरह पता है कि ये बाजार के टोटके भर होते हैं । पश्चिम से आई इस संस्कृति को पश्चिम ने ही नाम दिया है हॉलमार्क डे । माना जाता है कि ग्रीटिंग कार्ड बेचने वाली कंपनी हॉलमार्क ने ही ऐसे दिवसों की इजाद की थी । इस दिन कार्ड खरीदने की फुर्सत भी लोगों के पास हो इसलिए ही इतवार को ही अधिकांश ऐसे दिवस मनाए जाते हैं । इसी कड़ी में डॉटर्स डे और रिवर डे सितंबर के चौथे रविवार को मनाए जाते हैं । हो सकता है दिवसों के इन बाजारी टोटकों के आप हिमायती न हों मगर पता नहीं क्यों मुझे इनमें कोई खास खराबी नज़र नहीं आती । धर्म और सस्कृति के नाम पर यूं भी तो हजार खुराफातें हम करते ही हैं , ऐसे में दो चार दिन और ये पाखंड कर लिया तो क्या फर्क पड़ता है । 


खैर , बेटी और नदी के संदेश मिले तो न जाने क्यों मन उनके बीच तुलना सी करने लगा । हैरानी हुई कि इन दोनों के बीच समानताएं ही समानताएं हैं । सच कहूं तो एक में ऐसा कुछ भी नहीं जो दूसरी में न हो । दुनिया की तमाम संस्कृतियां नदियों के इर्द गिर्द जन्मी तो वे महिलाएं यानी बेटियां ही थीं जिन्होंने उन्हें सुरक्षित रखा । हमारी अपनी भारतीय संस्कृति में तो नदी को मां का ही दर्जा दिया गया जो स्वयं एक बेटी भी है । हम नदियों को पूजते हैं तो कन्याओं के भी पांव बघारते हैं । दोनो ही हमारे जीवन को संवारती हैं और फिर भी अनुशासित रहते हुए  युग युगांतर से अपने लक्ष्य की ओर बिना रुके बढ़ती रहती हैं । बेशक हम लोग इन दोनों के मार्ग में रोड़े अटकाते रहते हैं और उनके अस्तित्व को तरह तरह के बांध बनाकर चुनौतियां देते रहते हैं मगर फिर भी उनके प्रवाह को हम स्थाई तौर पर कभी  बाधित नही कर पाते । हां हमारी खुआफातें बढ़ें तो अपने तट तोड़ना दोनो को आता है । अब उनकी अठखेलियों को हम उनकी जीवंतता न मान कर यदि कुछ और कहने लगें तो यह उनके प्रति ज्यादती न होगी तो और क्या होगी ? दुर्भाग्य ही है कि आज के हालात दोनों के लिए अच्छे नहीं हैं । नदियां खतरे में हैं तो बेटियां भी कहां सुरक्षित हैं । अखबार रंगे रहते हैं बेटियों के प्रति अत्याचार की खबरों से । नदी भी कोई साफ सुथरी अब कहां बची ? दोनो के लिए खतरा हैं वे लोग जो उन्हें अपनी संपत्ति समझते हैं ।  दोनो के लिए उनके अपने ही खतरा हैं । वही दुश्मन हैं जो सुरक्षा का दावा करते हैं । क्या विडंबना है कि हमारी बेटियों और हमारी नदियों दोनो का भाग्य भी हूबहू एक जैसा ही है । 


बैठा हिसाब लगा रहा हूं कि कुदरत ने भी बेटियों और नदियों को एक ही पाले में क्यों रखा है ? जिन संस्कृतियों ने बेटियों की कद्र नहीं की उनको कुदरत ने नदियां भी तो नहीं दीं । जिन्होंने अपनी बेटियों का सम्मान नहीं किया उनके हिस्से नदियां भी तो मैली ही आईं । जहां जहां बेटियों के रास्ते रोक गए उन मुल्कों और संस्कृतियों के हिस्से की नदियां भी अपने महासागर तक कहां पहुंची और किसी खारे पानी की झील अथवा रेत में खुद को गर्क करती नज़र आईं ? वैसे अगर मेरी बात आपको भाषण जैसी न लगे तो आप एक प्रयोग करना । कोई नदी दिखे तो समझना किसी की बेटी है और कोई बेटी दिखे तो मन ही मन कहना देखो एक नदी जा रही है । इससे दोनो का भला होगा ।


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