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पत्रकारिता:तब और अब / यशवंत सिंह

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 पत्रकारिता:तब और अब

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तब टेलीविजन का दौर नहीं था।पर,अब तक याद है देवकीनंदन पांडेय,इंदुवाही और कुछ इसी स्तर के समाचार वाचकों का ऑल इंडिया रेडियो से वह समाचार वाचन।समाचारों की विश्वसनीयता पर दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण, भले कोई उंगली उठाले,पर वाचन की शालीनता और प्रस्तुति के प्रभाव के लिए, उसके धुर विरोधी भी प्रशंसक थे।


अबतक याद है बीबीसी से प्रसारित होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय समाचार के कार्यक्रम 'आजकल'में रत्नाकर भारती की फड़कती हुई आवाज का जादू।हो सकता है,तब भी इन समाचारों में कोई लोच हो,फिर भी लोग उसे सबसे विश्वसनीय मानते थे।वाशिंगटन  से प्रसारित होने वाले हिंदी समाचारों के प्रसारण का कार्यक्रम भी शानदार हुआ करता था।


विश्व की समस्याओं पर अलग ढंग से सोचने वाले अमरीका के उस हिंदी प्रसारण को भी,जनमानस में उतनी ही विश्वसनीयता प्राप्त थी।आज की तरह नहीं कि कुछ विश्वसनीय होने पर भी,उसे शंका की दृष्टि से देखा जाता हो। इन समाचारों को मात्र सुनकर ही समाचारों की भूख लगभग शांत हो जाती थी।दिमाग को भी सुकून मिलता था।श्रोता के सामान्य ज्ञान का स्तर काफी हद तक बढ़ जाता था।


अब दूरदर्शन का दौर है।रेडियो कहीं दिखाई नहीं पड़ता।उसे सुनना अब 'आउट डेटेड'माना जाता है। न्यूज़ चैनल्स की बाढ़ है।पर वहां 'व्यूज'जरूर मिल जाते हैं, 'न्यूज़'सिरे से गायब हैं।अब सिर्फ सुनते ही नहीं, हम समाचार देखते भी हैं।पर तब जो काम अकेले कान कर देते थे,अब आंख और कान दोनों मिलकर भी नहीं कर पाते।


हिंदी समाचारों की यह कर्कश कानफाड़ू प्रस्तुति,मुर्गों की तरह आपस में लड़ते हुए वार्ताकार, सिर्फ 'कंफ्यूज'ही नहीं करते,पूरी तरह 'फ्यूज'कर देते हैं।आपकी अपनी सोंचने समझने की जो थोड़ी बहुत समझ शेष बची हुई है,वह भी किसी अंधी सुरंग में भटकने को विवश हो जाती है।पूरी तरह दिशाहीनता का शिकार हो कर,जहां पहुंचना चाहिए,वहां तो कत्तई नहीं पहुच पाते।अलबत्ता जहां नहीं पहुंचना चाहिए, वहां जरूर पहुंच जाते हैं।राह भटक कर, पता नहीं कहां कहां?


किसी ऐसी जगह, जहां एक ऐसा अंधेरा होता है,जो दिन से भी ज्यादा खूबसूरत अवश्य है,पर सबेरा नहीं है।रोशनी तो है,पर जिससे आज के नए पौधे स्वपोषण प्राप्त कर सकें वह धूप नहीं है।हम ये तो नहीं कह सकते कि इसमें कुछ है ही नहीं।पर जो है भी,वह वाचकों के शोरगुल में सिर्फ एक 'शोर'बन के रह जाता है।


यह तो रही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बातें। प्रिंट मीडिया की तस्बीर भी लगभग वैसी ही है।अच्छी,सोद्देश्य और रचनात्मक बातों के लिए उसमें भी 'स्पेस'बहुत घटा है।वह भी अब एक खास तरह की विचारधारा से प्रेरित है।अच्छे और स्तरीय लोग भी तालमेल (एडजस्टमेंट) के शिकार हो जाते हैं,ताकि किसी तरह छप सकें।


हमारी मंशा है कि लोग पत्रकारिता की नीयत पर पर सवाल न उठा सकें।इससे कुछ हासिल करें।एक ऐसी वाचन संकृति विकसित हो,जो देश और जनमानस को दिशा दे सके।किसी अंधी सुरंग में ले जाकर न छोड़े।विश्वसनीय बन सके।लोगों की भूख शांत कर सके।उनकी जिज्ञाषा को भी बढ़ाये।

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-यशवंत सिंह

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