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राजीव रंजन के संघर्ष और सफलता की कहानी / डॉ. अरविंद singhv

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 #सफलता_की_कहानी

एक दिन में कोई  Rajeev Ranjan Singh  नहीं बनता, उसे अपने  को बरसों तपाना और खपाना पड़ता है..! 


@डॉ अरविंद सिंह

वह भी, एक कस्बाई शहर आजमगढ़ से अपने नौजवान सपनों की उड़ान भरने पूरब के आक्सफोर्ड इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था.उसके जीवन में भी आम स्टुडेंट्स की तरह विकल्पों की सर्वथा कमी थी. वह भी पूरब की पट्टी के माँ-बाप के अरमानों को लेकर आईएएस बनने संगम नगरी पहुंचा था, सिविल सेवा की तैयारी करने. 

समय की रेखा पर चलते हुए वह आईएएस तो नहीं बन सका, लेकिन एक काबिल पत्रकार जरूर बन गया. शायद एक आईएएस से ज्यादा अपने पेशे-पत्रकारिता से देश और दुनिया में ख्याति और पहचान अर्जित किया. उसकी सफलता की कहानी में संघर्ष है, त्याग है, और जीवन को हर पल चुनौतियों के बीच रिवाइव करने का उसका अदभुत हुनर है, नया करने और नया सीखने की मौलिक ललक है. 'आइडिया आफ इंडिया'की तरह , उसके पास 'आइडिया आफ जर्नलिज्म'का मौलिक और निस्पृह विचार की अमूल्य संपदा है. वह मौलिकता का आखिरी हिमायती है, लेकिन प्रयोगधर्मी होना उसकी फितरत, अपनी भाषा और लोकभाषा के प्रति चिंता और चिंतन है, लिहाजा उसे समृद्ध करने के लिए नेशनल न्यूज़ चैनल पर भी भोजपुरी में जन संवाद करने की अनूठी कला का विशेषज्ञ है.

'माहौल क्या है.?'उसका प्राइम शो है, जनपक्षीय पत्रकारिता करना उसकी पहचान, नाम है राजीव रंजन सिंह, और मुकाम है आजमगढ़. चैनल है 'न्यूज़-24'और पत्रकारिता में पद है- पोलिटिकल एडिटर, लेकिन क़द बहुतों से, बहुत बड़ा है.क्योंकि उसे बड़ा करने में कड़ी मेहनत, त्याग और अपने को हरपल अपडेट रखने की बेचैनी है, जो उसमें है, बड़ा है-इसलिए बडप्पन भी दिखती है, संघर्ष से सफलता के सफ़र तक की यात्रा में हाड़तोड मेहनत, उसकी पूंजी के रूप में एक-एक दिन का निवेश है.

दर्द और धूप-छाँव उसे भी लगती है, लेकिन 'आइडिया आफ जर्नलिज्म'की प्रतिबद्धता, उसके मन-मस्तिष्क में द्वंद्व बनाएं रखती हैं, लिहाजा- 'माहौल क्या है'के जरिये, अपनी पीड़ा को स्वर देता है, आम हिन्दुस्तानी की चिंता को मुखर करता है.

जर्नलिस्ट क्लब'के सम्मान समारोह में जब राजीव रंजन अपनी आपबीती बता रहे थे- एक नौजवान की संघर्ष की कहानी, कैसे सफलता की कहानी बनती है, एक-एक परत खुलती चली जा रही थी, एक पूरा चलचित्र मस्तिष्क में घुम रहा था, जो ध्वनियों के माध्यम से शब्दचित्र बना रहे थे- आत्म संघर्ष और आत्म विवेचन व परिमार्जन की दास्ताँ बयां कर रहे थें.

सफलता का कोई शाटकट नहीं होता है, यह सत्य एक बार फिर हम पत्रकारों की ज़मात में स्थापित हो रहा था. हम सीख रहे थे, समझ रहे थे, कि स्क्रीन पर चमक-दमक दिखने वाले इस मायावी पेशे के पीछे की कठोर मेहनत और जबाबदेही की प्रतिबद्धता. लोकतंत्र में कैसे पत्रकारिता की अदृश्य ताकत, उसे महान और जबादेह होने की प्रतिबद्धता से जनविश्वास का लोक प्रहरी बना दिया है. जो अब धीरे-धीरे दरकने लगा है.

 एक राजीव रंजन को बनाने में पत्रकारिता ने कितने संघर्ष किए होगें, किस-किस एंगिल ने कब-कब उसे गढ़ा और संवारा होगा, कितनी भूलों ने उसे सिखाया होगा. कितनी दुपहरियों ने पसीना बहाएं होगें, तो कितनी रातों ने जागरण किया होगा, तब जाकर एक राजीव रंजन पैदा होता है, इतनी सहनशीलता, इतनी तड़प, इतनी बेचैनी, इतनी मेहनत के हम हिमायती है, तो, तो यह पेशा हमारे लिए है, नहीं तो अब भी समय है, कोई दुकान खोल लें, बिजनेस कर लें, व्यापार कर लें, और सुखमय जीवन के साथ राष्ट्र निर्माण में योगदान दें, पत्रकारिता को बख्श दो यार.. यह राह नहीं आसान.. इतना तो जान गयें होगें..


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