पूरे विश्व में अनोखी है काशी की रामलीला
Vartman Ankur | : Admin | : Oct 09, 2015 23:51:16 IST

ramlila varanasi
- जी हां, यूनेस्को की अमूर्त विरासत सूची में शामिल देश की सबसे पुरानी रामनगर की रामलीला भारत ही नहीं सात समुंदर पार भी ख्यातिलब्ध है। ऐसा इसलिए कि जहां एक तरफ हर ओर पाश्चात्य संस्कृति व आधुनिकता की छाप है वहीं काशी के रामनगर की रामलीला आज भी भारतीय संस्कृति से सुसज्जित दौ साल पूर्व के परंपरा के तहत ही मंचन की जा रही है। खास बात यह है कि पहली बार दूरदर्शन पर काशी की रामलीला का मंचन हो रहा है, जो लोगों को खूब भा रही है। तकरीबन 200 साल से चली आ रही इस पुश्तैनी रामलीला का प्रसारण हर रोज रात साढ़े आठ बजे से डी.डी भारती पर किया जा रहा है
सुरेश गांधी
तीनों लोकोंमें न्यारी भगवान भोलेनाथ के त्रिशूल पर टिकी काशी के रामनगर की विश्वप्रसिद्ध रामलीला अब दूरदर्शन पर छा गयी है। अनूठे आयोजन के संयोजन और सहभाग की समानांतर तैयारियों के बीच लीला प्रेमियों के तन-मन में धर्म अध्यात्म प्रस्तुत हो रहा है। लीला देख नेमियों का मन अवध, दिल जनकपुर हो चला है। श्रद्धा और आस्था के इस अनूठे समागम में विदेशी भी गोता लगा रहे है। टीबी में लीला देख लोग खासा प्रभावित है। लीला का ही चमत्कार है कि 11 माह काशी से लोग भले ही दूर रहे हो, लेकिन लीलार्पयत काशी ही उनकी जिंदगी की धुरी होती है और जैसे ही लीला शुरु होने की बात आती है तो वह खींचे चले आते है। क्योंकि ऐसी सादगी, सहजता, श्रद्धा का अलौकिक सौंदर्य अल्हड़पन और मौजमस्ती के साथ श्रद्धा-भक्ति एवं समर्पण का ऐसा दुर्लभ वातावरण उन्हें काशी के सिवाय कहीं और देखने को नहीं मिलता। यह रामलीला दुनिया का पहला गतिशील (मूविंग) नाट्य मचंन है जो हर दिन अलग अलग स्थानों पर किया जाता है। रामचरित मानस की चौपाइयों पर आधारित अवधि में होने वाली इस रामलीला में न तो कोई माइक होता है और न ही लाईट बल्कि पेट्रोमैक्स की रोशनी में इस रामलीला को खेला जाता है और 40 किलोमीटर दूर के गांवों से लाखों लोग इसे देखने आते हैं। इस रामलीला की खासियत यह है कि रामलीला के दौरान रावण दहन या आतिशबाजी और मंच सज्जा के सभी कारीगर मुस्लिम होते हैं। रामलीला के पात्र वही होते हैं जो 200 साल से पुश्तैनी रूप से अभिनय करते रहे हैं। यही वजह है कि रामनगर की जीवंत लीला देखने के लिए परदेसी नेमियों ने तो रामनगर या गंगा तट स्थित किसी होटल, धर्मशाला में डेरा जमाया ही है। शाम ढलते ही पास-पड़ोस के लोग भी बड़ी संख्या में लीला स्थल पहुंच जाते है।
राम कथा पर आधारित यहां की लीलाएं व्यापक क्षेत्र में प्रचलित है, किन्तु काशी की रामलीला की अपनी निजी विशिष्टता है जिसके कारण उसे देश एवं विदेश में भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। रामनगर के महाराजा गत 200 सालों से इस रामलीला का आयोजन करते रहे हैं जो 31 दिन तक रोज होती है। देश के किसी भी हिस्से में इतने दिनों तक कोई भी रामलीला नहीं होती है। यह रामलीला रामनगर में 4 किलोमीटर के दायरे में 31 स्थानों पर जगह बदल-बदल कर होती हैं। देखा जाय तो काशी में कई प्रकार की लीलाएं भी होती है। काशी की विश्वप्रसिद्ध रामलीला का आज भी जबर्दस्त आकर्षण हैं। काशी की रामलीला को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। इस लीला का इतना भावपूर्ण मंचन होता है कि दर्शक पूरे राममय हो जाते हैं। जहां तक रामनगर की रामलीला की शुरुवात का मसला है तो लोग बताते है कि राजा महीप नारायण सिंह छोटा मीरजापुर की रामलीला के मुख्य अतिथि थे। लेकिन किसी कारणवश वे रामलीला में कुछ देर से पहुंचे। तब तक धनुषभंग हो चुका था। इसका उन्हें अत्यधिक खेद हुआ। तब उन्होंने 1855 ई. में रामनगर में रामलीला कराने का निर्णय लिया। रामनगर की रामलीला को नाटकीय रूप से समृद्ध करने का श्रेय महाराजा ईश्वरीनारायण सिंह को जाता है। उन्हेंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और रीवां के महाराजा रघुराज सिंह के सहयोग से रामलीला के संवादों का पुन: लेखन कराया। साथ ही कथा के अनुसार अयोध्या, जनकपुर, अशोक वाटिका और लंका को रामनगर के अलग-अलग स्थानों का नाम दिया। एक ही दिन अलग-अलग स्थानों पर कई दृश्यों का मंचन होता है। परम्परा के अनुसार रामलीला का शुभारंभ प्रतिदिन शाम पांच बजे शहनाई वादन के साथ होता है। इसी समय हाथी पर सवार होकर काशीनरेश लीला स्थल पर आते हैं। रामलीला शाम सात बजे से रात 10 बजे तक चलती है। जिसका लोग भरपूर आनंद उठाते हैं। रामनगर की रामलीला भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी से लेकर अश्विन पूर्णिमा तक चलती है। यानी 31 दिनों तक रामनगर में भगवान राम की लीलाएं होती रहती है। रामलीला के लिए पात्रों का चयन ब्राह्मण परिवार के 10 से 12 वर्ष के बीच बटुकों में से पहले ही हो जाता है। जो राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता का पाठ निभाते हैं। रामलीला की अन्य भूमिकाओं के लिए 16 वर्ष से अधिक आयु वाले बच्चों का चयन होता है। रामलीला होने से करीब दो महीने पहले से ही चयनितों को व्यास प्रशिक्षण देने लगते हैं। रामलीला में चौपाइयों को संगीतमय ढंग से प्रस्तुत करने वाले को रामायणी कहते हैं। रामलीला के निर्देशक व संचालक को व्यास कहते हैं। रामनगर की रामलीला देखने के लिए लोगों में गजब की उत्कंठा रहती है।
रामनगर की अभिनय प्रधान रामलीला में झांकियों पर कम ध्यान दिया जाता है। फिर भी क्षीर-सागर, राम-जन्म, विराट-दर्शन और राज्याभिषेक की झांकियां प्रसिद्ध है। तीन जुलूस बहुत प्रसिद्ध हैं-राम बारात, विजयादशमी के दिन राम-लखन के साथ महाराज की सवारी तथा भरत-मिलाप। लीला समाप्त होने पर प्रतिदिन ऊंचे मंच पर राम-लक्ष्मण को बिठाकर आतिशबाजी के प्रकाश में आरती की जाती है। फुलवारी, धनुष-यज्ञ, अशोक-वाटिका तथा लक्ष्मण-शक्ति की लीलाएं बहुत प्रसिद्ध हैं तथा सायंकाल 5 बजे विगुल और शहनाई के साथ महाराज की सवारी आती है, हाथी पर। अगल-बगल कुछ विशेष लोग भी हाथियों पर होते हैं। आरम्भ में 45 मिनट रामलीला होती है, तत्पश्चात राजा चले जाते है। पुन: सात से दस बजे तक लीला होती है। काशी में अधिकतर स्थानों में लीला शुरु होने के पहले पात्रों को कंधे पर बैठाकर रामलीला मैदान में लाया जाता है। भूतपूर्व काशी नरेश स्वर्गीय डा. विभूति नारायण सिंह रामलीला के प्रति राजकुल की परम्परा का निर्वाह करते हुए नवरात्रि पर्यन्त जानकी जी के चरण धोकर पीत रहे हैं। इन दिनों जानकी जी रावण द्वारा अशोक वाटिका में बन्दी रहती है। अशोक वाटिका पहुंच कर महाराजा सोने के लोटे में रखे गंगाजल से सोने की थाली में जानकी जी के चरण धोते थे। चरुणामृत लेते थे और चमेली के फूलों का एक गुलदस्ता भेंट करके लौट जाते थे। वह परंपरा आज भी कायम हैं। पात्रों की वेशभूषा पर विशेष ध्यान रखा जाता है। जैसे अयोध्या में राम-लक्ष्मण व सीता जरी के वस्त्र व बनारसी साड़ी धारण करते है और वनवास के समय चित्रकूट की लीला में राम-लक्ष्मण पीले रंग की अल्पियां धारण करते हैं। ये तुलसी की माला, बाजू-बन्द और केयूर धारण करते हैं। हनुमान का मुखौटा यहां राम के मुकुट के बाद सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। मेघाभगत को अश्वारोही कुमारों ने धनुष-बाण दिया था, अत: यहां धुनष-बाण का बहुत महत्व है। धनुष-बाण की झांकी वाले दिन उसकी आरती उतारी जाती है, और चढ़ावा चढ़ता है।
चेतगंज की नाककटैया :-काशी में चेतगंज की नाककट्टैया भी काफी प्रसिद्ध है। इसमें तकरीब एक लाख से भी अधिक लोगों की भीड़ जुटती है। लोग अपने घरों की छतों से भी इस लीला को देखते हैं। शूपर्णखा की नाक कट्टैया के दृश्य के रूप में यह लीला प्रचलित है। लक्ष्मण जी की ललकार के जवाब में चेतगंज में एक विशाल राक्षस सेना जुलूस के रूप में आती है। यह जुलूस पिशाचमोचन से शुरू होकर रामलीला मैदान तक जाता है। इस दृश्य को देखने के लिए जनसैलाब उमड़ पड़ता है। लोग अपने कैमरे में इस दृश्य को कैद करते हैं। नाक कट्टैया करवा चैथ या कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष के चतुर्थी को पड़ती है।
भरत मिलाप :-काशी में नाटी ईमली का भरत मिलाप भी विश्व प्रसिद्ध है। विजयादशमी के दूसरे दिन एकादशी को भरत मिलाप का आयोजन बड़े ही रोचक एवं आकर्षक ढंग से किया जाता है। इस लीला में एक अभूतपूर्व झांकी होती है। जिसमें राम, सीता और लक्ष्मण तपस्वी के वेश में मंच पर बैठे रहते हैं। वहीं दूसरी ओर भरत और शत्रुघ्न रहते हैं जो उनके सामने आकर साष्टांग प्रणाम करते हैं। राम उन्हें गले से लगा लेते हैं। इसके बाद विमान आकर राजकुमार को नगर की ओर ले जाता है। यह लीला महज 5 मिनट की होती है। लेकिन इस ऐतिहासिक भावपूर्ण मंचन को देखने के लिए लाखों की भीड़ जुटती है। भरत मिलाप के सम्मान में काशी में उस दिन कहीं पर रामलीला नहीं होती है।
नागनथैया:-काशी में नाग नथैया का भी अपना अलग आकर्षण है। तुलसीघाट पर मात्र पांच मिनट की इस कृष्ण लीला को देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता है। इस लीला के दौरान श्रीकृष्ण अपनी मित्र मंडली के साथ यमुना तट पर गेंद खेल रहे होते हैं। तभी गेंद नदी में चली जाती है। गेंद निकालने के लिए कृष्ण कदम्ब की डाली से यमुना में कूद जाते हैं। कुछ देर बाद विषधर कालिया के फन (मस्तक) पर खड़े होकर नदी के सतह पर आते हैं। इस लीला में भाग लेने वाले बच्चे 11 से 14 वर्ष के होते हैं। लोग कदम्ब की डाल संकटमोचन मंदिर से तुलसीघाट तक लाते हैं। लीला समाप्त होने के बाद डाली गंगा तट पर रोप दी जाती है। इसको देखकर लोग भाव विभोर हो जाते हैं। हर साल महाराजा के गुरुकुल के बच्चे इस रामलीला के पात्र होते हैं। रामनगर के महाराजा ही इन बच्चों की पढ़ाई लिखाई का खर्च उठाते हैं और ये बच्चे 31 दिनों तक संयमित ढंग से खान-पान और आचरण भी करते हैं। उन्हें रामलीला के लिए प्रशिक्षण भी दिया जाता है। हर साल गुरुकुल के नए बच्चे इस रामलीला में अभिनय करते हैं।
सुरेश गांधी
तीनों लोकोंमें न्यारी भगवान भोलेनाथ के त्रिशूल पर टिकी काशी के रामनगर की विश्वप्रसिद्ध रामलीला अब दूरदर्शन पर छा गयी है। अनूठे आयोजन के संयोजन और सहभाग की समानांतर तैयारियों के बीच लीला प्रेमियों के तन-मन में धर्म अध्यात्म प्रस्तुत हो रहा है। लीला देख नेमियों का मन अवध, दिल जनकपुर हो चला है। श्रद्धा और आस्था के इस अनूठे समागम में विदेशी भी गोता लगा रहे है। टीबी में लीला देख लोग खासा प्रभावित है। लीला का ही चमत्कार है कि 11 माह काशी से लोग भले ही दूर रहे हो, लेकिन लीलार्पयत काशी ही उनकी जिंदगी की धुरी होती है और जैसे ही लीला शुरु होने की बात आती है तो वह खींचे चले आते है। क्योंकि ऐसी सादगी, सहजता, श्रद्धा का अलौकिक सौंदर्य अल्हड़पन और मौजमस्ती के साथ श्रद्धा-भक्ति एवं समर्पण का ऐसा दुर्लभ वातावरण उन्हें काशी के सिवाय कहीं और देखने को नहीं मिलता। यह रामलीला दुनिया का पहला गतिशील (मूविंग) नाट्य मचंन है जो हर दिन अलग अलग स्थानों पर किया जाता है। रामचरित मानस की चौपाइयों पर आधारित अवधि में होने वाली इस रामलीला में न तो कोई माइक होता है और न ही लाईट बल्कि पेट्रोमैक्स की रोशनी में इस रामलीला को खेला जाता है और 40 किलोमीटर दूर के गांवों से लाखों लोग इसे देखने आते हैं। इस रामलीला की खासियत यह है कि रामलीला के दौरान रावण दहन या आतिशबाजी और मंच सज्जा के सभी कारीगर मुस्लिम होते हैं। रामलीला के पात्र वही होते हैं जो 200 साल से पुश्तैनी रूप से अभिनय करते रहे हैं। यही वजह है कि रामनगर की जीवंत लीला देखने के लिए परदेसी नेमियों ने तो रामनगर या गंगा तट स्थित किसी होटल, धर्मशाला में डेरा जमाया ही है। शाम ढलते ही पास-पड़ोस के लोग भी बड़ी संख्या में लीला स्थल पहुंच जाते है।
राम कथा पर आधारित यहां की लीलाएं व्यापक क्षेत्र में प्रचलित है, किन्तु काशी की रामलीला की अपनी निजी विशिष्टता है जिसके कारण उसे देश एवं विदेश में भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। रामनगर के महाराजा गत 200 सालों से इस रामलीला का आयोजन करते रहे हैं जो 31 दिन तक रोज होती है। देश के किसी भी हिस्से में इतने दिनों तक कोई भी रामलीला नहीं होती है। यह रामलीला रामनगर में 4 किलोमीटर के दायरे में 31 स्थानों पर जगह बदल-बदल कर होती हैं। देखा जाय तो काशी में कई प्रकार की लीलाएं भी होती है। काशी की विश्वप्रसिद्ध रामलीला का आज भी जबर्दस्त आकर्षण हैं। काशी की रामलीला को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। इस लीला का इतना भावपूर्ण मंचन होता है कि दर्शक पूरे राममय हो जाते हैं। जहां तक रामनगर की रामलीला की शुरुवात का मसला है तो लोग बताते है कि राजा महीप नारायण सिंह छोटा मीरजापुर की रामलीला के मुख्य अतिथि थे। लेकिन किसी कारणवश वे रामलीला में कुछ देर से पहुंचे। तब तक धनुषभंग हो चुका था। इसका उन्हें अत्यधिक खेद हुआ। तब उन्होंने 1855 ई. में रामनगर में रामलीला कराने का निर्णय लिया। रामनगर की रामलीला को नाटकीय रूप से समृद्ध करने का श्रेय महाराजा ईश्वरीनारायण सिंह को जाता है। उन्हेंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और रीवां के महाराजा रघुराज सिंह के सहयोग से रामलीला के संवादों का पुन: लेखन कराया। साथ ही कथा के अनुसार अयोध्या, जनकपुर, अशोक वाटिका और लंका को रामनगर के अलग-अलग स्थानों का नाम दिया। एक ही दिन अलग-अलग स्थानों पर कई दृश्यों का मंचन होता है। परम्परा के अनुसार रामलीला का शुभारंभ प्रतिदिन शाम पांच बजे शहनाई वादन के साथ होता है। इसी समय हाथी पर सवार होकर काशीनरेश लीला स्थल पर आते हैं। रामलीला शाम सात बजे से रात 10 बजे तक चलती है। जिसका लोग भरपूर आनंद उठाते हैं। रामनगर की रामलीला भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी से लेकर अश्विन पूर्णिमा तक चलती है। यानी 31 दिनों तक रामनगर में भगवान राम की लीलाएं होती रहती है। रामलीला के लिए पात्रों का चयन ब्राह्मण परिवार के 10 से 12 वर्ष के बीच बटुकों में से पहले ही हो जाता है। जो राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता का पाठ निभाते हैं। रामलीला की अन्य भूमिकाओं के लिए 16 वर्ष से अधिक आयु वाले बच्चों का चयन होता है। रामलीला होने से करीब दो महीने पहले से ही चयनितों को व्यास प्रशिक्षण देने लगते हैं। रामलीला में चौपाइयों को संगीतमय ढंग से प्रस्तुत करने वाले को रामायणी कहते हैं। रामलीला के निर्देशक व संचालक को व्यास कहते हैं। रामनगर की रामलीला देखने के लिए लोगों में गजब की उत्कंठा रहती है।
रामनगर की अभिनय प्रधान रामलीला में झांकियों पर कम ध्यान दिया जाता है। फिर भी क्षीर-सागर, राम-जन्म, विराट-दर्शन और राज्याभिषेक की झांकियां प्रसिद्ध है। तीन जुलूस बहुत प्रसिद्ध हैं-राम बारात, विजयादशमी के दिन राम-लखन के साथ महाराज की सवारी तथा भरत-मिलाप। लीला समाप्त होने पर प्रतिदिन ऊंचे मंच पर राम-लक्ष्मण को बिठाकर आतिशबाजी के प्रकाश में आरती की जाती है। फुलवारी, धनुष-यज्ञ, अशोक-वाटिका तथा लक्ष्मण-शक्ति की लीलाएं बहुत प्रसिद्ध हैं तथा सायंकाल 5 बजे विगुल और शहनाई के साथ महाराज की सवारी आती है, हाथी पर। अगल-बगल कुछ विशेष लोग भी हाथियों पर होते हैं। आरम्भ में 45 मिनट रामलीला होती है, तत्पश्चात राजा चले जाते है। पुन: सात से दस बजे तक लीला होती है। काशी में अधिकतर स्थानों में लीला शुरु होने के पहले पात्रों को कंधे पर बैठाकर रामलीला मैदान में लाया जाता है। भूतपूर्व काशी नरेश स्वर्गीय डा. विभूति नारायण सिंह रामलीला के प्रति राजकुल की परम्परा का निर्वाह करते हुए नवरात्रि पर्यन्त जानकी जी के चरण धोकर पीत रहे हैं। इन दिनों जानकी जी रावण द्वारा अशोक वाटिका में बन्दी रहती है। अशोक वाटिका पहुंच कर महाराजा सोने के लोटे में रखे गंगाजल से सोने की थाली में जानकी जी के चरण धोते थे। चरुणामृत लेते थे और चमेली के फूलों का एक गुलदस्ता भेंट करके लौट जाते थे। वह परंपरा आज भी कायम हैं। पात्रों की वेशभूषा पर विशेष ध्यान रखा जाता है। जैसे अयोध्या में राम-लक्ष्मण व सीता जरी के वस्त्र व बनारसी साड़ी धारण करते है और वनवास के समय चित्रकूट की लीला में राम-लक्ष्मण पीले रंग की अल्पियां धारण करते हैं। ये तुलसी की माला, बाजू-बन्द और केयूर धारण करते हैं। हनुमान का मुखौटा यहां राम के मुकुट के बाद सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। मेघाभगत को अश्वारोही कुमारों ने धनुष-बाण दिया था, अत: यहां धुनष-बाण का बहुत महत्व है। धनुष-बाण की झांकी वाले दिन उसकी आरती उतारी जाती है, और चढ़ावा चढ़ता है।
चेतगंज की नाककटैया :-काशी में चेतगंज की नाककट्टैया भी काफी प्रसिद्ध है। इसमें तकरीब एक लाख से भी अधिक लोगों की भीड़ जुटती है। लोग अपने घरों की छतों से भी इस लीला को देखते हैं। शूपर्णखा की नाक कट्टैया के दृश्य के रूप में यह लीला प्रचलित है। लक्ष्मण जी की ललकार के जवाब में चेतगंज में एक विशाल राक्षस सेना जुलूस के रूप में आती है। यह जुलूस पिशाचमोचन से शुरू होकर रामलीला मैदान तक जाता है। इस दृश्य को देखने के लिए जनसैलाब उमड़ पड़ता है। लोग अपने कैमरे में इस दृश्य को कैद करते हैं। नाक कट्टैया करवा चैथ या कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष के चतुर्थी को पड़ती है।
भरत मिलाप :-काशी में नाटी ईमली का भरत मिलाप भी विश्व प्रसिद्ध है। विजयादशमी के दूसरे दिन एकादशी को भरत मिलाप का आयोजन बड़े ही रोचक एवं आकर्षक ढंग से किया जाता है। इस लीला में एक अभूतपूर्व झांकी होती है। जिसमें राम, सीता और लक्ष्मण तपस्वी के वेश में मंच पर बैठे रहते हैं। वहीं दूसरी ओर भरत और शत्रुघ्न रहते हैं जो उनके सामने आकर साष्टांग प्रणाम करते हैं। राम उन्हें गले से लगा लेते हैं। इसके बाद विमान आकर राजकुमार को नगर की ओर ले जाता है। यह लीला महज 5 मिनट की होती है। लेकिन इस ऐतिहासिक भावपूर्ण मंचन को देखने के लिए लाखों की भीड़ जुटती है। भरत मिलाप के सम्मान में काशी में उस दिन कहीं पर रामलीला नहीं होती है।
नागनथैया:-काशी में नाग नथैया का भी अपना अलग आकर्षण है। तुलसीघाट पर मात्र पांच मिनट की इस कृष्ण लीला को देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता है। इस लीला के दौरान श्रीकृष्ण अपनी मित्र मंडली के साथ यमुना तट पर गेंद खेल रहे होते हैं। तभी गेंद नदी में चली जाती है। गेंद निकालने के लिए कृष्ण कदम्ब की डाली से यमुना में कूद जाते हैं। कुछ देर बाद विषधर कालिया के फन (मस्तक) पर खड़े होकर नदी के सतह पर आते हैं। इस लीला में भाग लेने वाले बच्चे 11 से 14 वर्ष के होते हैं। लोग कदम्ब की डाल संकटमोचन मंदिर से तुलसीघाट तक लाते हैं। लीला समाप्त होने के बाद डाली गंगा तट पर रोप दी जाती है। इसको देखकर लोग भाव विभोर हो जाते हैं। हर साल महाराजा के गुरुकुल के बच्चे इस रामलीला के पात्र होते हैं। रामनगर के महाराजा ही इन बच्चों की पढ़ाई लिखाई का खर्च उठाते हैं और ये बच्चे 31 दिनों तक संयमित ढंग से खान-पान और आचरण भी करते हैं। उन्हें रामलीला के लिए प्रशिक्षण भी दिया जाता है। हर साल गुरुकुल के नए बच्चे इस रामलीला में अभिनय करते हैं।