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छोटे नेपोलियन की चिर विदा! #डेलीहिंदीमिलाप भारत के पूर्व रक्षामंत्री मुलायम सिंह यादव (1939 - 2022) के निधन के साथ लोहियावादी-समाजवादी राजनीति के एक युग का अवसान हो गया। 1960 के दशक में पहलवानी के अखाड़े के साथ साथ उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया से प्रभावित होकर अध्यापकी छोड़ कर राजनीति का रुख किया; और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। आज इस बात पर अचरज हो सकता है लेकिन यह सच है कि 1967 में विधानसभा चुनाव में अपना प्रचार करने के लिए उनके पास केवल साइकिल थी। यह देख कर गाँव के लोगों ने उपवास करके उनकी गाड़ी के लिए पैसा बचाया। ऐसे 'नेताजी'का जीतना तो तय ही था। वे जीते और तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और एक बार भारत सरकार में रक्षामंत्री भी बने। मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर वैसे काफी उतार चढ़ाव वाला रहा। इस दौरान उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा, राजनीतिक कुश्तियाँ लड़नी पड़ीं। उनके प्रशंसक उनके जीवन को संघर्ष का पर्याय मानते थे। उन्होंने यह संघर्षमय सफर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी से शुरू किया था। लेकिन लोहिया की मृत्यु के बाद उस पार्टी के कमजोर पड़ने पर उन्होंने चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल का दामन थामा। चौधरी चरण सिंह उनकी सक्रियता से इतने प्रभावित थे कि उन्हें 'छोटे नेपोलियन'कह कर पुकारा करते थे। लोकदल और मुलायम दोनों ने एक दूसरे को मजबूत किया और धीरे धीरे उनका नाम राष्ट्रीय नेताओं में शुमार हो गया। 1992 में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन किया और भारतीय राजनीति में एक धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने अन्य पिछड़ा वर्ग समाज के सामाजिक स्तर को सुधारने में महत्वपूर्ण कार्य किया। याद रहे कि अपनी सामाजिक चेतना के कारण यह वर्ग उत्तर प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सयाने याद दिला रहे हैं कि 1996 में मुलायम सिंह यादव ग्यारहवीं लोकसभा के लिए मैनपुरी लोकसभा क्षेत्र से चुने गए थे और संयुक्त मोर्चा सरकार में देश के रक्षा मंत्री बने थे। उस समय उनके प्रधानमंत्री बनने की बात भी उठी थी। प्रधानमंत्री पद की दौड़ में वे सबसे आगे थे, लेकिन लालू प्रसाद यादव और शरद यादव के विरोध के कारण यह न हो सका! यहाँ यह भी याद किया जा सकता है कि मुलायम सिंह यादव भले ही पक्के लोहियावादी थे, लेकिन सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से उनके निजी रिश्ते काफी मधुर थे। इसीलिए उन्हें कभी किसी भी पार्टी को अपने साथ लेने या खुद किसी भी पार्टी के साथ जाने में खास परेशानी नहीं हुई। वे भले ही भारतीय जनता पार्टी को मरा हुआ साँप कहते थे, लेकिन स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर नरेंद्र मोदी तक के प्रशंसक भी थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तो उन्होंने संसद में पुनः आने हेतू शुभकामनाएँ भी दी थीं। यानी, वे दलगत राजनीति को निजी रिश्तों पर हावी नहीं होने देते थे। अंततः, मुलायम सिंह यादव का नाम उन गिने चुने नेताओं में शामिल है, जो राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए कटिबद्ध थे। लेकिन इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं कि वे अन्य भाषाओं के प्रति द्वेष रखते रहे हों या लापरवाह रहे हों। उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में ईमानदारी से उत्तर प्रदेश में त्रिभाषा सूत्र को लागू करने पर बल दिया। कहना न होगा कि उनका भारतीय भाषाओं के प्रति यह प्रेम उनके राजनीतिक गुरु राम मनोहर लोहिया के 'अंग्रेज़ी हटाओ'आंदोलन की देन था। इसीलिए उन्होंने उत्तर प्रदेश के शिक्षकों के लिए दक्षिण भारत की भाषाएँ सीखने की भी व्यवस्था की थी। कहना न होगा कि उनकी चिरविदा हमारे बीच से राष्ट्रभाषा हिंदी के एक प्रबल समर्थक की भी चिरविदा ह

 छोटे नेपोलियन की चिर विदा!

#( डेलीहिंदीमिलाप)

भारत के पूर्व रक्षामंत्री मुलायम सिंह यादव (1939 - 2022) के निधन के साथ लोहियावादी-समाजवादी राजनीति के एक युग का अवसान हो गया।  1960 के दशक में पहलवानी के अखाड़े के साथ साथ उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया से प्रभावित होकर अध्यापकी छोड़ कर राजनीति का रुख किया; और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 


आज इस बात पर अचरज हो सकता है लेकिन यह सच है कि 1967 में  विधानसभा चुनाव में अपना प्रचार करने के लिए उनके पास केवल साइकिल थी। यह देख कर गाँव के लोगों ने उपवास करके उनकी गाड़ी के लिए पैसा बचाया। ऐसे 'नेताजी'का जीतना तो तय ही था। वे जीते और तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और एक बार भारत सरकार में रक्षामंत्री भी बने।


मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर वैसे काफी उतार चढ़ाव वाला रहा। इस दौरान उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा, राजनीतिक कुश्तियाँ लड़नी पड़ीं। उनके प्रशंसक उनके जीवन को संघर्ष का पर्याय मानते थे। उन्होंने यह संघर्षमय सफर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी से शुरू किया था। लेकिन लोहिया की मृत्यु के बाद उस पार्टी के कमजोर पड़ने पर उन्होंने चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल का दामन थामा। चौधरी चरण सिंह उनकी सक्रियता से इतने प्रभावित थे कि उन्हें 'छोटे नेपोलियन'कह कर पुकारा करते थे। लोकदल और मुलायम दोनों ने एक दूसरे को मजबूत किया और धीरे धीरे उनका नाम राष्ट्रीय नेताओं में शुमार हो गया।


1992 में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन किया और भारतीय राजनीति में  एक धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में  उन्होंने अन्य पिछड़ा वर्ग समाज के सामाजिक स्तर को सुधारने में महत्वपूर्ण कार्य किया। याद रहे कि अपनी  सामाजिक चेतना के कारण यह वर्ग उत्तर प्रदेश की राजनीति में  महत्वपूर्ण स्थान रखता है। 


सयाने याद दिला रहे हैं कि 1996 में मुलायम सिंह यादव ग्यारहवीं लोकसभा के लिए मैनपुरी लोकसभा क्षेत्र से चुने गए थे और  संयुक्त मोर्चा सरकार में देश के रक्षा मंत्री बने थे। उस समय उनके प्रधानमंत्री बनने की बात भी उठी थी। प्रधानमंत्री पद की दौड़ में वे सबसे आगे  थे, लेकिन लालू प्रसाद यादव और शरद यादव के विरोध के कारण यह न हो सका!


यहाँ यह भी याद किया जा सकता है कि मुलायम सिंह यादव भले ही पक्के लोहियावादी थे, लेकिन सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से उनके निजी रिश्ते काफी मधुर थे। इसीलिए उन्हें कभी किसी भी पार्टी को अपने साथ लेने या खुद किसी भी पार्टी के साथ जाने में खास परेशानी नहीं हुई। वे भले ही भारतीय जनता पार्टी को मरा हुआ साँप कहते थे, लेकिन स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर नरेंद्र मोदी तक के प्रशंसक भी थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तो उन्होंने संसद में पुनः आने हेतू शुभकामनाएँ भी दी थीं। यानी, वे दलगत राजनीति को निजी रिश्तों पर हावी नहीं होने देते थे। 


अंततः, मुलायम सिंह यादव का नाम उन गिने चुने नेताओं में शामिल है, जो राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए कटिबद्ध थे। लेकिन इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं कि वे अन्य भाषाओं के प्रति द्वेष रखते रहे हों या लापरवाह रहे हों। उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में ईमानदारी से उत्तर प्रदेश में त्रिभाषा सूत्र को लागू करने पर बल दिया। कहना न होगा कि उनका भारतीय भाषाओं के प्रति यह प्रेम उनके राजनीतिक गुरु राम मनोहर लोहिया के 'अंग्रेज़ी हटाओ'आंदोलन की देन था। इसीलिए उन्होंने उत्तर प्रदेश के शिक्षकों के लिए दक्षिण भारत की भाषाएँ सीखने की भी व्यवस्था की थी। कहना न होगा कि उनकी चिरविदा हमारे बीच से राष्ट्रभाषा हिंदी के एक प्रबल समर्थक की भी चिरविदा है! 000


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