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भुट्टो कुनबा- जूनागढ़ से मुंबई- दिल्ली वाया पाकिस्तान / विवेक शुक्ला

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बिलावल भुट्टो जरदारी ने मुंबई के कैथडेरल स्कूल का नाम संभवत: अपनी मां बेनजीर भुट्टो से सुना होगा। जब पाकिस्तान 1947 में दुनिया के नक्शे में आया तब तक बिलावल के नाना जुल्फिकार अली भुट्टो इस स्कूल से निकल चुके थे। भुट्टो परिवार पाकिस्तान 1947 में नहीं गया था। मुसलमानों के लिए बने पाकिस्तान में भुट्टो खानदान ने 1950 में शिफ्ट किया था। उनके राजनीतिक दुश्मन इस मुद्दे पर उनकी पाकिस्तान को लेकर निष्ठा पर सवाल उठाते रहते हैं। इस निशाने से बचने के लिए भुट्टो कुनबे को एक ही काट नजर आती है। वह है भारत का कसकर विरोध करना।


बिलावल भुट्टो जरदारी ने कुछ दिन पहले न्यूयार्क में प्रधानमंत्री  नरेन्द्र मोदी को "गुजरात का कसाई"कहा है।”बिलावल की गटर बयानबाजी पर हैरत करने की आवश्यकता तो नहीं है, क्योंकि उन्हें पता है कि उनके भारत विरोध में ही उनके भविष्य की संभावनाएं छिपी हुई हैं। वे जितना ज्यादा भारत और हिन्दू विरोध करेंगे उतने ही अपने मुल्क में लोकप्रिय होंगे। ये उन्होंने अपने नाना जुल्फिकार अली भुट्टों के भारत को लेकर दिए बीसियों बयानों को पढ़कर सीख लिया होगा ।


जुल्फिकार भुट्टो का कई अर्थों में भारत से करीबी संबंध था। उनके मुम्बई और जूनागढ़ से रिश्तों की जानकारी जगजाहिर है। भुट्टो जब मुम्बई के प्रतिष्ठित कैथडरल स्कूल में पढ़ रहे थे तब उनके परम मित्र थे पीलू मोदी,जो राज्य सभा में भी रहे। पीलू मोदी ने अपनी किताब ‘Zulfi My friend’ में एक जगह लिखा भी है कि हालांकि हम दोनों घनिष्ठ मित्र थे 1946 में, पर जुल्फिकार टू नेशन थ्योरी पर यकीन करते थे। वे जिन्ना के आंदोलन को सही मानते थे। इसके विपरीत उन्हें कभी ये बात समझ नहीं आ रही थी कि भारत धर्म के नाम पर बंटेगा।  पीलू मोदी आर्किटेक्ट थे और उन्होंने ही राजधानी के ओबराय इंटरकांटिनेंटल होटल को डिजाइन किया था।


भुट्टो की हिन्दू मां


 भुट्टो के पिता सर शाहनवाज भुट्टो देश के विभाजन से पहले मौजूदा गुजरात की जूनागढ़ रियासत के प्रधानमंत्री थे। भुट्टो की मां हिन्दू थी। उनका निकाह से पहले नाम लक्खीबाई था। बाद में हो गया खुर्शीद बेगम। वो मूलत: राजपूत परिवार से संबंध रखती थी। उन्होंने निकाह करने से पहले ही इस्लाम स्वीकार कर लिया था। कहने वाले कहते हैं कि शाहनवाज और लक्खीबाई के बीच पहली मुलाकात जूनागढ़ के नवाब के किले में हुई। वहां पर लक्खीबाई भुज से आई थी। शाहनवाज भुट्टो जूनागढ़ के प्रधानमंत्री के पद पर 30 मई,1947 से लेकर 8 नवंबर,1947 तक रहे। यानी पाकिस्तान के बनने के कई महीनों के बाद तक। जब बेनजीर भुट्टो की निर्मम हत्या हुई थी तब जूनागढ़ में भी शोक की लहर दौड़ गई थी। यहां के वांशिदें बेनजीर भुट्टो को कहीं न कहीं अपना ही मानते थे। जूनागढ़ शहर की जामा मस्जिद में इमाम मौलाना हाफिज मोहम्मद फारूक की अगुवाई में उनकी आत्मा की शांति के लिए नमाज भी अदा की गई थी।


एक बड़ा सवाल ये भी है कि देश के विभाजन के वक्त भुट्टो और उनका परिवार पाकिस्तान क्यों नहीं चला गया था? जब गांधी जी की 1948 में हत्या हुई तब वे अमेरिका में पढ़ रहे थे। संयोग से वहां पर पीलू मोदी भी थे। वे मोदी को सांत्वना दे रहे थे। वे जिन्ना की 11 सितंबर,1948 को मौत के वक्त भी मुंबई में थे। ये सब जानकारी पीलू मोदी अपनी किताब में देते हैं। भुट्टो कुनबे के विरोधी इस मुद्दे को बार-बार उठाते हैं कि ये देश के बंटवारे के तुरंत बाद पाकिस्तान शिफ्ट नहीं हुए थे। खैर, भुट्टो परिवार  1950 के बाद पाकिस्तान जाकर बसा। भुट्टो ने वहां पर अपनी छवि एक समाजवादी विचारधारा में यकीन रखने वाले इंसान के रूप में विकसित की। हालांकि वे निजी जीवन में कतई समाजवादी नहीं थे।


देश तोड़ने वाला बना पीएम


भुट्टो 1973 से 1977 तक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे। जरा सोचिए कि जिस शख्स का पाकिस्तान के दो फाड़ करवाने में अहम रोल था वह 1973 के पाकिस्तान के आम चुनाव में जीतकर मुल्क का प्रधानमंत्री ही बन गया। बना इसलिए क्योंकि उन्होंने उसी न्यूयार्क शहर में भारत-पाकिस्तान युद्ध की समाप्ति के बाद संयुक्त राष्ट्र सभा को संबोधित करते हुए भारत को अनाप-शनाप बका था। इसके चलते पाकिस्तानी अवाम ने उनकी पाकिस्तान को तोड़ने की खता को माफ कर दिया। 51 सालों के बाद उनके पौत्र ने भारत पर निशाना साधा। मतलब नाना के नक्शे कदम पर चल रहे हैं बिलावल।


 किसे मरवाया था भुट्टो ने


 बहरहाल, भुट्टो 35 साल की उम्र में पाकिस्तान के विदेश मंत्री बन गए थे।  1965 में अयूब खान को उनके विदेश मंत्री भुट्टो द्वारा कश्मीर में घुसपैठियों को भेजने के लिए भड़काया गया था। शास्त्री ने इसका जवाब लाहौर की तरफ अंतरराष्ट्रीय सीमा पार टैंक भेज कर दिया।ये लड़ाई ताशकंद (आज का उजबेकिस्तान) में सोवियत यूनियन की मध्यस्थता से शांति के साथ ख़त्म हुई। लेकिन अय्यूब ख़ान से मतभेद होने के कारण उन्होंने अपनी नई पार्टी (पीपीपी) 1967 में बनाई। 1962 के भारत-चीन युद्ध, 1965 और 1971 के पाकिस्तान युद्ध, तीनों के समय वे महत्वपूर्ण पदों पर आसीन थे। 1965 के युद्ध के बाद उन्होंने ही पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम का शुरूआती ढाँचा तैयार किया था। उन्हें चार अप्रैल 1979 को फ़ाँसी पर लटका दिया गया था। भुट्टो को रावलपिंडी की जेल में फांसी पर लटका दिया था।फांसी देने के महज़ दो साल पहले तक वे पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म थे। उन पर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी मोहम्मद अहमद खान कसूरी को मरवाने का इल्ज़ाम था।


ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की मौत के नौ साल के बाद उनकी बेटी बेनज़ीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनीं। बेनजीर का भारत विरोध अपने पिता जितना तीखा नहीं था। बहरहाल, दो सवालों के जवाब अभी तक नहीं मिल सके कि एक हिन्दू मां का बेटा इतना घोर भारत तथा हिन्दू विरोधी क्यों था और दूसरा भुट्टो खानदान देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान तुरंत क्यों नहीं गया?


 भुट्टो के पिता शाहनवाज भुट्टो की बात किए बगैर बात तो अधूरी ही रहेगी। वे भी कट्टर भरात विरोधी थे। हालांकि जूनागढ़ में 99 से अधिक फीसद आबादी हिन्दुओं की थी पर वहां पर राज मुहम्मद महाबत खनजी का था। शाहनवाज उनकी रियासत में प्रधानमंत्री थे। उन्होंने खनजी कोसलाह दी कि वह जूनागढ़ का पाकिस्तान में विलय कर लें। पर इसका वहां की जनता ने कसकर विरोध किया। जूनागढ़ में जनमत संग्रह भी हुआ। यह 1948 में हुआ था और वहां के 99.95 फीसद लोगों ने भारत के साथ ही रहने का फैसला किया था।


शाहनवाज का दूसरा निकाह किससे


 शाहनवाज भुट्टो ने पाकिस्तान शिफ्ट होने के बाद बिब्बो नामा की एक अदाकरा से निकाह किया कर लिया। वह बला की खूबसूरत और हाजिर जवाब औरत थीं। उसकी आवाज में जादू था। उसे शेरो- शायरी में दिलचस्पी थी। उसे उस्ताद शारों के सैकड़ों शेर याद थे। वह संगीत निर्देशक और हिरोइन भी थी। बिब्बो (1906- 1972) की मां भी अच्छा गाती थीं। वह दिल्ली से थी। बिब्बो महत्वाकांक्षी थी और छोटी उम्र में ही मुंबई चली गई थीं। उसने 1947 तक हिन्दी फिल्मों में खूब नाम कमाया। रेलवे बोर्ड के पूर्व मेंबर और हिन्दी फिल्मों के गहन जानकार डॉ. रविन्द्र कुमार बताते हैं कि वे जब 1990 के दशक में वेस्टर्न रेलवे में नौकरी के दौरान मुंबई में पोस्टेड थे तब उन्हें बिब्बो के बारे में जानकारी मिली। उसके बाद उन्होंने बिब्बो के संबंध में और पता लगाया।


 किसकी समकालीन थी बिब्बो


दरअसल बिब्बो समकालीन थीं देविका रानी, दुर्गा खोटे, सुलोचना, मेहताब, शांता आप्टे और नसीम बानों की। कहते हैं कि उसकी नसीम बानों से खूब पटती थी क्योंकि दोनों दिल्ली से थीं। बिब्बो देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान चली गई। एक तरह से वह अपने ठीक-ठाक करियर को छोड़कर सरहद के उस पार चली गई थी। उसने तब तक करीब तीन दर्जन फिल्मों में काम कर लिया था। बिब्बो ने मास्टर निसार और सुरेन्द्र जैसे कलाकारों के साथ भी काम किया था। उसने सुरेन्द्र के साथ ‘मनमोहन’ (1936), ‘जागीरदार (1937), ग्रामोफोन सिंगर (1938) तथा लेडिज ओनली (1939) जैसी कामयाब फिल्मों में काम किया। पाकिस्तान में उसने शाहनवाज भुट्टो से इशक के बाद निकाह कर लिया। उन्होंने पाकिस्तान में दुपट्टा, गुलनार नजराना, मंडी, कातिल जैसी फिल्मों में अपने अभिनय के जौहर दिखाए। उसे घोड़ों की रेस में पैसा लगाने का शौक था। ” बिब्बो ने शाहनवाज भुट्टो से शादी करने से पहले एक शादी पहले भी की हुई थी। उसका कराची में 1960 के दशक में इंतकाल हो गया था।


  पहली बार कब भुट्टो दिल्ली आए


जुल्फिकार अली भुट्टो 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरु की अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए राजधानी में आई पाकिस्तान सरकार की टोली के मेंबर थे। यानी वे उस शहर में आए थे जिधर से उनके पिता की दूसरी पत्नी बिब्बो का संबंध था। बेनजीर भुट्टो दिल्ली में कम से कम दो-तीन बार आईं। वह राजीव गांधी की अत्येष्टि में 1991 में भाग लेने आईं थीं। उसके बाद वह भारतीय उद्योग महासंघ (सीआईआई) के सम्मेलन में शिरकत करने के लिए 2003 में भी दिल्ली आईं थीं। वह तब सीधे दुबई से आईं थीं। बेनजरी भुट्टो तब लाल कृष्ण आडवाणी से मिलने उनके सरकारी आवास पर भी गई थीं। अब यह कहना तो मुश्किल है कि क्या पिता और पुत्री को दिल्ली में आकर बिब्बो का ख्याल आया होगा?


बहरहाल, बिलावल भुट्टो जरदारी सही रास्ते पर चल रहे हैं। आखिर उनका लक्ष्य तो पाकिस्तान का वजीरे आजम ही बनना है। उनके नाना भी विदेश मंत्री के बाद प्रधानमंत्री बने थे। देखिए क्या इतिहास अपने क दोहराता है?


विवेक शुक्ला


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