सावरकर को लेकर मैंने बहुत पढ़ाई नहीं की है.1857 पर उनकी पुस्तक मैंने 1857 पर काम करते हुए पढ़ी.वह 1857 पर पहली किताब है -- जो इसे महासंग्राम मानती है, यह तथ्यात्मक रूप से गलत है.1857 पर पहली किताब मुंशी किशनलाल की है जो उर्दू में छपी और उन्होंने 1857 को महासंग्राम कहा.इस पर डाक्टर जाकिर हुसैन खुदा बख्श लाइब्रेरियन 1857 की राजक्रांति और बिहार किताब देखी जानी चाहिए.फिर सावरकर पर महान् दलित विचारक बाबू राव कसबे की उन पर लिखी किताब पढ़ी.कसबे साहब बहुत ही गहन और बारीकियों में जाकर विचार-विश्लेषण करते हैं और उनका अध्ययन तो ईर्ष्य है हीं.वे बहुत ही निष्पक्ष विचारक हैं इसलिए मुझे बेहद पसंद हैं.उनकी शैली थोड़ी सी पुरानी है जरूर लेकिन उनका देसीपन बहुत ही मोहक है.मराठी संत साहित्य को लेकर उनका अध्ययन और काम बहुत ही गहरे प्रभावित करता है.धनंजय कीर ने भी सावरकर की जीवनी लिखी है लेकिन उसका हिन्दी संस्करण समाप्त हो गया है.मिला नहीं.बाबू राव कसबे को पढ़ते हुए लगा कि सावरकर एक विचारक के रूप में बेहद ही कन्फूज हैं.उनको समझने की कोशिश आपको भी कन्फूज कर देगी.कसबे साहब ने अपनी ओर से बड़ी श्रमपूर्वक उनके विचारों को समझाने की कोशिश की है.उनका हिन्दूवाद विचित्र किस्म का था.गोमांस खाने को लेकर उनको कोई आपत्ति न थी.दलित को लेकर उनके सामाजिक विचार एकदम समानता वाले थे.इस आसंग में उन्होंने रत्नागिरि में व्यावहारिक काम भी किया था.शायद इसीलिए महाराष्ट्र में उनकी सामाजिक छवि अलग किस्म की हो सकती है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं.मुसलमान को वे हिन्दुत्व के अंतर्गत मानते थे.यहाँ उनके तर्क और विचार एकदम उलझे और उटपटांग लगते हैं ,तनिक रैशनल नहीं.गोकि वे आर एस एस से भिन्न और असहमत थे मगर इस मामले घोर कट्टर.आर एस एस से इनकी कभी पटरी नहीं बैठी.जब वे विचारों से दर्शन की ओर बढ़ते हैं तो सच कहूं मुझे एकदम असह्य लगने लगते हैं.जिन विचारकों को पढ़कर हम भारत और भारतीय संस्कृति को जानते हैं अगर उनकी समझ पर यकीन करें तो कहना होगा कि सावरकर को न भारत की समझ है और न भारतीयता की.ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि वे अपनी मौलिक समझ को उसमें बलात घुसेड़ने की असफल और अबौद्धिक कोशिश करने लगते हैं.मौलिकता थोपी नहीं जाती,जो पहले से मौजूद है उसी के भीतर से उद्भुत की जाती है.अन्वेषित की जाती है.
उनके कठिन जीवन संघर्ष और अंतिम में क्षमादान की याचना मसलन संघर्ष से पलायन और तत्कालीन सत्ता से वजीफे की बात! कोई लाख सर पटक ले उनको निर्विवाद रूप से महानता की कोटि में नहीं बिठा सकता.फिर भी एक विवादास्पद ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में उन पर बात कोई करता है तो करने देनी चाहिए--जैसी बात कसबे साहब ने की है.न बढ़ा-चढ़ाकर और न ही घटाकर.महासंग्राम में हर तरह का व्यक्तित्व होता है.समकालीन राजनेताओं को चाहिए कि यह सब वे इतिहासकारों पर छोड़ दें.मगर वह राजनेता ही क्या जो इतिहास या विज्ञान अथवा कोई भी विद्या विधा पर आधिकारिक ढंग से बोलना छोड़ दे! लट्ठ लेकर संस्कृति सिखाने वाले इस युग में बुद्धिजीवियों को चाहिए कि वे अपना हाथ-पैर और माथा बचाकर रहें.न सिर्फ नेताओं से ही बल्कि उबाल मारते बुद्धिजीवियों से भी.