पूरबी के बेताज बादशाह : महेंदर मिसिर
कुमार नरेन्द्र सिंह
उस दिन महेन्दर मिसिर अपने एक दोस्त के साथ कलकत्ता (कोलकाता) की मशहूर तवायफ सोना बाई के कोठे पर पहुंचे थे मुजरासुनने। दोस्त ने बताया था कि एक बार जो सोनाबाई का गाना सुन लेगा उसे जीवन भर किसी दूसरे का गाना अच्छा नहीं लगेगा।दोस्त के मुंह से सोनाबाई के गायन की शोहरत सुनने के बाद महेन्दर मिसिर के लिए रुक पाना कहां संभव था। लड़कपन में लगासंगीत का चस्का अब कलावंत बनकर जवान हो चुका था। महेन्दर मिसिर का दोस्त सोनाबाई से परिचित था। जब सोनाबाई नेपूछा कि साथ में यह व्यक्ति कौन है तो उसने बताया कि वह मेरे दोस्त हैं और आपकी शोहरत सुनकर आपकी महफिल में आए हैं।बातों-बातों में दोस्त ने यह भी बताया कि महेन्दर मिसिर स्वयं भी सुर के रसिया हैं और गाते-बजाते भी हैं। फिर क्या था –साजिंदे आ गए और लग गई गीतों की महफिल। सोनाबाई ने अपने साजिंदों को संकेत दिया....वे हरकत में आ गए और सोनाबाईके कंठ से स्वर लहरी फूट उठी। गाने के बोल थे – माया के नगरिया में लागल बा बजरिया
ए सुहागिन सुन हो।
चीजवा बिकेला अनमोल
ए सुहागिन सुन हो।
महेन्दर मिसिर भाव-विभोर होकर सुनते रहे। गाना समाप्त होने के बाद जब सोनाबाई ने उनसे पूछा कि गाना कैसा लगा तोमहेन्दर मिसिर ने कहा – आपका आलाप लाजवाब है और आवाज जादुई...आवाज में ऐसी कशिश मैंने कहीं औऱ नहीं देखी हैलेकिन स्वर के उतार-चढ़ाव और भावों की अदायगी में वह रवानगी नहीं थी, जो इस गाने में होनी चाहिए थी। महेन्दर मिसिर कीयह बात सुनते ही जैसे सोनाबाई के तन-बदन में आग लग गई। उसने हिकारत की नजर से महेन्दर मिसिर को देखा और व्यंग्य वाणछोड़ते हुए कहा – मिसिर जी, गलती निकालना तो आसान होता है...जरा आप ही गा कर बताइए न कि गाने में चुक कहां हुई।पहले तो मेहन्दर मिसिर ने ना-नुकुर की लेकिन जब सोनाबाई ने यह कह दिया कि अपने तो गाने आता नहीं और चले हैं सोनाबाईके सुर में दाग दिखाने, तो महेन्दर मिसिर ने सोनाबाई के साजिंदों को बजाने का इशारा किया और स्वयं तानपुरा लेकर बैठ गए।सुर संधान कर जब उन्होंने गाना शुरू किया तो सोनाबाई को ऐसा लगा जैसे महेन्दर मिसिर नहीं बल्कि स्वयं गंधर्वराज चित्ररथगा रहे हों। वह सुध-बुध बिसरा कर गीत सुनने लगी...ऐसे जैसे किसी ने उस पर सम्मोहन मंत्र डाल दिया हो। उसने सपने में भीनहीं सोचा था कि कोई इतना अच्छा गा सकता है। जब गाना खत्म हुआ तो सोनाबाई ने महेन्दर मिसिर के पांव पकड़ लिए औरअपनी गलती के लिए बार-बार माफी मांगने लगी। मिसिर जी ने उसे माफ कर दिया और बातों-बातों में यह भी बता दिया कि जोगीत वह गा रही थी, वह उन्हीं का लिखा हुआ है। सोनाबाई ने कहा कि वह उनकी शिष्या बना लें तो उसका जीवन सार्थक होजाएगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि महेन्दर मिसिर ने उसकी यह इच्छा की। वह महीनों सोनाबाई के साथ रहे और अपनीरागिनी से उसके अंतर का क्लेश दूर करते रहे।
महेन्दर मिसिर अद्भुत प्रतिभा के धनी तो थे ही, उनका व्यक्तित्व भी बहुआयामी था। पहलवानी की बदौलत गठा हुआ कसरतीवदन, सिल्क का कुर्ता, परमसुख धोती, गले में सोने का चमचमाता हार और मुंह में पान गी गिलौरी – जो देखता, देखता ही रहजाता। कद-काठी और सुदर्शन रूप ऐसा कि हजारों की भीड़ में दूर से ही नजर आ जाते थे। जैसी सुंदर काया, उतनी ही सुरीलीआवाज और ऊपर से मर्दानी ठसक गजब की। गीत-संगीत के रसिया और मर्मज्ञ महेन्दर मिसिर आशु कवि थे। सरस्वती के वरद पुत्रमहेन्दर मिसिर के कंठ से जब गीत के बोल फूटते थे तो कहते हैं कि सड़क जाम हो जाती थी। उनकी खास विशेषता यह थी कि वहसिर्फ अपने लिखे गीत ही गाते थे। उनके गीतों की मिठास आज भी ज्यों की त्यों है। उनके गीत सुनकर कौन न भाव-विभोर होजाए। स्वर का उस्ताद तो वह थे ही, वादन कला में भी वह उतने ही प्रवीण थे। कहते हैं कि शायद ही कोई ऐसा वाद्य हो, जिसमेंवह सिद्धहस्त नहीं थे। हारमोनियम हो या तबला, सितार हो या सारंगी, उनकी उंगलियों के करतब देखकर लोग दंग रह जाते थे।ढोलक, झाल, मजीरा के तो वह बेमिसाल फनकार थे ही, कभी-कभी बांसुरी की मधुर तान के साथ गोपी प्रसंग के गीतों पर जबआलाप लेते थे तो लगता था जैसे फिजां में विरह रस घुल रहा हो।
छपरा से 12 किलोमीटर दूर काहीं मिश्रवलिया गांव में 16 मार्च,1886 को पैदा हुए महेन्दर मिसिर मां-बाप के अतिशय दुलार में पले। काफी मन्नतों के बाद शिवशंकर मिसिर को यह बेटा नसीब हुआ था। इसके लिए उन्होंने अपनी धर्मपत्नी गायत्री देवी के साथ मेहंदार की यात्रा भी की थी। भगवान महेन्द्रनाथ ने उनकी सुन ली और गायत्री देवी की गोद भर गई। पुत्र जन्म की खुशी में शिवशंकर मिसिर तो इतने खो गए कि महीने भर अपने घर पर लोगों को भोज-भात कराते रहे और दरवाजे पर भजन-कीर्तन, गीत-गवनई और रंग-रास चलता रहा। चूंकि भगवान महेन्द्रनाथ के आशीर्वाद से उन्हें बेटा मिला था, इसलिए स्वाभाविक रूप से उन्होंने अपने बेटे का नाम महेन्दर मिसिर रखा। महेन्दर मिसिर बचपन से ही अपने अन्य सहपाठियों की तुलना में ज्यादा हट्ठे-कट्ठे और मजबूत थे। उस काल में भोजपुरी प्रदेशों में पहलवानी का बड़ा जोर था, इतना कि हर कोई अखाड़े ‘जोड़’ करता था। शायद ही ऐसा कोई गांव रहा हो, जहां अखाड़ा और महावीरजी का मंदिर न हो। मालूम हो कि आपस में जब कुश्ती होती है तो उसे भोजपुरी प्रदेशों में जोड़ करना कहा जाता है। शरीर स्वस्थ्य होने के कारण महेन्दर मिसिर को अखाड़ा आकर्षित करने लगा और बस, क्या था, उनका समय अखाड़े में कुश्ती के दांव-पेंच, कलाबाजी, बाना-बनैठी, गदका सीखने में बीतने लगा। इसी क्रम में उन्हें वह चस्का लगा, जिसके लिए आज भी वह जाने जाते हैं। यह चस्का था गीत-गवनई का। मंदिरों में होनेवाली आरती में भजन गाना तो जैसे उनका मुख्य शगल ही बन गया था। लेकिन उनका यह रवैया शिवशंकर मिसिर को पसंद नहीं आया और उन्होंने महेन्दर मिसिर को गांव के ही पंडित नायडू मिश्र की पाठशाला में दाखिला दिला दिया। अपनी ही धुन में रहने वाले बालक महेन्दर मिसिर को पढ़ाई में तनिक भी जी नहीं लगता था। पर हां, वह पंडित जी के मुंह से जो संस्कृत के श्लोक सुनते थे, उसका मर्म अपनी भाषा भोजपुरी में गीत बनाकर गाते थे। यह एक तरह से पढ़ाई में रुचि नहीं रहने के बावजूद सबसे अच्छी पढ़ाई करने का उदाहरण था। संस्कृत परंपरा से सीख लेकर महेन्दर मिसिर भोजपुरी का श्रृंगार करने लगे।
धीरे-धीरे महेन्दर मिसिर के गाने की शोहरत गांव-जेवार में गूंजने लगी थी। उनके पिता वहां के एक बड़े जमींदार हलवंत सहायकी जमींदारी की देखभाल करते थे। एक तरह से वह एक छोटे जागीरदार थे। हलवंत सहाय विधुर थे और संतान विहीन भी।उनकी पत्नी असमय ही उन्हें छोड़कर स्वर्ग सिधार गई थीं। एकाकी जीवन जी रहे सहाय जी का अधिकांश समय नृत्य-गीत कमहफिल सजाने में ही कटता था। रईसी ठाठ-बाट के सात नाच-गान का आयोजन उनके दरबार की खासियत थी। महेन्दर मिसिर के पिता हलवंत सहाय की जमींदारी की देखभाल तो करते ही थे, साथ-साथ उनकी कोठी पर जो छपरा कोठी के नाम से मशहूर थी, पूजा-पाठ कराने भी जाया करते थे। एक बार शिवरात्रि के अवसर पर शिवशंकर मिसिर की तबीयत बिगड़ गई, लेकिन कोठी पर पूजा कराना तो अत्यावश्यक था, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र महेन्दर मिसिर को वहां पूजा कराने के लिए भेज दिया। महेन्दर मिसिर ने विधिवत पूजा-पाठ कराया और जब दान-दक्षिणा लेकर चलने को हुए तब तक शाम हो चुकी थी। उस दिन हलवंत सहाय ने अपनी कोठी पर महफिल बुलाई थी, जिसमें छपरा के सभी बड़े लोगों को आमंत्रित किया गया था। हलवंत सहाय ने महेन्दर मिसिर को जब उस रात कोठी पर ही रुक जाने के लिए कहा तो महेन्दर मिसिर इनकार न कर सके। जब महफिल सज उठी और साजिंदों ने सुर मिलाया लेकिन तबलची न जाने कहां चला गया था। महेन्दर मिसिर ने हलवंत सहाय की तरफ कुछ इस निगाह से देखा जैसे वह तबला बजाने की इजाजत चाहते हों। हलवंत सहाय ने भी इशारे-इशारे में ही बजाने की हामी भर दी। तबले पर थाप पड़ी और घुंघरू बोल उठे। वह नर्तकी क्या गजब का नृत्य कर रही थी, लगता था मानो बिजली चमक रही हो। पैरों की गति कभी थिर तो कभी तीव्र होकर एक रोमांचक लास्य पैदा कर रही थी। सभी मेहमान मंत्रमुग्ध इस दृश्य को देख रहे थे। लेकिन तबले की थिरकन नर्तकी के नर्तन पर भारी पड़ने लगी। अंत में थक कर वह हताश भाव से खड़ी हो गई। इधर महेन्दर मिसिर के हाथ भी लहूलुहान थे और वह प्रशंसा भरी निगाहों से नर्तकी को देख रहे थे। तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान भर गया, लोग महेन्दर मिसिर के मुरीद हो उठे। इसके बाद तो हलवंत सहाय और महेन्दर मिसिर का चौबीसों घंटे का साथ हो गया।
दरबार का आश्रय पाकर महेन्दर मिसिर की गायकी फूलने-फलने लगी और उसकी सुगंध चहुंदिशी पसरने लगी। कलाकार औरकला मर्मज्ञ साथ हों दोस्ती क्योंकर न होती। अब सहाय जी का घर ही मिसिर जी का घर था और सहाय जी थे उनके परम सखा।सहाय जी उस समय की सबसे मशहुर तवायफ मुजफ्फरपुर की ढेलाबाई के प्रेम में गिरफ्तार थे। वह किसी भी कीमत पर ढेलाबाईको पाना चाहते थे। उन्होंने यह बात अपने परम सखा महेन्दर मिसिर को बताई। महेन्दर मिसिर ने कहा कि अगर आप उन्हें दूसरी पत्नी का दर्जा देंगे तो वह कुथ कर सकते हैं। हलवंत सहाय ने हामी भर दी। थोड़े दिन के बाद जब सोनपुर का प्रसिद्ध हरिहर क्षेत्र का विश्व प्रसिद्ध मेला लगा तो वहां महफिल सजाने के लिए मुजफ्फरपुर की मशहूर और बला की खूबसूरत तवायफ ढेला बाई भी पहुंची। अपने दोस्त का मान रखने के लिए मिसिर जी ने सोनपुर के मेले से ही ढेलाबाई को अगवा कर हलवंत सहाय के यहां ले आए। यह अलग बात है कि ढेलाबाई स्वयं महेन्दर मिसिर पर मरती थी। ढेलाबाई को पाकर हलवंत सहाय ने सबकुछ पा लिया।उन्होंने ढेलाबाई को अपने दिल के साथ-साथ अपनी जायदाद की मालकिन भी बना डाला। सहाय जी ने अपनी सारी जायदादढेलाबाई के नाम कर दी। ढेलाबाई ने भी धीरे-धीरे नाचना,गाना छोड़ दिया क्योंकि यह हलवंत सहाय की प्रतिष्ठा के खिलाफ था।
समय ने एक बार फिर करवट ली। हलवंत सहाय अचानक गायब हो गए। कोई नहीं जान सका कि वह कहीं चले गए या उनकीमृत्यु हो गई। बहरहाल, सहाय जी के नहीं रहने पर अब ढेलाबाई की देखभाल की जिम्मेदारी महेन्दर मिसिर के सिर पर आ गई।सहाय जी गायब होने के बाद उनके पट्टीदारों ने ढेलाबाई की कोठी पर धावा बोल दिया। इसी अवसर पर महेन्दर मिसिर का रौद्ररूप सामने आया। वह अपनी टोली के सदस्यों के साथ स्वयं लाठी लेकर ढेलाबाई के विरोधियों पर पिल पड़े और उन्हें मारभगाया। अब महेन्दर मिसिर ढेलाबाई के रक्षक बन चुके थे। इन सब कारणों से ढेलाबाई के मन में भी महेन्दर मिसिर के लिए प्रीतफूटने लगी। हलवंत सहाय के सानिध्य में ढेलाबाई ने नाचना-गाना बिसार दिया था...पैरों के घुंघरू खोलकर रख दिए थे। लेकिनएक दिन ढेलाबाई ने फिर से घुंघरू बांध लिए। हुआ यह कि एक रात महेन्दर मिसिर ढेलाबाई की कोठी में बने शिव मंदिर में स्वरसाधना कर रहे थे। उनके गीत के बोल चांदनी रात में मोती की तरह बिखर रहे थे। उन्हीं मोतियों को अपने आंचल में बटोरकरढेलाबाई ने अपने पांवों में फिर से घुंघरू बांध लिए औ नाचने लगी। संगीत और नृत्य का यह सहगमन काफी देर तक चलता रहाऔर तब तक चलता रहा, जब तक ढेलाबाई थककर चूर नहीं हो गई। परंतु यह तो बाद की बात है। इससे पहले और कुछ भी हुआथा।
कलकत्ता में रहते हुए महेन्दर मिसिर का संपर्क वहां के कतिपय क्रांतिकारियों से हुआ और उनके मन में स्वतंत्रता की आग जलनेलगी। छपरा में ही रहते हुए एक दिन उनकी मुलाकात मुक्तानंद जी से हूई जो एक क्रांतिकारी संगठन के सदस्य थे। वह कलकत्ता सेमहेन्दर मिसिर के लिए एक संदेश लेकर आए थे जिसमें कहा गया था कि वह बनारस जाकर अभयानंद जी से मुलाकात करें।महेन्दर मिसिर बनारस पहुंच गए। वह गए तो थे सिर्फ अभयानंद जी से भेंट करने लेकिन एक बार वहां पहुंचे तो तीन महीने वहींरह गए। वहां रहते हुए उनके गीतों की जबर्दस्त धूम मची, कचौड़ी गली के कोठे गुलजार हो उठे। रसिक जन महेन्दर मिसिर केगीतों के दीवाने हो उठे। इसी सिलसिले में उनकी मुलाकात केसरबाई और विद्याधरीबाई जैसी मशहूर नर्तिकयों से हुई। केसरबाईने तो मिसिर जी से बाकायदा पूर्वी ठाठ का संगीत सीखा। मिसिर जी का साथ पाकर केसरबाई शोहरत की बुलंदी पर पहुंच गईंऔर वनजूही की खुशबू की तरह उनकी मदमाती आवाज फिजां में घुलने लगी। महेन्दर मिसिर के जीवन में यहां एक और मोड़ भीआया...अब वह कबीरदास और रैदास से प्रभावित होकर निर्गुण के भाव में गोते लगाने लगे। उस समय के उनके रचे गीत रहस्यऔर अध्यात्म के भाव से भरे हैं। उपरोक्त गीत ...माया के नगरिया में.....उसी निर्गुण की उपासना करता प्रतीत होता है।
यूं तो महेन्दर मिसिर के जीवन में कई मोड़ आए लेकिन बनारस में रहते हुए उनके जीवन में अब एक ऐसा मोड़ आया जिसने उनकीजिंदगी की दिशा और दशा दोनों को बदल दिया। यहीं पर उनका आंग्रेज विरोध परवान चढ़ता है और वह देश में अंग्रेजी हुकूमतखासकर उसकी अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर देने के लिए उद्यत हो उठे। अभयानंद के सहयोग से उन्हें नोट(रुपया) छापने की एकमशीन मिल गई। मशीन लेकर मिसिर जी छपरा आ गए और योजनाबद्ध तरीके से नोट छापने और उसे बाजार में चलाने का कामकरने लगे। इसमें कोई शक नहीं कि महेन्दर मिसिर ने जाली नोटों से अपने लिए सुख-सुविधा जुटाए और तवायफों पर भी खूब पैसेलुटाए नोट छापने के धंधे के पीछे वास्तविक उद्देश्य था आजादी की लड़ाई लड़ने वालों तथा उनके परिजनों को आर्थिक सहायतापहुंचाना और मिसिर जी ने इस उद्देश्य से कभी समझौता नहीं किया। बांगाल समेत देश के अन्य हिस्सों में काम करने वालेक्रांतिकारियों की खूब मदद की। कोई भी दीन-दुखी उनके दरवाजे से खाली हाथ वापस नहीं लौटता था। परेशानहाल लोगों कीमदद के लिए उनकी झोली हमेशा खुली रहती थी।
महेन्दर मिसिर की शाहखर्ची के किस्से अब मशहूर होने लगे थे। हुक्मरानों को पहली बार संदेह तब हुआ, जब 1905 में सोनपुर केमेले में ज्यादा तवायफों के तंबू मिसिर जी की तरफ से लगवाए गए थे। इस मामले में मिसिर जी ने देश के बड़े-बड़े जमींदारों कोभी पीछे छोड़ दिया था। बस क्या था....पुलिस उनके पीछे लग गई। जांच करने और सबूत इकट्ठा करने की जिम्मेदारी सीआईडीइंस्पेक्टर सुरेंद्रनाथ घोष और जटाधारी प्रसाद को मिली। सुरेंद्रनाथ घोष किसी तरह मिसिर जी का नौकर बनने में कामयाब होगया और गोपीचंद के रूप में साईस बनकर उनके घोड़े की देखभाल करने लगा। मालूम हो कि मिसिर जी अपने जमाने के माने हुएघुड़सवार थे। कहते हैं, उस समय पूरा छपरा जिला में उके जैसा दूसरा घुड़सवार नहीं था। जब वह घुड़सवारी पर निकलते थे तोउन्हें देखने के लिए राहों में लोगों की भीड़ लग जाती थी।
बहरहाल, धीरे-धीरे गोपीचंद उनके नोट छापने का राज जान गया। उसी के इशारे पर उनके यहां पुलिस का छापा पड़ा। 16अप्रैल, 1924 को उनके चारों भाइयों समेत महेन्दर मिसिर को गिरफ्तार कर लिया गया। जब ढेलाबाई को महेन्दर मिसिर की गिरफ्तारी की खबर मिली तो वह अत्यंत दुखी हुई। अब महेन्दर मिसिर को जेल से छुड़ाना ही उसका मकसद बन गया। हालांकि उस समय तक ढेलाबाई विधवा हो चुकी थी लेकिन हलवंत सहाय ने वादा के मुताबिक अपनी सारी संपत्ति ढेलाबाई के नाम कर दिया था, इसलिए मिसिर जी को छुड़ाने के लिए शहर के सबसे बड़े वकील हेमचंद्र बनर्जी को अपना वकील नियुक्त किया। बनर्जी साहेब ने ढेलाबाई को सलाह दी कि यदि महेन्दर मिसिर अपने अपराध से मुकर जाएं और दोष किसी दूसरे पर मढ़ दे तो उन्हें बचाया जा सकता है। दूसरे दिन ढेलाबाई महेन्दर मिसिर से मिलने गई और उन्हें अपराध से मुकर जाने के लिए कहा लेकिन महेन्दर मिसिर को झूठ बोलना गवारा नहीं हुआ। परिणामस्वरूप देशद्रोह और अन्य आपराधिक धाराओं के तहत उन्हें चालीस वर्ष सश्रम कारावास की सजा मिली और उन्हें बक्सर केंद्रीय जेल में डाल दिया गया।। लेकिन ढेलाबाई की हिम्मत को महेन्दर मिसिर को मिली यह सजा भी हिला नहीं पाई और वह पटना हाईकोर्ट पहुंची। पटना उच्च न्यायालय में लगातार तीन महीने तक मामलेकी सुनवाई चलती रही। मिसिर जी के वकील थे ...क्रांतिकारी हेमचंद्र मिश्र औऱ प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी चितरंजन दास लेकिनकुछ काम न आया और मिसिर जी मुकदमा हार गए औऱ उन्हें 10 की सजा मुकर्रर की गई। लेकिन अच्छा व्यवहार औरलोकप्रियता के चलते तीन साल में ही उनकी रिहाई हो गई। कहते हैं, जब वे जेल में बंद थे तो देश भर की सैकड़ों तवायफों नेवायसराय को ब्लैंक चेक के साथ एक पत्र भेजा था जिसमें गुजारिश की गई थी कि सरकार उस पर कोई भी रकम लिख सकती है,हम तवायफें अदा करेंगी, लेकिन महेन्दर मिसिर को आजाद कर दिया जाए। यह घटना इस बात की सबूत है कि तवायफों के मन मेंउनके लिए कितनी इज्जत थी। बक्सर जेल में रहते हुए ही उन्होंने सात खंडों में अपूर्व रामायण की रचना कर डाली थी। जेल प्रवासके दौरान हुई इस घटना की अनुगूंज आज भी जनश्रुतियों में सुनी जा सकती है। एक जनश्रुति के अनुसार बक्सर जेल की निशब्दरातो में जब वह अपना यह विरह गीत की तान लेते थे तो जेलर की पत्नी उसे सुनकर भाव-विह्वल होकर उनके गीत कारसस्वादन करने जेल में पहुंच जाती थी.....आखिर गीत भी तो ऐसा ही है .......... आधी-आधी रतिया के कुहुके कोइलिया
राम बैरनिया भइले ना।
मोरा अंखिया के निंदिया....
राम बैरनियां भइले ना।
कुहुकि-कुहुकि के कुहके कोइलिया
राम अगिनिया धधके ना।
मोरा छतिया के बीचवा
राम अगिनिया धधके ना।
जेल से छुटने के बाद महेन्द्र मिसिर के परिजन उन्हें गांव लेकर चले गए, क्योकि उनकी तबीयत खराब रहने लगी थी। जेल से छुटने के बाद महेन्दर मिसिर की जिंदगी पूरी तरह बदल गई थी। अब उनका अधिकांश समय पूजा-पाठ में बीतने लगा। एक दिन महेन्दर मिसिर पूजा-पाठ करके उठे और अपना आखिरी गीत लिखा। यह गीत भगवान शंकर के हुजूर में लिखा गया था। उस गीत को लेकर वह बरसों बाद एक बार फिर लौटकर उसी शिवमंदिर में आए जो ढेलाबाई ने उनके लिए बनवाया था। जब पास-पड़ोस के लोगों को पता चला कि महेन्दर मिसिर शिवमंदिर में आए हैं तो सैकड़ों की संख्या में भक्त लोग वहां जुटने लगे। महेन्दर मिसिर ने सबको यथा प्रणामाशीश किया और कहा कि आज ऐसी महफिलर जमेगी जैसी पहले कभी नहीं जमी थी। अपने भक्तो, चेलों के जरिए उन्होंने शहर के सभी संगीत प्रेमियों और अफसरों को न्योता भेजा। शाम होते-होते शिवमंदिर पर लोगों की एक बड़ी भीड़ उनका गायन सुनने के लिए आ खड़ी हुई। महेन्दर मिसिर हारमोनियम लेकर आए और शिवलिंग के सामने बैठ गए। यह वही शिवलिंग था जिसकी उन्होंने स्वयं प्राण-प्रतिष्ठा की थी। महेन्दर मिसिर ने जैसे ही हारमोनियम की रीड पर अपनी उंगलियां फेरी कि लोगों का कोलाहल अनायास थम गया। जब करुण स्वर में उन्होंने अपना सद्यरचित गीत गाना शुरू किया तो सभी अपनी सुध-बुध खोकर गीत सनने लगे। जैसे ही भजन समाप्त हुआ कि महेन्दर मिसिर हारमोनियम पर लुढ़क गए और उनका माथा सीधे शिवलिंग पर जाकर टिक गया। महफिल में कोहराम मच गया, लोग विलाप करने लगे लेकिन महेन्दर मिसिर तो इहलोग से विद लेकर गोलोक पहुंच चुके थे। उस समय उनकी उम्र 62 साल की थी और वह मनहूस दिन था 25 अक्टूबर, 1946।
आजादी की लड़ाई के इतिहास में महेन्दर मिसिर को भले ही वह जगह न मिली हो, जिसके वह हकदार हैं लेकिन उनके गीतों नेउनकी शख्सियत को हमेशा ऊंचा उठाए रखा। अंग्रेजों के प्रति अपने विद्वेष को व्यक्त करते हुए वह गीत रचते हैं ......
हमरा निको ना लागे गोरन के करनी
रुपया ले गइले, पइसा ले गइले
अउरी ले गइले सब गिन्नी।
बदला में देके गइले ढल्ली के दुअन्नी
हमरा नीको ना लागे गोरन के करनी।
राग-रागिनी उनकी जिंदगी थी...वह उसे जीते थे...और आज वही उनकी थाती है, जो जन-जन के मन कंठ में सुरक्षित है। पुरुबीराग उनकी स्वर लहरी में हिलोरें लेता है। उनके गीतों में जहां पहाड़ी नदी के वेग की तरल तीव्रता है, वहीं झिर..झिर बहतीशीतल मंद बयार का सुखद स्पर्श भी है। भाषा की सहजता औऱ भाव की गहराई उनके गीतों की असली पहचान हैं। बोल और भावकी मिश्री में पगे उनके गीत किसी का भी अंतर्मन को छूने, सहलाने की स्वाभाविक काबिलियत रखते हैं। विरही नायिका कीविकलता और उसकी सास की निष्ठुरता का क्या ही मर्मस्पर्शी बयान इन पंक्तियों में मिलता है ...........
सासु मोरा मारे रामा बांस के छिउकिया,
ए ननदिया मोरी है सुसुकत पनिया के जाए।
गंगा रे जमुनवां के चिकनी डगरिया
ए ननदिया मोरी हे पउंवां धरत बिछलाय।
गावत महेन्दर मिसिर इहो रे पुरुबिया
ए ननदिया मोरी हे पिया बिना रहलो ना जाए।
लोक कंठ के गवैया महेन्दर मिसिर के गीतों में श्रृंगार और अध्यात्म दोनों ही प्रधानता से मिलते हैं और कमाल की बात यह है किवह दोनों में ही पारंगत हैं। इतना जरूर है कि उनके गीतों में श्रृंगार और विरह की अभिव्यक्ति ज्यादा मुखर है। विरह विदग्धनायिका के चित्रण में उनका यह गीत कितना भावमय हो उठता है...एक बानगी देखिए......
अंगुरी में डंसले बिया नगिनियां हे
ननदी दियरा जरा द।
दियरा जरा द अपना भइया के जगा द
पोरे-पोरे उठेला दरदिया हे
ननदी दियरा जरा द।
लोक धुन में पगे उनके गीत जब अपनी अर्थ छटा बिखेरते हैं तो सुनने वाला सुनते ही रह जाता है। गोपी विरह के प्रसंग में मिसिरजी के शब्द विन्यास से गीत के बोल कितने भावप्रवण हो उठे हैं, इसका एक उदाहरण देखिए....
सुतल सेजरिया सखी देखली सपनवां
निर्मोही कान्हा बंसिया बजावेला हो लाल।
कहत महेन्दर श्याम भइले निरमोहिया से
नेहिया लगा के दागा कइले हो लाल।
विरह की आंच में तपे महेन्दर मिसिर के गीत श्रोता के हृदय को ऐसे बेधते हैं कि मन बेकल हो उठता है।
संगीत साधक और पुरबी के पुरोधा महेन्दर मिसिर का रचना संसार व्यापक है, जिसमें भाषा की लचक औऱ रवानी तथा राग-रंजित रागिनी का अपूर्व संगम देखने को मिलता है। उन्होंने सैकड़ों गीत और दर्जन भर से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिनमें उनके तीननाटक भी शामिल हैं। अन्य पुस्तकों में महेन्दर मंजरी, महेन्दर विनोद, महेन्दर मयंक, भीष्म प्रतिज्ञा, कृष्ण गीतावली, महेन्दरप्रभाकर, महेन्दर रत्नावली, महेन्दर चंद्रिका और महेन्दर कवितावली प्रसिद्ध है। इसके अलावा उनकी अद्भूत पुस्तक अपूर्व रामायण है। कहा जा सकता है कि अन्य भाषाओं की रामयण की तरह भोजपुरी भाषा भाषियों के लिए उन्होंने एक अलग रामायण की रचना की। इस रामायण में समानता का भाव मुखर है। यहां राम कोई अजनबी देवता नहीं, उनके अपने हैं और वहां के लोग उनसे उसी तरह बात करते हैं, जैसे वे आपस में करते हैं। लीजिए, कुछ बानगी देखिए। रामजी बाजार में खरीदारी करने पहुंचे हैं। परिधान बेचने वाला एक भोगल उनसे कहता है –
‘ शाला है दोशाला चित्रशाला बहुभांतिन के
शाल ओ रुमाल ऊनेदार बने काम है।
घूसा अलेबान कोट कुर्ता गंजी फराश
कंबल पछाहीं जाके सस्ते सब दाम है।
उम्दे जामेवार सुर्ख धानी ओ सुफेद स्याह
चोंगा कामदार जाके सांचे सम काम है।
द्विज महेन्दर रामचंदर सउदा कुछ लिजे आज
देता हूं उधार आप देना न छदाम है। ’
भोगल की बात सुनकर बजाज कहां चुप रहने वाला था। वह भी रामजी से कुछ खरीदने की गुजारिश करता है.......
‘ सलमा सितारे के किनारे हैं हमारे प्यारे
चादर रुमाल देखि मोहित होई जाओगे।
सासन लेट मखमल ओ डिरिया देखाऊं तोहे
धोती कोरदार देख मुदित होई जाओगे।
शांतिपुर ढाका तानजेब है हमारे पास
जड़ियन के काम देख अन्त नहीं जाओगे।
द्विज महेन्दर रामचंदर सउदा कुछ लिजे आज
जनकजी की सभा में मान खूब पाओगे।
उनके बीच हो रही यह बातचीत एक दलाल भी सुन रहा होता है। उसे महसूस होता है कि कोई मोटा आसामी है, इसलिए वह रामचंद्र को किसी अन्य जगह से सामान दिलाने की बात कहता है......
चलिए महाराज राज राज के कुमार जहां
उम्दे दूकान मारवारिन के ठट्ट हैं।
ई तो टुटपुंजिया बेईमान हैं जहान बीच
नीचन में नीच ई तो सबहीं के छट्ट हैं।
बात के बनावे बेईमान भी कहावे ई त
सबके लोभावे पइसा लेत खटखटात हैं।
द्विज महेन्दर रामचंदर छोड़ो जी दूकान याके
कहां ले सुनाऊं ई तो भारी गलाकट्ट हैं। ’
दलाल की बात सुनकर बजाज को ताव आ जाता है और उसके मुंह से बरबस निकल पड़ता है....
ई त बेईमान याके बापो बेईमान रहे
दादा बेईमान याके सकल जहान में।
मार के देवाला ई तो केतने घर घाला
देता है ठाला मस्त बइठा है दूकान में।
भारी बतबनवा याके बात के ठेकाना नहीं
खाली लामकाफ एको पइसा ना मकान में।
द्विज महेन्दर रामचंदर सउदा कुथ लिजे नाथ
कीजो ना लेहाज मेरे बैठिए दूकान में। ’
इसी बीच वहां एक ठठेरा आ पहुंचता है और रामजी से बर्तन खरीदने की गुजारिश करता है...
‘ लीजिए कटोरा अमकोरा ओ गिलास खूब
उगलदान पानदान छीपी भी हजारी है।
गगरा परात लोटा थारी के ठेकाना नहीं
तावा भी धरे है ओ कराही लोहे वारी है।
कठरा अउर हथरा है हंडा सुराही लाख
पावा झंझार पुरी पलंग की तैयारी है।
द्विज महेन्दर रामचंदर सउदा कुछ लिजे आज
कवन ऐसी वस्तु ना दोकान में हमारी है। ’
अपूर्व रामायण का केवट-राम प्रसंग भी बड़ा निराला है। भक्तिभाव से परिपूर्ण होने के बावजूद यहां केवट से केवट वाली गरिमा भी दिखाई देती है ...........
धोबी से धोबी नहीं लेत है धुलाई नाथ
नाई से नाई ना मजूरी के लिवैया है।
केवट से केवट नाहीं लेत उतराई नाथ
हम नदी के खेवइया आप भव के खेवैया हैं।
दुख के हरैया त्रयताप के मिटैया प्रभु
आरत हरैया आप धरनी धरैया हैं।
द्विज महेन्दर लालसा है चरन पछारिबो को
तर गई अहल्या मेरो जीवन यही नैया है। ’
उनके चुनिंदा गीतों का संग्रह कविवर महेन्दर मिसिर का गीत संसार शीर्षक से डॉ. सुरेश कुमार मिश्र के संपादन में अखिलभारतीय भोजपुरी परिषद, लखनऊ से सन् 20002 में प्रकाशित हुआ लेकिन वह पूर्ण नहीं है। उनके सैकड़ों गीत आज भी संग्रह कीप्रतिक्षा में हैं। महेन्दर मिसिर को लेकर कई पुस्तकें भी लिखी गई हैं, जिनमें पांडे कपिल की फुलसूंघी, रामानाथ पांडे की महेन्दरमिसिर और रविन्द्र भारती की कंपनी उस्ताद उल्लेखनीय है। उनके गीत लोक जीवन के दस्तावेज हैं, लोक साहित्य के अनमोलधरोहर हैं।
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