Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

सरोकारों से विमुख क्यों है पत्रकारिता

$
0
0

Home» Features» 27 July 2013
 »
जब कभी पहले पत्रकार ने धरती पर कदम रखा होगा, उसके सामने एक बड़ा सवाल यह रहा होगा कि पत्रकारिता का उद्देश्य क्या है? यह भी कि वह अन्य व्यवसायों से भिन्न क्यों है? यदि आप भारतीय पत्रकारिता, विशेष कर हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास को उठा लें तो आपको बारम्बार इस बात का उल्लेख मिलेगा कि आदिकाल से ही पत्रकारिता एक जुनून और मिशन रही है। उसका उददेश्य मुनाफा कमाने की बजाय समाज को जगाने तथा उसमें नव चेतना का संचार करने का रहा है। आपको ऐसी दर्जनों मिसालें मिल जाएंगी जहां पत्रकारिता के पुरोधाओं ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर अखबार निकाला ताकि समाज सोया न रहे और जनता उसके रास्ते में आने वाले अवरोधकों के प्रति सावधान हो पाए। भारतीय पत्रकारिता इस मकसद में कामयाब भी रही है। देश को आजाद करवाने तथा आजादी के बाद नए भारत के निर्माण में उसकी खास भूमिका रही है, लोकतंत्र के प्रहरी की।
चिन्ता का विषय
वह इस मापदंड पर कितनी खरी उतरी है, इस पर भिन्न राय हो सकती है। लेकिन आज वह जिस चौराहे पर खड़ी है, वह चिन्ता का विषय हो सकता है। इनमें अपनी राह से भटक कर कुछ नए रास्तों की तरफ उसका अग्रसर होना शामिल है। इसे लेकर दो बातें साफ तौर पर कही जा सकती हैं। एक तो यह कि वह मिशन न होकर पूर्णकालिक व्यवसाय हो गई है। दूसरे यह कि उससे जुड़े पुराने मूल्य और सिध्दांत खंडित होते गए हैं। कुछ लोग इसे पुरातन पंथी नजरिया क्यों न कहें, पत्रकारिता की अनेक खूबियों के बावजूद इस कड़वे सच को नकारा नहीं जा सकता। इस पर उन लोगों को आपत्ति हो सकती है जो आधुनिकता का मुखौटा ओढ़े आज की पत्रकारिता की चकाचौंध से भ्रमित हुए दिखाई देते हैं। क्या इसका अर्थ पत्रकारिता के उद्देश्यों से भटकना नहीं है? आज की पत्रकारिता जिस तरह आम आदमी और सामाजिक सरोकारों से विमुख होकर राजनीति, अपराध, सनसनी तथा ग्लैमर की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है वह खतरे की घंटी से कम नहीं है। आज ऐसा क्यों है कि समाज के अंतिम छोर पर बैठा व्यक्ति, गांव और देहात की दुर्दशा तथा उपेक्षा और सामाजिक अपेक्षाएं पत्रकारिता का विषय नहीं बनतीं। उन्हें हाशिये पर रहने दिया जाता है। उसे समाज के उपेक्षित वर्ग के बजाय धन-कुबेरों, ट्रेड-सेंटरों तथा वातानुकूलित कक्षों में बैठ कर देश का भविष्य रचने वाले हुक्मरानों की चिन्ता ज्यादा सताती है। इस तरह के वैचारिक अवमूल्यन को आप क्या कहेंगे?
पिछले कुछ दशकों में पत्रकारिता के क्षेत्र में एक और विशेष अन्तर यह आया है कि वह अपने परंपरागत स्वरूप प्रिंट मीडिया तक सीमित न रह कर बहुआयामी हो गयी है। इस दौरान आडियो, विजुअल (दृश्य एवं श्रव्य) मीडिया तथा साइबर मीडिया भी उससे जुड़े हैं। शोशल मीडिया ने भी अपने पर फैलाए हैं। उनके लिए समाचार, सूचना तथा मनोरंजन परोसने का माध्यम भिन्न क्यों न रहे हों, उनकी जवाबदेही कम न होकर बढ़ी है। जवाबदेही का सवाल भी उसकी बरोसेमंदी से जुड़ा है। इस दौरान सूचना की क्रांति के फलस्वरूप जिस तरह सूचना के प्रवाह में तेजी आयी है, उसे देखते हुए पत्रकारिता के और प्रखर तथा धारदार होने की उम्मीद करना गलत नहीं है। संपर्क की दृष्टि से दुनिया एक वैश्विक गांव में तब्दील हुई है। ऐसे में यह देखना जरूरी है कि क्या पत्रकारिता इस बदलाव के कारण बेपटरी तो नहीं हुई। हर अवस्था में पत्रकारिता का एक ही मकदस है विकासोन्मुखी होना। इसका सीधा अर्थ उन बुनियादी मद्दों से जुड़ना है जिनका सरोकार सामाजिक विमर्श, लोकशक्ति के उदय तथा समाज के विकास एवं कल्याण से है। ऐसे में कहीं कोई संतुलन तो बिठाना ही होगा।
तेजी से बदलती परिभाषाएं
यही सवाल उसकी विषय वस्तु तथा स्तर (कंटेंट एवं क्वालिटी) को लेकर पूछे जा सकते हैं। यदि इन पहलुओं का सिलसिलेवार विश्लेषण किया जाए तो एक मिला जुला-कुछ खोया, कुछ पाया-जैसा परिणाम हाथ लगेगा। पत्रकारिता को लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ माना गया है। सवाल यह भी है कि क्या पत्रकारिता स्वयं को इस परिभाषा के अनुरूप पा रही है? संभवत: तभी पत्रकारों के लिए कहा गया है-कलम के सिपाही अगर सो गए, वतन के मसीहा वतन लूट लेंगे। ऐसा तो नहीं कि कुछ दबाव एवं प्रलोभन, जो अब तक उसके लिए वर्जित माने जा रहे थे वह किसी न किसी शक्ल में उसे प्रभावित करने लगे हैं। इस कारण पत्रकारिता के सामाजिक एजेंडे का पिछड़ना तय रहता है। यदि इस तरह की एक मिसाल खोजने चलें तो आपको ऐसे दर्जनों प्रकरण मिलेंगे, जिन्होंने पत्रकारिता को कलंकित किया है। यह अलग बात है कि इसके बावजूद मीडिया का वह ओजस्वी चेहरा भी उभरा है जिसने हजारों जोखिम उठाकर सत्य का उद्धाटित करते हुए सत्ता तथा समाज को वातावरण में विष बिखेर रहे भ्रष्टाचार नैतिक अवमूल्यन तथा सामाजिक विकृतियों के प्रति खबरदार किया है। मानना होगा कि पत्रकारिता समाज की तस्वीर बदल सकती है, बशर्ते कि उसकी भूमिका नकारात्मक न होकर रचनात्मक हो। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इस काम में उसकी कितनी और कैसी भागीदारी है। उसका एंटीना सही सिग्नल पकड़ पाता है या नहीं?
पत्रकारिता के धर्म की तुलना सत्यवादी हरिशचंद्र तथा धृतराष्ट्र को सच बयान करने वाले संजय की भूमिका से क्यों न की जाती रही हो, यह परिभाषाएं आज तेजी से बदल रही हैं। सार्वजनिक हित का स्थान निजी स्वार्थों ने लिया है। ‘मिशन’ के बजाय ‘कमीशन’ प्रधान हो रही है और सत्य के बजाय आधी हकीकत, आधा फसाना परोसा जाने लगा है। इसे मीडिया रिमिक्स भी कह सकते हैं। नए-पुराने की बेमेल खिचड़ी।
यहीं इस विसंगतियों का उल्लेख करना भारतीय पत्रकारिता की खूबियों और उपलब्धियों को कमतर आंकना नहीं अपितु उसमें आया विकृतियों की तरफ इशारा करना है। आज भी समाज को उससे कुछ और अपेक्षाएं हैं। कल तक यह कल्पना नहीं की जा सकती थी कि संपादक के नाम की संस्था माल बेचने वाले ब्रांड मैनेजरों की हेकड़ी के आगे बौनी हो जाएगी? उसकी प्रिंट लाइन के साथ मार्केट का नाम छपेगा या पेड न्यूज, एडवरटोरियल या रिस्पांस फीचर के नाम पर पत्रकारिता का सरेआम चीर हरण होगा? चेक बुक पत्रकारिता इसी पाखंड का नाम है। किसी समय प्रकाशित खबरों के आधार पर पारिश्रमिक प्राप्त कर अंशकालिक पत्रकार निहाल होते थे। अब उनमें से कुछ खबरों की जमीन तथा अपनी जमीन बेचकर दिनोंदिन लखपति हुए हैं। इसका दोष समूची पत्रकारिता के सिर नहीं मढ़ा जा सकता। आज भी कहीं न कहीं आदर्श पत्रकारिता का वर्चस्व कायम है। इसके बावजूद यह चिन्ता का प्रश्न है कि यहां वर्णित विकृतियां पत्रकारिता को कहां ले जाएंगी?
प्राथमिकता तय करनी है
ऐसे में यह पूछा जाना लाजिमी है कि पत्रकारिता को सही रास्ते पर लाने तथा उसे सही मायनों में समाजोन्मुखी या विकासोन्मुखी बनाने के लिए हमें क्या करना होगा? आदर्श पत्रकारिता को बढ़ावा देते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भले यह स्वीकार किया हो कि ‘समाचार पत्र सेवा-भाव से चलाए जाने चाहिए। समाचार पत्र में बड़ी शक्ति है, पर जैसे निरंकुश पानी का बहाव गांव के गांव डुबा देता है, और फसल बरबाद कर देता है वैसे लेखनी का निरंकुश प्रवाह विनाश करता है। यह अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से ज्यादा जहरीला साबित होता है। भीतर का अंकुश ही लाभदायक हो सकता है।’ गांधी के यह विचार आज भी प्रासंगिक हैं।
खुद पत्रकारिता को अपने भीतर से उध्दार की और अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी जो समय, समाज तथा देश के लिए हितकारी हों। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहा जाए तो सिर्फ हंगामा खड़ा करना पत्रकारिता का मकसद नहीं होना चाहिए, सूरत बदलने का प्रयास भी उतना ही जरूरी है। इसके लिए पत्रकारिता हेतु निर्धारित लिखित तथा अलिखित आचार संहिताओं पर गौर करना जरूरी है। आज की पत्रकारिता मात्र सेवा भाव से न भी चलायी जा रही हो कुछ मापदंड तो रहने ही चाहिए ताकि उसकी प्रभाव शक्ति कम न हो पाए। उसका आर्थिक पक्ष भी है उसके लिए धन चाहिए। लेकिन कैसा धन और कितना धन? समाचार पत्रों के कंटेंट से कहीं अधिक जगह विज्ञापनों को देना निर्धारित नियमों से हट कर है और संचालकों की धन की लालसा व्यक्त करता है। इससे सेवा भाव नहीं झलकता।
प्रश्न यह है कि इन संहिताओं का उतना असर क्यों नहीं दिखाई देता? यह भी कि उन पर अमल कौन और कैसे करेगा? मुनाफा कमाने तथा सत्ता को अपने हंटर से हांकने का ख्वाब लेने वाले मीडियापति या अखबार आदि को एक चमचमाते उत्पाद की तरह पेश करने वाले ब्रांड मैनेजर जिनके हाथों में भाषा की लगाम भी रहने लगी है। जिन्हें तय करना है कि प्रॉडक्ट में क्या दिया जाए या न दिया जाए। ऐसे में आप पत्रकारिता के बुनियादी मुद्दों की ओर लौटने की कैसे कल्पना कर सकते हैं, विकास को गति प्रदान करना सामाजिक बदलाव के नाम पर पसरे सन्नाटे को तोड़ने के लिए पत्रकारिता को अपने कृत्रिम लबादे से बाहर आना होगा। उसके लिए पत्रकारिता का महानगरीय परिवेश तक सीमित न रह कर गांव-देहात और समाज के अंतिम छोर तक पहुंचना आवश्यक है। इस मुहिम के साथ ग्राम विकास, प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य तथा लोक प्रशासन जैसे मुद्दे खुद जुड़ जाएंगे। एक सोच तैयार करने की जरूरत है।
ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा
‘है अपना भारतवर्ष कहां, वह बसा हमारे गांवों में’ जैसी परिकल्पना कितनी सुन्दर है। गांव अब भी पत्रकारिता के एजेंडे से लुप्त प्राय: है। हां, सूखा, अकाल, बाढ़, गरीबी तथा किसी महामारी से होने वाली मौतें तथा भारी कर्जदारी के कारण किसानों द्वारा आत्महत्याएं खबरों में रहती हैं। उससे पहले या बाद में क्या हुआ-इसका जवाब नहीं मिलता। शायद बिकाऊ माल न होने के कारण। यदि चिकित्सा जैसे व्यवसाय में नए डाक्टरों के लिए गांव-देहात तथा कस्बों में कुछ समय के लिए इंटर्नशिप अनिवार्य हो सकती है तो वह नव-दीक्षित पत्रकारों के लिए क्यों नहीं? कुछ राज्य सरकारें विकासोन्मुखी पत्रकारिता के लिए पत्रकारों को सम्मानित करती हैं। लेकिन उनमें से अधिकांश पर राजकृपा का मुलम्मा चढ़ा रहता है। उनसे हट कर स्टेटसमैन का रूरल रिपोर्टिंग पुरस्कार अपने आप में एक मिसाल है। ऐसे प्रयास जारी रहने चाहिए।
जब मर्यादाएं टूटती हैं तो मूल्य भी तिरोहित होते हैं। पत्रकारिता उससे विलग कैसे रह सकती है? इस तरह के विभ्रम की स्थिति में पत्रकारिता का समाजिक सरोकार से पीठ फेर लेना वाजिब नहीं है। उसे हर चुनौतीपूर्ण स्थिति में अपने धर्म को निभाना है। ऐसा धर्म जो जन-जन के प्रति जवाबदेह हो और उनकी चिन्ता करता है। सामाजिक सरोकारों के प्रति साहसी केसेबियानका की तरह डटे रहना भी उसका फर्ज है। उससे हटने का अर्थ श्रेष्ठ पत्रकारिता के सिध्दांतों से हटना है।
इस धर्म को कैसे निभाया जाए? हरकारे की तरह पत्रकारिता की पहुंच गांव-देहात तथा वंचितों तक सरल बनाने और स्वयं को संकटमोचक की भूमिका में ढालने के लिए मीडिया का ग्रास रूट और उसकी जरूरतों से जुड़ना पेज थ्री के मायावी संसार, राजनीति, अपराध और ग्लैमर की दुनिया को उछालने से कहीं अधिक जरूरी है। लोकोन्मुखी पत्रकारिता को लोकप्रिय बनाने के लिए गांव-कस्बों में पुस्तकालयों की लहर को मजबूत बनाने तथा मीडिया-कंटेंट में रचनात्मक परिवर्तन करना भी आवश्यक है। ठीक उसी तरह जैसे कड़वी कुनेन चीनी के घोल में लपेट कर दी जा रही हो। बड़े चैनल और अखबार तथा ग्लैमर परोसने वाली चमकीली पत्रिकाएं गांव-देहात और सामाजिक उत्थान जैसे विषयों की तरफ क्यों नहीं मुड़ सकतीं? इसके लिए एक स्पेस तय होनी चाहिए। महानगरों में पब्लिक तथा अन्य नामी स्कूलों के बच्चों को जबरदस्ती अंग्रेजी के अखबारों के सस्ते स्कूल संस्करण बेचे जाते हैं। यह प्रयोग अन्य क्षेत्रों तथा विषयों के लिए क्यों नहीं हो सकता? अंग्रेजी के अखबारों के मुकाबले भाषायी, विशेषकर हिन्दी के पत्र अधिक पढ़े जाते हैं। इस कारण उनका दायित्व और बढ़ जाता है।
‘दैनिक ट्रब्यून’ का संपादन करते समय हमने कृषि, रोजगार, ग्राम तथा सामाजिक समस्याओं को लेकर अपना कवरेज बढ़ाया जिसके काफी अच्छे नतीजे रहे। अखबार दूरदराज के इलाकों और समाज के अंतिम छोर तक पहुंचा। बाद में बंजाब, हरियाणा तथा हिमाचल में प्रवेश करने वाले नए अखबारों ने इस नुस्खे को आजमाया और वह कामयाब हो गया। पिछले कुछ दशकों में साक्षरता की औसत जिस तरह बढ़ी है, मीडिया का जन-सरोकारों से जुड़ना कठिन नहीं होना चाहिए। इससे सामाजिक सरोकारों से जुड़ने का मार्ग तो प्रशस्त होगा ही, लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत होंगी। विश्व भर में भारतीय पत्रकारिता को जिस सम्मान से दिखा जाता है उसके लिए यह परीक्षा भी काफी दिलचस्प हो सकती है-व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र से एक व्यापक स्तर पर जुड़ने की।

Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>