का से कहूं / रवि अरोड़ा
किशोरावस्था में पत्रिका 'सरिता 'मैं बड़े चाव से पढ़ता था । इस पत्रिका में एक नियमित कॉलम छपता था 'का से कहूं '। पाठकों के पत्रों पर आधारित इस कॉलम में लोगबाग, खास तौर पर महिलाएं, अपनी वह समस्या साझा करते थे, जिन्हे वह किसी से नहीं कह पाते थे । यह समस्याएं कुछ जीजा-साली टाइप की होती थीं अतः पाठकों की उनमें गहरी रुचि भी होती थी । देश के पांच राज्यों में हुए चुनावों के परिणाम आने पर बड़े बड़े लोगों की वह हालत हो गई है कि उनसे न कहते बन रहा है और न छुपाते । कांग्रेस, बसपा और ओवैसी की पार्टी तो सचमुच का से कहूं वाली स्थिति में पहुंच गई है । हालांकि मैं अपने जैसे उन तमाम पत्रकारों को भी इस फेहरिस्त में रखना चाहूंगा जिनके अनुमान फेल हो गए मगर हम लोग तो कोउ नृप होइ हमैं का हानी कह कर अपने कपड़े झाड़ सकते हैं मगर उनका क्या होगा जिनकी दुकान ही बंद होती नज़र आ रही है ?
लीजिए कमल खिल गया । न केवल उत्तर प्रदेश में बल्कि उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भी । सारे अनुमान गलत साबित हुए और किसान आंदोलन , कोरोना से हुई मौतों , आवारा पशु, बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर जनता ने वोट नहीं किया और एक बार फिर मोदी-योगी की जोड़ी पर ही यकीन किया । हैरानी की बात यह रही कि उस लखीमपुर खीरी में भी भाजपा ने सबका सूपड़ा साफ कर दिया जहां उसके मंत्री के पुत्र ने अपनी जीप से किसानों को कुचल दिया था । वहां भी भगवा झंडा लहरा उठा जहां भाजपा विधायकों का खदेड़ा हुआ था । हालांकि एग्जिट पोल भी कुछ ऐसा ही दावा कर रहे थे मगर फिर भी आशंका बनी हुई थी कि यू पी समेत अधिकांश राज्यों में कहीं त्रिशंकु सरकार न बन जाएं । मगर जनता जनार्दन ने इन आशंकाओं को भी निर्मूल साबित किया और तमाम नई राज्य सरकारों को पूरे पांच साल काम करने का मौका दे दिया ।
चलिए फिर 'का से कहूं'की बात करें । अखिलेश यादव मान कर चल रहे थे कि अगले पांच साल अब उनके हैं , मगर फिर हाथ में धरने प्रदर्शन ही आयेंगे । कांग्रेस भी अब का से कहे ? उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड तो हाथ आए नहीं और पंजाब भी छिटक गया । बसपा नेत्री मायावती के तो राजनीतिक भविष्य पर ही संकट के बादल मंडरा गए हैं । उत्तर भारत में ओवैसी के लिए भी दरवाजे हमेशा के लिए बंद होते नजर आ रहे हैं । पंजाब में बादल परिवार, मुख्यमंत्री चन्नी और नवजोत सिंह सिद्धू तो समझ ही नहीं पा रहे हैं कि उनके साथ क्या हुआ ? उत्तराखंड में हरीश रावत की भी यही हालत हो गई कि ओढ़ते बने न बिछाते । स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे बड़बोले दल बदलू भी इसी गति को प्राप्त हुए ।