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मानवता के देवदूत

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प्रस्तुति - सिन्हा आत्म स्वरूप 

मैं चेन्नई में कार्यरत था और मेरा पैतृक घर भोपालa में था।अचानक घर से पिताजी का फ़ोन आया कि तुरन्त चले आओ, जरूरी काम है। मैं आनन फानन में रेलवे स्टेशन पहुंचा और तत्काल रिजर्वेशन की कोशिश की परन्तु एक भी सीट उपलब्ध नहीं थी। सामने प्लेटफार्म पर ग्रैंड ट्रंक एक्सप्रेस खड़ी थी और उसमें भी बैठने की जगह नहीं थी, परन्तु मरता क्या नहीं करता, घर तो कैसे भी जाना था। बिना कुछ सोचे समझे सामने खड़े स्लीपर क्लास के डिब्बे में चढ गया। डिब्बे के अन्दर भी बुरा हाल था। जैसे-तैसे जगह बनाने हेतु एक बर्थ पर एक सज्जन को लेटे देखा तो उनसे याचना करते हुए बैठने के लिए जगह मांग ली। सज्जन मुस्कुराये, उठकर बैठ गए और बोले, 

*"कोई बात नहीं, आप यहाँ बैठ सकते हैं।"*

मैं उन्हें धन्यवाद दे वहीं कोने में बैठ गया। थोड़ी देर बाद ट्रेन ने स्टेशन छोड़ दिया और रफ़्तार पकड़ ली। कुछ मिनटों में जैसे सभी लोग व्यवस्थित हो गए और सभी को बैठने का स्थान मिल गया. मैंने अपने सहयात्री को देखा और सोचा बातचीत का सिलसिला शुरू किया जाये। मैंने कहा, 

*"मेरा नाम आलोक है और मैं इसरो में वैज्ञानिक हूँ। आज़ जरुरी काम से अचानक मुझे घर जाना था इसलिए स्लीपर क्लास में चढ गया, वरना मैं ए.सी. से कम में यात्रा नहीं करता।"*

वो मुस्कुराये और बोले, 

*"वाह ! मेरे साथ एक वैज्ञानिक यात्रा कर रहे हैं। मेरा नाम जगमोहन राव है। मैं वारंगल जा रहा हूँ। उसी के पास एक गाँव में मेरा घर है। मैं अक्सर शनिवार को घर जाता हूँ।"*

इतना कह उन्होंने अपना बैग खोला और उसमें से एक डिब्बा निकाला। वो बोले, 

*“ये मेरे घर का खाना है, आप लेना पसंद करेंगे ?”* 

मैंने मना कर दिया और अपने बैग से सैंडविच निकाल कर खाने लगा। जगमोहन राव !  ये नाम कुछ सुना-सुना सा लग रहा था परन्तु इस समय याद नहीं आ रहा था।

रेलगाड़ी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी। अचानक मैंने देखा कि सामने वाली बर्थ पर 55-56 साल के सज्जन अपनी बर्थ पर तड़पने लगे। उनका परिवार भी घबरा कर उठ गया और उन्हें पानी पिलाने लगा परन्तु वो कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थे। मैं चिल्लाया, "अरे ! कोई डॉक्टर यहाँ सफर कर रहा, इमरजेंसी है।"

रात में स्लीपर क्लास के डिब्बे में डॉक्टर कहाँ से मिलता? उनके परिवार के लोग उन्हें असहाय अवस्था में देख रोने लगे।


 तभी जगमोहन राव नींद से जाग गए। उन्होंने मुझसे पूछा, "क्या हुआ ?"

मैंने उन्हें सब बताया। मेरी बात सुनते ही उन्होंने अपने सूटकेस में से स्टेथेस्कोप निकाला और सामने वाले सज्जन की सीने धड़कने सुनने लगे। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखने लगीं। उन्होंने कुछ नहीं कहा और सूटकेस में से एक इंजेक्शन निकाला और सज्जन के सीने में लगा दिया व उनका सीना दबा-दबा कर, मुंह पर अपना रूमाल लगा कर अपने मुंह से सांस देने लगे। कुछ मिनट तक सी.पी.आर. देने के बाद मैंने देखा कि रोगी सहयात्री का तड़फना कम हो गया।

जगमोहन राव जी ने अपने सूटकेस में से कुछ गोलियां निकाली और परिवार के बेटे से बोले- 

*“बेटा, ये बात सुनकर घबराना नहीं। आपके पापा जी को मेसिव हृदयाघात आया था, मैंने इंजेक्शन दे दिया है और ये दवाइयां उन्हें दे देना।”*

उनका बेटा आश्चर्य से बोला, 

*“पर आप कौन हो ?"*

वो बोले, *“मैं एक डॉक्टर हूँ। मैं इनकी केस हिस्ट्री और दवाइयां लिख देता हूँ, अगले स्टेशन पर उतर कर आप लोग इन्हें अच्छे अस्पताल ले जाइएगा।"*

उन्होंने अपने बैग से एक लेटरपेड निकाला और जैसे ही मेरी उस लेटरपेड पर नजर पडी, मेरी याददाश्त वापस आ गयी।

उस पर छपा था - 

*डॉक्टर जगमोहन राव, हृदय रोग विशेषज्ञ, अपोलो अस्पताल, चन्नयी।*

अब मुझे भी याद आ गया कि कुछ दिन पूर्व मैं जब अपने पिता को चेकअप के लिए अपोलो हस्पताल ले गया था, वहाँ मैंने डॉक्टर जगमोहन राव के बारे में सुना था। वो अस्पताल के सबसे वरिष्ठ, विशेष प्रतिभाशाली हृदय रोग विशेषज्ञ थे। उनका एपोइमेण्ट लेने के लिए महीनों का समय लगता था। मैं आश्चर्य से उन्हें देख रहा था। 

*एक इतना बड़ा डॉक्टर स्लीपर क्लास में यात्रा कर रहा था और मैं एक छोटा सा तृतीय श्रेणी वैज्ञानिक घमंड से ए.सी. में चलने की बात कर रहा था, ये इतने बड़े आदमी इतने सामान्य ढंग से पेश आ रहे थे।* 

इतने में अगला स्टेशन आ गया और वो हृदयाघात से पीड़ित बुजुर्ग एवं उनका परिवार टी.टी. एवं स्टेशन पर बुलवाई गई मेडिकल मदद से उतर गये।

रेल वापस चलने लगी। मैंने उत्सुकतावश उनसे पूछा, “डॉक्टर साहब, आप तो आराम से ए.सी. में यात्रा कर सकते थे फिर स्लीपर में क्यूँ ?"

वो कुछ रुक कर बोले,

*“मैं जब छोटा था और गाँव में रहता था तब मैंने देखा था कि रेल में कोई डॉक्टर उपलब्ध नहीं होता, खासकर दूसरे दर्जे में। इसलिए मैं जब भी घर या कहीं जाता हूँ तो स्लीपर क्लास में ही सफ़र करता हूँ... न जाने कब किसे डाक्टर की जरुरत पड़ जाए। मैंने डॉक्टरी गरीब लोगों की सेवा के लिए ही की थी। हमारी पढ़ाई का क्या फ़ायदा यदि हम किसी के काम न आ सकें,"*

वारंगल आ गया था। वो मुस्कुरा कर उतर गये और मैं उनके बैठे हुए स्थान से आती हुई खुशबू को महसूस कर रहा था। ये खुशबू उन महान व्यक्तित्व और पुण्य आत्मा की थी।


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