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मेरे पापा / शशि शेखर

 इस आलेख को अवश्य पढ़ें । पेशेवर पत्रकारिता से परे यह ऐसा निजी बयान है , जिसे बीस बरस पहले संसार के तमाम महान पिताओं की स्मृति और अपने पिता के सम्मान में दर्ज किया था ।


मेरे पापा

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बरसों पहले। वह मेरा बचपन था। ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’जैसी नामचीन पत्रिकाओं में अजय-मंजीत की जोड़ी जमकर छपा करती थी। सन् 1980 में यही मंजीत (चतुर्वेदी) मेरे बहनोई बने। मैं तब तक पेशेवर पत्रकारिता में कदम रख चुका था। एक दिन मैंने मंजीत से पूछा, ‘आपने लिखना क्यों बंद कर दिया?’ जवाब था, ‘मैं किसी लेख को शुरू नहीं कर पाता।  शुरुआत के लिए किसी सहारे की जरूरत पड़ती है। अजय (मिश्र) धनबाद चला गया। इसीलिए लिखना बंद हो गया।’ मैं अचरज में आ गया था।


 


लेख की शुरुआत या उसका खात्मा, मेरे लिए कभी संकट के सबब नहीं रहे। विचार खुशनुमा तितलियों की तरह मेरे चारों तरफ मंडराते हैं। हाथ बढ़ाया, जब चाहा, जिसे चाहा, थाम लिया। मुट्ठी बंद, लेख शुरू। मुट्ठी खुली, लेख खत्म। पर आज पहली बार पिता पर लिखने बैठा हूं। यादें हैं, उनके निशान हैं-अनगिनत, अनकहे, अनंत। कहां से शुरू करूं? इस मुश्किल का एक ही हल है। शब्दों के निर्झर को लेख के अनुशासन में नहीं बांधते। कुछ दृश्यों, कुछ यादों और उनके निहितार्थ का कोलाज बना देते हैं।


 


दृश्य : एक। सन्  1973 की गर्मियां-इलाहाबाद।


 


जीरो रोड का एक खस्ताहाल प्रेस। तेरह बरस का लड़का ‘दिन रात’ अखबार के फर्मे लिए बैठा है। पांच घंटे गुजर चुके हैं। मशीनमैन नहीं आया। बच्चा व्याकुल, पर जमा बैठा है। इस प्रेस का यही हाल है। मशीनमैन किसी दूसरे प्रेस में काम करता है। जब ‘जॉब’ आ जाता है, तो उसे बुलाया जाता है। अतिरिक्त कमाई के लिए वह आता है। स्वार्थ उसका भी है, पर नखरे और ठसके ऐसे, जैसे अहसान मेहनताना देनेवाले पर कर रहा हो। ...तो अधीर इंतजार जारी है। अचानक ऊपर के तले से दो लड़कियां नमूदार होती हैं। एक कहती है, ‘अरे, तुम यहीं बैठे हो? चलो तुम्हें चाट खिला लाएं।’ बच्चा झिझकता है, पर  चला जाता है। वे लड़कियां प्रेस के मालिक वाजपेयीजी की बेटियां हैं। वाजपेयी जी जर्मनी से पढ़कर लौटे हैं। सफलता के नाम पर उनके पास सिर्फ वहां की गाथाएं हैं।


 


श्रीमती वाजपेयी मैनपुरी की हैं। इसी नाते वे मेरी‘बुआजी’ हैं। इसीलिए वे लड़कियां मुझे चाट खिलाने ले जा रही हैं। बाद में पूरा वाजपेयी परिवार सहानुभूति जताता है, ‘बेचारा लड़का, सुबह से बैठा है।’ मैं भक से जल उठता हूं। ‘क्या जरूरत है पापा को अखबार निकालने की? अच्छी-भली आकाशवाणी की नौकरी कर रहे थे। सालभर की छुट्टी लेकर यह साप्ताहिक अखबार निकाल दिया?’ अब मैं यहां बैठा हूं, अकेला। फिर ये लोग हैं, सहानुभूति जता रहे हैं या जले पर नमक छिड़क रहे हैं? खैर, ये तो अपने हैं, बड़े हैं। उस कंपोजिटर देवेंद्र तिवारी को देखो। पिछले हफ्ते जब मैं प्रिंटिंग टेक्नॉलोजी पर बात कर रहा था, तब उसने कैसे कहा था, ‘‘यही हाल रहा,तो तुम हाईस्कूल भी पास नहीं कर सकोगे।’वह खुद हाईस्कूल फेल है। कंपोजिटर है। मैं क्या उस जैसा बनूंगा? अंदर जैसे जिद का अलादीन आ बैठा, ‘नहीं। वह अपनी तरह सोचता है। मैं श्रेष्ठ हूं। मैं आगे बढ़ूंगा। यह पड़ाव है, मंजिल नहीं।’


 


ठीक ऐसे ही पापा बोलते हैं। वे गांधीजी का उदाहरण देते हैं। किस तरह बापू पूरे आश्रम का पखाना साफ करते थे। अब्राहम लिंकन किस तरह अपना सारा काम खुद करते थे। मुझे तब लगता था कि वे बहला रहे हैं, पर नहीं। सीख का कठिन दौर जारी था। घर में भी, बाहर भी। उसी दौरान दो बातें अंतर्मन में रच-बस गईं। कभी हारो मत। जब सोचो, बड़ा सोचो। खुद पापा इसकी मिसाल हैं। सन् 1957 में शिकोहाबाद में सूचना विभाग के केयरटेकर के पद से उन्होंने करियर शुरू किया। आखिरी नौकरी थी-आगरा विश्वविद्यालय के कन्हैया लाल माणिक लाल हिंदी विद्यापीठ के कार्यकारी निदेशक की। इसी कुर्सी पर कभी डॉ. राम विलास शर्मा और विद्यानिवास मिश्र विराजते थे।


 


इतिहास साक्षी है। दोनों विभूतियों को यहां के विघ्न विशारदों ने चैन से जीने नहीं दिया। पर पापा ने दो साल जिस सहजता से काटे, उसे लोग याद करते हैं। सपने और कारथ को साधने की निरंतरता का अद्भुत मिश्रण हैं पापा। कुछ आनुवंशिकी, कुछ उनका संपर्क, तो कुछ देखकर सीखते रहने की सहज आदत का ही ये कमाल है। पापा के साथ मैंने-‘कबहुं न छाड़े खेत’ या ‘हम जहां पहुचे, कामयाब आए’-जैसी युक्तियां अपने आसपास फलती-फूलती देखी हैं।


 


दृश्य : दो। सन् 1975 की सर्दियां-मैनपुरी।


 


पापा ज्वालामुखी बने बैठे हैं। मेरा रिपोर्ट कार्ड उनके हाथ में है। अंग्रेजी और गणित में डिब्बा गोल है। उनका गम और गुस्सा फूट रहा है। जवानी में उनकी पहचान मैनपुरी जैसी बंजर जगह में भी पावस के सुकुमार कवि की थी। अपने से छोटों और बराबर वालों के लिए तो वे आदर के पात्र थे ही, बड़ों के बीच भी उनका सम्मान था। सोम ठाकुर सगर्व आज भी उन्हें अपना ‘गुरु’ कहते हैं। ‘रंग जी’ और ‘नीरज’ जी-जैसों के व्यवहार में भी मैंने पापा के लिए हमेशा समादर पाया है। हिंसा और गंवारपन से पापा को स्वाभाविक विरक्ति है। ऐसे में जवान होता बड़ा बेटा अगर फेल हो रहा हो, शहर के गुंडों में उसका वैसा ही रसूख बन रहा हो जैसा कभी उनका साहित्यकारों में होता था, तो फट पड़ना स्वाभाविक था।


 


वे चीखते हैं, ‘इन्हें एक पिस्टल दिला दो। गांव चले जाएं। वहां बहुत हैं, इन-जैसे। मारपीट करें। ‘पकड़’ करें। जो करना है, सो करें, पर मेरी नजरों से दूर हो जाएं।’ वे गरजते हैं। मैं चुप खड़ा रहता हूं। चेहरे पर शायद अवज्ञा पसरी रही हो, पर नजरें नीची थीं। चंदीकरा के जमींदार चौबों की यह खानदानी रवायत है। बड़ों के सामने नजर सीधी करना तो दूर, सामने बैठना भी अपराध माना जाता रहा है। खुद पापा, बाबाजी और ताऊजी को हमेशा ‘साब’ कहके संबोधित करते थे। मैं भी उसी परंपरा का पौधा हूं। बरसते पापा अचानक खामोश हो जाते हैं। एक बोझिल चुप्पी दोनों को जकड़ लेती है, फिर लरजते हुए शब्द कानों में टकराते हैं। लगता है आवाज पापा के मुंह से नहीं, किसी अंधी खोह से आ रही है। मैं सुनता हूं, ‘मुझसे वादा करो, इम्तिहानों में कभी नकल नहीं करोगे। कभी नकल करते नहीं पकड़े जाओगे। मैं तुम्हारे सारे अपराध माफ कर दूंगा, पर नकल नहीं। याद रखना।’


 


उन शब्दों का जादू-सा असर हुआ। मैंने कभी नकल नहीं की। न परीक्षाओं में, न जिंदगी में। हाईस्कूल के बाद हर परीक्षा, परिणामों के लिहाज से पहले से बेहतर साबित होती थी। अब जिंदगी का विश्वविद्यालय रोज इम्तिहान लेता है, तो खुद को आंककर कभी बुरा नहीं लगता। सफल होने के लिए जरूरी है, कभी नकल न करो। जो सीखो, उसे बेहतर तरीके से अमल में लाओ। पापा ने जो बरसों पहले कहा था, ‘मैनेजमेंट गुरु’ आज कह रहे हैं। शुक्रिया! ऐसी नसीहत आप ही दे सकते थे, पापा!


 


दृश्य : तीन। सन् 1978 की बरसात-दिल्ली।


 


मैं और पापा बहादुरशाह जफर मार्ग के बस स्टॉप पर खड़े हैं। पापा‘नवभारत टाइम्स’ में ‘अज्ञेय’ जी से मिलकर निकले। इतना बड़ा, इतना व्यवस्थित दफ्तर मैंने पहले कभी नहीं देखा था। ‘अज्ञेय’ जी के केबिन के बाहर दर्जनों पत्रकारों की टेबलें लगी थीं। एक अजीब-सा सन्नाटा, महक और मिमियाती मर्मर का संगम बन रहा था। आगरा कॉलेज, आगरा के छात्र के लिए वह मोहक मायाजाल से कम नहीं था। मन के किसी अनछुए और अज्ञात कोने में पत्रकार बनने की लालसा जन्म ले चुकी थी। हम नहीं जानते, बनने-बिगड़ने का अंकुरण कब हो जाता है? उसी दिन शायद नियति ने नई राह पकड़ी। सारी जिंदगी अब अखबारों के दफ्तर में ही कटनी थी।


 


खैर, ‘नभाटा’ के दफ्तर से चंद कदम आगे हम बस का इंतजार कर रहे थे। हमें साकेत जाना था। रमेश चंद्र द्विवेदी के घर। वे रमेश चंद्र द्विवेदी जो उस समय राष्ट्रीय सहकारिता संघ के सी.ई.ओ. थे। पापा को उनसे बात करनी थी। वे पापा को दिल्ली बुला रहे थे। पापा ने अपनी आदत के अनुसार सपने बुन लिए थे। पूरे घर को सपनों के सतरंगी रस में डुबो दिया था। हम दिल्ली जाएंगे। क्या रखा है आगरा या मैनपुरी में? दिल्ली जाकर न जाने कौन-कौन, क्या से क्या हो गए? हम भी दिल्ली जाएंगे। आगे बढ़ेंगे। आगे बढ़ने के लिए दिल्ली पहुंचना जरूरी है। दिल्ली पहुंचने के लिए रमेश चंद्र द्विवेदी से मिलना बहुत जरूरी था। द्विवेदी जी से मिलने के लिए साकेत जाना था। साकेत जाने के लिए बस पकड़नी थी और बस थी कि आती नहीं दिख रही थी।


 


डीटीसी की बस और मौत!  न जाने कब और किस रूप में आए, पर देर-सबेर आती जरूर है। बस आई। बुरी तरह लदी-फंदी। मैं चढ़ गया। बस चल दी, पर पापा रह गए। वह दृश्य आज भी बिना किसी धुंधलेपन के यादों में कौंधता है। पापा पूरी तेजी से दौड़ रहे हैं। बस भाग रही है। कंडक्टर बस रोकने की मेरी गुहार नहीं सुन रहा है। गैप बढ़ रहा है, पर पापा थमते नहीं। प्रयास जारी रखते हैं। अचानक चमत्कार होता है। बस आईटीओ के पास रुक जाती है। आगे लाल बत्ती है। पापा बस में चढ़ आते हैं। अगर बत्ती लाल नहीं हुई होती तो...?


 


पर नहीं। पापा के जीवन में बत्तियां हमेशा समय पर लाल, पीली या हरी होती रही हैं। क्यों? वे ईमानदारी से अपने कारथ को साधते हैं। इस घटना के दो बरस बाद अपर्णा (मेरी छोटी बहन) की शादी के लिए लड़का देखा जा रहा था। पापा के बैंक में कुल पैंतीस हजार रुपये थे। मैंने उनसे कहा, ‘इतने में तो बैंक का क्लर्क भी नहीं मिलेगा।’ वे कुछ पल चुप रहे, फिर मेरी आंखों में देखा और बोले, ‘‘बेटा, मैं हमेशा ईमानदार रहा हूं। ईमानदार के साथ ईश्वर होते हैं। देखना, इसी सामने के सोफे पर लड़का बैठा होगा। वह खुद चलकर आएगा।’’


 


कुछ महीने बीत गए। एक शाम मैं ‘आज’ से लौटा। देखा उसी सोफे पर एक युवक बैठा है। वे मंजीत थे, जो आज मेरे बहनोई हैं। ईमानदारी में ऐसी अटूट आस्था मैंने विरलों में ही पाई है। शायद इसलिए ईश्वर संकट के सघनतम क्षणों में भी उनके साथ रहा है। मुझे याद है। एक बार उनके बचपन के एक मित्र कुछ प्रशंसा, कुछ रश्क से कह रहे थे, ‘चौबे जी, आप किस्मत वाले हैं। सबसे बाद में आपकी शादी हुई। सबसे पहले आपके बच्चे स्थापित हो गए।’ वे सही थे। अपने दोस्तों में पापा अकेले ऐसे थे, जिनके रिटायरमेंट से बरसों पहले उनके दोनों बेटे ठीक-ठाक ओहदों पर थे और बेटी के हाथ पीले हो चुके थे। मैं गर्व से कह सकता हूं कि ईमानदारी में पूरे परिवार की आस्था उन्हीं की देन है।


 


दृश्य : चार। सन् 1996 की जनवरी-आगरा।


 


अम्मा का इलाहाबाद से फोन आता है, ‘पापा बहुत बीमार हैं। उन्हें नर्सिंग होम ले जा रहे हैं। तुम आ जाओ।’ पुष्पराज, मेरा दोस्त साथ है। लगातार सुबकता हुआ। रह-रहकर फुसफुसा उठता है, ‘हाय, अंकल मर जाएंगे।’ मैं चुप हूं। भरोसा नहीं होता। पापा मर जाएंगे। ऐसा कैसे हो सकता है? मेरे लिए वे महज जीवनदाता नहीं, जीवन हैं। पापा कैसे जा सकते हैं, कोई बीमारी उन्हें कैसे परास्त कर सकती है?


 


मैं जानता हूं। वे अजर-अमर-अविनाशी नहीं हैं। दौड़ती बस, अचानक लाल या हरी होती बत्तियों के दृष्टांत याद आते हैं। नहीं। पापा को कुछ नहीं होगा। मैं नर्सिंग होम पहुंचता हूं। अम्मा मिलती हैं। हमेशा की तरह प्रदीप्त। आत्मविश्वास से लबरेज। मैं जब छोटा था (आपके लिए तो आज भी वही हूं न, अम्मा) तब हिम्मत टूटने पर वे बढ़ावा देती थीं, ‘अरे! डर मत। सब ठीक हो जाएगा।’ ठीक उसी तरह बोलती हैं, ‘डर मत। पापा को कुछ नहीं होगा।’ मैं आश्वस्त होना चाहता हूं, पर यह क्या? अम्मा ने आज इतनी बड़ी बिंदी क्यों लगा रखी है? ऐसी बिंदी तो वे कभी नहीं लगाती थीं। कुछ अघट होने वाला है क्या? नामुराद डॉक्टर बेचैनी की इस आग में घी डाल देता है। आपके फादर को कैंसर है। टर्मिनल स्टेज है। कभी भी जा सकते हैं। नर्स सूचित करती है, ‘पेशेंट को ब्लड की जरूरत है।’ डॉक्टर मेरी तरफ सवालिया नजर से देखता है। मेरा और पापा का ग्रुप एक है-बी पॉजिटिव। कुछ मिनटों बाद मेरा खून बोतल में जमा हो रहा होता है। मैं सोचता हूं। साहिर ने दुनिया को वो ‘तजुर्बातो हवादिस’ लौटाए थे, जो दुनिया ने उसे दिए थे। मैं पापा को उन्हीं का दिया खून लौटा रहा हूं। उसी समय विचार के कल्ले फूटते हैं। पापा की जिजीविषा, ईमानदारी, साधना, निरंतरता और निर्मलता तुम्हें इस खून के साथ मिली है। इसे लौटाया नहीं बांटा जाता है। आज से खुद को कुछ और बांटो।


 


अगले सवेरे। अपर्णा भी वाराणसी से आ गई थी। हम पापा को आगरा ले जाने वाले थे। अपर्णा को देखते ही वे बोले, ‘तुम आ गईं। तुम्हारी जरूरत थी। शेखर मेरी शक्ति है और तुम मेरी नैतिकता।’ यकीन जानिए, आज भी वे भर्राते शब्द मेरे कानों और अंतर्मन में गूंजते हैं। युवा बेटे और बेटी की ऐसी व्याख्या किसी भाष्यकार ने कभी नहीं की। मृत्यु शैय्या पर पड़े पापा ही ऐसा बोल सकते थे।


 


बहरहाल, हम उन्हें आगरा ले आए। आगरा हमें ऊर्जा देता है, फिर विजय थी वहां, मेरी पत्नी। सदा साथ निभाने को तत्पर। पापा का सबसे दुलारा समर्थ था, मेरा बेटा। उसे देखकर उनकी वत्सलता बरसाती नदी की तरह फूट पड़ती है। मेरी बेटी कृति की मीठी आवाज से वे मुस्कुरा उठते हैं। बरगद को भी झूमने के लिए अपनी शाखों की जरूरत पड़ती है।


 


उसी शाम डॉक्टर संजीव वर्मा ने अल्ट्रासाउंड की लीड उनके पेट से छुआते ही कहा, ‘नहींकैंसर नहीं है। लीवर में पस पॉकेट जमा हो गए हैं। दो हफ्ते में ठीक हो जाएंगे।’ इस बार पास आती मौत के लिए लाल बत्ती हो गई थी। उसे घर के दरवाजे से लौटना पड़ा था। वैसे ही जैसे हर संकट लौटा था। हमें यकीन है। जब तक पापा हैं, हर संकट ऐसे ही हमारी देहरी से हर बार दूर लौटने को बाध्य होगा। ‘ईमानदार आदमी का ईश्वर होता है।’ पापा नि:संदेह ईमानदार हैं, पर क्या ईश्वर भी है? यहीं-कहीं? हमारे बिलकुल पास?’


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