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दिनेश तिवारी, :

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 क्या भूलूं, क्या याद करूं



दिनेश तिवारी, हरीश पाठक, विवेक सक्सेना, मुकुल गर्ग, सुभाष अखिल, सुभाष भारद्वाज और मैं- इन सबमें एक बात कॉमन है। हम सब अपने-अपने करियर के लगभग शुरुआती दिनों में दिल्ली प्रेस में थे। पर अब एक बात कॉमन नहीं है। दिनेश तिवारी हमारे बीच अब नहीं हैं। 


हम सब सहकर्मी कम, दोस्त ज्यादा थे। कल जब सबकी आपस में बात हुई तो घंटे-घंटे भर चली फ़ोन कॉल में न किसी ने दुआ-सलाम की, न एकदूसरे का हाल-चाल पूछा। दिनेश के नाम से बात शुरू हुई थी, उन्हीं के नाम के साथ संवाद खत्म हो गया। अतीत के जितने भी पन्ने पलटे, सब पर दिनेश का नाम लिखा था।


दिल्ली प्रेस में कदम रखने के बाद कुछ ही दिनों बाद मुझे स्तम्भ विभाग का प्रभारी बना दिया गया था। दिनेश तिवारी मेरे विभाग में आए तो मानो हवा का एक खुशनुमा झोका आया। हर समय कभी मुस्कराता तो कभी खिलखिलाता चेहरा। पर काम करते समय पूरी गंभीरता। 


लंच टाइम होता तो हम सब दोस्त बाहर निकल जाते। तब दिल्ली प्रेस के सामने सड़क पार इमारतों का बसेरा नहीं था। दूर-दूर तक खाली ज़मीन पड़ी थी और उसके बीचोंबीच एक ढाबे का एकछत्र साम्राज्य था। उसकी बेंचों पर हमारी महफ़िल जमती थी। उस दौरान न दफ़्तर की राजनीति पर कोई बात होती, न देश की। सिर्फ़ और सिर्फ़ हंसी और ठहाकों का दौर चलता। 


हरीश पाठक और दिनेश तिवारी का अपना अलग-अलग अंदाज़ था। दोनों नॉन स्टॉप हंसाते रहते। ढाबे वाले की नज़र चूल्हे पर कम, हमारी ओर ज़्यादा रहती। हंसते-मुस्कराते उसकी दाल फ़्राई अमूमन स्पेशल दाल फ़्राई बन जाती। हर डिश में स्पेशल इफ़ेक्ट्स नज़र आते। ऑर्डर पर ऑर्डर होते रहते और घड़ी की छोटी सूई कब एक से दो पर पहुंच जाती, पता न चलता। यह समय सबके लिए एनर्जी के डोज़ जैसा होता था।   


कुछ समय बाद दिनेश का ट्रांसफ़र मुक्ता में हो गया, पर एकदूसरे के लिए लगाव और सम्मान ज्यों का त्यों बना रहा। मेरा मानना है कि रिश्ता कोई भी हो, अगर हम किसी का सम्मान नहीं करते तो हम उसे प्यार भी नहीं कर सकते। हम सब दोस्तों ने हमेशा इस बात का ध्यान रखा। दोनों भावनाएं समानांतर चलती रहीं। 


कुछेक कैलेंडर ही बदले होंगे कि हम सब अलग-अलग संस्थानों में चले गए। कोई टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप गया तो कोई इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप। स्तम्भ विभाग के बाद दिल्ली प्रेस में मुझे एक साथ दो पत्रिकाओं का प्रभारी बना दिया गया था, जिसका अनुभव लिए मैं भी अपनी अगली पारी खेलने हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप आ गया। बाद में दिनेश भी वहीं आ गए। विभाग अलग थे। मैं फ़ीचर में था, वे न्यूज़ में। पर स्नेह वही था, मस्ती वही थी। आते-जाते होने वाली मुलाकातों की शुरुआत मुस्कराहट से होती, अंत खिलखिलाहट के साथ। हमने वहां भी कभी दफ़्तर की राजनीति पर बात नहीं की।  


पर्यटन मेरा प्रिय विषय था, दिनेश का भी। कई लेख मैंने उनसे लिखवाए और उन्होंने बखूबी लिखे। उनके लेखों में स्थलों के इतिहास और भूगोल का अद्भुत ताना-बाना होता था। तब हंसी-मज़ाक से परे एक गंभीर पत्रकार का रूप शब्दों में नज़र आता। शिक्षा से जुड़े विषयों पर उनकी खासी पकड़ थी। मैंने कई बार उनसे कहा था कि उन्हें विधिवत् रूप से करियर काउंसलिंग का काम शुरू कर देना चाहिए।      


फिर कुछ साल बाद वे संस्थानों में पढ़ाने की तीसरी पारी खेलने चले गए। मैं गेस्ट फैकल्टी के तौर पर जाता तो उनसे मुलाकात होती। मैं कई साल से आईपी यूनिवर्सिटी के कॉलेजों में बतौर एक्सटर्नल एग्ज़ामिनर जाता रहा हूं। एक बार परीक्षा लेकर कमरे से बाहर निकला तो साथ वाले कमरे से दिनेश की आवाज़ सुनाई दी। मैंने अंदर झांका तो वे छात्रों को कुछ समझा रहे थे। उनकी नज़र मुझ पर पड़ी तो मैं हाथ हिला कर जाने लगा। दो ही कदम चला था कि वे तेज़ी से आए और हाथ पकड़ कर अंदर ले गए। फिर छात्रों को मेरा नाम बता कर बोले- ये मेरे वरिष्ठ हैं। मैंने इनसे बहुत कुछ सीखा है। और फिर मेरे परदादा, मेरे दादा, मेरे पिताजी तक का ऐसा परिचय दिया कि मैं दंग रह गया। जो खुद एक वरिष्ठ पत्रकार हो, वो दूसरे पत्रकार का ऐसा परिचय दे, वो भी अपने छात्रों के सामने, ये उनके लिए शायद छोटी बात हो, मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। 


अपने उस दोस्त के बड़प्पन पर मुझे बहुत गर्व हुआ। परिचय कराने का यह उनका अद्भुत अंदाज़ था। प्रेस क्लब के किसी साथी से मिलवाते या अपने किसी खास दोस्त से, यह अंदाज़ कभी न बदलता। ये बड़प्पन आज बहुत कम लोगों में नज़र आता है। मुझे आज भी गर्व हो रहा है, जब उन पर लिखी गई हर पोस्ट में उनके बड़प्पन का ज़िक्र ज़रूर है।


जिस समय मोबाइल का क्रेज़ बढ़ रहा था, तब कई साल दिनेश ने मोबाइल नहीं खरीदा था। एक बार मिले तो मैंने डांटने के अंदाज़ में कहा, ‘तुम मोबाइल क्यों नहीं खरीदते? कभी कोई ज़रूरी बात करनी होती है तो पता है कितनी मुश्किल होती है!’ वे मुस्कराए- ‘मोबाइल खरीद लिया होता तो आप मिलने नहीं आते।‘ और मैं चुप हो गया। मेरे जैसे कई दोस्तों की डांट पड़ी होगी, तब एक दिन अपना नंबर लिखवाने के लिए फ़ोन आया। फिर कभी फ़ोन पर हमारी बात होती, कभी वॉट्स ऐप पर। 


जैसे ही मैंने उनके जाने की खबर सुनी, मैंने तुरंत उनका फ़ोन मिलाया। मुझे पूरा विश्वास था कि दूसरी ओर से दिनेश की आवाज़ आएगी, पर नहीं आई। मैंने कई बार ऐसा किया। तब जाकर यकीन हुआ कि खबर सच है और दिनेश अब फिर बिना मोबाइल वाले हो गए हैं। 


हम सब दोस्तों के जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहे। दिनेश के जीवन में भी आए, पर मुझे याद नहीं कि मैंने कभी उनके चेहरे पर चिंता के भाव या माथे पर बल देखे हों। न कभी किसी को कुछ बताया, न अपने दुख का साया दूसरे पर पड़ने दिया। 


किसी शायर ने कहा है- 

जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो

कि आस-पास की लहरों को भी पता न लगे


तभी ज़िंदगी की धारा में उनकी अंतिम डुबकी का हम आस-पास की लहरों को भी पता न चला।


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