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राज्य के मालिक से दुराव - छिपाव क्यों ? / राजशेखर व्यास

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महात्मागांधी से [पहले से ही समय लेकर] गाँव के दो किसान मिलने आये थे , महात्माजी उनको कुछ समझा रहे थे कि इसी बीच

वायसराय के यहाँ से कोई अंग्रेज-अफसर गांधीजी से मिलने आ गया !

थोड़ी देर तो उसने किसानों से महात्माजी की बातें सुनी फिर बोला >>>मुझे आपसे बात करनी है ।

महात्मागांधी ने कहा >>> ठीक है , कहिये !

वह अफसर उन किसानों को वक्र-दृष्टि से देखते हुए बोला >> मुझे राज्य state के संबंध में confidential बातें करनी है ।

महात्मागांधी बोले >> ठीक है , करिये !

उसने फिरसे उन किसानों की ओर देखा ।

महात्मागांधी बोले >>> हाँ , वे तो उस राज्य के मालिक हैं , जिसके संबंध में आप confidential बात करना चाहते हैं । राज्य के मालिक से छिप कर क्या बात करनी है ?राज्य के मालिक से दुराव - छिपाव क्यों ? ?


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गांधी का यह संवाद वास्तव में लोकतंत्र का बुनियादी सिद्धांत है ।

राज्य की संप्रभुता  का स्रोत कोई पार्टी नहीं हो सकती ,   संप्रभुता  का स्रोत जनता है   ।  वह जनता ही देश की समस्त संपदा की स्वामिनी है । 


 चुनाव बांड कानून  को महात्मागांधी के जीवन के इस प्रसंग और संदर्भ में समझा जाना चाहिये।  

आज विपक्ष   लोकत्रन्त्र के लिए हाहाकार कर रहा है किंतु उस समय ये सभी मौसेरे भाई क्यों बन गए थे? काश ,  उस समय इस पर गम्भीरतापूर्वक चिंतन होता!  जनता से चुनावथैली का छिपाव क्यों रक्खा गया ? 

किसी भी देश की कोई बहुत बड़ी कंपनी किसी भी राजनैतिकदल को चन्दा दे कर खरीद सकती है और भारत की राजनीति को प्रभावित कर सकती है ।उस समय निर्वाचनआयोग ने सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दी थी कि चुनाव बॉण्ड को मंज़ूरी देने के सिलसिले में जो ढेर सारे कानूनी बदलाव किए गए हैं उससे चुनाव ख़र्च के मामले में पारदर्शिता पर गंभीर असर पड़ेगा.निर्वाचन आयोग ने अपने हलफ़नामे में कहा  था कि उसने अपनी चिंता से केंद्रीय विधि मंत्रालय को आगाह करा दिया है. हलफ़नामे में कहा गया था, "आयोग ने विधि और न्याय मंत्रालय को बताया है कि फ़ाइनेंस एक्ट 2017 के कुछ प्रावधानों की वजह से, और इनकम टैक्स एक्ट, जनप्रतिधित्व कानून और कंपनीज़ एक्ट में किए बदलावों के कारण राजनीतिक दलों की फंडिंग के मामले में पारदर्शिता पर गंभीर असर पड़ेगा."निर्वाचनआयोग ने एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (एडीआर) की याचिका का जवाब देते हुए यह हलफ़नामा दाखिल किया था, इसमें सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया गया था कि सरकार ने चुनाव बॉण्ड की व्यवस्था लागू करने के लिए जितने फेरबदल किए हैं उन्हें असंवैधानिक करार देते हुए रद्द घोषित करे. सरकार ने फ़ाइनेंस एक्ट, रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया एक्ट, जनप्रतिनिधित्व कानून, इनकम टैक्स कानून, कंपनीज़ एक्ट और विदेशी अनुदान नियंत्रण कानून (एफ़सीआरए) में बदलाव किए थे. 

 यह कृत्य जनतान्त्रिक नहीं कहा जा सकता । एक ओर कालेधन और भ्रष्टाचार को लेकर महाभारत हो रहा है  और  दूसरी तरफ़  उसी कालेधन से चुनाव  लड़े जा रहे हैं ? भ्रष्टाचार की जननी तो यही कालाधन है , जिसे जनता से  छिपाने का कानून बनाया गया है ।

 राज्य के मालिक से छिप कर क्या बात करनी है ?राज्य के मालिक से दुराव - छिपाव क्यों ? ?


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