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पहला गुमनाम जांलियां वाला बाग नरसंहार

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  • आज भी गुमनाम हैं शहीदों की शहादत /      ‘’मानगढ़ धाम शहादत के सौ साल’’
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    राजस्थान मेँ शौर्य गाथाएँ जनजातियोँ के नाम आदिकाल से ही रही हैँ। स्वतंत्रता संग्राम मेँ भी इनका योगदान अतुलनीय रहा। गुजरात से आकर राजपुताना की डूंगरपुर स्टेट के गाँव बड़ेसा (बंसिया ) में बसे बसर बंजारा ओए लाटकी के घर 20 दिसम्बर 1858 को एक बालक पैदा हुवा जिसका नाम गोविंदा रखा गया अपनी छोटी उम्र में ही गोविंदा इदर ,पालनपुर सिरोही प्रतापगढ़ मंदसोर मालवा और मवाद के दूर दूर आंतरिक आदिवासी गाँवो में घूम चुके गोविंदा ने आदिवासियों की गरीबी हालत देखि तो उसके दिल में समाज सुधर की भावना जगी इनकी सादी गनी से हुई राजगिरी को गुरु बनाया तब से इनका नाम गोविन्द गिरी हुवा 1881 में सुन्थ रामपुर गोदरा गुजरात रहते हुए पत्नी का देहांत दूसरी सादी की 1911 में अपने गाँव बेडसा में धुणी स्थापित कर धार्मिक व समाज सुधर के कार्य करनी लगे बेडसा मुख्या केंद्र बन गया हजारो आदिवासी उह्की धुणी पर आने लगे भयभीत होकर अप्रेल 1913 में डूंगरपुर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया आग लगा दी उनका सामान जप्त कर लिया गोली बरी की जिसमे 14 आदिवासी मरे गए ..धमकाया डूंगरपुर से देश निकला दे दिया वाह से इडर राज्य के रोजाड़ा गाँव आ गए वाह इदर के रजा ने गिरफ्तार करना चाह गोविन्दगिरी और उनके सिष्य सुरक्सताम्क स्तिथि प्राप्त करने के लिए राशन पानी की व्यवस्थ कर मानगढ़ आ गए आदिवासियों को मानगढ़ आने का संधेश भिजवाया आदिवासी जुटने लगे रियासते आदिवासियों को कुचलने के अंग्रेजो के कान भरने लगी 30 अक्टूबर 1913 को सुन्थ के जमादार युसूफ खान का दुवारा ज्यादती करने पर कतल कर दिया गया जिसका आरोप गोविन्द गिरी के सिष्य पूंजा पर लगाया मौका देख रियासतों व अंग्रेजो ने आदिवासियों को कुचलने का मानस बना लिया |

    आदिवासी राजस्थान मेँ डूँगरपुर,बाँसवाड़ा और गुजरात सीमा से लगे पँचायतसमिति गाँव भुकिया (वर्तमान आनन्दपुरी) से 7 किलोमीटर दूर ग्राम पँचायत आमदरा के पास मानगढ़ पहाड़ी पर 17 नवम्बर,1913 (मार्ग शीर्ष शुक्ला पूर्णिमा वि.स. 1970) को गोविन्द गुरू के सानिध्य मेँ जुटे आदिवासियो पर अंग्रेज कर्नल शैटर्न की अगुवाई मे 7 रियासती फोजे व सात अंग्रेज बटालियो ने गोलीबारी कर इस जनसंहार को अंजाम दिया सरकारी आंकड़ो के अनुसार 1503 आदिवासी शहीद हुए कुछ अन्य सुत्रोँ ने यह संख्या कई गुना मानते है घायलो की संख्या तो असंख्य थी । गोविन्द गुरु व उनके खास शिष्यो को गिर्फतार कर लिया गया उनको फांसी की सजा सुनाई गई लेकिन संभावित जनविद्रोह को देखते हुए बीस साल की सजा मे बदला गया । उच्च न्यायालय मेँ अपिल पर यह अवधि 10 वर्ष की गई लेकिन बाद मे 1920 मे ही रिहा कर दिया लेकिन सुँथरामपुर (संतरामपुर), बांसवाड़ा,डुँगरपुर एवं कुशलगढ़ रियासत से देश निकाला देकर उनके प्रवेश को प्रतिबंधित किया गया ।17-11-1913 को मानगढ़ (बांसवाड़ा ) अंग्रेजो से लड़ते हुए बलिदान देने वाले आदिवासी शहिद का वंशज श्री सोमा पारगी । इनकी उम्र 86 साल है इनके दादा जी ने यह बलिदान दिया यह भुखिया गाँव (आनन्दपुरी) जिला बांसवाड़ा राजस्थान मे है यह धाम तीन बड़े आदिवासी राज्यो गुजरात,राजस्थान और मध्यप्रदेश के बीच मे पड़ता है । गोविन्द गुरु (बनजारा) के आरम्भिक साथियो पूँजा धीर जी(पूँजा पारगी), कुरिया दनोत, सुरत्या मीणा, नानजी, सोमा परमार, तोता भील गरासिया,कलजी,रामोता मीणा, थानू लाला, जोरजी लखजी लेम्बा,दीपा गमेती,दित्या कटारा,गल्या बिसन्या डामोर,हादू मीणा,सुवाना खराड़िया,दगड़्या सिंगाड़िया,कड़सा डोडला,जोरिया भगत,कलजी भीमा,थावरा,आदि थे ये गुरु की सम्प सभा(धुणी) के माध्यम से भील,गरासिया,मीणा,डामोर व भीलमीणा अर्थात सम्पूर्ण आदिवासियो मे एकता,शोषण के खिलाफ जागृति, अधिकार के लिए संघर्ष और जागीरदार और विदेश शासन से मुक्ति के लिए कार्य कर रहे थे जगह जगह सम्प सभा गठीत की गई आदिवासियो की इस जागृत को रियासती शासक सहन नही कर पा रहे थे और वो अंग्रेजो को आदिवासियो के दमन के लिए बार बार उगसा रहे थे 6 नवम्बर 1913 को पाचवी महु डिवीजन के जनरल ऑफीसर कमांडिग ने सूंथ रियासत के आदिवाषियो का नियनत्रण से बाहर होने की खबर चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को सूचना भेजी,इस पर 104 वेल्सले रायफल्स की एक कम्पनी व एक मशीनगन सहित पैदल सेना तैयार रहने की हिदायत दी ,8 नवम्बर को मेवाड़ भील कोर खैरवाड़ा का कमाण्डेंट जे पी स्टोक्ले कोर की दो सशस्त्र कम्पनियो को लेकर मानगढ़ के लिए रवाना हुआ 11 नवम्बर को भुखिया गांव मानगढ़ के पास पहुचा,बड़ोदा डिवीजन से मेजर वेली के नेतृत्व मे 104 वेल्सले रायफल्स की एक सशस्त्र कम्पनी 12 नवम्बर को प्रात 9:45 बजे सूँथ पहुची,

    12 नवम्बर की रात को ही सातवी जाट रेजीमेन्ट की एक डिटेचमन्ट मशीनगन सहित सूँथ पहुची बाद मे नवी राजपूत रेजीमेन्ट की एक कम्पनी पहुची इन अंग्रेजो की सात बटालिनो के अलावा सात देशी रियासतो के सैनिको का नेतृत्व करने के लिए कडाना का ठाकूर भीम सिंह व गढ़ी का जागीरदार राव हिम्मत सिह पहुचे,मेवाड़ राज्य की एक घुड़सवार पल्टन भी पहुच गई " मानगढ़ ऑपरेशन" के लिए नार्दन डिवीजन के कमिश्नर आर पी बोरो ने फौजी टूकड़ियो के मानगढ़ पहुचने के लिए रूट चार्ट तैयार करवाया जो सभी फोजी टूकिड़यो को दे दिया गया इस प्रकार 6 से 12 नवम्बर तक फौजी दस्ते मानगढ़ पहुचते रहे 12 नवम्बर को शाम आम्बादरा गांव मे अंग्रेज अधिकारी हडसन,हेमिल्टन एवं स्टोक्ले के साथ गौविन्द गुरू के प्रतिनिधिमंडल के बीच असफल समझौता वार्ता हुई गौविन्द गुरू ने जब तक मांगे न मानी जाये तब तक मानगढ़ पर ही जमे रहने का निर्णय आदिवाषियो को सुनाया

    14 नवम्बर को एक बार फिर गोविन्द गिरी ने मांगे मानने के लीए अंग्रेज अधिकारियो को पत्र लिखा उधर बांसवाड़ा,डूंगरपुर,सूँथ व इडर के शासक और राजपूत जागीरदार बैचेन थे की अंग्रेज अधिकारी आदिवासियो का दमन करने मे क्यो देरी कर रहे है वो बार बार उन अधिकारियो को कार्यवाही करने के लिए निवेदन कर रहे थे आखिर 15 नवम्बर को रणनीति तैयार की गई 16 नवम्बर को मेजर वेली ने स्टोक्ल व आइसकोह को मानगढ़ पर्वत पर जाने वाले रास्तो की जानकारी हेतु भेजा गया
    17-11-1913 को कमिश्नर के आदेश पर सुबह 4 बजे फौजी दस्ते मानगढ़ पर हमले के लिए प्रस्थान किया और चढ़कर आक्रमण कर दिया मान की पहाड़ी के सामने दूसरी पहाड़ी पर अंग्रेजी फौजो ने तोप व मशीन गनें तैनात कर रखी थी एवं वही से गौला बारूद दागे जाने लगे । इस प्रकार इस आदिवासी क्रांति को निर्दयता पूर्वक कुचल दिया गया |

    राजस्थान के महान क्रांतिकारी मोती लाल तेजावत के नेतृत्व मेँ भूला -बिलोरिया (जिला सिरोही,राजस्थान ) मेँ भी आदिवासी मीणा, भील,गरासियाओ ने अंग्रेजी व रियासती फौजो के साथ संघर्ष करते हुए सन 1922 में 800 आदिवासी शहीद हुए थे । घटना के चश्मदीद गवाह गोपी गरासिया ने इसका हाल सिरोही के साहित्यकार सोहन लाल को सुनाया था हरी राम मीणा आई पी एस व साहित्यकार उस आदिवासी से कई वर्षो पहले मिलने भी गये थे पर जब तक उसका देहान्त हो चुका था । पर सँयोग से भूला व बिलोरिया के जुड़वां गांवो मे घुमते हुए मरणाअवस्था के नान जी भील व सुरत्या गरासिया इस घटना का हाल सुनाया था पर विडमना देखो गौरीशँकर हीराचन्द औझा इतिहासकार का जन्म रोहिड़ा कस्बे मे हुआ था जो भूला-बिलोरिया गांव जहाँ यह आदिवासी बलिदान की घटना हुई थी वहाँ से मात्र 7 किलोमीटर दूर था पर फिर उन्होने कही भी इस घटना का जिक्र तक नही किया । क्योकि ये ठाकूर रघुनाथ सिह सामन्त थे बाद मे उदयपुर महाराज की सेवा मे रहे । कमलेश जी ऐसी ही एक घटना पालचिशरिया (गुजरात) मेँ घटित हुई थी जहाँ 1200 आदिवासी अंग्रेज व रियासती फौजो से लड़ते हुए थे जिनको अमानवीय तरिके से एक साथ एक कुए मे डालकर दफना दिया गया था । मनुवादियो ने आदिवासियो के इतिहास को दबा दिया इसका बड़ा उदाहरण है महान इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्दा ओझा जिसका जन्म गांव रोहिड़ा (सिरोही ) जो भुला बिलोरिया ( सिरोही ) जहां 800 आदिवासियो (मीणा,भील और गरासिया) ने अंग्रेज व रियासती फौज से लड़ते हुए बलिदान दिया था से महज 7 किलोमीटर की दूरी पर होने पर भी उन्होने अपनी इतिहास पुस्तक मे जिक्र तक नही किया यह उनकी मनुवादी सोच का ही परिणाम था ।

    हमे इस दबे हुए इतिहास को दुनिया के सामने लाकर हमारे पुर्वजो को हक और सम्मान दिलाना है, इस घटना को दुनिया के सामने लाने में श्री हरी राम मीना सेवा निवृत आईजीपी पुलिस एवं साहित्यकार का योगदान भुलाया नहीं जा सकता उन्होंने पुलिस सेवा के साथ आदिवासियों को साहित्य और इतिहास में जगह दिलाने के लिए १५ साल तक घूम घूम कर इतिहासिक घटनाओ के तथ्य जुटाए,सबसे पहले वर्ष 2000 में मानगढ़ का बलिदान पर देहिक भास्कर में लेख लिखा लोगो को अच्म्बा हुवा ,2001 में मानगढ़ पर ''यात्रा वर्तान्त'' जानी मानी पत्रिका ''पहल'' में लिखा,इस प्रकार पहली बार मिडिया के जरिये रियासती सासको के लाख दबाने के बावजूद ''मानगढ़ का सच'' जनता के सामने आया २००२-०३ में हरी राम जी मीना की महनत और सहयोग से दूरदर्शन के कार्यकर्म ''रूबरू '' में दो एपिसोड मानगढ़ पर आये जिसे लाखो लोगो ने देखा और सराहा ,2008 में '' जंगल जंगल जलियावाला बाग यात्रा वृतांत के जरिये हरी राम मीणा जी ने मानगढ़ ,भुला बिलरिया व चिस्तिया की पाल के आदिवासी बलिदान को साहित्य जगत में जगह दिलाई पढ़कर लोगो की आखे फटी रह गई ,2008 में ''धुणी तपे तीर नमक उपन्यास के जरिया साहित्य जगत में मानगढ़ को सम्मान दिलाया जो पञ्च भासयो में प्रकाशित हो चूका और सेकड़ो लोग इस पर पी एच डी कर रहे है इसके बाद दूरदर्शन के 1 चेनल पर मानगढ़ पर लघु फिलम बनवाने में सहयोग किया रांची के फिलामकर श्री प्रकाश के निर्देशन में बनी फिलम '' भारत का मौखिक इतिहास (ओरल हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया ) में हरी राम मीणा जी ने अपने निजी परसों से मानगढ़ की इतिहासिक घटना को जगह दिलाई | हाल ही में ''मानगढ़ धाम '' नाम से एक और किताब लिखी है ,लगभग 15 दीन पहले हरी राम जी ने ''ई टी वी राजस्थान चेनल से मिलकर मानगढ़ पर एक वेशेष कार्यक्रम बनवाया जो 16 -11 2012 से लगातार दिखाया जा रहा है और कल यानि १८ नवम्बर के जनसत्ता आखबार में मानगढ़ पर हरी राम मीणा जी का विशेष लेख आएगा हरी राम जी का मोबाई नंबर है -09414124101 .इनको भी हमारा सादर नमन.

    । उस महान शहाद को नमन ! नेपथ्य मे डाल दिया हमारे आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियो को पर हम भी भूल गये उनके त्याग और इतिहास मेँ जगह और सम्मान दिलाने के कार्य को यह हमे करना है । आश्चर्य की बात तो यह थी की इतना बड़ा हत्यकांड जो की जलियावाला बाग से भी चार गुना वीभत्स था की उपेक्षा राष्ट्रीय स्तर पर हुई । किसी भी तथाकथित सभ्य समाज की संस्था व लेखको ने दो शब्द भी नही लिखे क्या आदिवासियो का देश पर किया बलिदान बलिदान नही ?
    शहादत को सादर श्रध्दांजली !!!!
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एक और नरसंहार / मनोहर कुमार जोशी

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मानगढ़ शताब्दी वर्ष- 17 नवम्बर1913- 2013


       *मनोहर कुमार जोशी

                जनजातिय लोगों में सामाजिक जागृति एवं स्वातंत्र्य चेतना का बिगुल बजाने वाला शहीदी धाम मानगढ़ इस वर्ष शताब्दी वर्ष मना रहा है। यह स्थान राजस्थान में बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से 70किलोमीटर दूर आनन्दपुरी के समीप स्थित है।

      17नवम्बर 1913में लोकश्रद्धा के महानायक गोविन्द गुरू के नेतृत्व में यहां आयोजित सम्प सभा में एकत्रित हुये हजारों श्रद्धालु जनजातियों पर रियासती और अंग्रेजी फौज ने तोप व बंदूकों से कहर बरपाते हुये 1500से अधिक बेगुनाह जनजातियों को मौत के घाट उतार दिया था। उनकी स्मृति में शताब्दी वर्ष आयोजित किया जा रहा है।

            शताब्दी वर्ष के शुभारंभ पर 17नवम्बर को यहां कल्पवृक्षों का रोपण किया जायेगा तथा 25हजार से अधिक श्रीफलों की आहूति दी जायेगी। शताब्दी वर्ष को देखते हुये राजस्थान सरकार ने मानगढ़ धाम के विकास के लिये पांच करोड़ रूपये आवंटित किये हैं। राज्य सरकार मानगढ़ पहाड़ी से जनजाति में जागरण का शंखनाद करने वाले गोविन्द गुरू द्वारा किये गये समाज सुधार के कार्यों एवं उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं तथा मानगढ़ धाम पर हुये बर्बर नरसंहार को लेकर ‘‘शहादत के सौ साल‘‘ पुस्तक प्रकाशित कर रही है।

            1919में हुये जलियावाला बाग हत्याकाण्ड से करीब छह साल पहले 17नवम्बर 1913को मानगढ़ पहाड़ी पर हुआ क्रूर, बर्बर एवं दिल -दहला देने वाला नरसंहार भले ही इतिहास में अपेक्षित स्थान प्राप्त नहीं कर पाया, मगर राजस्थान गुजरात और मध्यप्रदेश के इस सरहदी दक्षिणी अंचल के लाखों लोगों में स्वाभिमान एवं देश-प्रेम जागृत करने वाले लोक क्रांति के प्रणेता गोविन्द गुरू के प्रति आज भी आदर और आस्था कायम है।  

      इतिहासकारों की मानें तो 19वीं शताब्दी के उत्‍तरा़र्द्ध में एक ऐसा जननायक जन्मा, जिसने जनजातियों में समाज सुधार का प्रचण्ड आंदोलन छेड़ कर लाखों भीलों को भगत बनाकर सामाजिक जनजागृति एवं भक्ति आंदोलन के जरिये आजादी की अलख जगाई। साथ ही भीलों के सामाजिक सुधार के अनेक कार्य किये। वस्तुतः यह अंग्रेजी शासन के खिलाफ स्वाधीनता का आंदोलन था।

            जनजातिय लोगों को संगठित करने वाले गोविन्द गुरू का जन्म 20दिसम्बर 1858में डूंगरपुर जिले के बांसिया गांव में बंजारा परिवार में हुआ था। बताया जाता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती के उदयपुर प्रवास के दौरान गोविन्द गुरू उनके सानिध्य में रहे थे तथा उनसे प्रेरित होकर गोविन्द गुरू ने अपना सम्पूर्ण जीवन सामाजिक कुरीतियों, दमन व शोषण से जूझ रहे जनजातिय समाज को उबारने में लगाया था। इसके लिये उन्होंने 1903में सम्प सभा अर्थात मेल मिलाप नामक संगठन बनाया था। इसके माध्यम से जनजातीय समाज में शिक्षा, एकता, बंधुत्व और संगठन का प्रचार-प्रसार किया।

अंध-विश्वास और कुरीतियों को दूर कर बेगार जैसी अन्यायपूर्ण घृणित-प्रथा का विरोध शुरू किया और आजादी की अलख जगाई। जनजाति के लोगों को पाठशालाओं का संचालन कर शिक्षित करने का काम किया। इनके नेतृत्व में मानगढ़ धाम इन गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बना। नतीजन जनजातिय भीलों में निडरता एवं देशप्रेम जागृत होने लगा।

            समाज सुधार के कार्यों से घबरा कर यहां के सामंतों को स्वतंत्र भील राज्य के गठन का डर सताने लगा और उन्होंने अनेक आरोप लगाते हुये अंग्रेजी फौज की मदद ली और 17नवम्बर 1913को इसी मानगढ़ पहाड़ी पर सामाजिक सुधार और धार्मिक अनुष्ठानों में जुटे हजारों जनजातियों पर ब्रिटिश नायक कर्नल शटन के आदेश पर हमला कर दिया। रियासती व अंग्रेजी फौज ने पूरी पहाड़ी को घेर कर तोप तथा बंदूकों से जिस बर्बरता और क्रूरता पूर्वक संहार किया, उसके आगे जलियावाला बाग हत्याकाण्ड की भीषणता भी फीकी नजर आती है। इस हत्याकाण्ड में सैकड़ों बेगुनाह मारे गये। पांव में गोली लगने से गोविन्द गुरू भी घायल हो गये।

      उन्हें गिरफ्तार कर अहमदाबाद तथा संतरामपुर की जेल में रखा गया और गंभीर आरोप लगाते हुये फांसी की सजा सुनाई गई। हालांकि बाद में सजा को आजीवन कारावास में बदला गया व अंत में सजा को और कम करते हुये, उन्हें 1923में रिहा कर दिया। रिहा होने के बाद गुरू फिर समाज- सुधार के कार्य में लग गये। अक्टूबर 1931में गुजरात के पंचमहल जिले के कम्बोई गांव में इनका निधन हो गया, लेकिन उनकी बनाई सम्प सभाएं अब भी कायम हैं तथा धूंणियां अब भी मौजूद हैं। मानगढ़ की धूणी पर प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर गुरू के जन्म दिन पर मेला लगता है, जिसमें हजारों आदिवासी आते हैं।

            भीलों में स्वाधीनता की अलख जगाने वाले गुरू की धूणी मानगढ़ नरसंहार के बाद बंद कर दी गयी थी तथा उस क्षेत्र को प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन उनके शिष्य जोरजी भगत ने आजादी के बाद 1952में वहां फिर से यज्ञ कर धूणी पुनः प्रज्वलित की, जो आज भी चालू है। वर्तमान में इस स्थान पर हनुमान, वाल्मिकी, भगवान निष्कलंक, राधाकृष्ण, बाबा रामदेव, राम-लक्ष्मण-सीता एवं गोविन्द गुरू की मूर्तियां स्थापित हैं। गुजरात एवं राजस्थान सरकार ने यहां दो सामुदायिक भवन भी बना रखे हैं। आनन्दपुरी से मानगढ़ धाम तक जाने के लिये 14किलोमीटर पक्की सड़क बनी हुई है, लेकिन गोविन्द गुरू ने यहां के हजारों जनजाति लोगों के जीवन में बदलाव का जो सपना देखा था, वो आज भी अधूरा है, जिसे पूरा करना बाकी है।

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* लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

वि‍.कासोटि‍या/अंबुज/सुरेन्‍द्र-284

यमुना नदी जो नाला बनकर रह गई है

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BBC

यमुना नदी जो नाला बनकर रह गई है....

 शनिवार, 12 जनवरी, 2013 को 19:56 IST तक के समाचार
क्या दिल्ली में कोई ऐसी जगह है जहाँ आपको यमुना का साफ़ निर्मल पानी दिखाई दे? क्योंकि जहाँ भी आप जाएंगे, हर जगह यमुना का पानी काला ही नज़र आएगा.
दिल्ली का वज़ीराबाद बैराज एक ऐसी जगह है जहाँ पर आपको इस सवाल का जवाब शायद मिल जाएगा.
यही वो जगह है जहाँ से नदी दिल्ली मे प्रवेश करती है और इसी जगह पर बना बैराज यमुना को आगे बढ़ने से रोक देता है.
वज़ीराबाद के एक तरफ यमुना का पानी एकदम साफ़ और दूसरी ओर एक दम काला. इसी जगह से नदी का सारा पानी उठा लिया जाता है और जल शोधन संयत्र के लिए भेज दिया जाता है ताकि दिल्ली की जनता को पीने का पानी मिल सके. बस यहीं से इस नदी की बदहाली भी शुरु हो जाती है.

नदी की बदहाली

टिहरी-गढ़वाल जिले में यमुनोत्री से निकलने वाली यमुना उत्तर प्रदेश के प्रयाग में जा कर गंगा नदी में मिल जाती है.
"ये यमुना नदी नही, यमुना नाले की कहानी है. जब दिल्ली में 22 किलोमीटर के सफर में ही 18 नाले मिल जाते हैं तो बाकी जगह का हाल क्या होगा. इसमें सबसे बड़ा योगदान औद्योगिक प्रदूषण का है जो साफ हो ही नही रहा."
राजेंद्र सिंह
इस बात को मानने से कोई भी इनकार नही कर सकता कि यमुना भारत की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक है.
जल-पुरुष के नाम से प्रसिद्ध रैमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित राजेंद्र सिंह कहते हैं, “ये यमुना नदी नहीं, यमुना नाले की कहानी है. जब दिल्ली में 22 किलोमीटर के सफर में ही 18 नाले मिल जाते हैं तो बाकी जगह का हाल क्या होगा. इसमें सबसे बड़ा योगदान औद्योगिक प्रदूषण का है जो साफ़ हो ही नही रहा.”

यमुना नदी नहीं, यमुना नाला

यमुना में प्रदूषण का स्तर खतरनाक है, और दिल्ली से आगे जा कर ये नदी मर जाती है.
विशेषज्ञों का मानना है कि इसकी वजह है औद्योगिक प्रदूषण, बिना उपचार के कारखानों से निकले दूषित पानी को सीधे नदी में गिरा दिया जाना,यमुना किनारे बसी आबादी मल-मूत्र और गंदकी को सीधे नदी मे बहा देती है.
साथ ही धार्मिक वजहों के चलते तमाम मूर्तियों व अन्य सामग्री का नदी में विसर्जन.

औद्योगिक प्रदूषण, मल-मूत्र और धार्मिक सामग्री का नदी में विसर्जन प्रदूषण की मुख्य वजह हैं
लेकिन इनमें सबसे खतरनाक है रासायनिक कचरा.
सिटिजन फोरम फॉर वाटर डेमोक्रेसी के समन्वयक एसए नकवी प्रदूषित होती यमुना की कहानी बताते है.
नकवी कहते हैं, “यमुना एक हजार 29 किलोमीटर का जो सफर तय करती है, उसमें दिल्ली से लेकर चंबल तक का जो सात सौ किलोमीटर का जो सफर है उसमें सबसे ज्यादा प्रदूषण तो दिल्ली, आगरा और मथुरा का है. दिल्ली के वज़ीराबाद बैराज से निकलने के बाद यमुना बद से बदतर होती जाती है. इन जगहों के पानी में ऑक्सीजन तो है ही नही. चंबल पहुंच कर इस नदी को जीवन दान मिलता है और वो फिर से अपने रूप में वापस आती है.”
लेकिन ऐसा नहीं है कि नदी कि हालत सुधारने के लिए प्रयास नहीं किए गए. सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर भी कार्यक्रम चलाए गए पर हालात जस के तस रहे.

यमुना ऐक्शन प्लान

"यमुना एक हजार 29 किलोमीटर का जो सफर तय करती है, उसमें दिल्ली ये लेकर चंबल तक का जो सात सौ किलोमीटर का जो सफर है उसमें सबसे ज्यादा प्रदूषण तो दिल्ली, आगरा और मथुरा का है. इन जगहों के पानी में ऑक्सीजन तो है ही नही. चंबल पहुंच कर ये नदी पुनर्जीवित होती है."
एस ए नकवी, सिटिजन फोरम फॉर वाटर डेमोक्रेसी
हेजार्ड सेंटर के डुनू राय का मानना हैं कि यमुना ऐक्शन प्लान के दो चरणों में इतना पैसा बहाने के बाद भी अगर नदी का हाल वही का वही है तो इसका सीधा मतलब ये है कि जो किया गया हैं वो सही नही है.
डुनू राय आगे कहते हैं कि नदी साफ़ रहने के लिए ज़रूरी है कि पानी बहने दिया जाए. हर जगह बांध बना कर उसे रोकने से काम नही चलेगा. दिल्ली के आगे जो बह रहा है वो यमुना है ही नही वो तो मल-जल है. पहले मल- जल को नदी में छोड़ दो और उसके बाद उसका उपचार करते रहो तो नदी कभी साफ़ नही हो सकती.
पिछले साल 2012 के दिसंबर महीने में यमुना की सफाई के मामले में सरकारी एजेंसी के बीच तालमेल की कमी को सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता से लिया और पूछा कि करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद भी अभी तक कोई परिणाम क्यों नही निकला.
पर्यावरण विद अनुपम मिश्र कहते हैं कि हिंदुस्तान का जिस तरह का मौसम चक्र है उसमें हर नदी चाहे वो कितनी भी प्रदूषित क्यों न हो, साल में एक बार बाढ़ के वक्त खुद को फिर से साफ़ करके देती है, पर इसके बाद हम फिर से इसे गंदा कर देते है, तो हमें नदी साफ़ करने की बजाय इसे गंदा करना बंद करना पड़ेगा.
यही यमुना संगम में मिलती है. सवाल ये है कि इलाहाबाद के कुंभ में लोग जिस पानी में स्नान कर रहे हैं वो कौन सा और कहाँ का है क्योंकि दिल्ली के वज़ीराबाद के आगे तो यमुना है ही नही वो तो सिर्फ.....

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एक और जांलियावाला बाग में हजारों शहीद

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Wednesday, 1 February 2012


जो इस धरती के मूलवासी थे, उन्होने लम्बे अर्से तक जमीन और प्रकृति से जुड़ी अपनी व्यवस्था कायम की। संस्कृति, धर्म समाज और भौतिक जीवन की एक मूल्यवान परम्परा विकसित की। बाहर से आक्रांता आये और युग-युगों तक चले लंबे आक्रमण, विरोध, संघर्ष और जय-पराजय की प्रक्रिया में मूलवासियों को सुविधाजनक परिस्थितियों से महरूम करते गये । जो पकड़ लिए गये उन्हें दास दलित बनाकर सेवा के लिए कोल्हू के बैल की तरह जोता गया और उनके ललाट पर अछूत की स्थायी मोहर लगा दी। जो खदेड़ दिये गये उन्हें दूर दराज दुर्गम पहाड़-जंगलों में षरण लेने के लिए बाध्य कर समाज से ही बहिष्कृत कर दिया गया। इस सबके चलते अब तक उस मानवता को वर्चस्वकारी व्यवस्था के बुल्डोजर के द्वारा रौंदा जाता रहा, फिर भी वह जन समुदाय जिंदा है, चूंकि उसमें गज़ब की प्राणश्‍क्ति है। यह अलग बात है कि अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए उन्हें लगातार संघर्ष करते रहना पड़ा। अतीत के सुरासुर संग्रामों या आर्य-अनार्य संघर्षों से वर्तमान दौर के विकास के नाम पर विस्थापन तक आदिवासियों को अपने अस्तित्व के लिए लड़ते रहना है। अस्तित्व के संकट के साथ आदिवासियों को पहचान के संकट से भी आदिकाल से ही जुझते रहना पड़ा। थोडी देर सुविधा के लिए ’’सनातनी’’ टर्मिनोलोजी का इस्तेमाल करें, तो सतयुग त्रेता-द्वापर काल-खंडों में इन आदिवासियों को असुर, दैत्य, दानव, राक्षस, प्रेत न जाने क्या-क्या संज्ञाएं देकर मनुष्य जाति होने से नकारते रहने का दुष्चक्र रचा गया और इस कलियुग में उनकी आदिवासी पहचान (इंडिजीनस आइडेंटीटी) को नष्ट करने के लिए उन्हें जनजाति या वनवासी कहा जाकर उनके मौलिक स्वरूप को ही तिरोहित करने का बाकायदा सरकारी ऐलान किया जा रहा है। कुछ साल पहले विष्व स्तर पर ’’इंडिजीनस ईयर’’ मनाया गया। भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्रसंघ को सीधे लिख दिया कि ’’भारत में इंडिजीनस लोग’’ न होने के कारण ऐसा कोई वर्ष नहीं मनाया जायेगा और न ही कोई प्रतिनिधि मंडल वहंा जायेगा। यही रवैया डरबन सम्मेलन में सरकार ने दलितों के प्रति अपनाया। आदिवासियों पर किए जाते रहे अध्ययन शोध की परम्परा का तनिक विशलेषण करें, तो बात थोड़ी और स्पष्ट हो सकेगी। भारतीय आदिवासी समुदायों पर लेखन की षुरूआत औपनिवेषिक दौर में आरम्भ हो गयी थी। आरियंटलिस्ट ने उन्हें कौतूहल व हिकारत भरी नजरों से देखा, नृतत्वषास्त्रियों ने उनके प्रति सामान्यीकृत औपचारिकता का दृष्टिकोण अपनाया, भाषाई अध्येता सतह से नीचे नहीं उतर पाये। जहंा तक प्रगतिषील नजरिये का सवाल है, तो डी.डी. कौषम्बी, डी.पी. चट्टोपाध्याय, भगवती शरण उपाध्याय एवं राहुल सांकृत्यायन जैसी विभूतियों ने आदिवासियो ंको समझने में गहरी दिलचस्पी ली, लेकिन कुल मिलाकर उनमें भी एक सतही व रोमानी नजरिया ही हावी होता जान पड़ता है। आगे दिये कुछ उदाहरणों से यह सिद्ध हो जायेगा। वर्तमान में आदिवासियों को लेकर बड़े-बड़े विद्वान चिंतित और चिंतनषील दिखायी देते हैं, जिनमें डा. बृहमदेव शर्मा, रामषरण जोषी, कुमार सुरेष सिंह (अब स्वर्गीय), जी.एन. देवी और भी कई नाम लिए जा सकते हैं, फिर भी किसी ठोस वजह से एक बेचैनी वहीं की वहीं उसी मात्रा में बनी रहती है। कुकुरमुत्तों की तरह ढ़ेर सारे एन.जी. ओज आदिवासी क्षेत्रों में नजर आयेंगे, मगर अधिकांष में ख्याति और स्वार्थ सिद्धि का तत्व ही हावी है। इस सारी परम्परा में महाष्वेता देवी जैसे अपवाद है। वजह, आदिवासियों के प्रति उनकी सोच काफी सीमा तक विषिष्ट लगती है जिसमें बहुत कुछ कर सकने की तड़पड़ाहट है। आदिवासी विमर्ष की नयी पहल रमणिका गुप्ता जी ने की। उनका नाम केवल इसलिए मैं यहंा नहीं ले रहा हँू, प्रत्युत इस वजह से कि उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात लगातार कही है। वह यह है कि ’’साहित्य, संस्कृति, धर्म, परम्परा, इतिहास, समाज कोई भी क्षेत्र से सम्बन्धित आदिवासी अभिव्यक्ति का सवाल हो, नेतृत्व स्वयं आदिवासियों को अपने हाथ में लेना पड़ेगा और अन्य लोग कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ चलेंगे। सारी चिंताओं के रहते बात क्यों नहीं बन पा रही ? इस प्रष्न का समाधान शायद हमें रमणिका जी के उक्त विचार में मिल सके। इसलिए यह बात मुझे महत्वपूर्ण लगती है। प्रख्यात समाजषास्त्री श्री पूरनचन्द्र जोषी जब ’’बोद्धिक वर्चस्वषाली परिप्रेक्ष्य से आदिवासी संस्कृति और ज्ञान के ’’एक्सक्लूजन’ (निष्कासन) पर गंभीर चिंता व्यक्त करते है, (कथादेष, अगस्त-2002 में राजाराम भादू का लेख) तो इससे संकेत यह मिलता है कि पूर्वोवत बोद्धिक परंपरा के दृष्टिकोण से आदिवासियों की सही तस्वीर का खींचना मुष्किल है। इसलिए अहम् सवाल आज भी ज्यों के त्यों सर उठाये खड़े दिखते हैं - ऽ आदिवासियों के समृद्व सांस्कृतिक रिक्त की मौलिकता को प्रगतिषील विकास के साथ संरक्षित कैसे रखा जाये ? ऽ विकास की प्रक्रिया के साथ उनके पुष्तेनी भौतिक-प्राकृतिक संसाधनों का लाभ उन्हे कैसे मिले ? ऽ धर्म के नाम पर उनके साम्प्रदायिकरण को कैसे रोका जाय ? ऽ साहित्य की उनकी मौखिक परम्परा को लिपिबद्व कैसे किया जायें ? ऽ उत्थान के साथ उनकी स्वस्थ प्राकृतिक जीवन शैली को कैसे बचाये रखा जाये ? ऽ चैतरफा दबावों के कारण यह सम्भव ही नहीं कि समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग रहकर जैसी भी स्थितियंा है, उनमें वे अपना जीवन जीते चले जायें। सवाल यह उठना है कि मुख्य धारा में लाने की प्रक्रिया में उन्हे दोयम दर्जे का जन समुदाय बनने के सम्भावित खतरे को कैसे टाला जाये ? ऽ अनुभव यह बताता है कि आदिवासियों में से जो भी व्यक्ति, परिवार या समुह षिक्षित, उन्नत और आधुनिक बनने लगता है वही अपनी मौलिक जीवन शैली और सोच को त्याग कर गैर आदिवासी जैसा व्यवहार करने लगता है। प्रष्न यहँा सुविधाओं और साधनों का नहीं है, बल्कि समृद्व परम्परा का है, उस परम्परा के संरक्षण का है। समान स्तर पर वह आधुनिकता की विकृतियों को भी अपनाने लगता है। यहाँ तक कि वह जान-बुझकर अपनी संस्कृति और संस्कारों को भुलाने लगता है। उसे यह भी होष नहीं रहता कि यह उसकी विवेक सम्मत प्रााथमिकता नहीं, प्रत्युत अनाभासित मनोवैज्ञानिक दबाव है। प्रष्न यह है कि इसका विकल्प क्या हो ? ऽ अपने त्रासद अनुभव की वजह से जो आदिवासी समूह बाहरी दुनिया के प्रति अत्यंत शत्रुवत (हाॅस्टाइल) है, उन्हें जैसे ही विकास या उत्थान की ओर लाने के प्रयास किए जाते है तो अपने जीवन में आक्रामक हस्तक्षेप मानते हैं। प्रयास चालू रखा गया तो एक असहनीय मानसिक दबाव महसूस करने लगते है। यहंा तक कि मरने लगते हैं। अंडमान के आदिवासियों (विषेषकर जारवा और सेंटेनलीज) के साथ यह सब घटित हुआ है। अंततः सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों को रोकना पड़ा और उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना पड़ा। इस विकट और अनूठी समस्या का समाधान क्या हो ? मैं यह महसूस करता हूँ कि इसके लिए नृतत्वषास्त्रियों, समाज-षास्त्रियों और मनोविष्लेषकों का संयुक्त दल बनाया जाना चाहिए। ऽ वैष्विक पूंजी व जन्य व्यक्ति व स्वार्थ केंद्रित माहौल में आदिवासी सामुहिक जीवन पद्धति को कैसे बचाया जाये ? ऽ भविष्य को बहतर गढने के लिए अतीत को समझना अनिवार्य होता है। अस्तित्व के संकट की तरह आदिवासियों के इतिहास को जान-बूझकर नजरअंदाज करते रहना भी अपने आप में बड़ी समस्या है। इस लंबे इतिहास को लिपिबद्व कैसे किया जाये ? और यह काम कौन करेगा या कर सकता है ? कुछ सवालों के साथ यह पृष्ठभूमि देना इसलिए जरूरी समझा गया कि पहले हम आदिवासियों के प्रति अब तक जो दृष्टिकोण के चलते ईमानदारी और समझदारी के साथ आदिवासी इतिहास संभव नहीं। मुझे यहंा विजयदेव नारायण साही की एक कविता की निम्न पंक्तियंा काफी प्रासंगिक लगती है- ’’ तुम हमारा जिक्र इतिहासों में नहीं पाओगे क्योंकि, हमने अपने को इतिहास के विरूद्ध दे दिया है................’’ ये पंक्तियंा उन्होने किसी भी संदर्भ में लिखी हों, आदिवासी परिप्रेक्ष्य में अर्थस्पष्ट है, फिर भी अपने-अपने हिसाब से इन पंक्तियों को समझा जा सकता है। निष्कर्ष यही निकलेगा कि जिस इतिहास (व्यापक अर्थ में) के विरोध में आदिवासी युग-युगों से लड़ते रहे, उसमें उन्हें जगह कैसे मिलेगी। आदिवासियों का वास्तविक इतिहास क्या था, उसकी खोज कैसे की जाए एवं उसे सामने कैसे लाए ? यह मूल प्रष्न अपनी जगह है। इसका उत्तर तलाषने से पूर्व हमें इस महत्वपूर्ण प्रष्न से मुठभेड करनी होगी कि जैसा इतिहास हमें पढाया-सुनाया जाता रहा है, उसमें आदिवासी किस रूप में है ? इसे समझने के लिए हमें भारतीय मिथक परंपरा में जाना होगा, चंूकि सारी गड़बड़ी वहीं से शुरू हुई है। मिथक एवं इतिहास के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह रही है कि हारी हुई कौमों को विकृत करके चित्रित किया जाता है, वर्चस्वकारी वर्ग के पक्ष में सारा सोच होता है और प्रायः इतिहासकार स्वयं की वर्ग परंपरा के पक्ष में तथा विपक्ष (जिस भी स्वरूप और मात्रा में ) के विरोध में कुछ न कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रसित होता है। ऐतिहासिक प्रमाण तो निरपेक्ष होते हैं, समस्या यह है कि वे सब मूक होते हैं। जब उनके अधिकांष की व्याख्या-विष्लेषण-निष्कर्ष का मौका इतिहासकार को मिलता है तो प्रमाणिक सामग्री के अनुरूप उसका तदस्थ और निष्पक्ष हो पाना बहुत मुष्किल होता है। इतिहासकार के संस्कार सोच, दुष्टि और विचारधारा प्रत्यक्ष-परोक्ष या जाने-अनजाने समाविष्ट होकर रचे जा रहे इतिहास को प्रभावित करने लगते है। यह किसी के साथ भी हो सकता है। इस उलझन से बचने के लिए हमें ’’वाद-विवाद-संवाद’’ की मेथोडोलोजी को अपनाना चाहिए जिसके माध्यम से विभिन्न दृष्टिकोणों से लिखें और अनलिखें इतिहास का विष्लेषण करके उस निष्कर्ष तक पहुँचना चाहिए जो बौद्धिद-तार्किक व तथ्यात्मक-वैज्ञानिक तुला पर खरा उतरे। पढ़ सुन कर लगे कि ’’हाँ, यह प्रमाणिक है, यह सच है, इसे स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं।’’ इतिहास की ऐसी प्रमाणिकता के सामने तथ्यात्मक यथार्थ बनाम मूल्यात्मक आग्रह की असुविधाजनक स्थिति भी पैदा नहीं होनी चाहिए। इतिहास को ’’क्या है’’ के रूप में ही देखना चाहिए, न कि ’’क्या होना चाहिए’’ के रूप में। ’’इतिहास के प्रति दृष्टिकोण’’ पर यह संक्षिप्त चर्चा विषयांतर नहीं है। जब तक हम इसे न समझे, ’’इतिहास और आदिवासी’’ विषय पूरी तरह हमारी समझ में नहीं आता। हाँ, तो इतिहास-चर्चा से पहले हम मिथकों पर कुछ उदाहरणों के सहारे बात करें। जहंा तक मिथकों में आदिवासियों की विकृत प्रस्तुति का प्रष्न है हमें पुराणों के साथ रामायण और महाभारत में भी जाना होगा। पुराण ई.पू. की दूसरी सदी से ई.पू. की सातवीं सदी के कालखंड में लिखे गये। इनके माध्यम से बुद्ध और महावीर द्वारा आरंभ किए ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन से ध्वस्त पुरोहित वर्चस्व को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया गया। ध्यातव्य है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया। जैन ग्रंथो में इस बात का उल्लेख है कि अंत में वे जन मुनि बन गये (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेष खंड-एक, डा. रामविलास शर्मा -पृष्ठ 636) यह तो सर्वविदित है कि सम्राट अषोक ने बौद्व धर्म के प्रसार-प्रचार में जी-जान लगा दी। ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र अपने स्वामी मौर्य सम्राट ब्रहदथ का वध करके जब सम्राट बनते हैं, (ई.पू. 184) तभी से ब्राह्मणवादी वर्चस्व पुनः स्थापित होता है जिसे गुप्तवंषीय राजाओं का भरपूर प्रश्रय मिला। यह सारा कालखंड ई.पू. दूसरी सदी के सातवीं सदी तक चलता है। इसी दौरान पुराण लिखे जाते हैं जिनमें चमत्कार, अतिषयोक्ति एवं मिथकों के माध्यम से ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गौरवान्वित किया जाता है जो अनार्य-आदिवासी विरोधी रहती आयी थी और आगे भी चलती है। पौराणिक मिथकों का कुछ अंष रामायण में और अधिकांष महाभारत के माध्यम से पहले ही प्रस्तुत हो चुका था। रामायण के प्रमुख पात्र राम हैं, जिन्हे पुरूषोत्तम के रूप में अब तक संपूर्ण समाज पर स्थापित किया जाता रहा। अगर राम के जीवन में से वनवास के चैदह वर्ष निकाल दिए जायें तो उनके व्यक्तित्व में क्या बचेगा ? उन महत्वपूर्ण चैदह वर्षो में राम आदिवासियों के साथ रहे और उन्ही की ताकत से अनार्याें (आदिवासियों के विषेष संदर्भ में) से युद्वोपरांत विजयी होते हैं। इस सबके बावजूद राम की व्यवस्था में आदिवासी नायकों की भागीदारी, हस्तक्षेप एवं दर्जा क्या रहा ? भद्रजन के लिए यह बड़ा ही असुविधाजनक प्रष्न होगा। निर्दोष शंबूक के वध के बावजूद राम महान रहेंगे ! कितना रोचक होगा अगर हम ’’गुजरात के गोधराकाण्ड-न्यूटन का सिद्वांत-प्रायोजित नरसंहार’’ के समीकरण की ही तरह ’’सूर्पणखा-सीता अपहरण-लंका काण्ड पर न्यूटन के सिद्वांत को लागू करके देखें। राम-रावण युद्ध में दोनों ही तरफ से मरने वाले आदिवासी-अनार्य और युद्व किसके लिए ? इससे भी आगे-आपके लिए जो मानव समुदाय शत्रुपक्ष था उसे मनुष्य न मानकर राक्षस, असुर, दैत्य दानव न जाने किस- किस तरह विरूपित किया गया और जिन्होनें आपका साथ दिया उन्हें गिद्ध, रीछ वानर आदि की संज्ञा देकर जंगली जानवरों की श्रेणी में रख दिया, ताकि भविष्य तक में कभी उनकी असली पहचान न हो सके ?? महाभारत में चिरपरिचित एकलव्य का प्रसंग आता है। आर्यगुरू ने धनुर्विधा सिखाने से मना कर दिया। निषादराजपूत्र से फिर भी उसको गुरू मनवा दिया और अपने बलबूते पर धनुर्धर बन जाने पर भी बतौर दक्षिणा अंगुठा काट कर दिलवा दिया। कान पक गये यह कथा सुनते-सुनते मेरे गले यह कथा इस रूप में कतई नहीं उतरती। तर्क सम्मत यह लगता है कि एकलव्य का अगुंठा जबरन काटा होगा। इस जघन्य अपराध को ढकने के लिए तथा कथित दक्षिणा का स्वांग रचकर थोप दिया गया। आदिवासी स्त्री हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच का प्रसंग आता है। अर्जुन को बचाने के लिए शहीद कर दिया जाता है। घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक का महत्वपूर्ण प्रसंग महाभारत में है। वह किषोरावस्था में ही था, मगर अत्यन्त बलवान। दुर्योधन कहीं से ढूंढ कर उसे अपने पक्ष में लड़ने के लिए बुला लेता है। वहीं कौरवों की तरफ से लड़ता है। ध्यान देने की बात है कि महाभारत युद्व में अधिकांष आदिवासी कौरवों के पक्ष में लड़े थे। एकलव्य स्वयं इसका उदाहरण है। उसका अगुंठा अगर द्रोणाचार्य मांगता तो शायद वह उसकी सेना के पक्ष में न लड़ता। अगूंठा काटने वाले पांडव थे, इसलिए वह पांडवों के विरूद्व लड़ा था। हो, तो बर्बरीक की कथा यूं चलती है कि जैसे ही वह युद्धभूमि में आया तो, कृष्ण समझ गये कि अब पांडवों का बचना मुष्किल है। क्या किया जावें ? भोले किषोर बर्बरीक को सोलह कला प्रवीण भगवान छलने के लिए चल देते हैं। कहते है-’’कलियुग में तेरी पूजा का इंतजाम किये देता हूँ। इस वक्त बैंकंुठ (या स्वर्ग) धाम में भेजने की गारन्टी भी लेता हूँ। बस एक काम कर दे, लडे मत और तेरी शीष मुझे सौंप दे।’’ ’’जवाब मिलता है, ’’आप तो भगवान है, जो करेगे ठीक ही होगा। मेरी इतनी सी इच्छा है कि दोनो ओर से बडे-बडे धुरंधर लड़ रहे है। मैं इनकी बहादुरी देखना चाहता हँू।’’ शर्त मान ली जाती है। बर्बरीक शीष सौंप देता है। एक मत के अनुसार कुरूक्षेत्र के मैदान के निकट लम्बे बांस पर बर्बरीक का शीष टांँक दिया जाता है, जहंँा से उसने सारा युद्व देखा। दूसरे मत के अनुसार कुरूक्षेत्र के निकट सबसे उँची पहाड़ी चोटी पर शीष रख दिया जाता है। यह पहाड़ सीकर (राजस्थान) के निकट हर्ष पर्वत है जिसकी ऊँचाई 3300 फीट है। माउन्ट आबू के गुरू षिखर (करीब 6000 फीट) के बाद राजस्थान-हरियाणा-निकटवर्ती-उत्तरप्रदेष-पंजाब के अंचल में यही सब से ऊँचा पहाड़ हैं। हर्षपर्वत और रींगस के बीच खाटू श्याम जी का धर्मस्थल है, जिसमें केवल शीष वाली प्रतिमा है, जिसकी पूजा होती है। इसे ’’ष्याम बाबा’’ कहते है। शीष मूर्ति से लगता है यह बर्बरीक ही होगा। हर्ष के पर्वत सीकर से ही उसने महाभारत युद्व देखा। इस प्रसंग को यहीं रोकते है और यह कहते है कि खाटू श्याम जी की मूर्ति तो बर्बरीक की है लेकिन मान्यता यह चली आ रही है कि यह श्री कृष्ण का बाल रूप है और उसी की पूजा होती है। सालाना लक्खी मेला यहंा लगता है। विड़म्बना यह है कि शीष काटकर देने के बाद भी आदिवासी बर्बरीक की जगह कृष्ण को पूजा गया। एक ओर प्रसंग महाभारत में। अष्वमेघी यज्ञ के घोडे की यात्रा के दौरान अर्जुन की लड़ाई बभू्र वाहन से होती है। यह स्थान पूर्वांचल है। बभ्रूवाहनं मणीपुर के आदिवासी राजा चित्रवाहन की राजकुमारी चित्रांगदा का पुत्र था। उल्लेखनीय है अर्जुन ने चित्रांगधा और नाग कन्या उलूपी (दोनों आदिवासी) से विवाह (?) किया था। लड़ाई में अर्जुन मारा जाता हंै (बेहोष हुआ होगा) और उलूपी जड़ी-बूटियों से उसे जीवित (?) करती है। प्रष्न यह है कि अर्जुन को धूल चटा देने वाला शुरवीर बभ्रूवाहन महान नहीं माना जाकर अतुलनीय योद्वा अर्जुन को ही बताया जाता है। एक और प्रसंग। कृष्ण का वध जारा शबर नामक आदिवासी के हाथों होता है। मैंने वध स्थल (गुजरात) की यात्रा की है। घटना स्थल की परख की । किसी भी कोंण से देखैं, यह सम्भव ही नहीं कि हरिण की आंँख समझ कर पगतल में चमकते पदम चिन्ह पर निषाना साधा हो। अगबर आखेट था तो शबर का बाण जहरीला नहीं हो सकता और बाण जहरीला नहीं था, तो पैर में बाण लगने से कम से कम तत्काल तो मृत्यु नहीं हो सकती। इसके लिए पूरे शरीर का ’’सेप्टिक’’ होना जरूरी होगा। वह भी तब, जब कि कोई उपचार न किया जाये। आप कहते रहिए अगल जन्म में बाली के हाथों मरने वाला वरदान राम ने दिया था। और जारा शबर ही त्रेतायुग का बाली था। सारे सन्दर्भ देखने पडंेगे। खाण्डव वन दहन में आदिवासी नाग जाति को भस्म करने में कृष्ण एवं अर्जुन द्वारा अग्नि का सहयोग करने से लेकर कंस-षिषुपाल-जयद्रथ वध, एकलव्य का ’’अगुंठा’’, घटोत्कच-बर्बरीक-बभ्रूवाहन प्रसंग तक। यही नहीं, जाना होगा सतयुग और त्रेतायुग में भी। आप भीलों की मौखिक और गेय परम्परा का महाभारत (’’भीलों का भारथ’’ द्वारा श्री भगवानदास पटेल) पढ जाइये। पात्र एवं घटनास्थल करीब-करीब वही है लेकिन संदर्भ बदले हुए पायेंगे। वहंा अर्जुन की जगह नागवंषी आदिवासी राजा वासुकी अतुलनीय यौद्वा और बलवान मिलेगा। श्री पटेल भीलों की रामायण भी लिख रहे हैं। उनका यह अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है आदिवासियों की दृष्टि से भारतीय मिथकों की व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में। पूरा का पूरा तथा कथित सतयुग भरा पड़ा है मिथकों से और मिथकों में आदिवासियों के विकृतिकरण से। इंद्र का सन्दर्भ ले लिजिए। छल-छद्म, अययास, व्यभिचार, यहाँ तक की बलात्कार (कानूनी परिभाषा और अहल्या प्रसंग) क्या-क्या कुकर्म उसने नहीं किए, और मनुष्य में श्रेष्ठ देवता और देवताओं के स्वामी (श्रेष्ठम) इन्द्र की पूजा आप करते रहिए। नारद, तुम्बरू जैसे पात्र अनार्य-आदिवासी थे। नारद के चरित्र को समझिए इन्द्र की व्यवस्था के विरोध में हर जगह व्यंग करता है। उसके कथनों की मूल भावना और उद्देष्यों को समझने के लिए दिमाग पर अधिक जोर देने की आवष्यकता ही नहीं पड़ेगी। क्या हैं ये ’’महान’’ चंद्रवंषी और सूर्यवंषी श्रत्रिय ? उन्हीं के समर्थन में लिये गये षास्त्रों से स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। पुरूरवा की अप्सरा (वेष्या) पत्नी उर्वषी की औलाद की पीढ़ियां चंद्रवंषी और अप्सरा (वेष्या) मेनका पुत्री ष्षंकुतला की औलाद की पीढ़िया सूर्यवंषी हुए। यह पूछना बड़ा ही असुविधाजनक होगा कि ‘‘तुम्हारी (दोनों वंषों की) आद्यजननी तो ...............थीं, फिर तुम महान कुल परंपरा कैसे हुए ?’’ दूसरी तरफ यह सवाल उठता है कि प्राचीन काल में अपनी पुष्तैनी धरती पर ष्षांति से जीवन जी रहे आदिम समुदायों पर आपने बाहर से आकर हमले किए, उन्हें मारा, दास बनाया, भगाया और फिर असुर, राक्षस, जंगली जानवरों की संज्ञा दी। फिर तुम श्रेष्ठ कैसे हुए ? आदिवासी इतिहास लिखने से पहले हमें ‘‘मिथकों में आदिवासी’’ के सारे संदर्भो को पुनव्र्याख्याथित करना होगा। आस्था और भावना अपनी जगह है मगर अतीत का निरूपण तो तथ्यात्मक, तार्किक, बौद्धिक व वैज्ञानिक ही होगा। अब बात आती है इतिहास में आदिवासियों की। इससे पहले यह देखा जाये कि इतिहास मंे आम आदमी किस हद तक होता है ? इतिहास के नाम पर हजारों वर्षों तक राजा - महाराजाओं का इतिहास ही लिखा जाता रहा। प्राचीन काल से मुगल काल तक भाट - चारणी - दरबारी इतिहासकारों की परंपरा हावी रही। इसमें प्राचीन सम्राटों , तथाकथित गणराज्यों के शासकों , मुस्लिम बादषाहों , रियासती सामंतों के पक्ष में इतिहास लिखा व लिखवाया जाता रहा। अंग्रेज काल में इतिहास लेखन के क्षेत्र में बहुत सारा काम हुआ। अंग्रेज इतिहासकारों की मानसिकता पूरे भारत देष की परम्परा को हेय दृष्टि से देखने की ही रही। उपनिवेषवाद के दौर में यह सम्भव ही नहीं हो सकता था कि इतिहास में आम आदमी को जगह मिले। आजादी के बाद इस क्षेत्र में निस्संदेह महत्वपूर्ण कार्य वामपंथी इतिहासकारों ने किया। किसानों व श्रमिकों के आन्दोलनों, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों, वर्ग संघर्ष की परम्परा आदि को उजागर करने का प्रयास हुआ। लेकिन वामपंथी विचारधारा के सिद्वांत उन पर इस कदर हावी रहे कि वे देष की परम्पराओं के, समस्याओ के समाधान के सारे सूत्र (ऐतिहासिक दृष्टि से) अन्तराष्ट्रीय साम्यवाद में ही ढंूढते रहे। हर प्रषन का उत्तर माक्र्स, ऐंगिल्स लेनिन, माओ के विष्लेषण में तलाषते रहे। उदाहरणार्थ, भारत में जाति व्यवस्था के यथार्थ को नजरअंदाज करते रहे। आजादी की लड़ाई के दौरान बाबा साहेब अम्बेडकर के नेतृत्व में समाज का दलित वर्ग बाह्मणवादी वर्चस्व के विरूद्व मोर्चा थामें आगे बढ़ रहा था तो उन्होने वामपंथियों के साथ आने का आग्रह किया। इस पर स्वंय ई एम एस नम्बूदरीपाद ने कहा कि ’’दलितों के पचड़े’’ में अभी नहीं पड़ना है। साम्राज्यवाद पर विजय प्राप्त करने के बाद दलितों की समस्या अपने आप हल हो जायेगी। यही वजह रही कि सर्वहारा के पक्ष में चिंतित चिन्तनषील वामपंथियों को दलितों ने अब तक स्वीकार नहीं किया है। वर्तमान दौर में तो इतिहास लेखन (पुर्नलेखन) का काम सत्ता पोषित इतिहासकार खुले आम कर ही रहे हैं और इस मुहिम में वे ब्राह्मणवादी वर्चस्व को पुनः स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। इतिहासकारों की ऐसी परम्परा व मानसिकता के चलते इतिहास में आदिवासी कहँा मिलेंगे। आदिवासियों से जुड़ी एवं बडी एक एतिहासिक घटना का जिक्र मैं करना चाहूँगा। राजस्थान के बांसवाड़ा जिले में गुजरात सीमा पर एक जगह है मानगढ़ का पहाड। अंग्रेजो और रियासती सांमतों के मिले-जुले शोषण के षिकार आदिवासी लोग 17 नवम्बर, 1913 के दिन वहँा एकत्रित हुए। बनजारा जाति के आदिवासी गोविंद गुरू की अगुवाई में उप निवेषवादी-सामंतवादी व्यवस्था के विरूद्व यह आदिवासियों के द्वारा देष की आजादी की लड़ाई का हिस्सा था। करीब 15-20 हजार आदिवासी वहंा एकत्रित हुए। बैगार प्रथा, वन सम्पदा के उपयोग पर पाबंदी एवं भारी लगान के विरोध में यह सभा आयोजित की गई। ब्रिटिष कमाण्डेन्ट जे.पी. स्टोक्ले के नेतृत्व में जाट रेजीमेंट, राजपूत रेजीमेंट और मेवाड़ भील कोर की चार फौजी कम्पनियों के हथियार बंद लवाजमें ने उन आदिवासियों पर अचानक धावा बोला। बंदूकों-मषीनगनों की गोलियों से उन्हे भून डाला। डेढ़ हजार आदिवासी शहीद हुए। गोविंद गुरू के साथ सेकड़ों आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिया गया। यह तिथि माघषीर्ष पूर्णिमा थी। हर साल इस दिन वहंा आदिवासियों का विषाल मेला भरता है। अंचल का बच्चा-बच्चा इस घटना के बारें में जानता है। जाहिर है, इस घटना में जलियांवाला बाग कांड से चार गुना संख्या में आदिवासी शहीद हुए थे। भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में इस घटना का कहीं जिक्र नहीं है। अंग्रेजो ने तो खैर इस घटना को अपने हिसाब से दबा देने का षडयंत्र रचा ही, हमारे धुरंधर इतिहासकार भी सोते रहे। इतिहास की दृष्टि से यह घटना इतनी पुरानी नहीं है कि प्रमाण न जुटाये जा सके। मैंने स्वयं घटना स्थल और क्षेत्र का दौरा किया। कुछ दस्तावेज भी इधर-उधर से जुटाये। इस घटना में तनिक भी संदेह नही। स्थानीय आदिवासी नेताओं ने पिछले कुछ अर्से से आवाज उठाई। 15 अगस्त, 2001 को दैनिक भास्कर अखबार में मेरा संपादकीय इस विषय पर छपा था। पहल-71 पत्रिका में विस्तृत यात्रा वृतान्त के रूप में इस घटना को मैंने उजागर किया। यहंा मैं मेरी बात नहीं कर रहा हँू,, अचंल के आदिवासी जागरूक थे। शहीद स्थल के रूप में मानगढ़ के विकास की योजना बनी। शहीद स्मारक का षिलान्यास राजस्थान के वर्तमान मुख्य मंत्री महोदय ने ता. 27 मई, 1999 को कर दिया है। उसी दिन सवा करोड़ की राषि खर्च करने की घोषणा भी की थी। हाल ही इस अगस्त (2002) के पहले सप्ताह भारत सरकार ने दो करोड़ तेईस लाख की राषि और स्वीकृत कर दी है और यह मान लिया है कि पहला जलियावांला कांड मानगढ़ में हुआ था। आष्चर्य है कि करीब एक सदी तक यह घटना इतिहास का हिस्सा न बन पायी जिसमें से आधी सदी आजाद भारत के खाते में है। चुल्लूभर पानी में डूब कर मर जाना चाहिए हमारे महान इतिहासकारों को ! कम से कम शर्म आनी चाहिए और राष्ट्र से क्षमा मांगनी चाहिए कि वे इतिहासकार के रूप में कितने नकारा साबित हुए। एक और ऐसी ही घटना मानगढ़ से थोड़ी दूर गुजरात की विजयनगर रियासत (अब तहसील) के गांव पालचित्तरिया में घटी थी। मानगढ़ की ही तरह 7 मार्च, 1922 के दिन में 1200 आदिवासी शहीद हुए थे। ’’इण्डिया टू-डे’’ की एक टीम वहंा गई। कुछ लोग जिंदा है जो घटना के चष्मदीद गवाह है, उनसे भी बातें की। ’’इण्डिया टू-डे’’ के 3 सितम्बर 1997 के अंक में उदय माहूरकर की रपट इस सम्बन्ध में छपी। विरसा मुडंा जैसे क्रांतिचेता को बहुत अर्से बाद स्वीकार किया गया। आदिवासी अचंलों में ऐसी एकाध नहीं, वरन् सैंकड़ो घटनाएं हुई है। अतीत से लेकर आज तक का आदिवासी इतिहास संघर्ष का सिलसिला रहा है, जिसे जाने-अनजाने भुलाया जाता रहा। इतिहास के तथ्यों को कैसे तोड़ा-मरोड़ा जाता है, इसका एक उदाहरण देखिए। महाराणा प्रताप के अत्यन्त विष्वसनीय और योद्वा सेनापति राणा पूंजा थे। वे भील थे। भीलू राजा भी उन्हे कहा जाता रहा । राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे, तो राणा पूंजा की प्रतिमा का उदयपुर में उन्होने अनावरण किया। हिरणमगरी (पहाड़ी) जहँा राणा प्रताप की प्रतिमा है, उसी से कुछ दूरी पर राणा पूँजा की प्रतिमा स्थापित की गई। यह सर्वविदित है कि राणा प्रताप के साथ पड़ने वाले राजपूत अत्यल्प थे और आदिवासी ही प्रमुख रूप से लड़े थे। कुछ लोगों ने एक कुचक्र रचा। चमचे किष्म के इतिहासकारों की एक कमेटी बनायी। उनसे यह साबित करवाया गया कि राणा पूंजा आदिवासी न होकर राजपूत थे। उनके हिसाब से योैद्वा केवल राजपूत होते हैं, और सब टटपुंजिये हैं। अगर इस साजिष का विरोध नहीं हुआ तो सम्भव है एक-न-एक दिन ऐसे लोग अपने प्रयासों में सफल हो जायें और राणा प्रताप के साथ लड़े आदिवासियों के बलिदान को पूरी तरह भुला दिया जाये। इतिहास से सम्बन्धित एक ओर अत्यन्त गम्भीर बात है आदिवासियों का अपराधी के रूप में समाज के सामने प्रस्तुतीकरण। यह षडयंत्र अंग्रेजो और देषी सामन्तांे का मिला-जुला प्रयास था। आदिवासियों की सत्ता और संसाधन छिन लिए जाने पर वे विद्रोही बन गये। राज्य शक्ति के साथ उन्हें कानून की ताकत से दबाने का दुष्चक्र रचा गया। सन् 1871 में क्रिमीनल ट्राइब एक्ट सबसे पहले बाम्बे प्रेसेडेन्सी में लागू किया गया। बाद में एक-एक कर अन्य क्षेत्रों में। यद्यपि आजादी के बाद यह कानून समाप्त कर दिया गया और इसकी जगह ’’आदतन अपराधी अधिनियम’’ बना दिया गया, जो समुह आधारित न होकर व्यक्ति आधारित है। सवाल यह है कि ऐतिहासिक प्रमाण कहीं सिद्व नहीं करते कि आदिवासी अपराधी रहे हैं, लेकिन गैरआदिवासी समाज का अधिकंाष स्वर्ण तबका उस षड़यंत्र की वजह से अब तक आदिवासियों के प्रति वही मानसिकता अपनाये हुए है। आष्चर्य होगा यह जानकर कि राजस्थान स्तरीय प्रतियोगी परीक्षाओं की सामान्य ज्ञान की पुस्तकों में अभी भी मीणों, भीलों एंव अन्य आदिवासियों का परिचय यह कह कर दिया जाता है कि ’’इनका मुख्य धंधा चोरी, लूट, डकैती रहा है।’’ कंजर ,सांसी , बावरिया, कालबेलिया, पारधी, बेड़िया जैसी आदिम समूहों को पुलिस चैन से नहीं बैठने देती। इस दौर में यह समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण आदिवासियों के प्रति अंग्रेज कालीन व्यवस्था (जो कि अब इतिहास है) और देषी सामन्तवाद की उपज है। उस इतिहास को पढकर यह समाज शास्त्रीय धारणा बनती है, जिसका विरोध आदिवासियों एवं कुछ अन्य व्यक्तियों एवं संगठनो के अलावा आम बुद्विजीवी क्यों नही करता ? आष्चर्य तो यह है कि ऐसी पुस्तकों के ऐसे घोर ’’आब्जेक्षनेबल’’ अंषों की ओर सरकार व प्रषासन का ध्यान भी क्यों नहीं जाता ? ऐसे लखकों और प्रकाषकों के विरूद्व दण्डात्मक कार्यवाही क्यों नहीं की जाती ? यह उदाहरण सिद्व करते है कि किस प्रकार प्रयोजित-प्रायोजित या जाने-अनजाने आदिवासिायों से सम्बन्धित महान घटनाओं व राष्ट्र के लिए उनके त्याग व बलिदान को इतिहास से बाहर रखा गया। इसके साथ उन्हे बदनाम भी किया जाता रहा। अह्म सवाल उठता है कि आदिवासियों के इतिहास को सामने कैसे लाया जाये ? इतिहास की खोज और लेखन का महत्वपूर्ण काम सम्भव कैसे हो ? किसी बात को कहने के लिए यदि व्यक्तिगत अनुभव व जानकारी का इस्तेमाल किया जाये तो मैं समझता हूँ, अधिक सहज और आधिकारिक होगा। जयपुर के निकट बस्सी निवासी श्री झूथालाल नाढंला (मीणा आदिवासी) ने वर्षो मेहनत करके सन् 1968 में ’मीणा इतिहास’ छपवाया। बहुत सारी सामग्री एकत्रित की। जागा-पोथियों का अध्ययन, जागाओं की पंचायत, स्थलों का भ्रमण, पुराने दस्तावेजों की परख, मोैखिक परम्परा आदि का अध्ययन करके यह सामग्री बटोैरी। इतिहासकार रावत सारस्वत से यह इतिहास लिखवाया पूरी इतिहास पुस्तक को पढ कर लगता है कि मीणा इतिहास के हर पृष्ठ पर स्वयं रावत सारस्वत कहीं न कहीं हस्तक्षेप करते हुए दिखायी देते हैं उनके माध्यम से उनके अपने ब्राह्मणवादी संस्कार, पूर्वाग्रह, सोच, दृष्टि आदि झलकती दिखती है। बडा काम हुआ, मगर ईमानदारी से नहीं हो पाया। इससे पहले मुनि मगन सागर (मीणा परिवार में जन्में और बाद में जैन मुनि बन गये थे) ने मीणा आदिवासियों पर गहन अध्ययन किया। मीणो के प्राचीन राज्य, राजवंष, गोत्र आदि पर महत्वपूर्ण सामग्री बटौरी। मीणो की उत्पत्ति की खोज की। टोटम के रूप में ’’मीन’’ (मत्स्य) के आधार पर मीना, मीणा, मारण आदि संज्ञाओं की व्याख्या की। ’’मीन पुराण भूमिका’’ और ’’मीन पुराण’’ के रूप में महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखें। उन्हे किसी ने कह दिया कि ’’काषी में विद्वान पण्डित रहते हैं, उनमें से किसी को बुलवाओ और उनकी सलाह लेकर इस सब को अन्तिम स्वरूप दो।’’ काषी के दो पण्डितो के चक्कर में वे पड गये और अधिकांष सामग्री के अर्थ का अनर्थ कर दिया। उदाहरणार्थ ’’मीन’’ को टोटम से बदलकर विष्णू के मत्स्यावतार से जोड दिया और यह निष्कर्ष निकलवा दिया कि मीणा लोग आर्यों से सम्बन्ध रखते हैं और क्षत्रिय है। वर्णाश्रमी व्यवस्था मीणा आदिवासियों में नही मिलती। उनके रीति-रिवाज, मौखिक परम्परा, संस्कृति, धर्म, संघर्ष, गाथांए, प्रकृति से जुडाव, पंचायत व्यवस्था सब कुछ आदिवासी है, मगर केवल एक शब्द ’’मीन’’ (मत्स्य) की गलत व्याख्या करने से सब कुछ गुड-गोबर हो गया। अभी भी कुछ लोग इस फहमी के षिकार हैं। प्रतिष्ठित इतिहासकारों का आदिवासियों के प्रति रवैया काफी हद तक हमने इस लेख के पूर्वोक्त हिस्सों में देख लिया। अब भी क्या आदिवासी लोग इन्तजार करेंगे और उन्हीं की ओर झांकते रहेंगे, कि वे ही आदिवासियों का इतिहास लिखने के लिए अधिकृत और सक्षम हैं ? जब यह सिद्ध हो चुका कि आदिवासियों द्वारा लिखा गया साहित्य तुलनात्मक दृष्टि से किसी ओर साहित्य से कम नहीं है, प्रत्युत आदिवासी विषय वस्तु के परिप्रेक्ष्य में तो उससे अधिक गुणात्मक व आधिकारिक है, तो आदिवासी ही आदिवासियों का इतिहास क्यों न लिखें ? इन प्रष्नों का सीधे-सीधे ’’ हंा’’ या ’’ना’’ में उत्तर देना कुछ उलझन पैदा कर सकता है। उचित यह होगा कि जागरूक व बुद्विजीवी आदिवासी लोग एवं आदिवासी समाज को लेकर प्रतिबद्व गैर आदिवासी प्रबुद्धजन दायित्वबोध के साथ गम्भीर होकर इस मुद्दे पर विचार करें। अपने-अपने स्तर पर या टीम बनाकर इस काम में जुट जायें और कुछ सार्थक करके बतलायें। इतिहासकारों ने अब तक जो भूल की है उसका पष्चाताप करें और इतिहास में से जो महत्वपूर्ण छूट गया है, उसे जोड़ने का मूल्यवान काम तुरंत हाथ में लें। इतिहास लिखने/लिखवाने या उसे प्रकाषित करवाने की समस्या इतनी बड़ी नहीं है, जितनी बड़ी चुनौती इतिहास को खोजने की है। इसके लिए निम्न सुझाव उपयोगी हो सकते है: ऽ आदिवासियों से सम्बन्धित भारतीय मिथकों की पुनव्र्याख्या की जाये। ऽ प्राचीन षिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, पट्टे, परवाने तथा अन्य लिपिबद्ध प्रमाण जो किसी भी प्रकार आदिवासियों से सम्बन्ध रखते हो। ऽ प्राचीन हस्तलिखित पोथियंा, पीढियंा, वंषावालियंा और स्फुट बातें जिनमें आदिवासियों का उल्लेख हो। ऽ शास्त्रों, ग्रंथों, महाकाव्यों में जहंा आदिवासियों के सन्दर्भ आये हैं उनकी सही व्याख्या। ऽ प्राचीन गढ, किले, मन्दिर, देवले, बावड़ी, तालाब, कुएं, हथाई तथा अन्य ऐसी इमारतें जिनका ताल्लुक आदिवासियों से रहा हो। ऽ आदिवासियों के बारें में जागाओं, भाटों, गायकों द्वारा कही जाती रही बातें। ऽ राणाओं तथा अन्य याचकों द्वारा गाये जाने वाले गीत, कवित्त, दोहा एवं कहावतों का अध्ययन। ऽ आदिवासी समाज में प्रचलित लोकगीत, लोक गाथाओं आदि में जो सन्दर्भ आये, उनका संकलन। ऽ आदिवासी उत्सव, मेलों, खेल, प्रतियोगिताओं, शोर्यगाथाओं, मुहावरों, पहलियों से निकलने वाली ऐतिहासिक महत्व की बातें। ऽ आदिवासी समाज में प्रचलित जन्म, विवाह, मृत्यू, श्राद, पितर, लोकदेवता, टोटम आदि से सम्बन्धित परम्पराओं का अध्ययन। ऽ आदिवासियों की जीवन शैली एंव जीवन दर्षन के विविध आयामों का वैज्ञानिक - तार्किक विष्लषण जो एक पंरपरा का शन कराता है। ऽ अंधविष्वासों एंव कुरीतियों के पीछे वास्तविक कारणों की खोंज। ऽ आदिवासियों की पंचायती परंपरा, स्वषासन पद्धति, सामाजार्थिक जीवन आदि की जानकारी जो परपंरा के सूत्र बताती हो। ऽ आदिवासियों का अतीत उथल-पुथलों से भरा पडा है। आक्रमण, विरोध, हार- जीत, एक स्थान से दूसरे स्थलों की ओर पलायन आदि आदि। ऐसे किस्से बडों-बूढों की जुबान पर अब श्ी हैं। इनका संकलन और विष्लेषण। देष के अंचल अंचल में आदिवासी बिखरे हुए हैं लेकिन धर्म, संस्कृति, सामाजिक-व्यवस्था, आर्थिक जीवन, स्वभाव, बाहरी दबाव, शोषण, शोषण का प्रतिरोध और अस्मिता के लिए निरतंर संघर्ष आदि ऐसे तत्व हैं जो हर आदिवासी समुदाय को आपस में एक सूत्र में बांधे हुए हैं। अब देखिए ना, जब विरसा मुंडा झारख्ंाड अंचल में आदिवासियों को संगठित कर जागरूक कर रहे थे और अंग्रेजों एंव देसी शासकों के विरूद्ध लड रहे थे, उसी दौर में गोविन्द गुरू के नेतृत्व में आदिवासी राजस्थान व गुजरात में अंग्रेजों और रियासती व्यवस्था से लोहा ले रहे थे। देखने की बात यह है कि उनके बीच कोई संवाद-संप्रेषण नहीं था फिर श्ी लड़ाई एक ही दौर में एक सी शैली में हुई। शषा का क्या, शषा-बोली तो हर बारह कोस पर बदलती जाती है। फिर श्ी कुछ शब्द होते हैं जो पुरानी पहचान कराते रहते हंै। उदाहरणार्थ, ’‘जोहार’‘ ऐसा शब्द है जो अभिवादन के लिए हर अंचल में इस्तेमाल किया जाता है। फर्क इतना सा ही मिलेगा कि झारखंड में ’‘जोहार’‘ है तो राजस्थान में ’‘जुहार’‘। देष के किसी भी क्षेत्र के सामूहिक आदिवासी आयोजन को देख लो, नजारा एक सा मिलेगा। वाद्ययंत्रों की बनावट व सुर और गीतों की धुन में समानता मिलेगी। प्रकृति प्रेम और मानव स्वभाव सभी आदिवासी समूहों में एक समान कारक (थ्।ब्ज्व्त्) मिलेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी अंचल के आदिवासी हों, उनका एक इतिहास भी सामने आना चाहिए। ऐतिहासिक सामग्री व्यापक स्तर के साथ आंचलिक स्तर पर भी एकत्रित करनी होगी। इस प्रक्रिया में कुछ सीमा तक संभव है, आंचलिक झलकियां-झांकियां देखने को मिले। उनको भी एक सूत्र में पिरोना होगा। यह सब करने से ही इतिहास में आदिवासियों को पहचान मिल पायेगी, अन्यथा नहीं। प्रस्तुतकर्ता हरि राम मीणा Hari Ram Meena पर 1:13 पूर्वाह्न 0 टिप्पणियाँ: एक टिप्पणी भेजें इस संदेश के लिए लिंक एक लिंक बनाएँ नई पोस्ट मुखपृष्ठ सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें 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भारतीय मिथक, इतिहास और आदिवासी मेरे बारे में About Me मेरा फोटो हरि राम मीणा Hari Ram Meena जयपुर Jaipur, राजस्थान Rajasthan, India भारत के राजस्थान प्रान्त में अवस्थित बामनवास नामक ग्राम में रहने वाले आदिवासी किसान परिवार में जन्मा। पिता को केवल अक्षर ज्ञान था और मा एकदम अनपढ। लेकिन इन दोनों ने मुझे शिक्षा दिलाने की ठानी। प्रारम्भिक शिक्षा ग्रामीण परिवेश मे फिर उच्च शिक्षा जयपुर में प्राप्त की। राजस्थान विश्व् विधालय से मैंने एम.ए. राजनीति विज्ञान में किया। बैंक में क्लर्क की नौकरी के बाद राजस्थान पुलिस सेवा में भर्ती होकर वर्ष 1993 की वरिष्ठता के साथ आई. पी. एस. में पदोन्ंती के माध्यम से पठन-लेखन रुचि। पुलिस और लेखन कर्म में बेहतरीन सामन्जस्य बनाये रखने का प्रयास करता रहा हू । समय प्रबन्धन के साथ प्रकृति मानवेत्तर प्राणी जगत और आम आदमी के हर्ष व विषाद के सौन्दर्य प्रेरणास्पद शोध के साथ उनके विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति कविता व गध दोनो में करते रहने का प्रयास करता रहा हू । जिन्हें समाज के हाशिये से भी नीचे धकेलते रहने के जान-अनजाने प्रयास किये जाते रहे हैं। उन आदिवासीजन से जुडे मुद्दों को प्राथमिकता देते रहना सुख देता है। पाठकों एवं अन्य साहित्यिक मित्रों ने यथोचित साथ दिया है। नितांत एकांत में मैं ‘मैं’ हू इसलिए ‘मैं’ के अतिरिक्त मैं अन्य कुछ भी नहीं और ‘मैं’ होने का मुझे गर्व है। लेकिन ‘मैं’ के सत्य की खोज में इस ‘मैं’ एवं दृष्यादृष्य सृष्टि के विस्तार में स्वयं को यायावर सा अनुभव करता रहा हू। मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें

जो इस धरती के मूलवासी थे, उन्हाेने लम्बे अर्से तक जमीन और प्रकृति से जुड़ी अपनी व्यवस्था कायम की। संस्कृति, धर्म समाज और भौतिक जीवन की एक मूल्यवान परम्परा विकसित की। बाहर से आक्रांता आये और युग-युगों तक चले लंबे आक्रमण, विरोध, संघर्ष और जय-पराजय की प्रक्रिया में मूलवासियों को सुविधाजनक परिस्थितियों से महरूम करते गये । जो पकड़ लिए गये उन्हें दास दलित बनाकर सेवा के लिए कोल्हू के बैल की तरह जोता गया और उनके ललाट पर अछूत की स्थायी मोहर लगा दी। जो खदेड़ दिये गये उन्हें दूर दराज दुर्गम पहाड़-जंगलों में षरण लेने के लिए बाध्य कर समाज से ही बहिष्कृत कर दिया गया। इस सबके चलते अब तक उस मानवता को वर्चस्वकारी व्यवस्था के बुल्डोजर के द्वारा रौंदा जाता रहा, फिर भी वह जन समुदाय जिंदा है, चूंकि उसमें गज़ब की प्राणश्‍क्ति है। यह अलग बात है कि अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए उन्हें लगातार संघर्ष करते रहना पड़ा। अतीत के सुरासुर संग्रामों या आर्य-अनार्य संघर्षों से वर्तमान दौर के विकास के नाम पर विस्थापन तक आदिवासियों को अपने अस्तित्व के लिए लड़ते रहना है। अस्तित्व के संकट के साथ आदिवासियों को पहचान के संकट से भी आदिकाल से ही जुझते रहना पड़ा। थोडी देर सुविधा के लिए ’’सनातनी’’ टर्मिनोलोजी का इस्तेमाल करें, तो सतयुग त्रेता-द्वापर काल-खंडों में इन आदिवासियों को असुर, दैत्य, दानव, राक्षस, प्रेत न जाने क्या-क्या संज्ञाएं देकर मनुष्य जाति होने से नकारते रहने का दुष्चक्र रचा गया और इस कलियुग में उनकी आदिवासी पहचान (इंडिजीनस आइडेंटीटी) को नष्ट करने के लिए उन्हें जनजाति या वनवासी कहा जाकर उनके मौलिक स्वरूप को ही तिरोहित करने का बाकायदा सरकारी ऐलान किया जा रहा है। कुछ साल पहले विष्व स्तर पर ’’इंडिजीनस ईयर’’ मनाया गया। भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्रसंघ को सीधे लिख दिया कि ’’भारत में इंडिजीनस लोग’’ न होने के कारण ऐसा कोई वर्ष नहीं मनाया जायेगा और न ही कोई प्रतिनिधि मंडल वहंा जायेगा। यही रवैया डरबन सम्मेलन में सरकार ने दलितों के प्रति अपनाया। आदिवासियों पर किए जाते रहे अध्ययन शोध की परम्परा का तनिक विशलेषण करें, तो बात थोड़ी और स्पष्ट हो सकेगी। भारतीय आदिवासी समुदायों पर लेखन की षुरूआत औपनिवेषिक दौर में आरम्भ हो गयी थी। आरियंटलिस्ट ने उन्हें कौतूहल व हिकारत भरी नजरों से देखा, नृतत्वषास्त्रियों ने उनके प्रति सामान्यीकृत औपचारिकता का दृष्टिकोण अपनाया, भाषाई अध्येता सतह से नीचे नहीं उतर पाये। जहंा तक प्रगतिषील नजरिये का सवाल है, तो डी.डी. कौषम्बी, डी.पी. चट्टोपाध्याय, भगवती शरण उपाध्याय एवं राहुल सांकृत्यायन जैसी विभूतियों ने आदिवासियो ंको समझने में गहरी दिलचस्पी ली, लेकिन कुल मिलाकर उनमें भी एक सतही व रोमानी नजरिया ही हावी होता जान पड़ता है। आगे दिये कुछ उदाहरणों से यह सिद्ध हो जायेगा। वर्तमान में आदिवासियों को लेकर बड़े-बड़े विद्वान चिंतित और चिंतनषील दिखायी देते हैं, जिनमें डा. बृहमदेव शर्मा, रामषरण जोषी, कुमार सुरेष सिंह (अब स्वर्गीय), जी.एन. देवी और भी कई नाम लिए जा सकते हैं, फिर भी किसी ठोस वजह से एक बेचैनी वहीं की वहीं उसी मात्रा में बनी रहती है। कुकुरमुत्तों की तरह ढ़ेर सारे एन.जी. ओज आदिवासी क्षेत्रों में नजर आयेंगे, मगर अधिकांष में ख्याति और स्वार्थ सिद्धि का तत्व ही हावी है। इस सारी परम्परा में महाष्वेता देवी जैसे अपवाद है। वजह, आदिवासियों के प्रति उनकी सोच काफी सीमा तक विषिष्ट लगती है जिसमें बहुत कुछ कर सकने की तड़पड़ाहट है। आदिवासी विमर्ष की नयी पहल रमणिका गुप्ता जी ने की। उनका नाम केवल इसलिए मैं यहंा नहीं ले रहा हँू, प्रत्युत इस वजह से कि उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात लगातार कही है। वह यह है कि ’’साहित्य, संस्कृति, धर्म, परम्परा, इतिहास, समाज कोई भी क्षेत्र से सम्बन्धित आदिवासी अभिव्यक्ति का सवाल हो, नेतृत्व स्वयं आदिवासियों को अपने हाथ में लेना पड़ेगा और अन्य लोग कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ चलेंगे। सारी चिंताओं के रहते बात क्यों नहीं बन पा रही ? इस प्रष्न का समाधान शायद हमें रमणिका जी के उक्त विचार में मिल सके। इसलिए यह बात मुझे महत्वपूर्ण लगती है। प्रख्यात समाजषास्त्री श्री पूरनचन्द्र जोषी जब ’’बोद्धिक वर्चस्वषाली परिप्रेक्ष्य से आदिवासी संस्कृति और ज्ञान के ’’एक्सक्लूजन’ (निष्कासन) पर गंभीर चिंता व्यक्त करते है, (कथादेष, अगस्त-2002 में राजाराम भादू का लेख) तो इससे संकेत यह मिलता है कि पूर्वोवत बोद्धिक परंपरा के दृष्टिकोण से आदिवासियों की सही तस्वीर का खींचना मुष्किल है। इसलिए अहम् सवाल आज भी ज्यों के त्यों सर उठाये खड़े दिखते हैं - ऽ आदिवासियों के समृद्व सांस्कृतिक रिक्त की मौलिकता को प्रगतिषील विकास के साथ संरक्षित कैसे रखा जाये ? ऽ विकास की प्रक्रिया के साथ उनके पुष्तेनी भौतिक-प्राकृतिक संसाधनों का लाभ उन्हे कैसे मिले ? ऽ धर्म के नाम पर उनके साम्प्रदायिकरण को कैसे रोका जाय ? ऽ साहित्य की उनकी मौखिक परम्परा को लिपिबद्व कैसे किया जायें ? ऽ उत्थान के साथ उनकी स्वस्थ प्राकृतिक जीवन शैली को कैसे बचाये रखा जाये ? ऽ चैतरफा दबावों के कारण यह सम्भव ही नहीं कि समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग रहकर जैसी भी स्थितियंा है, उनमें वे अपना जीवन जीते चले जायें। सवाल यह उठना है कि मुख्य धारा में लाने की प्रक्रिया में उन्हे दोयम दर्जे का जन समुदाय बनने के सम्भावित खतरे को कैसे टाला जाये ? ऽ अनुभव यह बताता है कि आदिवासियों में से जो भी व्यक्ति, परिवार या समुह षिक्षित, उन्नत और आधुनिक बनने लगता है वही अपनी मौलिक जीवन शैली और सोच को त्याग कर गैर आदिवासी जैसा व्यवहार करने लगता है। प्रष्न यहँा सुविधाओं और साधनों का नहीं है, बल्कि समृद्व परम्परा का है, उस परम्परा के संरक्षण का है। समान स्तर पर वह आधुनिकता की विकृतियों को भी अपनाने लगता है। यहाँ तक कि वह जान-बुझकर अपनी संस्कृति और संस्कारों को भुलाने लगता है। उसे यह भी होष नहीं रहता कि यह उसकी विवेक सम्मत प्रााथमिकता नहीं, प्रत्युत अनाभासित मनोवैज्ञानिक दबाव है। प्रष्न यह है कि इसका विकल्प क्या हो ? ऽ अपने त्रासद अनुभव की वजह से जो आदिवासी समूह बाहरी दुनिया के प्रति अत्यंत शत्रुवत (हाॅस्टाइल) है, उन्हें जैसे ही विकास या उत्थान की ओर लाने के प्रयास किए जाते है तो अपने जीवन में आक्रामक हस्तक्षेप मानते हैं। प्रयास चालू रखा गया तो एक असहनीय मानसिक दबाव महसूस करने लगते है। यहंा तक कि मरने लगते हैं। अंडमान के आदिवासियों (विषेषकर जारवा और सेंटेनलीज) के साथ यह सब घटित हुआ है। अंततः सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों को रोकना पड़ा और उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना पड़ा। इस विकट और अनूठी समस्या का समाधान क्या हो ? मैं यह महसूस करता हूँ कि इसके लिए नृतत्वषास्त्रियों, समाज-षास्त्रियों और मनोविष्लेषकों का संयुक्त दल बनाया जाना चाहिए। ऽ वैष्विक पूंजी व जन्य व्यक्ति व स्वार्थ केंद्रित माहौल में आदिवासी सामुहिक जीवन पद्धति को कैसे बचाया जाये ? ऽ भविष्य को बहतर गढने के लिए अतीत को समझना अनिवार्य होता है। अस्तित्व के संकट की तरह आदिवासियों के इतिहास को जान-बूझकर नजरअंदाज करते रहना भी अपने आप में बड़ी समस्या है। इस लंबे इतिहास को लिपिबद्व कैसे किया जाये ? और यह काम कौन करेगा या कर सकता है ? कुछ सवालों के साथ यह पृष्ठभूमि देना इसलिए जरूरी समझा गया कि पहले हम आदिवासियों के प्रति अब तक जो दृष्टिकोण के चलते ईमानदारी और समझदारी के साथ आदिवासी इतिहास संभव नहीं। मुझे यहंा विजयदेव नारायण साही की एक कविता की निम्न पंक्तियंा काफी प्रासंगिक लगती है- ’’ तुम हमारा जिक्र इतिहासों में नहीं पाओगे क्योंकि, हमने अपने को इतिहास के विरूद्ध दे दिया है................’’ ये पंक्तियंा उन्होने किसी भी संदर्भ में लिखी हों, आदिवासी परिप्रेक्ष्य में अर्थस्पष्ट है, फिर भी अपने-अपने हिसाब से इन पंक्तियों को समझा जा सकता है। निष्कर्ष यही निकलेगा कि जिस इतिहास (व्यापक अर्थ में) के विरोध में आदिवासी युग-युगों से लड़ते रहे, उसमें उन्हें जगह कैसे मिलेगी। आदिवासियों का वास्तविक इतिहास क्या था, उसकी खोज कैसे की जाए एवं उसे सामने कैसे लाए ? यह मूल प्रष्न अपनी जगह है। इसका उत्तर तलाषने से पूर्व हमें इस महत्वपूर्ण प्रष्न से मुठभेड करनी होगी कि जैसा इतिहास हमें पढाया-सुनाया जाता रहा है, उसमें आदिवासी किस रूप में है ? इसे समझने के लिए हमें भारतीय मिथक परंपरा में जाना होगा, चंूकि सारी गड़बड़ी वहीं से शुरू हुई है। मिथक एवं इतिहास के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह रही है कि हारी हुई कौमों को विकृत करके चित्रित किया जाता है, वर्चस्वकारी वर्ग के पक्ष में सारा सोच होता है और प्रायः इतिहासकार स्वयं की वर्ग परंपरा के पक्ष में तथा विपक्ष (जिस भी स्वरूप और मात्रा में ) के विरोध में कुछ न कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रसित होता है। ऐतिहासिक प्रमाण तो निरपेक्ष होते हैं, समस्या यह है कि वे सब मूक होते हैं। जब उनके अधिकांष की व्याख्या-विष्लेषण-निष्कर्ष का मौका इतिहासकार को मिलता है तो प्रमाणिक सामग्री के अनुरूप उसका तदस्थ और निष्पक्ष हो पाना बहुत मुष्किल होता है। इतिहासकार के संस्कार सोच, दुष्टि और विचारधारा प्रत्यक्ष-परोक्ष या जाने-अनजाने समाविष्ट होकर रचे जा रहे इतिहास को प्रभावित करने लगते है। यह किसी के साथ भी हो सकता है। इस उलझन से बचने के लिए हमें ’’वाद-विवाद-संवाद’’ की मेथोडोलोजी को अपनाना चाहिए जिसके माध्यम से विभिन्न दृष्टिकोणों से लिखें और अनलिखें इतिहास का विष्लेषण करके उस निष्कर्ष तक पहुँचना चाहिए जो बौद्धिद-तार्किक व तथ्यात्मक-वैज्ञानिक तुला पर खरा उतरे। पढ़ सुन कर लगे कि ’’हाँ, यह प्रमाणिक है, यह सच है, इसे स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं।’’ इतिहास की ऐसी प्रमाणिकता के सामने तथ्यात्मक यथार्थ बनाम मूल्यात्मक आग्रह की असुविधाजनक स्थिति भी पैदा नहीं होनी चाहिए। इतिहास को ’’क्या है’’ के रूप में ही देखना चाहिए, न कि ’’क्या होना चाहिए’’ के रूप में। ’’इतिहास के प्रति दृष्टिकोण’’ पर यह संक्षिप्त चर्चा विषयांतर नहीं है। जब तक हम इसे न समझे, ’’इतिहास और आदिवासी’’ विषय पूरी तरह हमारी समझ में नहीं आता। हाँ, तो इतिहास-चर्चा से पहले हम मिथकों पर कुछ उदाहरणों के सहारे बात करें। जहंा तक मिथकों में आदिवासियों की विकृत प्रस्तुति का प्रष्न है हमें पुराणों के साथ रामायण और महाभारत में भी जाना होगा। पुराण ई.पू. की दूसरी सदी से ई.पू. की सातवीं सदी के कालखंड में लिखे गये। इनके माध्यम से बुद्ध और महावीर द्वारा आरंभ किए ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन से ध्वस्त पुरोहित वर्चस्व को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया गया। ध्यातव्य है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया। जैन ग्रंथो में इस बात का उल्लेख है कि अंत में वे जन मुनि बन गये (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेष खंड-एक, डा. रामविलास शर्मा -पृष्ठ 636) यह तो सर्वविदित है कि सम्राट अषोक ने बौद्व धर्म के प्रसार-प्रचार में जी-जान लगा दी। ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र अपने स्वामी मौर्य सम्राट ब्रहदथ का वध करके जब सम्राट बनते हैं, (ई.पू. 184) तभी से ब्राह्मणवादी वर्चस्व पुनः स्थापित होता है जिसे गुप्तवंषीय राजाओं का भरपूर प्रश्रय मिला। यह सारा कालखंड ई.पू. दूसरी सदी के सातवीं सदी तक चलता है। इसी दौरान पुराण लिखे जाते हैं जिनमें चमत्कार, अतिषयोक्ति एवं मिथकों के माध्यम से ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गौरवान्वित किया जाता है जो अनार्य-आदिवासी विरोधी रहती आयी थी और आगे भी चलती है। पौराणिक मिथकों का कुछ अंष रामायण में और अधिकांष महाभारत के माध्यम से पहले ही प्रस्तुत हो चुका था। रामायण के प्रमुख पात्र राम हैं, जिन्हे पुरूषोत्तम के रूप में अब तक संपूर्ण समाज पर स्थापित किया जाता रहा। अगर राम के जीवन में से वनवास के चैदह वर्ष निकाल दिए जायें तो उनके व्यक्तित्व में क्या बचेगा ? उन महत्वपूर्ण चैदह वर्षो में राम आदिवासियों के साथ रहे और उन्ही की ताकत से अनार्याें (आदिवासियों के विषेष संदर्भ में) से युद्वोपरांत विजयी होते हैं। इस सबके बावजूद राम की व्यवस्था में आदिवासी नायकों की भागीदारी, हस्तक्षेप एवं दर्जा क्या रहा ? भद्रजन के लिए यह बड़ा ही असुविधाजनक प्रष्न होगा। निर्दोष शंबूक के वध के बावजूद राम महान रहेंगे ! कितना रोचक होगा अगर हम ’’गुजरात के गोधराकाण्ड-न्यूटन का सिद्वांत-प्रायोजित नरसंहार’’ के समीकरण की ही तरह ’’सूर्पणखा-सीता अपहरण-लंका काण्ड पर न्यूटन के सिद्वांत को लागू करके देखें। राम-रावण युद्ध में दोनों ही तरफ से मरने वाले आदिवासी-अनार्य और युद्व किसके लिए ? इससे भी आगे-आपके लिए जो मानव समुदाय शत्रुपक्ष था उसे मनुष्य न मानकर राक्षस, असुर, दैत्य दानव न जाने किस- किस तरह विरूपित किया गया और जिन्होनें आपका साथ दिया उन्हें गिद्ध, रीछ वानर आदि की संज्ञा देकर जंगली जानवरों की श्रेणी में रख दिया, ताकि भविष्य तक में कभी उनकी असली पहचान न हो सके ?? महाभारत में चिरपरिचित एकलव्य का प्रसंग आता है। आर्यगुरू ने धनुर्विधा सिखाने से मना कर दिया। निषादराजपूत्र से फिर भी उसको गुरू मनवा दिया और अपने बलबूते पर धनुर्धर बन जाने पर भी बतौर दक्षिणा अंगुठा काट कर दिलवा दिया। कान पक गये यह कथा सुनते-सुनते मेरे गले यह कथा इस रूप में कतई नहीं उतरती। तर्क सम्मत यह लगता है कि एकलव्य का अगुंठा जबरन काटा होगा। इस जघन्य अपराध को ढकने के लिए तथा कथित दक्षिणा का स्वांग रचकर थोप दिया गया। आदिवासी स्त्री हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच का प्रसंग आता है। अर्जुन को बचाने के लिए शहीद कर दिया जाता है। घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक का महत्वपूर्ण प्रसंग महाभारत में है। वह किषोरावस्था में ही था, मगर अत्यन्त बलवान। दुर्योधन कहीं से ढूंढ कर उसे अपने पक्ष में लड़ने के लिए बुला लेता है। वहीं कौरवों की तरफ से लड़ता है। ध्यान देने की बात है कि महाभारत युद्व में अधिकांष आदिवासी कौरवों के पक्ष में लड़े थे। एकलव्य स्वयं इसका उदाहरण है। उसका अगुंठा अगर द्रोणाचार्य मांगता तो शायद वह उसकी सेना के पक्ष में न लड़ता। अगूंठा काटने वाले पांडव थे, इसलिए वह पांडवों के विरूद्व लड़ा था। हो, तो बर्बरीक की कथा यूं चलती है कि जैसे ही वह युद्धभूमि में आया तो, कृष्ण समझ गये कि अब पांडवों का बचना मुष्किल है। क्या किया जावें ? भोले किषोर बर्बरीक को सोलह कला प्रवीण भगवान छलने के लिए चल देते हैं। कहते है-’’कलियुग में तेरी पूजा का इंतजाम किये देता हूँ। इस वक्त बैंकंुठ (या स्वर्ग) धाम में भेजने की गारन्टी भी लेता हूँ। बस एक काम कर दे, लडे मत और तेरी शीष मुझे सौंप दे।’’ ’’जवाब मिलता है, ’’आप तो भगवान है, जो करेगे ठीक ही होगा। मेरी इतनी सी इच्छा है कि दोनो ओर से बडे-बडे धुरंधर लड़ रहे है। मैं इनकी बहादुरी देखना चाहता हँू।’’ शर्त मान ली जाती है। बर्बरीक शीष सौंप देता है। एक मत के अनुसार कुरूक्षेत्र के मैदान के निकट लम्बे बांस पर बर्बरीक का शीष टांँक दिया जाता है, जहंँा से उसने सारा युद्व देखा। दूसरे मत के अनुसार कुरूक्षेत्र के निकट सबसे उँची पहाड़ी चोटी पर शीष रख दिया जाता है। यह पहाड़ सीकर (राजस्थान) के निकट हर्ष पर्वत है जिसकी ऊँचाई 3300 फीट है। माउन्ट आबू के गुरू षिखर (करीब 6000 फीट) के बाद राजस्थान-हरियाणा-निकटवर्ती-उत्तरप्रदेष-पंजाब के अंचल में यही सब से ऊँचा पहाड़ हैं। हर्षपर्वत और रींगस के बीच खाटू श्याम जी का धर्मस्थल है, जिसमें केवल शीष वाली प्रतिमा है, जिसकी पूजा होती है। इसे ’’ष्याम बाबा’’ कहते है। शीष मूर्ति से लगता है यह बर्बरीक ही होगा। हर्ष के पर्वत सीकर से ही उसने महाभारत युद्व देखा। इस प्रसंग को यहीं रोकते है और यह कहते है कि खाटू श्याम जी की मूर्ति तो बर्बरीक की है लेकिन मान्यता यह चली आ रही है कि यह श्री कृष्ण का बाल रूप है और उसी की पूजा होती है। सालाना लक्खी मेला यहंा लगता है। विड़म्बना यह है कि शीष काटकर देने के बाद भी आदिवासी बर्बरीक की जगह कृष्ण को पूजा गया। एक ओर प्रसंग महाभारत में। अष्वमेघी यज्ञ के घोडे की यात्रा के दौरान अर्जुन की लड़ाई बभू्र वाहन से होती है। यह स्थान पूर्वांचल है। बभ्रूवाहनं मणीपुर के आदिवासी राजा चित्रवाहन की राजकुमारी चित्रांगदा का पुत्र था। उल्लेखनीय है अर्जुन ने चित्रांगधा और नाग कन्या उलूपी (दोनों आदिवासी) से विवाह (?) किया था। लड़ाई में अर्जुन मारा जाता हंै (बेहोष हुआ होगा) और उलूपी जड़ी-बूटियों से उसे जीवित (?) करती है। प्रष्न यह है कि अर्जुन को धूल चटा देने वाला शुरवीर बभ्रूवाहन महान नहीं माना जाकर अतुलनीय योद्वा अर्जुन को ही बताया जाता है। एक और प्रसंग। कृष्ण का वध जारा शबर नामक आदिवासी के हाथों होता है। मैंने वध स्थल (गुजरात) की यात्रा की है। घटना स्थल की परख की । किसी भी कोंण से देखैं, यह सम्भव ही नहीं कि हरिण की आंँख समझ कर पगतल में चमकते पदम चिन्ह पर निषाना साधा हो। अगबर आखेट था तो शबर का बाण जहरीला नहीं हो सकता और बाण जहरीला नहीं था, तो पैर में बाण लगने से कम से कम तत्काल तो मृत्यु नहीं हो सकती। इसके लिए पूरे शरीर का ’’सेप्टिक’’ होना जरूरी होगा। वह भी तब, जब कि कोई उपचार न किया जाये। आप कहते रहिए अगल जन्म में बाली के हाथों मरने वाला वरदान राम ने दिया था। और जारा शबर ही त्रेतायुग का बाली था। सारे सन्दर्भ देखने पडंेगे। खाण्डव वन दहन में आदिवासी नाग जाति को भस्म करने में कृष्ण एवं अर्जुन द्वारा अग्नि का सहयोग करने से लेकर कंस-षिषुपाल-जयद्रथ वध, एकलव्य का ’’अगुंठा’’, घटोत्कच-बर्बरीक-बभ्रूवाहन प्रसंग तक। यही नहीं, जाना होगा सतयुग और त्रेतायुग में भी। आप भीलों की मौखिक और गेय परम्परा का महाभारत (’’भीलों का भारथ’’ द्वारा श्री भगवानदास पटेल) पढ जाइये। पात्र एवं घटनास्थल करीब-करीब वही है लेकिन संदर्भ बदले हुए पायेंगे। वहंा अर्जुन की जगह नागवंषी आदिवासी राजा वासुकी अतुलनीय यौद्वा और बलवान मिलेगा। श्री पटेल भीलों की रामायण भी लिख रहे हैं। उनका यह अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है आदिवासियों की दृष्टि से भारतीय मिथकों की व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में। पूरा का पूरा तथा कथित सतयुग भरा पड़ा है मिथकों से और मिथकों में आदिवासियों के विकृतिकरण से। इंद्र का सन्दर्भ ले लिजिए। छल-छद्म, अययास, व्यभिचार, यहाँ तक की बलात्कार (कानूनी परिभाषा और अहल्या प्रसंग) क्या-क्या कुकर्म उसने नहीं किए, और मनुष्य में श्रेष्ठ देवता और देवताओं के स्वामी (श्रेष्ठम) इन्द्र की पूजा आप करते रहिए। नारद, तुम्बरू जैसे पात्र अनार्य-आदिवासी थे। नारद के चरित्र को समझिए इन्द्र की व्यवस्था के विरोध में हर जगह व्यंग करता है। उसके कथनों की मूल भावना और उद्देष्यों को समझने के लिए दिमाग पर अधिक जोर देने की आवष्यकता ही नहीं पड़ेगी। क्या हैं ये ’’महान’’ चंद्रवंषी और सूर्यवंषी श्रत्रिय ? उन्हीं के समर्थन में लिये गये षास्त्रों से स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। पुरूरवा की अप्सरा (वेष्या) पत्नी उर्वषी की औलाद की पीढ़ियां चंद्रवंषी और अप्सरा (वेष्या) मेनका पुत्री ष्षंकुतला की औलाद की पीढ़िया सूर्यवंषी हुए। यह पूछना बड़ा ही असुविधाजनक होगा कि ‘‘तुम्हारी (दोनों वंषों की) आद्यजननी तो ...............थीं, फिर तुम महान कुल परंपरा कैसे हुए ?’’ दूसरी तरफ यह सवाल उठता है कि प्राचीन काल में अपनी पुष्तैनी धरती पर ष्षांति से जीवन जी रहे आदिम समुदायों पर आपने बाहर से आकर हमले किए, उन्हें मारा, दास बनाया, भगाया और फिर असुर, राक्षस, जंगली जानवरों की संज्ञा दी। फिर तुम श्रेष्ठ कैसे हुए ? आदिवासी इतिहास लिखने से पहले हमें ‘‘मिथकों में आदिवासी’’ के सारे संदर्भो को पुनव्र्याख्याथित करना होगा। आस्था और भावना अपनी जगह है मगर अतीत का निरूपण तो तथ्यात्मक, तार्किक, बौद्धिक व वैज्ञानिक ही होगा। अब बात आती है इतिहास में आदिवासियों की। इससे पहले यह देखा जाये कि इतिहास मंे आम आदमी किस हद तक होता है ? इतिहास के नाम पर हजारों वर्षों तक राजा - महाराजाओं का इतिहास ही लिखा जाता रहा। प्राचीन काल से मुगल काल तक भाट - चारणी - दरबारी इतिहासकारों की परंपरा हावी रही। इसमें प्राचीन सम्राटों , तथाकथित गणराज्यों के शासकों , मुस्लिम बादषाहों , रियासती सामंतों के पक्ष में इतिहास लिखा व लिखवाया जाता रहा। अंग्रेज काल में इतिहास लेखन के क्षेत्र में बहुत सारा काम हुआ। अंग्रेज इतिहासकारों की मानसिकता पूरे भारत देष की परम्परा को हेय दृष्टि से देखने की ही रही। उपनिवेषवाद के दौर में यह सम्भव ही नहीं हो सकता था कि इतिहास में आम आदमी को जगह मिले। आजादी के बाद इस क्षेत्र में निस्संदेह महत्वपूर्ण कार्य वामपंथी इतिहासकारों ने किया। किसानों व श्रमिकों के आन्दोलनों, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों, वर्ग संघर्ष की परम्परा आदि को उजागर करने का प्रयास हुआ। लेकिन वामपंथी विचारधारा के सिद्वांत उन पर इस कदर हावी रहे कि वे देष की परम्पराओं के, समस्याओ के समाधान के सारे सूत्र (ऐतिहासिक दृष्टि से) अन्तराष्ट्रीय साम्यवाद में ही ढंूढते रहे। हर प्रषन का उत्तर माक्र्स, ऐंगिल्स लेनिन, माओ के विष्लेषण में तलाषते रहे। उदाहरणार्थ, भारत में जाति व्यवस्था के यथार्थ को नजरअंदाज करते रहे। आजादी की लड़ाई के दौरान बाबा साहेब अम्बेडकर के नेतृत्व में समाज का दलित वर्ग बाह्मणवादी वर्चस्व के विरूद्व मोर्चा थामें आगे बढ़ रहा था तो उन्होने वामपंथियों के साथ आने का आग्रह किया। इस पर स्वंय ई एम एस नम्बूदरीपाद ने कहा कि ’’दलितों के पचड़े’’ में अभी नहीं पड़ना है। साम्राज्यवाद पर विजय प्राप्त करने के बाद दलितों की समस्या अपने आप हल हो जायेगी। यही वजह रही कि सर्वहारा के पक्ष में चिंतित चिन्तनषील वामपंथियों को दलितों ने अब तक स्वीकार नहीं किया है। वर्तमान दौर में तो इतिहास लेखन (पुर्नलेखन) का काम सत्ता पोषित इतिहासकार खुले आम कर ही रहे हैं और इस मुहिम में वे ब्राह्मणवादी वर्चस्व को पुनः स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। इतिहासकारों की ऐसी परम्परा व मानसिकता के चलते इतिहास में आदिवासी कहँा मिलेंगे। आदिवासियों से जुड़ी एवं बडी एक एतिहासिक घटना का जिक्र मैं करना चाहूँगा। राजस्थान के बांसवाड़ा जिले में गुजरात सीमा पर एक जगह है मानगढ़ का पहाड। अंग्रेजो और रियासती सांमतों के मिले-जुले शोषण के षिकार आदिवासी लोग 17 नवम्बर, 1913 के दिन वहँा एकत्रित हुए। बनजारा जाति के आदिवासी गोविंद गुरू की अगुवाई में उप निवेषवादी-सामंतवादी व्यवस्था के विरूद्व यह आदिवासियों के द्वारा देष की आजादी की लड़ाई का हिस्सा था। करीब 15-20 हजार आदिवासी वहंा एकत्रित हुए। बैगार प्रथा, वन सम्पदा के उपयोग पर पाबंदी एवं भारी लगान के विरोध में यह सभा आयोजित की गई। ब्रिटिष कमाण्डेन्ट जे.पी. स्टोक्ले के नेतृत्व में जाट रेजीमेंट, राजपूत रेजीमेंट और मेवाड़ भील कोर की चार फौजी कम्पनियों के हथियार बंद लवाजमें ने उन आदिवासियों पर अचानक धावा बोला। बंदूकों-मषीनगनों की गोलियों से उन्हे भून डाला। डेढ़ हजार आदिवासी शहीद हुए। गोविंद गुरू के साथ सेकड़ों आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिया गया। यह तिथि माघषीर्ष पूर्णिमा थी। हर साल इस दिन वहंा आदिवासियों का विषाल मेला भरता है। अंचल का बच्चा-बच्चा इस घटना के बारें में जानता है। जाहिर है, इस घटना में जलियांवाला बाग कांड से चार गुना संख्या में आदिवासी शहीद हुए थे। भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में इस घटना का कहीं जिक्र नहीं है। अंग्रेजो ने तो खैर इस घटना को अपने हिसाब से दबा देने का षडयंत्र रचा ही, हमारे धुरंधर इतिहासकार भी सोते रहे। इतिहास की दृष्टि से यह घटना इतनी पुरानी नहीं है कि प्रमाण न जुटाये जा सके। मैंने स्वयं घटना स्थल और क्षेत्र का दौरा किया। कुछ दस्तावेज भी इधर-उधर से जुटाये। इस घटना में तनिक भी संदेह नही। स्थानीय आदिवासी नेताओं ने पिछले कुछ अर्से से आवाज उठाई। 15 अगस्त, 2001 को दैनिक भास्कर अखबार में मेरा संपादकीय इस विषय पर छपा था। पहल-71 पत्रिका में विस्तृत यात्रा वृतान्त के रूप में इस घटना को मैंने उजागर किया। यहंा मैं मेरी बात नहीं कर रहा हँू,, अचंल के आदिवासी जागरूक थे। शहीद स्थल के रूप में मानगढ़ के विकास की योजना बनी। शहीद स्मारक का षिलान्यास राजस्थान के वर्तमान मुख्य मंत्री महोदय ने ता. 27 मई, 1999 को कर दिया है। उसी दिन सवा करोड़ की राषि खर्च करने की घोषणा भी की थी। हाल ही इस अगस्त (2002) के पहले सप्ताह भारत सरकार ने दो करोड़ तेईस लाख की राषि और स्वीकृत कर दी है और यह मान लिया है कि पहला जलियावांला कांड मानगढ़ में हुआ था। आष्चर्य है कि करीब एक सदी तक यह घटना इतिहास का हिस्सा न बन पायी जिसमें से आधी सदी आजाद भारत के खाते में है। चुल्लूभर पानी में डूब कर मर जाना चाहिए हमारे महान इतिहासकारों को ! कम से कम शर्म आनी चाहिए और राष्ट्र से क्षमा मांगनी चाहिए कि वे इतिहासकार के रूप में कितने नकारा साबित हुए। एक और ऐसी ही घटना मानगढ़ से थोड़ी दूर गुजरात की विजयनगर रियासत (अब तहसील) के गांव पालचित्तरिया में घटी थी। मानगढ़ की ही तरह 7 मार्च, 1922 के दिन में 1200 आदिवासी शहीद हुए थे। ’’इण्डिया टू-डे’’ की एक टीम वहंा गई। कुछ लोग जिंदा है जो घटना के चष्मदीद गवाह है, उनसे भी बातें की। ’’इण्डिया टू-डे’’ के 3 सितम्बर 1997 के अंक में उदय माहूरकर की रपट इस सम्बन्ध में छपी। विरसा मुडंा जैसे क्रांतिचेता को बहुत अर्से बाद स्वीकार किया गया। आदिवासी अचंलों में ऐसी एकाध नहीं, वरन् सैंकड़ो घटनाएं हुई है। अतीत से लेकर आज तक का आदिवासी इतिहास संघर्ष का सिलसिला रहा है, जिसे जाने-अनजाने भुलाया जाता रहा। इतिहास के तथ्यों को कैसे तोड़ा-मरोड़ा जाता है, इसका एक उदाहरण देखिए। महाराणा प्रताप के अत्यन्त विष्वसनीय और योद्वा सेनापति राणा पूंजा थे। वे भील थे। भीलू राजा भी उन्हे कहा जाता रहा । राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे, तो राणा पूंजा की प्रतिमा का उदयपुर में उन्होने अनावरण किया। हिरणमगरी (पहाड़ी) जहँा राणा प्रताप की प्रतिमा है, उसी से कुछ दूरी पर राणा पूँजा की प्रतिमा स्थापित की गई। यह सर्वविदित है कि राणा प्रताप के साथ पड़ने वाले राजपूत अत्यल्प थे और आदिवासी ही प्रमुख रूप से लड़े थे। कुछ लोगों ने एक कुचक्र रचा। चमचे किष्म के इतिहासकारों की एक कमेटी बनायी। उनसे यह साबित करवाया गया कि राणा पूंजा आदिवासी न होकर राजपूत थे। उनके हिसाब से योैद्वा केवल राजपूत होते हैं, और सब टटपुंजिये हैं। अगर इस साजिष का विरोध नहीं हुआ तो सम्भव है एक-न-एक दिन ऐसे लोग अपने प्रयासों में सफल हो जायें और राणा प्रताप के साथ लड़े आदिवासियों के बलिदान को पूरी तरह भुला दिया जाये। इतिहास से सम्बन्धित एक ओर अत्यन्त गम्भीर बात है आदिवासियों का अपराधी के रूप में समाज के सामने प्रस्तुतीकरण। यह षडयंत्र अंग्रेजो और देषी सामन्तांे का मिला-जुला प्रयास था। आदिवासियों की सत्ता और संसाधन छिन लिए जाने पर वे विद्रोही बन गये। राज्य शक्ति के साथ उन्हें कानून की ताकत से दबाने का दुष्चक्र रचा गया। सन् 1871 में क्रिमीनल ट्राइब एक्ट सबसे पहले बाम्बे प्रेसेडेन्सी में लागू किया गया। बाद में एक-एक कर अन्य क्षेत्रों में। यद्यपि आजादी के बाद यह कानून समाप्त कर दिया गया और इसकी जगह ’’आदतन अपराधी अधिनियम’’ बना दिया गया, जो समुह आधारित न होकर व्यक्ति आधारित है। सवाल यह है कि ऐतिहासिक प्रमाण कहीं सिद्व नहीं करते कि आदिवासी अपराधी रहे हैं, लेकिन गैरआदिवासी समाज का अधिकंाष स्वर्ण तबका उस षड़यंत्र की वजह से अब तक आदिवासियों के प्रति वही मानसिकता अपनाये हुए है। आष्चर्य होगा यह जानकर कि राजस्थान स्तरीय प्रतियोगी परीक्षाओं की सामान्य ज्ञान की पुस्तकों में अभी भी मीणों, भीलों एंव अन्य आदिवासियों का परिचय यह कह कर दिया जाता है कि ’’इनका मुख्य धंधा चोरी, लूट, डकैती रहा है।’’ कंजर ,सांसी , बावरिया, कालबेलिया, पारधी, बेड़िया जैसी आदिम समूहों को पुलिस चैन से नहीं बैठने देती। इस दौर में यह समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण आदिवासियों के प्रति अंग्रेज कालीन व्यवस्था (जो कि अब इतिहास है) और देषी सामन्तवाद की उपज है। उस इतिहास को पढकर यह समाज शास्त्रीय धारणा बनती है, जिसका विरोध आदिवासियों एवं कुछ अन्य व्यक्तियों एवं संगठनो के अलावा आम बुद्विजीवी क्यों नही करता ? आष्चर्य तो यह है कि ऐसी पुस्तकों के ऐसे घोर ’’आब्जेक्षनेबल’’ अंषों की ओर सरकार व प्रषासन का ध्यान भी क्यों नहीं जाता ? ऐसे लखकों और प्रकाषकों के विरूद्व दण्डात्मक कार्यवाही क्यों नहीं की जाती ? यह उदाहरण सिद्व करते है कि किस प्रकार प्रयोजित-प्रायोजित या जाने-अनजाने आदिवासिायों से सम्बन्धित महान घटनाओं व राष्ट्र के लिए उनके त्याग व बलिदान को इतिहास से बाहर रखा गया। इसके साथ उन्हे बदनाम भी किया जाता रहा। अह्म सवाल उठता है कि आदिवासियों के इतिहास को सामने कैसे लाया जाये ? इतिहास की खोज और लेखन का महत्वपूर्ण काम सम्भव कैसे हो ? किसी बात को कहने के लिए यदि व्यक्तिगत अनुभव व जानकारी का इस्तेमाल किया जाये तो मैं समझता हूँ, अधिक सहज और आधिकारिक होगा। जयपुर के निकट बस्सी निवासी श्री झूथालाल नाढंला (मीणा आदिवासी) ने वर्षो मेहनत करके सन् 1968 में ’मीणा इतिहास’ छपवाया। बहुत सारी सामग्री एकत्रित की। जागा-पोथियों का अध्ययन, जागाओं की पंचायत, स्थलों का भ्रमण, पुराने दस्तावेजों की परख, मोैखिक परम्परा आदि का अध्ययन करके यह सामग्री बटोैरी। इतिहासकार रावत सारस्वत से यह इतिहास लिखवाया पूरी इतिहास पुस्तक को पढ कर लगता है कि मीणा इतिहास के हर पृष्ठ पर स्वयं रावत सारस्वत कहीं न कहीं हस्तक्षेप करते हुए दिखायी देते हैं उनके माध्यम से उनके अपने ब्राह्मणवादी संस्कार, पूर्वाग्रह, सोच, दृष्टि आदि झलकती दिखती है। बडा काम हुआ, मगर ईमानदारी से नहीं हो पाया। इससे पहले मुनि मगन सागर (मीणा परिवार में जन्में और बाद में जैन मुनि बन गये थे) ने मीणा आदिवासियों पर गहन अध्ययन किया। मीणो के प्राचीन राज्य, राजवंष, गोत्र आदि पर महत्वपूर्ण सामग्री बटौरी। मीणो की उत्पत्ति की खोज की। टोटम के रूप में ’’मीन’’ (मत्स्य) के आधार पर मीना, मीणा, मारण आदि संज्ञाओं की व्याख्या की। ’’मीन पुराण भूमिका’’ और ’’मीन पुराण’’ के रूप में महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखें। उन्हे किसी ने कह दिया कि ’’काषी में विद्वान पण्डित रहते हैं, उनमें से किसी को बुलवाओ और उनकी सलाह लेकर इस सब को अन्तिम स्वरूप दो।’’ काषी के दो पण्डितो के चक्कर में वे पड गये और अधिकांष सामग्री के अर्थ का अनर्थ कर दिया। उदाहरणार्थ ’’मीन’’ को टोटम से बदलकर विष्णू के मत्स्यावतार से जोड दिया और यह निष्कर्ष निकलवा दिया कि मीणा लोग आर्यों से सम्बन्ध रखते हैं और क्षत्रिय है। वर्णाश्रमी व्यवस्था मीणा आदिवासियों में नही मिलती। उनके रीति-रिवाज, मौखिक परम्परा, संस्कृति, धर्म, संघर्ष, गाथांए, प्रकृति से जुडाव, पंचायत व्यवस्था सब कुछ आदिवासी है, मगर केवल एक शब्द ’’मीन’’ (मत्स्य) की गलत व्याख्या करने से सब कुछ गुड-गोबर हो गया। अभी भी कुछ लोग इस फहमी के षिकार हैं। प्रतिष्ठित इतिहासकारों का आदिवासियों के प्रति रवैया काफी हद तक हमने इस लेख के पूर्वोक्त हिस्सों में देख लिया। अब भी क्या आदिवासी लोग इन्तजार करेंगे और उन्हीं की ओर झांकते रहेंगे, कि वे ही आदिवासियों का इतिहास लिखने के लिए अधिकृत और सक्षम हैं ? जब यह सिद्ध हो चुका कि आदिवासियों द्वारा लिखा गया साहित्य तुलनात्मक दृष्टि से किसी ओर साहित्य से कम नहीं है, प्रत्युत आदिवासी विषय वस्तु के परिप्रेक्ष्य में तो उससे अधिक गुणात्मक व आधिकारिक है, तो आदिवासी ही आदिवासियों का इतिहास क्यों न लिखें ? इन प्रष्नों का सीधे-सीधे ’’ हंा’’ या ’’ना’’ में उत्तर देना कुछ उलझन पैदा कर सकता है। उचित यह होगा कि जागरूक व बुद्विजीवी आदिवासी लोग एवं आदिवासी समाज को लेकर प्रतिबद्व गैर आदिवासी प्रबुद्धजन दायित्वबोध के साथ गम्भीर होकर इस मुद्दे पर विचार करें। अपने-अपने स्तर पर या टीम बनाकर इस काम में जुट जायें और कुछ सार्थक करके बतलायें। इतिहासकारों ने अब तक जो भूल की है उसका पष्चाताप करें और इतिहास में से जो महत्वपूर्ण छूट गया है, उसे जोड़ने का मूल्यवान काम तुरंत हाथ में लें। इतिहास लिखने/लिखवाने या उसे प्रकाषित करवाने की समस्या इतनी बड़ी नहीं है, जितनी बड़ी चुनौती इतिहास को खोजने की है। इसके लिए निम्न सुझाव उपयोगी हो सकते है: ऽ आदिवासियों से सम्बन्धित भारतीय मिथकों की पुनव्र्याख्या की जाये। ऽ प्राचीन षिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, पट्टे, परवाने तथा अन्य लिपिबद्ध प्रमाण जो किसी भी प्रकार आदिवासियों से सम्बन्ध रखते हो। ऽ प्राचीन हस्तलिखित पोथियंा, पीढियंा, वंषावालियंा और स्फुट बातें जिनमें आदिवासियों का उल्लेख हो। ऽ शास्त्रों, ग्रंथों, महाकाव्यों में जहंा आदिवासियों के सन्दर्भ आये हैं उनकी सही व्याख्या। ऽ प्राचीन गढ, किले, मन्दिर, देवले, बावड़ी, तालाब, कुएं, हथाई तथा अन्य ऐसी इमारतें जिनका ताल्लुक आदिवासियों से रहा हो। ऽ आदिवासियों के बारें में जागाओं, भाटों, गायकों द्वारा कही जाती रही बातें। ऽ राणाओं तथा अन्य याचकों द्वारा गाये जाने वाले गीत, कवित्त, दोहा एवं कहावतों का अध्ययन। ऽ आदिवासी समाज में प्रचलित लोकगीत, लोक गाथाओं आदि में जो सन्दर्भ आये, उनका संकलन। ऽ आदिवासी उत्सव, मेलों, खेल, प्रतियोगिताओं, शोर्यगाथाओं, मुहावरों, पहलियों से निकलने वाली ऐतिहासिक महत्व की बातें। ऽ आदिवासी समाज में प्रचलित जन्म, विवाह, मृत्यू, श्राद, पितर, लोकदेवता, टोटम आदि से सम्बन्धित परम्पराओं का अध्ययन। ऽ आदिवासियों की जीवन शैली एंव जीवन दर्षन के विविध आयामों का वैज्ञानिक - तार्किक विष्लषण जो एक पंरपरा का शन कराता है। ऽ अंधविष्वासों एंव कुरीतियों के पीछे वास्तविक कारणों की खोंज। ऽ आदिवासियों की पंचायती परंपरा, स्वषासन पद्धति, सामाजार्थिक जीवन आदि की जानकारी जो परपंरा के सूत्र बताती हो। ऽ आदिवासियों का अतीत उथल-पुथलों से भरा पडा है। आक्रमण, विरोध, हार- जीत, एक स्थान से दूसरे स्थलों की ओर पलायन आदि आदि। ऐसे किस्से बडों-बूढों की जुबान पर अब श्ी हैं। इनका संकलन और विष्लेषण। देष के अंचल अंचल में आदिवासी बिखरे हुए हैं लेकिन धर्म, संस्कृति, सामाजिक-व्यवस्था, आर्थिक जीवन, स्वभाव, बाहरी दबाव, शोषण, शोषण का प्रतिरोध और अस्मिता के लिए निरतंर संघर्ष आदि ऐसे तत्व हैं जो हर आदिवासी समुदाय को आपस में एक सूत्र में बांधे हुए हैं। अब देखिए ना, जब विरसा मुंडा झारख्ंाड अंचल में आदिवासियों को संगठित कर जागरूक कर रहे थे और अंग्रेजों एंव देसी शासकों के विरूद्ध लड रहे थे, उसी दौर में गोविन्द गुरू के नेतृत्व में आदिवासी राजस्थान व गुजरात में अंग्रेजों और रियासती व्यवस्था से लोहा ले रहे थे। देखने की बात यह है कि उनके बीच कोई संवाद-संप्रेषण नहीं था फिर श्ी लड़ाई एक ही दौर में एक सी शैली में हुई। शषा का क्या, शषा-बोली तो हर बारह कोस पर बदलती जाती है। फिर श्ी कुछ शब्द होते हैं जो पुरानी पहचान कराते रहते हंै। उदाहरणार्थ, ’‘जोहार’‘ ऐसा शब्द है जो अभिवादन के लिए हर अंचल में इस्तेमाल किया जाता है। फर्क इतना सा ही मिलेगा कि झारखंड में ’‘जोहार’‘ है तो राजस्थान में ’‘जुहार’‘। देष के किसी भी क्षेत्र के सामूहिक आदिवासी आयोजन को देख लो, नजारा एक सा मिलेगा। वाद्ययंत्रों की बनावट व सुर और गीतों की धुन में समानता मिलेगी। प्रकृति प्रेम और मानव स्वभाव सभी आदिवासी समूहों में एक समान कारक (थ्।ब्ज्व्त्) मिलेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी अंचल के आदिवासी हों, उनका एक इतिहास भी सामने आना चाहिए। ऐतिहासिक सामग्री व्यापक स्तर के साथ आंचलिक स्तर पर भी एकत्रित करनी होगी। इस प्रक्रिया में कुछ सीमा तक संभव है, आंचलिक झलकियां-झांकियां देखने को मिले। उनको भी एक सूत्र में पिरोना होगा। यह सब करने से ही इतिहास में आदिवासियों को पहचान मिल पायेगी, अन्यथा नहीं।

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महात्मा गांधी हिन्दी विश्व विधाय में पत्रकारिता पाछ्यक्रम

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संचालित पाठ्यक्रम

एम. ए.पाठ्यक्रम

एम. ए. जनसंचार    -   कुल सीटें 28

एम. ए.मीडिया प्रबंधन – कुल सीटें 28

एम.एससी. पाठ्यक्रम

एम.एससी. इलेक्‍टॉनिक  मीडिया - कुल सीटें 28

शोध पाठ्यक्रम

एम. फिल. जनसंचार   – कुल सीटें 14

पीएच-डी. जनसंचार    – उपलब्‍धता के अनुसार

डिप्‍लोमा पाठ्यक्रम-

  • टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण में स्‍नात्‍तकोत्‍तर डिप्‍लोमा               -      कुल सीटें 15
  • वेब पत्रकारिता में स्‍नात्‍तकोत्‍तर डिप्‍लोमा                                   -          कुल सीटें 15
  • प्रसारण माध्‍यमों में स्‍नात्‍तकोत्‍तर डिप्‍लोमा                               -         कुल सीटें 15
  • विज्ञापन एवं जनसंपर्क में स्‍नात्‍तकोत्‍तर डिप्‍लोमा                     -        कुल सीटें 15
  • वीडियोग्राफी एवं वीडियो संपादन में स्‍नात्‍तकोत्‍तर डिप्‍लोमा      -     कुल सीटें 15
  • ग्राफिक्‍स एवं एनिमेशन में स्‍नात्‍तकोत्‍तर डिप्‍लोमा                   -        कुल सीटें 15

पाठ्यक्रम एवं प्रश्‍नपत्र विवरण

  • एम.ए. जनसंचार

प्रथम छमाही –
  1-संचार एवं जनसंचार : सिद्धांत एवं प्रक्रिया       2- समाज और जनमाध्‍यमों का विकास                     

3-विकास और संचार                                               4-भारतीय पत्रकारिता

द्वितीय छमाही
1-प्रिंट मीडिया एवं मुद्रण तकनीक                  2- समाचार : संपादन एवं लेखन

3- इलेक्‍टॉनिक मीडिया समाचार लेखन       4- मीडिया विधि एवं आचार संहिता

तृतीय छमाही –

 1-      टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण एवं तकनीक    2-साइबर मीडिया एवं सूचना तकनीक 

 3-     जनसंपर्क, विज्ञापन एवं सोशल मार्केटिंग    4- मीडिया शोध

चतुर्थ छमाही –

 1-      मीडिया : संगठन और प्रबंधन   2-    श्रव्‍य-दृश्‍य कार्यक्रम निर्माण/ वेब डिजाइनिंग(एच्छिक)

 3-      शोध परियोजना : लेखन           4-    मौखिकी

  • एम.ए. मीडिया प्रबंधन 

प्रथम छमाही-

1.जनसंचार के सिद्धांत     2.  जनमाध्यमों का विकास

3.प्रबंधन की आधारभूत अध्ययन      4. मीडिया समूहों का अध्ययन

द्वितीय छमाही-
1.प्रिंट व दृश्य श्रव्य माध्यम प्रबंधन      2.नई सूचना तकनीक और प्रबंधन
3.कॉर्पोरेट संचार प्रबंधन         4.   मीडिया विधि एवं आधार संहिता
तृतीय छमाही-
1.  जनसंचार शोध 2.  विज्ञापन प्रबंधन
3.  विपणन प्रबंधन    4. ब्रांड प्रबंधन
चतुर्थ छमाही-
1.मीडिया संगठन और प्रबंधन               2.  मीडिया निर्माण एवं मानव संसाधन
3. मीडिया प्रबंधन संबधित शोध परियोजना लेखन      4.   मौखिकी
  • एम.एससी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया

प्रथम छमाही 

1 – संचार एवं जनसंचार: सिद्धांत एवं प्रक्रिया         2 – जनमाध्यमों का इतिहास

3- कम्प्यूटर तकनीक एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया     4- इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया रिपोर्टिंग

द्वितीय छमाही
1  – इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया लेखन          2  – इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया प्रबंधन एवं कार्यक्रम प्रस्तुतीकरण

 3 – मीडिया विधि                                   4- स्टूडियो एवं प्रसारण पद्धति

तृतीय छमाही 

1  – रेडियो प्रोडक्शन                   2  – टेलीविजन प्रोडक्शन

3 – वेब प्रोडक्शन                        4- संचार शोध

चतुर्थ छमाही 

 1 – समकालीन वैश्विक मीडिया       2  – आडियो-वीडियो प्रोडक्शन एवं वेब प्रोडक्शन

 3 – लघु शोध परियोजना-कार्य       4 – मौखिकी

शोध अध्‍ययन – एम.फिल./पी-एच.डी. जनसंचार

प्रथम छमाही  (एम.फिल./पी-एच.डी.)

           प्रथम प्रश्नपत्र -  संचार शोध प्रविधि

द्वितीय प्रश्नपत्र – संचार: चिंतन एवं व्यवहार

तृतीय प्रश्नपत्र – जनसंचार शोध में कम्प्यूटर अनुप्रयोग

द्वितीय छमाही (एम.फिल.)

  •   लघुशोध प्रबंध लेखन

  •   मौखिकी

 शोध पाठ्यक्रम की विशेषताएं 

  1. संचार के सिद्धांतो की गूढ विवेचना एवं शोध में नवीन तकनीक के अनुप्रयोग व कंप्यूटर प्रशिक्षण।
  2. यह पाठ्यक्रम जानसंचार क्षेत्र के मूल सिद्धांतों,प्रक्रिया एवं व्यावहारिक पहलुओं का विश्लेषणात्मक अध्ययन के निमित्त है।
  3. जनसंचार माध्यमों की विषयवस्तु,तकनीक और उपयोगिता का विवेचन।
  4. मीडिया लेखन विशेषकर रिपोर्टिंग और संपादन जैसे कौशल केंद्रित विषय में दक्षता प्राप्त करने हेतु व्यावहारिक कार्यों पर जोर।
  5. जनसंचार क्षेत्र में गहन शोध एवं अध्ययन।

    अध्ययन प्रणाली

  1. सैद्धांतिक अवधारणाओं की विभिन्न माध्यमों से तुष्टि। सूचना,तथ्य,जानकारी,अनुभव का आदान-प्रदान विशेषज्ञों के माध्यमों से।
  2. तकनीक एवं व्यावहारिक अध्ययन,कंप्यूटर,इंटरनेट व ऑनलाइन अध्ययन के साथ व्यक्तिगत विकास।
  3. संस्थागत कार्य अध्ययन,अध्ययन में शोध कार्य एवं प्रबंधन,केश स्टडी कर नए ज्ञान में विभाग व विश्वविद्यालय के प्रति उत्तरदायी बनाना।
  4. शैक्षणिक-भ्रमण,अत्याधुनिक उपकरणों व तकनीक से सम्पूर्ण संचार-क्षेत्र में सक्रिय प्रतिनिधित्व एवं अवसर उपलब्ध कर मुख्य धारा में लाना।
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संचार माध्यमों की भाषा

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संचार माध्यमों की भाषा

        अध्यक्ष, हिंदी विभाग,                                                          - डॉ. उत्तम पटेल
          वनराज कॉलेज, धरमपुर
संचार या संप्रेषण में भाषा मुख्य माध्यम है। बिना माध्यम के संचार असंभव है। भाषा वह पहला विकसित माध्यम है, जिसने संचार को व्यवस्था दी। माध्यम भाषा हो, चित्र हो या संगीत, वह माध्यम तभी माना जायेगा जब सूचना भेजनेवाला और सूचना पानेवाला-दोनों उसे समझें।
जन माध्यमों में भाषा का स्तर बदलता रहता है। इसमें हमें उनमें भाषा के अलग ढंग से लिखने, पढ़ने और बोलने की आवश्यकता होती है। भाषा के कुछ सूक्ष्म एवम् महत्वपूर्ण पक्ष हैं-1.प्रोक्ति  2. एकालाप  3.प्रत्यक्ष एवम् अप्रत्यक्ष कथन  और 4.सहप्रयोग।
1.प्रोक्ति (Discoures)- प्रोक्ति में प्र+उक्ति अर्थात् प्रकृष्ट उक्ति होती है। कोश के अनुसार प्रोक्ति के अर्थ हैं- विचारों का संप्रेषण (Communication of ideas), वार्तालाप (Conversation), सूचना (Information), विशेषतः बातचीत द्वारा, भाषण, एक औपचारिक एवम् व्यवस्थित लेख (Article)और किसी विषय का विस्तृत और औपचारिक विवेचन। उक्ति या उक्तियों का समुच्चय जब संदर्भ के साथ-साथ कोई संदेश भी संप्रेषित करता है, तो उसे प्रोक्तिकहते हैं। सामान्य उक्ति से साहित्य रचना को अलग करके दिखाने के लिए प्रोक्ति के साथ साहित्यिक विशेषण जोड़कर साहित्यिक प्रोक्तिशब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे-
1. चिड़िया उड़ती है।-                                           यह केवल वाक्य है।
2. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सदन                                   इस वाक्य में वक्ता, श्रोता
   में भरोसा दिलाया कि सरकार हर                         और परिवेश का संदर्भ है।
   मामले में पारदर्शित बनाये रखेगी,                                    इसलिए यह वाक्य उक्ति है।
   किसी के खिलाफ बदले की भावना
   से काम नहीं करेगी और दोषियों को
   किसी हालत में नहीं बख्शेगी।
3. वास्तव में जीवन सौंदर्य का आत्मा                       इस वाक्य में संदर्भ है। इसलिए यह कथन प्रोक्ति है।
   है, पर वह सामंजस्य की रेखाओं में                        इसमें संदेश है-1.जीवन सौंदर्य की आत्मा के समान होता है।
   जितनी मूर्तिमत्ता पाता है, उतनी                          2.वह सामंजस्य में ही सुंदर होता है। विषमता में नहीं।
   विषमता में नहीं।                                              इसलिए हमें जीवन में सामंजस्य रखना चाहिये।
 इस दृष्टि से किसी नाटक के संवाद, उपन्यास या उपन्यास का कोई अंश, कहानी, कविता आदि सब प्रोक्ति हैं। इसके लिए शर्त यह है कि प्रोक्ति कहलानेवाली संरचना वक्ता, श्रोता और परिवेश के संदर्भ तथा संदेश से युक्त होनी चाहिये। यदि ऐसा नहीं है तो वह केवल वाक्य है।
संक्षेप में, संदेशयुक्त संरचना प्रोक्ति है। यानी संदेश प्रेषित करनेवाली संदर्भयुक्त उक्ति को प्रोक्ति कहते हैं। प्रोक्ति की रचना पूरी तरह व्याकरण संमत भी हो सकती है और व्याकरण का अतिक्रमण करनेवाली भी। साहित्यिक प्रोक्ति में व्याकरण द्वारा अनुमोदित संरचना से भिन्न तरह की संरचना मिलती है। इस प्रकार की प्रोक्तियाँ धारावाहिक की पट-कथा, नाट्य-लेखन, वृत्तचित्र (ड्रोक्यूमेंट्री) की कमेंटरी आदि लिखने में प्रयुक्त होती हैं। समाचार-लेखन में इनका प्रयोग बहुत कम होता है। समाचारों में उक्ति का प्रयोग सर्वाधिक होता है।
2.संलाप-भाषा के व्यवहार में कम से कम दो व्यक्त होते हैं-एक वक्ता और दूसरा श्रोता। इन के बीच भाषा के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान होता है। संलाप में वक्ता उत्तम पुरूष एकवचन होता है और श्रोता मध्यम पुरूष, किन्तु यह स्थिति बदलती रहती है। वक्ता के कथन का उत्तर देते समय पहले जो श्रोता होता है, वह वक्ता बन जाता है और वक्ता श्रोता बन जाता है।
संलाप में हिस्सा लेनेवालों में माध्यम रूप में एक ही भाषा होनी चाहिये और उसकी जानकारी उन्हें हो, यह जरूरी है। वरना संलाप (बातचीत) नहीं होगा। इसी प्रकार उस भाषा के व्याकरण, वाक्य-विन्यास आदि का ज्ञान दोनों पक्षों का होना चाहिये।
संलाप के वाक्य एकार्थी, बहुअर्थी या व्यंग्यार्थक हो सकते हैं। वाक्य पूर्ण, स्पष्ट अर्थ व्यक्त करनेवाले होने चाहिये। कभी-कभी अधूरे वाक्य भी होते हैं, जो संलाप का आशय स्पष्ट कर देते हैं। संलाप मौखिक और लिखित दोनों रूपों में होते हैं। मैखिक संलाप में संकेत, मुखमुद्रा, हाथों का संचालन आदि संदेश को व्यक्त करने में सहायक होते हैं। लिखित संलाप में मुखमुद्रा, स्वर संकेत आदि का निर्देश नाट्य-लेखक कोष्ठकों में कर देता है। ताकि अभिनय के समय अभिनेता उसी के अनुसार मौखिक संलाप बोले। जैसे-
माधवः शेखर!!
शेखरः (चौंककर) कौन?ओह!माधव!
(उठ कर माधव की ओर बढ़ता है।)
माधवः क्या कर रहे हो, शेखर?
शेखरः यहाँ आओ माधव, यहाँ। (उसके कंधों को पकड़कर, तख्त पर बिठाता हुआ।)(जगदीशचंद्र माथुर के 'भोर का तारा'एकांकी से)
संलाप दो प्रकार के होते हैं- 1. गत्यात्मक और 2. स्थिर।
गत्यात्मक संलापमें वक्ता और श्रोता समान रूप से हिस्सेदार होते हैं। इसमें वक्ता उत्तम पुरूष एकवचन होता है और श्रोता मध्यम पुरूष. किन्तु यह स्थिति बदलती रहती है। वक्ता के कथन का उत्तर देते समय पहले जो श्रोता होता है, वह वक्ता बन जाता है और वक्ता श्रोता बन जाता है।इस में संलाप एक दिशा में गतिशील होता है और वह कथनसूत्रों से जुड़ा रहता है। इसका मूल कारण यह है कि इसमें प्रथम वक्ता का कथन श्रोता को उत्तर देने के लिए प्रेरित करता है। फिर उत्तर का प्रत्युत्तर देने के लिए प्रथम वक्ता तैयार होता है। इसमें दोनों के कथनों से संदेश व्यक्त होता है।
स्थिर संलापमें वक्ता के खथन मुख्य होते हैं, श्रोता की प्रतिक्रिया गौण। क्योंकि इसमें वक्ता अपनी बात श्रोता की अनुपस्थिति में  करता है अथवा तो श्रोता मूक बनकर सुनता रहता है और श्रोता की बात से हाँ या ना में सहमति या असहमति जता सकता है। ऐसे संलाप नीरस होते हैं। भाषण या शिक्षण आदि में ऐसे संलाप होते हैं।
3.एकालाप-इसमें वक्ता और श्रोता का अस्तित्व एक में ही समाहित हो जाता है। एक व्यक्ति ही वक्ता होता है, संबोधन करता है और वही श्रोता होता है। अर्थात् संबोधक और संबोधित दोनों वही होता है। एकालाप अधिकतर भावावेश, उलझन या मानसिक संताप की स्थिति में होता है। इसमें वक्ता कभी-कभी मुझे, मैंने, मेरा, तुझे, तेरा, तुमने कहकर या अपना नाम लेकर भी अपने आप से कुछ कहता रहता है। एकालाप में वाक्य अधिकतर अधूरे होते हैं, फिर भी वक्ता आशय समझ में आ जाता है। भावावेश के कारण एकालाप की भाषा में विचलन की प्रवृति आ जाती है. इससे व्यक्ति के मन की पूरी तस्वीर सामने आ जाती है। उसमें बनावटीपन नहीं होता। नाटकों और फिल्मों में एकालाप का विशेष महत्व होता है। इसे स्वगत कथन भी कहते हैं। इसके भी दो प्रकार हैं- 1.गत्यात्मक और 2.स्थिर।  
गत्यात्मक में वक्ता स्वयं ही प्रश्न करता हौ और उत्तर भी स्वयं ही देता है। जिससे उसमें गति उत्पन्न होती है। स्थिर एकालाप में वक्ता की विचारधारा किसी एक ही घटना पर या किसी एक ही बात पर केन्द्रित रहती है।
4.प्रत्यक्ष एवम् अप्रत्यक्ष कथन- जब किसी पात्र के कथन जैसे के तैसे "  "  चिह्नों में लिखे जाते हैं या उसे ज्यों के त्यों दुहराये जाते हैं तो उन कथनों को प्रत्यक्ष कथन कहा जाता है। इस प्रकार के कथनों में अपनी ओर से कोई परिवर्तन नहीं किया जाता, वह ठीक वैसा ही रहता है, जैसा  मूल रूप में पात्र द्वारा कहा गया होता है। ऐसे कथनों को वार्तालाप या संवाद भी कहते हैं। प्रत्यक्ष कथन के ढंग में  "  "   में लिखे वार्तालाप वाक्य के पहले जोडे़ जाने वाले वाक्य को अधिवाक्य कहते हैं। जैसे- उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि " मैंने केन्द्रीय जाँच ब्यूरो का कभी किसी के खिलाफ दुरूपयोग नहीं किया।... "   इसमें उन्होंने यह भी स्पष्ट किया किअधिवाक्य है। और " मैंने केन्द्रीय जाँच ब्यूरो का कभी किसी के खिलाफ दुरूपयोग नहीं किया।... " - प्रत्यक्ष कथन है।
अधिवाक्य प्रधान वाक्य की भूमिका निभाता है और वाक्य की मानसिकता या उसकी वृत्ति को भी उजागर करता है। टेलीविज़न में वक्ता की मानसिकता या वृत्ति या मनोभाव उसके चेहरे पर प्रत्यक्ष रूप में उभर कर सामने आ जाते हैं। तब कैमरामेन उन मनोभावों को पकड़ने में विशेष रूचि लेता है। जिससे दर्शकों को पात्र की झल्लाहट, मुस्कान, क्रोध, दृढ़ता, निश्चिंतता, चिन्ता, निराशा, लापरवाही आदि को दिखा देता है।
प्रत्यक्ष कथन के विपरीत अप्रत्यक्ष कथनभी होते हैं। जो ज्यों-के-त्यों नहीं लिखे जाते बल्कि हम उन्हें अपने शब्दों में लिखते हैं। इसमें यह ध्यान में रखा जाता है कि ऐसा करते हुए कही हुई बात का तथ्य विकृत न हो जाये। जैसे- सवालों के जवाब में डॉ.मनमोहन सिंह ने विश्वास दिलाया कि यह सरकार चलेगी क्योंकि राष्टपति जी ने डीएमके से लिखित आश्वासन ले लेने के बाद ही बाद ही वर्तमान सरकार के गठन की मंजूरी दी है।
अप्रत्यक्ष कथन में यह ध्यान में रखना होता है कि कथन के प्रारंभ में या कहीं और उन पात्रों का नाम आ जाना चाहिए जिनके विषय में बात कही जा रही है, आगे चलकर उनके लिए सर्वनामों का प्रयोग किया जाता है। सामान्यतः अन्य पुरूष में लिखी गई रचनाओं में अप्रत्यक्ष कथन विधि का प्रयोग किया जाता है। जैसे तेलंगाना मुद्दे पर गठित पाँच सदस्यीय न्यायमूर्ति बी.एन. श्रीकृष्ण समितिने गुरूवार को केन्द्रीय गृहमंत्री पी.चिदंबरम्को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। चिदंबरम्ने कहा कि सरकार इस मुद्दे पर समुचित निर्णय करने से पहले सभी राजनीतिक दलों के साथ विचार विमर्श करेगी। उन्होंने कहा कि सरकार रिपोर्ट पर सतर्कता के साथ विचार विमर्श करेगी।
5. सहप्रयोग-हर शब्द का, हर किसी दूसरे शब्द के साथ प्रयोग नहीं होता या नहीं किया जाता। परंपरा, अर्थ संगति आदि शब्दों के सहप्रयोग को नियंत्रित करते हैं। शब्दों के सह-प्रयोग को उस भाषा विशेष के भाषायी समाज की स्वीकृति प्राप्त होती है। विविध शब्दों के एक-दूसरे के साथ प्रयुक्त होने की विधि को सहप्रयोग कहते हैं। सहप्रयोग का संबंध शब्दों के उचित प्रयोग से है। सहप्रयोग में संगति-असंगति, औचित्य-अनौचित्य का विचार किया जाता है। किसी भाषा में अन्य भाषाओं के शब्दों के आ जाने से, उनके मिश्रण में सहप्रयोग दिखाई देता है.। हिंदी में ऐसे बहुत सारे सहप्रयोग मिलते हैं जो व्याकरण की दृष्टि से अटपटे लगते हो, किन्तु व्यवहार में बेहिचक चलते हैं। जैसे टिकटघर, कंप्यूटीकरण। विशेष रूप से व्यंग्य उभारने के लिए या हास्य की सृष्टि के लिए कई बार अटपटे सहप्रयोग किए जाते हैं। 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा'का जेठालाल इसका सुंदर उदाहरण है। जो हिंदी के साथ गुजराती शब्दों का सुंदर सहज प्रयोग कर दर्शक को हँसा देता है।सहप्रयोग में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
1.सहप्रयोग अर्थ की दृष्टि से संगत हो। 2.सहप्रयोग करते समय जहाँ तक संभव हो एक ही भाषा के शब्दों को चुनना चाहिए।
3.सहप्रयोग उस भाषा-भाषी समाज में प्रचलित हो।
4.अन्य भाषाओं के शब्दों के सहप्रयोग के समय यह सावधानी बरतनी चाहिए कि दोनों भाषाओं की संरचना में साम्य हो।

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जनसंचार माध्यम और लेखन

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अभिव्यक्ति और माध्यम
जनसंचार माध्यम और लेखन
जनसंचार माध्यम
.संचार:
 सूचनाओं, विचारों और भावनाओं का लिखित, मौखिक या दृश्य-श्रव्य माध्यमों के जरिये सफ़लता पूर्वक आदान-प्रदान करना या एक जगह से दूसरी जगह पहुँचना संचार है। इस प्रक्रिया को संपन्न करने में सहयोगी तरीके तथा उपकरण संचार के माध्यम कहलाते हैं।
.जनसंचार:
 प्रत्यक्ष संवाद के बजाय किसी तकनीकी या यान्त्रिक माध्यम के द्वारा समाज के एक विशाल वर्ग से संवादकायम करना जनसंचार कहलाता है।
. जनसंचार के माध्यम:   अखबार, रेडियो, टीवी, इंटरनेट, सिनेमा आदि.
. जनसंचार की विशेषताएँ:
  • इसमें फ़ीडबैक तुरंत प्राप्त नहीं होता।
  • इसके संदेशों की प्रकृति सार्वजनिक होती है।
  • संचारक और प्राप्तकर्त्ता के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता।
  • जनसंचार के लिये एक औपाचारिक संगठन की आवश्यकता होती है।
  • इसमें ढ़ेर सारे द्वारपाल काम करते हैं।  
. जनसंचार के प्रमुख कार्य:
  • सूचना देना
  • शिक्षित करना
  • मनोरंजन करना
  • निगरानी करना
  • एजेंडा तय करना
  • विचार-विमर्श के लिये मंच उपलब्ध कराना
     प्रश्न-अभ्यास-
    १. संचार किसे कहते हैं ?
    २. संचार के भेद लिखिए ।
    ३. जनसंचार से क्या अभिप्राय है ?
    ४. संचार तथा जनसंचार में क्या अंतर है?
    ५.जनसंचार के प्रमुख माध्यमों के नाम लिखिए ।
    ६. जनसंचार की कौन-कौन सी विशेषताएँ हैं?
    ७. जनसंचार के प्रमुख कार्यों को लिखिए ।
     
पत्रकारिता के विविध आयाम 
.पत्रकारिता:
 ऐसी सूचनाओं का संकलन एवं संपादन कर आम पाठकों तक पहुँचना, जिनमें अधिक से अधिक लोगों की रुचि हो तथा जो अधिक से अधिक लोगों को प्रभावित करती होंपत्रकारिता कहलाता है।
.समाचार: समाचार किसी भी ऐसी ताजा घटना, विचार या समस्या की रिपोर्ट है,जिसमें अधिक से अधिक लोगों की  रुचि हो और जिसका अधिक से अधिक लोगों पर प्रभाव पड़ता हो ।
. समाचार के तत्त्वपत्रकारिता की दृष्टि से किसी भी घटना, समस्या व विचार को समाचार का रूप धारण करने के लिए उसमें  निम्न तत्त्वों में से अधिकांश या सभी का होना आवश्यक होता है:   नवीनता, निकटता, प्रभाव, जनरुचि, संघर्ष, महत्त्वपूर्ण लोग, उपयोगी जानकारियाँ, अनोखापन आदि ।
 डेडलाइन- समाचार माध्यमों के लिए समाचारों को कवर करने के लिये निर्धारित समय-सीमा को डेडलाइन कहते हैं।
 ९. संपादन :प्रकाशन के लिए प्राप्त समाचार सामग्री से उसकी अशुद्धियों को दूर करके पठनीय  तथा प्रकाशन योग्य बनाना संपादन कहलाता  है।
१०. संपादकीय:संपादक द्वारा किसी प्रमुख घटना या समस्या पर लिखे गए विचारत्मक लेख को, जिसे संबंधित समाचारपत्र की राय भी कहा जाता है, संपादकीय कहते हैं।संपादकीय किसी एक व्यक्ति का विचार या राय न होकर समग्र पत्र-समूह की राय होता है, इसलिए संपादकीय में संपादक अथवा लेखक का नाम नहीं लिखा जाता ।
११:पत्रकारिता के प्रमुख प्रकार:
    ()खोजी पत्रकारिता- जिसमें आम तौर पर सार्वजनिक महत्त्व के मामलोंजैसे, भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और गड़बड़ियों की गहराई से छानबीन कर सामने लाने की कोशिश की जाती है। स्टिंग ऑपरेशन खोजी पत्रकारिता का ही एक नया रूप है।
    () वाचडाग पत्रकारिता- लोकतंत्र में पत्रकारिता और समाचार मीडिया का मुख्य उत्तरदायित्व सरकार के कामकाज पर निगाह रखना है और कोई गड़बड़ी होने पर उसका परदाफ़ाश करना होता है, परंपरागत रूप से इसे वाचडाग पत्रकारिता कहते हैं।
    ()एडवोकेसी पत्रकारिता- इसे पक्षधर पत्रकारिता भी कहते हैं। किसी खास मुद्दे या विचारधारा के पक्ष में जनमत बनाने के लिए लगातार अभियान चलाने वाली पत्रकारिता को एडवोकेसी पत्रकारिता कहते हैं।
  ()पीतपत्रकारिता-पाठकों को लुभाने के लिये झूठी अफ़वाहों, आरोपों-प्रत्यारोपों, प्रेमसंबंधों आदि से संबंधि सनसनीखेज  समाचारों से संबंधित पत्रकारिता को पीतपत्रकारिता कहते हैं।
  ()  पेज थ्री पत्रकारिता- एसी पत्रकारिता जिसमें फ़ैशन, अमीरों की पार्टियों , महफ़िलों और जानेमाने लोगों के निजी जीवन  के बारे में बताया जाता है।
    प्रश्न-अभ्यास:
    . पत्रकारिता क्या है?
      .पत्रकारिता के विकास में कौन-सा मूल भाव सक्रिय रहता है?
         संकेत: जिज्ञासा का
    . समाचार किसे कहते हैं?
    . कोई घटना समाचार कैसे बनती है?
    . समाचार के तत्त्व लिखिए ।
    . डेड लाइन किसे कहते हैं?
    . संपादकीय क्या है?
    . संपादकीय पृष्ठ से आप क्या समझते हैं?
    . पत्रकारिता के किन्हीं दो भेदों के नाम लिखिए।
    १०. वॉचडॉग पत्रकारिता क्या है?
    ११. पीतपत्रकारिता से आप क्या समझते हैं?
    १२. पेज-थ्री पत्रकारिता किसे कहते हैं?

विभिन्न माध्यमों के लिए लेखन
  
 १.प्रमुख जनसंचार माध्यम- प्रिंट, टी०वी०, रेडियो और इंटरनेट
     () प्रिंट माध्यम (मुद्रित माध्यम)-
  • जनसंचार के आधुनिक माध्यमों में सबसे पुराना माध्यम है ।
  • आधुनिक  छापाखाने का आविष्कार जर्मनी के गुटेनबर्ग ने किया।
  • भारत में पहला छापाखाना सन १५५६ में गोवा में खुला, इसे ईसाई मिशनरियों ने धर्म-प्रचार की पुस्तकें छापने के लिए खोला था
  • मुद्रित माध्यमों के अन्तर्गत अखबार, पत्रिकाएँ, पुस्तकें आदि आती हैं ।
   मुद्रित माध्यम की विशेषताएँ:
  •   छपे हुए शब्दों में स्थायित्व होता है, इन्हें सुविधा अनुसार किसी भी प्रकार से पढा़ जा सकता है।
  •   यह  माध्यम लिखित भाषा का विस्तार है।
  •   यह चिंतन, विचार- विश्लेषण का माध्यम है।
    मुद्रित माध्यम की सीमाएँ 
  • निरक्षरों के लिए मुद्रित माध्यम किसी काम के नहीं होते।
  • ये तुरंत घटी घटनाओं को संचालित नहीं कर सकते।
  • इसमें स्पेस तथा शब्द सीमा का ध्यान रखना पड़ता है।
  • इसमें एक बार समाचार छप जाने के बाद अशुद्धि-सुधार नहीं किया जा सकता।
   मुद्रित माध्यमों में लेखन के लिए ध्यान रखने योग्य बातें:
  • भाषागत शुद्धता का ध्यान रखा जाना चाहिए।
  • प्रचलित भाषा का प्रयोग किया जाए।
  • समय, शब्द व स्थान की सीमा का ध्यान रखा जाना चाहिए।
  • लेखन में तारतम्यता एवं सहज प्रवाह होना चाहिए।
. रेडियो (आकाशवाणी) :
   रेडियो एक श्रव्य माध्यम है । इसमें शब्द एवं आवाज का मह्त्व होता है। रेडियो एक रेखीय माध्यम है। रेडियो समाचर की संरचना उल्टापिरामिड शैली पर आधारित होती है। उल्टापिरामिड शैली में समाचर को तीन भागों बाँटा जाता है-इंट्रो, बाँडी और समापन। इसमें तथ्यों को महत्त्व के  क्रम से  प्रस्तुत किया जाता है, सर्वप्रथम सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण तथ्य को तथा उसके उपरांत महत्त्व की दृष्टि से घटते  क्रम में तथ्यों  को रखा जाता   है। 
रेडियो समाचार-लेखन के लिए बुनियादी बातें :
  • समाचार वाचन के लियेर तैयार की गई कापी साफ़-सुथरी ओ टाइप्ड कॉपी  हो ।
  •   कापी को ट्रिपल स्पेस में टाइप किया जाना चाहिए।
  •   पर्याप्त हाशिया छोडा़ जाना चाहिए।
  •   अंकों को लिखने में सावधानी रखनी चाहिए।
  •   संक्षिप्ताक्षरों के प्रयोग से बचा जाना चाहिए।
.टेलीविजन(दूरदर्शन) : जनसंचार का सबसे लोकप्रिय  व सशक्त माध्यम है। इसमें ध्वनियों के साथ-साथ दृश्यों का भी  समावेश होता है। इसके लिए  समाचार  लिखते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि शब्द व पर्दे पर दिखने वाले दृश्य में समानता हो।
  टी०वी० खबरों के विभिन्न चरण :
   दूरदर्शन मे कोई भी सूचना निम्न चरणों या सोपानों को पार कर दर्शकों तक पहुँचती है -
    () फ़्लैश या ब्रेकिंग न्यूज () ड्राई एंकर () फ़ोन इन () एंकर-विजुअल () एंकर-बाइट () लाइव () एंकर-पैकेज
.इंटरनेट: संसार का सबसे नवीन व लोकप्रिय माध्यम है। इसमें जनसंचार के सभी माध्यमों के गुण समाहित हैं। यह जहाँ सूचना, मनोरंजन, ज्ञान और व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक सवादों के आदान-प्रदान के लिए  श्रेष्ठ माध्यम है, वहीं अश्लीलता, दुष्प्रचार  व गंदगी फ़ैलाने का भी जरिया है ।
   इंटरनेट पत्रकारिता : इंटरनेट पर समाचारों का प्रकाशन या आदान-प्रदान इंटरनेट पत्रकारिता कहलाता है। इंटरनेट पत्रकारिता दो रूपों में होती है। प्रथम- समाचार संप्रेषण के लिए नेट का प्रयोग करना । दूसरा- रिपोर्टर अपने समाचार को ई-मेल  द्वारा अन्यत्र भेजने  व  समाचार को संकलित करने  तथा  उसकी सत्यता, विश्वसनीयता सिद्ध करने तथा उसकी सत्यता,विश्वसनीयता सिद्ध करने के लिए करता है।
   इंटरनेट पत्रकारिता का इतिहास:
  विश्व-स्तर पर इंटरनेट पत्रकारिता का विकास निम्नलिखित चरणों में हुआ-
    () प्रथम चरण------- १९८२ से १९९२
    () द्वितीय चरण------- १९९३ से २००१
    () तृतीय चरण------- २००२ से अब तक
 भारत में इंटरनेट पत्रकारिता का पहला चरण १९९३ से तथा दूसरा चरण  २००३ से शुरू माना जाता है। भारत में सच्चे अर्थों में वेब पत्रकारिता करने वाली साइटें 'रीडिफ़ डॉट कॉम', इंडिया इफ़ोलाइन' व 'सीफ़ी' हैं । रीडिफ़ को भारत की पहली साइट कहा जाता है ।  वेब साइट पर विशुद्ध पत्रकारिता  शुरू करने का श्रेय  'तहलका डॉट्कॉम' को जाता है।
हिंदी में नेट पत्रकारिता 'वेब दुनिया' के साथ शुरू हुई। यह हिन्दी का संपूर्ण पोर्टल है।  प्रभा साक्षी  नाम का अखबार  प्रिंट रूप में न होकर सिर्फ़ नेट पर ही उपलब्ध है। आज पत्रकारिता के लिहाज से हिन्दी की सर्व श्रेष्ठ साइट बीबीसी की है, जो इंटरनेट के मानदंडों के अनुसार चल रही है। हिन्दी वेब जगत में 'अनुभूति', अभिव्यक्ति, हिन्दी नेस्ट, सराय आदि साहित्यिक पत्रिकाएँ भी अच्छा काम कर रही हैं।  अभी हिन्दी वेब जगत की सबसे बडी़ समस्या मानक की बोर्ड तथा फ़ोंट  की है ।  डायनमिक फ़ौंट  के अभाव के कारण हिन्दी की ज्यादातर साइटें खुलती ही नहीं हैं ।
    प्रश्न-अभ्यास:
      जनसंचार किसे कहते हैं?
      . जनसंचार के प्रमुख माध्यमों का उल्लेख कीजिए । 
      . जनसंचार का सबसे पुराना माध्यम कौन-सा है?
      . मुद्रण का प्रारंभ सबसे पहले किस देश में हुआ ?
      . आधुनिक छापाखाने का आविष्कार कहाँ, कब और किसने किया?
       ६. भारत मे पहला छापाखाना कब, कहाँ, किसने और किस उद्देश्य से खोला था?
      . डेड लाइन क्या होती है?
      . रेडियो किस प्रकार का माध्यम है?
      . रेडियो के समाचार किस शैली में लिखे जाते हैं?
      १०. समाचार-लेखन की सर्वाधिक लोकप्रिय शैली कौन-सी है?
      १२. इंट्रो किसे कहते हैं?
      १३. टेलीविजन, प्रिंट तथा रेडियो से किस प्रकार भिन्न है ?
      १४. 'नेट साउण्ड' किसे कहते हैं?
      १५. इंटरनेट प्रयोक्ताओं की लगातार वृद्धि के क्या कारण हैं?
      १५. इंटरनेट पत्रकारिता से आप क्या समझते हैं?
      १६. इंटरनेट पत्रकारिता के विकासक्रम को लिखिए ।
      १७. भारत में इंटरनेट पत्रकारिता का प्रारंभ कब से माना जाता है।
      १८. भारत में सच्चे अर्थों में वेब पत्रकारिता करने वाली साइटों के नाम लिखिए ।
      १९. इंटरनेट पर पत्रकारिता करने वाली भारत की पहली साइट कौ-सी है?
      २०.  भारत में वेबसाइट पर विशुद्ध पत्रकारिता करने का श्रेय किस साइट को जाता है?
      २१. उस अखबार का नाम लिखिए जो केवल नेट पर ही  उपलब्ध है?
      २२. हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ साइट कौन-सी है?
      २३.  नेट पर हिन्दी की कौन-कौन सी साहित्यिक पत्रिकाएँ उपलब्ध हैं?
      २४. हिन्दी वेब पत्रकारिता की समस्याओं को लिखिए
पत्रकारीय लेखन के विभिन्न रूप और लेखन प्रक्रिया
पत्रकारीय लेखन- समाचार माध्यमों मे काम करने वाले  पत्रकार अपने पाठकों  तथा श्रोताओं तक सूचनाएँ पहुँचाने के लिए लेखन के  विभिन्न रूपों का इस्तेमाल करते हैं, इसे ही पत्रकारीय लेखन कहते हैं। पत्रकरिता या पत्रकारीय लेखन के अन्तर्गत  सम्पादकीय, समाचार , आलेख, रिपोर्ट, फ़ीचर, स्तम्भ तथा कार्टून आदि आते हैं। पत्रकारीय लेखन का प्रमुख उद्देश्य है- सूचना देना, शिक्षित करना तथा मनोरंजन आदि करना। इसके कई प्रकार हैं यथा- खोज परक पत्रकारिता', वॉचडॉग पत्रकारिता और एड्वोकैसी पत्रकारिता आदि। पत्रकारीय लेखन का संबंध समसामयिक विषयों, विचारों व घटनाओं से है। पत्रकार को लिखते समय यह ध्यान रखना चाहिए वह सामान्य जनता के लिए लिख रहा है, इसलिए उसकी  भाषा सरल व रोचक होनी चाहिए। वाक्य छोटे व सहज हों। कठिन भाषाका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। भाषा को प्रभावी बनाने के लिए  अनावश्यक विशेषणों,जार्गन्स(अरचलित शब्दावली) और क्लीशे (पिष्टोक्ति, दोहराव) का प्रयोग नहीं होना चहिए।
पत्रकार के प्रकार--- पत्रकार तीन प्रकार के होते हैं ।१.  पूर्ण कालिक २. अंशकालिक (स्ट्रिंगर) ३.  फ़्रीलांसर या स्वतंत्र पत्रकार
 समाचर लेखन-- समाचार उलटा पिरामिड शैली में लिखे जाते हैं, यह समाचार लेखन की सबसे उपयोगी और लोकप्रिय शैली है। इस शैली का विकास अमेरिका में गृह यद्ध के दौरान हुआ। इसमें महत्त्वपूर्ण घटना  का वर्णन पहले प्रस्तुत किया जाता है, उसके बाद महत्त्व की दृष्टि से घटते क्रम में घटनाओं को प्रस्तुत कर समाचार का अंत किया जाता है। समाचार में इंट्रो, बॉडी और समापन के क्रम में घटनाएँ  प्रस्तुत की जाती हैं ।
 समाचार के छ: ककार- समाचार लिखते समय मुख्य रूप से छ: प्रश्नों- क्या, कौन, कहाँ, कब , क्यों और कैसे का उत्तर देने की कोशिश की जाती है। इन्हें समाचार के छ: ककार कहा जाता है। प्रथम चार प्रश्नों के उत्तर इंट्रो में तथा अन्य दो के उत्तर समापन से पूर्व बॉडी वाले भाग में दिए जाते हैं ।
फ़ीचरफ़ीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है ।
फ़ीचर लेखन का उद्देश्य: फ़ीचर का उद्देश्य मुख्य रूप से पाठकों को सूचना देना, शिक्षित करना तथा उनका मनोरंजन करना होता है।
फ़ीचर और समचार में अंतर:  समाचार में रिपोर्टर को अपने विचरों को डालने की स्वतंत्रता नहीं होती, जबकि फ़ीचर में लेखक को अपनी राय , दृष्टिकोण और भवनाओं को जाहिर करने का अवसर होता  है । समाचार उल्टा पिरामिड शैली में में लिखे जाते हैं, जबकि फ़ीचर लेखन की कोई सुनिश्चित शैली नहीं होती । फ़ीचर में समाचारों की तरह शब्दों की सीमा नहीं होती। आमतौर पर फ़ीचर, समाचार रिपोर्ट से बडे़ होते हैं । पत्र-पत्रिकाओं में प्राय: २५० से २००० शब्दों तक के फ़ीचर छपते हैं ।
विशेष रिपोर्ट: सामान्य समाचारों से अलग वे विशेष समाचार जो गहरी छान-बीन, विश्लेषण और व्याख्या के आधार पर प्रकाशित किये जाते हैं, विशेष रिपोर्ट कहलाते हैं ।
 विशेष रिपोर्ट के प्रकार:
(१)खोजी रिपोर्ट : इसमें अनुपल्ब्ध तथ्यों को गहरी छान-बीन  कर सार्वजनिक किया जाता है।
(२)इन्डेप्थ रिपोर्ट:  सार्वजानिक रूप से प्राप्त तथ्यों की गहरी छान-बीन कर उसके महत्त्वपूर्ण पक्षों को पाठकों के सामने लाया जाता है ।
(३) विश्लेषणात्मक रिपोर्ट : इसमें किसी घटना या समस्या का विवरण सूक्ष्मता के साथ विस्तार से दिया जाता है । रिपोर्ट अधिक विस्तृत होने पर कई दिनों तक किस्तों में प्रकाशित की जाती है ।
(४)विवरणात्मक रिपोर्ट : इसमें किसी घटना या समस्या को  विस्तार एवं बारीकी के साथ प्रस्तुत किया जाता है।
 विचारपरक लेखन : समाचार-पत्रों में समाचार एवं फ़ीचर के अतिरिक्त संपादकीय, लेख, पत्र, टिप्पणी, वरिष्ठ पत्रकारों व विशेषज्ञों के स्तम्भ छपते हैं । ये सभी विचारपरक लेखन के अन्तर्गत आते हैं ।
 संपादकीय : संपादक द्वारा किसी प्रमुख घटना या समस्या पर लिखे गए विचारत्मक लेख को, जिसे संबंधित समाचारपत्र की राय भी कहा जाता है, संपादकीय कहते हैं ।  संपादकीय किसी एक व्यक्ति का विचार या राय न होकर समग्र पत्र-समूह की राय होता है, इसलिए संपादकीय में संपादक अथवा लेखक का नाम नहीं लिखा जाता ।
स्तम्भ  लेखनएक प्रकार का विचारत्मक लेखन है । कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक अपने खास वैचारिक रुझान एवं लेखन शैली   के लिए जाने जाते हैं । ऐसे लेखकों की लोकप्रियता को देखकर समाचरपत्र उन्हें अपने पत्र में नियमित स्तम्भ - लेखन की जिम्मेदारी प्रदान करते हैं । इस प्रकार किसी समाचार-पत्र  में किसी ऐसे लेखक द्वारा किया गया विशिष्ट एवम नियमित लेखन जो अपनी विशिष्ट शैली एवम वैचारिक रुझान के कारण समाज में ख्याति प्राप्त हो, स्तम्भ लेखन कहा जाता है । 
संपादक के नाम पत्र : समाचार पत्रों में  संपादकीय पृष्ठ पर तथा पत्रिकाओं की शुरुआत में संपादक के नाम आए पत्र प्रकाशित किए जाते हैं । यह प्रत्येक समाचारपत्र का नियमित स्तम्भ होता है । इसके माध्यम से समाचार-पत्र अपने पाठकों को जनसमस्याओं तथा मुद्दों पर अपने विचार एवम  राय व्यक्त करने का अवसर प्रदान करता है ।
साक्षात्कार/इंटरव्यू:  किसी पत्रकार के द्वारा अपने समाचारपत्र में प्रकाशित करने के लिए, किसी व्यक्ति विशेष से उसके विषय में अथवा किसी विषय या मुद्दे पर किया गया प्रश्नोत्तरात्मक संवाद  साक्षात्कार कहलाता है ।
    प्रश्न-अभ्यास:
    १. पत्रकारीय लेखन किसे कहते हैं?
    २. पत्रकारीय लेखन के उद्देश्य लिखिए।
    ३. पत्रकार कितने प्रकार के होते हैं?
    ४. उल्टा पिरामिड शैली का विकास कब और क्यों हुआ?
    ५. समाचार के छ: ककार लिखिए ।
    ७. इंट्रो क्या है?
    ८. फ़ीचर किसे कहते हैं?
    ९. फ़ीचर किस शैली में लिखा जाता है?
    १०. फ़ीचर व समाचार में क्या अंतर है?
    ११. विशेष रिपोर्ट से आप क्या समझते हैं?
    १२. विशेष रिपोर्ट के भेद लिखिए।
    १३. इन्डेप्थ रिपोर्ट किसे कहते हैं?
    १४. विचारपरक लेखन क्या है ? तथा उसके अन्तर्गत किस प्रकार के लेख आते हैं?
    १५.संपादकीय में लेखक का नाम क्यों नहीं लिखा जाता ?
    १६. स्तम्भ लेखन क्या है ?
    १७. साक्षात्कार से क्या अभिप्राय है?
विशेष लेखन: स्वरूप और प्रकार 
विशेष लेखन किसी खास विषय पर  सामान्य लेखन से हट कर किया गया लेखन है । जिसमें  राजनीतिक, आर्थिक, अपराध, खेल, फ़िल्म,कृषि, कानून विज्ञान और अन्य किसी भी मत्त्वपूर्ण विषय से संबंधित विस्तृत सूचनाएँ प्रदान की जाती हैं ।
डेस्क : समाचारपत्र, पत्रिकाओं , टीवी और रेडियो चैनलों में अलग-अलग विषयों पर विशेष लेखन के लिए निर्धारित  स्थल को डेस्क कहते हैं। और उस विशेष डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों का भी अलग समूह होता है । यथा, व्यापार तथा  कारोबार के लिए अलग तथा खेल की  खबरों के लिए अलग डेस्क निर्धारित होता है ।
बीट : विभिन्न विषयों से जुडे़ समाचारों के लिए संवाददाताओं के बीच काम का विभाजन आम तौर पर उनकी दिलचस्पी और ज्ञान को ध्यान में रख कर किया जाता है। मीडिया की भाषा में इसे बीट कहते हैं ।
बीट रिपोर्टिंग तथा विशेषीकृत रिपोर्टिंग में अन्तर: बीट रिपोर्टिंग के लिए  संवाददाता में उस क्षेत्र के बारे में  जानकारी व दिलचस्पी का होना पर्याप्त है, साथ ही उसे  आम तौर पर अपनी बीट से जुडी़ सामान्य खबरें ही लिखनी होती हैं । किन्तु विशेषीकृत रिपोर्टिंग  में सामान्य समाचारों से आगे बढ़कर संबंधित विशेष क्षेत्र या विषय से जुडी़ घटनाओं, समस्याओं और मुद्दों  का बारीकी से विश्लेषण कर प्रस्तुतीकरण किया जाता है । बीट कवर करने वाले रिपोर्टर को संवाददाता तथा  विशेषीकृत रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर को विशेष संवाददाता कहा जाता है।
विशेष लेखन की भाषा-शैली: विशेष लेखन की भाषा-शैली सामान्य लेखन से अलग होती है। इसमें संवाददाता को संबंधित विषय की तकनीकी शब्दावली का ज्ञान होना आवश्यक होता है, साथ ही यह भी आवश्यक होता है कि वह पाठकों को उस शब्दावली से परिचित कराए जिससे पाठक रिपोर्ट को समझ सकें। विशेष लेखन की कोई निश्चित शैली नहीं होती ।
विशेष लेखन के क्षेत्र : विशेष लेखन के अनेक क्षेत्र होते हैं, यथा- अर्थ-व्यापार, खेल, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, कृषि, विदेश, रक्षा, पर्यावरण शिक्षा, स्वास्थ्य, फ़िल्म-मनोरंजन, अपराध, कानून व सामाजिक मुद्दे आदि ।
    प्रश्न-अभ्यास:
    १. विशेष लेखन क्या है?
    २. विशेष लेखन के क्षेत्र लिखिए।
    ४. डेस्क किसे कहते हैं?
    ५. बीट से आप क्या समझते हैं?
    ६.  बीट रिपोर्टिंग क्या है?
    ७. बीट रिपोर्टिंग तथा विशेषीकृत रिपोर्टिंग में क्या अंतर है?
    ८. विशेष संवाददाता किसे कहते हैं?
जन संचार मध्यम और  लेखन : मह्त्त्वपूर्ण पृष्टव्य अभ्यास प्रश्न:
१.विज्ञापन किसे कहते हैं ?
२. भारत में नियमित अपडेट साइटों के नाम बताइए।
३. दूरदर्शन पर प्रसारित समाचार किन-किन चरणों से होकर दर्शकों तक पहुँचते हैं?
४. मुद्रित माध्यम की सबसे बड़ी विशेषता क्या है?
५. कम्प्यूटर के लोकप्रिय होने का प्रमुख कारण बताइए।
६. इलेक्ट्रोनिक मीडिया क्या है?
७. पत्रकारिता के विकास में कौन-सा मूल्भाव सक्रिय रह्ता है?
८. समाचारपत्र में संपादक की भूमिका क्या होती है?
९. फ़ीचर में न्यूनतम व अधिकतम शब्दों की सीमा कितनी होनी चाहिए?
१०. फ़ीचर किस शैली में लिखा जाता है?
११. संपादन के किन्हीं दो सिद्धांतों को लिखिए।
१२. आडिएंस से आप क्या समझते हैं?
१३. कार्टून कोना क्या है?
१४. स्टिंग आपरेशन क्या है?
१५. ड्राई एंकर से क्या अभिप्राय है?
१६. ऑप-एड पृष्ठ किसे कहते हैं
१७. न्यूजपेग क्या है ?
१८. एफ़०एम० क्या है?
१९. अपडेटिंग से क्या अभिप्राय है?
२०. सीधा प्रसारण किसे कहते हैं?
आलेख/फ़ीचर/रिपोर्ट संबंधी प्रश्न-अभ्यास
१. निम्नलिखित विषयों पर आलेखलिखिए-
  • बढ़ती आबादी देश की बरबादी
  • सांप्रदायिक सद्भावना
  • कर्ज में डूबा किसान
  • आतंकवाद की समस्या
  • डॉक्टर हड़ताल पर मरीज परेशान
  • वर्तमान परीक्षा प्रणाली
२. निम्नलिखित विषयों पर फ़ीचर लिखिए:
  • चुनावी वायदे
  • महँगाई के बोझतले मजदूर
  • वाहनों की बढ़ती संख्या
  • वरिष्ठ नागरिकों के प्रति हमारा नजरिया
  • किसान का एक दिन
३. निम्नलिखित विषयों पर रिपोर्टतैयार कीजिए-
  • पूजा-स्थलों पर दर्शनार्थियों की अनियंत्रित भीड़
  • देश की महँगी होती व्यावसायिक शिक्षा
  • मतदान केन्द्र का दृश्य
  • आए दिन होती सड़क दुर्घटनाएँ
  • आकस्मिक बाढ़ से हुई जनधन की क्षति
निबंध-लेखन
निबंध-लेखन एक कला है,। इससे लेखक के ज्ञान की परख होती है। इसे लेखक के ज्ञान की कसौटी कह सकते हैं। निबंध एक प्रकार की बंधनहीन स्वच्छंद रचना होती है, किंतु उसकी भाषा, विचार एवम अभिव्यक्ति में कसावट की अपेक्षा रखी जाती है। इसके लिए शब्दों तथा समय की कोई सीमा नहीं होती किंतु परीक्षा में समय एवं शब्द-सीमा दोनों का ही ध्यान रखना आवश्यक होता है। सामान्यत: ५ अंक का निबंध लगभग २५० शब्दों में तथा १० अंक का निबंध लगभग ३५० शब्दों में लिखा जाना चाहिए। दिए गए विषयों में से अपनी रुचि तथा विशेषज्ञता के आधार पर विषय का चुनाव करें।
निबंध लिखते समय ध्यान देने योग्य सामान्य बातें-
  • निबंध प्रस्तावना, विषय-विस्तार एवम उपसंहार के क्रम में लिखें।
  • विषय का क्रमबद्ध ब्यौर प्रस्तुत करें।
  • निबंध दिए गए विषय के अनुरूप होना चहिए।
  • निबंध का प्रारंभ किसी काव्यांश, सूक्ति अथवा उद्धरण से करने पर निबंध की रोचकता बढ़ जाती है।
  • शुद्ध तथा रोचक विषयानुरूप भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए।
  • लेख साफ़-सुथरा, सुपाठ्य तथा सुन्दर हो।
    अभ्यास हेतु निबंध-
१. महानगरीय जीवन: अभिशाप या वरदान
२. आधुनिक शिक्षा पद्धति: गुण व दोष
३. विज्ञान-कला
४. बदलते जीवन मूल्य
५. नई शदी नया समाज
६. कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ
७.राष्ट्र निर्माण में युवा पीढ़ी का योगदान
८. इंटरनेट की दुनियाँ
९. पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं
१०. लोक्ततंत्र में मीडिया की भूमिका
पत्र-लेखन
विचारों, भावों, संदेशों एवं सूचनाओं के संप्रेषण के लिए पत्र सहज, सरल तथा पारंपरिक माध्यम है। पत्र अनेक प्रकार के हो सकते हैं, पर प्राय: परीक्षाओं में शिकायती-पत्र, आवेदन-पत्र तथा संपादक के नाम पत्र पूछे जाते हैं। इन पत्रों को लिखते समय निम्न बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए:
  • पत्र के स्वरूप (फ़ॉर्मेट) का ध्यान रखें ।
  • पत्र-  प्रेषक, दिनांक, प्रेषती, विषय, संबोधन, विषय-सामग्री, समापन, स्व-निर्देश व हस्ताक्षरके क्रम में लिखा जाना चाहिए।
  • भाषा शुद्ध, सरल, स्पष्ट, विषयानुरूप तथा प्रभावकारी होनी चाहिए।
अभ्यासार्थ प्रश्न:-
१.किसी दैनिक समाचार-पत्र के सम्पादक के नाम पत्र लिखिए जिसमें वृक्षों की कटाई रोकने के लिए सरकार का ध्यान आकर्षित किया गया हो।
२. हिंसा-प्रधान फ़िल्मों को देख कर बालवर्ग पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का वर्णन करते हुए किसी दैनिक पत्र के संपादक के नाम पत्र लिखिए।
३. अनियमित डाक वितरण की शिकायत करते हुए पोस्टमास्टर को पत्र लिखिए।
४. लिपिक पद हेतु विद्यिलय के प्राचार्य को आवेदन-पत्र लिखिए।
५. अपने क्षेत्र में बिजली संकट से उत्पन्न कठिनाइयों का वर्णन करते हुए अधिशासी अभियन्ता विद्युत बोर्ड को पत्र लिखिए।







Mahatma gandhi

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Mahatma Gandhi—Father of the Indian nation and the propounder of ahimsa and truth, was a seeker, environmentalist and humanist, in sum, a Mahatma or Great soul. He played a vital role in India`s struggle for independence from the British colonial role and his life and book, "The Story of My Experiments With Truth" continue to inspire many in their personal quest and in tackling greater issues.
 
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गाँधीजी एक संपादक के रूप में

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Gandhi Jayanti
यदि गाँधीजी राष्ट्रपिता न होते तो शायद इस शताब्दी के महानतम भारतीय संपादक होते। अपने छात्र काल से ही उन्हें लिखने व नाना प्रकार की ऐतिहासिक, साहित्यिक व अन्य विषयों की पुस्तकें पढ़ने का चाव था। उनके स्कूल व कॉलेज के लाइब्रेरियन उनसे खीझ जाते थे कि यह छात्र तो कहाँ-कहाँ से ढूँढकर पुस्तक सूचिका लाता है और किताबें माँगता है।

लिखने का चाव गाँधीजी को कितना अधिक था, इस बात का अनुमान ऐसे लगाया जा सकता है कि वे अपने दाएँ व बाएँ दोनों हाथों से लिखा करते थे। यही नहीं, वे समुद्र में हिचकोले लेते जहाज पर, चलती रेल में और पथरीले रास्ते पर चलती मोटर गाड़ियों में भी लिख लिया करते थे। लिखते-लिखते जब एक हाथ थक जाता था तो वे दूसरे हाथ से लिखना प्रारंभ कर देते थे।

1896 में जब गाँधीजी इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका जा रहे थे तो जहाज पर उन्होंने एक पुस्तक 'ग्रीन पैम्फ्लेट' की रचना की। इसी प्रकार जहाज में ही उन्होंने प्रसिद्ध पुस्तक 'हिन्द स्वराज' लिखी। जब बाएँ हाथ से लिखते तो अँगरेजी और दाएँ हाथ से लिखते तो गुजराती और उर्दू खूबसूरती से लिखा करते थे। लिखने की रफ्तार उनके चलने की रफ्तार से कहीं तेज होती। आवश्यकता पड़ने पर स्वयं टाइप भी कर लिया करते थे।

गाँधीजी जो पुस्तक पढ़ते थे, उनसे न केवल वे स्वयं सीखते थे बल्कि दूसरों को भी अच्छाई का संदेश देते थे क्योंकि उन पुस्तकों का निचोड़ वे अपने लेखन में भी देते थे। उनका पुस्तकें पढ़ने का एक उद्देश्य यह भी होता था कि उसको वे अपने संपादकीय लेखन में शामिल करें।

जो पुस्तकें उन्हें अत्यधिक पसंद थीं वे हैं- 'ड्यूटीज ऑफ मैन' (लेखक : मजीनी), 'ऑन द ड्यूटीज ऑफ सिविल डिसओबीडियन्स' (लेखक : एच.डी. थोरो), 'द की टू थियोसॉफी' (लेखिका : मादाम ब्लावाट्स्की), 'पॉवर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया' (लेखक : दादाभाई नौरोजी), 'द लाइट ऑफ एशिया' (लेखक : एडिवन आर्नल्ड) आदि। इन सभी विश्व विख्यात पुस्तकों का निचोड़ गाँधीजी ने एक बहुचर्चित पुस्तक 'कन्स्ट्रक्टिव प्रोग्राम' में दिया।

जो लेख या पुस्तकें गाँधीजी ने लिखीं उनमें कहीं भी संपादक द्वारा लाल निशान नहीं लगता था, न ही कोई तथ्य बदला जाता था। सर पेथिक लॉरेंस ने तो यह भी कह दिया था कि भारत में गाँधी से अच्छा अँगरेजी लेखक कोई नहीं है। उनकी यह विशेषता थी कि एक शब्द भी अपने कलम या मुख से बेवजह नहीं कहते थे। लिखते ऐसे थे मानो सामने बैठकर बात कर रहे हों। सर ए.वी. एलेक्जान्डर ने कहा था कि गाँधीजी के संपादकीय लेखों का एक-एक वाक्य 'थॉट फॉर द डे' के लिए मुनासिब था। हर वाक्य को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता था मानो दस-दस बार तौला गया हो।

उर्दू पत्रिका 'मखजिन' में मौलाना आजाद ने गाँधीजी के लेखन के बारे में लिखा है- 'मेरी तरह ही महात्मा साहब को भी लिखने की कभी न खत्म होने वाली भूख थी। गाँधीजी की बदकिस्मती यह थी कि इस कला को सियासत ने उस दर्जे तक नहीं उठने दिया जैसा कि चाहते थे। कितने ही लेख और पुस्तकें इस कारण गाँधीजी के कलम से पूर्ण न हो सके।'

मौलाना आजाद ने अपने एक अन्य पत्र में लिखा है कि गाँधीजी की अँगरेजी ड्राफ्टिंग ऐसी थी कि स्वयं अँगरेज पत्रकार और लेखक दाँतों तले उँगली दबा लेते थे। गाँधीजी के लिखने की यह हालत थीकि जब वे मध्य भारत के छोटे कस्बों और देहातों में बैलगाड़ियों में यात्रा कर रहे होते थे तो अपनी गुजराती पत्रिका का संपादन भी किया करते थे और राजनीति के दाँव-पेचों से भी निपटा करते थे। उनके पास इस पत्रिका की कई फाइलें होती थीं। रात को जब सबसो जाते थे तो दो-तीन बजे तक संपादन कार्य चलता था। सारा कार्य वे स्वयं करते, किसी की सहायता नहीं लेते।

सन्‌ 1904 में गाँधीजी ने 'इंडियन ओपीनियन' का संपादन संभाला। इसका उद्देश्य था दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को स्वतंत्र जीवन का महत्व समझाना। इसी के द्वारा उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का प्रचार भी प्रारंभ किया। 1906 में जोहानेसबर्ग कीजेल में उन्हें बंद कर दिया गया तो वहीं से उन्होंने अपना संपादन कार्य जारी रखा।

एक संपादकीय में गाँधीजी ने लिखा कि सत्याग्रह का नारा उन्होंने अमेरिकी लेखक एच.डी. थोरो से लिया, जिसमें थोरो ने अमेरिकी सरकार को बढ़ा हुआ चुंगी कर देने से इंकार कर दिया था और इसके लिए थोरो को जेल भी जाना पड़ा था। 'इंडियन ओपीनियन' के लिए गाँधीजी ने कभी चंदा नहीं लिया और न ही विज्ञापन स्वीकार किए। वे स्वयं अपनी वकालत की कमाई से पैसे बचाकर उसका प्रकाशन करते थे।

गाँधीजी को धार्मिक ग्रंथों व पुस्तकों से बड़ा लगाव था। 16 जनवरी 1918 को लिखे गए एक पत्र में उन्होंने मौलाना आजाद को लिखा कि धर्म के बिना किसी भी व्यक्ति का अस्तित्व पूर्ण नहीं है। उन्होंने सभी धार्मिक ग्रंथ अनुवाद सहित पढ़ रखे थे। गाँधीजी को उर्दू, अरबी और फारसी भी आती थी। बहुत कम लोगों को इस बात का ज्ञान था।

धार्मिक संदेशों व शिक्षा पर आधारित हिन्दी के प्राइमरी स्तर के बच्चों की नैतिक शिक्षा हेतु गाँधीजी ने एक पुस्तक रची- 'बाल पोथी'। इसके अतिरिक्त बच्चों के लिए 'नीति धर्म' नामक पुस्तक भी गाँधीजी द्वारा लिखी गई, जिसमें उनके द्वारा बच्चों को लिखे गए पत्र शामिल हैं। यहबात भी कम लोग जानते हैं कि गाँधीजी के जीवन से बच्चे इतने प्रभावित थे कि आए दिन उनको चिट्ठियाँ लिखते थे और गाँधीजी प्रत्येक बच्चे को अपने हाथ से जवाबी पत्र लिखते थे।

Gandhi Jayanti
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पत्रिकाओं के संपादन के अतिरिक्त महात्मा गाँधी एक दक्ष अनुवादक भी थे। रस्किन की विख्यात पुस्तक 'अन टू द लास्ट' का अनुवाद गाँधीजी ने गुजराती में किया और यह 'सर्वोदय' के नाम से प्रचलित हुआ। इसी प्रकार 'आश्रम भजनावली' का अनुवाद उन्होंने अँगरेजी में किया। ऐसेही जब गाँधीजी जेल में थे तो उन्होंने संस्कृत के कुछ जाने-माने श्लोकों का अनुवाद अँगरेजी में 'सांग्ज फ्रॉम द प्रिजन' के रूप में किया। वे जेल में ही बाइबल का भी गुजराती में अनुवाद करना चाहते थे मगर जेल से जल्दी छूटने के कारण यह कार्य संपन्न नहीं हो सका।

'यंग इंडिया' का संपादन जब गाँधीजी ने प्रारंभ किया तो यह बड़ा पसंद किया गया। लोगों ने जोर डाला कि इसका एक संस्करण गुजराती में भी प्रकाशित किया जाए। गाँधीजी ने जनता की इच्छा को सम्मान देते हुए गुजराती संस्करण को 'नवजीवन' का नाम दिया। यह तो इतना अधिक चला कि बाजार में आते ही हाथों-हाथ बिक जाता और इसके चाहने वाले दुकान-दुकान पर पूछते-ढूँढते फिरते।

'हरिजन' द्वारा भी गाँधीजी ने सामाजिक एकता व बराबरी का संदेश दिया। चूँकि इन समाचार पत्रों व पत्रिकाओं का उद्देश्य स्वतंत्रता संघर्ष भी था, अँगरेजों ने गाँधीजी को बड़ा कष्ट दिया मगर गाँधीजी ने भी यह सिद्ध कर दिया कि वे इस मैदान में भी किसी से कम नहीं थे।

90 % भारतीय मीडिया आज भी ईमानदार है- राजदीप सरदेसाई

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90 % भारतीय मीडिया आज भी ईमानदार है- राजदीप सरदेसाई

समाचार4मीडिया.कॉम ब्यूरो
मैं मानता हूं कि मीडिया खुद ही खुद ही चाहता है कि सनसनी बढ़े और आवाजें बड़ी हों, लेकिन मीडिया बिकाऊ है, यह आरोप सरासर गलत है। 90 प्रतिशत भारतीय मीडिया आज भी ईमानदार है और पेड नहीं है। भारतीय मीडिया के ऊपर लगने वाले आरोपों पर अपनी राय रखते हुए सीएनएन-आईबीएन के एडिटर-इन-चीफ राजदीप सरदेसाई ने बीएजी के मीडिया संस्थान आईजोम्स द्वारा आयोजित मीडिया फेस्ट में ‘भारतीय मीडिया क्या आम आदमी के साथ’ विषय पर अपनी राय रखते हुए कहा कि कई बार मैनेजमेंट हमें बिकाऊ बनाता है। उन्होंने कहा कि जर्नलिस्ट तो हमेशा अच्छी स्टोरी करना चाहता है, लेकिन अगर उसके हाथ में एक रेटकार्ड भी थमा दिया गया है कि इनते एडवरटीजमेंट तुम्हें लाने हैं तो उसका रास्ता तो वह तलाशेगा ही. उन्होंने कहा कि अगर यह बंदिश न हो पत्रकार हमेशा सच खोजता है, सनसनी नहीं।
इसी विषय पर अपनी बात रखते हुए दूरदर्शन के महानिदेशक त्रिपुरारी शरण ने कहा कि मीडिया सनसनी फैलाता ही क्यों है, क्या शांति से कही गई बात गंभीर नहीं होती? उन्होंने कहा कि कोलाहल का विरोध कोलाहल से नहीं शांति से होता है। एक संस्कृत उक्ति का जिक्र करते हुए महानिदेशक ने कहा कि स्वदेश पूज्यते राजा, विद्वानं सवर्त्र पूज्यते। अब आपको तय करना है कि आप राजा बनना चाहते हैं जिसे एक सीमित स्थान में सम्मान मिलता है या फिर विद्वान जिसे पूरे समाज में इज्जत मिलती है. उन्होंने कहा कि आज ऐसी स्थिति क्यों पैदा हो गई है कि जब आपसे पूछा जाए कि आपका आदर्श पत्रकार कौन है तो कोई नाम नहीं सूझता। त्रिपुरारी शरण ने उपस्थित छात्रों से कहा कि बहाव हर जमाने में आता है उसमें बहने से खुद को बचाइए
इसी क्रम में नेशनल दुनिया के प्रधान संपादक आलोक मेहता ने कहा कि मीडिया वही नहीं जो केवल दिल्ली में दिखे, मीडिया के लिए खबरें पूर्वोत्तर में भी हैं और दूसरे छोटे राज्यों में भी. उन्होंने छात्रों से कहा कि मीडिया ग्लैमर नहीं है, और मीडिया केवल टीवी नहीं है. अगर आप धैर्य के साथ काम करेंगे तो अंडमान में रहकर भी अच्छी स्टोरी करेंगे और बेहतर गुजारा कर लेंगे।
नोट: समाचार4मीडिया देश के प्रतिष्ठित और नं.1 मीडियापोर्टल एक्सचेंज4मीडिया का उपक्रम है। समाचार4मीडिया.कॉम में हम आपकी राय और सुझावों की कद्र करते हैं। आप अपनी राय, सुझाव और ख़बरें हमें mail2s4m@gmail.com पर भेज सकते हैं या 09899147504/ 09911612929 पर संपर्क कर सकते हैं।

पत्रकार बनने की न्यूनतम योग्यता

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समाचार4म़ीडिया.कॉम ब्यूरो
उचित योग्यता के अभाव की वजह से देश में खबरों की गुणवत्ता प्रभावित होने की बात कहते हुए भारतीय प्रेस परिषद (पीसीआई) के अध्यक्ष न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्‍त) मार्कण्डेय काटजू ने पत्रकार बनने के लिए जरूरी न्यूनतम योग्यता की सिफारिश करने के लिए एक समिति गठित की है।
पीसीआई के सदस्य श्रवण गर्ग और राजीव सबादे के अलावा पुणे विश्वविद्यालय के संचार एवं पत्रकारिता विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. उज्ज्वला बर्वे को समिति में शामिल किया गया है। पीसीआई अध्यक्ष ने यहां जारी एक बयान में कहा कि पिछले कुछ समय से यह महसूस किया जा रहा था कि पत्रकारिता के पेशे में आने के लिए कुछ न्यूनतम योग्यता तय होनी चाहिए।
काटजू ने कहा, वकालत के पेशे में एलएलबी की डिग्री के साथ बार काउंसिल में पंजीकरण जरूरी होता है। इसी तरह मेडिकल पेशे में एमबीबीएस होना जरूरी योग्यता है और साथ में मेडिकल काउंसिल में पंजीकरण भी कराना होता है। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ने कहा कि शिक्षक बनने के लिए भी शैक्षणिक प्रशिक्षण प्रमाण पत्र या डिग्री जरूरी होती है। बाकी पेशे में भी कुछ ऐसा ही होता है, लेकिन पत्रकारिता के पेशे में प्रवेश के लिए कोई योग्यता तय नहीं है।
काटजू ने कहा, लिहाजा इस पेशे में अक्सर ऐसे लोग चले आते हैं, जिन्हें पत्रकारिता में बहुत कम या अपर्याप्त प्रशिक्षण मिला है। इससे नकारात्मक असर होता है, क्योंकि ऐसे अप्रशिक्षित लोग प्राय: पत्रकारिता के उच्च मानदंडों को बरकरार नहीं रखते। उन्होंने कहा कि इसलिए पिछले कुछ समय से महसूस किया जा रहा था कि पत्रकारिता के पेशे में आने के लिए कानूनी तौर पर कोई योग्यता निर्धारित हो। काटजू ने कहा कि लोगों की जिंदगी पर मीडिया का बहुत अहम प्रभाव होता है और अब वक्त आ गया है कि जब कानून में कोई योग्यता तय हो।
पीसीआई अध्यक्ष ने कहा कि उनकी ओर से गठित समिति सभी पहलुओं पर विचार करेगी और जल्द से जल्द अपनी रिपोर्ट देगी। काटजू ने कहा, रिपोर्ट मिलने पर मैं उसे पूरी प्रेस परिषद के सामने रखूंगा और मंजूरी मिलने के बाद इसे सरकार के पास भेजूंगा ताकि इस बाबत उचित कानून बने। उन्होंने कहा कि केंद्र एवं सभी राज्य सरकारों तथा पत्रकारिता विभागों और संस्थानों से अनुरोध किया गया है कि वे समिति को पूरा सहयोग करें। (भाषा)

हस्तक्षेप A TO Z

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दीपक चौरसिया को सबक सिखाया काटजू ने

रणधीर सिंह सुमन
इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया द्वारा प्रसारित साक्षात्कारों को देखने से पता चलता है कि टी.वी. समाचार चैनल्स के एंकर शालीनता की सारी सीमायें तोड़ते हुये सम्बंधित साक्षात्कार देने वाले को बेइज्जत करते रहते हैं और वह व्यक्ति बेइज्जत होने के बाद भी इन एंकरों से पंगा नहीं लेता है।
उसी तरह से आज प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इण्डिया के चेयरमैन जस्टिस मार्कण्डेय काटजूका साक्षात्कार इंडिया न्यूज़ के एंकर दीपक चौरसिया ने टेलीकास्ट करना शुरू किया। साक्षात्कार पहले दौर में तो अच्छे तरीके से चला किन्तु दीपक चौरसिया की टिप्पणी पर जस्टिस मार्कण्डेय काटजू भारी पड़े।जस्टिस मार्कण्डेय काटजू से जैसे ही दीपक चौरसिया ने कहा कि आप अधूरा सच कहते हैं।जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा कि आरोप मत लगाइये। इंटरव्यू  समाप्त। मिसबिहेव मत करिये। आप आधा सच और आधा झूठ, इस तरह की बेवकूफी की बातें कर रहे हैं। बिहेव करना सीखिये। आप मुझसे बहुत छोटे हैं। आपने आधा सच कहकर मेरे ऊपर आरोप लगाया है। मुझे माफ़ कर दीजिये और जाइये गेट आउट।तब से इंडिया न्यूज़ ने पद की गरिमा और भाषा की मर्यादा को लेकर हल्ला मचाना शुरू कर दिया है।
एंकर होने का मतलब यह नहीं है कि आप जिस तरीके से चाहें आरोप-प्रत्यारोप करते रहें और सम्बंधित आदमी चुप रहे। जस्टिस

रणधीर सिंह सुमन, लेखक जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ता, अधिवक्ता और हस्तक्षेप.कॉम के सह सम्पादक हैं
मार्कण्डेय काटजूने दीपक चौरसियाको सबक देते हुये इलेक्ट्रॉनिक चैनलकी असली हैसियत बता दी है।
वास्तव में देखा जाये तो जब ये मल्टीनेशनल कम्पनियों के सीईओ, उद्योगपतियोंआदि से एंकर इंटरव्यू लेते हैं तो इनकी भाषा शैली बड़ी शालीन होती है क्योंकि सम्बंधित चैनल को उनसे कुछ न कुछ उम्मीद जरूर होती है लेकिन राजनेताओं, अधिकारियों से चाहे जिस तरीके से बात करो। उनसे हर तरीके की सुविधायें भी लो और गुर्राओ भी। इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स समाज के प्रति जिम्मेदारी कम महसूस करते हैं और टीआरपी को बढ़ाने के प्रति ज्यादा उत्साहित रहते हैं। इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स के छोटे-छोटे कर्मचारी गाँव-देहात से लेकर राजधानी तक गुर्राने के अतिरिक्त काम कम करते हैं।शालीनता, शिष्टाचार इन्हें छू नहीं गया है। इस घटना से सभी इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स को सबक लेना चाहिये। जिसका वह साक्षात्कार ले रहे हैं। उस पर आरोप नहीं लगाना चाहिये बल्कि उसकी बात को का प्रेषण करना चाहिये।

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Posted by on 19/02/2013. Filed under लोकसंघर्ष. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0. You can leave a response or trackback to this entry

2 Responses to दीपक चौरसिया को सबक सिखाया काटजू ने

  1. neeraj
    इसमें कोई दो-राय नहीं , कि, इलेक्ट्रौनिक मीडिया में दीपक चौरसिया बाजारू और बिकाऊ पत्रकार की श्रेणी में पहले नंबर पर है ! ये इंसान , पैसा लेकर किसी के भी पक्ष और विरोध में हवा बनाना शुरू कर देता है ! अफ़सोस इस बात कि , मीडिया हाउस वाले ऐसे बिकाऊ और बाजारू पत्रकार को खरीद लेते हैं और अपनी मर्जी के मुताबिक भाषा बुलवाते हैं ! दीपक जैसे पत्रकार , पैसा लेकर देश से ही गद्दारी ना कर बैठे , ईश्वर से बस यही प्रार्थना है ! आज दीपक जैसे पत्रकारों का हर तरफ से सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए , मगर अफ़सोस है कि बहिष्कृत होने की बजाय ऐसे एजेंट दिन-पर-दिन और ऊपर बढ़ते जा रहे हैं ! मीडिया हाउस चलाने वालों को अब आत्म-मंथन करना चाहिए कि लोकतंत्र का चौथा खम्बा माना जाने वाला मीडिया, दीपक जैसे बिकाऊ और बाजारू पत्रकारों की भेंट चढ़ जाएगा या बचा रहेगा ?
  2. Dhananjay Kumar
    सही है…

इंडिया टु़डे / jan 2013

नीम हकीम खतरे जान

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Ajitsinh Jagirdar shared Sanju Verma's photo.
भगवान न करे कि आपको कभी जिंदगी मे heart attack आए !लेकिन अगर आ गया तो आप जाएँगे डाक्टर के पास !  और आपको मालूम ही है एक angioplasty आपरेशन आपका होता है ! angioplasty आपरेशन मे डाक्टर दिल की नली मे एक spring डालते हैं ! उसको stent कहते हैं ! और ये stent अमेरिका से आता है और इसका cost of production सिर्फ 3 डालर का है ! और यहाँ लाकर  लाखो रुपए मे बेचते है आपको !    आप इसका आयुर्वेदिक इलाज करे बहुत बहुत ही सरल है ! पहले आप एक बात जान ली जिये ! angioplasty आपरेशन कभी किसी का सफल नहीं होता !! क्यूंकि डाक्टर जो spring दिल की नली मे डालता है !! वो spring बिलकुल pen के spring की तरह होता है ! और कुछ दिन बाद उस spring की दोनों side आगे और पीछे फिर blockage जमा होनी शुरू हो जाएगी ! और फिर दूसरा attack आता है ! और डाक्टर आपको फिर कहता है ! angioplasty आपरेशन करवाओ ! और इस तरह आपके लाखो रूपये लुट जाते है और आपकी ज़िंदगी इसी मे निकाल जाती है ! ! !  अब पढ़िये इसका आयुर्वेदिक इलाज !! ______________________ हमारे देश भारत मे 3000 साल एक बहुत बड़े ऋषि हुये थे उनका नाम था महाऋषि वागवट जी !! उन्होने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम है अष्टांग हृदयम!! और इस पुस्तक मे उन्होने ने बीमारियो को ठीक करने के लिए 7000 सूत्र लिखे थे ! ये उनमे से ही एक सूत्र है !!  वागवट जी लिखते है कि कभी भी हरद्य को घात हो रहा है ! मतलब दिल की नलियो मे blockage होना शुरू हो रहा है ! तो इसका मतलब है कि रकत (blood) मे acidity(अमलता ) बढ़ी हुई है !  अमलता आप समझते है ! जिसको अँग्रेजी मे कहते है acidity !!  अमलता दो तरह की होती है ! एक होती है पेट कि अमलता ! और एक होती है रक्त (blood) की अमलता !! आपके पेट मे अमलता जब बढ़ती है ! तो आप कहेंगे पेट मे जलन सी हो रही है !! खट्टी खट्टी डकार आ रही है ! मुंह से पानी निकाल रहा है ! और अगर ये अमलता (acidity)और बढ़ जाये ! तो hyperacidity होगी ! और यही पेट की अमलता बढ़ते-बढ़ते जब रक्त मे आती है तो रक्त अमलता(blood acidity) होती !!  और जब blood मे acidity बढ़ती है तो ये अमलीय रकत (blood) दिल की नलियो मे से निकल नहीं पाता ! और नलिया मे blockage कर देता है ! तभी heart attack होता है !! इसके बिना heart attack नहीं होता !! और ये आयुर्वेद का सबसे बढ़ा सच है जिसको कोई डाक्टर आपको बताता नहीं ! क्यूंकि इसका इलाज सबसे सरल है !!  इलाज क्या है ?? वागबट जी लिखते है कि जब रकत (blood) मे अमलता (acidty) बढ़ गई है ! तो आप ऐसी चीजों का उपयोग करो जो छारीय है !  आप जानते है दो तरह की चीजे होती है !  अमलीय और छारीय !! (acid and alkaline )  अब अमल और छार को मिला दो तो क्या होता है ! ????? ((acid and alkaline को मिला दो तो क्या होता है )?????  neutral होता है सब जानते है !! _____________________ तो वागबट जी लिखते है ! कि रक्त कि अमलता बढ़ी हुई है तो छारीय(alkaline) चीजे खाओ ! तो रकत की अमलता (acidity) neutral हो जाएगी !!! और फिर  heart attack की जिंदगी मे कभी संभावना ही नहीं !! ये है सारी कहानी !!  अब आप पूछोगे जी ऐसे कौन सी चीजे है जो छारीय है और हम खाये ????? _________________   आपके रसोई घर मे सुबह से शाम तक ऐसी बहुत सी चीजे है जो छारीय है ! जिनहे आप खाये तो कभी heart attack न आए !   सबसे ज्यादा आपके घर मे छारीय चीज है वह है लोकी !!  english मे इसे कहते है bottle gourd !!! जिसे आप सब्जी के रूप मे खाते है ! इससे ज्यादा कोई छारीय चीज ही नहीं है ! तो आप रोज लोकी का रस निकाल-निकाल कर पियो !! या कच्ची लोकी खायो !!  स्वामी रामदेव जी को आपने कई बार कहते सुना होगा लोकी का जूस पीयों- लोकी का जूस पीयों ! 3 लाख से ज्यादा लोगो को उन्होने ठीक कर दिया लोकी का जूस पिला पिला कर !! और उसमे हजारो डाक्टर है ! जिनको खुद heart attack होने वाला था !! वो वहाँ जाते है लोकी का रस पी पी कर आते है !! 3 महीने 4 महीने लोकी का रस पीकर वापिस आते है आकर फिर clinic पर बैठ जाते है !  वो बताते नहीं हम कहाँ गए थे ! वो कहते है हम न्योर्क गए थे हम जर्मनी गए थे आपरेशन करवाने ! वो राम देव जी के यहाँ गए थे ! और 3 महीने लोकी का रस पीकर आए है ! आकर फिर clinic मे आपरेशन करने लग गए है ! और वो आपको नहीं बताते कि आप भी लोकी का रस पियो !!  तो मित्रो जो ये रामदेव जी बताते है वे भी वागवट जी के आधार पर ही बताते है !! वागवतट जी कहते है रकत की अमलता कम करने की सबे ज्यादा ताकत लोकी मे ही है ! तो आप लोकी के रस का सेवन करे !!  कितना करे ????????? रोज 200 से 300 मिलीग्राम पियो !!  कब पिये ??  सुबह खाली पेट (toilet जाने के बाद ) पी सकते है !! या नाश्ते के आधे घंटे के बाद पी सकते है !! _______________  इस लोकी के रस को आप और ज्यादा छारीय बना सकते है ! इसमे 7 से 10 पत्ते के तुलसी के डाल लो तुलसी बहुत छारीय है !! इसके साथ आप पुदीने से 7 से 10 पत्ते मिला सकते है ! पुदीना बहुत छारीय है ! इसके साथ आप काला नमक या सेंधा नमक जरूर डाले ! ये भी बहुत छारीय है !! लेकिन याद रखे नमक काला या सेंधा ही डाले ! वो दूसरा आयोडीन युक्त नमक कभी न डाले !! ये आओडीन युक्त नमक अम्लीय है !!!!  तो मित्रो आप इस लोकी के जूस का सेवन जरूर करे !! 2 से 3 महीने आपकी सारी heart की blockage ठीक कर देगा !! 21 वे दिन ही आपको बहुत ज्यादा असर दिखना शुरू हो जाएगा !!! _____  कोई आपरेशन की आपको जरूरत नहीं पड़ेगी !! घर मे ही हमारे भारत के आयुर्वेद से इसका इलाज हो जाएगा !! और आपका अनमोल शरीर और लाखो रुपए आपरेशन के बच जाएँगे !!  और पैसे बच जाये ! तो किसी गौशाला मे दान कर दे ! डाक्टर को देने से अच्छा है !किसी गौशाला दान दे !! __________________  आपने पूरी post पढ़ी आपका बहुत बहुत धन्यवाद !!
भगवान न करे कि आपको कभी जिंदगी मे heart attack आए !लेकिन अगर आ गया तो आप जाएँगे डाक्टर के पास !

और आपको मालूम ही है एक angioplasty आपरेशन आपका होता है ! angioplasty आपरेशन मे डाक्टर दिल की नली मे एक spring डालते हैं ! उसको stent कहते हैं ! और ये stent अमेरिका से आता है और इसका cost of production सिर्फ 3 डालर का है ! और यहाँ लाकर लाखो रुपए मे बेचते है आपको !



आप इसका आयुर्वेदिक इलाज करे बहुत बहुत ही सरल है ! पहले आप एक बात जान ली जिये ! angioplasty आपरेशन कभी किसी का सफल नहीं होता !! क्यूंकि डाक्टर जो spring दिल की नली मे डालता है !! वो spring बिलकुल pen के spring की तरह होता है ! और कुछ दिन बाद उस spring की दोनों side आगे और पीछे फिर blockage जमा होनी शुरू हो जाएगी ! और फिर दूसरा attack आता है ! और डाक्टर आपको फिर कहता है ! angioplasty आपरेशन करवाओ ! और इस तरह आपके लाखो रूपये लुट जाते है और आपकी ज़िंदगी इसी मे निकाल जाती है ! ! !

अब पढ़िये इसका आयुर्वेदिक इलाज !!
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हमारे देश भारत मे 3000 साल एक बहुत बड़े ऋषि हुये थे उनका नाम था महाऋषि वागवट जी !!
उन्होने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम है अष्टांग हृदयम!! और इस पुस्तक मे उन्होने ने बीमारियो को ठीक करने के लिए 7000 सूत्र लिखे थे ! ये उनमे से ही एक सूत्र है !!

वागवट जी लिखते है कि कभी भी हरद्य को घात हो रहा है ! मतलब दिल की नलियो मे blockage होना शुरू हो रहा है ! तो इसका मतलब है कि रकत (blood) मे acidity(अमलता ) बढ़ी हुई है !

अमलता आप समझते है ! जिसको अँग्रेजी मे कहते है acidity !!

अमलता दो तरह की होती है !
एक होती है पेट कि अमलता ! और एक होती है रक्त (blood) की अमलता !!
आपके पेट मे अमलता जब बढ़ती है ! तो आप कहेंगे पेट मे जलन सी हो रही है !! खट्टी खट्टी डकार आ रही है ! मुंह से पानी निकाल रहा है ! और अगर ये अमलता (acidity)और बढ़ जाये ! तो hyperacidity होगी ! और यही पेट की अमलता बढ़ते-बढ़ते जब रक्त मे आती है तो रक्त अमलता(blood acidity) होती !!

और जब blood मे acidity बढ़ती है तो ये अमलीय रकत (blood) दिल की नलियो मे से निकल नहीं पाता ! और नलिया मे blockage कर देता है ! तभी heart attack होता है !! इसके बिना heart attack नहीं होता !! और ये आयुर्वेद का सबसे बढ़ा सच है जिसको कोई डाक्टर आपको बताता नहीं ! क्यूंकि इसका इलाज सबसे सरल है !!

इलाज क्या है ??
वागबट जी लिखते है कि जब रकत (blood) मे अमलता (acidty) बढ़ गई है ! तो आप ऐसी चीजों का उपयोग करो जो छारीय है !

आप जानते है दो तरह की चीजे होती है !

अमलीय और छारीय !!
(acid and alkaline )

अब अमल और छार को मिला दो तो क्या होता है ! ?????
((acid and alkaline को मिला दो तो क्या होता है )?????

neutral होता है सब जानते है !!
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तो वागबट जी लिखते है ! कि रक्त कि अमलता बढ़ी हुई है तो छारीय(alkaline) चीजे खाओ ! तो रकत की अमलता (acidity) neutral हो जाएगी !!! और फिर heart attack की जिंदगी मे कभी संभावना ही नहीं !! ये है सारी कहानी !!

अब आप पूछोगे जी ऐसे कौन सी चीजे है जो छारीय है और हम खाये ?????
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आपके रसोई घर मे सुबह से शाम तक ऐसी बहुत सी चीजे है जो छारीय है ! जिनहे आप खाये तो कभी heart attack न आए !

सबसे ज्यादा आपके घर मे छारीय चीज है वह है लोकी !! english मे इसे कहते है bottle gourd !!! जिसे आप सब्जी के रूप मे खाते है ! इससे ज्यादा कोई छारीय चीज ही नहीं है ! तो आप रोज लोकी का रस निकाल-निकाल कर पियो !! या कच्ची लोकी खायो !!

स्वामी रामदेव जी को आपने कई बार कहते सुना होगा लोकी का जूस पीयों- लोकी का जूस पीयों !
3 लाख से ज्यादा लोगो को उन्होने ठीक कर दिया लोकी का जूस पिला पिला कर !! और उसमे हजारो डाक्टर है ! जिनको खुद heart attack होने वाला था !! वो वहाँ जाते है लोकी का रस पी पी कर आते है !! 3 महीने 4 महीने लोकी का रस पीकर वापिस आते है आकर फिर clinic पर बैठ जाते है !

वो बताते नहीं हम कहाँ गए थे ! वो कहते है हम न्योर्क गए थे हम जर्मनी गए थे आपरेशन करवाने ! वो राम देव जी के यहाँ गए थे ! और 3 महीने लोकी का रस पीकर आए है ! आकर फिर clinic मे आपरेशन करने लग गए है ! और वो आपको नहीं बताते कि आप भी लोकी का रस पियो !!

तो मित्रो जो ये रामदेव जी बताते है वे भी वागवट जी के आधार पर ही बताते है !! वागवतट जी कहते है रकत की अमलता कम करने की सबे ज्यादा ताकत लोकी मे ही है ! तो आप लोकी के रस का सेवन करे !!

कितना करे ?????????
रोज 200 से 300 मिलीग्राम पियो !!

कब पिये ??

सुबह खाली पेट (toilet जाने के बाद ) पी सकते है !!
या नाश्ते के आधे घंटे के बाद पी सकते है !!
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इस लोकी के रस को आप और ज्यादा छारीय बना सकते है ! इसमे 7 से 10 पत्ते के तुलसी के डाल लो
तुलसी बहुत छारीय है !! इसके साथ आप पुदीने से 7 से 10 पत्ते मिला सकते है ! पुदीना बहुत छारीय है ! इसके साथ आप काला नमक या सेंधा नमक जरूर डाले ! ये भी बहुत छारीय है !!
लेकिन याद रखे नमक काला या सेंधा ही डाले ! वो दूसरा आयोडीन युक्त नमक कभी न डाले !! ये आओडीन युक्त नमक अम्लीय है !!!!

तो मित्रो आप इस लोकी के जूस का सेवन जरूर करे !! 2 से 3 महीने आपकी सारी heart की blockage ठीक कर देगा !! 21 वे दिन ही आपको बहुत ज्यादा असर दिखना शुरू हो जाएगा !!!
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कोई आपरेशन की आपको जरूरत नहीं पड़ेगी !! घर मे ही हमारे भारत के आयुर्वेद से इसका इलाज हो जाएगा !! और आपका अनमोल शरीर और लाखो रुपए आपरेशन के बच जाएँगे !!

और पैसे बच जाये ! तो किसी गौशाला मे दान कर दे ! डाक्टर को देने से अच्छा है !किसी गौशाला दान दे !! __________________

आपने पूरी post पढ़ी आपका बहुत बहुत धन्यवाद !!

पत्रकारिता की दुविधाएं / शालू यादव

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|मंगलवार, 29 जनवरी 2013, 17:20 IST
 जब मेरे संपादक ने मुझसे पूछा कि क्या मैं बदायूँ जाकर दिल्ली गैंगरेप के नाबालिग अभियुक्त के परिवार से मिलना चाहूंगी, तो मेरे मन में कई सवाल उठे.
मेरे अंदर के पत्रकार ने मुझसे कहा कि ये दौरा काफ़ी रोमाँचक होगा, लेकिन मेरे अंदर की महिला ने कहा कि मैं कतई उस इंसान के घर नहीं जाना चाहती, जिसने एक लड़की के साथ बर्बर दरिंदे की तरह बलात्कार किया और फिर उसके शरीर पर कई आघात किए.
मैं दिल्ली में पली-बढ़ी हूं और चाहे कोई कुछ भी कहे, मुझे इस बात पर फख़्र है कि दिल्ली वो शहर है जिसने देश के हर तबके को पनाह दी है.
मुझे कभी अपने शहर में असुरक्षित महसूस नहीं हुआ और अगर हुआ भी है तो मैंने उसका हमेशा डटकर उसका सामना भी किया.
ऐसा नहीं है कि ये घटनाएं दिल्ली में ही होती हैं. मुझे लंदन जैसे शहर में भी छेड़-छाड़ का सामना करना पड़ा.
फिर भी लंदन में मुझे उन टिप्पणियों से शर्मिंदा होना पड़ा जिनमें दिल्ली को 'बलात्कार की राजधानी' कहा जा रहा था.
जो 16 दिसंबर की रात उस लड़की के साथ हुआ, उसने हर देशवासी की तरह मेरी भी अंतरात्मा को झिंझोड़ कर रख दिया था.
उन छह लोगों के प्रति मेरे मन में बहुत गुस्सा था और मैंने भी सभी देशवासियों की तरह यही दुआ की कि दोषियों को कड़ी से कड़ी सज़ा हो.
ये तो रही उस आम लड़की की भावनाओं की बात, जो हर बलात्कारी को बेहद गुस्से से देखती है.
लेकिन जहां तक पत्रकारिता की बात है, तो मैं इस बात से दुविधा में पड़ गई थी कि जिस लड़के के प्रति मेरे अंदर इतनी कड़ुवी भावना है, उसके परिवार से जुड़ी ऐसी कहानी मैं कैसे कर पाउंगी जो संपादकीय तौर पर संतुलित हो.
मुझे लगा कि भले ही पुलिस ने इस नाबालिग को सबसे ज़्यादा बर्बर बताया हो, लेकिन मुझे अपने भीतर का पक्षपात निकाल कर उसके परिवार से बातचीत करनी चाहिए.
लेकिन जब उस नाबालिग अभियुक्त के गांव पहुंची और उसके परिवार से मिली, तो मन की दुविधा और बढ़ गई.
उनकी दयनीय हालत देख कर मेरे अंदर का गुस्सा खुद-ब-खुद काफूर हो गया.
नाबालिग अभियुक्त की मां बेसुध हालत में बिस्तर पर पड़ी थी. जब मैंने उनसे पूछा कि अपने बेटे के बारे में सुन कर कैसा लगता है, तो बोली कि 'मैं तो मां हूं...क्या एक मां अपने बच्चे को ये सिखा कर बाहर भेजती है कि तू गलत काम कर? हमारी इन सब में क्या गलती है? हमें मिली तो बस बदनामी.'
उनकी ये बात सुन कर मेरे मन में गुस्से के साथ-साथ पक्षपात की भावना भी खत्म हो गई.
मैं ये नहीं कहूंगी कि उस परिवार की गरीबी देख कर ही मेरा मन बदला. मेरा मन तो बदला उस सच्चाई के बारे में सोच कर जो लाखों भारतीय गरीब बच्चों की कहानी है.
रोज़गार की तलाश में अकेले ही वे शहर चले जाते हैं और अपनी ज़िंदगी के सबसे महत्त्वपूर्ण साल अकेले रहकर ज़िंदगी की कठिनाइयों का सामना करने में गुज़ारते हैं.
इस नाबालिग लड़के की भी यही कहानी थी. मां-बाप से दूर, बिना किसी भावनात्मक सहारे के उसने दिल्ली शहर में अपने तरीके से संघर्ष किया.
मैं उस अभियुक्त के घर में बैठ कर ये सब सोच ही रही थी कि मां दूसरे कोने से बोली कि मेरे बेटे ने ज़रूर बुरी संगत में आकर ऐसा काम किया होगा...
खैर उसकी हैवानियत के पीछे वजह जो भी हो, मेरे अंदर की महिला उसे कभी माफ नहीं कर सकती.

टिप्पणियाँटिप्पणी लिखें

  • 1. 19:02 IST, 31 जनवरी 2013 himmat singh bhati: शालू जी. आपने इस वारदात के मार्मिक पहलू की ओर इशारा किया है. लेकिन ये भी ध्यान देने वाली बात है कि भारत के न्यायालयों में ऐसे जितने भी मामले हैं उसमें कोई न कोई किसी न किसी रूप में पीड़ित है और इसका असर उसके परिवार पर भी पड़ रहा है. जबकि जिसने अपराध किया है ज्यादातर मामलों में वो आज़ाद घूम रहा है. हमारी न्याय व्यवस्था को इन मामलों के बारे में गंभीर होना होगा.
  • 2. 02:49 IST, 01 फरवरी 2013 SHABBIR KHANNA,RIYADH,SAUDIA ARABIA: शालू जी, न जाने कितनी अबला बहनें इस बीमारी से पीड़ित होती हैं लेकिन जितनी चर्चा दामिनी को मिली उतनी किसी को नहीं मिलती है. क्या ये कड़वा सच नहीं है कि दामिनी रात के समय अपने ब्वॉय फ्रेंड के साथ घूम रही थी - इसके बारे में कोई भी आवाज़ नहीं उठाता है.
  • 3. 13:18 IST, 01 फरवरी 2013 उमेश कुमार यादव, लखनऊ: शालू जी, आपने जो प्रश्न उठाया वो बिल्कुल सही है. गरीबी की मार झेलते हुए जब मैंने अपना घर रोजगार के लिए छोड़ा था तब मेरी उम्र भी 16 साल के आसपास थी पर मेरे दिमाग में कोई अपराध करने की भावना नहीं आई. ये भी सच है कि कोई मां-बाप अपने बच्चे को अपराध के लिए नहीं उकसाता. इस नाबालिग ने जो किया वह दरिंदगी की इंतेहा थी. सिर्फ नाबालिग होने के नाते उससे कोई सहानुभूति रखना सिर्फ तथाकथित मानवतावादियों के लिए सही होगा मेरे जैसे आम इंसान के लिए नहीं. भारत में महिलाओं के प्रति नजरिया बहुत नहीं बदला है. मुझे वो दिन भी याद हैं जब गांव में उसी पुरुष को सबसे बड़ा मर्द माना जाता था जो अपनी पत्नी को नियमित रूप से पीटता हो. स्थिति में बदलाव आज भी ज्यादा नहीं आया है. इसी मानसिकता का परिणाम है कि स्त्री हर जगह प्रताड़ित होती है. मुझे हैरत तब ज्यादा हुई जब आपने यह लिखा कि लंदन में भी छेड़छाड़ होती है. क्या कहूं इस पर.........समझ नहीं आता है. आपके अंदर की स्त्री और पत्रकार दोनों ही अपनी संवेदना को जीवित रखे, यही कामना है.
  • 4. 17:30 IST, 01 फरवरी 2013 Sandeep Mahato: शालू जी आपने बिलकुल सहज तरीके से एक सच्चाई बयान की है. हम सब बुराई की जड़ को मारने के बजाय बुरे को खत्म करने पर ज्यादा ज़ोर देते हैं. एक बुरे व्यक्ति के ख़त्म होने पर बुराई ख़तम नहीं हो जाती. दोष अवश्य उस नाबालिग का भी है, परन्तु उससे भी ज्यादा दोषी है वह वातावरण जिसने उसे ऐसा घिनौना कर्म करवाया. माँ बाप का कर्तव्य होता है कि वह अपने बच्चों की सही परवरिश करें पर पापी पेट के सवाल के आगे बाकी सारे सवाल छोटे पड़ जाते हैं.
  • 5. 20:12 IST, 01 फरवरी 2013 Akhilesh Chandra: शालू जी, पत्रकार का काम घटनाओं का हिस्सा बनना नहीं है. यह सबसे मुख्य बात है इसे पेशे की. हालांकि इसका पालन नहीं हो रहा. देश का पूरा मीडिया एक मुद्दे के साथ झंडा लेकर खड़ा हो जाता है, तो दूसरे का विरोध करने लगता है. आज के पत्रकारों से निष्पक्षता की उम्मीद बेमानी है. बीबीसी के बारे में सुनता आया था कि यहां चीजें अलग होती हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं है. आप लोग भी किसी घटना का हिस्सा बनते जा रहे हैं. अब क्या उम्मीद की जाए!

पत्रकारिता का कट्टु सच

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सम्मानित मित्रों इस कविता पर गौर फरमाए, विशेषकर हमारे पत्रकार साथी.. पत्रकारों के सम्बन्ध में आप क्या सोचते हैं.
Photo: सम्मानित मित्रों इस कविता पर गौर फरमाए, विशेषकर हमारे पत्रकार साथी.. पत्रकारों के सम्बन्ध में आप क्या सोचते हैं.

.योग्यता पर सवाल

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Monday, March 18, 2013


पत्रकारों की योग्यता और काटजू की चिन्ता



प्रेसपरिषदकेअध्यक्षन्यायमूर्तिमार्कण्डेयकाटजूकाकहनाहैकिमीडियाक्षेत्रकोव्यवसायकेरूपमेंअपनानेवालोंकेलिएन्यूनतमयोग्यतातयहोनीचाहिए।उनकेइसकथनपरइनदिनोंटीवी-अखबारोंमेंजोरदारबहसछिड़ीहुईहै।कलकेजनसत्तामेंकार्यकारीसम्पादकओमथानवीकाऔरआजकेदैनिकभास्करकेकिसीसंस्करण (बीकानेरकेमेंनहीं) मेंकवि-पत्रकारप्रियदर्शनकालेखहै, दोनोंनेबहुतसलीकेसेन्यायमूर्तिकेइसकथनकाविरोधकियाहै।पत्रकारिताकोव्यवसायकेरूपमेंअपनाचुकेऔररुचिरखनेवालोंकोइन्हेंजरूरपढ़नाचाहिए।दोनोंलेखोंकेलिएलिंकफेसबुकपरउपलब्धहैं।
न्यायमूर्तिकीकुछबातेंतार्किकतोकुछबातेंघोरअतार्किकलगतीरहीहैं।वेन्यायिकपेशेसेआयेहैंऔरतबकेउनकेकईफैसलेचर्चामेंभीरहेहैं।लेकिनजबसेउन्हेंप्रेसपरिषदकाअध्यक्षबनायागया, तबसेहीवेविवादोंमेंरहनेलगेहैं।जोबातवेमीडियाकेबारेमेंकहतेहैंकिवहांयोग्यलोगोंकीकमीहै, याअन्यक्षेत्रोंकेअनुशासनोंऔरविषयोंपरभीजबवेटिप्पणीकरतेहैंतोवेखुदशायदअपनामूल्यांकनकरनाभूलजातेहैंकिवहउसविषयविशेषपरटिप्पणीकरनेकीयोग्यतारखतेहैंकिनहीं।उनकेकथनोंसेलगताहैकिजोकहरहेहैंउनकेअनेकसन्दर्भोंकीजानकारीउन्हेंखुदकोहैहीनहींयाआधी-अधूरीहै।
इसमेंदोरायनहींकिमीडियामेंयोग्यलोगोंकीकमीहै।पत्रकारिताकेहीक्षेत्रमेंक्योंबल्किउन्हेंचलानेवालेमीडियाहाउसकेमालिकभीइसव्यवसायकेयोग्यहैंकिनहीं, यहभीएकबड़ाप्रश्है।अखबारोंऔरटीवीचैनलोंकेअधिकांशनयेमालिकोंयामालिकोंकीनईपीढ़ियोंकोइसव्यवसायकेअयोग्यकहाजासकताहै।लेकिनयहव्यवसायभीउसीसमाजकाहिस्साहैजिससमाजकेअन्यव्यवसायोंमेंअयोग्योंकायाव्यावसायिकमूल्यहीनताकाबोलबालाहै, फिरकहाजासकताहैकिमीडियासेहीमूल्योंकीउम्मीदक्योंकीजारहीहै? लोकतंत्रकाचौथापायामीडियाखुदबनायाकिसीनेउसेथरपाहैपतानहींलेकिनउसकामहत्त्वचौथेपायेसेकमनहींहै।इसलिएबार-बारयहउम्मीदेंकीजातीरहीहैंकिकमसेकममीडियाअपनेव्यावसायिकमूल्योंपरकायमरहेऔरवहांकाकामकरनेवालेलोगयोग्यहों।
सत्तारूपमेंपरिवर्तितहोतेइसव्यवसायमेंवेसबबुराइयांआतीजारहीहैंजोअन्यसभीसत्तारूपोंमेंगईहैं।अबतोपत्रकारिताकीयोग्यताहीयहमानलीगईहैकिकौनकितनीकमाईकरवासकताहैयाकमाईमेंसहायकहोसकताहै।कोईभीव्यवसाययदिलालचमेंपरिवर्तितहोताजायेगातोउसकायहीहश्रहोगाजोमीडियाकाहोताचलाजारहाहै।रहीकोईयोग्यतातयकरनेकीबाततोतमामक्षेत्रोंकेडिग्रीऔरडिप्लोमाधारियोंकेपरखीलगाकरदेखलेंकिवेसचमुचमेंकितनेयोग्यहैं।बातसमाजमेंबदलावकीहै, मूल्योंकीस्थापनाकीहै, दक्षताकीहै।इनकीजरूरतबतानेऔरस्थापितकरनेकाएकमाध्यममीडियाभीहोसकताहै, इसलिएशायदन्यायमूर्तिकाटजू, ओमथानवीऔरप्रियदर्शनकेअलावाभीअन्यकईचिन्तितहैं।काटजूकीचिन्ताजायजहैपरचूंकिवेसम्बन्धितक्षेत्रोंकोपूरीतरहजानते-समझतेनहींहैंअतःसहीउपायउन्हेंनहींसूझरहाहैउपायकीओरओमथानवीऔरप्रियदर्शननेसंकेतकियाहैयहप्रश्खड़ाकरकेकिसमाजकोसमझनेकीडिग्रीकहांसेआयेगी

पत्रकारिता के छह दशक

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एक निजी विहंगावलोकन

 किसी के मन मेँ पत्रिका निकालने का कीड़ा घर कर ले, तो उसे आप लाख समझाएँ, वह अख़बार निकाल कर ही रहता है… बाद मेँ उस मित्र से शुभचिंतक एक ही प्रश्न कर सकते हैँ – क्या हैँ तुम्हारे हाल? ये बातें मैँ ने किसी को हतोत्साहित करने के इरादे से नहीं कह रहा हूँ. मेरा उद्देश्य इतना ही है कि दुस्साहसी लोगोँ को पहले से ही सावधान कर दूँ. मैँ यह भी जानता हूँ कि जो लोग कुछ करना चाहते हैँ, वही कुछ कर दिखा सकते हैँ. तो पत्रपत्रिका आरंभ करने से पहले निम्न वातें जान लेना और उन के लिए पहले से तैयारी कर लेना ज़रूरी होता है…. पत्रपत्रिका का प्रकाशन कोई आसान काम नहीं है. पत्रिका की घोषणा करते ही आप अपने को बाँध लेते हैँ कि हर सप्ताह या महीना आप उसे छापते रहेंगे. लेकिन कोई भी सावधिक प्रकाशन आत्मनिर्भर हुए बिना जीवित नहीं रह सकता. यह बात पूरी तरह न समझ पाने के कारण ही अनेक मित्रोँ को आरंभिक संसाधन जुटा पाते ही पत्रिकाएँ आरंभ करते मैँ ने देखा है. कई को कई बार चेताया, समझाया, सलाह दी कि घरफूँक तमाशे मेँ हाथ मत जलाओ. पर वे नहीं मानते. और कुछ महीनों बाद वे या तो पाठकोँ को कोसते नज़र आते हैँ कि अच्छी चीज़ की क़द्र करना नहीं जानता; या किसी साझीदार को कोसते हैँ, जिस ने धोखा दिया; या विज्ञापकोँ की निंदा करते नहीं थकते जो विज्ञापनों का ख़ज़ाना उन पर वारने को तैयार नहीं होते… किसी मेँ तमीज़ ही नहीं है, जो उन की बात समझ सके. वे लोग भूल जाते हैँ कि किसी पत्रिका के लिए लेख मुफ़्त मेँ मिल सकते हैँ, संपादक के रूप मेँ आप अवैतनिक हो सकते हैँ, लेकिन काग़ज़ क़ीमत चुकाए बग़ैर नहीं मिलता, छापेख़ाना वाला मित्र हुआ तो एक दो अंकोँ की छपाई ही उधारी पर कर सकता है. सब से बड़ी बात यह कि अख़बार बेचने वाले से आप बिकी प्रतियोँ के नाम पर एक भी पैसा हासिल नहीं कर सकते. जान पहचान वालोँ से चंदा और कुछ विज्ञापन भी आप ले आए. लेकिन अख़बार चलाने के लिए विज्ञापन प्राप्ति की जो स्थायी व्यवस्था चाहिए होती है, वह अच्छा सरकुलेशन हुए बग़ैर नहीं बन सकती. और सरकुलेशन बनने से पहले अख़बार के साँस उखड़ने लगते हैँ. अख़बार बंद हो जाता है. मैँ जानता हूँ कि माधुरी, धर्मयुग, पराग, सारिका जैसी पत्रिकाओं और नवभारत टाइम्स जैसे सफल प्रकाशनों के लिए टाइम्स आफ़ इंडिया जैसे संस्थान को कितना ज़ोर लगाना पड़ता था, फिर भी विज्ञापन पर्याप्त मात्रा मेँ नहीं जुटते थे. (दस पंदरह साल पहले तक यही हालत थी. उन दिनों विज्ञापनदाता की नज़र मेँ हिंदी ग़रीबों की भाषा थी. हालात बदल रहे हैँ, लेकिन यह आज की या आने वाले कल की बात है.) अब टाइम्स आफ़ इंडिया की वे अन्य प्रसिद्ध पत्रिकाएँ कहाँ हैँ, जो हिंदी का गौरव कहलाती थीं. सब बंद हो गईं या कर दी गईं. हिंदी ही नहीं, अँगरेजी के इलस्ट्रेटिड वीकली जैसे पत्र भी बंद करने पड़े. क्यों? सारी बातें मैँ निजी अनुभवों के आधार पर करूँगा. इसलिए यह लेख मेरी आत्मकथा जैसा लग सकता है. पर वादा है कि बात मेरी लगेगी, बात पत्रकारिता की होगी… मेरा पत्रकारिता से पहला संपर्क पत्रकारिता से मेरा बाक़ायदा संबंध तो 1949-1950 मेँ हुआ, लेकिन संपर्क सन 45 मेँ पहली अप्रैल मेँ ही हो गया था, जब भविष्य मेँ निकलने वाली पत्रिका सरिता के प्रकाशकोँ और मुद्रकोँ के छापेख़ाने दिल्ली प्रैस मेँ छपाई का काम सीखने दाख़िल हुआ था. मैँ ने मैट्रिक की परीक्षा दी ही थी. यह तय था कि पारिवारिक आर्थिक परिस्थितिवश आगे नहीं पढ़ पाऊँगा. कोई न कोई काम कर के घरख़र्च मेँ हाथ जुटाना होगा. तो परिणाम घोषित होने का इंतज़ार करने से क्या फ़ायदा! तत्काल क्यों नहीं! काम क्या हो, यह पिताजी ने तय किया. स्वंतत्रता सेनानी पिताजी मेरठ मेँ कई छापेख़ाने खोल कर, जेल जाने या आंदोलन मेँ सक्रिय होने पर साझीदारोँ पर छोड़े गए प्रैसोँ मेँ बार बार कंगाल हो कर जीवन मेँ असफल हो चुके थे. 1942 से दिल्ली मेँ एक बहुत निम्नस्तरीय नौकरी मेँ लगे थे. हाँ, प्रैस खोलने की तमन्ना दिल से गई नहीं थी. पिताजी का तर्क था कि अपना प्रैस न भी खोल पाए तो मेरे हाथ मेँ कोई हुनर तो होगा. कभी भूखो मरने की नौबत ज़िंदगी भर नहीं आएगी! बात पहले से कर ली गई थी. परीक्षा 26 मार्च को समाप्त हुई थी और 1 अप्रैल 1945 को मैँ (कंपोज़िंग से पहले जो काम सीखा जाता है) डिस्ट्रीब्यूर का काम सीखने कनाट सरकस स्थित दिल्ली प्रैस मेँ दाख़िल हुआ–शागिर्द बनाने के उपहार के तौर डिस्ट्रीब्यूशन के उस्ताद मुहम्मद शफ़ी के लिए साथ मेँ थी लड्डुओं से भरी परात और ग्यारह रुपए नक़द. मेरे लिए पहली अप्रैल 1945 ऑल फ़ूल्स डे साबित नहीं हुआ–यह आज 65 साल बाद 2010 मेँ मैँ दावे के साथ कह सकता हूँ. उन दिनों वहाँ से अँगरेजी पत्रिका कैरेवान निकला करती थी, और सरिता का समारंभ आधे साल बाद दशहरे पर अक्तूबर से होने वाला था. इस तरह (चाहे निम्नतम स्तर से ही सही) मुझे सरिता के समारंभ की प्रक्रिया को देखने का मौक़ा मिला और बरसोँ बाद मैँ संपादन विभाग मेँ विश्वनाथ जी का दाहिना हाथ बन गया. इस दौरान मैँ ने उस की प्रगति को निकट से देखा और भाग लिया. 1963 से मेरा संबंध मुंबई मेँ हिंदी पत्रकारिता के शिरोमणि माने जाने वाले संस्थान टाइम्स आफ़ इंडिया से माधुरी के संपादक के रूप मेँ चौदह वर्ष तक रहा. समांतर कोश बनाने की धुन मेँ मैँ 1978 मेँ वहाँ से पद त्याग कर दिल्ली फिर आ गया. फिर आर्थिक तंगी के कारण मेरा संबंध एक अत्यंत लोकप्रिय अंतरराष्ट्रीय पत्रिका रीडर्स डाइजेस्ट से हुआ जिस के हिंदी संस्करण सर्वोत्तम का समारंभ मैँ ने ही किया, और उस के अमरीका स्थित संपादकीय कार्यालय मेँ रह कर उस की संपादकीय और प्रबंध व्यवस्था को निकट से देखने का दुर्लभ अवसर भी मिला. इस लंबे अनुभव, और बाद मेँ आडिएंस की तरह मैँ पत्रकारिता हिंदी पत्रकारिता को देखने के आधार पर भीतर और बाहर से देखे सच को कहने की कोशिश कर रहा हूँ. तकनीकी पक्ष मेँ आए परिवर्तनों के साथ साथ पत्रकारिता के भाव पक्ष – जिन दोनों को आजकल की नई भाषा मेँ हम हार्डवेअर और सौफ़्टवेअर कह सकते हैँ – पर संक्षेप मेँ लिखूँगा. 1945 से 2000 तक सब से बड़ा अंतर तकनीक मेँ हुआ है – कंपोज़िंग, ब्लॉकमेकिंग, छपाई – सभी बदल गए हैँ. उस ज़माने मेँ कंपोज़िंग हाथ से होती थी. कंपोज़्ड मैटर को डिस्ट्रीब्यूट कर के फिर से उन ख़ानों मेँ डाला जाता था, जहाँ से कंपोज़ीटर एक एक अक्षर फिर से चुन कर स्टिक पर संजो कर गेली बनाता था. प्रूफ़रीडिंग और करक्शन के बाद गेलियोँ के प्रूफ़ों को चिपका कर संपादन विभाग डमी बनाता था, जिसे देख कर फिर कंपोज़ीटर पेज बनाता था. फिर प्रूफ़रीडिंग होती थी. कहीं कोई लाइन छूट गई है या अतिरिक्त पड़ गई है, तो उपसंपादक अपनी कारीगरी दिखा कर किसी तरह बने बनाए पेजों को वहीं का वहीं फ़िट करने का प्रयास करता था. धीरे धीरे हाथ से कंपोज़िंग की जगह मोनोटाइप मशीन आई, जिस मेँ एक एक अक्षर का संयोजन मशीन करती थी, लेकिन करक्शन का काम हाथ से होता था. पेजों मेँ घट बढ़ करनी हो तो वही पुरानी रनऑन की समस्या आ खड़ी होती थी, यानी अगले कॉलम या पृष्ठ के मैटर को आगे पीछे करना. इस मेँ कई बार बने बनाए पेज टूट जाते थे. फिर से कंपोज़ करवाओ. इस का समय नहीं होता था. अतः रनऑन से बचने के लिए उपसंपादक जहाँ की तहाँ मैटर फ़िट करता रहता था. फिर कई बार मशीन पर जाते जाते पेज टूट जाता था. यह महान संकट होता था. पूरा पेज दोबारा कंपोज़ करो, वह भी तत्काल! एक एक अक्षर की जगह पूरी लाइन एक साथ ढालने वाली लाइनोटाइप मशीन से मैटर टूट जाने की समस्या का हल तो कुछ आसान हुआ, लेकिन अधिकतर समस्याएँ पूर्ववत ही रहीं. मोनोटाइप और लाइनोटाइप का एक फ़ायदा और था. हैँड कंपोज़िंग मेँ छपते छपते टाइप टूट जाते थे. फिर भी टूटे टाइपों को फिर से काम मेँ लाना पड़ता था. छपाई उच्च स्तर की हो पाना बेहद मुश्किल था. मोनो और लाइनो मेँ यह कमी दूर हो गई थी–हर बार मशीन नया टाइप ढालती थी. टाइप को फिर से काम मेँ लाने के लिए एक एक अक्षर को फिर से कंपोज़िंग केसोँ मेँ डाला जाता था. यही काम मैँ ने सब से पहले सीखा था. इस प्रक्रिया मेँ अ अक्षर का टाइप ह अक्षर के ख़ाने मेँ भी डल जाता था. कई बार दो फ़ौंटों के कुछ टाइप भी ग़लत केस मेँ पहुँच जाते थे. प्रूफ़ रीडरोँ को आँखों का तेज़ होना पड़ता था कि हर रौंग फ़ौंट को पकड़ सके. ऐसी अन्य अनेक समस्याएँ तब छपाई और पत्रकारिता का अभिन्न अंग थीं. आज फ़ोटो टाइपसैटिंग का ज़माना है. कंपोज़िंग की कोल्ड मैटल (हाथ से कंपोज़िंग) या हौट मैटल (मशीन की ढलाई से कंपोज़िंग) कोई भी विधि हो, तैयार पेजों का भारी भरकम लैड का मैटर रखने के लिए गेलियोँ के रैक चाहिए होते थे. 100 पेजों की पत्रिका अगर एक साथ तैयार कर रखनी हो तो उस के लिए 100 गेलियोँ की ज़रूरत तो कम से कम थी, पेज बनने से पहले कंपोज़्ड गेलियोँ के लिए भी जगह चाहिए होती थी. टाइप के केसोँ के लिए जगह अलग दरकार थी. फिर प्रूफ़िंग मशीन के लिए जगह. पूरे 8 या 16 पेजी फ़रमों के प्रूफ़ निकालने के लिए स्टोन, वग़ैरा, लवाज़मात काफ़ी जगह घेरते थे. जगह की किफ़ायत के लिए पत्रिकाओं और पुस्तकोँ का प्रकाशन टुकड़ों मेँ किया जाता था. आठ आठ या सोलह सोलह पेजों के फ़र्मों के हिसाब से कंपोज़िंग कराई जाती थी. अब फ़ोटो टाइपसैटिंग के ज़माने मेँ एक मेज़ पर यह सारा काम हो जाता है. मेरे समांतर कोश के 1,768 और तीन खंडों वाले बृहद् The Penguin English-Hindi/Hindi-English Thesaurus and Dictionary द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी के 3140 पेज ही नहीं, तमाम शब्देश्वरी, विक्रम सैंधव, जूलियस सीज़र, सहज गीता… यही क्यों तरह तरह के कोशों और विश्वकोशों के लाखों सचित्र पन्ने – कहना चाहिए एक पूरा पुस्तकालय – मेरी एक छोटी सी मेज़ पर छोटे से बक्से मेँ है, और उसी मेज़ पर पास ही स्कैनर रखा है जिस की सहायता से मैँ कोई भी चित्र छपने के लिए तैयार कर सकता हूँ, और एक प्रिंटर भी रखा है, जो प्रूफ़िंग मशीन का काम भी देता है, और पेजों को छपाई के लिए भी तैयार कर देता है… साथ साथ मेरे कंप्यूटर मेँ भारत की सभी लिपियोँ के सैकड़ों और अँगरेजी के हज़ारोँ लुभावने टाइपफ़ेस लोड हैँ… मेरे पिताजी यह क्रांति देखने के लिए ज़िंदा हो भी जाएँ तो हो सकता है ग़श खा कर फिर परलोक सिधार जाएँ! हार्डवेअर शरीर है तो आत्मा है सौफ़्टवेअर इस सब का – तकनीक का और साजसज्जा का – सीधा असर पत्रकारिता पर पड़ता है. मैँ एक पुराना उदाहरण देता हूँ. लाइनोटाइप मेँ एक बड़ी कमी यह थी कि उस के लिए जो हिंदी के फ़ेस बने, वे पढ़ने मेँ आसान और अच्छे नहीं थे. इस विधि का उपयोग करने वाले दैनिक हिंदुस्तान और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे पत्रोँ के पाठकोँ के सामने यह बड़ी समस्या रहती थी, और इन पत्रोँ को पढ़ने को मन नहीं करता था. इन संस्थानों ने अपने अज्ञान या अड़ियलपन के कारण समस्या का निदान नहीं किया. परिणाम यह हुआ कि दूसरे पत्र अधिक लोकप्रिय होते चले गए. साप्ताहिक हिंदुस्तान तो बंद ही हो गया. हिंदुस्तान टाइम्स के हिंदी पत्रोँ को जो क्षति तब हुई उस का ख़मियाज़ा दसियोँ साल भुगतते रहे. कंप्यूटर युग मेँ आ कर अब हिंदुस्तान फिर उभरा है, और मृणाल पांडे ने तो उसे नई पीढ़ी की तमाम आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बना कर लोकप्रियता के नए शिखर तक पहुँचा दिया था. अभी तक मैँ ने कंपोज़िंग की बात की. उस के साथ ही छपाई के क्षेत्र मेँ क्रांति पर क्रांति हो रही थी. कहाँ मेरे बाचपन का वह ज़माना जब मेरठ मेँ हमारे प्रेस मेँ ट्रेडल मशीन पर छोटे छोटे फ़रमेँ छपते थे, या फ्लैटबैड मशीन पर बड़े फ़रमे हाथ से दबा कर छापे जाते थे, और कहाँ उन्हीं दिनों के बड़े प्रैसोँ की सिलंडर मशीनों और हौट मैटल रोटरी मशीनें, जो फ़ोटोग्रेव्योर रोटरी के रास्ते आफ़सैट छपाई के सहारे विशाल रोटरियोँ तक पहुँच गई हैँ. हार्डवेअर पत्रकारिता का शरीर है, तो सौफ़्टवेअर आत्मा. सौफ़्टवेअर का सीधा संबंध पाठक से और परिवर्तनशील समाज से है, और इस बात से है कि कोई पत्रिका अपने पाठकोँ को बदलते समय मेँ संतुष्ट कर पा रही है या नहीं? उस पत्रिका के पीछे संपादकोँ की अपने पाठक वर्ग की कोई समझ है या नहीं, और वह समाज के साथ साथ अपने पाठकोँ की बदलती आवश्यकताओं को पूरा कर रही है या नहीं? सरिता का पत्रकारिता पर प्रभाव सरिता का प्रकाशन अक्तूबर 1945 मेँ आरंभ हुआ. कोल्ड मैटल तकनीक से, लगभग दस सालोँ मेँ यह अपने संचालक-संपादक विश्वनाथ जी की (जिन्हें मैँ अपना गुरु भी मानता हूँ) दूरदर्शिता के कारण यह मोनोटाइप तकनीक तक पहुँच गई. वह इसे लाइनोटाइप के अस्पष्ट टाइप तक नहीं ले गए – यह भी उन की समझ का परिणाम था. सन 45 से पहले हिंदी मेँ लोकप्रियता के शिखर पर थी माया . इलाहाबाद से निकलने वाली माया कहानी पत्रिका थी. उन दिनों कोई भी आदमी सफल पत्रिका निकालने की बात मन मेँ लाता, तो वह माया जैसी पत्रिका निकालना चाहता था. कुछ अन्य लोकप्रिय और उल्लेखनीय पत्रिकाएँ हुआ करती थीं – सरस्वती जिस ने हिंदी को कभी नए आयाम दिए थे, और मानक हिंदी बनाने मेँ जिस का बड़ा हाथ था, चाँद जो स्वाधीनता आंदोलन के साथ साथ समाज सुधार का झंडा भी खड़ा करता था. और भी अनेक पत्रिकाओं के नाम लिए जा सकते हैँ. धार्मिक साहित्य के लिए कल्याण था ही. कुछ लोकप्रिय साप्ताहिक भी थे. कुछ वर्ष बाद निकला नवयुग, बाद मेँ जिस के सफल संपादक बने महावीर अधिकारी, जो मुंबई मेँ नवभारत टाइम्स के अत्यंत सफल संपादक सिद्ध हुए. यहाँ यह बात भी ध्यान मेँ रखनी चाहिए कि बहुत शीघ्र – दो साल से भी कम समय मेँ – भारत स्वाधीन होने वाला था, और स्वाधीनता के साथ साथ देश का विभाजन भी होने वाला था. उस से देश मेँ, समाज मेँ, पाठक वर्ग मेँ भारी परिवर्तन आने वाला था. ऐसे मेँ ही आई थी सरिता, बदलते समय और समाज की बदली रुचि मेँ ढलने को तैयार. मैँ अपनी व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर कह सकता हूँ कि आरंभ मेँ सरिता की परिकल्पना माया जैसी किसी कहानी पत्रिका की थी. नक़ल को चलाना आसान नहीं होता. यह हिंदी पाठक वर्ग और पत्रकारिता का सौभाग्य था कि बड़ी सूझबूझ दिखाते हुए सरिता को माया की नक़ल नहीं बनाया गया, बल्कि उस का आदर्श चाँद को बनाया. लेकिन चाँद का रूप आकार नहीं, और सौफ़्टवेअर भी पूरी तरह चाँद का नहीं. यहाँ कुछ शब्द सरिता के प्रकाशक संपादक विश्वनाथ जी के बारे मेँ कहना अनुपयुक्त नहीं होगा. संपादक का व्यक्तित्व किसी पत्रिका की परिकल्पना मेँ, और उस के लोकप्रिय होने या न होने मेँ महत्त्वपूर्ण योगदान करता है. एकमात्र कारण उसे हम नहीं कह सकते, क्योंकि सही संचालन प्रतिभा और व्यावसायिक संगठन की भी आवश्यकता होती है. इस के साथ साथ आवश्यक होती है एक तटस्थता, तट पर खड़ा होने का भाव, तट जिस पर खड़ा हो कर कोई बहती नदी को देख सकता है, अपने को उस से अलग रख कर. जैसा कि मैँ ने पहले बताया दिल्ली प्रैस से अँगरेजी पत्रिका कैरेवान निकलती थी. वह बड़ी सफल पत्रिका थी. कह सकते हैँ कि उस समय की एकमात्र लोकप्रिय भारतीय अँगरेजी पत्रिका थी. इलस्ट्रेटिड वीकली था, लेकिन वह अँगरेजों का था. कैरेवान की संपूर्ण परिकल्पना विश्वनाथ जी की अपनी थी. वह शिक्षा दीक्षा से चार्टर्ड अकाउनटैंट थे. साहित्यकारोँ को बड़ा अजीब लगता है कि कोई चार्टर्ड अकाउनटैंट सफल पत्रकार कैसे बन गया! लेकिन चिंतन मनन पर केवल साहित्यकारोँ का एकाधिकार होगा, ऐसा कोई नियम न तो है, न हो सकता है. पढ़ाई पूरी कर के वह अपने पिता अमरनाथ के छोटे से दिल्ली प्रैस मेँ सहायता करने आए थे. प्रैस के ख़ाली समय का उपयोग करने के लिए उन्होँ ने कैरेवान निकाला था. वह लोकप्रिय हो गया. कारण – उस मेँ प्रकाशित होने वाले विषयोँ का चुनाव और संतुलन. यहाँ तटस्थता की आवश्यकता होती है. आम आदमी के लिए निकाला जाने वाला पत्र किसी आंदोलन का मुखपत्र नहीं होता, लेकिन उस का अपना एक दृष्टिकोण फिर भी हो सकता है. साथ ही यह भी सही कि आंदोलन विशेषों के पत्र भी सफल हुए हैँ. जैसे गाँधी जी का हरिजन . लेकिन आंदोलन की सटीकता काल तक ही. प्रकाशनीय सामग्री पर विश्वनाथ जी का दृष्टिकोण स्पष्ट था विश्वनाथ जी के लिए पत्र मेँ प्रकाशित होने योग्य सामग्री वही है, जो उन के अपने पाठक के लिए रोचक हो या लाभप्रद, जिस का उस के जीवन से सरोकार हो. इस का अर्थ यह भी है कि आम आदमी की पत्रिका किसी तकनीकी विषय की पत्रिका नहीं होती. इंजीयरिंग विषय पर कोई पत्रिका हो तो हम यह आशा नहीं करनी चाहिए कि आम आदमी भी उसे पढ़ेगा. विज्ञान की पत्रिका दो तरह की हो सकती हैँ – वैज्ञानिकोँ के लिए निकाली जाने वाली पत्रिका या आम आदमी को विज्ञान की जानकारी देने वाली पत्रिका. यही बात हम साहित्य और साहित्यक पत्रिकाओं पर लागू कर सकते हैँ. कैरेवान बाद मेँ असफल क्यों हुआ, यह बात मैँ सही अवसर आने पर करूँगा. 45 मेँ जब विश्वनाथ जी ने सरिता निकाली (प्रकाशक के तौर पर; पहले कुछ महीने उस के संपादक थे विश्वनाथ जी के अभिन्न मित्र विजय नारायण जी; संपादन की वैचारिकता मेँ दोनों का साझा योगदान था), तो उसे कैरेवान से बिल्कुल अलग ढाँचे मेँ रखा गया. विश्वनाथ जी बख़ूबी जानते थे, अँगरेजी का नुस्ख़ा हिंगी मेँ नहीं चलेगा. सरिता निकली एक नए आकार के साथ (यह अब तक वही है) और नई साजसज्जा के साथ (इस मेँ अब तक कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हुआ है). विश्वनाथ जी आकार शायद रीडर्स डाइजैस्ट जैसा रखना चाहते थे, लेकिन उस के लिए उपयुक्त साइज़ का काग़ज़ युद्धकालीन तंगी के उन दिनों उपलब्ध नहीं था. अतः उस के निकटतम जो साइज़ हो सकता था, वह स्वीकार कर लिया गया. पुस्तक जैसा, लेकिन अलग, माया के, चाँद के, सरस्वती के, स्वयं कैरेवान के आकार से अलग, अपनी एक विशिष्ट पहचान स्थापित करने वाला आकार, जिसे कोई आसानी से हाथ मेँ ले कर पढ़ सके. इस आकार मेँ वैसी साजसज्जा संभव नहीं थी, जो बड़े आकार के लाइफ़ या गुड हाउसकीपिंग जैसे अमरीकी पत्रोँ मेँ होती थी. लेकिन सुरुचिपूर्णता संभव थी. सरिता के सौफ़्टवेअर पक्ष पर जाने से पहले मैँ व्यावसायिक नीति पर भी दो एक बातें कहूँगा – ये पत्रकारिता का महत्वपूर्ण अंग हैँ. बिकरी और विज्ञापन की व्यवस्था धीरे धीरे कैरेवान के समय से विकसित होती आ रही थी, सरिता के आने से उस का विकास करने मेँ और सहायता मिली. इस से भी बड़ी बात यह थी कि हर रचना पर लेखकोँ को पारिश्रमिक – वह भी प्रकाशित होने पर नहीं, स्वीकृत होते ही. हिंदी के लिए यह नई बात थी. आज तक हिंदी की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ पारिश्रमिक नहीं देतीं. जो देती हैँ, वह बहुत कम. मुझे याद है कि सन 45 मेँ सरिता मेँ प्रकाशन के लिए स्वीकृत हर लेख और कहानी पर 75 रुपए अग्रिम दिए जाते थे – उस ज़माने मेँ यह बहुत बड़ी रक़म थी. यही नहीं, कभी कोई कहानी बहुत लोकप्रिय हो गई तो विश्वनाथ जी ने लेखक को उतनी ही अतिरिक्त रक़म बाद मेँ भेजी, निजी पत्र और प्रशंसा के साथ. ऐसी ही एक कहानी थी स्वर्गीय श्री आनंद प्रकाश जैन की साँग. (आनंद प्रकाश जी बाद मेँ टाइम्स द्वारा प्रकाशित बालपत्रिका पराग के संपादक बने.) सरिता का दृष्टिकोण एक पढ़े लिखे आधुनिक मध्यमवर्गीय हिंदी भाषी हिंदू जैसा था, जो दक़ियानूस नहीं था, जो हिंदू समाज को पुराना गौरव लौटाना चाहता था और इसी उद्देश्य से जो समाज के पुराने पाखंड को उखाड़ फेंकना चाहता था, स्त्रियोँ को जाग्रत करना और सम्मान दिलाना चाहता था, जिसे रोचक कहानियाँ पढ़ने मेँ रुचि थी, जो सहज काव्य से विह्वल होना चाहता था. मुझे याद है कि सरिता के पहले अंक मेँ ही एक लेख था – मठमंदिर और सामाजिक प्रगति. साथ ही स्त्रियोँ के लिए उपयोगी सामग्री थी. सब से बड़ी बात यह थी कि सामग्री मेँ दंभ नहीं था, पाठक को विद्वत्ता से या शैली से आतंकित करने की इच्छा नहीं थी, उसे अपने साथ ले कर चलने की भावना थी. साहित्यिक उदाहरण दें तो इस अंतर को हम तुलसीदास और केशवदास के काव्य का अंतर कह सकते हैँ. दोनों ही रामभक्त अच्छे कवि हैँ, लेकिन महान तुलसीदास हैँ. भाषा के बारे मेँ विश्वनाथ का दिमाग़ पूरी तरह साफ़ था. अपने ही उदाहरण से बताता हूँ, वह मेरे लिखे से ख़ुश रहते थे. मेरे सीधे सादे वाक्य उन्हेँ बहुत अच्छे लगते थे. लेकिन कई शब्द? एक दिन उन्होँ ने मुझे अपने कमरे मेँ बुलाया, पूछा, “क्या तेली, मोची, पनवाड़ी, ये ही क्यों क्या आम आदमी, विद्वानों की भाषा समझ पाएगा? क्या यह विद्यादंभी विद्वान तेली आदि की भाषा समझ लेगा?” स्पष्ट है मेरे पास एक ही उत्तर हो सकता था: विद्वान की भाषा तो केवल विद्वान ही समझेंगे, आम आदमी की भाषा समझने मेँ विद्वानों को कोई कठिनाई नही होगी. थोड़े से शब्दों मेँ विश्वनाथ जी ने मुझे संप्रेषण का मूल मंत्र सिखा दिया था. जिस से हम मुख़ातिब हैँ, जो हमारा पाठक श्रोता दर्शक आडिएंस है, हमेँ उस की भाषा मेँ बात करनी होगी. मुझ से उस संवाद का परिणाम था कि विश्वनाथ जी ने सरिता मेँ नया स्थायी स्तंभ जोड़ दिया: यह किस देश प्रदेश की भाषा है? इस मेँ तथाकथित महापंडितों की गरिष्ठ, दुर्बोध और दुरूह वाक्यों से भरपूर हिंदी के चुने उद्धरण छापे जाते थे. उन पर कोई कमैँट नहीं किया जाता था. इस शीर्षक के नीचे उन का छपना ही मारक कमैँट था. विश्वनाथ जी की स्पष्ट नीति था–रचनाएँ अपने तकनीकी कौशल से पाठक को आतंकित न करें, बल्कि उस से उस की भाषा मेँ बातचीत करती हुई उसे अपने साथ साथ आगे बढ़ाएँ. सरिता मेँ अनेक तत्कालीन बड़े लेखकोँ ने लिखा, और अनेक भावी बड़े लेखकोँ ने सरिता मेँ लिख कर ही हिंदी जगत का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया. स्वर्गीय मोहन राकेश ने तो सरिता के एक अंक का संपादन भी किया था. लेकिन सरिता ने अपने आप को साहित्यिक वाद विवाद से, उठा पटक से अपने आप को हमेशा दूर रखा. यही कारण है कि अनजाने लेखकोँ की अनगिनत रचनाएँ सरिता मेँ छपीं और छप रही हैँ. ये रचनाएँ कैसी होती थीं, पाठक से क्या कहती थीं – यही है सरिता के सौफ़्टवेअर पक्ष की असली पहचान. उन सब का सीधा संबंध पाठक के जीवन से होता था, चाहे कहानी हो या कविता या लेख, और उस सब मेँ एक सुविचारित विविधता होती थी. यह विविधता अनेक स्तरोँ पर होती थी, जैसे विषय, देश, काल, समाज, वय, लिंग… जिस से पूरे हिंदी क्षेत्र के बच्चों, बूढ़ों, जवानों, स्त्रीपुरुषों को अपनी रुचि की पाठ्य सामग्री मिल जाए, वह भी सहज समझ मेँ आने वाली भाषा मेँ. विविधता, विविघता, विविधता यहाँ मैँ विविधता के उदाहरण देना चाहूँगा. मान लीजिए किसी एक अंक मेँ सात कहानियाँ हैँ. तो उन मेँ से एक या दो का विषय होगा पारिवारिक समस्याएँ, विशेषकर गृहणियोँ के अपने जीवन की समस्याएँ, एक का समाज सुधार; एक कहानी ऐतिहासिक होगी, तो एक विज्ञान कथा, एक कोरी कल्पना की उड़ान या हास्य व्यंग्य. अब इन विषयोँ का संतुलन किया जाएगा लेखों से. कुछ लेखों मेँ जीवन सुधारने वाली जानकारी होती थी. कुछ मेँ मात्र मनोरंजन. कुछ मेँ यात्रा. लेकिन लेखों मेँ सामाजिक सुधार का पक्ष अधिक प्रबल होगा, जीवन की ज्वलंत समस्याओं को छुआ जाएगा. महापुरुषों की जीवनियोँ से नवयुवकोँ को प्रेरित किया जाएगा. (स्वयं मैँ ने महापुरुषों पर एक लेखमाला लिखी थी. सामग्री का सुझाव कभी विश्वनाथ जी देते थे, कभी मैँ प्रस्तावित करता था.) छोटे छोटे चुटकुले होंगे, फ़िलर होंगे, सूक्तियाँ होंगी… कुल मिला कर सब रचनाओं मेँ क्षेत्रीय संतुलन होगा–उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम भारत तो होंगे ही, विश्व के भिन्न क्षेत्र भी पाठक को बिना बताए विविधता की झलक देंगे. मान लीजिए भारत के विभाजन का काल है. उन दिनों समाचार पत्रोँ मेँ पाकिस्तान से भाग कर आती महिलाओं पर यौन अत्याचारोँ के विवरण भरे रहते थे. जो महिलाएँ आ रही थीं, उन के दुःखों की कहानियाँ मुँहज़बानी घर घर तक पहुँच रही थीं. आज आप के ज़ेहन मेँ उस ज़माने की वह हिंदू मानसिकता नहीं आती, जिस के रहते हर उस महिला को परित्यक्त कर दिया जाता था, जिस ने अपनी इच्छा से या मजबूरी मेँ जिस के साथ कोई यौन अतिक्रमण किया गया हो. यौन अतिक्रमण तो बड़ी बात है, कोई विधर्मी अगर किसी अबला को छू भी लेता था, तो उस महिला का परित्याग कर दिया जाता था. ऐसी ‘कुलटाओं‘ को या तो वेश्या बनना पड़ता था या मुसलमान या ईसाई. संकुचित हिंदू समाज मेँ उन के लिए कोई स्थान नहीं था. ऐसे मेँ सरिता मेँ उन लेखों की बाढ़ आ गई, जिन मेँ इस अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाई जाती थी. यह बताया जाता था कि इस मेँ बलात्कृत महिला का कोई दोष नहीं है, अगर किसी का दोष है तो उस पति का जो उस की रक्षा नहीं कर पाया और उस समाज का जो उसे सम्मान सहित स्वीकार नहीं कर रहा. आज आप नहीं समझेंगे, लेकिन उस समय यह कहना साहस का काम था. ऐसी रचनाओं ने, कहानियोँ ने, लेखों ने, पाठकोँ के मन को छुआ. मैँ दावे के साथ कह सकता हूँ कि सरिता ने समाज का दृष्टिकोण बदलने मेँ सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. यहाँ तक कि सीता बनवास का सवाल वहीं से उठना शुरू हुआ. लिखा गया कि यदि रावण सीता को ले गया तो दोष सीता का नहीं था, रावण का था. सीता को इस अतिक्रमण की सज़ा किस लिए दी गई? यह राम का अन्याय था, जो उन्होँ ने बाद मेँ सीता को बनवास दिया. सन 47-48-49 मेँ सरिता द्वारा प्रचारित यही मानसिकता थी, जिस की झलक हमेँ राज कपूर की फ़िल्म आवारा मेँ शैलेंद्र के गीत किया कौन अपराध त्याग दई सीता महतारी (मैँ ने जो शब्द उद्धृत किए हैँ, वे शायद कुछ भिन्न हैँ, लेकिन भाव यही था) मेँ मिली. बाद मेँ कुछ इन्हीं भावों को व्यक्त करना वाला एक गीत हमेँ बिमल राय की बिराज बहू मेँ मिला. बहुत पहले रामराज्य फ़िल्म मेँ विजय भट ने एक गीत मेँ बोल रखे थे–यही राम दरबार कहाँ वैदेही. और कुछ बाद यही भाव मेरी कविता राम का अंतर्द्वंद्व का विषय बना. शीर्ष पत्रकार लोग विश्वनाथ जी को कोई ऐसा व्यक्ति समझते हैँ, जो व्यावसायिकता के लिए, अपनी पत्रिका की बिकरी बढ़ाने के लिए हिंदू धर्म विरोधी उत्तेजक रचनाएँ प्रकाशित करता है. लेकिन ऐसा है नहीं. हिंदू समाज कमज़ोर हुआ अपने मूर्खतापूर्ण अंधविश्वासोँ के कारण. आक्रांताओं ने अपनी सेनाओं के आगे गाएँ खड़ी कर दीं, और रक्षक राजपूतों ने तीर नहीं चलाए! ऐसी गोभक्ति और गोसेवा क्या है? मूर्खता! इस के लिए विश्वनाथ जी ने मेरे स्वर्गीय मित्र रतनलाल बंसल को भाँति भाँति की संदर्भ सामग्री दे कर आज का सब से बड़ा देशद्रोह गोहत्या लेख लिखवाया. जो रूढ़िवादी थे, उन्होँ ने तूमार खड़ा कर दिया. विश्वनाथ जी अडिग खड़े रहे. आम पाठक सरिता के साथ रहा. उस ने उसे समर्थन दिया. यही बात मैँ ने 1957 मेँ देखी जब विश्वनाथ जी मेरी कविता राम का अंतर्द्वंद्व के समर्थन मेँ पत्थर की चट्टान की तरह खड़े रहे, न कार्यालय पर तोड़फोड़ की परवाह की, न पथराव की, न आगज़नी की, न मारे जाने की धमकी की, न लंबे चलने वाले मुक़दमे की. हिंदी मेँ मुझे उन जैसा कोई पत्रकार दिखाई नहीं देता, जो अपनी पत्रिका के द्वारा बात करता हो, भाषणोँ और वक्तव्यों के द्वारा नहीं. मुझ से पिछले साठ वर्षों का शीर्ष हिंदी पत्रकार चुनने को कहा जाए तो मैँ उन्हेँ ही चुनूँगा. उन के व्यक्तित्व ने पत्रिका को बनाया, और पत्रिका ने उन के व्यक्तित्व को. अन्यथा हम क्या देखते हैँ? संपादक बनते ही लोग नेताओं के चक्कर लगाना शुरू कर देते हैँ, और अपना निजी प्रचार करते घूमते रहते हैँ. विश्वनाथ जी कभी अपने दफ़्तर से बाहर नहीं निकले, किसी नेता से कुछ नहीं माँगा. उन्हेँ जो कुछ चाहिए था अपने पाठक से चाहिए था. उन्हेँ जो कुछ देना है अपने पाठक को और उस के द्वारा अपने समाज को देना है. ख़ैर, समाज मेँ भाँति भाँति के लोग होते हैँ. सभी अपने अपने तरीक़े से काम करते हैँ. मुझे गर्व है कि पत्रकारिता का पाठ मैँ ने देश की स्वाधीनता के समय से ही सरिता मेँ अनेक पदों पर काम करते करते विश्वनाथ जी से सीखा. उन से अनेक मतभेदों के बावजूद वह मेरे गुरु हैँ और रहेंगे. मुझे गर्व है कि उन से सीखे पाठों के बल पर मैँ 1963 मेँ मुंबई गया – टाइम्स आफ़ इंडिया के लिए हिंदी की फ़िल्म पत्रिका सुचित्रा (बाद मेँ परिवर्तित नाम माधुरी) का समारंभ करने. लेकिन इस से पहले दो तीन बातें और कहनी हैँ. सन 55 मेँ मैँ ने शाम के समय पढ़ते पढ़ते अँगरेजी मेँ ऐमए पास कर लिया था. उस से बहुत पहले ही विश्वनाथ जी ने मुझे कैरेवान मेँ पहले तो उपसंपादक और बाद मेँ सहायक संपादक बना दिया था. वहाँ मुझे संपादन कला मेँ अनेक प्रयोग करने का सुअवसर मिला. सजग देखरेख विश्वनाथ जी की थी, लेकिन अपने विचारोँ को अपने तरीक़े से क्रियान्वित करना मेरे अपने हाथ मेँ था. उन दिनों कैरेवान संकट से गुज़र रहा था. अमरीका से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं (एक ओर लाइफ़, टाइम, न्यूज़वीक, तो दूसरी ओर लेड़ीज़ होम जर्नल, गुड हाउसकीपिंग, कास्मोपोलिटन) से बिकरी को चुनौती मिल रही थी. कभी हम कैरेवान को इस दिशा मेँ मोड़ते, तो कभी उस दिशा मेँ. न पाठक समझ पा रहा था कि हम क्या हैँ, और न स्वयं हम. नौबत कैरेवान को बंद करने के विचार तक आ गई थी. ऐसे मेँ एक दिन मैँ ने, काफ़ी दिनों के विचारमंथन के बाद, विश्वनाथ जी से कहा कि एक क्षेत्र ऐसा है, जहाँ अमरीकी पत्रिकाएँ हमेँ चुनौती नहीं दे सकतीं, वह है – भारत और भारत का समाज, भारत की राजनीति. हमेँ लेआउट और सामग्री मेँ अमरीकी पत्रिकाओं के अनुकरण से हट कर सीधी सादी साजसज्जा के साथ अपनी सार्थक सामयिक सामग्री को स्थान देना चाहिए, तभी हम अपने लिए अलग राह बना पाएँगे. विश्वनाथ जी ने सोचने मेँ एक पल का समय भी नहीं लगाया. शायद अपने निजी चिंतन से वह भी इसी नतीजे पर पहुँच चुके थे. सारी ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी गई. मैँ ने तत्काल अपनी योजना पर काम करना शुरू कर दिया. एक ही साल मेँ कैरेवान की बिकरी दोगुनी हो गई. विविधता वही सरिता वाली, लेकिन विषयोँ का चुनाव भारत के अँगरेजी पाठक को आंदोलित करने वाले प्रश्नों पर. आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक. उन दिनों अँगरेजी साप्ताहिक लिंक निकलता था. वह पूरी तरह वामपंथी था. अतः उस की सामग्री मेँ सीमाएँ थीं. वह एक दृष्टिकोण के समर्थकोँ के ही काम की थी. कुछ और साप्ताहिक और पाक्षिक थे, अब नाम ठीक से याद नहीं आ रहे. शायद एक था फ़ोरम. इलस्ट्रेटिड वीकली था, वही पुराना अँगरेजी ढर्रे का और कला पक्षों पर ज़ोर देता हुआ (तब उस की लोकप्रियता का मुख्य आधार थे वर्गपहेली और नवदंपतियोँ के फ़ोटो!). (बाद मेँ मैँ ने देखा कैसे ख़ुशवंत जी ने उसे एक बिल्कुल नए भारतीय साँचे मेँ ढाल सफलता के नए झंडे गाड़े. उन के बाद कोई इलस्ट्रेटिड वीकली के गौरव को मेनटेन नहीं कर सका.) उन के बीच मेँ कम साधन वाले कैरेवान को फिर से जगह दिला पाना आसान नहीं था. बाद मेँ कैरेवान का यह फ़ारमूला पहले पाक्षिक और अब साप्ताहिक इंडिया टुडे ने अपनाया और सफलता पाई. उस के पास साधन बड़े थे, सामग्री जुटाने के लिए भरपूर धन ख़र्च करने का साहस था, जो विश्वनाथ जी कभी नहीं दिखा पाए. परिणाम सामने है – कैरेवान का नाम बदल कर ऐलाइव हो गया है. मैँ ने वह पत्रिका, ऐलाइव, आज तक नहीं देखी, इस लिए उस पर कमेँट करना मैँ ठीक नहीं समझता. मेरी अपनी धारणा है कि वह ज़्यादा नहीं बिक पाता होगा – क्योंकि कहीं उस का चर्चा दिल्ली प्रैस की ही वूमैन्स ऐरा या गृहशोभा जैसा नहीं सुना. इन दो पत्रिकाओं के बारे मेँ बातें कुछ बाद मेँ करूँगा – जब फ़ेमिना का संदर्भ आएगा. अक्षय कुमार जैन तो, नवंबर 1963 मेँ मैँ मुंबई पहुँचा. वहाँ पुराने मित्र केवल दो थे. मुनीश नारायण सक्सेना और नंदकिशोर नौटियाल. दोनों हिंदी ब्लिट्ज़ मेँ थे – संपादक और सहायक संपादक. पुराने परिचित थे महावीर अधिकारी, नवभारत टाइम्स के मुंबई संपादक. हिंदी पत्रकारिता का कोई भी ज़िक्र नवभारत टाइम्स के उदय और उस मेँ स्वर्गीय अक्षयकुमार जैन और महावीर अधिकारी की बात किए बिना बेमानी रहेगा. हिंदी दैनिकोँ मेँ दिल्ली मेँ दैनिक हिंदुस्तान था. मेरा पहला लेख इसी के साप्ताहिक संस्करण मेँ पंडित गोपाल प्रसाद व्यास ने स्वीकृत किया था. शायद सन 50 मेँ, या 51 मेँ. विभाजन के बाद वीर अर्जुन और हिंदी मिलाप थे. मानसिकता और विषयवस्तु मेँ वे अभी तक हिंदुत्व से और पंजाब से बाहर नहीं निकल पाए, और उन मेँ विभाजन से संबंधित राजनीति का प्रभाव अधिक झलकता था. दिल्ली मेँ पंजाब केसरी का आगमन बहुत बाद मेँ हुआ. वह अभी तक पंजाबी महाशयोँ वाली मानसिकता से निकल नहीं पाया है, लेकिन अपनी लोकप्रियता के फरफराते झंडे उस ने गाड़ रखे हैँ. हिंदी दैनिकोँ मेँ मैँ नई दुनिया, दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय सहारा, राजस्थान पत्रिका जैसे पत्रोँ का नाम लेना चाहूँगा, जिन्हों ने राष्ट्रीय और स्थानीय समाचारोँ मेँ कमाल का संतुलन दिखा कर छोटे छोटे शहरोँ से सफल संस्करण निकाले हैँ और नवभारत टाइम्स को कड़ी चुनौती दी. कहना चाहिए कि उस के दाँत खट्टे कर दिए . 21वीं सदी मेँ नवभारत टाइम्स ने एक बार फिर बढ़त हालिस की. यह बात लेख के दूसरे खंड मेँ करें तो उपयुक्त रहेगा. तो अक्षय जी – मेरी उन से पहली मुलाक़ात 1957 मेँ तब हुई जब राम का अंतर्द्वंद्व के विरुद्ध दैनिक पत्रोँ मेँ मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगला जा रहा था. उन से मिलाने ले गए थे मुझे मेरे घनिष्ठ मित्र और सहकर्मी चंद्रमा प्रसाद खरे. अक्षय जी से मिलने से पहले हम दैनिक हिंदुस्तान के संपादक श्री मुकुट बिहारी वर्मा के पास गए थे. वर्मा जी और मैँ एक दूसरे को थोड़ा बहुत पहचानते थे, साप्ताहिक हिंदुस्तान के कार्यालय मेँ मेरे मित्र रामानंद दोषी और संपादक श्री बाँकेबिहारी भटनागर के पास मेरा आना जाना होने के कारण. हम वर्मा जी से सिर्फ़ यह कहना चाहते थे कि मुझे भी अपने बचाव मेँ कुछ कहने का मौक़ा दिया जाए. लेकिन वर्मा जी तो हमारी बात सुनने से पहले ही भड़क उठे और बुरा भला कहने लगे. दूसरी ओर भाई साहब (अक्षय जी) ने हमारी बात ध्यान से सुनी और कहा कि अपनी बात उन के पत्र के द्वारा कहने का हमारा पूरा अधिकार है. मुझ जैसे ‘बदनाम‘ लेखक को उन का यह आश्वासन देना मेरी नज़र मेँ बड़ी बात थी. मेरे मन मेँ उन का सम्मान स्थापित हो गया और यह मुलाक़ात हम दोनों के बीच अग्रज और अनुज का रिश्ता बनाने मेँ सहायक हुई. इस के 6 साल बाद यह मुलाक़ात ही मुझे टाइम्स आफ़ इंडिया के मुंबई कार्यालय बोरीबंदर तक पहुँचाने का माध्यम बनी. पता नहीं भाई साहब ने मुझ मेँ क्या देखा जो स्वर्गीय श्रीमती रमा जैन और साहू शांति प्रसाद जैन को उन्होँ ने 33-वर्षीय युवक को एक बिल्कुल नई पत्रिका का भार सौंपने के लिए राज़ी करा लिया. विश्वनाथ जी की ही तरह अक्षय जी भी पत्रकारिता मेँ पांडित्य प्रदर्शन की बजाए पाठक की सेवा को महत्व देते थे. ऐसा नहीं कि उन्हेँ साहित्य का या समाज शास्त्र का ज्ञान न हो. पर वे उस का बिल्ला लगाए घूमते फिरते नहीं थे. (विश्वनाथ जी के विपरीत वह सामाजिक प्राणी थे. सभाओं गोष्ठियोँ मेँ भाषण करते फिरते थे. बाँके बिहारी भटनागर और वह इस मामले मेँ कभी कभी हम लोगोँ के बीच हास्य का विषय भी बन जाते थे.) संपादक बनने से पहले रामायण पर उन्होँ ने एक लोकप्रिय फ़ीचर भी लिखा था. हर वह विषय जिस मेँ पाठक की रुचि हो, हर वह चीज़ जो पाठक को जाननी चाहिए, उस पर सामग्री प्रकाशित करना उन का मानो धर्म सा था. लेखक छोटा हो या बड़ा – इस की चिंता उन्हेँ नहीं थी. हाँ, वह सामग्री विद्वत्ता के दंभ से हीन होनी चाहिए. यह बात ठेठ साहित्यकारोँ और महाज्ञानी पंडितों के गले नहीं उतरती, लेकिन पाठक को यह दृष्टिकोण सुहाता है. जब भी किसी लोकप्रिय पत्रिका का संपादक इस तथ्य को नज़रअंदाज कर देता है तो वह मुँह की खाता है. इस का एक महान अपवाद भी है – धर्मवीर भारती, और उन के संपादन मेँ धर्मयुग. लेकिन भारती जी और धर्मयुग का विषय एक स्वतंत्र खंड का हक़दार है. माधुरी और मैँ जब मैँ ने सुचित्रा-माधुरी का समारंभ किया तो मेरे सामने एक स्पष्ट नज़रिया था. मैँ एक ऐसे संस्थान के लिए पत्रिका का आरंभ करने वाला था, जो पहले से ही अंगरेजी की लोकप्रिय पत्रिका फ़िल्मफ़ेअर का प्रकाशन कर रही थी. आरंभ मेँ वहाँ का मैनेजमैँट फ़िल्मफ़ेअर का हिंदी अनुवाद ही प्रकाशित करना चाहता था. इस के लिए मैँ तैयार नहीं था. मेरा कहना था, अनुवाद प्रकाशित करना हो तो आप को संपादक की तलाश नहीं करनी चाहिए, बल्कि किसी ट्रांसलेशन ब्यूरो के पास जाना चाहिए या अपना ही एक ऐसा ब्यूरो खोल लेना चाहिए. फिर तो आप फ़िल्मफ़ेअर क्या, इलस्ट्रेटिड वीकली, फ़ेमिना, टाइम्स आफ़ इंडिया - सभी के हिंदी संस्करण निकाल सकते हैँ! और मैँ ऐसे किसी ब्यूरो का अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं था. अनुवाद वाली योजना मैनेजमैँट की थी, रमा जी को स्वयं क़तई पसंद नहीं थी. जब उन लोगोँ ने मेरी बात स्वीकार कर ली, तो वेतन आदि पर किसी तरह की सौदेबाज़ी किए बिना, यहाँ तक कि वेतन तय किए बिना ही, मैँ मुंबई पहुँच गया. मेरे सामने कई चुनौतियाँ थीं. मैनेजमैँट हमेँ फ़िल्मफ़ेअर की कसौटी पर कसेगा. हिंदी पाठक की माँगें कुछ और हैँ. उन दिनों हिंदी मेँ बहुत सारी फ़िल्मी पत्रिकाएँ निकलती थीं. अधिकांश मेँ बड़े घटिया ढंग से लिखी फ़िल्म कहानियाँ प्रकाशित होती थीं. माहौल यह था कि फ़िल्म पत्रिकाओं का घरोँ मेँ प्रवेश बुरा समझा जाता था. फ़िल्म पत्रिका तो दूर, फ़िल्म देखना भी चारित्रिक पतन का लक्षण माना जाता था. और ऐसे मेँ मैँ अपनी पत्रिका को घर घर जाने वाली फ़िल्म पत्रिका बनाना चाहता था, जिसे बाप बेटी और माँ बेटा निस्संकोच साथ साथ पढ़ सकें. इस के साथ साथ मेरी अपनी सीमाएँ भी थीं. मैँ सरिता , कैरेवान, मुक्ता, उर्दू सरिता जैसी पत्रिकाओं मेँ काम कर चुका था. अपने को कुछ कुछ कवि भी समझता था. कलाचित्रोँ और मूर्तियोँ की, नाटकोँ की समीक्षाएँ किया करता था, फ़िल्मों की भी. लेकिन न फ़िल्मी कलाकारोँ के बारे मेँ बहुत जानता था, न तकनीक के बारे मेँ, न कला के. मुझे पत्रिका निकालते निकालते सब कुछ जानना और सीखना था. सब से पहले मैँ ने फ़िल्मफ़ेअर के फ़ारमैट को अपना आधार बनाया, क्योंकि हमारी हिंदी पत्रिका का साइज़ भी वही था. फ़िल्मफ़ेअर जैसे ही कुछ स्थायी स्तंभ. यहाँ तक मैनेजमैँट को ख़ुश करने के लिए था. साजसज्जा के लिए मैँ ने कला विभाग से कहा कि उस से मिलती जुलती न हो कर कुछ अलग हो. हमेँ अपनी एक अलग छवि बनानी थी, पुरानी हिंदी फ़िल्म पत्रिकाओं से और फ़िल्मफ़ेअर से. फ़िल्मों के बारे मे जो मैँ जानना चाहता था, वह जानने मेँ पाठकोँ की रुचि भी होगी – यह सोच कर मैँ ने काफ़ी सामग्री वैसी ही बनवाने की कोशिश की – जैसे एक सचित्र फ़ीचर – फ़िल्में कैसे बनती हैँ. फ़िल्मफ़ेअर मेँ संगीत पर विशेष खंड नहीं था. मैँ ने सोचा कि हमारी फ़िल्मों मेँ सब से लोकप्रिय तत्त्व है संगीत. तो उस के बारे मेँ पर्याप्त सामग्री होनी चाहिए. फ़िल्में बनाने मेँ अकेले अभिनेता और निर्देशक और निर्माता ही नहीं होते, अनेक प्रकार के सहयोगी होते हैँ, नृत्य निर्देशक, सैट बनाने वाले, कैमरा चलाने वाले… उन सब के बारे मेँ भी पाठकोँ को बताया जाए. और इस से भी महत्वपूर्ण यह बात कि उन दिनों जो हिंदी फ़िल्मों का पेड़ों के गिर्द नाचने वाला बचकाने से रोमांस का फ़ारमूला था, उस से दर्शक ऊब चुके थे. मैँ ने सोचा कि ऐसी फ़िल्मों की तीखी आलोचना की जाए और जो भी अच्छी फ़िल्में निर्माणाधीन हों, जिन मेँ कुछ साहित्यिकता होने की संभावना हो, कुछ ऐसा हो जो लोकप्रिय भी हो सके और जिस का स्तर ऊँचा और सुरुचिपूर्ण हो, उसे प्रोत्साहन दिया जाए. साहित्यकारोँ को फ़िल्मों के बारे मेँ गंभीरता से सोचने का अवसर देने के लिए उन से लिखवाया जाए, निर्माता-निर्देशकोँ से साहित्य की, साहित्यकारोँ की चर्चा की जाए. और विश्व मेँ जो श्रेष्ठ सिनेमा बन रहा है, उस के बारे मेँ हिंदी वालोँ को बताया जाए. सब कुछ एक ऐसी शैली औऱ भाषा मेँ जो पाठकोँ की समझ मेँ आ जाए. मेरे लिए यह इस लिए भी सहज था कि मैँ स्वयं अज्ञानी था. जो बात मेरी समझ मेँ नहीं आती थी, मैँ मान लेता था कि पाठकोँ की समझ मेँ भी नहीं आएगी. इस प्रकार शुरू हुआ सुचित्रा-माधुरी का सफ़र. पहले अंक की प्रतियाँ ले कर हमारे रिपोर्टर जाने माने फ़िल्म वालोँ से मिले. सब ने प्रशंसा की. सब से अच्छी टिप्पणी शांताराम जी ने की थी. वह मुझे अब तक याद है. उन्होँ ने कहा, इस मेँ फ़िल्मफ़ेअर की झलक है, यह अच्छा नहीं है. मैँ ने उन से तत्काल प्रार्थना की कि भविष्य मेँ भी हम पर नज़र रखें और मार्गदर्शन करते रहें. और उन से हमेँ हमेशा प्रोत्साहन मिलता भी रहा. माधुरी सफल हिंदी पत्रिकाओं मेँ गिनी जाती है. लेकिन जो बात मुझे माधुरी मेँ रहते समझ मेँ नहीं आई, और अब तक नहीं समझ पाया हूँ, वह यह कि पाठक फ़िल्मी गौसिप क्यों पढ़ना चाहते हैँ. मैँ कभी गौसिप नहीं छाप पाया. यही नहीं, मुझे नहीं लगता कि हिंदी मेँ कोई भी वैसी गौसिप लिख और छाप पाता है जैसी अँगरेजी फ़िल्म पत्रिका स्टारडस्ट ने शुरू की. हिंदी तो क्या, अँगरेजी की फ़िल्मफ़ेअर जैसी पत्रिकाएँ भी इस मामले मेँ पिछड़ रही थीं. जिस तरह फ़िल्मफ़ेअर ने अपनी साजसज्जा से फ़िल्मइंडिया (बाद मेँ मदर इंडिया) को पिछाड़ दिया था, उसी तरह स्टारडस्ट ने अपनी चाशनीदार हिंदी-मिश्रित अँगरेजी से और एक अजीब से ईर्षा-मंडित कैटी (बिल्लीनुमा – उस के गौसिप वाले पन्नों मेँ एक बिल्ली बनी होती थी) रवैये से फ़िल्मफ़ेअर को पिछाड़ दिया. उस मेँ फ़िल्म समीक्षा तक नहीं होती थी. गौसिप वाले फ़ीचरोँ के अतिरिक्त जो भी सामग्री होती थी, वह सिर्फ़ स्टार मैटीरियल होती थी. उस मेँ भी बस गौसिप और गौसिप. मेरी नज़र मेँ यह अच्छा हो या बुरा, लेकिन सच यह है कि यही उस की दिनो दिन बढ़ती बकरी का आधार बना. इस संदर्भ मेँ एक फ़ालतू सा सवाल है कि हमेँ पैसा कमाने के लिए किस हद तक जाना या नहीं जाना चाहिए? आज तो हर हिंदी अँगरेजी दैनिक समाचार पत्र और सभी टीवी न्यूज़ चैनल पर फ़िल्मों और फ़िल्मी गौसिप छाई रहती है. (अच्छा है कि मैँ समांतर कोश बनाने कि लगन मेँ माधुरी छोड़ आया–वरना मेरे लिए माधुरी को गौसिप और अश्लील चित्रोँ वाली पत्रिका बनाना असंभव ही होता.) धर्मयुग माने भारती धर्मयुग को एक समय हिंदी की पताका कहा जा सकता था. उसे यह पद दिलाने का काम किया था डाक्टर धर्मवीर भारती ने. मुंबई जाने से पहले मैँ उन्हेँ कालजयी नाटक अंधा युग के लेखक के तौर पर जानता था. उन से सारे हिंदी जगत को ईर्ष्या है, यह भी मैँ जानता था. इस ईर्ष्या का कारण मैँ न तब समझा, न अब तक समझ पाया हूँ. जहाँ तक पाठक-दर्शक वर्ग का संबंध है, या किसी के कृतित्व के आकलन का प्रश्न है, ये सारी बातें संदर्भातीत हो जाती हैँ. पाठक को इस से कोई मतलब नहीं है कि कौन कैसा है. उस ने क्या लिखा है, उस मेँ कितनी गहराई है, मार्मिकता है – यही पाठक के काम की बात होती है. अगर भारती धर्मयुग मेँ नहीं आते, तो उन्होँ ने अंधा युग से भी महान कोई अन्य रचना रची होती या नहीं – यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहेगा. मुझे लगता रहा है कि धर्मयुग का वरण कर के उन्होँ ने अपने को होम दिया. धर्मयुग उन के लिए पत्नी, प्रेमिका, बच्चे, परिवार – सब कुछ था. वही उन का ओढ़ना था, वही बिछौना. पुष्पा जी को धर्मयुग अपनी सौत लगता था. भारती जी का अपना साहित्यिक मत जो भी रहा हो, उन्होँ ने साहित्य के विवादों को धर्मयुग मेँ सर्वोच्च स्थान कभी नहीं लेने दिया. एक एक पन्ने को उपयोगी सामग्री से ढूँसना उन्हीं का काम था. अपने आप को आधुनिक मानने वाले पत्रकार सजावट के पीछे अपने कम पन्नों का क़ीमती स्थान बरबाद कर देते हैँ. भारती जी तो बहुत सारे फ़ोटो भी डाकटिकट जितने आकार के छापते थे, ताकि पाठक को पढ़ने की सामग्री पूरी मिले. उन्होँ ने हिंदी के पाठक की ज्ञान की पिपासा को पूरी तरह समझ लिया था. वह पाठक को छका कर ज्ञानरस पिलाना चाहते थे. धर्मयुग की बिकरी सें सब से तेज़ी से बढ़त तब हुई जब अमरीका चाँद पर आदमी उतारने वाला था, और धर्मयुग ने अपने पन्नों पर उस की हर तरह की जानकारी बिखरा दी. यह एक मोटा सा उदाहरण है. सौर ऊर्जा हो, तो भी धर्मयुग के पन्नों पर उस के लिए जगह थी. रसोई के काम की नई चीज़ हो तो भी, और पाकिस्तान मेँ जीए सिंध आंदोलन हो तो उस के बारे मेँ भी. बांग्ला देश के युद्ध मेँ तो भारती जी ने स्वयं जा कर रिपोर्टिंग की, और पाठकोँ को अपनी लेखनी से सराबोर कर दिया. बिकरी बढ़ी यह उस का परिणाम था, उद्देश्य नहीं. ठीक वैसे ही जैसे हिंदू समाज के कूड़ा करकट को निकाल फेंकना विश्वनाथ जी के लिए बिकरी का नहीं, निजी अभिव्यक्ति का साधन था. भारती जी का मन जब धर्मयुग से ऊबने लगा (अनेक कारणोँ से, जिन मेँ टाइम्स समूह के बदलते मैनेजमैँट का भी हाथ था), तो धर्मयुग मेँ वह बात नहीं रह गई. तब तक मैँ दिल्ली आ चुका था, इस लिए बहुत कुछ नहीं कह सकता. भारती जी के बाद तो धर्मयुग गिरता ही चला गया. मैँ यही कहूँगा कि मैनेजमैँट की ज़िम्मेदारी तो है ही, उन लोगोँ की भी है, जो उस के संपादकीय कर्ताधर्ता बने. उन्होँ ने पाठक को समझने की कोशिश कम की, और अपनी निजी पसंद या नापसंद को, मैँ तो कहूँगा अपने नासमझ को, अधिक प्रश्रय दिया. एक दो बार मैँ ने बाद का धर्मयुग देखा. मैँ अपने से पूछता कि क्या यह ख़रीदने के लिए मैँ अपना पैसा ख़र्च करूँगा? उत्तर नकारात्मक होता. मैँ उस पर अपना समय भी लगाना उचित नहीं समझता. पराग और सारिका मैनेजमैँट किस प्रकार किसी पत्रिका का भला चाहते हुए भी समाप्त कर सकता है, इस का सर्वोत्तम उदाहरण है पराग . (बाद मेँ यही थोड़े बहुत अंतर के साथ अन्य पत्रिकाओं के साथ भी घटा.) उस के संपादक थे सरिता के दिनों से ही मेरे मित्र और सिद्धहस्त कथाकार और कल्पनाशील आनंद प्रकाश जैन. तमाम उन बंधनों और सीमाओं के जो कि प्रकाशकोँ ने पराग पर लगा रखी थीं, पराग अच्छा ख़ासा चल रहा था. एक बंधन और सीमा यह थी कि उस मेँ परियोँ की कहानियाँ नहीं छापी जाएँगी. प्रकाशकोँ का विचार था कि बच्चों के लिए यह कोई अच्छी चीज़ नहीं होती. मैँ समझता हूँ कि परीकथाएँ बच्चों की कल्पनाशीलता और स्वप्नशीलता को प्रोत्साहित करने का उत्तम साधन होती हैँ. देवी देवताओं की कहानियाँ भी इसी लिए बंद थीं. इस का भरपूर लाभ मिल रहा था हिंदुस्तान टाइम्स के नंदन को, और दक्षिण से प्रकाशित होने वाले चंदा मामा को . फिर भी, पराग अच्छा ख़ासा चल रहा था. उन दिनों अँगरेजी मेँ स्टेट्समैन वाले कलकत्ता से जूनियर स्टेट्समैन निकालने लगे थे. अँगरेजी पढ़े लिखे शहरी तबक़ों मेँ उस का काफ़ी रुआब बन गया था. मैनेजमैँट ने कहा कि पराग को किशोरोँ की पत्रिका बना दिया जाए और जूनियर स्टेट्समैन से प्रेरणा ली जाए. यह तथ्य नज़रअंदाज कर दिया गया कि चंद बड़े शहरोँ के बाहर जूनियर स्टेट्समैन का अस्तित्व ही नहीं था. सवाल यह था और अब भी है कि हिंदी का जो पाठक बड़े शहरोँ मेँ रहता था वह भी उस कृत्रिम और नक़लची संस्कृति को नहीं जानता समझता था जो बचपन से ही अँगरेजी वातावरण मेँ पनपने वाले वर्ग को मिलती है. बड़े शहरोँ से निकलते ही, वह संस्कृति विलीन हो जाती है. हिंदी बाल पत्रिका वहीं बेची जाने वाली है. इस के साथ ही साथ यह समस्या भी है कि जब पत्रकार उस संस्कृति को जानते ही नहीं, तो उस मेँ पले बढ़े पाठक के लिए वे काम की सामग्री कैसे दे सकते हैँ? देंगे तो पाठक कहाँ से आएँगे? दिक़्क़त यह थी कि धनी प्रकाशकोँ के अपने बच्चे उसी संस्कृति मेँ पले बढ़े थे, और वे अपने संपादक से वही चाहते थे. वह नहीं दे पाता था तो उसे मूर्ख, अज्ञानी और अयोग्य समझते थे. सत्तर आदि दशक मेँ मूर्ख, अज्ञानी और अयोग्य कौन था – यह कहना कठिन है. नया रूप नहीं चला तो पराग को एक बार फिर बच्चों की पत्रिका बनाने के आदेश दिए गए. लेकिन न आनंद प्रकाश जी, न उन के बाद कोई और संपादक पराग को पहले जैसा वैभव दे पाया. एक बार वह पाठक के मन से उतरा तो उतरा ही रहा. न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम! हाँ, बाद मेँ हरिकृष्ण देवसरे कुछ जान पराग मेँ डाल पाए. बहुत दिन वह भी पराग को जीवित नहीं रख सके. मोहन राकेश के बाद सारिका पर आनंद प्रकाश जैन और चंद्रगुप्त विद्यालंकार हाथ आज़मा चुके थे. कहानियोँ जो विविधता चाहिए, उस की ओर इन दोनों ने ध्यान नहीं दिया. तब कमलेश्वर आए. वह उसे कहानी की बहुचर्चित पत्रिका बना पाए. उस का कारण विविधता नहीं थी. कमलेश्वर का अपना सजीव चेतन व्यक्तित्व था. सभी साहित्यकारोँ के लिए सारिका लेना एक तरह से आवश्यक बन गया. साहित्यकार भी संख्या मेँ कम नहीं हैँ. अतः पत्रिका एक बार फिर विकासोन्मुख हुई. कमलेश्वर ने यह भी ध्यान रखा कि कहानियाँ रोचक हों. फिर उन्होँ ने समांतर कहानी आंदोलन छेड़ दिया. पहले आनंद प्रकाश जैन सचेतन कहानी आंदोलन छेड़ चुके थे. पत्रिका मेँ प्रकाशित होने वाले लेखकोँ की संख्या आंदोलन से जुड़े लोगोँ तक रह गई. फिर भी पत्रिका चलती रह सकती थी, क्योंकि उस आंदोलन के लेखकोँ की रचनाओं मेँ पठनीयता थी, और जब तक सामग्री पठनीय है, पाठक को इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लेखक यह है या वह. लेकिन तभी कुछ व्यक्तिगत कारणोँ से संचालक परिवार के दो एक सदस्यों को कमलेश्वर अप्रिय हो गए. सन 77-78 के कुछ राजनीतिक कारण भी रहे कहे जाते रहे हैँ. मेरी राय मेँ कमलेश्वर के जाने मेँ राजनीति नहीं ही थी. जो भी हो, कमलेश्वर ने सारिका छोड़ दी. बाद मेँ वह पनप नहीं पाई. किसी को भी समझ मेँ नहीं आया कि जो कमलेश्वर का अपना पाठक वर्ग था, उस के रूठ जाने के बाद सामान्य पाठक को कैसे आकर्षित किया जाए. बात कहानी की चल रही है. मैँ स्वयं कहानीकार नहीं कहानी पाठक हूँ. तो मैँ यह भी कहना चाहूँगा कि हिंदी कहानी अपने को पाठक से काटने पर तुली है. कहानीकार अपने को प्रथम श्रेणी का साहित्यकार मानते हैँ, और वे लोग पाठक के लिए नहीं, समालोचकोँ को प्रसन्न करने के लिए लिख रहे हैँ. उन की रचनाएँ पत्रकारिता के नहीं, साहित्यकारिता के दायरे मेँ आती हैँ. हिंदी मेँ साहित्यकारिता मेँ आज सफलतम हैँ – राजेंद्र यादव और उन का मासिक हंस. हंस मेँ कहानियाँ प्रकाशित करने के साथ समाज पर भी महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित करते हैँ, और अपने लिए अच्छा ख़ासा सामान्य पाठक वर्ग तैयार कर पाए हैँ. यदि राजेंद्र जी को बुरा न लगे, तो मैँ कहूँगा कि उन्होँ ने विश्वनाथ जी के सुधारवादी आंदोलन पर दलित और नारी विमर्ष का मुलम्मा भर चढ़ाया है. लेख सरिता जैसे सामाजिक और पारिवरारिक विषयोँ पर नहीं होते. उन्हेँ सैद्धांतिकता से मँढा जाता है. पर अंततोगत्वा वे हिंदू धर्म और समाज मेँ परिवर्तन का अलख तो जगाते ही हैँ. विश्वनाथ जी की जब अपनी ऊर्जा चुक सी गई और संपादकीय बाग़डोर उन के पुत्र परेशनाथ के हाथों आई तो नए युग के लिए नई पहचान वाली जो इंग्लिश पत्रिका Womans’ Era शुरू की थी, और विश्वनाथ जी की ही देखरेख मेँ जिस का हिंदी संस्करण गृहशोभा निकाला गया था, उसे परेशनाथ लगातार परिवर्तनशील सामयिक रूप देते रहे हैँ. यहाँ तक कि किसी भी अन्य महिला पत्रिका का इन के मुक़ाबले टिक पाना असंभव हो गया है. सर्वोत्तम अस्सी आदि दशक के आरंभ मेँ टेलिविज़न के विस्फोट ने हिंदी पत्रोँ से सामान्य पाठक को और भी दूर कर दिया था. एक तो पहले ही हिंदी पाठक अपनी अकर्मण्यता और रुचिहीनता के लिए सुविख्यात या कुख्यात है, वह कम से कम पढ़ना चाहता है, ख़रीद कर तो और भी कम पढ़ना चाहता है, ऊपर से उस के जीवन मेँ जो थोड़ा बहुत ख़ाली समय था, उसे टीवी ने भर दिया. वहाँ उसे काव्य, गीत, संगीत, कहानी, हास्य – सब मिलता था, सहज पाच्य शैली मेँ. टीवी ने विज्ञापकोँ भी अपनी ओर खींचा. उन के बजट का बड़ा हिस्सा टीवी पर चला गया. प्रिंट मीडिया मेँ केवल कुछ बड़े अख़बारोँ तक, वह भी अधिकतम बिकरी वाले अख़बारोँ तक ही ख़र्च करने के लिए विज्ञापकोँ पर पैसा बचा था. इस चैलेंज से अमरीकी प्रिंट मीडिया भी नहीं बच पाया था. लाइफ़ जैसी पत्रिकाएँ धराशायी हो गईं. सामान्य मध्यम वर्गीय पाठक की पत्रिकाओं मेँ केवल रीडर्स डाइजेस्ट ही बच पाया था. इस का कारण यह था कि विज्ञापकोँ ने इस वर्ग के पत्रोँ मेँ से रीडर्स डाइजेस्ट को समर्थन देने के लिए सर्वसम्मति से चुन लिया था. लेकिन अपने आप को बदलते समाज के अनुरूप न ढाल पाने के कारण अमरीका मेँ पिछले कुछ सालोँ से उस की लोकप्रियता दिनोदिन घटती जा रही है. सुधार के अनथक प्रयासोँ के बावजूद कोई बहुत आशाप्रद तस्वीर बन नहीं बन पा रही है. भारत मेँ वैसी हालत नहीं है. उस का भारतीय अँगरेजी संस्करण अब भी बिक पा रहा है. एक कारण है– उस के भारतीय पाठक उस वर्ग के हैँ जिसे हम नक़लची कह सकते हैँ. सर्वोत्तम के पाठक उस कोटि मेँ नहीं आते थे. यहाँ भी कुछ उदाहरण दे कर ही बात स्पष्ट की जा सकती है. कनाडा मेँ आधी से अधिक सामग्री कनाडा की छपती है, भारत मेँ भारत की नहीं. भारत मेँ कुछ भी घटता रहे, यहाँ के डाइजेस्ट मेँ उस के बारे मेँ कुछ नहीं छपता था. लगता था उस का संपादन मंडल किसी अमरीकी ओलिंपस पर्वत पर बैठा है, नैसर्गिक बादलोँ के नीचे जो भारतीय संसार है, वह उसे नहीं दिखाई देता. दूसरा कारण है उस का स्वामित्व टाटा से हट कर इंडिया टुडे के हाथों आ जाना. लेकिन कहना होगा कि डाइजेस्ट के लेख बहुत अच्छी तरह लिखे होते हैँ. उन की शैली से हिंदी वाले बहुत कुछ सीख सकते हैँ. लेकिन पत्रकारिता मात्र शैली नहीं होती. लेखक संसार को कैसे देख रहा है – इस से भी उस का सरोकार होता है. केवल एक उदाहरण – मान लीजिए श्रीलंका के बारे मेँ कोई लेख है. कोई अमरीकी वह लेख लिखता है, तो वह पश्चिम की नज़र से उस के इतिहास को देखेगा, यह बताएगा कि अंगरेजी का सैरेनडिपिटी शब्द उस द्वीप के अरबी नाम सेरेनदीव से बना है, कि वहाँ आर्थर क्लार्क रहते हैँ…. यदि कोई भारतीय लिखेगा तो वह श्रीलंका से भारत के पुराने संबंधों की बात करेगा, रामायण की बात करेगा, सम्राट अशोक की बेटी संघमित्रा के बारे मेँ बताएगा, आज वहाँ की राजनीति मेँ तमिल और सिंहल टकरावों के पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालेगा. भारतीय पाठक को अँगरेजी के डाइजेस्ट मेँ यह सब नहीं मिलता, और उसे इस की परवा भी नहीं है, क्योंकि वह अपने आप को आम भारतीय से कुछ भिन्न, कुछ अलग, कुछ ऊपर समझता है. अब हालत थोड़ी बहुत बदल रही है. संस्थापक वालेस दंपति के लेआउट फ़ारमूले को बदल दिया गया है. स्थानीय सामग्री की मात्रा बढ़ी है. लेकिन हिंदी पाठक वैसा नहीं है. जब मैँ वहाँ था, तो सर्वोत्तम मेँ हम ने हिंदी पर और भारतीय विषयोँ पर कुछ विशेष लेख लिखवाए थे. मैँ ने पंडित गोपाल प्रसाद की एक पुस्तक मेँ से मथुरा पर एक अद्वितीय लेख छापा था, जिस मेँ वहाँ के त्योहारोँ का, छप्पन भोगोँ का वर्णन था; रामायण पर परिभाषात्मक पुस्तक लिखने वाले डाक्टर कामिल बुल्के पर विशेष लेख छापा था… इलस्ट्रेटिड वीकली भी साप्ताहिकोँ की बात करें तो हमेँ देखना होगा कि केवल धर्मयुग और दिनमान ही बंद नहीं हुए, इलस्ट्रेटिड वीकली भी बंद हुआ. क्यों? ख़ुशवंत सिंह जी के जाने के बाद वीकली फिर रट मेँ पड़ गया. पाठक को हर अंक मेँ जो नवीनता और चुनौती ख़ुशवंत फेंकते थे, वह समाप्त हो गई. उस के जो संपादक आए उन मेँ वह सजग सृजनशीलता और कल्पनाशीनता नहीं थी, जो चाहिए थी. धर्मयुग मेँ भारती जी ने कभी कमाल दिखाया था. लेकिन टीवी विस्फोट के बाद जो चुनौती आई थी, जिस तरह तेजी से पाठक की माँगें बदली थीं, वह उस से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाए तो इस मेँ मैनेजमैँट का भी हाथ था. इसी प्रकार दिनमान का प्रश्न है. दिनमान को इंडिया टुडे से बड़ी पत्रिका बनाया जा सकता था. लेकिन न तो उस के लिए खुले दिल से संसाधन जुटाए गए, न उस के संपादन विभाग को वैसी जिम्मदारी सँभालने के लिए प्रशिक्षित किया गया, न तैयार. ऊपर से बंद करने की धमकी हमेशा सिर पर सवार रखी जाती थी. इस संदर्भ मेँ श्री अशोक जैन के पुत्र समीर जैन का नाम बार बार उछाला जाता है. मैँ समीर से एक दो बार तब मिला था, जब वह बहुत कमउम्र थे. उन का दृष्टिकोण बन ही रहा था. वह स्वामीनाथन के चित्रोँ के दीवाने थे. उन मेँ एक नई दृष्टि थी, और वह उतावले थे. वह भारतीय पत्रकारिता को एक दम से आधुनिकतम रोचक अमरीकी स्तर तक ले जाना चाहते थे. ऐसा चाहना पूरी तरह ग़लत नहीं कहा जा सकता. (इक्कीसवीं सदी मेँ उन के विचारोँ ने भारतीय पत्रकारिता के लिए नए पैमाने स्थापित किए हैँ) लेकिन तब उन की उतावली उन्हेँ अच्छा मालिक-संचालक बनने से रोक रही थी. अपने संपादकोँ को अपनी बात न समझा पाना उन की अपनी कमज़ोरी कहा जाएगा. अपने उतावलेपन से संपादकोँ के मन मेँ अपने प्रति अरुचि जगा देना भी उन की अपनी भूल कहा जाएगा. एक दो संपादकोँ से मैँ ने सुना है कि वह सब के सामने किसी भी संपादक का अपमान करने से नहीं चूकते थे. संपादकोँ को श्रीमती रमा जैन के शिष्ट व्यवहार की आदत थी. दूर से जो कुछ मैँ ने सुना है, समझा है, उस के आधार पर मैँ यह कह सकता हूँ कि समीर के मन मेँ अपने पत्रोँ को नए युग के अनुरूप ढालने की सही आकांक्षा रही होगी. लेकिन उन के अपने व्यवहार ने उन के उद्देश्यों को, जहाँ तक हिंदी पत्रोँ का सवाल है, असफल कर दिया. मैनेजमैँट ने बिना सोचे समझे ऊटपटांग और पूरी तरह अव्यावसायिक आदेश देने शुरू कर दिए. धर्मयुग मेँ इलस्ट्रेटिड वीकली से अनूदित रचनाएँ छापने के आदेश दिए जाने की बात मैँ ने सुनी है. पता नहीं कहाँ तक सही है. माधुरी को हिंदी फ़िल्मफ़ेअर बना दिया गया – यह तो सब जानते हैँ. कुछ दिन मैँ ने वामा को नज़दीक से समझने की कोशिश की थी. मैँ जानता हूँ उसे हिंदी फ़ेमिना बनाया जाने वाला था. जैसे हिंदी फ़िल्मफ़ेअर नहीं चल पाया वैसे ही हिंदी फ़ेमिना भी नहीं चल पाती. मैँ ने सुना है पहले इसी तरह की योजना नवभारत टाइम्स को हिंदी टाइम्स आफ़ इंडिया बनाने की थी! हिंदी ब्लिट्ज़ के साथ आधी समस्या यह भी थी. कुछ ऐसी ही समस्या हिंदी इंडिया टुडे के साथ भी है. इन सब अँगरेजी पत्रोँ के लेखक संपादक भारतीय हैँ – यहाँ तक तो ग़नीमत है, लेकिन अँगरेजी हिंदी पाठकोँ की रुचियोँ मेँ स्तर मेँ जो अंतर है, पत्रकारिता मेँ उसे भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. अगर पत्रिका माल है, तो हमारा माल अपने ग्राहक की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला तो होना चाहिए. मुझे गुलाब जामन पसंद हैँ, तो आप मुझे केक तो नहीं बेच सकते. यह कहना ग़लत है कि हिंदी पाठक के पास पैसा नहीं है. छोटे से छोटे कस्बे मेँ धनी व्यापारी भरे पड़े हैँ. कितने सरकारी अफ़सर हैँ, पुलिसिए हैँ, आयकर वाले हैँ, पटवारी हैँ, ज़मींदार हैँ, जिन्हों ने बेतहाशा सफ़ेद और धन कमाया गया है. वे सब पैसा ख़र्च करने को उतावले हैँ. ये सब लोग मूलतः हिंदी के पाठक हैँ. यही लोग संगीत की दुनिया को मालामाल कर रहे हैँ. दिक़्क़त सिर्फ़ यह है कि उन्हेँ हिंदी मेँ वह माल नहीं मिल रहा जिस पर वे पैसा ख़र्च करना चाहें. सांध्य टाइम्स टाइम्स के ही हिंदी सायंकालीन दैनिक सांध्य टाइम्स का उल्लेख करना आवश्यक है. जब जब मेरे मित्र सत सोनी के हाथ मेँ यह पत्र आया और जब तक रहा, ख़ूब चमका. वर्तमान हिंदी पत्रकारोँ मेँ सत सोनी सब से अधिक आधुनिक और पाठक के नए तेवर को समझने वाले पत्रकार हैँ – यह मैँ उन से पिछले पचास सालोँ के संपर्क के आधार पर कह सकता हूँ. सोनी के जाने के बाद देखने मेँ आया कि सांध्य टाइम्स मेँ कुछ पन्ने अँगरेजी मेँ छापे गए. क्यों? मैँ नहीं जानता. हिंदी पाठक अँगरेजी सामग्री के लिए पैसा क्यों ख़र्चे? बात इतनी ही नहीं है. जब कोरी व्यावसायिकता पत्रकारिता पर हावी हो जाती है, तो मैनेजमेँट बहुत सारी बातें सोचने लगते हैँ. जहाँ कार्यालय है, उस जगह का बाज़ार भाव क्या है? उस भाव के हिसाब से जो मुनाफ़ा समाचार पत्र दे रहे हैँ, क्या वह उस से मिल सकने वाले मासिक सूद से कम है? यदि वहाँ, मान लीजिए, होटल खोल दिया जाए, तो कितना मुनाफ़ा कमाया जा सकता है? जब इस तरह हानि लाभ की गिनती की जाने लगेगी, तो शहर के बीच मेँ बने हर अख़बार के दफ़्तर को या तो बंद करना पड़ेगा, या फिर दूर किसी गाँव मेँ ले जाना पड़ेगा! मैँ ने यह उदाहरण जान बूझ कर दिया है. ऐसा एक बार सोचा गया था – मुंबई मेँ टाइम्स के बोरीबंदर स्थित कार्यालय के बारे मेँ. कार्यालय तो बंद नहीं किया गया, लेकिन पत्रोँ को दूकान बना दिया गया. फ़ेमिना को फ़ैशन शो का व्यापारी बना दिया गया, और फ़िल्मफ़ेअर को पुरस्कार समारोह से मिलने वाली आमदनी की दूकान. इन के प्रायोजित कार्यक्रमों से करोड़ों कमाए जाने लगे. अब ये पत्रिकाएँ हैँ या कुछ और? मुक़ाबले मेँ हम देखते हैँ कि फ़ेमिना जैसी और दिल्ली प्रैस से विश्वनाथ जी की देखरेख मेँ प्रकाशित होने वाली अँगरजी पत्रिका वूमैन्स ऐरा और हिंदी की गृहशोभा बड़ी शान से पत्रकारिता का झंडा लहरा रही हैँ. अँगरेजी साप्ताहिक इलस्ट्रेटिड वीकली के बारे मेँ बात करने के लिए भी यह सही प्रसंग है. जो पत्रिका मर रही थी, उसे ख़ुशवंत सिंह जी ने जीवंत बना दिया और दौड़ा दिया. उन के बाद वह जीवंतता फिर विलीन हो गई. यदि इलस्ट्रेटिड वीकली को भी व्यवसाय बनाने का कोई माक़ूल तरीक़ा मैनेजमैँट को मिल जाता तो वह बंद नहीं होता. यही धर्मयुग के साथ हुआ, सारिका के साथ भी. जहाँ तक फ़ेमिना का प्रश्न है, या फ़िल्मफ़ेअर का, या अँगरेजी मेँ मुंबई से निकलने वाले इन जैसे अन्य पत्रिकाओं का, उन की चमक दमक ही अब सब कुछ है. यह महँगी चमक दमक अपने आप को मौड कहने वाले पाठक को और विज्ञापक को प्रभावित करती है. जितना पैसा इन के एक अंक के मुद्रण पर ख़र्च किया जाता है, उतना किसी हिंदी पत्रिका पर पूरे साल मेँ भी नहीं होता था. यह सही है कि हर व्यवसायी पहले व्यवसायी होता है. तत्काल लाभ कमाना उस के लिए प्राथमिकता है. अन्यथा वह ज़्यादा दिन टिक नहीं सकता. लेकिन भविष्य के बाज़ारोँ को पहले से तैयार करना और साधना भी व्यावसायिकता है, और दूरदर्शी व्यावसायिकता है. पिछली सदी के अंत के सालोँ मेँ पत्रकारिता के क्षेत्र मेँ निराशाजनक दृश्य दिखाई दे रहा था. अधिकांश पत्रकार अपने आप को नई चुनौतियोँ के लिए तैयार नहीं कर रहे थे. जो बडे व्यवसायी हैँ, वे भविष्य के लिए तैयार नहीं थे. लेकिन नई सदी के पहले दशक मेँ सारी तस्वीर बदल चुकी है. लगता है एक दम नवजीवन का, नई ऊर्जा का विस्फोट हो चुका है. The Definitive Reference Access 6,00,000 expressions in English and Hindi instantly! 10% DISCOUNT ON ONLINE PURCHASES! Click to order now! Or Call Sales at (+91) 9810016568 Share on emailShare on printMore Sharing Services Search Lexicon Search Articles Popular Articles Recent Comments Popular Tags Categories The Best Online Resource Arvind Lexicon is the best electronic English/Hindi Dictionary & Thesaurus. Users can find the word they want when they want through a superb proprietary navigation system. Access is completely free for registered users. Click here to Read More Awards Arvind's Books Arvind Sahaj Samantar Kosh Vijay Kumar Malhotra explains the Penguin book in a PPT demo The three volumes of the Penguin book TV personality Dua looks at the Penguin book. 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नभाटा की नजर में बलात्कार

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पुरुष क्यों करते हैं बलात्कार?

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Photo - गुस्से का अंजाम बलात्कार

कारणः गुस्सा

कई बार बलात्कार का कारण गुस्सा होता है। ऐसे बलात्कारी का उद्देश्य विक्टिम को अपमानित करना, चोट पहुंचाना या नीचा दिखाना होता है। ऐसे बलात्कारी विक्टिम के प्रति अपना रोष शारीरिक कष्ट देकर, बलात्कार कर या भद्दी भाषा के जरिए दिखाते हैं। ऐसे आरोपी के लिए सेक्स विक्टिम की अस्मिता को ठेस पहुंचाने का सबसे बड़ा हिथियार होता है। इस तरह का बलात्कारी अपने शिकार को पूरी ताकत के साथ पकड़ता है, जमीन पर पटकता है, उसे पीटता है, उसके कपड़े फाड़ता है और फिर बलात्कार को अंजाम देता है।

बिहार में महिला ने 'कथित बलात्कारी' को जला डाला

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BBC

बिहार में महिला ने 'कथित बलात्कारी' को जला डाला

 बुधवार, 3 अप्रैल, 2013 को 18:12 IST तक के समाचार

मेडिकल जांच के लिए अस्पताल पहुंची पीड़ित
''हाँ, जबरदस्ती मेरी इज्जत बर्बाद करके जब वह मेरे ही घर में नशे की हालत में सो गया तो मैंने उसे जिंदा जलाकर मार दिया. बहुत हिम्मत जुटाकर मैंने यह काम किया.''
45 साल की सुजान देवी (बदला हुआ नाम) जब यह बात बोल रही थीं, तब उनके चेहरे पर पछतावा, दुख या भय जैसा कोई भाव नहीं दिख रहा था.
पटना से 15 किलोमीटर दूर परसा बाज़ार के पास सुइथा गाँव में सोमवार आधी रात के समय यह 'रेप और रेपिस्ट की हत्या' वाली वारदात हुई थी.

सीधी और हिम्मती

परसा बाज़ार पुलिस स्टेशन के दारोगा मुकेश चन्द्र कुंवर के मुताबिक इस संबंध में मामला दर्ज कर लिया गया है और कार्रवाई की जा रही है.
पटना के एक अस्पताल में मेडिकल जांच के लिए लाई गई सुजान देवी से मैंने बातचीत की.
वह मुझे सीधी-सादी लेकिन काफ़ी हिम्मती लगीं.
सुजान देवी के पति की 15 साल पहले मृत्यु हो गई थी.
उन्होंने मुझसे बताया, ''आधी रात को मेरे गाँव का ही भोला ठाकुर मेरे घर में घुस आया था. नशे में धुत्त उसने जान से मारने की धमकी देकर मुझसे जबरदस्ती की.''
इतना बताकर सुजान देवी कुछ देर के लिए चुप हो गयीं, लेकिन उनके चेहरे पर रोष बिलकुल साफ़ दिख रहा था.
"मैने सोच लिया था कि आज इसको जलाकर मार डालना है. सारा कैरोसीन तेल एक कठौती में लेकर मैंने उसमें अपनी साड़ी को डाल दिया और तब उस पापी के ऊपर वही साड़ी ओढ़ा दिया. फिर उसमें आग लगा दी"
बलात्कार पीड़िता
उन्होंने फिर कहा, ''इज्जत लूटने के बाद वह नशा के मारे लुढ़क गया, तब मैं उठी और 5 लीटर कैरोसीन तेल वाला डब्बा घर के कोने से उठा लाई. मैने सोच लिया था कि आज इसको जलाकर मार डालना है. सारा कैरोसीन तेल एक कठौती में लेकर मैंने उसमें अपनी साड़ी को डाल दिया और तब उस पापी के ऊपर वही साड़ी ओढ़ा दिया. फिर उसमें आग लगा दी और घर के दरवाजे को बाहर से बंद करके गाँव में निकल गई.''

'कोई नहीं आया'

सुजान देवी कहती हैं कि उन्होंने शोर मचाया लेकिन गांव का एक भी आदमी घर से बाहर नहीं आया. तब उन्होंने एक वार्ड सदस्य के दरवाजे को पीट-पीट कर उन्हें जगाया और सारी कहानी सुनाई.
इसके बाद परसा बाज़ार पुलिस थाने को ख़बर दी गई.
पति के गुज़रने के बाद से सुजान देवी गाँव के अपने घर में एक बेटे और दो बेटियों के साथ रह रही थीं.
उनकी दोनों बेटियों की शादी हो चुकी है और बेटा दिल्ली में काम करता है. पिछले कुछ समय से वह अकेली रहती हैं. वो कहती हैं कि गांव में उनका किसी से झगड़ा नहीं है.
उधर जलकर मरे कथित बलात्कारी भोला ठाकुर की पत्नी ने भी पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई है. उनका आरोप है कि सुजान देवी ने उनके पति को घर बुलाया था और वहां तेज़ाब से जलाकर उनकी हत्या कर दी गई.
अनौपचारिक बातचीत में पुलिसकर्मी भोला ठाकुर की बीवी के आरोप को निराधार बताते हैं और सुजान देवी के साहस की दाद देते हैं.
स्थानीय महिला संगठनों ने तो सुजान देवी को पुरस्कृत करने की मांग शुरू कर दी है.

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