सुशोभित-
पुणे गांधी तीर्थ भी है। आगा खां पैलेस यहां है, जहां गांधी १९४२-४३ में २१ महीने नज़रबंद रहे। यहीं पर कस्तूरबा और महादेव भाई देसाई का देहान्त हुआ। यरवदा जेल भी पुणे में ही है।
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गांधी और रजनीश दोनों मेरे गुरु हैं। आप कहेंगे दोनों तो परस्पर विपरीत थे, फिर दोनों गुरु कैसे? मैं कहूंगा सामंजस्य और संश्लेष की दृष्टि से देखें तो पाएंगे दोनों पूरक हैं। गांधी के यहां धर्म है, रजनीश के यहां अध्यात्म। गांधी के यहां नीति है, रजनीश के यहां रीति। गांधी जीना सिखाते हैं, रजनीश मरना। इस पर भी कोई मित्र आपत्ति ले सकता है कि भला गांधी जीना कैसे सिखाते हैं? जीना तो रजनीश सिखाते हैं, वहां पर आनंद और उत्सव है।
मैं कहूंगा वह केवल जीवन का बहिरंग है, जीवन नहीं है। और अगर आप साधक हैं और निष्कलुष हैं, कुंठित नहीं हैं, तो मितव्ययिता, दीनता, शील, नैतिकता, अहिंसा और सत्यता आपके लिए अधिक उपयोगी है, बनिस्बत राग-रंग के। गांधी देह और मन को साधना सिखाएंगे, रजनीश देह और मन के परे जाना। मित्रगण गांधी से दमन सीखते हैं और रजनीश से भोग। दोनों ही गलत सबक हैं। किससे क्या सीखना है, यह भी एक कला है, दृष्टि है।
और रजनीश मरना कैसे सिखाते हैं? रजनीश के पूरे उद्यम का सार है, साक्षी होकर जीना ताकि साक्षी होकर मर सको। जो साक्षी होकर मर गया वह फिर लौटकर नहीं आयेगा। ‘मरो हे जोगी मरो’ और ‘मैं मृत्यु सिखाता हूं’, रजनीश ने यों ही नहीं कहा था।
अष्टांग योग में पहले पांच चरण बहिरंग हैं, बाद के तीन अंतरंग। पहले पांच चरण शील के हैं, बाद के तीन साधना के। बुद्ध के आठ मार्ग और महावीर के पांच महाव्रत भी शील के हैं। स्वयं रजनीश ने अपनी पुस्तक ‘ध्यान सूत्र’ में देह शुद्धि, भाव शुद्धि आदि की बात कही है। मैं कहूंगा गांधी से शील सीख लो, रजनीश से साधना, इसमें कोई विरोध नहीं है। अभी उल्टा हो रहा है। गांधी के चेले पाखंड सीख रहे हैं और रजनीश के चेले स्वच्छंदता। जीवन-सत्य दोनों से दूर हुआ मालूम होता है।
इन अर्थों में पुणे यात्रा संश्लेष की यात्रा रही। गांधी तीर्थ और रजनीश धाम दोनों यहां मिल गए। अब घर लौटने का समय है। यात्रा अब पूर्ण हो रही है।
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