Samar Anarya
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ग़ुलाम दस्तगीर नाम था उनका।
भोपाल रेलवे स्टेशन के असिस्टेंट स्टेशन मास्टर थे। 2 दिसंबर 1984 की रात ड्यूटी पर थे। बहुत देर काग़ज़ों से उलझे रहे।
बाहर निकले तो दम घुटने लगा। उन्हें बात समझ नहीं आई, पर साँसें बोझिल होती गईं। अब उन्हें समझ आ गया था- कुछ बहुत बुरा हो रहा है। क्या- ये उन्हें तब भी नहीं पता था। अपने बॉस, स्टेशन मास्टर हरीश धुर्वे को ढूँढने की कोशिश की।
उनकी लाश मिली। हरीश धुर्वे ने भी कोशिश की थी लोगों को बचाने की, ये बात हमको सिर्फ़ ग़ुलाम दस्तगीर के बयान से पता है। उन्हें अकेले हीरो बननाहोता तो छिपा लेते।
ख़ैर- तब तक ग़ुलाम दस्तगीर को समझ आ गया था, ज़हर बरस रहा है। उन्होंने इटारसी, विदिशा, सब जगह फ़ोन करके ट्रेनें रोकी। सबने पूछा- ऊपर से आदेश हो जाये- उन्होंने कहा, में ग़ुलाम दस्तगीर पूरी ज़िम्मेदारी ले रहा हूँ।
उसी बीच गोरखपुर बॉम्बे एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर आ खड़ी हुई थी। ग़ुलाम दस्तगीर दौड़े- बोले भगाओ। तब तक ज़हर उन पर भी चढ़ चुका था। ड्राइवर ने फिर वही- ऊपर का आदेश पूछा- बाद में ड्राइवर ने ही बताया- ग़ुलाम दस्तगीर चीखे थे- मेरा आदेश है। में स्टेशन का मालिक हूँ। ले जाओ। और ये कहते कहते गिर पड़े थे।
ख़ैर- शुक्र ये था कि गिरने के पहले ग़ुलाम दस्तगीर भोपाल स्टेशन पूरी तरह से बंद कर चुके थे।
सारी ट्रेनें जहाँ खड़ी थीं, वहीं खड़ी थीं।
100 किलोमीटर दूर, 200 किलोमीटर दूर।
ग़ुलाम दस्तगीर ना होते, तो भोपाल गैस कांड में मरने वालों का आँकड़ा कई गुना बढ़ता।
और एक बात बताऊँ- तब मोबाइल फ़ोन नहीं होते थे। ग़ुलाम दस्तगीर अपने परिवार को बचा सकते थे, अगर स्टेशन छोड़ भाग जाते।
उन्होंने नहीं भागना चुना, उनका बेटा उसी गैस का शिकार होकर उसी रात मर गया।