
Sanjaya Kumar Singh :
हिन्दी, हिन्दी की नौकरी, अर्ध बेरोजगारी और हिन्दी में बने रहना... जनसत्ता में उपसंपादक बनने के लिए लिखित परीक्षा पास करने के बाद इंटरव्यू से पहले ही सहायक संपादक बनवारी जी ने बता दिया था कि प्रशिक्षु रखा जाएगा और (लगभग) एक हजार रुपए महीने मिलेंगे। इतने में दिल्ली में रहना मुश्किल है, रह सकोगे तो बताओ। मैंने पूछा कि प्रशिक्षण अवधि कितने की है। बताया गया एक साल और फिर पूरे पैसे मिलने लगेंगे। पूरे मतलब कितने ना मैंने पूछा और ना उन्होंने बताया। बाद में पता चला कि प्रशिक्षण अवधि में 40 प्रतिशत तनख्वाह मिलती है। पूरे का मतलब अब आप समझ सकते हैं। मेरे लिए उस समय भी ये पैसे कम नहीं, बहुत कम थे।
नौकरी शुरू करने के बाद कुछ ही समय में यह समझ में आ गया कि मैं इस पेशे में गलत आ गया हूं। मैं मानता हूं कि यह पेशा (कम वेतन और सुविधाओं के कारण) मेरे लायक नहीं है। आप यह मान सकते हैं कि मैं इस पेशे के लायक नहीं था। मुझे दोनों में कोई खास अंतर नहीं लगता है। वैसे, मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि जनसत्ता या हिन्दी पत्रकारिता ने वेतन भत्तों के अलावा जो दिया वह कत्तई कम नहीं है। पर यह तो मिलना ही था। मैं यह बताना चाहता हूं कि आम नौकरियों में जो वेतन भत्ते, सुविधाएं आदि अमूमन मिलते ही हैं वह भी पत्रकारिता में मुश्किल है और जिन सुविधाओं के लिए पत्रकार बड़ी और लंबी-चौड़ी खबरें लिखते हैं वे खुद उन्हें नहीं मिलतीं। दुर्भाग्य यह कि वे इसके लिए लड़ते नहीं हैं, बोल भी नहीं पाते और इस तरह लिखना तो अपमान भी समझते हैं। हिन्दी पत्रकारिता बहुत हद तक एक पवित्र गाय की तरह है जिसके खिलाफ कुछ बोला नहीं जाता और उससे कुछ अपेक्षा भी नहीं की जाती है। फिर भी लोग उसकी सेवा करते रहते हैं।
अखबारों या पत्रकारिता की हालत खराब होने का एक कारण यह भी है कि अब पेशेवर संपादक नहीं के बराबर हैं। जो काम देख रहे हैं उनमें ज्यादातर को पत्रकारिता की तमीज नहीं है और पैसे कमाने की मजबूरी ऊपर से। अपने लिए और लाला के लिए भी। नियुक्ति के मामले में संपादकों पर दबाव आज से नहीं है। जनसत्ता ज्वायन करने के बाद विज्ञापन निकला कि एक राष्ट्रीय हिन्दी अखबार को जमशेदपुर में अपने पटना संस्करण के लिए जमशेदपुर में रिपोर्टर चाहिए था। मैंने आवेदन किया। लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के बाद कॉल लेटर नहीं आया तो मैंन कुछ परिचितों से चर्चा की। संयोग से अखबार के उस समय के प्रधान संपादक परिचित के परिचित निकले और इंटरव्यू उन्हीं ने लिया था। परिचित के साथ बात-चीत में उन्होंने स्वीकार किया कि उस समय तक कोई नियुक्ति नहीं हुई थी पर साथ ही यह भी कहा कि मैं किसी राजनीतिज्ञ से अखबार के बड़े लोगों में से किसी को कहलवा दूं तो चुनाव हो जाएगा (उन्होंने दो-चार नाम भी बताए) वरना सिफारिश के बगैर उनके यहां कोई नियुक्ति नहीं होती। हिन्दी में सच पूछिए तो तीन ही राष्ट्रीय अखबार हैं। एक में मैं था ही, दूसरे की हालत यह रही। तीसरा अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया समूह का था जो अखबार को प्रोडक्ट मानने की घोषणा कर चुका था और अब कह चुका है कि वह खबरों का नहीं विज्ञापनों का धंधा करता है। इस संस्थान ने एक नीतिगत फैसला लिया और नवभारत टाइम्स का ब्यूरो बंद कर दिया। अब लगता है कि टाइम्स समूह के मालिकानों की ही तरह जनसत्ता के मालिकानों ने भी उस समय के फैशन के अनुसार अपने हिन्दी प्रकाशन पर ध्यान देना बंद कर दिया होगा।
हिन्दी पत्रकारों के लिए एक संभावना आजतक चैनल शुरू होने की योजना से बनी। कुछ लोगों ने मुझे वहां जाने की सलाह दी। कुछ ही दिनों में वहां जान पहचान निकल आई और मैं पूरी सिफारिश (यह सिफारिश पत्रकारों की थी, मंत्री या ऐसे किसी शक्तिशाली की नहीं) के साथ उस समय वहां जो काम देख रहा था उनसे बातचीत के लिए पहुंचा। अच्छी बातचीत हुई और मामला ठीक लग रहा। चलते समय उन्होंने पूछा कि मुझे जनसत्ता में कितने पैसे मिलते हैं और इसके जवाब में मैंने जो पैसे मिलते थे वह बताया तो उन्होंने ऐसा मुंह बनाया जैसे मैं कहीं बेगार कर रहा था। जनसत्ता में मेरी नौकरी सिर्फ छह घंटे की थी और मैं खुद को अर्ध बेरोजगार मानता था। ऐसे में मेरी कम तनख्वाह पर उन्होंने जो मुंह बनाया उसपर मुझे गुस्सा आ गया और मैंने बहुत ही खराब ढंग से कहा कि उतने पैसे मुझे सिर्फ छह घंटे काम करने के मिलते हैं और टीवी में चूंकि कम से कम 12 घंटे काम करने की बात हो रही है इसलिए मैं ढाई से तीन गुना तनख्वाह की अपेक्षा करूंगा। मुझे उस समय भी पता था कि इस तरह नहीं कहना चाहिए पर जो मैं हूं सो हूं। बाद में इस चैनल के सर्वेसर्वा मशहूर पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह हुए और उन्हें जिन्हें नहीं रखना था उनके लिए बड़ी अच्छी शर्त रखी थी – अनुभवी लोग चाहिए। उन दिनों उमेश जोशी के अलावा गिनती के लोग थे जो अखबार और टीवी दोनों में काम करते थे। पर इनमें से कोई आजतक में नहीं रखा गया। आज तक जब शुरू हुआ था तो देश में हिन्दी के समाचार चैनलों में काम करने वाले या कर चुके बहुत कम लोग थे। उनमें उसे अनुभवी कहां और कैसे मिले यह अलग विषय है। हां, आज तक शुरू होने पर जो प्रेस विज्ञप्ति जारी हुई थी वह अंग्रेजी में बनी थी और एक पीआर एजेंसी के लिए उसका हिन्दी अनुवाद मैंने किया था।
इसके बाद चैनलों की एक तरह से बाढ़ आई और प्रिंट मीडिया के कई लोगों ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का रुख किया और कई बगैर अनुभव के लोग खप गए। कइयों की मोटी तनख्वाह हो गई और पत्रकारों की तनख्वाह इतनी बढ़ गई थी कि इंडिया टुडे ने इसपर स्टोरी भी की थी। जुगाड़ और जान-पहचान के साथ मुमकिन है, योग्यता से भी काफी लोग इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चले गए पर मुझे मौका नहीं मिला। सच कहूं तो आज तक वाली घटना के बाद मैं किसी टीवी चैनल में नौकरी मांगने गया भी नहीं। एक मित्र अब बंद हो चुके चैनल में अच्छे पद पर थे। काफी लोगों को रखा भी था। मेरे एक साथी ने बहुत जिद की कि उस साझे मित्र से नौकरी के लिए बात करने में कोई बुराई नहीं है और ज्यादा से ज्यादा वह मना कर देगा। मैं भी उसके साथ चलूं। मैं नहीं गया। लौटकर साथी ने बताया ने कि उस मित्र ने जितनी देर बात की उसके पैर मेज पर ही रहे। नौकरी तो उसने नहीं ही दी। वह मित्र है तो हिन्दी भाषी पर नौकरी अंग्रेजी की करता है।
इधर जनसत्ता में तरक्की हो नहीं रही थी। प्रभाष जोशी रिटायर हो गए। नए संपादक ने तरक्की की रेवड़ी बांटी और कुछ लोगों को दो तरक्की दी। मुझे एक ही तरक्की मिली थी। मैं फिर निराश ही रहा। संपादक जी कुछ दिन में छोड़ गए। उनके बाद ओम थानवी आए। लगा नहीं कि ज्यादा समय चल पाउंगा। इसी बीच वीआरएस लेने का ऑफर आ गया और मैंने उसे गले लगा लिया। हिन्दी अखबार में आने से पहले मैं जमशेदुपर में अमृत बाजार पत्रिका के लिए रिपोर्टिंग करता था और दि टेलीग्राफ में मेरी रिपोर्ट प्रकाशित हो चुकी थी। मैं अंग्रेजी पत्रकारिता में भी जा सकता था – पर वहां शायद कमजोर होता या उतना मजबूत नहीं जितना हिन्दी में था या हूं। इसलिए मैंने अंग्रेजी पत्रकारिता में जाना ठीक नहीं समझा और अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद को प्राथमिकता दी। मुझे लगता है मेरे स्वभाव और मेरी सीमाओं के लिहाज से यह ठीक ही रहा।