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गांधी की मूरत बनाते गुजार रहे जिंदगी / विवेक शुक्ला

 

राम सुतार

उम्र-95 साल

कार्यक्षेत्र- दिल्ली-एनसीआर

महाराष्ट्र का धुले शहर। साल रहा होगा 1938 के आसपास। वहां महात्मा गांधी आए थे। वे जनसभाएं कर रहे हैं। तब राम सुतार ने उनके दर्शन किए थे। वे गांव के स्कूल में पढ़ते थे। एक तरह से कह सकते हैं कि वे तब ही बापू के अनुयायी बन गए थे। उन्होंने लगभग तब ही से खादी वस्त्र पहनने शुरू कर दिए थे। गांधी जी की 1948 मृत्यु के बाद उन्होंने  पहली बार गांधी की कुछ धड़ प्रतिमाएं बनाईं थी। वे प्रतिमाएं अब भी धुले में स्थापित हैं। उसके बाद से राम सुतार ने गांधी जी की सैकड़ों धड़ और आदमकद प्रतिमाएं बना चुके हैं। वे जब गांधी जी की किसी प्रतिमा को शक्ल दे रहे होते हैं,तो उन्हें लगता है मानो वे गांधी से संवाद कर रहे हों। वे कहते हैं कि गांधी जी की प्रतिमा पर काम करते हुए उन्हें अपार आनंद मिलता है। वे 1958 में सरकारी नौकरी करने के लिए दिल्ली आ गए थे। दो सालों के बाद उन्होंने सरकारी नौकरी को छोड़करस्वतंत्र रूप से मूर्ति शिल्पी के रूप में काम करना शुरू किया। उन्होंने दिल्ली में गांधी की संभवत:पहली बार आदमकद मूर्ति 1968 में बनाई। इसमें बापू के साथ दो बच्चे भी थे। उसे इंडिया गेट पर उसी स्थान पर लगाए जाने का प्रस्ताव था जहां पर पहले सम्राट जार्ज पंचम की मूरत लगी थी और अब नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति लगेगी। यह जानकारी राम सुतार के पुत्र और स्वयं प्रख्यात मूर्ति शिल्पी अनिल सुतार देते हैं। वह मूर्ति बाद में पटना में लगी। उससे मिलती- जुलती मूरत गांधी दर्शन ( पहले बिड़ला हाउस) के बाहर भी लगी हुई है। गांधी जी की 1969 में जन्म शती के अवसर पर भी सरकार ने उनसे विदेशों में भेजने के लिए बापू की कई मूर्तियों का निर्माण करवाया। संसद भवन के प्रांगण में लगी उनकी बनाई गांधी जी की मूर्ति तो अद्तीय है। इसमें बापू ध्यान की मुद्रा में हैं। इसे संसद सत्र के दौरान सारा देश बार-बार देखता है। उसके आगे विभिन्न दलों के नेता धरना दे रहे होते हैं या किसी मुद्दे पर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिए नारेबाजी कर रहे होते हैं।  ये आसाधरण मूर्ति 17 फीट ऊंची है। उनकी कृतियां मुंह से बोलती हैं। उन्होंने ही पटना के गांधी मैदान में स्थापित बापू मूर्ति को भी तैयार किया था। राम सुतार गांधी जी की सैकड़ों मूर्तियां बना चुके हैं। गांधी जी की एक मूर्ति उनकी 148 वीं जयंती के मौके पर राजघाट के पार्किंग क्षेत्र में स्थापित की गई थी। यह 1.80 मीटर ऊंची कांस्य  की प्रतिमा का है।  इसमें भाव और गति का अनोखा संगम मिलता है।  यह ग्रेनाइट के साथ दो फीट ऊंची पेडेस्टल पर स्थित है। गांधीजी का प्रसिद्ध संदेश 'बी द चेंज यू विश टू सी'पेडेस्टल के सामने की तरफ लिखा हुआ है। आप राम सुतार की कृतियों को बिना देखे कोई आगे नहीं बढ़ सकते। राम सुतार निस्संदेह आधुनिक भारतीय मूर्ति कला के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से एक माने हैं। सुतार जी चाहे आदमकद मूर्ति बनाएं या धड़प्रतिमा, वे उसमें जान डाल देते हैं। वे पूरे समपर्ण और शोध करने  के बाद ही किसी प्रतिमा पर काम करना आरंभ करते हैं। वे अपनी शर्तों पर काम लेते और करते हैं। वे समय सीमा के बंधन में बंधना पसंद नहीं करते। संत प्रवृति के राम सुतार अपना श्रेष्ठतम काम तब दिखाते हैं जब उन्हें

पूरी छूट मिलती है। वे काम के बीच में किसी का हस्तेक्षप कतई स्वीकार नहीं करते। इससे उनकी एकाग्रता भंग होती है। राम सुतार कहते हैं कि जब उनका कोई प्रशंसक कहता है कि उनकी बनाई गांधी जी की मूरत सुंदर है तो उन्हें लगता है कि उन्हें बापू का आशीर्वाद मिल गया। वे गांधी जी की निरंतर मूर्तियों को बनाते रहना चाहते हैं।  

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- बुद्ध को खोजने आई, गांधी को पाया 

कात्सू सान

उम्र- 85 साल

कार्यक्षेत्र -दिल्ली        

कात्सू सान राजधानी में बीते कुछ हफ्तों से पड़ी रही हड्डियों को गलाने वाली सर्दी  से लगभग बेपरवाह आज गांधी जयंती का इंतजार कर रही थीं। वो गुजरे कई दशकों से 30 जनवरी को राजघाट और फिर शाम को गांधी दर्शन में होने वाली सर्वधर्म प्रार्थना का स्थायी चेहरा हैं। कात्सू सान सर्वधर्म प्रार्थना में बुद्ध धर्म ग्रंथों से प्रार्थना पढ़ती हैं। कात्सू सान के बिना सर्वधर्म प्रार्थना  की कल्पना भी नहीं कर सकते। उन्हें सब कात्सू बहन कहते हैं। गांधी जी के सत्य और अहिंसा के सिद्दातों को लेकर उनकी निष्ठा निर्विवाद है। वो गुजरे 60 से भी ज्यादा सालों से गांधी जी को पढ़ रही हैं और उनके बताए रास्ते पर चलने का संदेश दे रही हैं। अब आप हैरान होंगे यह जानकार कि कात्सू सान मूलत: जापानी नागरिक हैं। वो 1956 में भगवान बुद्ध के देश भारत में आईं थी ताकि उन्हें और गहराई से जान लें। एक बार यहां आईं तो उनका गांधीवाद से भी साक्षात्कार हो गया। उसके बाद तो उन्होंने भारत में ही बसने का निर्णय ले लिया। आपको राजधानी के रिंग रोड पर राजघाट की तरफ बढ़ते हुए सड़क के दायीं तरफ सफेद रंग का मंदिरनुमा स्तूप दिखाई देता है। ये है इंद्रप्रस्थ पार्क पर स्थित विश्व शांति स्तूप। इधर हमें मिलती हैं कात्सू बहन। उनमें आप अपनी मां के चेहरे को देख सकते हैं। इससे पहले कि आप उन्हें अभिवादन करें, वे ही आपको नमस्कार करती हैं। कहती हैं,"मेरा नाम कात्सू सान है। मैं विश्व शांति स्तूप से जुड़ी हुई हूं। आपका यहां पर स्वागत है।"आप उनकी हिन्दी के स्तर और शुद्ध उच्चारण को सुनकर चकित हो जाते हैं। संवाद चालू हो जाता है। वो बताती हैं, “मैं 1956 में भारत आ गई थी। भारत को लेकर मेरी दिलचस्पी भगवान बौद्ध के चलते बढ़ी थी। अब भारत ही अपना देश लगता है। यह गांधी का देश है। इसके कण-कण में पवित्रता है। भारत संसार का अध्यातिमक विश्व गुरु है।” भारत के धर्म निरपेक्ष चरित्र  पर वो कहती हैं कि मुझे तो दुनिया में कोई अन्य देश नहीं मिला जहां पर सरकारी कार्यक्रमों में सर्वधर्म प्रार्थना सभा आयोजित होती हो। यहां पर सभी धर्मों का सम्मान होता है।

कात्सू सान ने हिन्दी काका साहेब कालेकर से सीखी थी। उन्होंने लगभग साढ़े चार दशक पहले भारत की नागरिकता ग्रहण कर ली थी। कात्सू जी कहती हैं कि भगवान बुद्ध और गांधी जी के रास्ते एक तरफ ही लेकर जाते हैं। दोनों सदैव प्रासंगिक रहने वाले हैं। दोनों का जीवन पीड़ा को कम करने और समाज से अन्याय को दूर करने के लिए समर्पित था।” एक सवाल के जवाब में कात्सू जी कहती हैं,"भारत के किसी भी नागरिक की तरह मेरी भी इच्छा है कि देश का नेतृत्व अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के प्रति गंभीर हो। "कात्सू सान भारत केउज्जवल भविष्य को लेकर बेहद आशावादी हूं।उन्हें लगता है कि अब भारत को विकास के रास्ते पर जाने से कोई रोक नहीं सकता। उनकी चाहत है कि भारत-जापान दुनिया को शांति का मार्ग दिखलाते रहे।” कात्सू सान उन गांधीवादियों में से नहीं हैं जो विश्व बंधुत्व, प्रेम और शांति का संदेश देने के लिए देश से बाहर भी जाएं। वो भारत के गांवों, कस्बों, शहरों और महानगरों में घूमती हैं। हालांकि अब बढ़ती उम्र के कारण उनकी देश के भीतर होने वाली यात्राएं कम हो रही हैं। लेकिन, उनका उत्साह और एनर्जी किसी नौजवान से कम नही है। उन्हें यकीन है कि शांति और अहिंसा के रास्ते पर चलकर विश्व नफरत प विजय पा लेगा। संसार में  शांति, सच्चाई और सहिष्णुता के एक नए युग की शुरुआत होगी।

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 पूर्वोत्तर में फैलाता गांधी का संदेश

डॉ सी.पी. एंटो

उम्र-48 साल

शिक्षा- पीएचडी ( सोशल वर्क)

कार्यक्षेत्र- नगालैंड और मणिपुर

केरल से नगालैंड की दूरी 3 हजार किलोमीटर के आसपास है और दोनों का समाज, भाषा, संस्कृति एक दूसरे से पूरी तरह से भिन्न है। पर पहली नजर में दिखने वाले इन अवरोधों की परवाह ना करते हुए डॉ. सी.पी.एंटो ने अपना कार्यक्षेत्र नार्थ-ईस्ट के राज्यों को बनाया। दरअसल उन्होंने इधर ही बसने का फैसला तब ले लिया था जब वे 15 साल की उम्र में अपने कुछ मित्रों के साथ नगालैंड की राजधानी दीमापुर में साथ घूमने के लिए गए थे। तब उनकी उम्र 15 साल के आसपास थी। वे स्कूल के दिनों से ही गांधी जी को पढ़ रहे थे और उनकी घुमक्कड़ी से प्रभावित थे। गांधी जी के सर्वोदय के सिद्धांत ने उन पर गहरा असर डाला था। क्यों ? वे कहते हैं कि सर्वोदय शब्द का अर्थ है 'सार्वभौमिक उत्थान'या 'सभी की प्रगति'। सर्वोदय ऐसे वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषणमुक्त समाज की स्थापना करना चाहता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वांगीण विकास का साधन और अवसर मिले। एंटो को लगा कि सर्वोद्य के विचार से

ही विश्व कल्याण संभव है। वे अपने सपनो को साकार करने के लिए 1997 में नगालैंड आ जाते हैं। यहां आने के बाद ही वे नगालैंड यूनिवर्सिटी के गांधी स्टडी सर्किल में पढ़ाने लगे। यहां आने के कुछ समय के बाद वे एक भयावह घटना का शिकार होन से बचे। यह घटना नगालैंड के किपहायर शहर में 10 नवंबर, 1997 को हुई। उन्हें और उनके कुछ साथियों को उस दिन छह चरमपंथियों ने उनके कॉलेज में बंदी बना लिया। वे उनसे पैसे की मांग करने लगे। पैसा ना देने पर उन सबकी हत्या करने की धमकी देने लगे। सारी स्थिति बेहद तनावपूर्ण थी। उन्होंने डॉ एंटो और उनके सहयोगियों के साथ  मार पीट भी की। उनका मारा जाना तय था। तब डॉ एँटो ने साहस दिखाते हुए कहा कि “आपको हमारे से क्या मिलेगा। आप शांति से बात करो तो कुछ निष्कर्ष निकलेगा।” इन दो वाक्यों का उन चरम पंथियों पर तुरंत असर हुआ। वे वहां से चले गए। इस घटना के बाद डॉ एंटो ने नागालैंड और मणिपुर में देश विरोधी शक्तियों को गांधी के रास्ते से देश की मुख्य धारा से जोड़ने का संकल्प ले लिया। वे तब से पूर्वोत्तर में गांधी के सर्वोद्य, अहिंसा और शांति की शिक्षाओं को जन-जन के बीच में लेकर जा रहे हैं। क्या गांधी मार्ग पर चलते हुए पूर्वोत्तर में देश विरोधी गतिविध्यां कम हुईं? डॉ एंटो कहते हैं कि 1997 और 2022 के बीच बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। अब स्थितियां बहुत अनुकूल है।  जो तत्व कभी हिंसक घटनाओं में लिप्त थे वे भी अब समझ गए हैं कि जटिल से  जटिल मसलों के हल आपसी बातचीत के निकल सकते हैं। हिंसा या खून –खराबा करने  से कुछ हासिल नहीं होगा। डॉ एंटो और उनके साथियों ने सेंटर फॉर  प्रमोटिंग पीस, डायलाग एंड रिसर्च नाम से एक संस्था बनाई है। जिसने 1997 से अब तक  नगालैंड और मणिपुर में चार हजार से अधिक अमन और भाईचारे के लिए मोहल्लों, कॉलेजों,स्कूलों वगैरह में वर्कशॉप आयोजित की हैं। वे गुजरे कई सालों की तरह से इस बार नगालैंड की राजधानी कोहिमा में आज गांधी जयंती पर एक पीस रैली आयोजित कर रहे हैं। इसमें पांच हजार तक लोग शामिल हो जाएंगे। डॉ एंटो अविवाहित हैं। वे कहते हैं कि अब शेष जीवन भी पूर्वोत्तर भी गुजरेगा। वे कभी-कभार अपने  घर केरल चले जाते हैं। वे कहते हैं कि उनके लिए सारी दुनिया अपने घर की तरह है। इसलिए उन्हें नगालैंड भी घर ही लगता है।  वे नार्थ ईस्ट के लोगों के लिए  कहते हैं, यहां के लोग जल की तरह पवित्र हैं। इनका प्यार मुझे इनसे दूर जाने ही नहीं देता। डॉ एंटो मानते हैं कि वे जब नगालैंड में आए थे तब यहां पर गांधी जी को लेकर स्थानीय लोगों को बहुत कम जानकारी थी। लेकिन अब स्थितियां खासी बदल चुकी हैं। नार्थ ईस्ट गांधी को अपना आदर्श मानने लगाहै।

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 मैनेजमेंट छात्रों से ग्रामीणों के बीच ले जाता गांधी को 

डी. जॉन चेल्लदुरई

उम्र- 56 साल

कार्यक्षेत्र- महाराष्ट्र

-डी जॉन चेल्लदुरई ज़ोआलजी ( जीव विज्ञान ) के विद्यार्थी थे बीएससी तक। तमिलनाडू की मदुरई यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे। वे बीएससी के बाद वे एमएससी में दाखिला लेने के बारे में विचार कर रहे थे। तब ही  मदुरई की एम.के यूनिवर्सिटी ने एमएससी के लिए गांधी-  पीस एंड कन्फ्लिक्ट स्डडीज ( शांति और संघर्ष) विषय शुरू कर दिया। चेल्लदुरई को इस विषय ने अपनी तरफ खींचा। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने इसमें एमएससी करने का फैसला लिया। यह उनका महात्मा गांधी से पहला परिचय गंभीर था। जाहिर है, उन्हें इस दौरान गांधी को गहनता से पढ़ने-जानने का मौका मिला। अब वे गांधी के विचारों को और गहराई से समझने के लिए   सेवाग्राम, वर्धा चले गए। वहां पर 9 माह रहे। अब  चेल्लदुरई के जीवन की धारा तय हो चुकी थी। वे मन बना चुके थे कि गांधी जी के जीवनदर्शन के अनुसार शेष जीवन बिताया जाएगा। उन्हें गांधी का अध्ययन करते हुए लगा कि वे तो ईसा मसीह के बहुत करीब हैं। दोनों सत्य और प्रेम का ही तो संदेश देते हैं। गांधी पर ही पीएचडी करने के बाद वे नागपुर में जमीनी स्तर पर लोगों के बीच में काम करने लगे। यह 1995 की बात है। उन्होंने यहां पर रहते हुए ‘संवाद ही जीवन’ विषय पर एक कार्यक्रम  विकसित किया। इसके जरिए,उन्होंने कश्मीरी पंडितों और घाटी के मुसलमानों के बीच आपसी मन-मुटाव को दूर करने की गरज से संवाद के कार्यक्रम आरंभ किए। ये बैठकें सौहार्दपूर्ण वातावरण में नागपुर में ही आयोजित हुईं। वे 2005 से 2011 के बीच कश्मीर घाटी बार-बार गांधी का संदेश लेकर ही गए थे। जॉन चेल्लदुरई मानते हैं कि कश्मीर का मसला गोली से नहीं बल्कि गांधी के अहिंसा और बातचीत के रास्ते पर चलकर हल होगा। हिंसा से कुछ  निकलेगा। नागपुर के बाद  उनका गुजरे कुछ वर्षों से कार्यक्षेत्र  महाराष्ट्र का औरंगाबाद और जलगांव शहर हैं। यहां वे यहां  गांधी जयंती और बापू के बलिदास दिवस पर शांति यात्राएं आयोजित करते हैं। वे कहते हैं कि इन शांति यात्राओं  के ही रास्ते हम अपने को शेष सब से जोड़ते हैं। यह एक तरह से बुनियाद है वसुदैव कुटुम्बकम के विचार की। इसका अर्थ है पूरी दुनिया एक परिवार है और धरती एक परिवार। वे औरंगाबाद की महात्मा गांधी मिशन यूनिवर्सिटी पढ़ाते हुए वास्तव में बहुत सार्थक काम कर रहे हैं। वे इधर इंजीनियरिंग, एग्रीकल्चर, मेडिकल, मैनेजमेंट वगैरह के छात्रों को ‘ गांधी, अहिंसा और सत्य’ विषय पढ़ाते हैं। वे बताते हैं कि इस यूनिवर्सिटी में सभी विद्यार्थियों के लिए उपर्युक्त विषय  के पेपर को पास करना अनिवार्य होता है। इसलिए  बच्चे गांधी को पढ़ते हैं और उनके करीब जाते हैं। वे जलगांव के ग्रामीणों को एक तरह से आत्म निर्भर बना रहे हैं। उन्हें आंत्रप्रयोनर बना रहे हैं।  वे ग्रामीणों को डेयरी उध्योग से जोरहे हैं। उन्हें मवेशी खरीदने के लिए लोन दिलवाते हैं ताकि  उनक दूध को  बेचकर ग्रामीण अपनी आय को बढ़ा सकें। उन्हीं के लगातार  प्रयासों से  दर्जनों ग्रामीण  मवेशी खरीद कर दूध शहरों में दूध बेचने लगे हैं।  ये सब बेहद गरीब  ग्रामीण थे। इनकेपास अपनी जमीनें भी नहीं थी। इसलिए चेल्लदुरई ने  सरकारी अफसरों से मिलकर इनके लिए ग्राम सभा की जमीन ली जहां ये अपने मवेशी पाल सकें। एक सवाल के जवाब वे  गांधी जी का हवाला देते हुए कहते हैं कि

 भारत को जानना है तो गांव को जानना पड़ेगा और गांवों को आत्म निर्भर बनाए देश का विकास नहीं होगा। उन्होंने गांधी के इस विचार पर चलते हुए ग्रामीणों को अपना धंधा शुरू करने के लिए प्पेरित किया। चेल्लदुरई की अब तक की सफल यात्रा में उन्हें उनकी पत्नी का भी साथ मिला।  इसलिए उनका रास्ता आसाना होता चला गया।

 

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-देखता गांधी के अपने स्कूल को

कमाल अहसान,

उम्र 52

बुनियादी स्कूल, मोतिहारी, बिहार

कमाल अहसान रोज सुबह सातेक बजे तक अपने घर के पास चलने वाले गांधी जी की तरफ से स्थापित बुनियादी स्कूल में पहुंच जाते हैं। वहां की व्यवस्था देखते हैं। सफाई आदि का प्रबंध करते हैं। उसके बाद शिक्षकों, विद्यार्थियों  और स्कूल से जुड़े मुलाजिमों से बात करते हैं ताकि स्कूल सुचारू रूप से चलता रहे। वे यहां हर रोज आते हैं। कड़ाके की सर्दी हो या मूसलाधार बारिश, कमाल अहसान को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी दुनिया इस स्कूल के इर्द गिर्द ही घूमती है। कमाल एहसान बताते हैं कि सन 1917 में चंपारण आंदोलन के समय जब गांधी जी बिहार आये थे, तो उन्होंने तीन विद्यालयों की स्थापना की। 13 नवम्बर, 1917 को बड़हरवा लखनसेन में प्रथम निशुल्क विद्यालय की स्थापना की। उसके बाद उन्होंने अपनी देख-रेख में 20 नवम्बर,1917 को एक स्कूल भितिहरवा,मोतिहारी और फिर मधुबनी में तीसरे स्कूल की स्थापना की।

कमाल एहसान भितिहरवा के स्कूल से जुड़े हुए हैं। इन स्कूलों को खोलने का मकसद यह था ताकि बिहार के सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले ग्रामीणों के बच्चों को उनके घरों के पास ही शिक्षा मिल जाए। इन स्कूलों में बच्चों को हथकरघा की भी ट्रेनिंग दी जाने लगे जिससे कि उन्हें स्कूल के बाद कोई नौकरी मिल जाए। वे कैसे जुड़े गांधी जी के बुनियादी स्कूल से? कमाल एहसान बताते हैं कि वे तो बिहार सरकार की नौकरी कर रहे थे। लेकिन किसी भी बिहारी तरह वे भी गांधी जी के विचारों से प्रभावित थे। उन्हें लगातार पढ़ते थे। यह सन 2005 की बात होगी जब उनके जिले में एक गांधीवादी जिलाधिकारी आया। उसका नाम था शिव कुमार। उसने यहां आने के बाद भितिहरवा के बुनियादी स्कूल की दुर्दशा को देखा तो उसकी आंखें भिग गईं। जिस स्कूल को गांधी जी ने एक सपने के साथ स्थापित किया था वह तबाह हो चुका था। उससे विद्यार्थी दूर हो चुके थे। उस स्कूल में गांधी का कोई चित्र या सूक्ति तक नहीं लगी थी। उसके महत्व को स्थानीय लोगों ने भी जानना-समझना छोड़ दिया था। उस जिलाधिकारी ने एक दिन जिले के खास नागरिकों को अपने  पास बुलाकर कसकर डांट पिलाई। उन्हें एक तरह से आईंना दिखाया कि वे गांधी जी के बुनियादी स्कूल का भी ख्याल नहीं कर सके। उन्हें शर्म आनी चाहिए। ये सब करने के बाद उन्होंने वहां उपस्थित लोगों से पूछा कि कौन-‘कौन व्यक्ति इस स्कूल को फिर से खड़ा करने में साथ देगा?’ कमाल अहसान ने अपना हाथ खड़ा कर दिया। उन्हें वहां पर ही इसके प्रबंधन का दायित्व सौंप दिया गया। कमाल अहसान ने गांधी जी के स्कूल के कामकाज के देखने के लिए अपनी सरकारी नौकरी ही छोड़ दी। वे बिहार सरकार के राजस्व विभाग में काम कर रहे थे। क्या यह कोई छोटी बात मानी जाए खासतौर पर यह देखते हुए कि उन्हें स्कूल से कोई पगार या मानदेय़ नहीं मिलता है। तो घर का गुजारा कैसे चलता है? कौन देता है इतनी कुर्बानी। कमाल अहसान कहते हैं कि उनका घर स्कूल के करीब ही है। घर की छोटी-मोटी खेती है। इसलिए उनका गुजारा हो जाता है। उन्हें कुछ नहीं चाहिए। कमाल अहसान बीच-बीच में अपने स्कूल की किसी क्लास में जाकर बच्चों को गांधी जी के जीवन दर्शन के बारे में विस्तार से बताते भी हैं। कहते हैं, “बिहार और गांधी का संबंध अटूट है। सारा बिहार गांधी बाबा को अपना संरक्षक और मार्गदर्शक मानता है। अगर सारी दुनिया भी गांधी बाबा के रास्ते से भटक जाएगी तो भी बिहार का रास्ता बापू का ही रास्ता रहेगा।” फिलहाल कमाल अहसान की चिंता यह है कि इतने अहम स्कूल के लिए पर्याप्त अध्यापकों की बहाली नीतीश सरकार कब करेगी। इस एक हजार से ज्यादा बच्चों के स्कूल में सिर्फ 5 अध्यापक हैं। क्या बिहार सरकार में कोई कमाल अहसान सरीखा  फरिश्ता नहीं है, जो बापू के पहले स्कूल के महत्व को समझता हो?

Vivekshukladelhi@gmail.com 

Navbharattimes 30 January 2022


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