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खतों में साहित्य इतिहास औऱ भविष्य तलाशने की पहल

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 पहल और ज्ञानरंजन को मिले पत्र...

(21 नवंबर 2021)


‘‘गिरिराज किशोर और ज्ञानरंजन के पत्रों का पहला खण्ड तैयार हो गया है। ये दोनों ही खण्ड लगभग चार सौ पृष्ठों के हैं। हमें उम्मीद है अगले वर्ष इसी समय तक, हम सारे खण्ड पूरे करके पुस्तकें प्रकाशन के लिए तैयार कर लेंगे।“

- ‘अकार’-56 - संपादक प्रियवंद - अंतिम पृष्ठ – 128 : पुनश्च।

ज्ञानरंजन को मिले हज़ार से भी अधिक पृष्ठों के पत्र ज़रूरत के मुताबिक संदर्भ सहित प्रियंवद जी ने ख़ुद लागत क़ीमत पर प्रकाशित करने की ज़िद ठान रखी है, जबकि ज्ञान जी चाहते थे कि वे संपादन कर दें, प्रकाशन के लिए अन्य प्रकाशक तैयार थे। इन पत्रों में गाँव, कस्बे, शहर, महानगर, देश-विदेश के, उन्हें चाहने वालों, टूटकर प्रेम करने वालों के पत्र हैं, जो अपनी संवेदना में ज्ञानरंजन और पहल को बहुत ऊँचा दर्ज़ा देते हैं। नये से नये युवा, प्रौढ़, वृद्ध, बुजुर्ग सब में उनका आकर्षण अकूत है। इन पत्रों में भावों, विचारों, उद्वेगों, संवेगों की स्वर लहरियाँ हैं। विचार के प्रति प्रतिबद्धता का प्रेम इन पत्रों में स्पष्ट दिखाई देगा।

इन पत्रों में ऐसा भी कुछ मिलेगा, जो ज्ञानरंजन के कहानी और अन्यान्य गद्य को पढ़़कर नहीं जाना समझा जा सकता। कई जगह तो लगता है ज्ञान जी ने अपने पत्रों को लिखने में स्याही नहीं, खून या उसके अंश का प्रयोग किया है। जैसा कि उनकी कई कहानियों के सूत्रधार में है - इन पत्रों में गुस्सा, आक्रोश, ज़िद की फैसलाकुन भाषा भी है, और समझाईश के गुरुतर गुर की भाषा भी। उनके कई मित्र तो जैसे पत्र का अभियान सा चलाये रहे। कुल मिलाकर एक सकारात्मक, सार्थक और अग्रगामी भूमिका का निर्वाह इन पत्रों में ज्ञानरंजनी भाषा की खूबी से बखूबी हुआ है।

इस अंक (‘अकार’-56)  में एक लम्बी टिप्पणी के साथ - जिसमें प्रतिबद्ध गांधीवादी श्रीरामनाथ सुमन जी, जो अपने समकालीन सभी शीर्षस्थ रचनाकारों के गहन सम्पर्क में रहे और सत्तर से भी अधिक महत्त्वपूर्ण किताबों के प्रतिष्ठित लेखक थे - के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में एक संक्षिप्त परन्तु सान्द्र और सघन परिचय देखने को मिलता है। रघुवीर सहाय जी ने ‘दिनमान’ में उनकी (सुमन जी) पुस्तक, ‘छायावाद-युगीन स्मृतियाँ’ (प्रकाशक : मैकमिलन) की समीक्षा की थी। यह समीक्षा भी इस आलेख के अंत में दी गयी है। साथ ही रामनाथ सुमन जी के अपने पुत्र ज्ञानरंजन (मंझले बेटे) को लिखे तीन पत्र भी हैं। इन पत्रों के बारे में प्रियंवद जी लिखते हैं – 

“तीनों पत्र ज्ञानरंजन के जीवन के बहुत कम ज्ञात पक्षों और व्यवहार की ओर इशारा करते हैं। ये पत्र बिगड़ते स्वास्थ्य वाले अनुशासनहीन पुत्र के लिए एक पिता की उद्विग्नता और पिता के प्रति पुत्र की उग्रता, उपेक्षा और आक्रामकता का प्रामाणिक वाचन हैं। पर दोनों के बीच का यही अंतिम सत्य नहीं है। इस संबंध के दूसरे पक्ष भी हैं। ‘कबाड़खाना’में ज्ञानरंजन ने अपने पिता श्रीरामनाथ जी पर संस्मरण लिखा है। इसमें पिता-पुत्र के संबंधों की आत्मीय तरलता का अनुभव कर सकते हैं।”

इस पूरे आलेख को पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि इसमें रामनाथ जी की उपलब्धियों को दर्शाते हुए कहा गया है कि - 

‘यदि लेखन की विविधता, व्यापकता, अध्ययन, श्रम, अनुशासन और विपुलता को देखें, तो ज्ञानरंजन अपने पिता के अँगूठे के नाखून पर भी नहीं टिकते। पर यह शायद एक पुत्र के लिए प्रतिद्वंद्विता नहीं, बल्कि सुख और संतोष की बात ही होगी, गर्व की तो है ही।’

ज्ञान जी के लिए लेखक महत्त्वपूर्ण होता उसकी उम्र नहीं। वे उभरती, संभावनाशील और निरंतरता में रचनारत प्रतिभाओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं। उनका हौसला बढ़ाते हैं और उन्हें निर्देशित भी करते हैं, चाहे इस काम में उनका कितना भी श्रम और समय लगे।

एक लड़की (बालकीर्ति - दिल्ली) उनकी कहानी ‘पिता’ पढ़कर इतनी चकित-चमत्कृत होती है कि भावावेग में कहानी की समीक्षा में लम्बा पत्र, (8 फुलस्केप पेज़) एक लम्बी कविता के साथ लिखती है - शुरुआत कुछ इस तरह हुई है – 

ज्ञानरंजन जी आपकी इस कहानी ‘पिता’ ने मेरे दिल और दिमाग को इस कदर प्रभावित किया कि मैं आपको पत्र लिखने के लिए विवश हो गई। ‘‘हिन्दी की क्लासिक कहानियाँ, संपादक : पुष्पपाल सिंह’’ में मैंने इसे पढ़ा। ‘क्लासिक’ क्या होता है। ये पता चल गया। इस कहानी ने मन को छू लिया।....

और अंत कुछ इस तरह –

ज्ञानरंजन जी, आशा है कभी आपके साथ या कभी मौका मिलेगा तो ढेर सारी गप्पें लड़ाऊँगी। मैं बहुत बोलती हूँ। लेकिन आपको सुनना चाहूँगी, बिल्कुल मौन रहते हुए।

ज्ञानरंजन का जवाब भी सुनिये इस युवा मित्र के लिए – 

‘‘पशोपेश में था कि तुम्हें क्या संबोधन दूँ और तुमने मेरा सवाल ही हल कर दिया मेरे दोस्त!  किसी लेखक के लिए तुम्हारी टिप्पणी, ‘पिता’ कहानी का पाठ्यालोचन वास्तविक खुशी का वाइज़ है और वास्तविक पुरस्कार। मैं बहुत खुश हूँ।


अंक-104 से ‘पहल और ज्ञानरंजन’ को मिले पुराने चुनिंदा पत्रों के प्रकाशन का सिलसिला शुरू हुआ है - ...’’इस कोशिश के साथ कि संपादकों की तारीफ वाले पत्र न छप सकें। फिर भी विपत्तियों के बीच जो पत्र हौसला देते हैं, उन्हें हम छापेंगे।.... ,/ ...इन पत्रों में हिदायत है, विमर्श  है कार्यशैली के संकेत हैं। इनसे हमने अपना तरन्नुम बेहतर किया है, आगे बढ़े। गोलमाल चेहरों का भी पता चला।...’’ (कुछ पंक्तियाँ - पहल : 104) 

ज्ञान जी की कार्यनीति और कार्य-पद्धति का यह पहलू भी दृष्टव्य है - ‘‘...मैं यह आज भी मानता हूँ कि दृढ़ता और र्इमानदारी किसी भी रणनीति से जादा ऊपर और भारी है। मैंने जो कुछ भी किया, या कर पाया इसी शैली में किया। यह मेरे व्यक्तित्व का अविभाज्य है और मैं इस चतुर चालाक समाज में भी यह बनाये रखना चाहता हूँ। हमारी विचारधारा ही हमारी रणनीति है, मार्ग है।...’’  (20/3/88: कर्मेन्दु शिशिर)। वे यही आशा अपने मित्रों और आत्मीयों से भी करते रहे हैं। वे कहते हैं -’’....तुनक-तुनक कर काम करने से क्या फायदा। हमें प्रगाढ़ तरीके से और कुछ सहते-बूझते काम करना चाहिए।...’’ (21/01/86 : क.शि.)।

वे लिखते भी हैं - ‘‘मैंने अपने साथियों से प्राय: कठोरताएं कीं, उसकी वजह थी कि ‘पहल’ को मैं अनुशासन और सद्गति से चलाना चाहता था। इसके सुफल भी मिले और आज हमारा मेरुदण्ड मज़बूत है।’’  (रमेश अनुपम - 14 अप्रेल 16)

कवि आलोचक पंकज चतुर्वेदी का ज्ञान जी को 11 दिसंबर 2001 का लिखा यह पत्र देखें - ‘‘... आपके सभी पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं। उन्हें मैं अपनी सम्पत्ति मानता हूँ। 14/09/93 और 12/09/97 को दो बार आपने मेरी कविताएँ वापस करते हुए जो (संलग्न) पत्र लिखे थे, उन्हें इस समय मैंने सामने रखा हुआ है। पहले पत्र में आपने लिखा था कि ग़ैरज़रूरी अमूर्तन कविता को कमज़ोर, एकरस और संदिग्ध बनाते हैं। ‘‘लहू की ताज़गी’’ नहीं आ पाती। दूसरे पत्र में आपने कविता में ‘‘अत्यधिक वाचाल दबावदार विशेषणों के प्रयोग’’ पर आपत्ति की थी -- इनसे कविता कमज़ोर होकर गड़बड़ियों से ग्रस्त हुर्इ है, ऐसा लिखा था।

पिछले वर्षों में आपकी बातें मुझे बराबर सही लगती रही हैं। इसलिए जाने-अनजाने मैंने अमूर्तनों और विशेषणों के दुहराव से भरसक मुक्त होने का संघर्ष किया है। कितना हो सका हूँ, नहीं जानता। पर आज ‘पहल’ के लिए आपने मेरी कविता स्वीकार की, इससे मेरी आँखों में एक सजल कृतज्ञता उमड़ आयी। मुझे लगता है कि मेरी कुछ मेहनत ज़रूर सार्थक हुर्इ होगी।...’’  

और अंत में ज्ञानरंजन के पत्रों की ख़ासियत जानने के लिए यह पत्रांश भी देखते चलें - 

‘‘आपका 25/1/97 का पत्र तब से लगातार जेब में रखा हुआ है। बार बार पढ़ता हूँ। यह आज तक पाया शायद सबसे खूबसूरत पत्र है, जिसे अब भी पढ़ते हुऐ धड़कनों का तेज़ होना महसूस करता हूँ।.... (योगेन्द्र आहूजा - 25/02/1997)


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