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फीचर लेखन

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प्रस्तुति-- धीरज पांडेय, गणेश प्रसाद


फीचर
फीचर को अंग्रेजी शब्द फीचर के पर्याय के तौर पर फीचर कहा जाता है। हिन्दी में फीचर के लिये रुपक शब्द का प्रयोग किया जाता है लेकिन फीचर के लिये हिन्दी में प्रायः फीचर शब्द का ही प्रयोग होता है। फीचर का सामान्य अर्थ होता है – किसी प्रकरण संबंधी विषय पर प्रकाशित आलेख है। लेकिन यह लेख संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले विवेचनात्मक लेखों की तरह समीक्षात्मक लेख नही होता है।
फीचर समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाली किसी विशेष घटना, व्यक्ति, जीव – जन्तु, तीज – त्योहार, दिन, स्थान, प्रकृति – परिवेश से संबंधित व्यक्तिगत अनुभूतियों पर आधारित वह विशिष्ट आलेख होता है जो कल्पनाशीलता और सृजनात्मक कौशल के साथ मनोरंजक और आकर्षक शैली में प्रस्तुत किया जाता है। अर्थात फीचर किसी रोचक विषय पर मनोरंजक ढंग से लिखा गया विशिष्ट आलेख होता है।
फीचर के प्रकार
·          व्यक्तिपरक फीचर
·          सूचनात्मक फीचर
·          विवरणात्मक फीचर
·          विश्लेषणात्मक फीचर
·          साक्षात्कार फीचर
·          इनडेप्थ फीचर
·          विज्ञापन फीचर
·          अन्य फीचर
फीचर की विशेषतायें
·         किसी घटना की सत्यता या तथ्यता फीचर का मुख्य तत्व होता है। एक अच्छे फीचर को किसी सत्यता या तथ्यता पर आधारित होना चाहिये।
·         फीचर का विषय समसामयिक होना चाहिये।
·         फीचर का विषय रोचक होना चाहिये या फीचर को किसी घटना के दिलचस्प पहलुओं पर आधारित होना चाहिये।
·         फीचर को शुरु से लेकर अंत तक मनोरंजक शैली में लिखा जाना चाहिये।
·         फीचर को ज्ञानवर्धक, उत्तेजक और परिवर्तनसूचक होना चाहिये।
·         फीचर को किसी विषय से संबंधित लेखक की निजी अनुभवों की अभिव्यक्ति होनी चाहिये।
·         फीचर लेखक किसी घटना की सत्यता या तथ्यता को अपनी कल्पना का पुट देकर फीचर में तब्दील करता है।
·         फीचर को सीधा सपाट न होकर चित्रात्मक होना चाहिये।
·         फीचर कीभाषा सरल, सहज और स्पष्ट होने के साथ – साथ कलात्मक और बिंबात्मक होनी चाहिये।
फीचर लेखन की प्रक्रिया
·         विषय का चयन
·         सामग्री का संकलन
·         फीचर योजना
विषय का चयन
किसी भी फीचर की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह कितना रोचक, ज्ञानवर्धक और उत्प्रेरित करने वाला है। इसलिये फीचर का विषय समयानुकूल, प्रासंगिक और समसामयिक होना चाहिये। अर्थात फीचर का विषय ऐसा होना चाहिये जो लोक रुचि का हो, लोक – मानव को छुए, पाठकों में जिज्ञासा जगाये और कोई नई जानकारी दे।
सामग्री का संकलन
फीचर का विषय तय करने के बाद दूसरा महत्वपूर्ण चरण है विषय संबंधी सामग्री का संकलन। उचित जानकारी और अनुभव के अभाव में किसी विषय पर लिखा गया फीचर उबाऊ हो सकता है। विषय से संबंधित उपलब्ध पुस्तकों, पत्र – पत्रिकाओं से सामग्री जुटाने के अलावा फीचर लेखक को बहुत सामग्री लोगों से मिलकर, कई स्थानों में जाकर जुटानी पड़ सकती है।
फीचर योजना
फीचर से संबंधित पर्याप्त जानकारी जुटा लेने के बाद फीचर लेखक को फीचर लिखने से पहले फीचर का एक योजनाबद्ध खाका बनाना चाहिये।
फीचर लेखन की संरचना
·         विषय प्रतिपादन या भूमिका
·         विषय वस्तु की व्याख्या
·         निष्कर्ष
विषय प्रतिपादन या भूमिका
फीचर लेखन की संरचना के इस भाग में फीचर के मुख्य भाग में व्याख्यायित करने वाले विषय का संक्षिप्त परिचय या सार दिया जाता है। इस संक्षिप्त परिचय या सार की कई प्रकार से शुरुआत की जा सकती है। किसी प्रसिद्ध कहावत या उक्ति के साथ, विषय के केन्द्रीय पहलू का चित्रात्मक वर्णन करके, घटना की नाटकीय प्रस्तुति करके, विषय से संबंधित कुछ रोचक सवाल पूछकर।  मिका का आरेभ किसी भी प्रकार से किया जाये इसकी शैली रोचक होनी चाहिये मुख्य विष्य का परिचय इस तरह देना चाहिये कि वह पूर्ण भी लगे लेकिन उसमें ऐसा कुछ छूट जाये जिसे जानने के लिये पाठक पूरा फीचर पढ़ने को बाध्य हो जाये।
विषय वस्तु की व्याख्या
फीचर की भूमिका के बाद फीचर के विषय या मूल संवेदना की व्याख्या की जाती है। इस चरण में फीचर के मुख्य विषय के सभी पहलुओं को अलग – अलग व्याख्यायित किया जाना चाहिये। लेकिन सभी पहलुओं की प्रस्तुति में एक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष क्रमबद्धता होनी चाहिये। फीचर को दिलचस्प बनाने के लिये फीचर में मार्मिकता, कलात्मकता, जिज्ञासा, विश्वसनीयता, उत्तेजना, नाटकीयता आदि का समावेश करना चाहिये।
निष्कर्ष
फीचर संरचना के इस चरण में व्याख्यायित मुख्य विषय की समीक्षा की जाती है। इस भाग में फीचर लेखक अपने ऴिषय को संक्षिप्त रुप में प्रस्तुत कर पाठकों की समस्त जिज्ञासाओं को समाप्त करते हुये फीचर को समाप्त करता है। साथ ही वह कुछ सवालों को पाठकों के लिये अनुत्तरित भी छोड़ सकता है। और कुछ नये विचार सूत्र पाठकों से सामने रख सकता है जिससे पाठक उन पर विचार करने को बाध्य हो सके।
फीचर संरचना से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण पहलू
शीर्षक
किसी रचना का यह एक जरुरी हिस्सा होता है और यह उसकी मूल संवेदना या उसके मूल विषय का बोध कराता है। फीचर का शीर्षक मनोरंजक और कलात्मक होना चाहिये जिससे वह पाठकों में रोचकता उत्पन्न कर सके।
छायाचित्र
छायाचित्र होने से फीचर की प्रस्तुति कलात्मक हो जाती है जिसका पाठक पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। विषय से संबंधित छायाचित्र देने से विषय और भी मुखर हो उठता है। साथ ही छायाचित्र ऐसा होना चाहिये जो फीचर के विषय को मुखरित करे फीचर को कलात्मक और रोचक बनाये तथा पाठक के भीतर विषय की प्रस्तुति के प्रति विश्वसनीयता बनाये।

क्लोज़ अप में ली गयी फोटो का होता है प्रभाव अलग

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प्रस्तुति-- प्रमोद अखौरी, धीरज पांडेय


"फोटो को अधिक अच्छी और प्रभावशाली बनाने के लिए लांग शाट के बजाये क्लोज़ अप में लें और हमेशा लक्ष्य को ध्यान में रखें"यह कहना है प्रख्यात लेखक एवं फोटो पत्रकार बाबी रमाकांत का. सन 1991 से लेखन क्षेत्र से जुड़े नागरिक पत्रकार बाबी रमाकांत फोटो पत्रकारिता की बारीकियों के बारे में बता रहे थे. उन्होंने बताया कि किस प्रकार एक साधारण कैमरे या मोबाइल कैमरे से फोटो ली जाये जोकि अच्छी और उपयोगी हो, फोटो लेने से पहले प्रकाश का विशेष ध्यान रखें क्योंकि प्रकाश की अनुपस्थिति में ली गयी फोटो साफ़ नहीं आती है. 

बाबी रमाकांत ने आगे बताया कि यदि आप फ्लैश  कैमरे का प्रयोग कर रहे हैं तो लांग शाट या किसी प्रकाश वाली वस्तु की फोटो लेते समय फ्लैश बंद कर दें. वरना लांग शाट की फोटो में आगे वाली वस्तु की फोटो तो साफ़ आएगी लेकिन पीछे की साफ़ नहीं आएगी, क्योंकि फ्लैश की लाइट  दूर तक नहीं जा सकती है, और प्रकाश वाली वस्तु, जैसे दिये या फिर रंगीन प्रकाश से सजे घर की फोटो में फ्लैश के कारण प्रकाश के आसपास की चीज़ें तो दिखाई देंगी लेकिन प्रकाश वाली वस्तु नहीं आएगी.

एक अंग्रेजी कहावत  है "One photo is better than 100 words."इसी दिशा में अपनी बात को बढ़ाते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार 2008 द्वारा पुरुस्कृत बाबी रामकान्त ने बताया क़ि जब कोई फोटो लें तो हमेशा ध्यान रखें की आप चिन्हित किस बात को कर रहे हैं, और उसकी एक से अधिक फोटो लें. अलग -अलग कोण से फोटो लेना भी अच्छा रहता है. उन्होंने कैमरे में मौजूद नाईट मोड का प्रयोग करना भी बताया और कहा कि इसके प्रयोग से भी अच्छी फोटो ली जा सकती है. 

बाबी रमाकांत "नागरिकों का स्वस्थ लखनऊ "द्वारा आयोजित एक ग्रीष्म शिविर में "नागरिक पत्रकारिता"विषय पर बोल रहे थे.  

(प्रस्तुत लेखक सी.एन.एस. द्वारा आयोजित छः दिवशीय "अधिकार व दायित्व "  शिविर में प्रशिक्षित एक प्रशिक्षार्थी नदीम सलमानी  द्वारा  लिखा  गयाहैं)

कैमरा आंख का मुकाबला नहीं कर सकता : रघु रॉय

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प्रस्तुति-- अखौरी प्रमोद 

बीकानेर, अपने आप को अपने पेशे में पूर्णतया समर्पित भाव से लगाने पर ही श्रेष्ठता हासिल होती है। यह बात पद्मश्री प्राप्त फोटोग्राफर रघु रॉय ने आज धरम सज्जन ट्रस्ट भवन में आयोजित संगोष्ठी 'दैनिक जीवन में रचनात्मकता विषय पर अपने उद्बोधन में कही। रघु रॉय का बीकानेर के फोटो जर्नलिस्टों द्वारा अभिनंदन किया गया। अभिनंदन में शॉल मनीष पारीक ने, साफा अजीज भुट्टा ने, श्रीफल दिनेश गुप्ता ने तथा माल्यार्पण ओम मिश्रा ने किया। धरम सज्जन ट्रस्ट की तरफ से लूणकरण छाजेड़ ने अभिनंदन करते हुए कहा कि अपने जीवन को ही फोटोग्राफी बना लेने के कारण रघु रॉय ने श्रेष्ठता को प्राप्त किया है। इटली के फोटो पत्रकार रैनेडो बुलट्रिन व रघु रॉय की पुत्री अवनी रॉय का कनक चौपड़ा, एडवोकेट महेन्द्र जैन, युगराज सामसुखा ने स्वागत किया।
अपने विषय का शुभारंभ करते हुए रघु रॉय ने कहा कि मुझे फोटोग्राफी करते हुए 50 वर्ष होने को हैं और भगवान व तस्वीर कहां मिल जाए, कोई पता नहीं। अत: फोटोग्राफर को चाहिए कि अपने दिमाग को हमेशा खुला रखें। उन्होंने कहा कि रोजमर्रा की जिंदगी के साथ रचनात्मकता को जोड़ें तो साक्षात सत्य दिखलायी देगा। फोटोग्राफी में एक बिमारी होती है कि जो तस्वीर, चित्र, हम देख लेते हैं, वह आकर हमारे दिमाग में रुक जाती है। उन्होंने कहा कि दिमाग दुनिया का सबसे बड़ा कम्प्यूटर है, जिसमें तस्वीरें, यादें, कल्पनाएं संकलित रहती है। उन्होंने फोटोग्राफरों को सलाह दी कि वे दूसरों की फोटो देखकर कॉपी नहीं करें। अपनी फोटो की बात करें, अपनी स्वयं की तस्वीर खीचें। रॉय ने कहा कि आवश्यकता है कि जिंदगी के साक्षात् दर्शन करें। डिजीटल फोटोग्राफी से आप अपनी क्रिया को, एक्शन को तुरंत देख सकते हैं। उन्होंने कहा कि भगवान के पास खजाना भरा पड़ा है। रघु रॉॅय ने कहा कि किसी व्यक्ति की शक्ल नहीं मिलती पर तस्वीरें मिलती है क्यों? उन्होंने कहा अच्छी तस्वीर प्राप्त करने के लिए धैर्य रखें, तलाश करें व इंतजार करें व अपने दिमाग को खुला रखें। मुश्किल यह है कि अपने दिमाग में पहले से बनी हुई तस्वीरों को नहीं छोड़ते हैं, आप उसमें ना पड़े, भगवान बहुत रास्ते निकालेगा, नया हर जगह मिलेगा, यह मेरा अनुभव कहता है। 
पद्मश्री रघु रॉय ने कहा कि मेरा धर्म फोटोग्राफी है, सच्चा व साफ सुथरा काम करता हूं। फोटोग्राफरों से कहा कि आप अपना काम ईमानदारी से व उसे अपना धर्म मानकर करें, हमारा धर्म हमारा काम होना चाहिए। हर जगह पर प्रकृति, की, हवा की, उर्जा है, शक्ति है, उसे प्राप्त करें। 70 वर्षीय रघु रॉय ने कहा कि क्रिएटिव लोग बूढ़े नहीं होते हैं। मन-वचन-कर्म से पूरी ताकत से कार्य करें, अपने काम में अपने आप को समर्पित कर देने से ही उपलब्धि हासिल होगी। 
उन्होंने उपस्थित फोटोग्राफरों द्वारा पूछे गये प्रश्रों के उत्तर भी बड़ी सहजता से देते हुए कहा कि अपने कार्य में अनुशासन की कमी न रहने देवें। अच्छा परिणाम प्राप्त करने के लिए समय देना होगा, जोखिम उठाने के लिए तैयार रहें, प्रकृति सहयोग करेगी। रघु रॉय ने कहा कि कैमरा कभी आंख का मुकाबला नहीं कर सकता है। डिजीटल टैक्नोलॉजी से फोटोग्राफी बहुत आसान हो गयी है, परन्तु जीवन में जश्न, तलाश, प्यास की जरुरत है। इससे पूर्व सुबह करणी मां के मंदिर, रामपुरिया हवेली गए तथा बाद में आचार्य तुलसी समाधी स्थल व तेरापंथ भवन जाकर आचार्य तुलसी के अंतिम प्रवास स्थल एवं समाधी स्थल के भी फोटो लिए।

स्वतंत्रता आंदोलन की कुछ दुर्लभ तस्वीरें

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प्रस्तुति-- प्रमोद अखौरी, प्यासा रुपक

मुंबई के नेशनल गैलेरी ऑफ़ माडर्न आर्ट में स्वतंत्र संग्राम के दौरान और स्वतंत्रता के बाद के भारत की खिंची हुई तस्वीरों की एक प्रदर्शनी शुरू हुई है.
इस प्रदर्शनी का शीर्षक है 'विज़ुअल अर्काइव ऑफ़ कुलवंत राय'. कुलवंत राय उस दौर के गिने चुने फ़ोटो जर्नलिस्टों में एक थे.
यह तस्वीर 1946 की है, जिसमें सरदार पटेल, महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू आज़ादी के मसले पर बातचीत कर रहे हैं. 1984 में कुलवंत राय की मृत्यु के बाद उनकी दुर्लभ तस्वीरों का डॉक्यूमेंटशन उनके भतीजे आदित्य आर्या ने किया, ताकि भारतीय इतिहास की महत्वूर्ण घटनाओं को सहेजा जा सके.
महात्मा गांधी हमेशा रेलवे के थर्ड क्लास में ही सफ़र किया करते थे. इस तस्वीर में वे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतर रहे हैं.
सीमांत गांधी के नाम से प्रसिद्ध अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ां और महात्मा गांधी की इस तस्वीर को आदित्य ने मुड़े हुए निगेटिव से डेवेलप किया है.
राजकुमारी अमृत कौर के साथ महात्मा गांधी की ये तस्वीर भी मुड़ी हुई निगेटिव से तैयार की गई है. राजकुमारी अमृत कौर भारतीय कैबिनेट में दस साल तक स्वास्थ्य मंत्री रहीं.
1950 के दशक में यूरोप दौरे पर निकलने से पहले जवाहर लाल नेहरू अपने नाती राजीव गांधी को दुलार कर रहे हैं.
महात्मा गांधी इस तस्वीर में किसी बैठक को संबोधित करने के लिए जाते हुए नज़र आ रहे हैं. कुलवंत राय के चित्रों की यह प्रदर्शनी अगस्त महीने के अंत तक चलेगी. ये तस्वीरें उन्होंने 1930 से 1960 के दौरान खिंची थीं. (मुंबई से चिरंतना भट्ट की रिपोर्ट, सभी तस्वीरें आदित्य आर्या आर्काइव के सौजन्य से)
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए यहां क्लिककरें. आप हमें फ़ेसबुकऔर ट्विटरपर भी फ़ॉलो कर सकते हैं.)

बीबीसी स्पेशल / भारतीय अफ़सरशाही पर विशेष

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प्रस्तुति--प्रियदर्शी किशोर, धीरज पांडेय,उपेन्द्र कश्यप,, 

 

बड़ी ख़बरें

जलवायु बचाने के नाम पर पूरा विश्व इकठ्ठा

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दुनिया

जलवायु बचाने के लिए जमा हुए देश

दक्षिण अमेरिकी राष्ट्र पेरू में 190 देशों के प्रतिनिधि जलवायु परिवर्तन पर 12 दिवसीय वार्ता के लिए जमा हुए हैं. लक्ष्य है कि तापमान बढ़ाने वाली गैसों के वैश्विक उत्सर्जन पर लगाम लगाने वाले समझौते को मूर्त रूप दिया जा सके.
पेरू की राजधानी लीमा में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में जमा हुए वार्ताकार जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिए किसी सार्थक नतीजे पर पहुंचने की उम्मीद कर रहे हैं. दो दशक से अधिक समय से बाध्यकारी वैश्विक संधि की कोशिशें नाकाम रही हैं.
अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा
हाल में अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने की घोषणा की थी. दो सप्ताह तक चलने वाले सम्मेलन में दुनिया भर के प्रतिनिधि कोशिश है कि धरती का तापमान बढ़ाने वाली गैसों के वैश्विक उत्सर्जन को नियंत्रण में करने वाले समझौते पर सहमति बन सके. समझौते पर अगले साल पेरिस में हस्ताक्षर की उम्मीदें की जा रही हैं. हालांकि इसे 2020 से लागू किया जाएगा.
सम्मेलन शुरू होने के मौके पर पेरू के पर्यावरण मंत्री मानुएल पुल्गर विडाल ने कहा, "हम चाहते हैं कि आप हमारे देश की मेहमान नवाजी का आनंद उठाएं लेकिन साथ ही हम चाहेंगे कि हम एक दूसरे के बीच विश्वास पैदा कर सकें ताकि विश्व के प्रति हमारी जो जिम्मेदारियां हैं उन्हें बखूबी निभा सकें."
तेल के दाम का असर
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन विभाग की प्रमुख क्रिस्टियाना फिगेरेस ने इस बात से इनकार किया कि तेल के दामों में होने वाली कमी से अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल में कमी की उम्मीदों पर असर पड़ेगा. उन्होंने कहा, "तेल के दामों में अस्थिरता एक और बड़ा कारण है जिसकी वजह से हमें अक्षय ऊर्जा के स्रोतों की तरफ कदम बढ़ाने चाहिए, जिनकी कोई कीमत नहीं होती."उन्होंने जर्मन ऊर्जा कंपनी ईऑन के अक्षय ऊर्जा पर आधारित पावर प्लांट बनाने की पहल की सराहना की.
हालांकि जानकारों का मानना है कि रूस और सऊदी अरब जैसे तेल और प्राकृतिक गैस के निर्यातक देश अक्षय ऊर्जा के स्रोतों को बढ़ावा देने में हिचकिचाएंगे. इससे उन्हें तेल और गैस से होने वाली कमाई में नुकसान उठाना पड़ सकता है.
पर्यावरण संरक्षण संगठनों की मांगें
जहां 195 देश पर्यावरण संधि के मसौदे पर सौदेबाजी में लगे हैं तो यूरोपीय संघ की प्रतिनिधिमंडल की नेता एलिना बारड्राम ने चेतावनी दी है कि समझौते के लिए सिर्फ 12 महीने बचे हैं और घड़ी की सूई उल्टी चल रही है. अमेरिका और चीन के वादों से पैदा उम्मीदों के बीच हो रहे सम्मेलन से पहले विकास सहायता संगठन ऑक्सफैम ने औद्योगिक देशों से अगुआ भूमिका निभाने की अपील की है. ऑक्सफैम के यान कोवाल्त्सिग ने धनी देशों से 2010 तक विकासशील देशों को 100 अरब डॉलर की मदद के वादे को पूरा करने की मांग की है.
प्रयावरण संगठन ग्रीन पीस ने 2000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इंका खंडहर माचू पीचू पर सौर ऊर्जा की अपनी मांग का बैनर लगाया है. संगठन के पर्यावरण नीति प्रमुख मार्टिन काइजर ने कहा, "हम सम्मेलन के भागीदारों से मांग करते हैं कि वे ऊर्जा के सबसे बड़े और स्वच्छ स्रोत सूरज का इस्तेमाल करें."
इधर जर्मन पर्यावरण संगठन जर्मनवॉच ने सम्मेलन के मौके पर जलवायु परिवर्तन के जोखिम पर इंडेक्स जारी किया है. संगठन का कहना है कि बाढ़, तूफान और सूखे का सबसे ज्यादा असर विकासशील देशों पर पड़ता है. 1994 से 2013 के बीच इससे सबसे अधिक प्रभावित बोंडुरास, म्यांमार और हैती जैसे देश रहे हैं. इस अवधि में विश्व भर में हुआ 15,000 से ज्यादा प्राकृतिक आपदाओं में सवा 5 लाख से ज्यादा लोग मारे गए हैं और 2,200 अरब डॉलर का माली नुकसान हुआ है.
संयुक्त राष्ट्र जलवायु विभाग के वैज्ञानिक चेतावनी देते आए हैं कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान का भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. इससे मुंगा चट्टानों को भारी नुकसान हो रहा है. साथ ही ग्रीनलैंड की बर्फ पिघलने के कारण समुद्र स्तर भी तेजी से ऊपर उठ रहा है.
एसएफ/एमजे (रॉयटर्स, डीपीए)

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गायब होते बांग्लादेशी द्वीप

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ग्लोबल वॉर्मिंग

गायब होता बांग्लादेशी द्वीप

समंदर में पानी का स्तर बढ़ने से बांग्लादेश के आशार चर के लोगों को घर छोड़ कर दूसरी जगह जाना पड़ रहा है. जलवायु परिवर्तन के कारण द्वीप का आकार छोटा हो गया है और लोगों की आजीविका के साधन घट गए हैं.

मीडिया सेंटर से और सामग्री

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हिन्दी पत्रकारिता में अनुवादधर्म

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सुनील कुमार सीरिज
‘फैबुलस फोर’ को हिन्दी में क्या लिखेंगे? ‘यूजर फ्रेंडली’ के लिए क्या शब्द इस्तेमाल करना चाहिए? क्या ‘पोलिटिकली करक्ट’ के लिए कोई कायदे का अनुवाद नहीं है? ऐसे कई सवालों से इन दिनों हिन्दी पत्रकारिता रो जूझ रही है। अक्सर उसे बिल्कुल सटीक अनुवाद नहीं मिलता और वह थक-हार कर अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करने को बाध्य होती है। हमारा उद्देश्य यह शुद्धतावादी विलाप नहीं है कि हिन्दी में अंग्रेजी के शब्द घुल-मिल रहे हैं, बस यह याद दिलाना है कि इन दिनों हमारी पूरी भाषा अंग्रेजी के वाक्य विन्यास और संस्कार से बुरी तरह संक्रमित है। जो वाक्य शुद्ध और निरे हिन्दी के लगते हैं, उनकी संरचना पर भी ध्यान दें तो समझ में आता है कि वे मूलत: अंग्रेजी में सोचे गए हैं और अनजाने में मस्तिष्क ने उनका हिन्दी अनुवाद कर डाला है। मीडिया की भाषा पर अंग्रेजी के इस प्रभाव की दो वजहें बेहद साफ हैं। एक तो यह कि जो लोग इन दिनों पत्रकारिता या किसी भी किस्म का प्रशिक्षण प्राप्त करके आ रहे हैं, उनके समूचे अभ्यास में यह अनुवादधर्मी भाषा शामिल है। दूसरी बात यह कि हमारी वर्तमान पत्रकारिता के ज्यादातर सरोकार और संदर्भ बाहर से आ रहे हैं, जो अपने साथ सिर्फ भाषा नहीं, एक पूरा संसार ला रहे हैं। ऐसे विजातीय संदर्भो के लिए अंग्रेजी शब्दों का सहारा लेने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। लेकिन क्या हमारी पूरी पत्रकारिता ही नहीं, पूरी आधुनिक जीवनपद्धति इस बाहरी अभ्यास की देन नहीं है? और क्या इसका वास्ता बीते एक दो दशकों में दिखाई पड़ने वाले भूमंडलीकरण भर से है या इसका कोई अतीत भी है? भाषाओं में लेन-देन नई बात नहीं है। जो भाषाएं ऐसे लेन-देन से बचती हैं और अपनी परिशुद्धता के अहन्मन्य घेर में रहना चाहती हैं, वे मरने को अभिशप्त होती हैं। दुनिया की सारी भाषाओं में यह लेन-देन दिखता है जो शब्दों से लेकर वाक्य रचनाओं तक जाता है। लेकिन हर भाषा की अपनी एक प्रकृति होती है। उसमें जब दूसरी भाषा के शब्द आते हैं तो उनका रूप बदलता है, उनसे जुड़े उच्चारण बदलते हैं, कई बार माने भी बदल जाते हैं। हिन्दी ने इसी तर्क से ऑफिसर से अफसर बनाया, रिपोर्ट से रपट बनाई और साइकिल को एक दूसर अर्थ में इस्तेमाल किया। कार और बस ही नहीं, स्कूल और कॉलेज हमार शब्द हो चुके हैं और उन पर व्याकरण के हमार ही नियम लगते हैं। उर्दू ने भी ब्राह्मण को अपनी प्रकृति के हिसाब से बिरहमन में बदला है और ऋतु को रुत में ढाला है। अंग्रेजी में भी ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे। लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में अब जो नई प्रवृत्ति दिख रही है, वह अंग्रेजी के शब्दों को ज्यों का त्यों स्वीकार और इस्तेमाल करने की है। इसमें किसी शब्द के साथ खेलने, उनको अपनी प्रकृति में ढालने, उससे मुठभेड़ करने और एक नई तरह का, अपनी जरूरत की टकसाल में ढला शब्द बनाने की कोशिश नहीं दिखती। एक वैचारिक शैथिल्य नजर आता है, जिसमें अपनी आत्महीनता का एहसास भी शामिल है। कोई चाहे तो यह वाजिब सवाल पूछ सकता है कि किसी भी भाषा के शब्दों या नामों को ठीक उसी तरह अपनाने और बोलने में क्या र्हा है? अगर कनाडा को कैनेडा बोलें और अवार्डस का इस्तेमाल करं तो क्या इससे हमारा काम नहीं चलता? निस्संदेह काम चल जाता है, लेकिन धीर-धीर हम पाते हैं कि यह भाषिक पराीविता एक वैचारिक पराीविता में भी बदल रही है। और इस पराीविता का सबसे करुणा पक्ष यह है कि हम अपने पोषण के लिए कुछ चुनने को स्वतंत्र नहीं हैं, बल्कि एक दी हुई शब्दावली के आसपास जो कुछ मिल रहा है, उसे चरते हुए जीने को मजबूर हैं। इसका सबसे अच्छा प्रमाण आज के मीडिया की भाषा है, जो लगभग सार चैनलों, सार संवाददाताओं और सार एंकरों की बिल्कुल एक हो गई है। हर जगह ‘सनसनीखे खुलासा’ दिखता है, हर जगह ‘सीरियल ब्लास्ट में दहली दिल्ली’ नजर आता है, हर तरफ ‘सिंगूर को टाटा’ हो जाता है। जो इस भाषिक इकहरपन को मीडिया की मजबूरी बताते हैं और इसे आम बोलचाल तक पहुंचने की कोशिश से जोड़ते हैं, वे मीडिया में न कोई संभावना खोजना चाहते हैं, न आम बोलचाल में कोई समझ देखना चाहते हैं। पहले हम नहीं सोचते, कोई और सोचता है, जिसकी हम नकल करते हैं। कह सकते हैं कि यह सिर्फ पत्रकारिता की नहीं, भारत में इन दिनों दिख रहे समूचे वैचारिक उद्यम की मजबूरी है। लेकिन क्या खुद पत्रकारिता ही इस मजबूरी के पार का रास्ता नहीं खोज सकती? भाषा सिर्फ माध्यम नहीं होती, एक पूरा संदर्भ भी होती है। आज अगर मीडिया की भाषा में हमारी कोई जातीय अनुगूंज नहीं दिखती, उससे हमारे भीतर बना कोई भाषिक तार नहीं हिलता तो खबर भी हमार लिए मायने नहीं पैदा करती। शायद यही वजह है कि कोसी की बाढ़ को बेदखल हुए 25 लाख लोगों की तबाही पीछे छूट जाती है और ‘आईटी सेक्टर’ के 25,000 ‘प्रोफेशनल्स’ के ‘जॉबलेस’ हो जाने के अंदेशे में अमेरिका का आर्थिक संकट बड़ा हो जाता है। लेखक एनडीटीवी से जुड़े हैं।ं

महात्मा गांधी अं. हिन्दी विवि के पुराने छात्रों के कुछ आलेख

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प्रस्तुति-- निम्मी नर्गिस, मनीषा यादव, हिमानी सिंह, इम्त्याज रजा, वशीम शेख, अभिषेक रस्तोगी, विनय यादव, वर्धा

 

 

कोश का आधुनिक स्वरूप एवं निर्धारित मापदंड

वैज्ञानिकीकरण और आधुनिकीकरण दो ऐसे रूप हैं – जो विज्ञान को एक नयी दृष्टि प्रदान करते हैं. कोश विज्ञान भी इसी का एक भाग है. कोश विज्ञान के अंतर्गत कोश की रूपरेखा को वैज्ञानिकी एवं आधुनिकी स्वरूप प्रदान करना अतिआवश्यक है. यूँ तो कोश निर्माण की प्रकिया अत्यंत प्राचीन है किन्तु प्राचीनता के साथ आधुनिकता भी जरूरी है. जिससे कोश के नये क्रम को समझा जा सके.
कोश के वैज्ञानिक होने का मापदंड उसके क्रमबद्धता, सुव्यवस्थित, क्रमानुसार होने के साथ आज के आधुनिक समय में उसकी उपोयगिता से लिया जा सकता है. जब किसी ‘शब्द’ को कोश में प्रविष्ट करते हैं तो उसके पीछे कई प्रकार के तर्क होते हैं जैसे- वह शब्द कितना प्रसिद्ध है, प्रयोग में आने वाला है या नहीं, कितना उपयोगी है, उसकी आर्थीय संरचना किस प्रकार की है, इन प्रश्नगत तर्कों के आधार पर उस शब्द को कोश में प्रविष्ट किया जाता है और इस प्रकार से कोश सार्थकता की दृष्टि से उपयोगी होता है. जिसे हम वैज्ञानिक स्वरूप या ढांचा कहते हैं.
कोश को आधुनिक स्वरुप देने के लिए चित्र, रेखाचित्र का उपयोग भी आवश्यक है. कुछ कोश ऐसे भी होते हैं, जिनमें चित्रों की संख्या, रेखाचित्रों की संख्या बहुत होती है. तथा कुछ कोश ऐसे भी होते हैं जिसमें चित्रों, रेखाचित्रों का प्रयोग नहीं किया जाता है. ऐसी स्थिति में कोश में चित्रों, रेखाचित्रों के उपयोग का सही मापदंड निर्धारित होना चाहिए.
रूसी विद्वान ‘श्चेरबा’ ने कोश निर्माण संबंधी विचारों का परिचय देते हुए कोश का वैज्ञानिक विवेचन किया है. श्चेरबा ने कोश का उद्देश्य, उपयोगकर्ता तथा उसकी रचना प्रणाली के आधार पर नौ प्रकार के कोशों को बताया है.
‘’ There is good deal of truth in the statement that soviet scholars have excelled in the field of Lexicography –a field which though is Applied in nature yet, demands a full lenth treatment of its theoretical perspective and basic constructs. Without at present dream of developing model and method for lexicographic work. It is for this reason that soviet scholars recognized and field of Lexicography as one of the distinct activities of linguistics study’’
1- Reference (vade-Mecum) 6- Bilingual- BD
2- Academic – AD 7- Ideological- ID
3- Encyclopedia-EnD 8- Synchronic- SD
4- Thesaurus- Thd 9- Diachronic- DD
5- Explanatory-ExD

आज हमारे कोश की संकल्पना विशुद्ध शास्त्र के प्राचीन स्तर से हटकर आज के कोश वैज्ञानिक रचना प्रकिया के स्तर पर पहुँच गया है. ये कोश रुप विकास और अर्थ विकास की ऐतिहासिक प्रमाणिकता के साथ-साथ भाषा वैज्ञानिक सिद्धांत की संगति ढूंढने का पूर्ण प्रयत्न करते हैं. सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नवीन क्रातिं के फलस्वरुप कोश को एक नया रूप मिला है. जिसमें ई-लर्निंग की विशेष भूमिका है. आज के दिन में यदि कोई व्यक्ति विदेशी भाषा सीखना चाहे तो बड़ी आसानी से ‘ऑनलाइन कोश’ के माध्यम से सीख सकता है. वेब पर कोश के बढते कदम ई-लर्निंग और ई-शिक्षण के लिए उपयुक्त पाठ्यक्रमों को भी सरल बना देते हैं. वेब आधरित कोश की कोई भौगौलिक सीमा नहीं होती है. आधुनिक कोश अब ग्लोबल हो चुका है. कोश का आधुनिक स्वरूप एवं निर्धारित मापदंडः-
१- अंतःक्रियात्मकता
- अंतःक्रियात्मकता पाठक और कोश के बीच
- पाठक के लिए किसी भी भाषा में कोश प्राप्त होने का अवसर
- ऑनलाइन के बाद विषय आधारित कोश
२- तैयारी
- इंटरनेट से जुडने की सुविधा
- प्रशिक्षण और शिक्षण कार्य में ऑनलाइन-ऑनगोइंग सहायता
- विदेशी भाषा को सीखने तथा अद्यतन बनाना
३- पाठक की भुमिका-
- अंतःक्रियात्मकता
- परिपक्वता
४- परिपकल्पना- - सभी भाषाओं के सम्पर्क में
- नये-नये शब्दों एवं अर्थों की जानकारी
- प्रचलित शब्दों का ही प्रयोग
- भारत के सभी क्षेत्रीय भाषाओं का एक साथ ऑनलाइन कोश
५- ई-कोश के सफल प्रयोग के लिए दो प्रमुख तत्वों की आवश्यकता - - कोश की संकल्पना
- संगणक का ज्ञान
वर्तमान युग में ‘आधुनिक कोश’ की संकल्पना और संरचना अधिक व्यापक है. ई-कोश एक ऐसे ज्ञान पर आधरित है जहाँ पाठक ऑनलाइन अपने विषय से संबंधित आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है.
Online Hindi Dictionaries_
http://www.shabdkosh.com
http://www.lexilogos.com/english/hindi_dic
http://www.websters-online-dictionary.org/.
http://utopianvision.co.uk/hindi/dictionary/
http://tamilcube.com/res/hindi_diction
http://explore.oneindia.inn/.../hindi/
http://www.hindienglishdictionary.org/
http://dsal.uchicago.edu/dictionaries/platts/ http://www.infobankofindia.com/newdic/englishtohindi/gethindi.htm
http://wordanywhere.com/
http://dsal.uchicago.edu/dictionaries/platts
http://www.gy.com/online/hiol.htm
http://www.3.aa.tufs.ac.jp/_kmach/hnd_la-e.htm

HINDI LANGUAGE RESOURSES , INCLUDING DICTIONARIES, GRAMMER AND USEFUL PHARASES
http://www.hindilanguage.org
http://www.languagehom/
धीरेन्द्र प्रताप सिंह

भाषा-प्रौद्योगिकी से संबंधित लिंक

www.infomatics.indiana.edu/rocha/;do1/index.html
http://en.wikipedia.org/wiki/information-science

http://www.informatics.indiana.edu/roch/;101/pdfs/101_lecture3.pdf

।google.com/c/book/computational_linguistics.htm#_for">http://mail।google.com/c/book/computational_linguistics.htm#_for
मधु प्रिया पाठक

12 अप्रैल 2010

इस अंक के सदस्य

संपादक - करुणा निधि
संपादन-मण्डल -नितीन ज. रामटेके, शिल्‍पा
शब्द-संयोजन-अविचल गौतम, सलाम अमित्रा देवी
(सभी हिंदी भाषा प्रौद्योगिकी के छात्र )

संपादक के की-बोर्ड से

भाषा के संबंध में कुछ कहना और भाषा के माध्‍यम से कुछ कहना, दोनों भिन्‍न संकल्पनाएँ होते हुए भी एक पुल के दो छोर हैं, जिससे होकर गुजरने के लिए व्‍यक्ति को एक दूसरे के संपर्क में आना ही पड़ता है। इसी संपर्क बिंदु पर भाषा के नए आयाम खुलते भी हैं और जुड़ते भी हैं। चाहे वह वाद (-ism) के रूप में हो या करण (-tion) के रूप में। परंतु यह उन व्‍यक्तियों पर कदाचित् लागू नहीं होती, जिनके लिए भाषा संप्रेषण का माध्‍यम मात्र है। हाँ, उनके लिए यह रोचक और चिंतनीय विषय अवश्‍य है, जो भाषा के रहस्‍य को जानने और समझाने का दावा करते हैं। हिंदी के संदर्भ में यह बात और अधिक रोचक इसलिए भी है क्‍योंकि भारतेंदुयुगीन काल से लेकर अब तक के हिंदी ने अपना जो स्‍वरूप गढ़ा है और अपने परिवर्तनशील स्‍वरूप के साथ स्‍वयं को जिस प्रकार स्‍थापित किया है, उसके लिए हिंदीभाषी समाज स्‍वयं को सामने लाने में कभी नहीं हिचकिचाता। परंतु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आज हिंदी जिस राजनीतिक आवरण से लिपट कर ग्‍लोबलाइज़ेशन जैसी संकल्‍पना को प्रस्‍तुत कर रही है, इससे यह जाहिर होता है कि अब यह क्षेत्र ‘क’ के साथ ‘ख’ और ‘ग’ में भी समान प्रतिष्‍ठा पा चुकी है। दो भिन्‍न भाषाओं के संपर्क में आने के फलस्‍वरूप, अनुवाद के माध्‍यम से हिंदी का जो रूप दृष्टिगोचर होता है, उसके लिए हिंदीभाषी समाज स्‍वयं को पूर्णत: जिम्‍मेदार नहीं मान सकता। स्‍पष्‍ट है कि सूचना-प्रौद्योगिकी के आगमन से हिंदी का गाँव इतना विस्‍तृत हो चुका है कि उसका अस्तित्‍व हर घर में किसी न किसी रूप में उपस्थित है।
इसी परिप्रेरक्ष्‍य में इस अंक का कलेवर तैयार हुआ है। संरचनावादी और मार्क्‍सवादी भाषा चिंतन के आलोक में भाषा विषयक जो समग्री प्रस्‍तुत की गई है, उससे भाषा को देखने की अलग दृष्टि मिलेगी। भूमंडलीकरण की संकल्‍पना में हिंदी का जो रूप प्रस्‍तुत हुआ है, वह इसकी वर्तमान स्थिति के साथ, नवीन विश्‍लेषण पद्धति को अपनाने की ओर भी संकेत करती है। समाज के संसर्ग में भाषा का रूप परिवर्तित होता है। इसी संदर्भ में मगही बोली तथा प्रयोग-क्षेत्र एवं प्रयुक्ति के रूप में प्रायोगिक तथ्‍य प्रस्‍तुत हुए हैं। साथ ही प्रकारांतर से प्रौद्योगिकी संबंधित अनेक विषयों लिपि, शब्‍द और अनुवाद पर विचार उकेरे गए हैं और मशीनी अनुवाद जैसे गूढ़ विषय को लेकर व्‍याकरण संबंधित जो तथ्‍यात्‍मक विवरण प्रस्‍तुत किए गए हैं, उससे पाठक लाभांवित हो सकेंगे।
09 अप्रैल, 2009 को इस पत्रिका के प्रथमांक प्रकाशित होने पर यह अनुमान भी नहीं लगाया गया होगा कि लगभग आमजन से अनभिज्ञ विषय एवं अत्‍यल्‍प पाठक वर्ग की उपस्थिति में यह पत्रिका विकास के इस चरण पर आकर खड़ी होगी। यह उन सबके प्रयास का ही परिणाम है, जिनके लेख और प्रति‍क्रियाएँ हमें उत्‍साहित करते रहे। इसके लिए उन सभी को बधाई और इस आशा के साथ, प्रस्‍तुत अंक के सभी लेखकों एवं कार्यकर्ताओं का धन्‍यवाद कि यह पत्रिका भावी पीढ़ी के लिए भाषा संबंधित परंपरा और संभावना के अंतर को पारदर्शित करने में सहायक सिद्ध होगी।
करूणानिधि

हिंदी-मराठी मशीनी अनुवाद प्रणाली में रूपवैज्ञानिक विश्‍लेषण की भूमिका

किसी भी भाषा को समझने के लिए हमें उस भाषा के व्याकरण को समझना जरूरी है। रूप-विज्ञान ऐसी ही एक भाषा विज्ञान की शाखा है. जिसमें, हम विभिन्न भाषिक प्रयोग एवं रचना में आने वाले शब्दों का अध्ययन रूप रचना के अंर्तगत करते हैं. उसी तरह प्राकृतिक भाषाई संसाधन में रूप विज्ञान का अध्ययन किया जाता हैं. इसमें शब्दों को संज्ञात्मक (NP)और क्रियात्मक (VP)रूप में वर्गिकृत करते हैं. इन कोटियों का हम निष्पादन और व्युत्पादन के वर्ग में विश्लेषण करते है. इस प्रबंध में हिंदी मराठी की क्रियाओं का रूप विश्लेषण किया गया है. यह विश्लेषण पक्ष, वाच्य, वृत्य के व्याकरणिक परिपेक्ष्य स्पष्ट करता है जो अपने आप लिंग, वचन और पुरूष की व्याकरणिक कोटियों को भी स्पष्ट करने में मदद करता है यह विश्लेषण निष्पादक कोटि का है. हिंदी भाषा में जो पक्ष वाच्य और वृत्ति की जो संकल्पनाएं है उसी को आधार बना कर हिंदी-मराठी क्रियाओं का किया गया है जबकि हिंदी और मराठी की पक्ष वाच्य और वृत्ति की संकल्पनाएं कुछ भिन्न हैं जैसे हिदी वृत्ति मराठी में काल का अर्थ, हिंदी वाच्य मराठी प्रयोग और पक्ष जो मराठी संकल्पनाओं में अभिप्रेत नहीं है.
इन व्याकरणिक कोटियों का जब विश्लेषण किया गया तब ज्यादातर क्रियाएं आसानी से हिंदी से मराठी में अनुवादित हुई. लेकिन कुछ ऐसी कोटियाँ हैं जिनका हम आसानी से अनुवाद नहीं कर सकते जैसे हिंदी में वृत्ति की निश्चित संभाव्य क्रिया
१ -जा रहा होगा २ -जाता होगा का मराठी में इस प्रकार अनुवादहोगा तब इसका अर्थ यह है कि जब ’रहा होगा’ और -ताहोगा. प्रत्यय होंगे तो मराठी में -त- नारयह प्रत्यय ही लगेंगे इस समस्या को समझने के लिए हमें स्वनिमिक व्यवस्था PHENOLOGY के स्ट्रेस और PITCH संदर्भ की सहायता लेनी होगी
उसी प्रकार 1. लिखता चला आ रहा है 2. वह लिखता चलेगा इन दोनों वाक्यों के समय को दर्शाने वाला अर्थ मराठी में क्रिया के वर्ग में ना रहकर क्रिया विश्लेषण के वर्ग को दर्शाता है. इसका अर्थ यह है कि मराठी में इन दोनों क्रियाओं को हम स्पष्ट नहीं करते है अर्थात उसका शब्दभेद (PART OF SPEECH) वर्ग बदलता है। जाने को है’ और जाने वाला हैइन दोनों क्रियाओं को मराठी में समान रूप अर्थात एक ही प्रत्यय जानार आहे’ में प्रयोग करते है.
यह हिंदी मराठी के क्रियाओं का विश्लेषण और समानताएं और असमानताओं को स्पष्ट करता है जिससे सम्बंधित अनुवाद की समस्या होती है चाहे मानव अनुवाद द्वारा हो या मशीनी अनुवाद के द्वारा हो। अगर एक शब्द का भावार्थ हम पूरे पाठ में नहीं दे पाते तो पाठ का स्वरूप बदलता है इसलिए मशीनी अनुवाद में सभी भारतीय भाषाओं के लिए ’रूपिम विश्लेषण’ यह पहला कदम होना चाहिए जो शब्द के अर्थ और उसकी व्याकरणिक कोटियों को व्यक्त करने में सहायक हो सकेगा।
हिंदी मराठी मशीनी अनुवाद पक्ष, वाच्य और वृत्ति के परिप्रेक्ष्य में क्रियाओं का विश्लेशण एक महत्त्वपूर्ण पहलू को स्पष्ट कर रहा है जो यह भी सूचित करता है कि अगर यह क्रियाओ का विश्लेषण मराठी हिंदी मशीनी अनुवाद को आधार बनाकर मराठी के पक्ष, वाच्य, वृत्ति की संकल्पनाएँ स्पष्ट करके एक अलग संभावना को व्यक्त करेगी।

(शोध-छात्रा अर्चना थूल द्वारा एम.फिल. हिंदी (भाषा-प्रौद्योगिकी) में
प्रस्तुत शोध-प्रबंध का सार-लेख)

रुपसाघक बनाम व्युत्पादक रुपिम

-मधुप्रिया
एम।ए। भाषा प्रौद्योगिकी
भाषा की लधुतम अर्थवान इकाई रुपिम कहलाता है| रूपसाधक रुपिम वह है, जिसमें एक के बाद दूसरा रुपिम नहीं जोड़ जा सकता, जैसे-लड़की-लड़कीयॉ, किताब-किताबें, दुकान-दुकानें आदि। ऑ, एँ. ऐं के बाद दूसरा और रुपिम नहीं जोड़ा जा सकता है, जबकि व्युत्पादक रुपिम में एक से अघिक रुपिम जोड़ा जा सकता है, जैसे- राष्ट्र-राष्ट्रीयता, भारत-भारतीयता रुपसाघक रुपिम व्याकरणीक रुपों की रचता करता हैअर्थात एकवचन से बहुवचन में, जबकि व्युत्पादक रुपिम व्याकरणीक कोटी को बदलता है | जैसे -सुंदर-सुंदरता। इसमें विशेषण से संज्ञा में परिवर्तन होता है। रुपसाघक रुपिम व्युत्पादक रुपिम के बाद लगता है । रुपसाघक रुपिम लगने से रुपिम के अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता हैजैसे -रात-रातें, लिखा-लिखा ।
इसमें अर्थ एक ही है जबकि व्युत्पादक रुपिम में अर्थ में परिवर्तन आ जाता है ।

देवनागरी लिपि की विशेषता

-अम्‍ब्रीश त्रिपाठी
एम।फिल. भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

सर्वप्रथम हम देवनगारी के इतिहास पर एक नजर डालेंगे। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (700-800ई.) के शिलालेख में मिलता है। आठवीं शताब्दी में चित्रकूट, नवीं में बड़ौदा के ध्रुवराज भी अपने राज्यादेशों में इस लिपि का उपयोग किया करते थे।समूचे विश्व में प्रयुक्त होने वाली लिपियों में देवनागरी लिपि की विशेषता सबसे भिन्न है। अगर हम रोमन, उर्दू लिपि से इसका तुलनात्मक अध्ययन करें तो देवनागरी लिपि इन लिपियों से अधिक वैज्ञानिक है। रोमन और उर्दू लिपियों के स्वर-व्यंजन मिले-जुले रूप में रखे गए हैं, जैसे- अलिफ़, बे; , बी, सी, डी, , एफ आदि।
दोनों लिपियों की तुलना में देवनागरी में इस तरह की अव्यवस्था नहीं है, इसमें स्वर-व्यंजन अलग-अलग रखे गए हैं। स्वरों के हृस्व-दीर्घ युग्म साथ-साथ रहते हैं, जैसे- अ-आ, इ-ई, उ-ऊ। इन स्वरों के बाद संयुक्त स्वरों की बात करते हैं इनको भी इस लिपि में अलग से रखा जाता है, जैसे- ए,,,,
देवनागरी के व्यंजनों की विशेषता इस लिपि को और वैज्ञानिक बनाती है, जिसके फलस्वरूप क,,,,, वर्ग के स्थान पर आधारित है और हर वर्ग के व्यंजन में घोषत्व का आधार भी सुस्पष्ट है, जैसे- पहले दो व्यंजन (च,छ) अघोष और शेष तीन व्यंजन (ज,,ञ) घोष होते हैं। देवनागरी व्यंजनों को हम प्राणत्व के आधार पर भी समझ सकते हैं, जैसे- प्रथम, तृतीय और पंचम व्यंजन अल्पप्राण और द्वितीय और चतुर्थ व्यंजन महाप्राण होता है। इस तरह का वर्गीकरण और किसी और लिपि व्यवस्था में नहीं है।
देवनागरी की कुछ और महत्तवपूर्ण विशेषता निम्नवत् हैं -
1) लिपि चिह्नों के नाम ध्वनि के अनुसार- इस लिपि में चिह्नों के द्योतक उसके ध्वनि के अनुसार ही होते हैं और इनका नाम भी उसी के अनुसार होता है जैसे- अ, , , , , ख आदि। किंतु रोमन लिपि चिह्न नाम में आई किसी भी ध्वनि का कार्य करती है, जैसे- भ्(अ) ब्(क) ल्(य) आदि। इसका एक कारण यह हो सकता है कि रोमन लिपि वर्णात्मक है और देवनागरी ध्वन्यात्मक।
2) लिपि चिह्नों की अधिकता - विश्व के किसी भी लिपि में इतने लिपि प्रतीक नहीं हैं। अंग्रेजी में ध्वनियाँ 40 के ऊपर है किंतु केवल 26 लिपि-चिह्नों से काम होता है। 'उर्दू में भी ख, , , , , , , , , भ आदि के लिए लिपि चिह्न नहीं है। इनको व्यक्त करने के लिए उर्दू में 'हे'से काम चलाते हैं'इस दृष्टि से ब्राह्मी से उत्पन्न होने वाली अन्य कई भारतीय भाषाओं में लिपियों की संख्याओं की कमी नहीं है। निष्कर्षत: लिपि चिह्नों की पर्याप्तता की दृष्टि से देवनागरी, रोमन और उर्दू से अधिक सम्पन्न हैं।
3)स्वरों के लिए स्वतंत्र चिह्न - देवनागरी में ह्स्व और दीर्घ स्वरों के लिए अलग-अलग चिह्न उपलब्ध हैं और रोमन में एक ही (।) अक्षर से ''और ''दो स्वरों को दिखाया जाता है। देवनागरी के स्वरों में अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
4) व्यंजनों की आक्षरिकता - इस लिपि के हर व्यंजन के साथ-साथ एक स्वर ''का योग रहता है, जैसे- च्+अ=, इस तरह किसी भी लिपि के अक्षर को तोड़ना आक्षरिकता कहलाता है। इस लिपि का यह एक अवगुण भी है किंतु स्थान कम घेरने की दृष्टि से यह विशेषता भी है, जैसे- देवनागरी लिपि में 'कमल'तीन वर्णों के संयोग से लिखा जाता है, जबकि रोमन में छ: वर्णों का प्रयोग किया जाता है!
5) सुपाठन एवं लेखन की दृष्टि- किसी भी लिपि के लिए अत्यन्त आवश्यक गुण होता है कि उसे आसानी से पढ़ा और लिखा जा सके इस दृष्टि से देवनागरी लिपि अधिक वैज्ञानिक है। उर्दू की तरह नहीं, जिसमें जूता को जोता, जौता आदि कई रूपों में पढ़ने की गलती अक्सर लोग करते हैं।
देवनागरी के दोष -
देवनागरी के चारों ओर से मात्राएं लगना और फिर शिरोरेखा खींचना लेखन में अधिक समय लेता है, रोमन और उर्दू में नहीं होता। ''के एक से अधिक प्रकार का होना, जैसे- रात, प्रकार, कर्म, राष्ट्र।
अत: यह कहा जा सकता है कि देवनागरी लिपि अन्य लिपियों की अपेक्षा अच्छी मानी जा सकती है, जिसमें कुछ सुधार की आवश्यकता महसूस होती है जैसे- वर्णों के लिखावट में सुधार की आवश्कता है क्योंकि 'रवाना'लिखने की परम्परा में सुधार हो कर अब 'खाना'इस तरह से लिखा जाने लगा है। इसी तरह से लिखने के पश्चात हमें शिरोरेखा पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जैसे- 'भर'लिखते समय हमें शिरोरेखा थोड़ा जल्द बाजी कर दे तो 'मर'पढ़ा जागा। इन छोटी-छोटी बातों पर हमें विशेष ध्यान देना चाहिए।
संदर्भ-
डॉ. तिवारी भोलानाथ, हिंदी भाषा की लिपि संरचना, साहित्य सहकार दिल्ली
प्रो. त्रिपाठी सत्यनारायण हिंदी भाषा और लिपि का ऐतिहासिक विकास, विश्वविद्यालय प्रकाशन,
वराणसी, चतुर्थ संस्करण 2006

भाषा चिंतन

तांकसे आगे..
अमितेश्‍वर कुमार पाण्‍डेय
पी-एच.डी. भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

संरचनावादी भाषाविज्ञान का विधिवत प्रारंभ फर्दिनांद द सस्युर की पुस्तक Course in General Linguistics(1916) से माना जाता है। आगे चलकर संरचनावादी भाषाविज्ञान की अलग-अलग देशों में अलग-अलग चिंतन सारणी विकसित हुई जिनमें अमेरिकी संरचनावादी भाषाविज्ञान या चित्रणवाद (Discriptivism),प्राग भाषावैज्ञानिक स्कूल या पूर्वी यूरोपीय संरचनावाद तथा कोपेनहेगन स्कूल मुख्य रूप से उभरे। इनमें भी (1930) कोपेनहेगन स्कूल संरचनावाद के केन्द्र में उभरा। 1960 के दशक में इनमें भी एक नई प्रवृत्तिनिर्मितिवादका जन्म हुआ।
निर्मितिवाद सैद्धांतिक वस्तुओं की आवश्यकता के सिद्धांत पर आधारित थी। शुरू-शुरू में इस सिद्धांत का सूत्रीकरण गणितीय तर्कशास्त्र के फ्रेमवर्क के भीतर हुआ, जिसे बाद में भाषाविज्ञान में विस्तार कियागया। इस सिद्धांतमें दो मुख्य भाग हैं- 1. किसी वस्तु को सिद्धांत की वस्तु तभी माना जाता है, जब उसकी निर्मिति संभव हो; और 2. वस्तुओं के अस्तित्व या उनके संज्ञान की संभावना की बात तभी की जा सकती है जब उनकी सैद्धान्तिक निर्मिति या अनुरूपण संभव हो। निर्मितिवाद पद्धति का आधार कलन-गणित पर आधारित है जिसपर सबसे पहले अफलातून और पाणिनी तथा आगे चलकर स्पिनोजा जैसे दार्शनिक विचार कर चुके थे। कलन-गणित से निगमितहुअवधारणाओं ने निर्मितिवाद कएक विशेष प्रकार को जन्म दिया जो प्रजनक व्याकरणों और गणितीय भाषाविज्ञान के सिद्धांत का आधार बना।
प्रजनक व्याकरण के सिद्धांत और गणितीय तर्कशास्त्र की एक शाखा के रूप में औपचारिक भाषा के सिद्धांत की आधारशिला नॉम चॉम्स्की ने रखी थी। प्रजनक व्याकरण ने संरचनावादी भाषाविज्ञान की कई कमियों को दूर करने का दावा किया, लेकिन विशिष्ट भाषा-वैज्ञानिक आंकड़ों पर इसके सिद्धांत को लागू करने के बाद पाया गया कि ये सिद्धांत अतिसीमित दायरे में ही प्रभावी एवं उपयोगी है। चॉम्स्की का एक विवादास्पद विचार यह था कि किसी प्राकृतिक भाषा के वाक्य-विन्यास तथा अर्थविज्ञान के विविध पहलूओं के निरूपण के लिए प्रजनक व्याकरण का औपचारिक उपकरण पर्याप्त है। इस आधार पर कि दुनिया की सभी भाषाओं की बुनियादी अंतर्भूत संरचनाएं समान होती हैं, चॉम्स्की ने मस्तिष्क के अध्ययन के साधन के रूप में भाषाविज्ञान के इस्तेमाल की संभावनाओं की ओर भी इशारा किया। चॉम्स्की के इन भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों की नवप्रत्यक्षवादी और औपचारिक तर्कवादी प्रवृति की सीमाएं भी आज स्पष्ट हो चुकी हैं। अबतक आए तमाम भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों के विविधरूपी आलोचनाओं ने भाषाविज्ञान में कई नई प्रवृतियों को भी जन्म दे दिया, जैसे- नवभाषाविज्ञान, क्षेत्रीय भाषाविज्ञान ), लेकिन ये आमभाषाविज्ञान के सैद्धांतिक फ्रेमवर्क के रूप में किसी व्यापक सिद्धांत को प्रतिपादित करने योग्य नहीं थीं। इसका दार्शनिक आधार कमजोर और प्रयोग सीमित थे।
इस उपर्युक्त व्याख्या के आधार पर भाषा-विज्ञान के ठोस मुकाम पर असंतोष जाहिर करते हुए वोलोशिनोव मार्क्सवाद और समकालीन भाषा-विज्ञान के संबंधों के आधार पर मार्क्सवादी भाषाविज्ञान’ की बात करते हैं, यह कहतेहुए कि मार्क्सवाद मानव-सभ्यता के भौतिक-आत्मिक विकास का इतिहास प्रस्तुत करते हुए मानव-भाषाओं की व्याख्या के प्रति एक सुनिश्चित अप्रोच’ प्रस्तुत करता है और एक सुनिश्चित पद्धति लागू करते हुए कुछ सुनिश्चित स्थापनाएं प्रस्तुत करता है।
भाषा के संदर्भ में मार्क्सवादी सिद्धांत का आधार यह था कि भाषा का चरित्र सामाजिक है और यह मानव की सामाजिक श्रम-प्रक्रियाओं और सामाजीकरण की प्रक्रियाओं के सतत् विकास के क्रम में उन्नत से उन्नतर अवस्थाओं में विकसित होती गई है (फ्रेडरिक एंगेल्स)। भाषा संज्ञान का प्रत्यक्ष यथार्थ है जो सामाजिक संसर्ग के दौरान अस्तित्व में आई (मार्क्स-एंगेल्स)। लेनिन के परावर्तन-सिद्धांत के अनुसार भी वस्तुगत यथार्थ का परावर्तन मानव चेतना के साथ ही, भाषा-रूपों की अंतर्वस्तु के धरातल पर भी होता है।
मार्क्सवादी भाषा-दर्शन संरचनावादियों की इस एक बुनियादी स्थापना को स्वीकार करता है कि भाषा संकेतों की एक निश्चित प्रणाली, अपने आंतरिक संगठन समेत एक संरचना’ होती है, जिसके बाहर भाषा के संकेत और अर्थ को नहीं समझा सकता। लेकिन तुलनात्मक-ऎतिहासिक भाषाविज्ञान और संरचनावादी भाषाविज्ञान के पूरे काल के दौरान, प्रत्यक्षवाद, रूपवाद और नवप्रत्यक्षवाद द्वारा विभिन्न रूपों में भाषा के संकेत-वैज्ञानिक और अर्थ-वैज्ञानिक अध्ययनों का जो निरपेक्षीकरण किया जाता रहा और दार्शनिक अध्ययन या ज्ञान-मीमांसा की सारी समस्याओं को भाषा के तार्किक विश्लेषण तक सीमित कर देने के जो प्रयास होते रहे, मार्क्सवाद ने उनका विरोध किया। 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में नवप्रत्यक्षवाद ने दर्शन की समस्याओं को मिथ्या समस्या घोषित करते हुए भाषा और विचार व्यक्त करने की अन्य सभी संकेत-प्रणालियों के भाषाई-अर्थवैज्ञानिक विश्लेषण को प्रतिष्ठापित करने की कोशिश की और विज्ञान के रूप में दर्शन को सारतः विघटित करने का प्रयास किया जिसका मार्क्सवादी भाषावैज्ञानिकों ने तर्कपूर्ण विरोध किया और अपने तर्क से भाषाविज्ञान के दार्शनिक बातों को उभारा ।
मार्क्सवादी भाषाविज्ञान के उद्भव और विकास के दौरान इसे अनेक वादों (रूपवाद, नवप्रत्यक्षवाद आदि) से संघर्ष करना पड़ा तो दूसरी ओर इसके भीतर भी विचलन पैदा होते रहे। भाषाविज्ञान के विस्तार और सूक्ष्मता के कई ऎसे प्रश्न आज भी खड़े हैं जिनसे मार्क्सवाद जझ रहा है और भौतिक-आत्मिक जीवन का विकास ऎसे बहुत सारे प्रश्न भी खड़ा करता जा रहा है जिनका उत्तर ढूंढ़ते हुए मार्क्सवादी भाषाविज्ञान को आगे विकसित होना है। आधुनिक सैद्धांतिक भाषाविज्ञान व्याकरणिक संरचनाओं के जिन प्रश्नों से जुझ रहा है, वह मार्क्सवादी भाषाविज्ञान के सामने भी मौजूद है।
सन्दर्भ : मार्क्सवाद और भाषा का दर्शन,जे.वी. वोलोशिनोव. द्वारा रचित, अनुवाद-विश्‍वनाथ मिश्र, राजकमल प्रकाशन, 2002

ग्लोबलाइज्‍ड हिंदी

-चंदन सिंह
पी-एच।डी. भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

भूमंडलीकरण के इस दौर में मानव जीवन एवं व्यवहार के हरएक पहलू में निरंतर बदलाव सहज ही महसूस किए जा सकते हैं। खासकरभाषा के संदर्भ में सूचना माध्यमों के बढ़ते प्रभाव ने जिस तरह से सामाजिक परिवर्तन को तीव्रताप्रदान की है, संपूर्ण विश्व एक गांव का आकार ले रहा है, तो ऐसी स्थिति में हिंदी और इसका भाषिक स्वरूप समकालीन व्यवहार और परिवर्तन की बयार से कैसे बचा रह सकता है? आज हिंदी ने जिस प्रकार का नया रूप अख्तियार किया है, जिस मिलती-जुलती भाषिक संस्कृति के रूप में स्वंय को प्रस्तुत किया है, वह भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है। हिंदी का यह नया संस्करण उदार है, बहुरंगी है। हिंदी नए-नए शब्द गढ़ रही है। हो सकता है कि आज ये नए शब्द सुनने में अटपटे लगे, किंतु कल हिंदी के किसी नए शब्दकोश का हिस्सा बन सकते हैं। विश्व के विभिन्न भाषाओं के शब्दों को हिंदी जिस तरह से आत्मसात कर रही है, उससे अंदाज लगाया जा सकता है कि भविष्य की हिंदी का चेहरा कैसा मानकीकृत स्वरुप धारण किए होगा।
हिंदी का यह नवीन रूप विश्व में इस कदर व्याप्त है कि विश्व के अनेक देशों में हिंदी के कई समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं जिसमें एक नए किस्म की हिंदी रची जा रही है। विभिन्न भारतीय एवं विदेशी विज्ञापन, बाजार तथा कंपनियां जिस तरह हिंदी के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित कर रही है, वह विश्व स्तर पर हिंदी के ठोस आधार का परिचायक है। इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण है अमेरिकी दूतावास ने अपने नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा दारा शपथ ग्रहण करने के बाद दिए गए भाषण का हिंदी अनुवाद जारी किया है तथा इस भाषण के लिए अमेरिकी जनसंपर्क विभाग ने अपना लेटरपैड भी हिंदी में प्रकाशित किया है।
दरअसल, हिंदी का यह मिश्रित स्वरूप भूमंडलीकरण के परिदृश्य में व्यवसायिकता का आवरण लिए हुए है। यह समझ लेना चाहिए कि अब हिंदी केवल हिंदी पट्टी की ही भाषा नहीं रह गई है। लंदन के 'तुषाद् संग्राहलय'में स्थापित बालीवुड सितारों की मोम प्रतिमा यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि हिंदी अब सात समुंदर पार तक पहुंच चुकी है। हालांकि, सात समुंदर पार कर हिंदी के ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया बहुत कठिन और जटिल रही। इस संदर्भ में हिंदी से हिंग्लिश की लोकप्रियता कम रोचक नहीं है। वैसे हिंदी के विस्तार के लिए यह वरदान साबित हुआ है क्योंकि जीवित रहने और फलने-फूलने के लिए'बदलाव'एक अनिवार्य शर्त होती है। गोया, हिंदी को विश्व स्तर पर, संपर्क, रोजगार एवं सांस्कृतिक भाषा के तौर पर स्थापित करता है तो इसे नवीन प्रौद्योगिक के साथ-साथ इसके प्रयोजनमूलक संदर्भ में सामंजस्य स्थापित करना होगा, जिससे न केवल हिंदी का प्रचार प्रसार होगा बल्कि रह रोजगारपरक भाषा भी बनेगी। कारण स्पष्ट है कोई भाषा जब तक अपने बोलने व समझनेवालोंके लिए रोजगार का साधन नहीं बनती तबतक लोगों का उसके प्रति आकर्षित होना संदिग्ध होता है, क्षणिक होता है । हिंदी भाषा के संदर्भ में यह सुखदहै कि इसका मिश्रित स्वरुप आज के भारतीय युवा वर्ग की पसंद है जो कुल भारतीय आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा है तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए एक विशाल बाजार भी है। इसी कारण इस मिश्रित हिंदी के लिए विश्व बाजार रोजगार के लाखों अवसरों से भरा पड़ा है, जिसमें करोड़ो डालर की पूंजी निवेश की गई है।
हिंदी का यह नया मानचित्र इंटरनेट के साथ हिंदी के रिश्तों का ब्यौरा किए बिना पूरा नहीं हो सकता। इंटरनेट एक नवीन लेकिन तेजी से उभरता हुआ संचार माघ्यम है। बतौर भाषा हिंदी का प्रौद्योगिकी के साथ पहले-पहले एक उद्यमहीन और हिचकता हुआ रिश्ता रहा है, किंतु अब इंटरनेट पर गुगल, हॉटमेल या याहु सभी ने अपने हिंदी संस्करण शुरु करदिए है। माइक्रोसॉफ्ट द्वारा युनीकोड और हिंदी में सहजता से सीखने की सुविधा मिलने के बाद ब्लॉग-संस्कृति बिना किसी रोक-टोक के चल पड़ी है।
किंतु सवाल यह है कि क्या हिंदी भाषा के इस रूप को सहज तकनीकी विकास और बाजार की जरुरतों का प्रतिफल मान लिया जाए या फिर हिंदी के इस नए चेहरे को सिर्फ बदलती परिस्थितियों की देन मानकर संतुष्ट हो लिया जाए। यहां यह भी स्मरणीय है कि हिंदी भाषा का यह चेहरा कई मायनों में विगत कुछ वषों की धूप-छांव का सामना करते हुए निखरा है। कई मायनों में यह परिवर्तनशील समाज का प्रतिबिंब है जिसके तहत हिंदी ने अपना नया रुप धारण किया है, विकसित किया है। यह स्वाभाविक है कि हिंदी को ग्लोबल होने के लिए नए रुप में ढ़लना ही होगा।

भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी

-डॉ. अनिल कुमार दुबे
व्‍याख्‍याता, भाषा विद्यापीठ

समाजिक-आर्थिक संबंधो का संपूर्ण विश्व तक विस्तार वैश्वीकरण या भूमंण्डलीकरण है। भूमंण्डलीकरण को लेट कैपिटलिज्म का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण माना गया है। इससे उत्पादन साधनों,विशेषकर पूंजी के विश्वव्यापी अबाधित प्रवाह से लिया जाता है, जिसमें सूचना संजाल की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। परिणमस्वरुप सारा विश्व एक गाँव या एक बाजार बन जाता है, तथा राष्ट्र -राज्य की भौगोलिक सीमाएं अप्रासंगिक हो जाती हैं। संसार में कुछ भी,कहीं भी बेचा या खरीदा जा सकता है। उत्पादन और प्रबंधन की तकनीकों में तीव्रगामी सुधार और प्रतियोगिता को एक मूल्य मान लिए जाने के कारण करीब-करीब दूसरी औद्योगिक क्रांति की स्थितियां उपस्थित हो गई हैं। उपभोक्ता,कीमत के प्रति और उत्पादक,लागत के प्रति अत्यंत सतर्क होते हैं। ये ग्लोबल कंपनी इस अर्थ में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से भिन्न होती हैं कि वह सभी स्थानों पर बिल्कुल समान,एक सी वस्तु बेचती हैं। स्थानीक आधार पर पाया जानेवाला रुची-वैविध्य घटता जाता है और इसके बरअक्स सभी स्थानों पर रुचियों में एक जैसा पन आने लगता है। इसके परिणामस्वरुप उत्पाद,उत्पादन-विधियों,विक्रय और वित्त इत्यादि से संबंधित वैश्विक मानक व्यव्हृत होने लगते हैं, क्योंकि समूचे विश्व में बेची जा रही वस्तु में कृत्रिम अंतर नहीं है और वह एक वैश्विक मानकीकरण के अंतर्गत है कि स्पर्धा भी वैश्विक ही होगी।
परंतु साथ ही उतना ही सच है कि एक ग्लोबल कंपनी स्थानीय बाजार, वहाँ की संस्कृति तथा उपभोक्ताओं कि प्राथमिकताओं आदि को जानने में अधिक दिलचस्पी रखती है। सोनी कार्पोरेशन के अकीओ मोरिता इसे ''वैश्विक स्थानिकरण''अथवा ''मल्टीनैशनल्स''का उदय कहते हैं। बाजार ही चीज के सापेक्षिक महत्व को निर्धारित करने लगता है। बाजार में जो योग्यतम सिध्द होगा वही टिकेगा। जीवन के सभी पहलू जिस केन्द्र से नियंत्रित और निर्देशित होंगे वह है बाजार।
जहाँतक भाषा का सवाल है,बाजार इस बात को अपने हित में मानता है कि भाषाओं की संख्या जितनी कम हो सके हो, इतनी अधिक भाषाओं की क्या जरुरत है? यही नहीं एक भाषा में भी एकाधिक यानी पर्यायवाची शब्दों की जरुरत नहीं है। हम साफ देख सकते हैं कि आज हमारा शब्द-भंडार किस तेजी से घट रहा है। यह सच है कि कंप्यूटर आदि से संबध्द ढेरों नए शब्द हमारी शब्दावली में शामिल हुए हैं परंतु अब हम अपने दादा -परदादा की तरह बहुत सारी वनस्पतियों, कीटों और बहुत-सी दूसरी चीजों के नाम नहीं जानते। बाजार हमारे घर बल्कि दिलोदिमाग में भी घुसता जा रहा है और हम बडी तेजी से, शब्दों के रसिक नहीं,शब्दों के उपभोक्ता बनते जा रहे हैं।ऐसे में, जैसा कि यूनेस्को की एक रिपोर्ट बताती है कि हर वर्ष संसार से अनेक जैविक प्रजातियों की ही तरह बीसियों भाषाएं भी सदा के लिए लुप्त होती जा रही हैं। अंतत: कुछ बडी सक्षम भाषाएं ही शायद बची रह पाएँ।
इस दृष्टि से, किसी विश्वसनीय निष्कर्ष तक पहँचने में सहायक हो सके ऐसा कोई विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन या आंकडे उपलब्ध नहीं हैं।
ऐसे में, यह संभावना अधिक आशाजनक नहीं लगती कि निजी क्षेत्र में राजभाषा संबंधी प्रावधानों को लागू किया जाए। वैसे भी हिस्सेदारी वाले निजी उपक्रमों में तो ये प्रावाधन लागू होंगे ही। पर इससे शायद ही कोई अंतर पडे।
अधिकतर लोगों को हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी में रोजगार की विश्वव्यापी संभावनाएं दिखाई पड़ने लगी है। सॉफ्टवेयर क्षेत्र में अमेरिका तथा पश्चिमी राष्टों में भारतायों ने चीनियों आदि को पीछे छोड़ते हुए अपने ज्ञान की भी अहम भूमिका का परिचय दिया है। चीन और जापान जैसे देश तक में अब अंग्रेजी का प्रचार -प्रसार बढ़ रहा है।
यह सच है कि हिंदी के उद्भव और विकास का समूचा कालखंड उसके लिए निहायत प्रतिकूल रहा है और स्वाधीनता से पूर्व तक वह प्रायः राजाश्रय विहीन ही रही. हिंदी मूलतः भारतीय जन की ओर जन-प्रतिरोध की ही भाषा रही है. लेकिन वर्तमान सांस्कृतिक भूमंडलीकरण ने हिंदी के समक्ष अत्यंत गंभीर तथा अभूतपूर्व चुनौती प्रस्तुत की है. सांस्कृतिक भूमंडलीकरण तो आर्थिक भूमंडलीकरण के बाद होना ही है. भूमंडलीकरण के एक निहितार्थ के तौर पर कह सकते हैं कि बाजार की शक्तियों व बाजारवाद के लिए पोषक संस्कृति और उस संस्कृति पर पश्चिमी अमरिकी वर्चस्व। सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए जैसा कि हावर्ट शीलर जैसे विचारकों का मत है भाषा माध्यम पर वर्चस्व जरूरी है. यूं तो ’वर्चस्व’ शब्द का उपयोग मुख्य रूप से सत्ता और राजनीति के संदर्भ में ही होता आया है. पर विगत वर्षों में इसे संस्कृति और भाषा के क्षेत्रों में भी लागू किया जा रहा है. अन्य विकासशील देशों की तरह ही भारत और उसकी राजभाषा। राष्ट्रभाषा हिंदी भी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से दो-चार है।
मीडिया इत्यादि के द्वारा बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सांस्कृतिक उत्पादों के लगातार विकाशशील देशों में प्रवेश के चलते यहां की संस्कृति तथा भाषाओं के लिए खतरा पैदा हो गया है. इंटरनेट, टी.वी. चैनल और सिनेमा जैसे माध्यमों के जरिए अंग्रेजी की पैठ बढती जा रही है या वह हमारे यहां एक ग्लोबल भाषा के रूप में पैर जमाती जा रही है इसके विपरीत हमारे सांस्कृतिक उत्पादों के लिए अमरीका आदि में अत्यल्प बाजार है।
इसमें संदेह नहीं कि अपने उद्भव - काल से ही हिंदी को निरन्तर प्रतिकूलताओं से सामना करते रहना पडा है। स्वतंत्रता से पूर्व वह कभी राजभाषा या राज्याश्रय-प्राप्त भाषा नहीं थी। पर वह जनप्रतिरोध की भाषा, जन-आकांक्षा का खुला मंच और इस महादेश की संश्लिष्ट, सामासिक- संस्कृति की सशक्त पहचान बनकर जनभाषा बनी। उपमहाद्वीप के प्राय: हर क्षेत्र में न्युनाधिक रूप में हिंदी की उपस्थिति उसकी विलक्षण क्षमता की परिचायक हैं। हिंदी की इसी क्षमता को पहचानते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तथा अन्य राष्ट्रनायकों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा की सम्मानयुक्त संज्ञा दी। लेकिन स्वतंत्रता के बाद देश में स्थितियों ने हिंदी के मार्ग को और अधिक कंटकाकीर्ण बना दिया। हालांकि इन स्थितियों को भारतीय राष्ट्र-राज्य की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में ही देखा-समझा जाना होगा। पहले के हिंदी-उर्दू या हिंदी-हिन्दुस्तानी विवाद तो अब प्राय: अप्रासंगिक हो चले, लेकिन क्षेत्रीय अस्मिताओं के उभार ने राष्ट्रीय अस्मिता और उसका प्रतिनिधित्व कर रही हिंदी को कमजोर करने की दिशा में काम किया। 'अंग्रेजी हटाओ'या 'हिंदी लाओ'जैसे नारों ने हिंदी या राजभाषा के सवाल को सुलझाने की बजाय और उलझा दिया। भाषा को लेकर संकीर्णताओं ने नए दायरे खडे करने के प्रयास चलते रहे। उत्तर बनाम दक्षिण और आर्य बनाम द्रविड जैसे विवादों को वोट की राजनीति ने हवा दी और परिणामत: जहाँ एक ओर नवोदित राष्ट्र के पुनर्गठना की विसंगतियों को चौडा किया गया वहीं एक अंतरदेशीय सांस्कृतिक सेतु के रूप में हिंदी की स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पडा। क्षेत्रीय तथा उप क्षेत्रीय अस्मिता के पक्षधर राजनीतिज्ञों ने अगर मातृभाषाओं के साथ-साथ हिंदी को भी जोडा होता तो कदाचित आज वैश्वीकरण की चुनौती का सामना करने की दृष्टि से हिंदी अधिक अच्छी स्थिति में होती। पर आज तो हम देख रहें हैं कि राजस्थानी और भोजपुरी जैसी हिंदी की बोलियों को ही हिंदी के समानान्तर खडा किया जा रहा है। आशा की जा सकती है कि यह एक अस्थायी प्रवृत्ति ही साबित हो।
आज हिंदी अपने लचीलेपन का पूर्वापेक्षा अधिक परिचय दे रही है। उर्दू, अंग्रेजी, अन्य भारतीय भाषाओं तथा अपनी बोलियों से हिंदी उदारतापूर्वक शब्द ग्रहण कर रही है। फिर भी भाषा के कुछ स्वयंभु खलीफा हिंदी को और अधिक सरल बनाए जाने का राग अलापते रहते हैं। हालाकिं ऐसी सलाह कोई अंग्रेजी के लिए नहीं देता ।
राष्ट्रलिपि देवनागरी तो और भी अधिक बडी चुनौती से दो चार है। देश विदेश में हिंदी की लिपि के रूप में रोमन का व्यवहार दैनिक जीवन में बढा है। भारत देवनागरी के जरिये ही अपने प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की महान विरासत से जुडा रह सकता है।
हिंदी पुस्तकों के प्रकाशन तथा विक्री के आकडे देकर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि हिंदी की लोकप्रियता बढ. रही है। लेकिन ऎसे दावे भी अंशत: ही ठीक हैं। हिंदी पुस्तकों की बिक्री मुख्यत: सरकारी तथा संस्थागत खरीद तक ही सीमित है।
निष्कर्षत: कहना पड़ता है कि निकट भविष्य में हिंदी की स्थिति में सुधार और सच्चे अर्थो में उसके राजभाषा बनने की संभावना बहुत कम है। विदेशों में रहनेवाले भारतीयों के लिए भी हिंदी का महत्व अधिकांश में प्रतीकात्मक ही है। अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्यापन बंद होता जा रहा है, जैसा कि हाल ही में कैम्ब्रिज में हुआ। जहॉ हिंदी पढ़ाई भी जा रही है वहॉ छात्रों की संख्या अत्यल्प है। ऐसे में हिंदी के बोली मात्र बन कर रह जाने का खतरा अवास्तविक नहीं कहा जा सकता।

आज 03 दिसंबर की खबरें

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प्रस्तुति-- किशोर प्रियदर्शी, धीरज पांडेय

 प्रमुख समाचार

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सत्ता के लोभियों का फिर से जमावडा उत्सव

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मोदी के ख़िलाफ़ महामोर्चा की तैयारी



  • प्रस्तुति- अखौरी प्रमोद राहुल मानव, राजेश सिन्हा


मुलायम सिंह यादव के साथ देवेगौड़ा, शरद यादव,लालू प्रसाद और नीतीश कुमार

केंद्र में मोदी सरकार के ख़िलाफ़ महामोर्चा बनाने के इरादे से समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के नई दिल्ली स्थित आवास पर गुरुवार को कुछ गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेसी नेताओं की बैठक हुई.
मुलायम सिंह के घर पहुंचने वाले नेताओं में जनता दल यूनाइटेड के शरद यादव और नीतीश कुमार, राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, जनता दल सेक्यूलर के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और भारतीय राष्ट्रीय लोकदल के सांसद दुष्यंत चौटाला भी शामिल थे.
इस बैठक में तय किया गया है कि समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, जनता दल सेक्यूलर और भारतीय राष्ट्रीय लोकदल केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ महामोर्चा बनाएंगी.
बैठक के बाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार ने कहा कि अभी एकजुट होने का फैसला हुआ है और सब कुछ ठीक रहा तो एकीकरण का फैसला भी हो सकता है.

सरकार को घेरने की तैयारी



मुलायम सिंह के आवास पर बैठक
नीतीश कुमार ने कहा कि काला धन, बेरोजगारी और किसानों के मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरा जाएगा और संसद के दोनों सदनों में विपक्ष एकजुट रहेगा.संसद का शीतकालीन सत्र 24 नवंबर से शुरू हो रहा है.
सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने मोदी सरकार के ख़िलाफ़ इस पहल का स्वागत किया है.
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संबंधित समाचार

Hard News Vs. Soft News

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 प्रस्तुति- समिधा, राहुल मानव, राकेश


News stories are basically divided into two types: hard news and soft news. Hard new generally refers to up-to-the-minute news and events that are reported immediately, while soft news is background information or human-interest stories. Politics, war, economics and crime used to be considered hard news, while arts, entertainment and lifestyles were considered soft news.
But increasingly, the lines are beginning to blur. Is a story about the private life of a politician “politics” or “entertainment”? Is an article about the importance of investing early for retirement a “business” story or a “lifestyle” story? Judging solely on subject matter, it can be difficult to tell.
One difference between hard and soft news is the tone of presentation. A hard news story takes a factual approach: What happened? Who was involved? Where and when did it happen? Why?
A soft news story tries instead to entertain or advise the reader. You may have come across newspaper or TV stories that promise “news you can use.” Examples might be tips on how to stretch properly before exercising, or what to look for when buying a new computer.
Knowing the difference between hard and soft news helps you develop a sense of how news is covered, and what sorts of stories different news media tend to publish or broadcast. This can be important when you want to write articles or influence the media yourself.
© 2008 Media Awareness Network

6 Comments Add your own

  • 1.Ronny Mustamu |  July 15, 2008 at 3:44 am
    Good foundation for journalism and journalist to be.
    Reply
  • 2.abovetherim888 |  July 16, 2008 at 5:19 pm
    When watching this I must agree with Cindy Sheehan’s supporter, a former talk show host, Phil Donahue. He believes that there shouldnt be troops in Iraq at this time as do I. He says that war is not fair to the American Troops and he also believes that its unconsitutional. Our troops have been there for way to long and they should be sent home. I believe that Oreilly is wrong because so many troops have been killed and he wants to send more there? I dont approve…
    Reply
  • 3.labellaviitta |  July 17, 2008 at 6:10 am
    I dont think any more troops should be sent….oreilly is too much…way too many people have given their lives for a war that we dont even know why we are fighting anymore
    Reply
  • 4.Laura |  October 29, 2008 at 12:05 pm
    A very useful article for me as a Communications student. Thank you!
    Reply
  • 5.viashnuprasadu |  July 2, 2010 at 1:05 pm
    this was quite relevent information for me as a am communication student …. thank you very much
    Reply
  • 6.Sellina Nkowani |  July 23, 2011 at 9:07 am
    I find this very useful. I am actually in the middle of writing my assign on the differences between hard news and soft news. Thanks!

पत्रकारिता में वाक्यविन्यास

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प्रस्तुति-- स्वामी शरण,श्रुति जारूहार

 

किसी भाषामें जिन सिद्धान्तों एवं प्रक्रियाओं के द्वारा वाक्यबनते हैं, उनके अध्ययन को भाषा विज्ञानमें वाक्यविन्यास, 'वाक्यविज्ञान'या सिन्टैक्स (syntax) कहते हैं। वाक्य के क्रमबद्ध अध्ययन का नाम 'वाक्यविज्ञान'कहते हैं। वाक्य विज्ञान, पदों के पारस्परिक संबंध का अध्ययन है। वाक्य भाषा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। मनुष्य अपने विचारों की अभिव्यक्ति वाक्यों के माधयम से ही करता है। अतः वाक्य भाषा की लघुतम पूर्ण इकाई है।

वाक्यविज्ञान का स्वरूप

वाक्य विज्ञान के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों का विचार किया जाता है- वाक्य की परिभाषा, वाक्यों और भाषा के अन्य अग् का सम्बन्धा, वाक्यों के प्रकार, वाक्यों में परिवर्तन, वाक्यों में पदों का क्रम, वाक्यों में परिवर्तन के कारण आदि।
वाक्य विज्ञान के स्वरूप के विषय में डॉ॰ कपिलदेव द्विवेदी ने विस्तार से विवेचन किया है। उनका मत इस प्रकार हैः-
वाक्य-विज्ञान में भाषा में प्रयुक्त विभिन्न पदों के परस्पर संबन्ध का विचार किया जाता है। अतएव वाक्य-विज्ञान में इन सभी विषयों का समावेश हो जाता है- वाक्य का स्वरूप, वाक्य की परिभाषा, वाक्य की रचना, वाक्य के अनिवार्य तत्त्व, वाक्य में पदों का विन्यास, वाक्यों के प्रकार, वाक्य का विभाजन, वाक्य में निकटस्थ अवयव, वाक्य में परिवर्तन, परिवर्तन की दिशाएँ, परिवर्तन के कारण, पदिम (Taxeme) आदि। इस प्रकार वाक्य-विज्ञान में वाक्य से संबद्ध सभी तत्वों का विवेचन किया जाता है।
पदविज्ञानऔर वाक्य-विज्ञान में अन्तर यह है कि पद-विज्ञान में पदों की रचना का विवेचन होता है। अतः उसमें पद विभाजन (संज्ञा, क्रिया, विशेषण आदि), कारक, विभक्ति, वचन, लिंग, काल, पुरुष आदि के बोधाक शब्द किस प्रकार बनते हैं, इस पर विचार किया जाता है। वाक्य-विज्ञान उससे अगली कोटि है। इसमें पूर्वाेक्त विधि से बने हुए पदों का कहाँ, किस प्रकार से रखने से अर्थ में क्या अन्तर होता है, आदि विषयों का विवेचन है। धवनि निर्मापक तत्त्व हैं। जैसे मिट्टी, कपास आदि; पद बने हुए वे तत्त्व हैं, जिनका उपयोग किया जा सकता है, जैसे- ईंट, वस्त्रा आदि; वाक्य वह रूप है, जो वास्तविक रूप में प्रयोग में आता है, जैसे- मकान, सिले वस्त्रा आदि। पद ईंट है तो वाक्य मकान या भवन।
तात्त्विक दृष्टि से ध्वनि, पद और वाक्य में मौलिक अन्तर है। धवनि मूलतः उच्चारण से संबद्ध है। या शारीरिक व्यापार से उत्पन्न होती है, अतः ध्वनि में मुख्यतया शारीरिक व्यापार प्रधान है। पद में ध्वनि और सार्थकता दोनों का समन्वय है। ध्वनि शारीरिक पक्ष है और सार्थकता मानसिक पक्ष है। पद में शारीरिक और मानसिक दोनों तत्त्वों के समन्वय से वह वाक्य में प्रयोग के योग्य बन जाता है। सार्थकता का संबन्ध विचार से है। विचार मन का कार्य है, अतः पद में मानसिक व्यापार भी है। वाक्य में विचार, विचारों का समन्वय, सार्थक एवं समन्वित रूप में अभिव्यक्ति, ये सभी कार्य विचार और चिन्तन से संबद्ध है, अतः मानसिक कार्य है। वाक्य में मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक पक्ष मुख्य होता है। विचारों की पूर्ण अभिव्यक्ति वाक्य से होती है, अतः वाक्य ही भाषा का सूक्ष्मतम सार्थक इकाई माना जाता है। इनका भेद इस प्रकार भी प्रकट किया जा सकता है-
  • 1. धवनि : उच्चारण से संबद्ध है, शारीरिक तत्त्व मुख्य है, प्राकृतिक तत्त्व की प्रधानता के कारण प्रकृति के तुल्य ‘सत्’ है।
  • 2. पद : इसमें शारीरिक और मानसिक दोनों तत्त्व हैं, सत् के साथ चित् भी है, अतः ‘सच्चित्’ रूप है।
  • 3. वाक्य : मानसिक पक्ष की पूर्ण प्रधानता के कारण भाषा का अभिव्यक्त रूप है, अतः ‘आनन्द’ रूप या ‘सच्चिदानन्द’ रूप है। वाक्य ही सार्थकता के कारण रसरूप या आनन्दरूप होता है। भावानुभूति, रसानुभूति या आनन्दानुभूति का साधान वाक्य ही है। वाक्य सत्, चित्, आनन्द का समन्वित रूप है, अतः दार्शनिक भाषा में इसे ‘सच्चिदानन्द’ कह सकते हैं

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प्रसारण

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प्रस्तुति-- किशोर प्रियदर्शी,  धीरज पांडेय



श्रब्य और/अथवा विडियो संकेतों को एक स्थान से सभी दिशाओं में, या किसी एक दिशा में फैलाना प्रसारण (Broadcasting) कहलाता है। दूरस्थ स्थानों पर इन संकेतों को उपयुक्त विधि से ग्रहण किया जाता है एवं आवश्यक परिवर्तनों (प्रवर्धन, डीमोडुलेशन आदि) के बाद कोई श्रब्य या विडियो आदि प्राप्त होता है।

इतिहास

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हैन्राइख रूडोल्फ हर्ट्ज ने विद्युच्चुंबकीय शक्ति की कल्पना को वैज्ञानिक आधार देकर रेडियो और बेतार के मूलभूत सिद्धांत की खोज करने की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम उठाया। (1887 ई.) हर्टज से पहले भी ब्रिटिश वैज्ञानिक मैक्सवेलऔर कदाचित् इससे पहले रूसी वैज्ञानिक पाथोफ और भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसुने इस क्षेत्र में मौलिक आविष्कार किए थे। किंतु हर्ट्ज ही पहला वैज्ञानिकथा, जो यह सिद्ध करने में सफल हो गया कि विद्यच्चुंबकीय तरंगेंविस्तृत स्थान में अक्षुण्ण और क्रमिक गति कर सकती हैं। उनका व्यवहार प्राय: वैसा ही होता है जैसा उष्णता (heat) अथवा प्रकाश की तरंगों (वेब) का। इसी के आधार पर सन् 1886 में मारकोनी ने विद्युच्चुंबकीय तरंगों द्वारा एक संकेत (सिगनल) को दो मील की दूरी तक भेजने में सफलता प्राप्त की।
पहले महायुद्ध से पूर्व बेतार केवल दूर-दूर तक संकेत प्रसारित करने का एक साधन मात्र था। उस समय बेतार की कल्पना मनोरंजनएवं लोकशिक्षा के माध्यम के रूप में नहीं की गई थी। यह अन्य वैज्ञानिक आविष्कारों - रेल, वायुयान, जहाज आदि, की भाँति भौगोलिक अंतर को मिटाने की दौड़ में एक महत्वपूर्ण कदम था।
प्रसारण (ब्रॉडकाÏस्टग) का विकास उस समय शूरू हुआ, जब बेतार के सिद्धांत को लोकरंजन के लिये प्रयुक्त किया गया। 1914 से पहले भी शौकिया तौर पर कुछ साहसिक व्यक्ति भाषण एवं संगीत को कुछ दूर तक प्रसारित करने में सफल हो चुके थे। श्रव्यप्रसारण की वास्तविक प्रगति युद्ध के दौरान हुई। युद्धकाल में ही "थर्मियोनिक वाल्ब"का अविष्कार हुआ। 1917 में कैन्टेन डोनिसथोर्प और उनकी पत्नी ने ब्रिटेन के वायरलेस ट्रेनिंग कैंपों के लिये ग्रामोफोन रिकाड़ों का एक साप्ताहिक कार्यक्रम प्रसारित किया, ताकि प्रशिक्षण का नीरस कार्यक्रम रोचक बन सके।
1920 में अमरीका के शौकिया प्रयोगकर्ताओं ने भी छोटे-मोटे संगीतकार्यक्रम प्रस्तुत करना आरंभ कर दिया। प्रसिद्ध एन. डी. के. ए. केंद्र का पहला कार्यक्रम, जिसे यूरोप के श्रोताओं ने सुना, 1921 में प्रसारित किया गया।
ब्रिटेन में भी प्रसारकेंद्र स्थापित करने की माँग हुई; फलस्वरूप 1922 में मारकोनी कंपनी को आध घंटे का साप्ताहिक कार्यक्रम प्रसारित करने की अनुज्ञा मिल गई। शीघ्र ही मारकोनी कंपनी ने एक और स्टेशन संचालित किया जो बाद में लंदन केंद्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
अमरीका में जनसाधारण ने इस नए अधिकार में असाधारण रूप से रुचि दिखाई। उन्होंने अनुभव किया कि यह आविष्कार एक सस्ता और अद्भुत मनोरंजन है और साथ ही साथ घर बैठे शिक्षा प्राप्त करने का उत्तम साधन भी। रेडियो बनानेवालों, इश्तहारवाजों और अखबारवालो ने सोत्साह इसे विकसित करने का प्रयत्न किया। 1924 में अमरीका में 1105 "ट्रांसमिटिंग स्टेशन"काम कर रहे थे। 1926 में सभी रेडियो निर्माताओं ने इकट्ठे होकर "नेशनल ब्राडकाÏस्टग कंपनी"बनाने का निश्चय किया।
यूरोप में प्रसारण का विकास प्रथम महायुद्ध के बाद वेग से होने लगा। युद्ध से क्लांत और टूटी हुई जनता के लिये प्रसारण प्रेरणा एवं मनोरंजन का साधन बना। यूरोप के उन देशों में रेडियो अधिक लोकप्रिय हुआ, जिनकी जनता सुदूर विदेशों में जाकर लड़ी थी, जैसे जर्मनीऔर ब्रिटेनमें। फ्रांसऔर इटलीमें तो कालांतर तक रेडियो एक खेलतमाशे से अधिक कुछ न बन सका।
युद्ध ने राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता दोनों भावनाओं के विकास को प्रोत्साहन दिया। अपने देश के प्रति आसक्ति बढ़ी तो अन्य देशों के प्रति उत्सुकता भी। इन दोनों वृत्तियों ने प्रसारण के विकास में सहायता दी। युद्ध के बाद गरीबी, बेरोजगारी, दुख और दीनता ने लोगों के स्वभाव में तेजी से क्रांति पैदा कर दी। स्कैंडिनेवियाई देशों - स्वीडन, नावें, डेन्मार्कहृ की जनता में भी रेडियो लोकप्रिय हुआ। मध्य यूरोप और पूर्वी यूरोप से होते हुए यह प्रभाव बाल्कन प्रदेश में पहुँचा और इसी तरह दक्षिणी अमरीका और सुदूर मेक्सिको में। वहाँ रेडियों का प्रयोग सैनिक शिक्षा के लिये किया गया। रूस ने क्रांति और संघर्ष के बीच प्रसारण का सत्कार किया। वहाँ 1924 में पहला प्रसारण लाइसेंस दिया गया। रूस के जन नेताओं ने इसके क्रांतिकारी शिक्षासाधनों के मूल्य और प्रभावसंपन्नता को पहचाना।
प्रसारण की व्यवस्था विभिन्न देशों की परंपरा एवं शासनपद्धति के अनुरूप भिन्न भिन्न प्रकार से हुई है। ब्रिटेन ने निगम प्रणाली को अपनाया, तो जर्मनी ने रेडियो को शासन का एक अंग, प्रचारयंत्र बनाना हितकर समझा। रूस में भी प्रसारण को प्रचार का शक्तिशाली माध्यम बनाया गया। अमरीका में आर्थिक क्षेत्र की भाँति प्रसारण को भी मुक्त स्पद्र्धा का अखाड़ा बनने दिया गया। भारत में प्रसारण का भी मुक्त स्पद्र्धा का अखाड़ा बनने दिया गया। भारत में प्रसाण शासन का एक सूत्र है।

भारत में रेडियो प्रसारण

भारतमें रेडियो प्रसारण विधिवत् 23 जुलाई 1927 से शुरू हुआ, जब लार्ड इरविन ने इंडियन ब्राडकास्टिंग कंपनी के बंबई केंद्र का उद्घाटन किया। इससे पहले बहुत सी शौकिया रेडियो एसोसियेशनों ने भारत के विभिन्न स्थानों पर बहुत कम शक्ति वाले ट्रांसमिटर लगाकर प्रसारण के प्रयोग किए थे। 16 मई 1928 को मद्रास में पहला रेडियो क्लब खोला गया और 31 जुलाई से कार्यक्रम प्रसारित होने शुरू हो गए थे। इसके बाद 26 अगस्त को कलकत्ता केंद्र भी खुल गया।
उस समय भारत में कुल 1,000 रेडियो लाइसेंस थे। 19९९ के अंत तक यह संख्या बढ़कर 6152 तक हो गई। 1932 के अंत में यह 8557 तक पहुँच गई। अप्रैल 1939 तक कुल संख्या 74,000 तक हो गई। सन् 1936 में दिल्ली, 1937 में पेशावरऔर लाहौर, 1938 में लखनऊऔर मद्रास, 1939 में ढाकाऔर त्रिचनापल्लीआदि नए केंद्र खुल गए। मार्च 1930 में इंडियन ब्राकस्टिग कंपनी दीवालिया हो गई थी, इसलिये प्रसारण का अधिकार सरकार ने अपने हाथ में ले लिया; और आई. बी. सी. का नाम इंडिया ब्राडकटिंग सर्विस रख दिया गया। 1936 में इस संख्या का नाम हो गया - 'आल इंडिया रेडियो'जो कालांतर में आकाशवाणीके नाम से प्रसिद्ध हुआ।
भारत के स्वतंत्र होते ही राष्ट्रीय जीवन के अन्य पहलुओं के विकास के साथ रेडियो का भी महत्वपूर्ण विकास हुआ। पंचवर्षीय योजनाओं के अधीन सांस्कृतिक क्षेत्रों के अनुरूप नए नए प्रसारण केंद्रों की स्थापना हुई, ताकि प्रत्येक प्रदेश अपने अपने वैविध्यपूर्णा जीवन के सौंदर्य को प्रसारण द्वारा अभिव्यक्त कर सके, जिससे प्रत्येक प्रदेश की जनता को उन्नत बनाने के लिये उसके जीवन के नित्यप्रति के उपादनों की सहायता ली जा सके।

बाहरी कड़ियाँ


विंडोज मीडिया वीडियो

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MV Icon
संचिकानाम विस्तार.wmv
इंटरनेटमीडियाप्रकारvideo/x-ms-wmv
युनीफ‘ओर्म प्रकार आइडेन्टिफायरcom.microsoft.windows-?media-wmv
द्वारा विकसितMicrosoft
फॉर्मैट का प्रकारvideo file format
विंडोज मीडिया वीडियो (WMV)माइक्रोसॉफ्टद्वारा विकसित कई उपयुक्त कोडेक के लिए एक संपीड़ित वीडियो संपीड़न प्रारूप है। WMVके रूप में जाना जाने वाला मूल वीडियो प्रारूप रीयल वीडियो के मूलत: एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में इंटरनेट स्ट्रीमिंग अनुप्रयोग डिजाइन किया गया था। WMV स्क्रीन और WMV छविजैसे अन्यान्य स्वरूप विशेष सामग्री की जरूरत पूरी करते हैं। सोसाइटी ऑफ मोशन पिक्चर एंड टेलीविजन इंजीनियर्स (SMPTE)[1][2]के मानकीकरण के माध्यम से WMV 9 ने HD डीवीडी और ब्लू रे डिस्कजैसे शारीरिक वितरण प्रारूपों को अपनाया है।[3][4]

इतिहास

2003 में माइक्रोसॉफ्ट ने अपने WMV 9 कोडेक पर आधारित एक वीडियो कोडेक विवरण का मसौदा तैयार किया और मानकीकरण के लिए SMPTE के समक्ष प्रस्तुत किया। इस मानक को मार्च 2006 में SMPTE 421M के रूप में आधिकारिक तौर पर मंजूरी दे दी गई, जिसे बेहतर रूप में वीसी-1 के रूप में जाना जाता है, इस तरह WMV 9 प्रारूप एक खुला मानक बन गया। तब से वीसी-1 वीडी रोम विवरणों के लिए 3 अनिवार्य वीडियो प्रारूपों में से एक बन गया।[3][4]

कंटेनर प्रारूप

ज्यादातर परिस्थितियों में एक WMV फ़ाइलएडवांस्ड सिस्टम्स फार्मेट (ASF) वाले प्रारूप में संक्षिप्त की गयी होती हैं।[5]फ़ाइल एक्सटेंशन.WMVआम तौर पर ASF फ़ाइलों का वर्णन करता है, जो विंडोज मीडिया वीडियो कोडेक्स का प्रयोग करते हैं। विंडोज मीडिया वीडियो के संयोजन के साथ्र इस्तेमाल किया जाने वाला ऑडियो कोडेक आम तौर पर विंडोज मीडिया ऑडियो का कोई संस्करण या कुछ दुर्लभ मामलों में पदावनत सिप्रो ACELP.net ऑडियो कोडेक होता है। माइक्रोसॉफ्ट इस बात की सिफारिश करता है कि गैर-विंडोज मीडिया कोडेक वाली ASF फाइलें जेनेरिक. asr फाइल विस्तार का उपयोग करती हैं।
ASF कंटेनर अण्डाकार वक्र क्रिप्टोग्राफी कुंजी विनिमय, डेस ब्लॉक चिपर, एक कस्टम ब्लॉक चिपर, RC4 स्ट्रीम चिपर और SHA-1 हैशिंग फंक्शन के संयोजन का उपयोग कर वैकल्पिक रूप से डिजिटल अधिकार प्रबंधन का प्रयोग कर सकता है।
हालांकि WMV प्रारूप आम तौर पर ASF कंटेनर प्रारूप में पैक किया हुआ होता है, पर इसे क्रमश:AVI या मैट्रोस्का कंटेनर प्रारूप में भी रखा जा सकता है। परिणामतः बने फाइलों के पास AVI और MKV फाइल एक्सटेंशन्स क्रमशः होते हैं। WMV 9 वीडियो संपीड़न प्रबंधक (VCM) कोडेक कार्यान्वयन का उपयोग करने के समय WMV को AVI फ़ाइल में भंडारित किया जा सकता है।[6][7] WMV को AVI फ़ाइल में भंडारित करने का एक अन्य आम तरीका 0}VirtualDub इनकोडर का उपयोग करना है।

वीडियो संपीड़न प्रारूप

विंडोज मीडिया वीडियो


480p के साथ प्रारंभ, विंडोज मीडिया वीडियो 9 व्यावसायिक द्वारा एक चित्र में कई आम वीडियो विश्लेषण के आपेक्षित फ्रेम आकारों की व्याख्या.
विंडोज मीडिया वीडियो (WMV) WMV परिवार में सबसे ज्यादा मान्यता प्राप्तवीडियो प्रारूपहै। WMVशब्द का उपयोग अक्सर माइक्रोसॉफ्ट विंडोज मीडिया वीडियोकोडेक को संदर्भित करने के लिए होता है। इसके मुख्य प्रतियोगियों में MPEG-4 AVC,AVS, रीयल वीडियो DivX और Xvid हैं। कोडेक, WMV 7, का पहला संस्करण 1999 में पेश किया गया था और यह माइक्रोसॉफ्ट के MPEG-4, भाग 2 के कार्यान्वयन के आध्रार पर बनाया गया।[8]सतत पद्धति विकास के कारण कोडेक के नये संस्करण आये, पर WMV 9 तक बिट स्ट्रीम सिन्टेक्स स्थिर नहीं था।[9]जबकि WMV के सभी संस्करण विभिन्न बिट दर, औसत बिट दर और निरंतर बिट दर का समर्थन करते हैं, WMV 9 कई महत्वपूर्ण सुविधाओं के साथ शुरू किया गया, जिनमें इंटरलैस्ड वीडियो के लिए नेटिव सपोर्ट, नन-स्क्वायर पिक्सलऔर फ्रेम इंटरपोलेशन भी शामिल हैं।[10] WMV 9 ने विंडोज मीडिया वीडियो 9 प्रोफेशनल शीर्षक से एक नया प्रोफ़ाइल भी शुरू किया, जो वीडियो रिजोलूशन के 300.000 पिक्सल (जैसे, 528x576, 640 × 480 या 768x432 और आगे) और बिटरेट 1000 किलोबाइट/ एस से ज्यादा होते ही स्वचालित रूप से सक्रिय हो जाता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]इसका लक्ष्य 720p और 1080p जैसे रिजोलूशन वाली उच्च परिभाषित वीडियो सामग्री की ओर होता है।
WMV 9 में सरलऔर मुख्यप्रोफ़ाइल स्तर VC-1 की विशेषताएं उसी प्रोफाइल स्तर के अनुरूप थी।[11] VC-1 में उन्नत प्रोफ़ाइलको नये WMV कोडेक में कार्यान्वित किया गया, जिसे विंडोज मीडिया वीडियो 9 एडवांस्ड प्रोफाइल कहा गया।यह संबंधित सामग्री के लिए संपीड़न दक्षता में सुधार करता है और परिवहन के मामले में स्वतंत्र हो जाता है, जिससे यह MPEG ट्रांसपोट स्ट्रीम या RTP पैकेट प्रारूप में संक्षिप्त करने में सक्षम होता है। तथापि कोडेक पिछले WMV 9 कोडेक्स के साथ संगत नहीं है।[12]
WMV पोर्टेबल मीडिया सेंटर उपकरणों के साथ्र-साथ प्लेज फॉर सियोर सर्टिफायड ऑन लाइन स्टोरों और उपकरणों के लिए एक अनिवार्य वीडियो कोडेक है। माइक्रोसॉफ्ट जून,Xbox 360, विंडो मीडिया प्लेयर के साथ विंडो मोबाइलशक्तिकृत और साथ में कई अप्रमाणित उपकरण कोडेक का समर्थन करते हैं।[13] WMV HD अपने प्रमाणन कार्यक्रम के लिए माइक्रोसॉफ्ट द्वारा निर्धारित गुणवत्ता स्तर पर WMV 9 के उपयोग की अनुमति देता है।[14] WMV माइक्रोसॉफ्ट सिल्वरलाइट प्लेटफार्म के लिए एकमात्र समर्थित वीडियो कोडेक है, लेकिन एच 264 कोडेक अब तीसरे संस्करण के साथ समर्थित है।[15]

विंडोज मीडिया वीडियो स्क्रीन

विंडोज मीडिया वीडियो स्क्रीन (WMV स्क्रीन) एक स्क्रीनकास्ट कोडेक है। यह जीवंत स्क्रीन सामग्री पर कब्जा कर सकते हैं या तीसरे पक्ष के WMV 9 स्क्रीन फाइलों में स्क्रीन पर कब्जा प्रोग्राम से वीडियो को परिवर्तित कर सकते हैं। यह सबसे अच्छा काम तब करता है, जब स्रोत सामग्री मुख्य रूप से स्थिर हो और उसमें छोटे रंग पैलेट शामिल हों[16]स्रोत सामग्री की जटिलता पर निर्भर रहते हुए कोडेक संपीड़न दक्षता बढ़ाने के लिए लॉसी और लॉसलेस एन्कोडिंग के बीच आ-जा सकता है।[16]
कोडेक का एक उपयोग कंप्यूटर पर कदम-दर-कदम वीडियो का प्रदर्शन करना है। कोडेक का पहला संस्करण था WMV 7 स्क्रीन और दूसरा व वर्तमान संस्करण WMV 9 स्क्रीन सीबीआर के अलावा VBR में एन्कोडिंग का समर्थन करता है।[16]

विंडोज मीडिया वीडियो छवि

विंडोज मीडिया वीडियो छवि (WMV छवि) एक वीडियो स्लाइड शो कोडेक है। कोडेक प्लेबैक के दौरान कई चित्रों की श्रृंखला में समय लागू करने पैनिंग और संक्रमण प्रभाव के जरिये काम करता है।[17]कोडेक स्थिर चित्रों के लिए WMV 9 की तुलना में उच्च संपीड़न अनुपात और छवि गुणवत्ता हासिल करता है, क्यों‍कि WMV छवियों के साथ इनकोड की गईं फाइलें फुल मोशन वीडियो के बदले स्थैतिक (स्थिर) छवियों का भंडारण करती हैं।
चूंकि कोडेक वास्तविक समय में वीडियो फ्रेमों को तैयार करने के लिए डिकोडर (प्लेयर) पर निर्भर करता है, WMV चित्र फाइलों को यहां तक कि हल्के रिजोलूशंस (उदाहरण के लिए 1024 × 768 रिजोलूशन पर प्रति सेकेंड 30 फ्रेम) पर चलाने के लिए भारी कंप्यूटर प्रसंस्करण की जरूरत पड़ती है। कोडेक का नवीनतम संस्करण WMV 9 है, जिसका उपयोग फोटो स्टोरी 3 में होता है और जिसमें अतिरिक्त परिवर्तन प्रभाव विशेषताएं हैं, लेकिन यह मूल WMV 9 छवि कोडेक के लिए संगत नहीं है।[17]
WMV छवि के लिए हार्डवेयर समर्थन पोर्टेबल मीडिया सेंटर्स, विंडोज मीडिया प्लेयर 10 मोबाइल के साथ विंडोज मोबाइलशक्तिकृत उपकरणों के जरिये उपलब्ध है।[13]

वीडियो की गुणवत्ता

माइक्रोसॉफ्ट का दावा है कि WMV 9 एक ऐसा संपीड़न अनुपात प्रदान करता है जो MPEG 4 से दोगुना और एमपीईजी-2 की तुलना में तीन गुना बेहतर है,[18]माइक्रोसॉफ्ट का यह भी दावा है कि WMV 9 संपीड़न दक्षता के मामले में WMV 8 से 15 से 50 प्रतिशत बेहतर है।[18]हालांकि, जनवरी 2005 में प्रकाशित एक परीक्षण रिपोर्ट से पता चला कि WMV 9 की संपीड़न दक्षता से WMV 8 से बदतर थी।[19]कई थर्ड पार्टी WMV अनुवर्तकों का प्रदर्शन विंडोज मूवी मेकर की तुलना में खराब रहा है।

खिलाड़ी

जो सॉफ्टवेयर WMV फाइलों को चला सकते हैं, उनमें विंडोज मीडिया प्लेयर, रीयल प्लेयर, एम प्लेयर, केएम प्लेयर, मीडिया प्लेयर क्लासिक और VLC मीडिया प्लेयर शामिल हैं। माइक्रोसॉफ्ट जून मीडिया प्रबंधन सॉफ्टवेयर WMV कोडेक का समर्थन करता है, लेकिन विंडोज मीडिया DRM के जून विशिष्टता वाले संस्करण का उपयोग करता है, जिसका उपयोग प्लेजफॉर सियोर (PlaysForSure) द्वारा किया जाता है। कई थर्ड पार्टी प्लेयर्स लिनक्सजैसे विभिन्न प्लेटफार्म पर मौजूद रहते हैं, जो WMV कोडेक के FFmpeg कार्यान्वयन का प्रयोग करते हैं।
2003 में माइक्रोसॉफ्ट ने मैसिनतोसप्लेटफार्म पर मैक OSX के लिए विंडोज मीडिया प्लेयर का पॉवर पीसी संस्करण जारी किया,[20]लेकिन सॉफ्टवेयर का और आगे विकास रुक गया। माइक्रोसॉफ्ट वर्तमान में थर्ड पार्टी Flip4MacWMV का समर्थन करता है, जो एक क्विकटाइम घटक है, मैसिनटोस (Macintosh) उपयोगकर्ताओं को वैसे किसी भी प्लेयर पर WMV फ़ाइलें चलाने की क्षमता हासिल होती है, जो क्विकटाइम फ्रेमवर्क का उपयोग करते है।[21] WMV इंस्टालर को डिफ़ॉल्ट के रूप में माइक्रोसॉफ्ट सिल्वरलाइट के साथ जोड़ दिया गया है और सिल्वरलाइट के बिना इंस्टालर एक"कस्टम"इंस्टाल के साथ पूरा किया जा सकता है। Flip4Mac वेबसाइट के अनुसार WMV फ़ाइलें DRM एन्क्रिप्शन के साथ घटक के साथ संगत नहीं हैं।

डिकोडर्स/ ट्रांसकोडर्स

लिनक्सके उपयोगकर्ता एम प्लेयर्स, एम इनकोडर्स, जैसे FFmpeg सॉफ्टवेयर पर निर्भर रह सकते हैं।
मैकया विंडोज उपयोगकर्ताओं के लिए, जो गैर DRM WMV को एमपी 4 में परिवर्तित करना चाहते हैं, हैंडब्रेक एक मुफ्त सॉफ्टवेयर है, जो यह काम कर देगा.

इनकोडर्स

सॉफ्टवेयर, जो वीडियों को WMV प्रारूप में भेजता है, उनमें शामिल हैंहै AVID (पीसी संस्करण), विंडोज मूवी मेकर, विंडोज मीडिया इनकोडर, माइक्रोसॉफ्ट एक्सप्रेशन एनकोडर, सोरनसान स्कवीज[22]सोनी वेगास प्रो,[23]एडोब प्रीमियर प्रो, एडोब आफ्टर इफेक्ट्स, टेलीस्ट्रीम्स एपीसोड टोटल वीडियो कनवर्टर और टेलीस्ट्रीम्स फ्लिप फैक्ट्री.[22][24]
प्रोग्राम, जो WMV इमेज कोडेक का उपयोग कर इनकोड (सांकेतिक शब्दों में बदलना) करते हैं, उनमें विंडोज मीडिया इEncoder और फोटो शामिल हैं।

डिजिटल अधिकार प्रबंधन

हालांकि कोई भी WMV कोडेक स्वयं में किसी 0}डिजिटल अधिकार प्रबंधन सुविधाओं से युक्त नहीं होता है, पर ASF कंटेनर प्रारूप, जिसमें एक WMV स्ट्रीम संक्षिप्त कर डाला हुआ हो सकता है, ऐसा करने में सक्षम है। विंडोज मीडिया DRM, जिनका उपयोग WMV के संयोजन में इस्तेमाल किया जा सकता है, समयबद्ध सदस्यता वीडियो सेवाओं, जैसे सिनेमानाउ की पेशकश वाली सेवाएं, का समर्थन करता है।[25]प्लेफॉर सियोर (PlaysForSure) और विंडोज मीडिया कनेक्ट का सहायक विंडोज मीडिया DRM को कई आधुनिक पोर्टेबल वीडियो उपकरणों और Xbox 360 जैसे स्ट्रीमिंग मीडिया ग्राहकों द्वारा समर्थित है।

समालोचना

WMV से उपयोगकर्ताओं और प्रेस की ओर से ढेर सारी शिकायतें रही हैं। उपयोगकर्ता डिजिटल अधिकार प्रबंधन प्रणाली को नापसंद करते हैं, जो कभी-कभी WMV फ़ाइलों से जुड़ा हुआ है।[26]विंडोज मीडिया प्लेयर 11 WMV फाइलों के लिए लाइसेंस बहाल करने की क्षमता के नुकसान को सकारात्मक रूप से नहीं लिया गया।[26]इसके अतिरिक्त, माइक्रोसॉफ्ट जून मानक विंडोज मीडिया DRM प्रणाली का समर्थन नहीं करता है, जिससे संरक्षित WMV फ़ाइलें चलाने के लिए अयोग्य हो जाती हैं।[27]

संस्करण

सार्वजनिक नामFourCCविवरण
माइक्रोसॉफ्ट MPEG-4 संस्करण 1Mpg4विंडोज के लिए वीडियो पर आधारित कोडेक गैर-मानक MPEG-4 कोडेक, जो बाद में एमपीईजी-4}भाग 2 के मानकीकृत संस्करण के साथ असंगत है।
माइक्रोसॉफ्ट MPEG-4 संस्करण 2MP42VFW आधारित कोडेक. अंतिम रूप दिये गये MPEG-4 भाग 2 मानक के गैर-अनुरूप.
माइक्रोसॉफ्ट MPEG-4 संस्करण 3MP43VFW आधारित कोडेक. अंतिम रूप दिये गये MPEG-4 भाग 2 मानक के गैर-अनुरूप. अंततः केवल ASF फ़ाइलों के साथ इनकोडिंग के लिए लॉक हुए (बिल्ड 3688 और पहले AVI के लिए इनकोड होने में सक्षम.[28]
माइक्रोसॉफ्ट आईएसओ MPEG-4 संस्करण 1MP4sडायरेक्ट एक्स मीडिया आब्जेक्ट्स (DMO) आधारित कोडेक. एमपीईजी 4 सिंपल प्रोफाइल कंप्लाएंट
माइक्रोसॉफ्ट आईएसओ MPEG-4 संस्करण 1.1M4S2MPEG-4 एडवांस्ड सिंपल प्रोफाइल कंप्लाएंट[29]
विंडोज मीडिया डाउनलोड्स 7 वीडियोWMV1DMO आधारित कोडेक.
विंडोज मीडिया डाउनलोड्स 7 स्क्रीनMSS1DMO आधारित कोडेक. कम बिटरेट अनुक्रमिक स्क्रीन कैप्चर्स या स्क्रीनकास्ट के लिए अनुकूलित. विंडोज मीडिया 9 स्क्रीन कोडेक के पक्ष में पदावनत.
विंडोज मीडिया 8 वीडियोWMV2DMO आधारित कोडेक.
विंडोज मीडिया वीडियो 9WMV3DMO आधारित कोडेक. विंडोज (VFW/VCM) संस्करण के लिए वीडियो भी उपलब्ध है। [2]
विंडोज मीडिया वीडियो 9 स्क्रीनMSS2DMO आधारित कोडेक. कम बिटरेट अनुक्रमिक स्क्रीन कैप्चर्स या स्क्रीनकास्ट के लिए अनुकूलित.
विंडोज मीडिया वीडियो 9.1 छविWMVPDMO आधारित कोडेक. अनुक्रमिक बिटमैप छवियों से एन्कोडिंग वीडियो के लिए अनुकूलित. उदाहरण के लिए, फोटो स्टोरी द्वारा प्रयुक्त.
विंडोज मीडिया वीडियो 9.1 V2 छविWVP2DMO आधारित कोडेक. अनुक्रमिक बिटमैप छवियों से एन्कोडिंग वीडियो के लिए अनुकूलित. उदाहरण के लिए, फोटो स्टोरी द्वारा प्रयुक्त.
विंडोज मीडिया वीडियो 9 उन्नत प्रोफ़ाइलWMVADMO आधारित कोडेक. गैर- वीसी 1-कंप्लायंट के रूप में पदावनत.
विंडोज मीडिया वीडियो 9 उन्नत प्रोफ़ाइलWVC1DMO आधारित कोडेक. वीसी- 1 संगत प्रारूप.

इन्हें भी देखें

  • कोडेक - कंप्रेसर और डिकंप्रेसर के लिए तकनीकी शब्द
  • वीसी-1 - SMPTE कोडेक मानक WMV 9 पर आधारित है जो अतिरिक्त प्रसारण उद्योग की आवश्यकताओं का समर्थन करता है।
  • WMV HD- WMV 9 कोडेक्स के उपयोग से इनकोड किये गये उच्च परिभाषा वीडियो का विपणन नाम.
  • विंडोज मीडिया DRM - विंडोज मीडिया का एक डिजिटल राइट्स प्रबंधन घटक, जो इसका नियंत्रण करता है कि कैसे सामग्री का इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • विंडोज मीडिया ऑडियो- माइक्रोसॉफ्ट द्वारा विकसित एक ऑडियो फ़ाइल प्रारूप और कोडेक
  • जेपीईजी XR / HD फोटो - माइक्रोसॉफ्ट द्वारा विकसित एक छवि फ़ाइल प्रारूप और कोडेक
  • विंडोज मूवी - एक वीडियो संपादन उपकरण, जिसमें माइक्रोसॉफ्ट विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम शामिल है।
  • एम प्लेयर - एक थर्ड पार्टी, खुले स्रोतवाला, क्रॉस प्लेटफार्म मीडिया प्लेयर, जो FFmpeg का उपयोग करके कई WMV फाइलों को चलाने में सक्षम है।
  • FFmpeg - एक थर्ड पार्टी क्रॉस प्लेटफार्म मुफ्त सॉफ्टवेयर कोडेक लाइब्रेरी, जो आंशिक रूप से अन्य प्रारूपों के अलावा WMV डिकोडिंग और VC-1 डिकोडिंग को लागू करता है।
  • WMV प्लेयर - एक थर्ड पार्टी, वाणिज्यिक कोडेक, जो मैक ओएस एक्स के लिए क्विक टाइम में WMV फ़ाइलें देखने की अनुमति देता है।
  • Flip4Mac - क्विकटाइम में विंडोज मीडिया फाइलों को इनकोड करने और चलाने का क्विकटाइम उपकरण.
  • लॉसी डेटा संपीड़न - सूचना के नुकसान के साथ डेटा संपीड़न
  • लॉसलेस डेटा संपीड़न - सूचना की हानि के बिना डेटा संपीड़न.
  • वीडियो कोडेक्स की तुलना

संदर्भ

  1. एसएमपीटीई (SMPTE) वीसी-1 रिसीविंग इंडस्ट्रीवाइड सपोर्ट
  2. माइक्रोसॉफ्ट वीसी-1 कोडेक नाउ अ स्टैण्डर्ड
  3. ब्लू-रे डिस्क बीडी-रोम (BD-ROM) स्पेसिफीकेशन एड्स माइक्रोसॉफ्ट वीसी-1 एडवांस्ड वीडियो कोडेक
  4. माइक्रोसॉफ्ट प्रौद्योगिकी मुख्यधारा में एचडी (HD) डीवीडी (DVD) लाता है
  5. एमएसडीएन (MSDN): एएसऍफ़ और डब्ल्यूएमवी/डब्ल्यूएमए (WMV/WMA) फ़ाइलों के बीच अंतर
  6. माइक्रोसॉफ्ट निगम (07-07-2003) विंडोज मीडिया वीडियो 9 वीसीएम (VCM), 07-08-2009 को पुनःप्राप्त
  7. विंडोज मीडिया वीडियो 9 श्रृंखला कोडेक्स : विंडोज मीडिया वीडियो 9 वीसीएम (VCM)
  8. एमपीईजी (MPEG) मेक्स द सीन
  9. विंडोज मीडिया ऑडियो और वीडियो 9 सिरीज़
  10. माइक्रोसॉफ्ट विंडोज मीडिया - डेमोस वीडियोज क्वैलिटी
  11. यूजिंग द एडवांस्ड सेटिंग्स ऑफ़ द विंडोज़ मिडिया वीडियो 9 एडवांस्ड प्रोफाइल कोडेक
  12. streamingmedia.com विंडोज मीडिया इनकोडिंग के लिए उत्तम आचरण
  13. विंडोज मीडिया प्लेयर मोबाइल ऍफ़एक्यू (FAQ)
  14. डब्ल्यूएमवी (WMV) एचडी (HD) डीवीडी (DVD) इनकोडिंग प्रोफ़ाइल गाइडलाइन
  15. माइक्रोसॉफ्ट सिल्वरलाइट डेवलपर सर्वर ऑडियो वीडियो स्ट्रीमिंग ऍफ़एक्यू (FAQ)
  16. विंडोज मीडिया वीडियो 9 सिरीज़ कोडेक्स: विंडोज मीडिया वीडियो 9 स्क्रीन
  17. विंडोज मीडिया वीडियो 9 सिरीज़ कोडेक्स: विंडोज मीडिया वीडियो 9 इमेज 2 संस्करण
  18. विंडोज मीडिया वीडियो 9 सिरीज़ कोडेक्स: एडवांस्ड प्रोफ़ाइल
  19. इंटरनेट वीडियो कोडेक्स की व्यक्तिपरक गुणवत्ता - चरण 2 मूल्यांकन एसएएमवीआईक्यू (SAMVIQ) का उपयोग
  20. मैक (MAC) ओएस (OS) एक्स (X) के लिए विंडोज मीडिया प्लेयर 9
  21. मैक (MAC) उपयोगकर्ताओं के लिए विंडोज मीडिया प्लेयर के लिए महत्वपूर्ण जानकारी
  22. सोरेंसन मीडिया
  23. सोनी क्रिएटिव सॉफ्टवेयर - वेगास प्रो 8 - तकनीकी निर्दिष्टीकरण
  24. [1]
  25. प्लेसफॉरशुर: सिनिमानाउ
  26. माइक्रोसॉफ्ट मीडिया प्लेयर अपने अधिकार को टुकड़े टुकड़े कर दिया
  27. एमएस (MS) डीआरएम (DRM) संक्रमित फ़ाइलें ज़ून नहीं खेलेगा
  28. वर्चुअलडब वर्चुअलडब प्रलेखन: कोडेक्स, 28-11-2009 को पुनःप्राप्त
  29. एमपीइजी4 (MPEG4) भाग 2 वीडियो डिकोडर एमएसडीएन (MSDN) प्रलेखन: प्रोफ़ाइल और स्तर, 28-11-2009 को पुनःप्राप्त

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मीडिया शिक्षण का व्यापार और शून्य बाजार

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लेखक--   

media-educationजून के पहले हफ्ते में मुंबई के अंग्रेजी टेबलॉयड अखबार मिड डे में मुंबई प्रेस क्लब की तरफ से दिया गया एक विज्ञापन छपा था। उसमें लिखा था ”मुंबई प्रेस क्लब ऑफर्स थ्री मंथ्स कोर्स इन पब्लिक रिलेशंस एंड मीडिया मैनेजमेंट” (मुंबई प्रेस क्लब जन संपर्क और मीडिया प्रबंधन में तीन महीने के पाठ्यक्रम के लिए आवेदन आमंत्रित करता है)। नीचे विद्यार्थियों को लुभाने के लिए सीमित सीट होने और जल्द प्रवेश लेने की बात भी कही गई थी। प्रवेश की अंतिम तारीख तेईस जून थी।
पत्रकारों के क्लब की तरफ से जन संपर्क और मीडिया प्रबंधन का कोर्स चलाना एक हैरत में डालने वाली और असामान्य बात है। क्लब को अगर इस तरह का कोई पाठ्यक्रम शुरू करना ही था तो वह पत्रकारों के लिए कोई प्रशिक्षण कार्यक्रम या फिर भावी पत्रकारों के लिए पत्रकारिता का परिचयात्मक कैंप जैसा कुछ कर सकता था। क्लब को आखिर क्या जरूरत पड़ी कि वह पत्रकारों की संस्था की तरफ से जन संपर्क और मीडिया प्रबंधन का पाठ्यक्रम चलाए? इस मामले की पड़ताल करते हुए जब मुंबई प्रेस क्लब की वेबसाइटको देखा गया तो वहां ‘प्रेस क्लब ऑफर्स यू पीआर सर्विसेस’ (प्रेस क्लब आपका पीआर करने के लिए तैयार है) नाम का एक और नया विज्ञापन देखने को मिला।
हाल के वर्षों में जिस तरह से पत्रकारिता, जन संपर्क और प्रबंधन के बीच की रेखा धुंधली हुई है ये विज्ञापन बड़ी बेशर्मी से इस हकीकत को बयान करते हैं। वैसे ही भारतीय पत्रकारिता को अब समाज विरोधी तत्त्वों और बड़े-बड़े कॉरपोरेट के जन संपर्क अधिकारी चला रहे हैं। वे हर तरह से पत्रकारों को खरीद कर अपना एजेंडा लागू करने की कला जानते हैं। नीरा राडिया और कॉरपोरेट पत्रकारों से उनकी दोस्ती के किस्से अभी बहुत पुराने नहीं हुए हैं। द हिंदू के पत्रकार हरीश खरे और एनडीटीवी के पत्रकार पंकज पचौरी का प्रधानमंत्री का प्रेस सलाहकार (पीआरओ) बन जाना इसी हकीकत के दूसरे पहलू हैं। पर यह परंपरा नई भी नहीं है। संभवत: इसकी शुरुआत कुलदीप नैयर से हुई थी।
वैसे भी भारतीय पत्रकारों में खुद को बाकी जनता से कुछ अतिरिक्त रूप से विशिष्ट समझने की बीमारी सदा से रही है। इस पेशे के नाम पर वे वक्त-वक्त पर सरकारों से अपने लिए तरह-तरह की सुविधाएं मांगने से नहीं चूकते हैं। पिछले दिनों जब प्रतिदिन अठाईस रुपए से ज्यादा कमाने वालों को गरीब न मानने वाले योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया द्वारा तीस लाख रुपए अपने ऑफिस के टायलेट के पुनरुद्धार करने में खर्च कर डालने की खबर आम हुई तभी आठ जून को मुंबई से एक खबर आई। यह खबर भारतीय पत्रकारों की भ्रष्ट मानसिकता का विकट नमूना है। सन 1998 में महाराष्ट्र में शिव सेना के मुख्यमंत्री मनोहर जोशी ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया को मुख्यमंत्री राहत कोष से डेढ़ लाख रुपए टॉयलेट के पुनरुद्धार के लिए दिए थे।इस बात का पर्दाफाश एक आरटीआई के जरिए हुआ। आपदा से घिरी जनता के राहत का पैसा हड़पने का यह किस्सा राजनेताओं (यहां एक मुख्यमंत्री) और पत्रकारों के नैतिक आचरण को लेकरकोई बड़ी बहस खड़ी नहीं कर पाया। करता कौन? वही जो स्वयं इस के नायक हों? यह इस बात का संकेत है कि भ्रष्टाचार किस तरह धीरे-धीरे सामाजिक स्वीकृति पाता जा रहा है।
इसी तरह की एक और शर्मनाक घटना का सबूत भारतीय संसद से कुछ ही फर्लांग की दूरी पर रायसीना रोड पर बने दिल्ली के प्रसिद्ध प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का है। प्रेस क्लब किस तरह के लोगों का अड्डा बन चुका है यह उसका उदाहरण है। आज पत्रकार कॉरपोरेट और सरकारी संस्थाओं से अपने संपर्कों को ही महान उपलब्धि मानते हैं। दिल्ली प्रेस क्लब का हॉल इधर लाखों रुपए की लागत से पुनर्निमाण के बाद चमकने लगा है। एयरकंडीशन उसे हमेशा सुकूनदायक बनाए रखते हैं। इसके लिए भारतीय वायुसेना ने दरियादिली दिखाते हुए सारे पैसे खर्च किए हैं। लेकिन बदले में क्लब के लॉन में उसने सैन्यीकरण और युद्ध का प्रतीक ब्रह्मोस प्रक्षेपास्त्र का नमूना गाड़ दिया। हर शाम वो बिजली की रोशनी में जगमगाता रहता है। लॉन में बैठने वाले पत्रकार जब कभी अपने देसी-विदेशी दोस्तों के साथ दुनियाभर में शांति के बारे में बात कर रहे होते हैं तो सैन्यीकरण का प्रतीक ब्रह्मोस उनको मुंह चिढ़ा रहा होता है।
पिछले दिनों कुछ पत्रकारों ने ब्रह्मोस के उस नमूने को उठाकर क्लब की सीमा से बाहर फेंक दिया। प्रेस क्लब के नेताओं और रक्षा पत्रकारों में इस पर हंगामा मच गया। ब्रह्मोस को उखाडऩे वाले पत्रकारों के खिलाफ केस दर्ज करने की बात हुई। करीब पंद्रह ऐसे जनपक्षीय और वामपंथी पत्रकारों की एक लिस्ट भी बनाई गई जो कई बार ब्रह्मोस की खुली मुखालफत कर चुके थे। ब्रह्मोस के उखडऩे से दुखी सत्ता-समर्थक पत्रकार इसे राष्ट्रद्रोह का मामला करार दे रहे थे लेकिन उन्हें इस बात पर कोई शर्म नहीं थी कि पत्रकारिता जैसे पेशे में यह खैरात उन्हें क्यों दी गई और उन्होंने क्यों ली? प्रेस क्लब द्वारा सरकार या कारपोरेट हाउसों से किसी भी तरह की मदद लेना अनैतिक तो है ही खुलेआम भ्रष्टाचार का मामला भी है। यह क्लब किसी भी रूप में कोई सामाजिक भूमिका नहीं निभाता सिवा पत्रकारों को सस्ती दारू उपलब्ध करवाने के। बहरहाल फिर से प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के आंगन में ब्रह्मोस को सजा-संवार कर लगा दिया गया है।
प्रशिक्षण की कॉरपोरेट दुकान
पर बात की शुरुआत पब्लिक रिलेशंस एंड मीडिया मैनेजमेंट की दुकान को लेकर हुई थी। देश में निजीकरण की हवा के तेज होने के साथ ही कुकुरमुत्तों की तरह छोटे-बड़े शहरों में मीडिया शिक्षण की कई संस्थाएं खुल गई हैं। इन संस्थाओं का हाल भी तीस दिन में अंग्रेजी सिखाने के दावे करने वालों की तरह ही तुरंत पत्रकार बनाने का रहता है। बढ़ती बेरोजगारी और मीडिया के ग्लैमर से आकर्षित वे बच्चे जो और किसी क्षेत्र में नहीं जा सकते इस धंधे में अपना भाग्य आजमाने की कोशिश करते हैं। दूसरी ओर पत्रकारिता और मीडिया प्रशिक्षण का न तो कोई मानकीकरण है और न ही कोई ऐसा केंद्रीय संगठन जो इसे नियंत्रित करता हो। नतीजा यह है कि इस अनियंत्रित और अनियमित क्षेत्र का लाभ उठाने के लिए दर्जनों संस्थाएं सामने आ गई हैं। इस दौड़ में सब से आगे बड़े-बड़े कॉरपोरेट मीडिया घराने नजर आ रहे हैं। उन्होंने खुद अपने मीडिया स्कूल खोल दिए हैं। इनमें लाखों रुपए की फीस वसूल कर छात्रों को ट्रेनिंग दी जाती है। खुद का मीडिया होने की वजह से ऐसे संस्थान छात्रों को अपनी तरफ लुभाने में काफी कामयाब रहते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया, पायनियर, इंडियन एक्सप्रेस, एनडीटीवी, आजतक, दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर जैसे संस्थानों इस धंधे में बड़े पैमाने पर शामिल हो चुके हैं।
मीडिया शिक्षण के क्षेत्र में धंधेबाजी करने की शुरुआत द टाइम्स ऑफ इंडिया की मालिक बैनेटकोलमैन कंपनी ने की थी। उन्नीस सौ पचासी में जब राजीव गांधी उदारीकरण की दिशा में आगे बढ़ रहे थे तब इस विशाल मीडिया घराने ने भविष्य की थाह लेते हुए सबसे पहले दिल्ली में टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की शुरुआत की। आज यह संस्था टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया एंड मैनेजमेंट स्टडीज के नाम से जाना जाता है। अब इस संस्थान में टाइम्स स्कूल ऑफ जर्नलिज्म नाम से नई शाखा की शुरुआत की गई है। यहां से एक साल का कोर्स करने की फीस दो लाख पैंतीस हजार रुपए वसूली जाती है। इस रकम पर अलग से सर्विस टैक्स भी देना होता है। फॉर्म भरने की फीस अलग है। साथ ही पंद्रह हजार कॉशन मनी भी जमा करना पड़ता है। पर यह समूह कभी प्रतिभाशाली युवाओं को पत्रकार बनाने के लिए चुनता था और उन्हें प्रशिक्षित कर अपने संस्थान में नौकरी दिया करता था। हिंदी और अंग्रेजी के ऐसे कई पत्रकार हैं जो टाइम्स आफ इंडिया समूह की इसी प्रशिक्षण योजना के तहत पत्रकारिता में आए थे। इन में आज के प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्रकार एमजे अकबर और स्व. एसपी सिंह भी थे। तब इन प्रशिक्षु पत्रकारों को सम्मानजनक स्टाइपेंड के साथ नौकरी भी दी जाती थी।
इसी तरह इंडियन एक्सप्रेस समूह का एक्सप्रेस इंस्टीट्यूट ऑफ मीडिया स्टडीज भी एक साल का प्रोग्राम इन जर्नलिज्म कराता है। इसके लिए वह एक लाख 95 हजार रुपए फीस वसूलता है। पांच हजार सिक्युरिटी डिपॉजिट है और फॉर्म फीस अलग से। इस समूह ने देश के कई हिस्सों में सरकार से पत्रकारिता के नाम पर सस्ती दरों में जमीन हथिया रखी है। दिल्ली-मुंबई-चंडीगढ़ जैसे शहरों में इसके पास अरबों रुपए के गगनचुंबी भवन हैं। जिसे इसने किराये पर उठाया हुआ है। अखबार के उसी भवन से अब यह शिक्षा का व्यापार भी चलाने लगा है। पत्रकारिता के नाम पर लिए गए इन भवनों से आज और भी कई तरह के धंधे चल रहे हैं जिनका पत्रकारिता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। भाजपा नेता चंदन मित्रा के स्वामित्व वाला पायनियर भी सन 2003 से पायनियर मीडिया स्कूल चला रहा है। यहां एक साल के पाठ्यक्रम की फीस अस्सी हजार रुपए है।
तकनीकी विकास और पूंजीवादी आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप देश में टेलीविजन मीडिया पिछले दो दशक से खूब फल-फूल रहा है। एनडीटीवी का उदय और उत्थान इसी दौर की घटना है। पत्रकारिता की साख को गिराने के लिए इसके पत्रकारों और मालिक पर लगातार आरोप लगते रहे हैं। इस समूह के मीडिया संस्थान का नाम है एनडीटीवी ब्रॉडकास्ट ट्रेनिंग प्रोग्राम। दस महीने के कोर्स के लिए यहां एक लाख अस्सी हजार रुपए वसूले जाते हैं। बाकी खर्चे अलग से। यहां के विद्यार्थी बरखा दत्त जैसी राडिया प्रिय व्यक्ति से पत्रकारिता की कला और नैतिकता सीखते हैं।
iimcहाल ही में अपने एक बड़े हिस्से को बिड़ला को बेच देने वाले इंडिया टुडे समूह ने भी टीवी टुडे मीडिया इंस्टीट्यूट शुरू किया है। यहां एक लाख बीस हजार फीस ली जाती है। विद्यार्थियों को लुभाने के लिए यह समूह आजतक और हेडलाइंस टुडे जैसे अपने ब्रैंड का इस्तेमाल करता है। देश में सर्वाधिक प्रसार वाला हिंदी अखबार, दैनिक जागरण भी दो हजार चार से नोएडा में जागरण इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड मास कम्युनिकेशन चला रहा है। यहां तीन साल की बैचलर डिग्री के लिए करीब पांच लाख रुपए और पीजी कोर्स के लिए भी लाखों रुपए वसूले जाते हैं।
अखबार और टेलीविजन चैनलों को क्यों अपने शिक्षण संस्थान शुरू करने दिया जा रहा है यह अहम सवाल है। प्रश्न है क्या हर उद्योग इस तरह से अपने यहां काम आनेवाले कर्मियों के लिए प्रशिक्षण के संस्थान चला सकता है? जैसे कि सीमेंट उद्योग सीमेंट इंजीनियर, इस्पात उद्योग मैटलर्जी के इंजीनियर, बिल्डर सिविल इंजीनियर, आईटी उद्योग सॉफ्टवेयर इंजीनियर वगैरह-वगैरह। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो फिर मीडिया के प्रशिक्षण की इजाजत इन अखबारी संस्थानों को किसने दी है? अगर नहीं दी है तो आखिर इसके लिए कोई नियम क्यों नहीं बनाया जा रहा है? पत्रकारिता के प्रशिक्षण के स्कूलों के क्या मानदंड हों, वे निर्धारित तो होने चाहिए? कौन तय करेगा कि जो शिक्षा दी जा रही है उसका स्तर क्या है और क्या होना चाहिए? आज स्थिति यह है कि देश का अपना कोई ऐसा बोर्ड नहीं है जो पत्रकारिता के प्रशिक्षण का मानकीकरण करता हो या उसके पाठ्यक्रम को निर्धारित करता हो। इसी का नतीजा यह है कि इस तरह के स्कूल फल-फूल रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या दुनिया में और भी कोई ऐसा देश है – अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस या और कोई विकसित योरोपी देश जहां समाचार पत्र या मीडिया संस्थान पत्रकारिता की पाठशालाएं चलाते हों?
हमारे देश में फिलहाल हालत यह है कि अनगिनत कालेजों और विश्वविद्यालयों नें मीडिया और पत्रकारिता के विभाग खोल दिए हैं। इनके पास न तो जरूरी उपकरण हैं और न ही स्टॉफ उस पर भी ये विभाग चल रहे हैं। यहां प्रादेशिक भाषा और साहित्य के प्राध्यापक पत्रकारिता पढ़ा रहे हैं। मूलत: ये विभाग पैसा कमाने के लिए चलाए जा रहे हैं। इनमें बड़ी-बड़ी फीस लेकर छात्रों को भर्ती किया जाता है। ये विभाग भी बेरोजगारों का ही शोषण कर रहे हैं।
देश में मीडिया से संबंधित अध्ययनों की हालत क्यों खराब है इसके बाद, समझना कठिन नहीं है। यहां ज्यादातर पढ़ाई मीडिया उद्योग के लिए कामगार बनाने वाली ही है। उनमें आलोचनात्मक ज्ञान का विकास करने वाला मीडिया अध्ययन नहीं के बराबर हैं। भारतीय जन संचार संस्थान जैसे सरकारी पैसे से चलने वाले संस्थानों में भी मीडिया उद्योग की जरूरतों को ही ज्यादा ध्यान में रखा गया है। वहां भी शोधपरक और आलोचनात्मक शिक्षा पद्धति की कमी है। पिछले कई वर्षों से भारतीय जन संचार संस्थान और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में गंभीर मीडिया अध्ययनों को शुरू करने की सुगबुगाहट चल रही है लेकिन अब तक वहां भी सन्नाटा ही है। अगर इस तरह के गंभीर अध्ययन देश में शुरू होते हैं तो वे बेकाबू कॉरपोरेट मीडिया की एक सटीक आलोचना विकसित कर सकते हैं और विकल्प के कुछ रास्ते भी सुझा सकते हैं।
पत्रकार की मौत पर सवाल?
tarun-sehrawatपंद्रह जून की सुबह तहलका के युवा फोटोग्राफर तरुण सहरावत ने गुडग़ांव के अस्पताल में आखिरी सांस ली तो देशभर की पत्रकार बिरादरी में शोक की लहर फैल गई। लेकिन तरुण की मौत जो सवाल छोड़ गई है उस पर नजर डालना जरूरी है। बाईस वर्षीय तरुण मई के महीने में अपनी सहकर्मी तुषा मित्तल के साथ छत्तीसगढ़ में माओवाद के गढ़ माने-जाने वाले अबूझमाड़ के जंगलों में गया था। वहां से लौटने के बाद वह सेरेब्रल मलेरिया की चपेट में आ गया, वह जानलेवा साबित हुआ। माओवादी इलाके में पत्रकारिता करना कई तरह से जोखिम का काम है। भौगोलिक परिस्थितियां तो विकराल हैं ही, माओवादियों और पुलिस के बीच संदिग्ध बन जाने पर, मारे जाने का खतरा भी अलग से है। इसलिए जो भी पत्रकार इन इलाकों में रिपोर्टिंग के लिए जाते हैं वे पूरी तैयारी के साथ जाते हैं। वहां जाने से पहले वे पूरा होमवर्क करके निकलते हैं फिर क्या वजह थी कि तुषा और तरुण बिना तैयारी के लिए उस इलाके में चले गए। माओवादी हलचलों पर नजर रखने वाला कोई भी पत्रकार जानता है कि वह पूरा इलाका मलेरिया के लिहाज से बेहद खतरनाक है। यह बात सही है कि मलेरिया से बचाव पूरी तरह संभव नहीं है लेकिन इससे बचने की कोशिश की जा सकती है। इस घटना से यह भी सवाल उठता है कि क्या तहलका की इस मामले में कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं? अपने पत्रकारों को ऐसे खतरनाक इलाकों में भेजने से पहले क्या उसने उनकी सुरक्षा के लिए जरूरी सभी कदम उठाए थे?


प्रस्तुति-- स्वामी शरण, समिधा, राहुल मानव
 

फिर सामने खडा है 6 दिसंबर के काला सच का काल इतिहास

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BBC
 मंगलवार, 6 दिसंबर, 2011 को 11:03 IST तक के समाचार
इतिहास में छह दिसंबर की तारीख़ कई महत्वपूर्ण घटनाओं के लिए याद की जाती है. इसी दिन एक उन्मादी भीड़ ने अयोध्या की बाबरी मस्जिद ढहा दी थी और स्पेन में 40 साल के तानाशाही शासन को ख़त्म करने के लिए मतदान किया गया था.

1992: अयोध्या की बाबरी मस्जिद तोड़ी गई


बाबरी मस्जिद की रक्षा नहीं कर पाने पर उत्तर प्रदेश की सरकार बर्खास्त कर दी गई थी
छह दिसंबर 1992 को उग्र हिंदुओं की एक भीड़ ने उत्तर प्रदेश के अयोध्या में ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को ढहा दिया था और शहर के कई अन्य मुस्लिम ठिकानों पर हमला कर दिया था.
इस घटना के बाद भारत में भयानक सांप्रदायिक दंगों की शुरुआत हो गई थी.
घटना की शुरुआत पहले मस्जिद के आसपास एक धार्मिक जुलूस से हुई थी जिसका आयोजन दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों ने किया था जिसमें देश की मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी भी शामिल थी.
हिंदू चरमपंथी अयोध्या की बाबरी मस्जिद से मुक्ति पाना चाहते थे जो कि कई दशकों से हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य का कारण बनी हुई थी.
हिंदू बाबरी मस्जिद के स्थान पर एक हिंदू मंदिर बनाना चाहते थे क्योंकि उनका मानना था कि उनके आराध्य भगवान राम का जन्म वहीं हुआ था.
हालांकि अदालत ने पहले ही मस्जिद को सुरक्षा प्रदान करने का आदेश दे दिया था.
तीनों ही पार्टियों के नेताओं ने कोर्ट के फ़ैसले का सम्मान करने का वादा किया था और कहा था कि 6 दिसंबर के धार्मिक समारोह में हिंदू मंदिर के निर्माण की केवल सांकेतिक नींव रखी जाएगी.
लेकिन इस समारोह के शुरू होने से पहले ही दो लाख लोगों की उन्मादी भीड़ पुलिस की घेरेबंदी को तोड़ती हुई मस्जिद परिसर में दाखिल हुई और मस्जिद के तीन गुंबदों को हथौड़ों से मारकर गिरा दिया इसके बाद पूरी इमारत ही ढहा दी गई.
सरकार ने किसी अप्रिय घटना से निपटने के लिए सैकड़ों अतिरिक्त पुलिस बल की तैनाती कर रखी थी लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था कि पुलिस केवल मूकदर्शक बनकर देखती रही.
इस घटना से पूरा देश स्तब्ध रह गया था.
पूरे उत्तर भारत में सुरक्षा बल की तैनाती कर दी गई थी और हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया था.
केंद्र सरकार को डर था कि भारत के 12 करोड़ मुसलमान बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने पर जवाबी कार्रवाई कर सकते हैं.
इसके बाद हुई केंद्रीय कैबिनेट की आपात बैठक में बीजेपी के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार को मस्जिद की सुरक्षा में नाक़ाम रहने पर बर्ख़ास्त कर दिया गया था.

1978: स्पेन में लोकतंत्र के लिए मतदान


जनरल फ़्रैंको के निधन के बाद ही स्पेन में लोकतंत्र की दिशा में क़दम बढ़ाए गए थे
छह दिसंबर 1978 को स्पेन के नागरिकों ने 40 साल के तानाशाही शासन के बाद लोकतंत्र की स्थापना के लिए मतदान किया था.
दरअसल ये जनमतसंग्रह स्पेन के नए संविधान की स्वीकृति के लिए कराया जा रहा था.
नए संविधान में राजशाही के मौजूदा ज़्यादातर अधिकार ख़त्म किए जाने का प्रावधान था.
हालांकि इनमें से कई अधिकार स्पेन के तानाशाह जनरल फ़्रैंको ने पहले ही ख़त्म कर दिए थे जिनकी मृत्यु 1975 में हुई थी.
स्पेन के राजा जुआन कार्लोस और रानी सोफ़िया नए संविधान का समर्थन कर रहे थे और इसके पक्ष में मतदान करनेवालों में वो कुछ पहले लोगों में शामिल थे.

इससे जुड़ी और सामग्रियाँ

बाबरी मस्जिद का बाबरनामा इतिहास

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प्रस्तुति-- अखौरी प्रमोद, स्वामी शरण


बाबरी मस्जिद
बाबरी मस्जिदबाबरी मस्जिद का पश्च दृश्य
निर्देशांक: 26.7956°N 82.1945°Eनिर्देशांक: 26.7956°N 82.1945°E
स्थानअयोध्या, भारत्
स्थापितनिर्माण - 1527
विध्वंस - 1992
वास्तु संबंधित सूचनायें
वास्तु शैलीतुग़लकी
बाबरी मस्जिद (हिन्दी: बाबरी मस्जिद,उर्दू: بابری مسجد, अनुवाद: बाबर की मस्जिद), उत्तर प्रदेशके फैजाबादजिले के अयोध्याशहर में रामकोट पहाड़ी ("राम का किला") पर एक मस्जिदथी। रैली के आयोजकों द्वारा मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाने देने की भारत के सर्वोच्च न्यायालयसे वचनबद्धता के बावजूद, 1992 में 150,000 लोगों की एक राजनीतिक रैली[1]के दंगा में बदल जाने से यह विध्वस्त हो गयी।[2][3]मुंबई और दिल्लीसहित कई प्रमुख भारतीय शहरों में इसके फलस्वरूप हुए दंगों में 2,000 से अधिक लोग मारे गये।[4]
भारतके प्रथम मुगलसम्राट बाबरके आदेश पर 1527 में इस मस्जिद का निर्माण किया गया था।[5][6]पुजारियों से हिन्दू ढांचे या निर्माण को छीनने के बाद मीर बाकी ने इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा. 1940 के दशक से पहले, मस्जिद को मस्जिद-इ-जन्मस्थान (हिन्दी: मस्जिद ए जन्मस्थान,उर्दू: مسجدِ جنمستھان, अनुवाद: "जन्मस्थान की मस्जिद") कहा जाता था, इस तरह इस स्थान को हिन्दू ईश्वर, भगवान राम की जन्मभूमि के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है।[7]पुजारियों से हिन्दू ढांचे को छीनने के बाद मीर बाकी ने इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा.
बाबरी मस्जिद उत्तर प्रदेश, भारतके इस राज्य में 3 करोड़ 10 लाख मुस्लिमरहा करते हैं, की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक थी।[8]हालांकि आसपास के जिलों में और भी अनेक पुरानी मस्जिदें हैं, जिनमे शरीकी राजाओं द्वारा बनायी गयी हज़रत बल मस्जिद भी शामिल है, लेकिन विवादित स्थल के महत्व के कारण बाबरी मस्जिद सबसे बड़ी बन गयी। इसके आकार और प्रसिद्धि के बावजूद, जिले के मुस्लिम समुदाय द्वारा मस्जिद का उपयोग कम ही हुआ करता था और अदालतों में हिंदुओं द्वारा अनेक याचिकाओं के परिणामस्वरूप इस स्थल पर राम के हिन्दू भक्तों का प्रवेश होने लगा. बाबरी मस्जिद के इतिहास और इसके स्थान पर तथा किसी पहले के मंदिर को तोड़कर या उसमें बदलाव लाकर इसे बनाया गया है या नहीं, इस पर चल रही राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-धार्मिक बहस को अयोध्या बहस के नाम से जाना जाता है।

मस्जिद की वास्तुकला


Babri Mosque

मुग़ल साम्राज्य अर्थात दिल्ली की सल्तनत के शासक और उनके उत्तराधिकारी कला और स्थापत्य के बहुत बड़े संरक्षक थे और उन्होंने अनेक उत्कृष्ट मकबरों, मस्जिदों और मदरसाओं का निर्माण किया। इनमें एक विशिष्ट शैली है, जिनपर 'तुगलक उत्तरकालीन'वास्तुकला के प्रभाव हैं। पूरे भारत में मस्जिदें अलग-अलग शैलियों में बनायी गयी थीं; सबसे सुंदर शैलियां उन क्षेत्रों में विकसित हुई जहां देशी पारंपरिक कला बहुत मजबूत थी और स्थानीय कारीगर अत्यंत ही कुशल थे। इसीलिए क्षेत्रीय या प्रांतीय शैलियों की मस्जिदें स्थानीय मंदिरों या घरेलू शैलियां से विकसित हुईं, जो कि वहां की जलवायु, भूभाग, सामग्रियों द्वारा अनुकूलित थे; इसीलिए बंगाल, कश्मीर और गुजरात की मस्जिदों में भारी अंतर है। बाबरी मस्जिद ने जौनपुर की स्थापत्य पद्धति का अनुकरण किया।
एक विशिष्ट शैली की एक महत्वपूर्ण मस्जिद बाबरी मुख्यतया वास्तुकला में संरक्षित रही, जिसे दिल्ली सल्तनत की स्थापना (1192) के बाद विकसित किया गया था। हैदराबाद के चारमीनार (1591) चौक के बड़े मेहराब, तोरण पथ और मीनार बहुत ही खास हैं। इस कला में पत्थर का व्यापक उपयोग किया गया है और 17वीं सदी में मुगल कला के स्थानांतरित होने तक जैसा कि ताजमहल जैसी संरचनाओं द्वारा दिखाई पड़ता है; मुसलमानों के शासन में भारतीय अनुकूलन प्रतिबिंबित होता है।
एक संलग्न आंगन के साथ परंपरागत हाइपोस्टाइल योजना पश्चिमी एशिया से आयात की गयी, जो आम तौर पर नए क्षेत्रों में इस्लाम के प्रवेश के साथ जुड़ी हुई है, लेकिन बाद में स्थानीय आबोहवा और जरुरत के हिसाब से अधिक उपयुक्त योजनाओं के कारण इसे त्याग दिया गया। बाबरी मस्जिद स्थानीय प्रभाव और पश्चिम एशियाई शैली का मिश्रण थी और भारत में इस प्रकार की मस्जिदों के उदाहरण आम हैं।
तीन गुंबदों के साथ बाबरी मस्जिद की भव्य संरचना थी, तीन गुंबदों में से एक प्रमुख था और दो गौण. यह दो ऊंची दीवारों से घिरा हुआ था, जो एक दूसरे के समानांतर थीं और एक कुएं के साथ एक बड़ा-सा आंगन संलग्न था, उस कुएं को उसके ठंडे व मीठे जल के लिए जाना जाता है। गुंबददार संरचना के ऊंचे प्रवेश द्वार पर दो शिलालेख लगे हुए हैं जिनमे फ़ारसी में दो अभिलेख दर्ज हैं, जो घोषित करते हैं कि बाबर के आदेश पर किसी मीर बाक़ी ने इस संरचना का निर्माण किया। बाबरी मस्जिद की दीवारें भौंडे सफेद रेतीले पत्थर के खंडों से बने हैं, जिनके आकार आयताकार हैं, जबकि गुंबद पतले और छोटे पके हुए ईंटों के बने हैं। इन दोनों संरचनात्मक उपादानों को दानेदार बालू के साथ मोटे चून के लसदार मिश्रण से पलस्तर किया गया है।
मध्य आंगन बड़ी मात्रा में वक्र स्तंभों से घिरा हुआ था, छत की ऊंचाई बढ़ाने के लिए ऐसा किया गया था। योजना और वास्तुकला जहांपनाह की बेगमपुर शुक्रवार मस्जिद से प्रभावित थी, न कि मुगल शैली से, जहां हिंदू राजमिस्त्री अपनी सीधी संरचनात्मक और सजावटी परंपराओं का इस्तेमाल किया करते थे। उनकी दस्तकारी की उत्कृष्टता उनके वानस्पतिक इमारती सजावट और कमल आकृति में साफ दिखती है। ये बेलबूटे फिरोजाबाद के फिरोज शाह मस्जिद (ई.सं. 1354), जो अब एक उजड़ी हुई स्थिति में है, किला कुहना मस्जिद (ई.सं. 1540), दीवार गौड़ शहर के दक्षिणी उपनगर की दरसबरी मस्जिद और शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित जमाली कामिली मस्जिद में भी मौजूद हैं। यह अकबर द्वारा अपनाई गयी भारत-इस्लामी शैली का अग्रवर्ती था।

बाबरी मस्जिद ध्वनिक और शीतलन प्रणाली

लॉर्ड विलियम बेंटिक (1828–1833) के वास्तुकार ग्राहम पिकफोर्ड के अनुसार "बाबरी मस्जिद के मेहराब से एक कानाफूसी भी दूसरे छोर से, 200 फीट [60 मी] दूर और मध्य आंगन की लंबाई और चौडाई से, सुनी जा सकती है।"उनकी पुस्तक "हिस्टोरिक स्ट्रक्चर्स ऑफ़ अवध" (अवध अर्थात अयोध्या) में उन्होंने मस्जिद की ध्वनिकी का उल्लेख किया है, जहां वे कहते हैं "किसी 16वीं सदी की इमारत में मंच से आवाज का फैलाव और प्रक्षेपण अत्यधिक उन्नत है, इस संरचना में ध्वनि का अद्वितीय फैलाव आगंतुक को चकित कर देगा."
आधुनिक वास्तुकारों ने इस ध्वनिक विशेषता के लिए मेहराब की दीवार में बड़ी खाली जगह और चारों ओर की दीवारों में अनेक खाली जगहों को श्रेय दिया है, जो अनुनादक परिपथ के रूप में काम करती हैं; इस डिजाइन ने मेहराब के वक्ता को सुनने में सबकी मदद की. बाबरी मस्जिद के निर्माण में इस्तेमाल किये गये रेतीले पत्थर भी अनुनादक किस्म के थे, जिनका अद्वितीय ध्वनिकी में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा.
बाबरी मस्जिद की तुगलकी शैली अन्य स्वदेशीडिजाइन घटकों और तकनीक के साथ एकीकृत हुई, जैसे कि मेहराब, मेहराबी छत और गुम्बज जैसे इस्लामी वास्तुशिल्प तत्वों के आवरण में वातानुकूलित प्रणाली. बाबरी मस्जिद की एक शांतिपूर्ण पर्यावरण नियंत्रण प्रणाली में ऊंची छतें, गुम्बज और छः बड़ी जालीदार झरोखे शामिल रहे थे। यह प्रणाली प्राकृतिक रूप से अंदरुनी भाग को ठंडा रखने और साथ ही सूर्य के प्रकाश को आने में मदद करती थी।

बाबरी मस्जिद के चमत्कारी कुएं की किंवदंती

मस्जिद के बीचोंबीच आंगन के गहरे कुएं में औषधीय गुणों की खबर विभिन्न खबरों में स्थान पाती रही है, जैसा कि दिसंबर 1989 में बीबीसी (BBC) और विभिन्न समाचारपत्रों में खबरें प्रकाशित हुईं. बाबरी के कुएं के पानी के संबंध में पूर्व विवरण का संदर्भ दो पंक्तियों में 1918 के फैजाबाद जिला गजट में दिया गया है, जिसमें कहा गया है "यहां कोई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक इमारतें नहीं है, सिवाय बौद्ध तीर्थों के. कुएं के साथ बाबरी मस्जिद एक प्राचीन संरचना है, जिसके चमत्कारी गुण पर हिंदू और मुसलमान दोनों ही दावा करते हैं।"
अयोध्या हिंदुओं का तीर्थ स्थल है और हिंदू तथा मुस्लिम दोनों धर्मों में आस्था रखनेवाले 500,000 से भी अधिक लोगों द्वारा नियमित रूप से यहां सालाना राम महोत्सव मनाया जाता है और बाबरी मस्जिद के प्रांगण के कुएं से बहुत सारे भक्त पानी पीने आते हैं। मान्यता यह है कि इस कुएं का पानी पीने से बहुत सारी बीमारियों का इलाज हो सकता है। हिंदू तीर्थयात्रियों का यह भी मानना हैं कि बाबरी पानी का कुआं वास्तव में मस्जिद के नीचे राम मंदिर का ही था। अयोध्या के मुसलमानों का मानना था कि कुआं अल्लाह द्वारा दी गयी नियामत है। स्थानीय महिलाएं इस प्रसिद्ध आरोग्यकारी पानी को पिलाने के लिए नियमित रूप से अपने नवजात बच्चों को लेकर आती हैं।
125 फुट (40 मीटर) गहरा कुआं बाबारी मस्जिद के बहुत ही बड़े आयताकार प्रांगण के दक्षिण-पूर्व भाग में अवस्थित था। 1890 में वहां कुएं के साथ भगवान राम की एक मूर्ति को जोड़ कर एक छोटा-सा हिंदू मंदिर बनवाया गया। यह एक उत्स्रुत (आर्टीजि़यन) कुआं था और नीचे काफी गहराई में भौम जल स्तर से पानी ऊपर आता था। त्रिज्या में ग्यारह फीट (3 मीटर), जमीनी स्तर से ऊपर 30 फीट (10 मीटर) तक यह ईंटों का बना हुआ था। जलाशय में शीस्ट रेत और बजरी के स्तर पर जमे पानी को खींच कर निकाला जाता था, जिसे असामान्य रूप से ठंडे तापमान का पानी कहा जा सकता था। इस पानी में सोडियम लगभग नहीं था, जिसने इसे 'मीठे'पानी के रूप में ख्याति प्रदान की. कुआं तक पहुंचने के लिए तीन फुट (1 मीटर) के प्लेटफॉर्म पर चढ़ना होता, जहां यह कुआं एक अव्यवस्थित चोर दरवाजे के साथ लकड़ी की मोटी तख्ती से ढंका होता था। एक बाल्टी और लंबी रस्सी के द्वारा पानी खींच कर निकाला जाता था और इसमें 'आध्यात्मिक गुण'होने का दावा किए जाने के कारण इसका इस्तेमाल केवल पीने के लिए ही होता था। अयोध्या में हिंदुओं और मुसलमानों में इस ठंडे और विशुद्ध भूमिगत जल के चमत्कारी गुण पर गहरी आस्था थी, जिससे स्थानीय लोक मान्यता सुदृढ़ हुई.

इतिहास

हिंदू व्याख्या

1527 में फरगना से जब मुसिल्म सम्राट बाबरआया तो उसने सिकरी में चित्तौड़गढ़ के हिंदू राजा राणा संग्राम सिंह को तोपखाने और गोला-बारूद का इस्तेमाल करके हाराया. इस जीत के बाद, बाबर ने उस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया, उसने अपने सेनापति मीर बाकी को वहां का सूबेदार बना दिया.
मीर बाकी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण कर इसका नामकरण सम्राट बाबर के नाम पर किया।[9]बाबर के रोजनामचा बाबरनामा में वहां किसी नई मस्जिद का जिक्र नहीं है, हालांकि रोजमानचे में उस अवधि से संबंद्ध पन्ने गायब हैं। समकालीन तारीख-ए-बाबरी कहता है कि बाबर की सेना ने "चंदेरी में बहुत सारे हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था।"[10]
1992 में ध्वस्त ढांचे के मलबे से निकले एक मोटे पत्थर के खंड के अभिलेख से उस स्थल पर एक पुराने हिंदू मंदिर के पैलियोग्राफिक (लेखन के प्राचीनकालीन रूप के अध्ययन) प्रमाण प्राप्त हुए. विध्वंस के दिन 260 से अधिक अन्य कलाकृतियां और प्राचीन हिंदू मंदिर का हिस्सा होने के और भी बहुत सारे तथ्य भी निकाले गये। शिलालेख में 20 पंक्तियां, 30 श्लोक (छंद) हैं और इसे संस्कृत में नागरी लिपि में लिखा गया है। ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में 'नागरी लिपि'प्रचलित थी। प्रो॰ ए. एम. शास्त्री, डॉ॰ के. वी. रमेश, डॉ॰ टी. पी. वर्मा, प्रो॰ बी.आर. ग्रोवर, डॉ॰ ए.के. सिन्हा, डॉ॰ सुधा मलैया, डॉ॰ डी. पी. दुबे और डॉ॰ जी. सी. त्रिपाठी समेत पुरालेखवेत्ताओं, संस्कृत विद्वानों, इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के दल द्वारा गूढ़ लेखों के रूप में संदेश के महत्वपूर्ण भाग को समझा गया।
शुरू के बीस छंद राजा गोविंद चंद्र गढ़वाल (1114-1154 ई.) और उनके वंश की प्रशंसा करते हैं। इक्कीसवां छंद इस प्रकार कहता है: "वामन अवतार (बौने ब्राह्मण के रूप में विष्णु के अवतार) के चरणों में शीश नवाने के बाद अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए राजा ने विष्णुहरि (श्री राम) के अद्भुत मंदिर के लिए संगमरमर के खंबे और आकाश तक पहुंचनेवाले पत्थर की संरचना का निर्माण करने और शीर्ष चूड़ा को बहुत सारे सोने से मढ़ दिया और वाण का मुंह आकाश की ओर करके इसे पूरा किया - यह एक ऐसा भव्य मंदिर है जैसा इससे पहले देश के इतिहास में किसी राजा ने नहीं बनाया."
इसमें आगे भी कहा गया है कि यह मंदिर, मंदिरों के शहर अयोध्या में बनाया गया था।
एक अन्य संदर्भ में, एक महंत रघुबर दास द्वारा दायर शिकायत पर फैजाबाद के जिला न्यायाधीश ने 18 मार्च 1886 को फैसला सुनाया था। हालांकि शिकायत को खारिज कर दिया गया था, फिर भी फैसले में दो प्रासंगिक तथ्य निकल कर आए:
"मैंने पाया कि सम्राट बाबर द्वारा निर्मित मस्जिद अयोध्या नगर की सीमा पर स्थित है।सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि मस्जिद ऐसी विशेष जमीन पर बनायी गयी है कि जो हिंदुओं द्वारा पूज्य है, लेकिन चूंकि यह घटना 358 साल पहले की है, इसीलिए इस शिकायत के प्रतिकार के लिए अब बहुत देर हो चुकी है।जो किया जा सकता है वह यह कि सभी पक्षों द्वारा यथास्थिति को बनाए रखा जाए.ऐसे किसी मामले में जैसा कि वर्तमान मामला है, किसी भी तरह का नवप्रवर्तन लाभ के बजाए और भी अधिक नुकसान और शांति में खलल पैदा करेगा."

जैन व्याख्या

जैनियोंके सामाजिक संगठन जैन समता वाहिनी के अनुसार, "उत्खनन के दौरान अगर कोई संरचना यहां मिलती है तो वह केवल छठी सदी का जैन मंदिर ही हो सकती है।"
जैन समता वाहिनी के महासचिव सोहन मेहता का दावा है कि बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद सुलझाने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर एएसआई द्वारा किया गया उत्खनन इस बात को प्रमाणित कर देता है कि विवादित ध्वस्त ढांचा वास्तव में, एक प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष पर बनाया गया था।
मेहता 18वीं शताब्दी के जैन भिक्षुओं की रचानाओं का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि अयोध्या वह जगह हैं जहां पांच जैन तीर्थंकर, ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ रहा करते थे। 1527 से पहले यह प्राचीन शहर जैन धर्म और बौद्ध धर्म के पांच बड़े केंद्रों में से एक रहा है।[11]

मुस्लिम व्याख्या

ऐसा कोई ऐतिहासिक रिकॉर्ड इस तथ्य की ओर संकेत नहीं करता है कि 1528 में जब मीर बाकी ने मस्जिद स्थापित की, उस समय यहां अस्तित्व में रहे किसी हिंदू मंदिर का विध्वंस किया गया था। 23 दिसम्बर 1949 को जब अवैध रूप से मस्जिद में राम की मूर्तियों को रखा गया, तब प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने यूपी के मुख्यमंत्री जेबी पंत को पत्र लिखकर उस गडबडी को सुधारने की मांग की; क्योंकि "इससे वहां एक खतरनाक मिसाल स्थापित होती है।"स्थानीय प्रशासक, फैजाबाद उपायुक्त के. के. नायर ने नेहरू की चिंताओं को खारिज कर दिया. हालांकि उन्होंने स्वीकार किया कि मूर्तियों की स्थापना "एक अवैध कार्य थी", नायर ने मस्जिद से उन्हें हटाने से मना करते हुए यह दावा किया कि "इस गतिविधि के पीछे जो गहरी भावना है।.. उसे कम करके नहीं आंका जाना चाहिए." 2010 में, हिंदू धर्मग्रंथों का हवाला देते हुए हजारों पृष्ठों के फैसले में उच्च न्यायालय ने जमीन का दो-तिहाई हिंदू मंदिर को दे दिया, लेकिन 1949 के अधिनियम की अवैधता की जांच में बहुत कम प्रयास किये गये। मनोज मिट्टा के अनुसार, "एक तरह से मस्जिद को मंदिर में तब्दील करने के लिए मूर्तियों के साथ छेड़छाड़ किया जाना, स्वत्वाधिकार मुकदमा के अधिनिर्णय का केंद्र था।"[12]
मुसलमानों और अन्य आलोचकों का दावा है कि पुरातत्व रिपोर्ट जो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और हिंदू मुन्नानी जैसे अतिवादी हिंदू संगठनों द्वारा बाबरी मस्जिद स्थल पर किए गए दावे पर भरोसा करके तैयार किये गए हैं, वे राजनीति से प्रेरित है। आलोचकों का कहना है कि एएसआई (ASI) द्वारा "हर जगह पशु की हड्डियों के साथ-साथ 'सुर्खी'और चूना-गारा पाया गया", ये सभी मुसलमानों की मौजूदगी के लक्षण है जो कि "बाबरी मस्जिद के नीचे हिंदू मंदिर की संभावना को खारिज करते हैं,"लेकिन रिपोर्ट में 'खंभों की बुनियाद'के आधार पर दावा किया जाना इसके साथ "साफ तौर पर धोखाधड़ी"है क्योंकि कोई खंभा नहीं पाया गया और कथित तौर पर खंभे की बुनियाद के अस्तित्व पर पुरातत्वविदों द्वारा तर्क-वितर्क किया गया है[13].

ब्रिटिश व्याख्या

"1526 में पानीपत में विजय प्राप्त करने के बाद बाबर के कदम हिंदुस्तान पर पड़े और अफगानी वंश के लोधी को परास्त कर वर्तमान संयुक्त प्रांत के पूर्वी जिलों और मध्य दोआब, अवध पर कब्जा करते हुए वह आगरा की ओर बढ़ा. 1527 में, बाबर के मध्य भारत से लौटने पर, कन्नौज के पास दक्षिणी अवध में उसने अपने विरोधियों को हरा दिया और प्रांत को पार करते हुए बहुत दूर तक जाते हुए अयोध्या तक पहुंच गया, जहां उसने 1528 में एक मस्जिद का निर्माण किया। 1530 में बाबर की मृत्यु के बाद अफगान बादशाह विपक्षी बने रहे, लेकिन अगले वर्ष लखनऊ के पास उन्हें हरा दिया."इम्पीरियल गजट ऑफ इंडिया 1908 भाग XIX पृष्ठ 279-280

स्थल को लेकर संघर्ष

आधुनिक समय में इस मसले पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हिंसा की पहली घटना 1853 में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के शासनकाल के दौरान दर्ज की गयी। निर्मोही नामक एक हिंदू संप्रदाय ने ढांचे पर दावा करते हुए कहा कि जिस स्थल पर मस्जिद खड़ा है वहां एक मंदिर हुआ करता था, जिसे बाबर के शासनकाल के दौरान नष्ट कर दिया गया था। अगले दो वर्षों में इस मुद्दे पर समय-समय पर हिंसा भड़की और नागरिक प्रशासन को हस्तक्षेप करते हुए इस स्थल पर मंदिर का निर्माण करने या पूजा करने की अनुमति देने से इंकार करना पड़ा.
फैजाबाद जिला गजट 1905 के अनुसार, "इस समय (1855) तक, हिंदू और मुसलमान दोनों एक ही इमारत में इबादत या पूजा करते रहे थे। लेकिन विद्रोह (1857) के बाद, मस्जिद के सामने एक बाहरी दीवार डाल दी गयी और हिंदुओं को अदंरुनी प्रांगण में जाने, वेदिका (चबूतरा), जिसे उन लोगों ने बाहरी दीवार पर खड़ा किया था, पर चढ़ावा देने से मना कर दिया गया।"
1883 में इस चबूतरे पर मंदिर का निर्माण करने की कोशिश को उपायुक्त द्वारा रोक दिया गया, उन्होंने 19 जनवरी 1885 को इसे निषिद्ध कर दिया. महंत रघुवीर दास ने उप-न्यायाधीश फैजाबाद की अदालत में एक मामला दायर किया। 17 फीट x 21 फीट माप के चबूतरे पर पंडित हरिकिशन एक मंदिर के निर्माण की अनुमति मांग रहे थे, लेकिन मुकदमे को बर्खास्त कर दिया गया। एक अपील फैजाबाद जिला न्यायाधीश, कर्नल जे.ई.ए. चमबिअर की अदालत में दायर किया गया, स्थल का निरीक्षण करने के बाद उन्होंने 17 मार्च 1886 को इस अपील को खारिज कर दिया. एक दूसरी अपील 25 मई 1886 को अवध के न्यायिक आयुक्त डब्ल्यू. यंग की अदालत में दायर की गयी थी, इन्होंने भी इस अपील खारिज कर दिया. इसी के साथ, हिंदुओं द्वारा लड़ी गयी पहले दौर की कानूनी लड़ाई का अंत हो गया।
1934 के "सांप्रदायिक दंगों"के दौरान, मस्जिद के चारों ओर की दीवार और मस्जिद के गुंबदों में एक गुंबद क्षतिग्रस्त हो गया था। ब्रिटिश सरकार द्वारा इनका पुनर्निर्माण किया गया।
मस्जिद और गंज-ए-शहीदन कब्रिस्तान नामक कब्रगाह से संबंधित भूमि को वक्फ क्र. 26 फैजाबाद के रूप में यूपी सुन्नी केंद्रीय वक्फ (मुस्लिम पवित्र स्थल) बोर्ड के साथ 1936 के अधिनियम के तहत पंजीकृत किया गया था। इस अवधि के दौरान मुसलमानों के उत्पीड़न की पृष्ठभूमि की क्रमशः 10 और 23 दिसम्बर 1949 की दो रिपोर्ट दर्ज करके वक्फ निरीक्षक मोहम्मद इब्राहिम द्वारा वक्फ बोर्ड के सचिव को दिया गया था।
पहली रिपोर्ट कहती है "मस्जिद की तरफ जानेवाले किसी भी मुस्लिम टोका गया और नाम वगैरह ... लिया गया। वहां के लोगों ने मुझे बताया कि हिंदुओं से मस्जिद को खतरा है।.. जब नमाजी (नमाज अदा करने वाले) लौट कर जाने लगते है तो उनकी तरफ आसपास के घरों के जूते और पत्थर फेंके जाते हैं। मुसलमान भय के कारण एक शब्द भी नहीं कहते. रघुदास के बाद लोहिया ने अयोध्या का दौरा किया और वहां भाषण दिया ... कब्र को नुकसान मत पहुंचाइए... बैरागियों ने कहा मस्जिद जन्मभूमि है और इसलिए इसे हमें दे दें... मैंने अयोध्या में एक रात बिताई और बैरागी जबरन मस्जिद पर कब्जा करने लगे... .."
22 दिसम्बर 1949 की आधी रात को जब पुलिस गार्ड सो रहे थे, तब राम और सीता की मूर्तियों को चुपचाप मस्जिद में ले जाया गया और वहां स्थापित कर दिया गया। अगली सुबह इसकी खबर कांस्टेबल माता प्रसाद द्वारा दी गयी और अयोध्या पुलिस थाने में इसकी सूचना दर्ज की गयी। 23 दिसम्बर 1949 को अयोध्या पुलिस थाने में सब इंस्पेक्टर राम दुबे द्वारा प्राथमिकी दर्ज कराते हुए कहा गया:"50-60 व्यक्तियों के एक दल ने मस्जिद परिसर के गेट का ताला तोड़ने के बाद या दीवारों को फांद कर बाबरी मस्जिद में प्रवेश किया। . और वहां श्री भगवान की मूर्ति की स्थापना की तथा बाहरी और अंदरुनी दीवार पर गेरू (लाल दूमट) से सीता-राम का चित्र बनाया गया ... उसके बाद, 5-6 हजार लोगों की भीड़ आसपास इकट्ठी हुई तथा भजन गाते और धार्मिक नारे लगाते हुए मस्जिद में प्रवेश करने की कोशिश करने लगी, लेकिन रोक दिए गए।"अगली सुबह, हिंदुओं की बड़ी भीड़ ने भगवानों को प्रसाद चढ़ाने के लिए मस्जिद में प्रवेश करने का प्रयास किया। जिला मजिस्ट्रेट के.के. नायर ने दर्ज किया है कि "यह भीड़ जबरन प्रवेश करने की कोशिश करने के लिए पूरी तरह से दृढ़ संकल्प थी। ताला तोड़ डाला गया और पुलिसवालों को धक्का देकर गिरा दिया गया। हममें से सब अधिकारियों और दूसरे लोगों ने किसी तरह भीड़ को पीछे की ओर खदेड़ा और फाटक को बंद किया। पुलिस और हथियारों की परवाह न करते हुए साधु एकदम से उन पर टूट पड़े और तब बहुत ही मुश्किल से हमलोगों ने किसी तरह से फाटक को बंद किया। फाटक सुरक्षित था और बाहर से लाये गए एक बहुत ही मजबूत ताले से उसे बंद कर दिया गया तथा पुलिस बल को सुदृढ़ किया गया (शाम 5:00 बजे)."
इस खबर को सुनकर प्रधान मंत्रीजवाहर लाल नेहरूने यूपी के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंतको यह निर्देश दिया कि वे यह देखें कि देवताओं को हटा लिया जाए. पंत के आदेश के तहत मुख्य सचिव भगवान सहाय और फैजाबाद के पुलिस महानिरीक्षक वी.एन. लाहिड़ी ने देवताओं को हटा लेने के लिए फैजाबाद को तत्काल निर्देश भेजा. हालांकि, के.के. नायर को डर था कि हिंदू जवाबी कार्रवाई करेंगे और आदेश के पालन को अक्षम करने की पैरवी करेंगे.
1984 में, विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने मस्जिद के ताले को खुलवाने के लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया और 1985 में राजीव गांधीकी सरकार ने अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरीमस्जिद का ताला खोल देने का आदेश दिया. उस तारीख से पहले केवल हिन्दू आयोजन की अनुमति थी, जिसमें हिंदू पुरोहित मूर्तियों की सालाना पूजा करते थे। इस फैसले के बाद, सभी हिंदुओं को, जो इसे रामका जन्मस्थान मानते थे, वहां तक जाने की अनुमति मिल गयी और मस्जिद को एक हिंदू मंदिर के रूप में कुछ अधिकार मिल गया।[14]
क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव तब बहुत अधिक बढ़ गया जब नवंबर 1989 में राष्ट्रीय चुनाव से पहले विहिप को विवादित स्थल पर शिलान्यास (नींव स्थापना समारोह) करने की अनुमति प्राप्त हो गई। वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एक रथ पर सवार होकर दक्षिण से अयोध्या तक की 10,000 किमी की यात्रा की शुरूआत की.

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट

1970, 1992 और 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा विवादित स्थल के आसपास की गयी खुदाई से उस स्थल पर हिंदू परिसर मौजूद होने का संकेत मिला है।
2003 में, भारतीय अदालत द्वारा दिए गए आदेश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को इसका और अधिक गहन अध्ययन करने तथा मलबे के नीचे विशेष तरह की संचरना की खुदाई करने को कहा गया।[15]एएसआई का रिपोर्ट सारांश[16]मस्जिद के नीचे मंदिर के सबूत होने के निश्चित संकेत देता है। एएसआई शोधकर्ताओं के शब्दों में, उनलोगों ने "उत्तर भारत के मंदिरों से जुड़ी... विशिष्टताओं की"खोज की. खुदाई का नतीजा:
stone and decorated bricks as well as mutilated sculpture of a divine couple and carved architectural features, including foliage patterns, amalaka, kapotapali, doorjamb with semi-circular shrine pilaster, broke octagonal shaft of black schist pillar, lotus motif, circular shrine having pranjala (watershute) in the north and 50 pillar bases in association with a huge structure"[17]

आलोचना

सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) ने रिपोर्ट की आलोचना यह कहते हुए की कि "हर तरफ पशु हड्डियों के साथ ही साथ सुर्खी और चूना-गारा की मौजूदगी"जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को मिला, ये सब मुसलमानों की उपस्थिति के लक्षण हैं "जो कि मस्जिद के नीचे हिंदू मंदिर के होने की बात को खारिज कर देती है"लेकिन 'खंबों की बुनियाद'के आधार पर रिपोर्ट कुछ और दावा करती है जो कि अपने निश्चयन में "स्पष्टतः धोखाधड़ी"है क्योंकि कोई खंबा नहीं मिला है और पुरातत्वविदों के बीच उस तथाकथित 'खंबे की बुनियाद'के अस्तित्व पर बहस जारी है[13]. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआइएमपीएलबी) के अध्यक्ष सैयद रबे हसन नदवी ने बताया कि एएसआई अपनी अंतरिम रिपोर्ट में किसी मंदिर के कोई सबूत का उल्लेख करने में विफल रहा है और राष्ट्रीय तनाव के समय के दौरान केवल अंतिम रिपोर्ट में इसका उल्लेख किया गया, जिससे रिपोर्ट बहुत ही सदिग्ध बन जाती है।[18].
हालांकि, न्यायाधीश अग्रवाल, एक न्यायाधीश जिन्होंने क्षेत्र का विभाजन किया, कहते हैं कि बहुत सारे "स्वतंत्र इतिहासकारों"ने तथ्‍यों के मामले में "शुतुरमुर्ग जैसे रवैए"का प्रदर्शन किया और वास्तव में जब उनको "जांचा गया तो पता चला"कि इस विषय पर किसी तरह की विशेषज्ञता का उनमें अभाव था। इसके अलावा, ज्यादातर "विशेषज्ञ"परस्पर आपस में जुड़े पाए गए: या तो उनलोगों ने खबरों को पढ़कर अपनी विशेषज्ञता को तैयार किया या फिर वक्फ बोर्ड के लिए "विशेषज्ञ गवाह"की तरह उनका किसी अन्य व्यावसायिक संगठनो के साथ जुड़ाव है।[19]
ढांचे के नीचे मंदिर (हिंदू मंदिर) पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निष्कर्ष की जांच करते हुए विहिप और आरएसएस, मुसलमानों से यह मांग करते हुए आगे आए कि उत्तर भारतीयों की तीन पवित्रतम मंदिर हिंदुओं को सौंप दी जाए.[17]

विध्वंस

16 दिसम्बर 1992 भारत सरकार द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए बनी परिस्थितियों की जांच करने के लिए लिब्रहान आयोगका गठन किया गया। विभिन्न सरकारों द्वारा 48 बार अतिरिक्त समय की मंजूरी पाने वाला, भारतीय इतिहास में सबसे लंबे समय तक काम करनेवाला यह आयोग है। इस घटना के l6 सालों से भी अधिक समय के बाद 30 जून 2009 को आयोग ने प्रधान मंत्री मनमोहन सिंहको अपनी रिपोर्ट सौंपी.[20]
रिपोर्ट की सामग्री नवंबर 2009 को समाचार मीडिया में लीक हो गयी। मस्जिद के विध्वंस के लिए रिपोर्ट ने भारत सरकार के उच्च पदस्थ अधिकारियों और हिंदू राष्ट्रवादियों को दोषी ठहराया. इसकी सामग्री भारतीय संसद में हंगामे का कारण बनी.
6 दिसम्बर 1992 को कार सेवकों द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंस के दिन जो कुछ भी हुआ था, लिब्रहान रिपोर्ट ने उन सिलसिलेवार घटनाओं के टुकड़ों कों एक साथ गूंथा था।
रविवार की सुबह लालकृष्ण आडवाणी और अन्य लोगों ने विनय कटियार के घर पर मुलाकात की. रिपोर्ट कहती है कि इसके बाद वे विवादित ढांचे के लिए रवाना हुए. आडवाणी, मुरली मनोहर जोशीऔर कटियार पूजा की वेदी पर पहुंचे, जहां प्रतीकात्मक रूप से कार सेवा होनी थी, फिर आडवाणी और जोशी ने अगले 20 मिनट तक तैयारियों का निरीक्षण किया। इसके बाद दोनो वरिष्ठ नेता 200 मीटर की दूरी पर राम कथा कुंज के लिए रवाना हो गए। यह वह इमारत है जो विवादित ढांचे के सामने थी, जहां वरिष्ठ नेताओं के लिए एक मंच का निर्माण किया गया था।
दोपहर में, एक किशोर कार सेवक कूद कर गुंबद के ऊपर पहुंच गया और उसने बाहरी घेरे को तोड़ देने का संकेत दिया. रिपोर्ट कहती है कि इस समय आडवाणी, जोशी और विजय राजे सिंधिया ने "... या तो गंभीरता से या मीडिया का लाभ उठाने के लिए कार सेवकों से उतर आने का औपचारिक अनुरोध किया। पवित्र स्थान के गर्भगृह में नहीं जाने या ढांचे को न तोड़ने की कार सेवकों से कोई अपील नहीं की गयी थी। रिपोर्ट कहती है: "नेताओं के ऐसे चुनिंदा कार्य विवादित ढांचे के विध्‍वंस को पूरा करने के उन सबके भीतर छिपे के इरादों का खुलासा करते हैं
रिपोर्ट का मानना है कि "राम कथा कुंज में मौजूद आंदोलन के प्रतीक ... तक बहुत ही आसानी से पहुंच कर ... विध्वंस को रोक सकते थे।"[21]

विध्वंस में अग्रिम योजना बनाई गई

पूर्व खुफिया ब्यूरो (आईबी) के संयुक्त निदेशक मलय कृष्ण धर ने 2005 की एक पुस्तक में दावा किया कि बाबरी मस्जिद विध्वंस की योजना 10 महीने पहले आरएसएस, भाजपा और विहिप के शीर्ष नेताओं द्वारा बनाई गई थी और इन लोगों ने इस मसले पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव द्वारा उठाये गए कदम पर सवाल उठाया था। धर ने दावा किया है कि भाजपा/संघ परिवार की एक महत्वपूर्ण बैठक की रिपोर्ट तैयार करने का प्रबंध करने का उन्हें निर्देश दिया गया था और उस बैठक ने "इस शक की गुंजाइश को परे कर दिया कि उनलोगों (आरएसएस, भाजपा, विहिप) ने आनेवाले महीने में हिंदुत्व हमले का खाका तैयार किया और दिसंबर 1992 में अयोध्या में 'प्रलय नृत्य' (विनाश का नृत्य) का निर्देशन किया।.. बैठक में मौजूद आरएसएस, भाजपा, विहिप और बजरंग दल के नेता काम को योजनाबद्ध रूप से अंजाम देने की बात पर आपसी सहमति से तैयार हो गए।"उनका दावा है कि बैठक के टेप को उन्होंने व्यक्तिगत रूप से अपने बॉस के सुपुर्द किया, उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि उन्हें इसमें कोई शक नहीं है कि उनके बॉस ने उस टेप की सामग्री को प्रधानमंत्री (राव) और गृह मंत्री (एसबी चव्हाण) को दिखाया. लेखक ने दावा किया है कि यहां एक मूक समझौता हुआ था जिसमें अयोध्या ने उन्हें "राजनीतिक लाभ उठाने के लिए हिंदुत्व की लहर को शिखर पर पहुंचाने का एक अद्भुत अवसर"प्रदान किया।[3]

लिब्रहान आयोग के निष्कर्ष

न्यायमूर्ति मनमोहन सिंह लिब्राहन द्वारा लिखी गयी रिपोर्ट में मस्जिद के विध्वंस के लिए 68 लोगों को दोषी ठहराया गया है - इनमें ज्यादातर भाजपा के नेता और कुछ नौकरशाह हैं। रिपोर्ट में पूर्व भाजपा प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और संसद में पार्टी के तत्कालीन (2009) नेता लालकृष्ण आडवाणी का नाम लिया गया हैं। कल्याण सिंह, जो मस्जिद विध्वंस के समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, की भी रिपोर्ट में कड़ी आलोचना की गयी। उन पर अयोध्या में ऐसे नौकरशाहों और पुलिस को तैनात करने का आरोप है, जो विध्वंस के दौरान मूक बन कर खड़े रहे.[22]लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में राजग सरकार में भूतपूर्व शिक्षा मंत्री मुरली मनोहर जोशीको भी विध्वंस में दोषी ठहराया गया है। एक भारतीय पुलिस अधिकारी अंजू गुप्ता अभियोजन गवाह के रूप में पेश की गयीं. विध्वंस के दिन वे आडवाणी की सुरक्षा प्रभारी थीं और उन्होंने खुलासा किया कि आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी ने भड़ाकाऊ भाषण दिए.[23]

लोकप्रिय संस्कृति में

बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन द्वारा 1993 में लिखे गए विवादास्पद बांग्ला उपन्यास लज्जामें कहानी विध्वंस के बाद के दिनों पर आधारित है। इसके विमोचन के बाद लेखिका को उनके गृह देश में जान से मारने की धमकी मिली है और तब से वे निर्वासन में रह रही हैं।
विध्वंस से उठे धुएं के परिणामस्वरूप घटनेवाली घटनाएं और दंगे बोम्बे (1995), दैवनामाथिल (2005) जैसी फिल्म की कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा रही हैं, दोनों फिल्मों को राष्ट्रीय एकता के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म का संबंधित राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड के दौरान नरगिस दत्त अवार्ड मिला; नसीम (1995), स्ट्राइकर (2010) और स्लमडॉग मिलियनेयर (2008) में भी इसका जिक्र था।

इन्हें भी देखें

साँचा:Ayodhya debate
  • राम जन्मभूमि
  • मस्जिदों में गैर मुस्लिम के पूजा के स्थानों का रूपांतरण
  • भारतीय धर्मनिरपेक्षवाद
  • उपन्यास में: बॉम्बे
  • बॉम्बे राइअट

संदर्भ

  1. आज बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले की सुनवाई. याहू (Yahoo) समाचार - 18 सितंबर 2007
  2. बाबरी मस्जिद टियरिंग डाउन - आई विटनेस बीबीसी मार्क टुलीबीबीसी (BBC) - गुरुवार, 5 दिसम्बर 2002, 19:05 GMT
  3. 10 महीने पहले ही बाबरी मस्जिद विध्वंस की योजना बनाई गई थी - पीटीआई (PTI)
  4. अयोध्या विवाद.बीबीसी (BBC) समाचार. 15 नवम्बर 2004.
  5. Flint, Colin (2005). The geography of war and peace. Oxford University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780195162080.
  6. Vitelli, Karen (2006). Archaeological ethics (2 ed.). Rowman Altamira. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780759109636.
  7. सैयद शहाबुद्दीन अब्दुर रहमान, बाबरी मस्जिद, तीसरा मुद्रण, आजमगढ़: दारूल मुसंनिफिन शिबली अकादमी, 1987, पीपी 29-30.
  8. भारतीय जनगणना
  9. "Babri Mosjid -- Britannica Online Encyclopedia". Encyclopædia. Encyclopædia Britannica. अभिगमन तिथि: 2008-07-02.
  10. शर्मा, मुगल सम्राटों के धार्मिक नीति, पृष्ठ 9
  11. http://www.expressindia.com/news/fullstory.php?newsid=19686
  12. अयोध्या फैसलाटाइम्स ऑफ इंडिया, 3 अक्टूबर 2010
  13. धर्मनिरपेक्षवा को अयोध्या के फैसले से एक और झटका: सहमतहिंदू, 3 अक्टूबर 2010
  14. http://www.outlookindia.com/article.aspx?224878
  15. रतनागर, शेरीन (2004) "सीए (CA) फोरम ऑन ऐन्थ्रपालॉजी इन पब्लिक: आर्कीआलॉजी एट द हार्ट ऑफ़ अ पॉलिटिकल कान्फ्रन्टेशन: द केस ऑफ़ अयोध्या"करेंट ऐन्थ्रपालॉजी 45(2): पीपी 239-259, पृष्ठ 239
  16. प्रसन्नं, आर. (7 सितंबर 2003) "अयोध्या: लेयर्स ऑफ़ ट्रुथ"द वीक (इंडिया), फ्रॉम वेब आर्चिव
  17. Suryamurthy, R. (August 2003) "ASI findings may not resolve title dispute"The Tribune - August 26, 2003
  18. Muralidharan, Sukumar (September 2003). "Ayodhya: Not the last word yet".
  19. Abhinav Garg (October 9, 2010). "How Allahabad HC exposed 'experts' espousing Masjid cause".
  20. प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया (30 जून 2009). बाबरी मस्जिद मामला: लिब्रहान आयोग ने प्रधानमंत्री को रिपोर्ट सौंपी.बिजनेस स्टैंडर्ड .
  21. http://www.ndtv.com/news/india/report_sequence_of_events_on_december_6.php
  22. अपरोर ओवर इंडिया मॉस्क रिपोर्ट: इन्क्वैरी इनटू बाबरी मॉस्क डिमोलीशन इन 1992 इंडिक्ट्स आपोज़िशन बीजेपी (BJP) लीडर्सअल-जज़ीरा इंग्लिश - 24 नवम्बर 2009
  23. इन द डॉक अगेन, फ्रंटलाइन

आगे पढ़ें

  • राम शरण शर्मा. कम्युनल हिस्ट्री एंड राम अयोध्या, पीपुल्स पब्लिशिंग हॉउस (पीपीएच (PPH)), दूसरा संशोधित संस्करण, सितंबर, 1999, दिल्ली. बंगाली, हिंदी, कन्नड़, तमिल, तेलुगु और उर्दूमें अनुवादित. बंगालीमें दो संस्करण.
  • पुनियानी, राम. कम्युनल पॉलिटिक्स: मिथ्स वर्सेस फैक्ट्स.सेज प्रकाशन इंक, 2003
  • बचेटा, पाओला. "सेक्रेड स्पेस इन कंफ्लिक्ट इन इंडिया: द बाबरी मस्जिद अफेय्रर."ग्रोथ एंड चेंज.स्प्रिंग2000, खंड. 31, अंक 2.
  • 'बाबरनामा': बाबर, राजकुमार और सम्राट का संस्मरण. 1996. संपादित, व्हीलर एम. थैक्सन द्वारा एनोटेट और अनुवाद. न्यूयॉर्क और लंदन: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस.
  • 'अयोध्या और भारत का भविष्य'. 1993. जितेंद्र बजाज द्वारा संपादित. नीति अध्ययन के लिए केंद्र मद्रास. ISBN 81-86041-02-8 hb ISBN 81-86041-03-6 pb
  • एल्स्ट, कोएंराड. 1991. Ayodhya and After: Issues Before Hindu Society. 1991. नई दिल्ली: भारत की आवाज. [1]
  • इम्मानुएल, डोमिनिक. 'द मुंबई बॉम्ब ब्लास्ट्स एंड द अयोध्या टैंगल', नैशनल कैथलिक रिपोर्टर (कैनसस सिटी, 27 अगस्त 2003).
  • सीता राम गोएल: हिन्दू मंदिर - उन्हें क्या हुआ ?, भारत की आवाज, दिल्ली 1991. [2][3]
  • हर्ष नारायण. 1993. अयोध्या मंदिर मस्जिद विवाद: मुस्लिम सूत्रों पर प्रकाश. दिल्ली: पेनमैन प्रकाशक.
  • हैस्नर, रॉन ई., पवित्र मैदान पर युद्ध. 2009. इथाका: कॉर्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस. [4]
  • रोमी, क्रिस्टिन एम., "फ्लैश्पॉइन्ट अयोध्या."आर्कीआलॉजीजुलाई/अगस्त2004, खंड. 57, अंक 4.
  • रोमिला थापर. थापर (2000) में 'राम की कहानी पर एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य'.
  • अयोध्या का इतिहास एवं पुरातत्व - ऋग्वेद कल से अब तक ('इतिहास और अयोध्या के पुरातत्व - ऋग्वेद के समय से लेकर वर्तमान तक') ठाकुर प्रसाद वर्मा और स्वराज्य प्रकाश गुप्ता द्वारा भारतीय इतिहास एवं संस्कृत परिषद और डीके प्रिंटवर्ल्ड. नई दिल्ली.
  • पी. वी. नरसिंह रावद्वारा 'अयोध्या : 6 दिसम्बर 1992' (ISBN 0-670-05858-0)

बाहरी लिंक्स

अनुसंधान पत्र
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रामलला नगरी या विवाद नगरी अयोध्या ?

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प्रस्तुति-- स्वामी शऱण , कृति शरण


अयोध्या
—  शहर  —
View of अयोध्या, India
समय मंडल:आईएसटी (यूटीसी+५:३०)
देशFlag of India.svg भारत
राज्यउत्तर प्रदेश
ज़िलाफैजाबाद
जनसंख्या
घनत्व
75,000 (200१ के अनुसार )
• ९
क्षेत्रफल
ऊँचाई (AMSL)
10.24 km² (4 sq mi)
• ९३ मीटर
निर्देशांक: 26.80°N 82.20°Eअयोध्याभारतके उत्तर प्रदेशप्रान्तका एक अति प्राचीन धार्मिक नगर है। यह फैजाबादजिला के अन्तर्गत आता है। यह सरयू नदी (घाघरा नदी) के दाएं तट पर बसा है। प्राचीन काल में इसे 'कौशल देश'कहा जाता था। अयोध्या हिन्दुओंका प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में एक है।

इतिहास


भारत के प्राचीन नगर एवं स्थान
अथर्ववेदमें अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्गसे की गई है। रामायणके अनुसार अयोध्या की स्थापना मनुने की थी। कई शताब्दियों तक यह नगर सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी रहा। अयोध्या मूल रूप से मंदिरों का शहर है। यहां आज भी हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम और जैन धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहां आदिनाथ सहित पांच तीर्थंकरोंका जन्म हुआ था।
इसका महत्व इसके प्राचीन इतिहास में ही निहित है क्योंकि भारत के प्रसिद्ध एवं प्रतापी क्षत्रियों (सूर्यवंशी) की राजधानी यही नगर रहा है। उक्त क्षत्रियों में दाशरथी रामचंद्रअवतारके रूप में पूजेजाते हैं। पहले यह कोसल जनपद की राजधानी था। प्राचीन उल्लेखों के अनुसार तब इसका क्षेत्रफल 96 वर्ग मील था। यहाँ पर सातवीं शाताब्दी में चीनी यात्री हेनत्सांगआया था। उसके अनुसार यहाँ 20 बौद्ध मंदिर थे तथा 3,000 भिक्षु रहते थे।

मुख्य आकर्षण

इस प्राचीन नगर के अवशेष अब खंडहर के रूप में रह गए हैं जिसमें कहीं कहीं कुछ अच्छे मंदिर भी हैं। वर्तमान अयोघ्या के प्राचीन मंदिरों में सीतारसोईतथा हनुमानगढ़ीमुख्य हैं। कुछ मंदिर 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में बने जिनमें कनकभवन, नागेश्वरनाथ तथा दर्शनसिंह मंदिर दर्शनीय हैं। कुछ जैन मंदिर भी हैं। यहाँ पर वर्ष में तीन मेले लगते हैं - मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त तथा अक्टूबर-नंवबर के महीनों में। इन अवसरों पर यहाँ लाखों यात्री आते हैं। अब यह एक तीर्थस्थान के रूप में ही रह गया है।

रामकोट

शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित रामकोट अयोध्या में पूजा का प्रमुख स्थान है। यहां भारत और विदेश से आने वाले श्रद्धालुओं का साल भर आना जाना लगा रहता है। मार्च-अप्रैल में मनाया जाने वाला रामनवमी पर्व यहां बड़े जोश और धूमधाम से मनाया जाता है।

त्रेता के ठाकुर

यह मंदिर उस स्थान पर बना है जहां भगवान राम ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया था। लगभग 300 साल पहले कुल्लू के राजा ने यहां एक नया मंदिर बनवाया। इस मंदिर में इंदौर के अहिल्याबाई होल्कर ने 1784 में और सुधार किया। उसी समय मंदिर से सटे हुए घाट भी बनवाए गए। कालेराम का मंदिर नाम से लोकप्रिय नये मंदिर में जो काले बलुआ पत्थर की प्रतिमा स्थापित है वह सरयू नदी से हासिल की गई थी।

हनुमान गढ़ी

नगर के केन्द्र में स्थित इस मंदिर में 76 कदमों की चाल से पहुँचा जा सकता है। कहा जाता है कि हनुमान यहाँ एक गुफा में रहते थे और रामजन्मभूमि और रामकोट की रक्षा करते थे। मुख्य मंदिर में बाल हनुमान के साथ अंजनि की प्रतिमा है। श्रद्धालुओं का मानना है कि इस मंदिर में आने से उनकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

नागेश्वर नाथ मंदिर

कहा जाता है कि नागेश्वर नाथ मंदिर को भगवान राम के पुत्र कुश ने बनवाया था। माना जाता है जब कुश सरयू नदी में नहा रहे थे तो उनका बाजूबंद खो गया था। बाजूबंद एक नाग कन्या को मिला जिसे कुश से प्रेम हो गया। वह शिवभक्त थी। कुश ने उसके लिए यह मंदिर बनवाया। कहा जाता है कि यही एकमात्र मंदिर है जो विक्रमादित्य के काल के यहां बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

कनक भवन

हनुमान गढ़ी के निकट स्थित कनक भवन अयोध्या का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह मंदिर सीता और राम के सोने मुकुट पहने प्रतिमाओं के लिए लोकप्रिय है। इसी कारण बहुत बार इस मंदिर को सोने का घर भी कहा जाता है। यह मंदिर टीकमगढ़ की रानी ने 1891 में बनवाया था। इस मन्दिर के श्री विग्रह (श्री सीताराम जी) भारत के सुन्दरतम स्वरूप कहे जा सकते है। यहाँ नित्य दर्शन के अलावा सभी समैया-उत्सव भव्यता के साथ मनाये जाते हैं।

आचार्यपीठ श्री लक्ष्मण किला

महान संत स्वामी श्री युगलानन्यशरण जी महाराज की तपस्थली यह स्थान देश भर में रसिकोपासना के आचार्यपीठ के रूप में प्रसिद्ध है। श्री स्वामी जी चिरान्द (छपरा) निवासी स्वामी श्री युगलप्रिया शरण 'जीवाराम'जी महाराज के शिष्य थे। ईस्वी सन् १८१८ में ईशराम पुर (नालन्दा) में जन्मे स्वामी युगलानन्यशरण जी का रामानन्दीय वैष्णव-समाज में विशिष्ट स्थान है।
आपने उच्चतर साधनात्मक जीवन जीने के साथ ही आपने 'रघुवर गुण दर्पण','पारस-भाग','श्री सीतारामनामप्रताप-प्रकाश'तथा 'इश्क-कान्ति'आदि लगभग सौ ग्रन्थों की रचना की है। श्री लक्ष्मण किला आपकी तपस्या से अभिभूत रीवां राज्य (म.प्र.) द्वारा निर्मित कराया गया। ५२ बीघे में विस्तृत आश्रम की भूमि आपको ब्रिटिश काल में शासन से दान-स्वरूप मिली थी। श्री सरयू के तट पर स्थित यह आश्रम श्री सीताराम जी आराधना के साथ संत-गो-ब्राह्मण सेवा संचालित करता है। श्री राम नवमी, सावन झूला, तथा श्रीराम विवाह महोत्सव यहाँ बड़ी भव्यता के साथ मनाये जाते हैं। यह स्थान तीर्थ-यात्रियों के ठहरने का उत्तम विकल्प है। सरयू की धार से सटा होने के कारण यहाँ सूर्यास्त दर्शन आकर्षण का केंद्र होता है।

जैन मंदिर

हिन्दुओं के मंदिरों के अलावा अयोध्या जैन मंदिरों के लिए भी खासा लोकप्रिय है। जैन धर्म के अनेक अनुयायी नियमित रूप से अयोध्या आते रहते हैं। अयोध्या को पांच जैन र्तीथकरों की जन्मभूमि भी कहा जाता है। जहां जिस र्तीथकर का जन्म हुआ था, वहीं उस र्तीथकर का मंदिर बना हुआ है। इन मंदिरों को फैजाबाद के नवाब के खजांची केसरी सिंह ने बनवाया था।

बाबरी मसजिद बनाम राम मंदिर

अयोध्या पिछले कुछ वर्षों से वहां के एक विवादास्पद ढांचे को लेकर विवाद का केंद्र था जिसके बारे में कई लोगों की यह राय थी कि वह 'राम मंदिर'है, जबकि कुछ लोग इसे 'बाबरी मस्ज़िद'कहते थे। 1992 को इस बाबरी मसजिद को हिंदूवादी संगठनों ने ढ़ाह दिया, जिसके बाद से उस स्थल को लेकर विवाद और गहरा गया था। दिनाँक 30/09/2010 को लखनऊ उच्च न्यायलय ने फैसला दिया। इस फैसले में उच्च न्यायालय ने यह जमीन तीन भागों में राममंदिर न्यास, निर्मोही अखाड़े और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच बांटने का आदेश दिया लेकिन किसी भी पक्ष को ये फैसला पसंद नहीं आया और सुन्नी वक्फ बोर्ड व हाशिम अंसारी ने इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी तथा बाद में राममंदिर न्यास, निर्मोही अखाड़े ने भी उच्चतम न्यायालय में अपील की। ये मामला अब उच्चतम न्यायालयमें विचाराधीन है।

गम्यता

वायु मार्ग-
अयोध्या का निकटतम एयरपोर्ट लखनऊ में है जो लगभग 140 किमी. की दूरी पर है। यह एयरपोर्ट देश के प्रमुख शहरों से विभिन्न फ्लाइटों के माध्यम से जुड़ा है।
रेल मार्ग-
फैजाबाद अयोध्या का निकटतम रेलवे स्टेशन है। यह रेलवे स्टेशन मुगल सराय-लखनऊ लाइन पर स्थित है। उत्तर प्रदेश और देश के लगभग तमाम शहरों से यहां पहुंचा जा सकता है।
सड़क मार्ग-
उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन निगम की बसें लगभग सभी प्रमुख शहरों से अयोध्या के लिए चलती हैं। राष्ट्रीय और राज्य राजमार्ग से अयोध्या जुड़ा हुआ है।

सन्दर्भ

  • Legge, James (1886): A Record of Buddhistic Kingdoms: Being an account by the Chinese Monk Fa-Hien of his travels in India and Ceylon (A.D. 399-414) in search of the Buddhist Books of Discipline. Oxford, Clarendon Press. Reprint: New York, Paragon Book Reprint Corp. 1965.
  • Thomas, F. W. (1944): “Sandanes, Nahapāna, Caṣṭana and Kaniṣka : Tung-li P’an-ch’i and Chinese Turkestan.” New Indian Antiquary VII. 1944, p. 90.
  • Watters, Thomas (1904-1905): On Yuan Chwang’s Travels in India. Thomas Watters. London. Royal Asiatic Society. Reprint: Delhi. Mushiram Manoharlal. 1973.

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियां

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