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रवि अरोड़ा की नजर से.....

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 जलियांवाला बाग का वह रहस्य / रवि अरोड़ा 



 बैसाखी का पर्व हो और हम भारतीयों को जलियांवाला बाग का नरसंहार याद न आए, ऐसा भला कैसे हो सकता है। आज  से 104 साल पहले 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के इस ऐतिहासिक बाग में ही नर पिशाच जनरल डायर ने काले कानून रॉलेट एक्ट के विरोध में शांति पूर्वक जलसा कर रहे हजारों निहत्थे हिन्दुस्तानियों पर अंधाधुंध गोलियां चलवा दी थीं। बेशक इस खौफनाक कांड में शहीद हुए लोगों को हम भारतीय हर साल श्रृद्धांजलि अर्पित करते हैं मगर दुःख का विषय है कि हम आज भी इस काण्ड के शहीदों के बाबत अधिक कुछ नहीं जानते। हैरानकुन बात तो यह भी है कि शहीदों की सही सही गिनती भी हमें नहीं मालूम। हाल ही में केन्द्र और राज्य सरकार के प्रयासों से इस बाग को शताब्दी स्मारक घोषित कर इसके सौंदर्यीकरण हेतु बीस करोड़ रूपए भी खर्च किए गए हैं मगर इस राशि में से एक रुपया भी इस शोध पर खर्च नहीं किया गया कि जलियांवाला बाग के शहीद आखिर कौन कौन थे ? 


हाल ही में एक बार फिर जलियांवाला बाग जाना हुआ । देख कर अच्छा लगा कि हमारी सरकारों ने आखिरकार इस ऐतिहासिक बाग की सुध ले ही ली। यथासंभव प्रयास किया गया कि बाग में हुए नरसंहार के निशान यथावत रहें मगर फिर भी यह बाग अब किसी पिकनिक स्पॉट सा लगने लगा है । चूंकि मृतकों की गिनती को लेकर शताब्दी भर से संशय बना हुआ है अतः मेरी निगाहें वहां ऐसी ही किसी सूची को तलाश रही थीं। पूछने पर पता चला कि स्मारक पर शहीदों के नाम उकेरे गए हैं मगर मौके पर जाकर मायूसी ही हाथ लगी। दरअसल उकेरे गए नामों की सूची अभी भी आधी अधूरी है। समझ नहीं आया कि इस दिशा में कोई गंभीर प्रयास क्यों नहीं किया जा रहा ? अंग्रेज़ी हुकूमत ने सिर्फ दो सौ लोगों की मौत स्वीकार की थी जबकि अमृतसर जिला प्रशासन अब तक केवल 492 लोगों का ही पता लगा सका है। हालांकि उस समय की अमृतसर सेवा समिति ने 501 लोगों की सूची जारी की थी और उसी दौर में अनाधिकृत आंकड़ा 15 सौ लोगों के शहीद होने और लगभग दो हजार के घायल होने का सामने आया था। यह आश्चर्य जनक नहीं है क्या कि लगातर 15 मिनट तक चलीं 1650 राउंड गोलियों में आखिरकार कितने लोगों की जान गई यह कभी पता ही नहीं चल सका ?


कई बार तो संशय भी होता है कि जलियांवाला बाग के शहीदों की शिनाख्त अब कभी हो भी पाएगी अथवा नहीं। जैसे जैसे समय व्यतीत हो रहा है, यह कार्य दुरूह होता जा रहा है। विभाजन से पूर्व अमृतसर में मुस्लिम आबादी चालीस फीसदी थी। बंटवारे के दौरान महीनों तक चले दंगों में अधिकांश मुस्लिम परिवार वहां से पलायन कर पाकिस्तन चले गए थे । उधर, इतिहास गवाह है कि स्वतन्त्रता संग्राम में हिन्दू, मुस्लिम और सिखों समेत सभी धर्मों के लोगों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। इसी रौशनी में देखें तो यकीनन जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों में मुस्लिम भी बड़ी संख्या में होंगे मगर अब उनके परिजन पाकिस्तान में जा बसे हैं। जाहिर है कि चाह कर भी अब उनके वंशजों की खोज खबर आसानी से नहीं ली जा सकती। क्या यह दुखद नहीं है कि जिस जलियांवाला बाग काण्ड ने देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन की धीमी ज्वाला को प्रचंड रूप प्रदान किया, उसके तमाम शहीदों के हम नाम भी कभी नहीं जान पाए ?


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