कल मैं गया था भक्तिकाल के प्रमुख कवि और वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक चैतन्य महाप्रभु की जन्मभूमि, उनका गांव। इस जगह का वर्तमान नाम मायापुर है। पता नहीं इस जगह से या इस मायापुर नाम में क्या आकर्षण है कि मैं यहां खींचा चला आया, जबकि मुझे आज कहीं और जाना था। जब इस भूमि में 1486 में चैतन्य महाप्रभु का जन्म हुआ था, उस समय इस गांव का नाम नवद्वीप था। यह स्थान पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में अवस्थित है।
कल सुबह साढ़े नौ बजे विष्णुप्रिया हॉल्ट स्टेशन में लोकल ट्रेन से उतरा। वहां से टोटो पर सवार हुआ, घाट जाने के लिए। चारों ओर गहमागहमी थी। लोग आ रहे थे,जा रहे थे। टोटो का रेला लगा हुआ था। बेधड़क सवारियों को लेकर कोलतार की सड़क के सीने को चीरते हुए तेजी से गुजरते जा रहे थे वे। मैं भी उन्हीं टोटो में से एक पर बैठा हूं। सड़क के दोनों तरफ दुकानों की भरमार थी। बीच-बीच में कई छोटे-बड़े टेंपल नजर आए। साथ में बैठे लोग बांग्ला में बातें कर रहे थे। मैं टुकुर-टुकुर कभी उन्हें, तो कभी रास्ते में देख रहा था। जगह-जगह कई मंदिर नजर आए। उन्हें भी निहार रहा था। बांग्ला मुझे पूरी तरह समझ में नहीं आता। लेकिन कहीं भी दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा आजतक। हिंदी सभी लोग समझते हैं, और बोलते भी है। तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश की स्थिति यहां नहीं है। यहां अपनेपन का एहसास होता है।
लगभग दस मिनट में मैं घाट पहुंच गया, और टिकट लेकर मायापुर जाने वाले लांच में सवार हो गया। क्या खूबसूरत दृश्य था? मन का पोर-पोर पुलकित हो उठा। दूर-दूर तक पानी ही पानी। नदी की अविरल धारा धीर-गंभीर, अविचल बह रही थी। कोई हलचल नहीं। बस, जब कोई लांच या बड़ी कश्ती दूसरे घाट से आती, तब थोड़ी-सी पानी की संवेदना के तार झंकृत हो उठते। लहरें मचल उठती। इसे लोग जलंगी नदी के नाम से भी जानते हैं। जो गंगा नदी के किनारे है। यहां दो नदियों का संगम होता है। नदी के किनारे, जगह-जगह पर लांच आने-जाने के लिए सेड और पड़ाव बना हुआ था। नदी के किनारे जगह-जगह पर स्त्री-पुरूष-बच्चे नहा रहे थे, कपड़े धो रहे थे। दर्जनों छोटी कश्तियां कई जगह किनारे रस्सियों से बांध कर रखीं गई थीं। एक जगह नदी में एक आदमी पानी में डुबकी लगा-लगाकर सिक्के खोजने में व्यस्त है। चारों ओर बड़ा ही विहंगम दृश्य है।
मायापुर पहुंचकर सबसे पहले मैं चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थान गया। उस नीम के पेड़ के सामने मैं बहुत देर तक बैठा रहा। खामोशियों की लबादे ओढ़कर। ऐसा कहा जाता है कि इसी नीम के पेड़ के पास उनका जन्म हुआ था। इस नीम के पेड़ को और उसी की छांव तले बने, उनके मंदिर को या आसपास के स्थान की तस्वीरें खींचना मना है। लेकिन 'दिल गलती कर बैठा'तस्वीर खींच ही लिया। क्योंकि तसवीर खींचने के बाद पता चला कि नहीं खींचनी है। बांग्ला में लिखा हुआ निर्देश मैं समझ नहीं सका। यहां बैठकर मैं मन ही मन चैतन्य महाप्रभु की इबादत करता रहा। तत्पश्चात वहां जाकर बैठ जाता हूं जहां से महाप्रभु की आदमकद प्रतिमा दिखाई दे रही थी।
मैं महाप्रभु को बहुत देर तक देखता रहता हूं। उनकी आंखों में देखते हुए मन ही मन उनसे कहता हूं कि महाप्रभु मैं उसी हजारीबाग शहर से आया हूं, जहां पांच सौ साल पहले आप पैदल गए थे। जिस डिस्ट्रिक मोड़ (वर्तमान) के पास आप रूके थे, वहां आपकी याद में बनाया गया मंदिर आज भी मौजूद है। (अभी यहां कंस्ट्रक्शन का काम हो रहा है। पता नहीं उक्त मंदिर का नामोनिशान भविष्य में रहेगा या नहीं, मैं नहीं कह सकता) हां, मैं उसी झारखंड से आया हूं, जहां से कभी आप सिमडेगा, गुमला, रांची, रामगढ़, हजारीबाग से होते हुए मथुरा पहुंचे थे। इसी तरह की बातें मैं महाप्रभु की आंखों में देखते हुए मन ही मन कहता रहा। फिर उदास मन से उठकर वहां से बाहर निकल गया। खाली तनहाइयों को लेकर। आसपास घूमता रहा, पसीने से तरबतर। पूरा इलाका कृष्णमय है। गलियां, चौराहे, रास्ते, दुकान, मकान हर जगह 'हरे कृष्णा, हरे रामा'की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है।
यहां से लौटकर जाता हूं इस्कॉन टेंपल-प्रभुपाद टेंपल। वहां की भव्यता देखता हूं। देर तक घूमता रहता हूं। यहां करीब दो घंटे घूमने के बाद लौटता हूं विष्णुप्रिया हाल्ट स्टेशन। यहां से बैंडल होते हुए हावड़ा लौटना है। हालांकि मायापुर में कुछ घंटे और गुजारने का मन कर रहा था। लेकिन अकेले मन नहीं लग रहा था। पिछले सात दिनों से बंगाल की धरती में अकेले ही घूम रहा हूं। सिर्फ एक दिन मेरा बेटा साथ में था। अगली बार किसी मित्र के साथ जब मायापुर आऊंगा तो एक रात जरूर रुकूंगा। अपनी तस्वीर भी नहीं खींच पाता हूं अनजान व्यक्ति को कहना पड़ता है। विष्णुप्रिया स्टेशन में एक सज्जन ने बताया कि स्टेशन का नामकरण महाप्रभु की दूसरी पत्नी विष्णुप्रिया के नाम से किया गया है। पहली पत्नी का नाम लक्ष्मीप्रिया था। बाकी बातें और चैतन्य महाप्रभु का संक्षिप्त जीवनवृत्त हजारीबाग पहुंचकर शामिल करूंगा। उनसे संबंधित कुछ किताबें खरीदा हूं,जिसे पढ़ रहा हूं, पढ़ने के बाद लिखूंगा। साथ ही जब महाप्रभु हजारीबाग से रामगढ़ के रास्ते में जा रहे थे तो कुजू के पास रात्रि विश्राम किये थे। बहुत ही रमणीक स्थल है यह। यहां पर उनकी याद में एक मंदिर का निर्माण किया गया है। इसके बारे में भी लिखूंगा। हजारीबाग से कुजू की दूरी पैंतीस किलोमीटर है।