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असभ्य शब्द संसार और नयी पीढ़ी/ अरविंद कुमार सिंह

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 असभ्य शब्द संसार और नयी पीढ़ी


‘उनमें विचारों का मतभेद था। अर्जुन ने भीष्म पितामह पर बाण छोड़ा, लेकिन पहला बाण उनके चरणों में छोड़ा था। हर रात अर्जुन और उनके साथी भीष्म से सत्यनीति और जीवन के अनुभवों की शिक्षा लेने जाते रहे। हमारी नैतिकता का आदर्श हमारे देश में युद्ध के समय भी रहा। ...राजनीतिक क्षेत्र के लोगों को उस नैतिकता के आधार को न भूलने की समय-समय पर चेतावनी देते रहने की आवश्यकता है। हमारे नेतागणों को इस नैतिकता का अगर स्मरण रहेगा तो हमारे जीवन का स्तर ऊंचा होगा। जब वे स्तर से नीचे उतरते हैं तो उनके साथियों का तो ठिकाना ही नही रह जाता।‘

यह टिप्पणी भारत रत्न राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने उस समय की थी जब वे उत्तर प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष थे। विचारों के मतभेद के नाते 31 मार्च, 1948 को महान समाजवादी नायक आचार्य नरेंद्र देव के नेतृत्व में 11 विधायकों ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा देने के साथ उत्तर प्रदेश विधान सभा की सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया। तब दलबदल का कानून नहीं था और वे चाहते तो कई उदाहरणों की तरह अपनी सदस्यता बचा सकते थे। लेकिन नैतिक आधार पर उन्होंने यही राह चुनी। आचार्य नरेंद्र देव ने विधान सभा में इस भाषा में अपनी बात रखी-

‘ कठोर कर्तव्यभावना से प्रेरित होकर तथा आपने आदर्शों और उद्धेश्यों की पूर्ति के लिए हम इस निर्णय पर पहुंचने को विवश हुए हैं। हम मानते हैं कि देश संकट की अवस्था से गुजर रहा है लेकिन इन संकटों की सूची में अपनी संस्कृति तथा जनतंत्र को भी शामिल करते हैं जो आज खतरे में है। ..संस्थाओं और व्यक्तियों के जीवन में ऐसे भी अवसर आते हैं जब उनको अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु का भी त्याग करना पड़ता है। हम संतप्त ह्रदय से अपना पुराना घर छोड़ रहे हैं। लेकिन जो अपनी पैत्रिक संपत्ति है उससे हम दस्तबरदार नहीं हो रहे हैं। यह संपत्ति भौतिक नही है। यह आदर्शों और पवित्र उद्देश्यों की संपत्ति है। ..अगर हम चाहते तो इधर से उठकर किसी दूसरी ओर बैठ जाते लेकिन ऐसा उचित नहीं समझा। ऐसा हो सकता है कि आपके आशीर्वाद से निकट भविष्य में हम इस विशाल भवन के किसी कोने में अपनी कुटी का निर्माण कर सकें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो भी हम अपने सिद्धांतों से विचलित नहीं होंगे।‘

यह तस्वीर उसी जगह की है , जिसे मैंने साझा किया है। उत्तर प्रदेश विधान सभा के उसी चैंबर की तस्वीर जहां ये घटना घटी थी। आचार्यजी ने तो डाक्टर संपूर्णानंद की लिखा पढ़ी में तब भी सेवाएं लेनी जारी रखी थी जब दोनों की राह परस्पर विरोेधी थी। वह बात फिर कभी.. समय के साथ विधायी निकायों में भी भाषा का स्तर बदला है और सोशल मीडिया के आने के बाद तो ऐतिहासिक गंध फैलती दिख रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में हाल में साफ साफ कहा था कि आयुष्मान भारत के लाभार्थी एक करोड़ हो गए हैं, जिनमें 70 फीसदी मामलों में सर्जरी हुई है। लेकिन इस आंकड़े को कोरोना से जोड़ कर उनका मजाक बनाया गया। सोनिया गांधी ने सरकार को सुझाव दिया कि सरकार तमाम खर्चो को कम करे और टीवी और अखबारों का विज्ञापन रोक दे तो उसकी आलोचना हुई कि वे मीडिया विरोधी हैं। इन लोगों ने ही अरविंद केजरीवाल की इसलिए तीखी आलोचना की कि वे अखबारों और टीवी को विज्ञापन दे रहे हैं। ऐसे लोगों में तमाम नाम जोड़ लीजिए योगी आदित्यनाथ से लेकर ममता बनर्जी और उद्दव ठाकरे से लेकर शिवराज चौहान तक। बस कुछ पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों के वे मुख्यमंत्री बचे हैं जिनके बारे में हम ही अधिक जानते नहीं। दिलचस्प बात यह भी है कि अमेरिका में जो घट रहा है उसके लिए भी भारत के मुसलमानों और वामपंथियों को कोसना, आपदा में कोई मदद करने की कोशिश कर रहा हो तो राजनीतिक विरोध के आधार पर उसके कपड़े उतार लेना, किसी भी मामले में बेहद घटिया शब्दों का उपयोग करना, किसी भी निर्वाचित सरकार के फैसलों पर असभ्य तरीके से विरोध करना यह आम नजारा दिख रहा है। यह वे लोग भी कर रहे हैं जो खुद को राजनीतिक कार्यकर्ता बताते हैं, भले ही उनको अपने मुहल्ले का पार्षद भी नहीं पहचानता हो। वे लोग भी कर रहे हैं जो शब्दों के खिलाड़ी और ठीक ठाक अच्छे पत्रकार औऱ लेखक माने जाते हैं। उनका लिखा पढ़िए और अखबार में उनका लिखा पढ़िए तो लगेगा कि ऐसा व्यक्ति ऐसी भाषा तो लिख ही नहीं सकता है। ऐसे लोगों में राजनीतिक दलों से जुडे लोग भी हैं और सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग भी। हिंदू मुसलिम संगठनों के लोग भी शामिल हैं और कुछ बुजुर्ग रिटायर लोग भी। उनकी टिप्पणियां उनकी मानसिक स्थिति के साथ उनके अवसादी रूप को दिखाती हैं। जाहिर है इनमें कुछ लोगों को डाक्टरों की मदद की जरूरत है। क्योंकि ई भी व्यक्ति ऐसी भाषा का उपयोग करके लोगों के दिलों में जगह बना सकता है? 

दुनिया भर में शाब्दिक मर्यादा में काम करने वाले लेखक, पत्रकार, राजनेता, सामाजिक क्षेत्र में काम करने वालों की ही प्रतिष्ठा कायम है। भारत में महात्मा गांधी से लेकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसे शिखर नेता शाब्दिक संस्कारों के सबसे बेहतरीन उदाहरण हैं। लोकतंत्र का मतलब ही है खुली हवा में सांस लेना। इसमें कड़ा से क़ड़ा विरोध और वैचारिक विरोध बेहतर शब्दों के साथ किया जा सकता है। इसके लिए उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। इंटरनेट पर बैठे बैठे अगर आप विठ्ठल भाई पटेल, पंडित मदनमोहन मालवीय, जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, गोविंद बल्लभ पंत, अटलजी, अडवाणी जी, भूपेश गुप्ता, राममनोहर लोहिया, मैथिलीशरण गुप्ता से लेकर रामधारी सिंह दिनकर जैसे सैक़ड़ों लोगों के भाषणों को खोज कर पढ़ लें तो पता चलेगा कि शब्दों की मर्यादा के साथ कैसे ताकतवर से ताकतवर विरोध कैसे किया जा सकता है। आज से नहीं आप पुरानी विधान परिषदों, सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली, लोक सभा और राज्य सभा की साइट पर जाकर भी तमाम तमाम पुराने भाषणों को देख सकते हैं। 

लेकिन सोशल मीडिया पर जैसी भाषा का हम उपयोग हो रहे है, जाहिर है हमारी भावी पीढ़ी उससे भी चार हाथ आगे बढ़ेगी और हमसे भी अधिक खराब भाषा का उपयोग करेगी। मेरा मानना है कि ऐसी भाषा के बाजीगरों को अपनी नहीं तो आईटी और सूचना क्रांति के बीच में पैदा हुई नयी पीढ़ी पर तरस खाना चाहिए। कुछ भी लिखते समय यह तो देखें कि इसका दायरा आपका मुहल्ला नहीं, पूरी दुनिया है। सभ्य समाज की तरह सभ्य शब्दों का भी अपना संसार है। यह मेरा सुझाव भर है, मैं जानता हूं कि यह बात कई लोगों के गले फिर भी नहीं उतरेगी, लेकिन एक लेखक के नाते मुझे लगता है कि यह एक विचारणीय प्रश्न है।


(c) अरविंद कुमार सिंह


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