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वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर:

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अनछुआ कोना



नाराज़गी आलोक  :

ऐसे भी खरे तुम तो न थे दादो-सतद के,
करता मुलकुल- मौत तक़ाज़ा कोई दिन और ।
-ग़ालिब

    पत्रकारिता कुर्बानी माँगती है । कुर्बानी ऐशो-आराम की, नींद-चैन की, सुविधापरस्ती की । पत्रकारिता बेहद मुश्किल आज़माइश है । इसके फैले संसार में मुकम्मल कुछ नहीं होता । बस, यात्रा है- अंतहीन यात्रा । यहाँ सुरक्षा-भाव तलाशने वाले पथिकों को निराशा हाथ लगेगी । यह तो कुरुक्षेत्र है, जीत गये तो इतिहास में नाम सुरक्षित हो जायेगा, गर हारे भी तो वीरगति को प्राप्त होगे । इसलिए इस धर्मयुद्ध में जुनूनी व समर्पित योद्धाओं की ज़रूरत है ।

आज जबकि मीडिया बेज़बानों की ज़बान बने रहने के बजाय मज़बूत व ताकतवर लोगों का बयान बनकर रह गया है, वैसे में हमारे ज़ेहन में आलोक की यादें ताज़ा होना लाज़िमी है। ज़मीनी हक़ीक़ी दुनिया की पत्रकारिता के अमिट, अतुलनीय व अप्रतिम हस्ताक्षर,  हमारे बीच से असमय चले जाने वाले, सच्चे अर्थों में जनसंचार के संसार के जॉन कीट्स आलोक तोमर एक ऐसे देदीप्यमान सितारे का नाम है, जो बुझ कर भी नहीं बुझता। "सूरज हूँ, ज़िन्दगी की रमक छोड़ जाऊँगा / गर डूब भी गया, तो अपनी शफक़ छोड़ जाऊँगा।"यूँ तो आलोक जी से मेरा कभी मिलना न हुआ, पर न मिलते हुए भी उनके प्रति एक जुड़ाव-सा, एक खिंचाव-सा महसूस होता है। जिस तरह क़रीने व सलीक़े से वो लिखा करते थे, ऐसा लगता था कि इस ख़बर या आलेख को उन्होंने बख़ूबी जिया है। उनकी जीवन्त लेखन शैली का मैं हमेशा क़ायल रहा, उन्हें बड़े चाव से पढना एक तरह की अतिरिक्त ऊर्जा देता था। अपने लुभावने अंदाज़े-बयां और साफगोई के लिए याद किये जाने वाले ख़बरपालिका के सच्चे दूत और पक्षधर पत्रकारिता के प्रतीक आलोक तोमर की इस वर्ष तृतीय पुण्यतिथि पर  कॉन्सटीट्यूशन क्लब में उनकी स्मृति में आयोजित विचार गोष्ठी में "पत्रकारिता में मर्यादा"पर विशद चर्चा हुई । कार्यक्रम में अशोक वाजपेयी, राहुल देव, केे. सी. त्यागी, ओम थानवी, प्रियदर्शन, शंभुनाथ शुक्ल, राजेश बादल, संतोष भारतीय, शैलेश, राजीव मिश्र, दीपक चौरसिया, आनंद प्रधान आदि की गरिमामयी मौजूदगी थी ।

            बकौल श्री प्रकाशचंद्र भुवालपुरी, "एक पत्रकार साहित्यकार की तरह मधुव्रती बनकर जीवन के बिखरे हुए सत्य का मात्र संचयन ही नहीं करता, वरन् उसे देवर्षि नारद-सा घ्राणशील, संजय-सा दूरदृष्टिसंपन्न, अर्जुन-सा लक्ष्यनिष्ठ, एकलव्य-सा अध्यवसायी, अभिमन्यु-सा निर्भीक, परशुराम-सा साहसी, सुदामा-सा संतोषी, दधीचि-सा त्यागी, धर्मराज-सा सत्यव्रती, भीष्म-सा प्रतिबद्ध, गणेश-सा प्रतिभासमपन्न, कृष्ण-सा ज्ञानी एवं कर्मयोगी, राम-सा मर्यादावादी, कृष्ण द्वैपायन-सा प्रगतिशील और भगवान शिव-सा लोकमंगल के लिए विषपायी होना पड़ता है । ये सभा गुण किसी एक में समवेत् होकर उसे सम्मानित पत्रकार बनाते हैं और ऐसा पत्रकार अपनी पत्रकारिता को व अपने दायित्व-बोध को सामने ले आकर सामाजिक सम्मान और समादर का सच्चा अधिकारी बनता है ।"ठीक ऐसा ही जीवन आलोक ने जिया। पर अफसोस कि
न हाथ थाम सके, न पकड़ सके दामन
बड़े क़रीब से उठकर चला गया कोई ।
-मीना कुमारी

पर जाते-जाते आने वाली नस्लों को अपनी जीवन-शैली व कार्य-पद्धति से यह संदेश देते गये :

कबीरा तुम पैदा हुए, जग हसा तुम रोये
ऐसी करनी कर चलो, तुम हसो जग रोये ।

वाकई, पत्रकारिता को जिस शख्स ने महज आजीविका के लिए नहीं, अपितु समग्र जीवन-पद्धति के रूप में अपनाया हो, उनका इस तरह हमारे बीच से इतनी जल्दी जाना इस नवोदित पीढ़ी का नुकसान है । अपनी बेबाक, बेलाग, बेख़ौफ, बेलौस रिपोर्टिंग के लिए मशहूर आलोक जी ने जनसत्ता के आकर्षण व रोचकता का पर्याय बनकर यह दिखाया कि क़िस्सागोई की कला हो, तो बगैर ख़बरों के साथ खिलवाड़ किये, सूचनाओं के साथ छेड़छाड़ किये किसी भी समाचार को रोचक बनाया जा सकता है, समग्रता में परोसा जा सकता है । आज की तारीख़ में, जबकि पत्रकारिता की पसरी दुनिया में ज़बर्दस्त प्रतिस्पर्धा है, एक-दूसरे को पीछे धकेलने की होड़ लगी हुई है, परछिद्रान्वेषण की पनप रही अपसंस्कृति से भलेमानुष आजिज़ हो कर रह जाते हैं, वैसे में आलोक की अमिट पत्रकारीय विरासत हम जैसे नयी पीढ़ी के पत्रकारों; जिनकी लेखनी अभी शैशवावस्था में है, को अपनी आभा से अभिसिंचित करती मालूम पड़ती है। उनकी सृजनधर्मिता व सूक्ष्म साहित्यिक समझ हमारे अंदर की संवेदना को झिंझोरती है, चेतना को झकझोरती है।


आलोक जी की मुकम्मल शख़्सियत व उनका सम्यक् जीवन-दर्शन उनकी इन पंक्तियों में झलकता है :

मैं डरता हूँ कि मुझे डर क्यों नहीं लगता,
जैसे कोई बीमारी है अभय होना,
जैसे कोई कमज़ोरी है निरापद होना
जो निरापद होते हैं, भय व्यापता है उन्हें भी
पर भय किसी को निरापद नहीं होने देता ।


             मीडिया (प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक दोनों) में साहित्य को भी समुचित स्थान मिलना चाहिए, जो वस्तुत: वास्तविक समाज का आईना है । आखिरकार जॉन गॉल्सवर्थी के नाटक जस्टिस का मंचन देखकर ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल  एकल कारावास के कठोर व यातनापूर्ण कानून में बदलाव करने पर विवश हुए । साहित्य के इस असर को मीडिया पर्याप्त और यथोचित जगह देकर और भी उभार व प्रभावशाली बना सकता है, जिसके लिए आलोक जी ताअम्र अपने स्तर पर लगे रहे और कई बार अड़कर साहित्यिक समाचार के लिए ज़गह सुनिश्चित करा, उसके प्रकाशन की अविरल धारा बहाते रहे । टी.आर.पी. की चिंता कोई अनैतिक चिंता नहीं है । पर, पत्रकारिता का पूरी तरह व्यवसायीकरण हो जाना तो इसके मक़सद पर ही तुषारापात कर देता है । आज तो लोकप्रसारक (पब्लिक ब्रॉडकास्टर) भी जन सरोकार के मुद्दों व मसलों पर पर्याप्त बात नहीं कर रहे हैं ।  जी.बी. शॉ ने ठीक ही कहा था कि आज के समाचार पत्र (भारत के संदर्भ में टी.वी. चैनल कहना ग़लत नहीं होगा) साइकिल-दुर्घटना व सभ्यता के विघटन में पार्थक्य (फर्क़) करने में अक्षम हैं  

बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस व्यवहारकुशल व्यक्तित्व की निजी ज़िन्दगी के कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में दयानंद पाण्डेय जी के ज़रिये पता चला। पत्रकार-मानस पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का सहज आत्मिक स्नेह इन्हें मिलता रहा। 
पत्रकारिता इनके लिए महाभारत का संजय था- जो समग्रता में सच बोलने से डरता नहीं । जो स्थितप्रज्ञ है- राग-द्वेष, भेद-भाव, हानि-लाभ से परे है । वह सत्यनिष्ठ है । उसकी आस्था संस्था से है, किसी व्यक्ति- विशेष से नहीं। आज आपकी दुनियावी उपस्थिति  भले न हो, पर रूहानी मौजूदगी हमें आलोकित करती रहेगी। ये रोशनी हमेशा रहेगी। राज्यसभा सांसद के.सी. त्यागी की यह टिप्पणी कि पत्रकारिता में मूल्यों के ह्रास को लेकर आज आलोक जी के बहाने हम सार्थक-सारगर्भित चर्चा कर तो रहे हैं, अवमूल्यन के इस दौर में "राजनीति में मर्यादा"पर तो अब शायद ही कोई गोष्ठी हो; सोचने को बाध्य करती है । साथ ही, संवादपालिका से संवेदनशीलता की अपेक्षा भी करती है । पत्रकारिता में पक्षधरता के पैरोकार रहे, बड़ी ख़ूबसूरती से मसि-क्रीड़ा करने वाले सादर स्मरणीय आलोक जी के व्यक्तित्व के विविध आयामों पर उनसे गहरे जुड़े मित्रों व सुधीजनों ने अपनी यादें साझा कीं । शत-शत नमन मातृसमा आदरणीया सुप्रिया राय जी को, जो बड़ी जिजीविषा, जीवटता व जीवन्तता के साथ आलोक जी की प्रखर प्रज्ञात्मक परम्परा व कुशाग्र बौद्धिक विरासत को आगे ले जाने हेतु कृतसंकल्प हैं । भारतीय जनसंचार संस्थान, नयी दिल्ली के दो संभावनाशील व उदीयमान साथी - विवेकानंद भारत व मीना कोतवाल को आलोक तोमर छात्रवृत्ति दी गयी । उन्हें बहुत-बहुत बधाई !

श्रद्धेय अशोक वाजपेयी, राहुल देव और प्रियदर्शन जी को धैर्यपूर्वक तन्मयता से प्रमुदित होकर सुनना मेरे लिए हमेशा संजोने वाला सुखद अनुभव रहा है । कल वाजपेयी जी व राहुल जी ने अपनी बातों से अनुप्राणित कर दिया । बाद में, जनसत्ता के पूर्व सम्पादक राहुल जी ने मुझसे व्यक्तिगत बातचीत में कहा, "तुमने पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए सेंट स्टीवन'स कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर (एम. ए.), दिल्ली वि.वि. से हिन्दी में एम.ए. एवं जवाहरलाल नेहरू वि.वि. (जेएनयू) से भाषाविज्ञान (लिंग्विस्टिक्स) में एम.ए. का विकल्प छोड़ दिया, साहसी हो, हाथ मिलाओ"।

बहरहाल, भाषाई शुद्धता जो हमारी इयत्ता है, पहचान है, सबसे बड़ी शक्ति है, उसकी ओर भी इस महत्वाकांक्षी पीढ़ी को ध्यान देना होगा । मैं तो कहता हूँ भाषाओं का कोई पारस्परिक अंतर्विरोध नहीं होता । बस, हिन्दी बोलते हुए, लिखते हुए अंग्रेजी के 
अनावश्यक प्रयोग से मुझे चिढ़ होती है ।और तो और, वेतन-वृद्धि की घोषणा के बाद ख़बर आती है, 'गुरु जी मालामाल'। कार्रवाई की ख़बर में 'अफसर नपेंगे', विरोध प्रदर्शन के लिए 'छात्रों ने जमकर बवाल काटा'आदि का प्रयोग क्या दर्शाता है ? मतलब, पत्रकारिता का शब्दकोश इतना निर्धन हो गया है ? लिंग-बोध तो मानो गायब ही हो गया हो । आज पत्रकारिता की भाषा पतनोन्मुखी हो चली है । शब्द अर्थहीन हैं, भाव मरणासन्न । आज हम अपनी भाषा पर से अपना मालिकाना हक़ खोते जा रहे हैं- जो दु:खद है ।  पत्रकारिता में शब्द के अर्थ से ज़्यादा शब्द से जुड़ाव का महत्व है । चूँकि, शब्द से हम विलग रहते हैं, उसे जीते नहीं हैं, इसीलिए ' संभावना व आशंका में हम फर्क़ करने की ज़हमत नहीं उठाना चाहते । अंग्रेजीदां यदि 'प्राइड' (जो बहुधा 'वैनिटि'में बदल गयी है) छोड़ दें और हिन्दी भाषी अपनी 'प्रेज्युडिस', तो संवेदना व चेतना से युक्त पत्रकारिता की एक खूबसूरत व प्यारी दुनिया हमारी होगी । आलोक तोमर को याद करते हुए हमें भाषा, संस्कार व संस्कृति को संपुष्ट, परिष्कृत व परिमार्जित करने की भी सुध लेनी होगी । यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी । उनका जीवन इस बात की गवाही है कि पत्रकारिता जीवन के कुरुक्षेत्र में हारे हुए लोगों की आखिरी पनाहगाह नहीं है।

संचार माध्यम

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प्रस्तुति--- निम्मी नर्गिस, 



संचार माध्यम (Communication Medium) से आशय है संदेश के प्रवाह में प्रयुक्त किए जाने वाले माध्यम। संचार माध्यमों के विकास के पीछे मुख्य कारण मानव की जिज्ञासु प्रवृत्ति का होना है। वर्तमान समय में संचार माध्यम और समाज में गहरा संबन्ध एवं निकटता है। इसके द्वारा जन सामान्य की रूचि एवं हितों को स्पष्ट किया जाता है। संचार माध्यमों ने ही सूचना को सर्वसुलभ कराया है। तकनीकी विकास से संचार माध्यम भी विकसित हुए हैं तथा इससे संचार अब ग्लोबल फेनोमेनो बन गया है।
संचार माध्यम, अंग्रेजीके "मीडिया" (मिडियम का बहुवचन) से बना है, जिसका अभिप्राय होता है दो बिंदुओं को जोड़ने वाला। संचार माध्यम ही संप्रेषक और श्रोता को परस्पर जोड़ते हैं। हेराल्ड लॉसवेलके अनुसार, संचार माध्यम के मुख्य कार्य सूचना संग्रह एवं प्रसार, सूचना विश्लेषण, सामाजिक मूल्य एवं ज्ञान का संप्रेषण तथा लोगों का मनोरंजन करना है।
संचार माध्यम का प्रभाव समाज में अनादिकाल से ही रहा है। परंपरागत एवं आधुनिक संचार माध्यम समाज की विकास प्रक्रिया से ही जुड़े हुए हैं। संचार माध्यम का श्रोता अथवा लक्ष्य समूह बिखरा होता है। इसके संदेश भी अस्थिर स्वभाव वाले होते हैं। फिर संचार माध्यम ही संचार प्रक्रिया को अंजाम तक पहुँचाते हैं।

संचार

संचार शब्द अंग्रेजी के कम्युनिकेशन का हिन्दी रूपांतर है जो लैटिन शब्द कम्युनिस से बना है, जिसका अर्थ है सामान्य भागीदारी युक्त सूचना। चूंकि संचार समाज में ही घटित होता है, अत: हम समाज के परिप्रेक्ष्य से देखें तो पाते हैं कि सामाजिक संबन्धों को दिशा देने अथवा निरंतर प्रवाहमान बनाए रखने की प्रक्रिया ही संचार है। संचार समाज के आरंभ से लेकर अब तक के विकास से जुड़ा हुआ है।
परिभाषाएं-
प्रसिद्ध संचारवेत्ता डेनिस मैक्वेल के अनुसार, "एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक अर्थपूर्ण संदेशों का आदान प्रदान है।
डॉ॰ मरी के मत में, "संचार सामाजिक उपकरण का सामंजस्य है।"
लीगैन्स की शब्दों में, "निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया निरंतर अन्तक्रिया से चलती रहती है और इसमें अनुभवों की साझेदारी होती है।"
राजनीति शास्त्र विचारक लुकिव पाईके विचार में, "सामाजिक प्रक्रियाओं का विश्लेषण ही संचार है।"
इस प्रकार संचार के संबन्ध में कह सकते हैं कि इसमें समाज मुख्य केन्द्र होता है जहाँ संचार की प्रक्रिया घटित होती है। संचार की प्रक्रिया को किसी दायरे में बांधा नहीं जा सकता। फिर संचार का लक्ष्य ही होता है- सूचनात्मक, प्रेरणात्मक, शिक्षात्मक व मनोरंजनात्मक।

संचार माध्यमों की प्रकृति

भारतमें प्राचीन काल से ही संचार माध्यमों का अस्तित्व रहा है। यह अलग बात है कि उनका रूप अलग-अलग होता था। भारत में संचार सिद्धान्त काव्यपरपंरा से जुड़ा हुआ है। साधारीकरण और स्थायीभाव संचार सिद्धान्त से ही जुड़े हुए हैं। संचार मुख्य रूप से संदेश की प्रकृति पर निर्भर करता है। फिर जहाँ तक संचार माध्यमों की प्रकृति का सवाल है तो वह संचार के उपयोगकर्ता के साथ-साथ समाज से भी जुड़ा होता है। चूंकि हम यह भी पाते हैं कि संचार माध्यम समाज की भीतर की प्रक्रियाओं को ही उभारते हैं। निवर्तमान शताब्दी में भारत के संचार माध्यमों की प्रकृति व चरित्र में बदलाव भी हुए हैं लेकिन प्रेसके चरित्र में मुख्यत: तीन-चार गुणात्मक परिवर्तन दिखाई देते हैं-
पहला : शताब्दी के पूर्वाद्ध में इसका चरित्र मूलत: मिशनवादी रहा, वजह थी स्वतंत्रता आंदोलन व औपनिवेशिक शासन से मुक्ति। इसके चरित्र के निर्माण में तिलक, गांधी, माखनलाल चतुर्वेदी, विष्णु पराडकर, माधवराव सप्रे जैसे व्यक्तित्व ने योगदान किया था।
दूसरा : 15 अगस्त 1947 के बाद राष्ट्र के एजेंडे पर नई प्राथमिकताओं का उभरना। यहाँ से राष्ट्र निर्माण काल आरंभ हुआ और प्रेस भी इसके संस्कारों से प्रभावित हुआ। यह दौर दो दशक तक चला।
तीसरा : सातवें दशक से विशुद्ध व्यावसायिकता की संस्कृति आरंभ हुई। वजह थी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का विस्फोट।
चौथा : अन्तिम दो दशकों में प्रेस का आधुनिकीकरण हुआ, क्षेत्रीय प्रेस का एक `शक्ति` के रूप में उभरना और पत्र-पत्रिकाओं से संवेदनशीलता एवं दृष्टि का विलुप्त होना।
इसके इतर आज तो संचार माध्यमों की प्रकृति अस्थायी है। इसके अपने वाजिब कारण भी हैं हालांकि इसके अलावा अन्य मकसद से भी संचार माध्यम बेतुकी ख़बरें व सूचनाएं सनसनीखेज तरीके से परोसने लगे हैं।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

कथानक

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प्रस्तुति- विजय आनंद त्यागी




कथांतर्गत "कार्यव्यापार की योजना"को कथानक (Plot) कहते हैं। "कथानक"और "कथा"दोनों ही शब्द संस्कृत"कथ"धातु से उत्पन्न हैं। संस्कृत साहित्यशास्त्र में "कथा'शब्द का प्रयोग एक निश्चित काव्यरूप के अर्थ में किया जाता रहा है किंतु कथा शब्द का सामान्य अर्थ है-"वह जो कहा जाए'। यहाँ कहनेवाले के साथ-साथ सुननेवाले की उपस्थिति भी अंतर्भुक्त है कयोंकि "कहना'शब्द तभी सार्थक होता है जब उसे सुननेवाला भी कोई हो। श्रोता के अभाव में केवल "बोलने'या "बड़बड़ाने'की कल्पना की जा सकती है, "कहने'की नहीं। इसके साथ ही, वह सभी कुछ "जो कहा जाए'कथा की परिसीमाओं में नहीं सिमट पाता। अत: कथा का तात्पर्य किसी ऐसी "कथित घटना'के कहने या वर्णन करने से होता है जिसका एक निश्चित क्रम एवं परिणाम हो। ई.एम. फ़ार्स्टर (ऐस्पेक्ट्स ऑव द नावेल, लंदन, १९४९, पृ. २९) ने "घटनाओं के कालानुक्रमिक वर्णन'को कथा (स्टोरी) की संज्ञा दी है; जैसे, नाश्ते के बाद मध्याह्न का भोजन, सोमवार के बाद मंगलवार, यौवन के बाद वृद्धावस्था आदि।
इसके विपरीत कथानक (चाहे वह महाकाव्यकी हो अथवा खंडकाव्य, नाटक, उपन्यासया लोकगाथाकी हो) का वह तत्व है जो उसमें वर्णित कालक्रम से श्रृंखलित घटनाओं की धुरी बनकर उन्हें संगति देता है और कथा की समस्त घटनाएँ जिसके चारों और ताने बाने की तरह बुनी जाकर बढ़ती और विकसित होती हैं। कथा या कहानी भी साधारणत: कार्यव्यापार की योजना ही होती है, परंतु किसी एक भी कथा को कथानक नहीं कहा जा सकता; कारण, कथा की विशिष्टता केवल उसके कालानुक्रमिक वर्णन को अभिभूत कर लेती है। "नायक को नायिका से प्रेम हुआ और अंत में उसने उसका वरण कर लिया।'-कथा है। "नायक ने नायिका को देखा, वह उसपर अनुरक्त हो गया। प्राप्तिमार्ग के अनेक अवरोधों को अपने शौर्य और लगन से दूर करके, अंत में, उसने नायिका से विवाह कर लिया।'-कथानक है। अर्थात्‌ कथा किसी भी कथात्मक साहित्यिक कृति का ढाँचा मात्र होती है जबकि कथानक में तत्प्रस्तुत प्रकरणवस्तु (थीम) के अनुरूप कथा का स्वरूप स्पष्ट, संगत एवं बुद्धिग्राह्य बनकर उभरता है।
वेब्सटर (थर्ड न्यू इंटरनैशनल डिक्शनरी) के अनुसार कथानक (प्लाट) की परिभाषा इस प्रकार है-
"किसी साहित्यिक कृति (उपन्यास, नाटक, कहानी अथवा कविता) की ऐसी योजना, घटनाओं के पैटर्न अथवा मुख्य कथा को कथानक कहते हैं जिसका निर्माण उद्दिश्ट प्रसंगों की सहेतुक संयोजित श्रृंखला (स्तरक्रम) के क्रमिक उद्घाटन से किया गया हो।"
उपर्युक्त विवेचन से इस महत्वपूर्ण तथ्य का उद्घाटन होता है कि कथा को सुनते या पढ़ते समय श्रोता अथवा पाठक के मन में आगे आनेवाली घटनाओं को जानने की जिज्ञासा रहती है अर्थात्‌ वह बार-बार यही पूछता या सोचता है कि फिर क्या हुआ, जबकि कथानक में वह ये प्रश्न भी उठाता है कि "ऐसा क्यों हुआ?'"यह कैसे हुआ?'आदि। अर्थात्‌ आगे घटनेवाली घटनाओं को जानने की जिज्ञासा के साथ-साथ श्रोता अथवा पाठक घटनाओं के बीच कार्य-कारण-संबंध के प्रति भी सचेत रहता है। कथा गुहामानव की जिज्ञासा को शांत कर सकती है किंतु बुद्धिप्रवण व्यक्ति की तृप्ति कथानक के माध्यम से ही संभव है। अत: कहा जा सकता है, कथानक में समय की गति घटनावली को खोलती चलती है और इसके साथ ही उसका घटना संयोजन-विश्व के युक्तियुक्त संघटन के अनुरूप-तर्कसम्मत कार्य-कारण-अंत:संबंधों पर आधारित रहता है। इसीलिए उसमें आरंभ, मध्य और अंत, तीनों ही सुनिश्चित रहता है। "आदम हव्वा'के आदि कथानक में इन तीनों सोपानों को स्पष्ट देखा जा सकता है; यथा, निषेध (प्राहिबिशन), उल्लंघन (ट्रांसग्रेशन) तथा दंड (पनिशमेंट)।
कथानक कला का साधन है, अत: भावोत्तेजना लाने के लिए उसमें जीवन की प्रत्ययजनक यर्थातता के साथ आकस्मिकता का तत्व भी आवश्यक है। इसीलिए कथानक की घटनाएँ यथार्थ घटनाओं की यथावत्‌ अनुकृति मात्र न होकर, कला के स्वनिर्मित विधान के अनुसार संयोजित रहती हैं। कथानक देव दानव, अतिप्राकृत और अप्राकृत घटनाओं से भी निर्मित होते हैं किंतु उनका उक्त निर्माण परंपरा द्वारा स्वीकृत विधान तथा अभिप्रायों के अनुसार ही होता है। अत: अविश्वसनीय होते हुए भी वे विश्वसनीय होते हैं। कथानक की गतिशील घटनाएँ सीधी रेखा में नही चलतीं। उनमें उतार चढ़ाव आते हैं, भाग्य बदलता है, परिस्थितियाँ मनुष्य को कुछ से कुछ बना देती हैं१ अपने संगीसाथियों के साथ या बाह्य शक्तियों अर्थात्‌ अपनी परिस्थिति के विरुद्ध उसे प्राय: संघर्ष करना पड़ता है। कथानक में जीवन के इसी गतिमान संघर्षशील रूप की जीवंत अवतारणा की जाती है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

उपयोगी ब्राउजर एक्सटेंशन

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प्रस्तुति-- कृति शरण,सृष्टि शरण 

वेब ब्राऊज़रों के बारे में कुछ आरम्भिक जानकारी हम अपने पिछले लेख "कहानी ब्राऊज़रों की"में दे चुके हैं। वर्तमान में इन्टरनेट एक्सप्लोरर को छोड़कर बाकी सभी ब्राऊज़रों की क्षमतायें एक्सटेंशनों के द्वारा आश्चर्यजनक रूप से बढ़ाई जा सकती हैं। एक्सटेंशनों के मामले में फायरफौक्स सबसे आगे है और क्रोम तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। ओपेरा तथा सफारी भी ज़्यादा पीछे नहीं हैं। संख्या में बहुत ज़्यादा होने के कारण इनमें से कौन से एक्सटेंशन स्थापित करें - यह निर्णय लेना मुश्किल होता है।

आइए आज हम आपको अपने कुछ पसंदीदा एक्सटेंशनों के बारे में बताएँ-
  • गूगल ट्रांसलेटर - ब्राऊज़िंग करते हुए किसी अनजानी भाषा के जालपृष्ठ पर पहुँचने पर यह एक्सटेंशन बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। यह एक्सटेंशन पहचान लेता है कि कब कोई जालपृष्ठ हमारी मनचाही भाषा में नहीं है और उसे अनुवादित करने की सुविधा देता है। अनुमति मिलने पर जालपृष्ठ अनुवाद होकर के रीलोड हो जाता है। भले ही अनुवाद 100% सही नही होता पर कुछ नही समझ आने से बहुत बेहतर होता है।
    गूगल क्रोम में इस एक्सटेंशन की सुविधा ब्राऊज़र में ही संलग्न है।
    आय एम ट्रांसलेटरभी इसी तरह की सुविधा देने वाला एक और एक्सटेंशन है।
     
  • प्राईस ब्लिंक- जब भी हम ऑनलाईन खरीदारी करते हैं तो हमारी कोशिश रहती है कि कम से कम दाम में अच्छी चीज़ मिले। प्राईस ब्लिंक एक्सटेंशन हमारी खरीदारी को बहुत आसान कर देता है। जैसे ही हम खरीदारी करने के लिए किसी वाणिज्यिक जालपृष्ठ तक पहुँचते हैं यह एक्सटेंशन हमें एक सूची दिखाता है,जिसमें उस जालपृष्ठ पर दिखाए गए उत्पादों के पूरे विश्वजाल पर मौजूद वाणिज्यिक जालस्थलों से उपलब्ध दाम होते हैं। इन दामों की तुलना करका हम अपने पैसे और समय की बचत कर सकते हैं।
    इसी तरह की सुविधा देने वाले विंडो शॉपरतथा इनविज़िबिल हैंडदो और एक्सटेंशन हैं।
     
  • फ्लैश ब्लॉक- इन्टरनेट पर ऐनीमेशन आदि के लिए अक्सर फ्लैश नामक तकनीक का प्रयोग किया जाता है। दुर्भाग्यवश अधिकतर फ्लैश केवल विज्ञापनों या फालतू के मन भटकाव चीज़ों के लिए किया जाता है। यहीं नही डेटा में भी इसकी मात्रा जालपृष्ठ के असली लेख और चित्रों के मुकाबले काफी ज़्यादा होती है। फ्लैश ब्लॉक सभी फ्लैश सामग्री को रोक देता है। हालांकि अगर चाहो तो चुने हुए जालस्थलों पर फ्लैश चलाने की अनुमति भी दे सकते हैं। फ्लैश को रोकने से तीन फायदे होते हैं-
    १. विज्ञापन और चलायमान चित्र रुक जाने से ध्यान का भटकाव कम हो जाता है।
    २. बैंडविड्थ की बचत होती है तथा इसकी वजह से ब्राऊज़िंग तेज़ हो जाती है।
    ३. नोटबुक या लैपटॉप में बैट्री की भी बचत होती है।
     
  • ऐडब्लॉक प्लस- विश्वजाल पर विज्ञापन पैसा कमाने का प्रमुख साधन हैं। कई विज्ञापन तो बस आपको धोखा देकर अपने पर क्लिक करवाने की कोशिश करते हैं क्योंकि हर क्लिक पर विज्ञापन दिखाने वाले जालपृष्ठ को पैसा मिलता है। इसी कारण से कई जालस्थल विज्ञापनों से अटे पड़े होते हैं। एजेंसियों के माध्यम से आने के कारण अक्सर इनपर जालस्थल का कोई नियंत्रण नहीं होता और यह विज्ञापन जालपृष्ठ के विषय से इतर होने के साथ साथ आपत्तिजनक भी हो सकते हैं।
    यह एक्सटेंशन सभी जालपृष्ठों से विज्ञापन हटा देता है और उन्हें ब्राऊज़र तक पहुँचने ही नहीं देता। इसमें आप किसी विशेष एजेंसी या जालस्थल के लिये अपने नियम भी परिभाषित कर सकते हैं जिनके द्वारा विज्ञापन रोके जा सकते हैं या उनकी रोक हटाई जा सकती है।
     
  • फॉक्स टैब- ब्राऊज़िंग करते समय ढेर सारे टैब खोल लेने पर कई बार उन्हें व्यवस्थित रखना कठिन हो जाता है। फ़ॉक्स टैब टैबों को त्रि-आयामी तरीके से व्यवस्थित करने की सुविधा देता है। इसके द्वारा सब खुले टैब कई विशेष प्रभावों के साथ देखे जा सकते हैं। एक टैब से दूसरे टैब पर जाना,अपने पसंद के जालस्थलों पर जाना आदि काम इसके द्वारा अत्यन्त रोचक, सुन्दर तथा आसान तरीके से किए जा सकते हैं।
     
  • स्टाईलिश- यह एक्सटेंशन किसी भी जालस्थल का रंगरूप और स्वरूप अपने इच्छानुसार बदल लेने की सुविधा देता है। गूगल, फेसबुक, ऑरकुट, यू-ट्यूब जैसे कई प्रचलित जालस्थलों के वैकल्पिक रंगरूप और स्वरूप इस एक्सटेंशन के जालस्थल के माध्यम से उपलब्ध हैं। अगर आपको सी एस एस (CSS) का ज्ञान है तो आप अपने स्वयं के रंगरूप भी बना सकते हैं। इसके द्वारा जालस्थल के रंग, फ़ॉन्ट, और यहाँ तक कि लेख सामग्री की जगह भी बदली जा सकती है।
     
  • ऑटो पेजर- कई जालस्थलों पर लेख अनेक पृष्ठों में विभाजित होते हैं और हर पृष्ठ के अंत में "आगे"या "next"पर क्लिक करना होता है। इस तरह के जालस्थलों पर यह एक्सटेंशन बड़ा काम आता है। जब भी ब्राऊज़िंग करते वक्त हम जालपृष्ठ के अन्त में पहुँचते हैं, यह एक्सटेंशन अपने आप ही उसके आगे के जालपृष्ठ की सामग्री डाउनलोड करके हमें उसी पृष्ठ पर दिखाने लगता है। काफ़ी सारे जालस्थलों के लिये इसमें पहले से ही नियम हैं और जिन जालस्थलों के लिये नहीं हैं उनके लिये नये नियम बनाने की सुविधा भी "साईट विज़ार्ड"के माध्यम से उपलब्ध है।
     
  • वीडियो डाऊनलोड हैल्पर- यू-ट्यूब, वीमियो आदि जालस्थलों पर वीडियो देखने का आनन्द तो आता है पर वीडियो हमारे पास नहीं रह पाता। जब या जहाँ ब्रॉडबैन्ड की सुविधा ना हो या उसकी गति धीमी हो वहाँ अक्सर ये वीडियो इतना अटक-अटक कर आते हैं कि देखना लगभग असंभव हो जाता है। ऐसे में यह एक्सटेंशन बड़ा काम आता है। इसके द्वारा हम लगभग हर ऐसे वीडियो को डाऊनलोड करके रख सकते हैं और बाद में अपनी सुविधानुसार आराम से चाहे जितनी बार देख सकते हैं।

    ईज़ी यूट्यूब वीडियो डाऊनलोडरभी इसी तरह की सुविधा देने वाला एक और एक्सटेंशन है।
  • डाऊन देम ऑल- अगर आप विश्वजाल से काफ़ी वस्तुएँ डाउनलोड करते हैं, और पहले से गेटराईट या फ़्लैशगेट जैसे अनुप्रयोगों को इस्तेमाल करते हैं, तो यह एक्सटेंशन आपके काम का है। डाउनलोड करने के तरीकों और विकल्पों को यह बहुत बढ़ा देता है। इस एक्सटेंशन की कुछ प्रमुख सुविधाएँ इस प्रकार हैं:-
    १. एक डाउनलोड को कई भागों में बाँटकर सबको एक साथ डाउनलोड करना। (इस तरीके से डाउनलोड काफ़ी तेज़ी से होता है)
    २. डाउनलोड को बीच में रोक देना और बचा हुआ डाउनलोड बाद में कर लेना।
    ३. डाउनलोड के लिये प्रयोग किये गये पिछले कई फोल्डर / डायरेक्टरी को याद रखना ताकि डाउनलोड के समय आसानी से एक क्लिक में काम हो सके।
    ४. एक जालपृष्ठ पर के सभी चित्र एक बार में डाउनलोड कर लेना।
    ५. एक जालपृष्ठ पर के सभी लिंक एक बार में डाउनलोड कर लेना।
    ६. वाईल्डकार्ड तथा रेग्युलर एक्सप्रेशन के द्वारा एक बार में कई डाउनलोड करना।
     
  • एक्स मार्क्स सिंक- आप ऑफ़िस में भी विश्वजाल का प्रयोग करते हैं और घर पर भी। हो सकता है कि कई ब्राऊज़र भी प्रयोग करते हों। एक जगह अगर कोई जालस्थल अच्छा लगा तो उसे दूसरी जगह भी देखने के लिये या तो याद रखना होगा, नोट करना होगा, या ईमेल करना पड़ेगा। यह एक्सटेंशन इन सब झंझट से आपको मुक्ति दिला देता है। जहाँ पर, जिस भी ब्राऊज़र पर आप काम करते हों, वहाँ इसे लगा लीजिये और यह आपके बुकमार्क, ब्राउज़िंग इतिहास, जालस्थलों के कूटशब्द (पासवर्ड) आदि सब हर जगह एक से कर देता है। बुकमार्क एक जगह कीजिये और सब जगह इस बुकमार्क को प्रयोग कीजिये। य़ही नहीं, अगर किसी दुर्घटनावश आपके बुकमार्क खो जायें तो इसके द्वारा उन्हें वापस भी लाया जा सकता है। व्यक्तिगत गोपनीयता के प्रति सचेत लोगों को हम यह भी बता दें कि इसमें से क्या प्रबंधित होता है और क्या नहीं यह पूरी तरह आपके नियंत्रण में होता है। अगर घर और ऑफिस के लिये अलग-अलग बुकमार्क रखना चाहते हैं तो वह भी संभव है। और अगर आपको अपनी सामग्री इस एक्सटेंशन के सर्वर को भेजने में भी आपत्ति है तो आप अपना सर्वर भी प्रयोग कर सकते हैं। फ़ायरफ़ॉक्स सिंकतथा क्रोम सिंक भी कुछ ऐसा ही काम करते हैं पर एक तो ये दोनों केवल अपने ही ब्राऊज़र में काम करते हैं और दूसरे सामर्थ्य में एक्स मार्क्स इन दोनों से काफ़ी आगे है।
     
हज़ारो एक्सटेंशनों के होते हुए हमारी आपकी पसंद का एक होना लगभग असंभव ही है। आशा है कि इस लेख से हमारे पाठक एक्सटेंशनों के बारे में जानेंगे तथा उनका प्रयोग कर के लाभान्वित भी होंगे। पाठकों की इच्छा होने पर हम आगे और एक्सटेंशनों के बारे में भी लिख सकते हैं। हम यह भी चाहते हैं कि पाठक अपने पसंदीदा एक्सटेंशनों के बारे में हमें भी बताएँ।

प्रो. स्टीफन विलियम हॉकिंग

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 प्रस्तुति-- स्वामी शरण, कृति शरण


स्टीफन हॉकिंग
Stephen hawking.jpg
पूरा नामस्टीफन विलियम हॉकिंग
जन्म8 जनवरी, 1942
जन्म भूमिऑक्सफोर्ड, इंग्लैंड
पति/पत्नीजेने वाइल्ड, एलेन मेसन
भाषाअंग्रेज़ी
शिक्षाकॉस्मोलॉजी में पीएच.डी.
विद्यालयकैम्ब्रिज विश्वविद्यालय
प्रसिद्धिकैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफ़ेसर
विशेष योगदानथ्योरी ऑफ़ 'बिग-बैंग'और 'ब्लैक होल्स'की नई परिभाषा
नागरिकताब्रिटेन
पुस्तक'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑव टाइम'
अन्य जानकारीस्टीफन हॉकिंग, रॉयल सोसायटी और यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंसेज के एक सम्मानित सदस्य भी हैं।
अद्यतन‎




स्टीफन विलियम हॉकिंग (अंग्रेज़ी: Stephen William Hawking, जन्म: 8 जनवरी, 1942) एक विश्व प्रसिद्ध ब्रितानी भौतिक विज्ञानी, ब्रह्माण्ड विज्ञानी, लेखक और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में सैद्धांतिक ब्रह्मांड विज्ञान केन्द्र (Centre for Theoretical Cosmology) के शोध निर्देशक हैं। उन्हें लुकासियन प्रोफेसर ऑफ मैथेमेटिक्स भी कहा जाता है। 'कर खुदी को इतना बुलंद कि खुदा बंदे से पूछे बता तेरी रजा क्या है'यह उक्ति ब्रिटेन के ख्यात वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग पर पूरी तरह सटीक बैठती है। तभी तो नब्बे फीसदी विकलांग होने के बावजूद उनकी क्षमता का लोहा पूरी दुनिया मानती है। महान वैज्ञानिक स्टीफन विलियम हॉकिंग पर 'जितेंद्र'शब्द बिल्कुल सटीक बैठता है। क्योंकि जो मोटर न्यूरॉन डिजीज से पीड़ित होकर भी न्यूटनऔर आइंस्टाइनकी बिरादरी में शामिल हो गए हों, उनके लिए इससे माक़ूल शब्द कोई हो ही नहीं सकता। आज समाज में ऐसे कम ही लोग मिलते हैं, जिन्होंने अपनी इंद्रियों पर विजय पाई हो। असल में जो लोग इस कारनामे को कर-गुजरते हैं, वे ही सही मायने में 'जितेंद्र'कहलाते हैं। स्टीफन हॉकिंग भी ऐसे 'जितेंद्र'हैं, जिन्होंने इंद्रियों को प्रयत्न करके अपने वश में नहीं किया है, बल्कि उनकी इंद्रियां खुद-ब-खुद उनका साथ छोड़ चुकी है।

प्रारंभिक जीवन

स्टीफन विलियम हॉकिंग का जन्म 8 जनवरी, 1942को इंग्लैंडके ऑक्सफोर्ड में हुआ था। गौरतलब है कि यही वह तारीख थी, जिस दिन महान वैज्ञानिक गैलिलियोका भी जन्म हुआ था। उनके माता-पिता का घर उत्तरी लंदन में था। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान लंदनकी अपेक्षा ऑक्सफोर्ड अधिक सुरक्षित था, जिसके कारण हॉकिंग का परिवार ऑक्सफोर्ड में बस गया। जब वे आठ साल के थे तो वे उत्तरी लंदन से बीस मील दूर सेंट अलबेंस में बस गए। 11 साल की उम्र तक उन्होंने सेंट एलबेंस स्कूल में पढ़ाई की। फिर वे ऑक्सफोर्ड के यूनिवर्सिटी कॉलेज चले गए। उनकी रुचि बचपन से गणित में थी, लेकिन पिता उन्हें डॉक्टर बनाना चाहते थे। चूंकि उनके पिता खुद एक डॉक्टर थे और इसीलिए वे ऐसा चाहते थे। पर संयोगवश उनकी आगे की पढ़ाई भौतिकी विषय में हुई क्योंकि उन दिनों कॉलेज में गणित की पढ़ाई उपलब्ध नहीं थी और धीरे-धीरे इसी विषय से कॉस्मोलॉजी सेक्शन में पढ़ाई की।

जवान स्टीफन हॉकिंग

मेधावी छात्र

स्टीफन हॉकिंग एक मेधावी छात्र थे, इसलिए स्कूल और कॉलेज में हमेशा अव्वल आते रहे। तीन सालों में ही उन्हें प्रकृति विज्ञान में प्रथम श्रेणी की ऑनर्स की डिग्री मिली। जो कि उनके पिता के लिए किसी ख्वाब के पूरा होने से कम नहीं था। गणित को प्रिय विषय मानने वाले स्टीफन हॉकिंग में बड़े होकर अंतरिक्ष-विज्ञान में एक ख़ास रुचि जगी। यही वजह थी कि जब वे महज 20 वर्ष के थे, कैंब्रिज कॉस्मोलॉजी विषय में रिसर्च के लिए चुन लिए गए। ऑक्सफोर्ड में कोई भी ब्रह्मांड विज्ञान में काम नहीं कर रहा था उन्होंने इसमें शोध करने की ठानी और सीधे पहुंच गए कैम्ब्रिज। वहां उन्होंने कॉस्मोलॉजी यानी ब्रह्मांड विज्ञान में शोध किया। इसी विषय में उन्होंने पीएच.डी. भी की। अपनी पीएच.डी. करने के बाद जॉनविले और क्यूस कॉलेज के पहले रिचर्स फैलो और फिर बाद में प्रोफेशनल फैलो बने। यह उनके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। लेकिन हॉकिंग ने वही किया जो वे चाहते थे। संयुक्त परिवार में भरोसा रखने वाले हॉकिंग आज भी अपने तीन बच्चों और एक पोते के साथ रहते हैं।

स्टीफन हॉकिंग और पत्नी जेने वाइल्ड
स्टीफन के अंदर एक ग्रेट साइंटिस्ट की क्वालिटी बचपन से ही दिखाई देने लगी थी। दरअसल, किसी भी चीज़ के निर्माण और उसकी कार्य-प्रणाली को लेकर उनके अंदर तीव्र जिज्ञासा रहती थी। यही वजह थी कि जब वे स्कूल में थे, तो उनके सभी सहपाठी और टीचर उन्हें प्यार से 'आइंस्टाइन'कहकर बुलाते थे। हॉकिंग की सरलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक ओर वे सुदूर अंतरिक्ष के रहस्य सुलझाते हैं तो दूसरी ओर टीवीपर भी नजर आते हैं। ब्रिटेनके कई चैनलों ने उन्हें लेकर कई प्रोगाम बनाए हैं। सैद्धांतिक भौतिकी, अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर कार्टूनों और बच्चों की काल्पनिक और कोमल दुनिया में भी वे बड़ी आसानी से घूम आते हैं।

स्टीफन हॉकिंग की बीमारी

हॉकिंग के जज्बे को उनके चिकित्सकों से लेकर पूरी दुनिया सिर झुकाती है। हॉकिंग का शरीर भले ही उनका साथ नहीं दे पाता है लेकिन अपने दिमाग के कारण उनकी तुलना आइंस्टाइन के समतुल्य की जाती है। हॉकिंग का आईक्यू (Intelligence Quotient ) 160 है। जो कि आईक्यू का उच्चतम स्तर है। वे एक न ठीक होने वाली बीमारी यानी स्टीफ मोटर न्यूरॉन डिजीज नाम की एक ऐसी बीमारी से पीडित हैं। जिसमें मरीज़ धीरे-धीरे शरीर के किसी भी अंग पर अपना नियंत्रण खो देता है और इंसान सामान्य ढंग से बोल या चल नहीं सकता है। दरअसल, चिकित्सकों को जब इस बीमारी का पता चला, तो उन्होंने यहां तक कह डाला था कि अब स्टीफन हॉकिंग ज़्यादा दिनों तक नहीं जिंदा रह सकेंगे। लेकिन उन्होंने कभी भी अपनी बीमारी को कमज़ोरी नहीं बनने दिया। जब हॉकिंग 21 साल के थे तो उन्हें एम्योट्रोफिक लेटरल स्कलोरेसिस नाम बीमारी की वजह से लकवा मार गया था। हॉकिंग को जब यह पता चला कि वे मोटर न्यूरॉन डिजीज से पीडि़त हैं, तो उन्हें दुख ज़रूर हुआ, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। दरअसल, उन्हें यह नहीं समझ में आ रहा था कि वे शेष जीवन को कैसे और किस मकसद के साथ जीएं। ऐसे में उन्हें एक ही बात सूझी और वह कि चाहे कितनी भी बुरी परिस्थिति आए, उसे पूरी जिंदादिली के साथ जीओ। यही कारण है कि उन्होंने न केवल जेने वाइल्ड नामक अपनी प्रेमिका से शादी की, बल्कि अपनी पढ़ाई को भी आगे जारी रखा। हालांकि, यह सब करना आसानी से संभव नहीं था। क्योंकि उनके अंगों ने उनका साथ छोड़ दिया था और धीरे-धीरे उनकी जुबान भी बंद हो गई। अब वे न चल-फिर सकते थे और न ही अपनी बात को बोलकर किसी से शेयर ही कर सकते थे। अंतत: वह समय भी आया, जब डॉक्टरों ने व्हील-चेयर के सहारे शेष जीवन गुजारने की सलाह दे दी।

स्टीफन हॉकिंग का व्हील-चेयर


स्टीफन हॉकिंग- व्हीलचेयर पर
हालांकि यह कोई सामान्य व्हीलचेयर नहीं है, बल्कि इसमें वे सारे इक्विपमेंट्स लगे हुए हैं, जिनके माध्यम से वे विज्ञान के अनसुलझे रहस्यों के बारे में दुनिया को बता सकते हैं। उनकी व्हील चेयर के साथ एक विशेष कम्प्यूटरऔर स्पीच सिंथेसाइजर लगा हुआ है। जिसके सहारे वे पूरी दुनिया से बात करते हैं। हॉकिंग का सिस्टम इंफ्रारेड ब्लिंक स्विच से जुड़ा हुआ है। जो उनके चश्मे में लगाया गया है। इसी के माध्यम से वे बोलते हैं। इसके अलावा उनके घर और ऑफिस के गेट रेडियो ट्रांसमिशन से जुड़ा हुआ है। हॉकिंग का जज़्बा ऎसा है कि वे पिछले कई दशकों से अपनी व्हील चेयर पर बैठे-बैठे अंतरिक्ष विज्ञान की जटिल पहेलियों और रहस्यों को सुलझा रहे हैं। इसमें वे काफ़ी हद तक सफल भी रहे। ब्लैक होल को लेकर हॉकिंग की थ्योरी बड़ी मजेदार है। इसमें हॉकिंग ने कहा है कि ब्रह्मांडमें ब्लैक होल का अस्तित्व तो है लेकिन वे हमेशा काले नहीं होते। इसका मतलब यह है कि ब्लैक होल में अनिवार्य रूप से गुम हो जाने वाली ऊर्जाऔर समस्त द्रव्यमान उनसे नई ऊर्जा के रूप में प्रस्फुटित होते रहते हैं। विख्यात भौतिकविद आइंसटाइन की एक टिप्पणी पर वे कमेंट करते हुए कहते हैं कि ईश्वर न सिर्फ बखूबी जुआ खेलता है बल्कि उसके फेंके गए पासे ऐसी जगह गिरते हैं जहां वे हमें दिखते नहीं हैं। हॉकिंग दुनिया के लिए कितने महत्त्वपूर्ण हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वे जब भी कुछ बोलते या लिखते हैं तो दुनिया भर की मीडिया की नजर में छा जाते हैं।

स्टीफन हॉकिंग एक महान वैज्ञानिक

दरअसल, जिस क्षेत्र में योगदान के लिए स्टीफन हॉकिंग को याद किया जाता है, वह कॉस्मोलॉजी ही है। कॉस्मोलॉजी, जिसके अंतर्गत ब्रह्मांड की उत्पत्ति, संरचना और स्पेस-टाइम रिलेशनशिप के बारे में अध्ययन किया जाता है। और इसीलिए उन्हें कॉस्मोलॉजी का विशेषज्ञ माना जाता है, जिसकी बदौलत वे थ्योरी ऑफ 'बिग-बैंग'और 'ब्लैक होल्स'की नई परिभाषा गढ़ पाने में कामयाब हो सके हैं। स्टीफन की चर्चित किताब- ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑव टाइम आज भी दुनिया की सबसे अमूल्य पुस्तकों में से एक है। उल्लेखनीय है कि उनके योगदानों के कारण उन्हें अब तक लगभग बारह सम्मानित पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। इसके अलावा, वे रॉयल सोसायटी और यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज के एक सम्मानित सदस्य भी हैं।




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शोध


टीका टिप्पणी और संदर्भ



बाहरी कड़ियाँ

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Journalists may soon become judges of top courts

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प्रस्तुति--स्वामी शरण, राहुल मानव



The Times of India
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Stories in Mocktale are works of fiction intended to bring a smile to your face. They bear no connection to events and characters in real life.

Journalists may soon become judges of top courts
Statue of Justice (Thinkstock Photos/ Getty Images)
Impressed with the speed at which journalists pronounce someone guilty, top jurists of the country are demanding that scribes be made judges at the apex and high courts. With the glaring examples of Badaun and Rohtak, the jurists believe this move will turn every court into a fast-track court.

"Both TV and print journalists have been doing an amazing job by pronouncing verdicts within hours of a case being reported. This hasn't happened before in the history of India," quipped senior lawyer Nam Rasmalani. "They were faster than lightning in pronouncing the three youths as molesters in the recent Rohtak incident. I support the move to name reputed journalists to the highest court of the country so that justice can be doled out impromptu," Rasmalani noted.

If the move succeeds, there will be no 'tahreek-pe-tahreek' said a member of the judiciary, quoting the immortal lines of Bollywood star Sunny Deol delivered as an on-screen lawyer. "Instant justice hoga aab. Very similar to what is delivered by our encounter specialists," she added. "This is indeed the silver bullet to tackle the issue of piling up of cases," she added.

Members of the media have welcomed the suggestion with open arms, which will soon become longer as they become law unto themselves.

"Judicial processes are so slow and boring. We will bring a revolution to the whole process with our specialisation of making anything sensational," said senior news anchor Barca That. "Whatever it is, I can assure you we won't lie law," said That.

Journalists, however, claimed they are prepared for the new role. "With experience of passing verdicts at prime time every night the country couldn't have found a better judge than me," asserted Orny Gosueme, adding "The nation wants to know why we weren't considered for the role earlier?"

"With Gosueme in the judge's high chair, lawyers would hardly get the chance to argue their case and it would save time. The verdict would be pre-decided and the pronouncement would take no time at all," said renowned public prosecutor Sonu Nikam. "Gosueme judgmental about everything," he quipped

Nikam said journalists are used to media trials and should be appointed judges. He pointed out the speed with which the media reached the conclusion that the Yadav brothers raped and murdered the two sisters in Badaun.

When Mocktale asked That what amicus curiae was, she said with her trademark I-know-it-all expression, "Amicus Curiae is the famous brother of Madam Curie."

....... .हाजिर हो / अनामी शरण बबल -1

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 07 दिसंबर-2014



कोई नया मानक तय कीजिए मोदी साहब

 

केवल ऐलाने जंग करने से मैदान फतह करना नामुमकिन है। हमारे पीएम साहब ने छह माह में घोषणाओं की झडी लगा दी। काम में मुस्तैदी की कवायद इतनी तेज और सोशल मीडिया के बूते इतनी भारी पब्लिसिटी करा दी कि अमरीरी राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर टाईम्स मैग्जीन तक हमारे प्रधानमंत्री के मुरीद होकर हर जगह तारीफों के पुल बांध रहे है। काम को अंजाम देने से पहले केवल रूपरेखा से ही सारा इंडिया अभी तक अभिभूत है। अपनी दंबगई वाली कडक छवि को इस तरह ब्रांडेड कि हर कोई मोदी  से खौफजदा भी है । मगर पीएम साहब के काम पर इनके ही संगी साथी गोबर लगाने से बाज नहीं आ रहे। साध्वी निरंजना की करतूत ने तो तमाम रामललाओं की नीयत जुबान और आचरण पर ही सवाल खडा कर दिए है। पिछले एक सप्ताह से संसद में शोर बरपा है और औपचारिक तौर पर  पीएम भी बंदी का तमाशा देख रहे है। यही एक समय है जब तमाम बंधन, लाचारियों  और लाग लपेट को तिलांजलि देकर पीएम को एक नया मानक बनाना होगा। अन्यथा सामूहिक टीम के काम काज को एकाध की गलती से भी टीम लीडर की अगुवाई पर सवाल खडा होने लगता है। विपक्ष श्रेय ले या न ले पर पीएम को एक मानक दिखाना होगा कि वे औरो से कहीं ज्यादा साहसी और लीक से अलग चलने वाले है ।

 

साध्वी को जाने से कोई रोक नहीं सकता

 

यह लगभग तय है कि संसद में हंगामे की समाप्ति के बाद साध्वी निरंजना ज्योति को मंत्रीमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। संसद में भले ही पार्टी अभीतक बचाव में खड़ी है, मगर अंदरखाते साध्वी का हरस्तर पर इतना लानत मलानत हो रहा है कि वे शायद शुद से आहत होंगी। बस इंतजार किया जा रहा है कि किसी तरह संसद का हंगामा शांत हो और एक झटके से साध्वी को उनके आश्रम में वापस भेज दिया जाए। पीएम साहब तो ज्योति को कभी भी निकाल बाहर कर सकते है  मगर विपक्ष को इसका श्रेय न चला जाए बस इसी लाचारी से वे रुके हुए है । विपक्ष भी मोदी की खामोशी के अर्थ को जान रही है। अब देखना यही है कि मोदी अंतत कब तक अपनी लानत मलानत करवाते रह पाते है ।  एक ईमानदार मुख्य सर्तकता अधिकारी को एक ही झटके में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्द्धन द्वारा एम्स से हटाना काफी भारी पडा कि मंत्रीमंडल विस्तार में डा. हर्षवर्द्धन को मंत्रालय से ही झटक दिया गया, मगर रामजादों की दुहाई    देने वाली ज्योति को  मामला शांत होते ही या कभी भी बेआबरू करके भूतपूर्व मंत्री में ही संतोष करना पडेगा।

 

 

देशी छवि बेहतर करिए मोदी जी

 

प्रधानमंत्री जी आपने केवल छह माह में वो कर दिखाया जो दूसरे पीएम 10-10 साल में भी नहीं कर सके। एक मौन पीएम को बर्दाश्त करता यह देश सरकार के गूंगेपन से लाचार हो गया था, मगर सचतो यह है कि केवल स्वीट सिक्सर मंथ में ही अपनी या देश की जनता इन वादो घोषणाओं और बहुरंगी सपनों के मायाजाल से बाहर हकीकत में रहना चाहता है। केवल सीसीटीवी लगाकर सोते हुए मंत्रियों को पकड़ कर या मंत्री से ज्यादा नौकरशाहों को ताकत देकर  या 100 दिन के कामकाज के मूल्यांकन के आधार पर अपने मंत्रियों को हिदायत देने से पब्लिक फूलने वाली नहीं है। कोई मंत्री खेल यूनीवर्सिटी को ही सात बहनों वाले इलाके में ले जाना चाह रहा है तो कोई मंत्री दिल्ली के स्टेडियम को ही अपने मंत्रालय को लाने की कवायद आरंभ कर दी है। कोई नेता बदजुबान होकर भी मंत्री बन रहा है तो कोई बदजुबानी के चलते पद गंवाने वाला है । अपने सारथियों को ठीक किए बगैर देश को सुधारना नामुमकिन है । पहले अपनों को सुधार पाठ से लैस करे तभी देश भर में जादू चलेगा अन्यथा ये पब्लिक है सब जानती है। जय जयकार करने वाली यही पब्लिक पलक झपकते ही मुर्दाबाद भी करने लगती है।

 

राहुल बाबा जिंदाबाद

 

साध्वी निरंजना ज्योति के नाम पर भले ही भाजपा अभी शर्मसार हो रही हो , मगर कांग्रेस में उत्सव का माहौल है। इसी बहाने लंबे समय से गुमनाम से रह रहे अपन राहुल बाबा को सक्रिय होने का सुनहरा मौका जो मिल गया। एकदम इस मुद्दे को पूरी तरह .भुनाने के में तत्पर बाबा भी कभी काली पट्टी बांधकर तो कभी महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने धरना देकर मीडिया की खूब सुर्खियां बटोरी। संसद में भी वे इतने एक्टिव रहे और दिखे कि कांग्रेस के ज्यादातर कांग्रेसी सांसद भी भौचक्क होकर खासे उत्साहित हो गए। यानी कांग्रेसी भले ही हंगामा कर रहे हो ,मगर मन ही मन में साध्वी के प्रति आभारी से है कि चलो अपनी बुद्धि विवेक से ज्योति साध्वी ने बैठे ठाले एक मौका देकर कांग्रेस को रिचार्ज कर दी ।

 

पहले क्या देवालय  या शौचालय  ? 

 

प्रधानमंत्री चाहे जितने भी सख्त और समयानुसार काम करने वाले रहे हो, मगर इनको भी एक नहीं एक हजार समस्याओं से रोजाना साबका पड रहा है। मजे की बात है कि ज्यादातर समस्याएं अपने ही लोग खडे कर रहे है या यूं कहे कि उठा रहे है। अभी घरेलू समस्याओं को पीएम साहब पूरी तरह बूझ भी नहीं पाए है कि राम भक्तों नें मंदिर निर्माण का फिर से बिगूल फूंकना चालू कर दिया है।. शौचालय अभियान अभी परवान भी नहीं चढा है कि राम भक्तों ने मोदी के सारे काम काज पर गोबर डाल रहे है। मगर देखना यही होगा कि सफाई क्रांति और  शौचालय क्रांति जैसे पीएम क्या अपने सार्थक काम को व्यर्थ होते देखकर भी मौन रहेंगे या राम ललाओं से निपटने का कोई रामनुमा प्रयास करेंग। बहरहाल यह मोदी के लिए एक अल्टीमेटम तो है ही  

 

लालू मुलायम परिणय बंधन

 

लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव भारतीय राजनीति में केवल दो यादव नेता भर नहीं बल्कि दो पावर स्टेशन की तरह रहे है। दोनों में ज्यादा पावरफूल कौन या किसकी कमीज ज्यादा सफेद की लडाई सदैव होती रही। यही कारण था कि दोनों में एक दूसरे को नीचा दिखाने के किसी भी मौके को कोई नहीं चूका।. लालू के स्पोर्ट से हो सकता था कि मुलायम देश के भूतपूर्व पीएम की तरह भी आज होते। मगर भला हो कि तमाम कड़वाहटों और खट्टी मीठी यादों को भूलाकर दोनों यादव पावर स्टेशन अब हमेशा हमेशा के लिए एक होने जा रहे है। जितनी उदारता के साथ लालू ने अपनी बेटी के रिश्ते की बात नेताजी से की होगी, तो दो कदम और आगे बढ़कर नेताजी ने भी इसे स्वीकारते हुए लालू के प्रति अपने प्रेम और सौहार्द  का एक आदर्श पेश किया।. हालांकि कहने को तो लालू राबडी की सातवी या यों कहें कि आखिरी बेटी राजलक्ष्मी की शादी तेजप्रकाश से हो रही है मगर सही मायने में यह लालू मुलायम परिणय बंधन है। चारा कांड के चलते लालू के तमाम सपनों पर ग्रहण लग गया है, लिहाजा लालू अब नेताजी के लिए बेहतर कम्यूनिकेटर हो सकते है, और ऊंट भले ही पहाड़ के नीचे आ गया हो मगर नेताजी के लिए जान देने में लालू किसी से कम कभी साबित नहीं होगे। लालू का दंभ भले ही देर से टूटा नहीं तो नेताजी का मुख्यमंत्री बेटा ही कभी इनका अपना दामाद हो सकता था। बीत गयी सो बात गयी की कहावत को चरितार्थ करते हुए लालू मुलायम का यह मंगल मिलन को ही प्रेम की एक मिठास भरी पारी की तरह देखा जाना चाहिए। .

 

अरूण जेटली कर रहे है मनाने की मुहिम  

 

क्रिकेट नेता के रूप में भी मशहूर देश के वित मंत्री देश की अर्थव्यवस्था के साथ साथ बीसीसीआई की सेहत पर भी खासे चिंचित है। बीसीसीआई के अध्यक्ष पद से अदालती आदेश पर हटाए गए श्रीनिवासन की किस्मत का फैसला कोर्ट चाहे जो करे मगर उनको मनाने और पर्दे के पीछे से उनकी हैसियत को बरकरार ऱखने की अघोषित शर्ते पर राजीखुशी से मान मनौव्वल का खेल चालू है.। मैदानी क्रिकेट से बाहर टेबुल क्रिकेट के इस पावर गेम में निवर्तमान श्रीनि को राजी खुशी ससम्मान बीसीसीआई से अलग होने या कराने की स्क्रिप्ट को फाइनल किया जा रहा है। इस पटकथा के लेखक वित मंत्री साहब क्रिकेट की सेहत को बचाने के लिए आतुर है। अगर वे वित मंत्री नहीं होते तो उनके लिए इससे सुनहरा मौका नहीं होता,मगर एनसीपी सुप्रीमो  के बीमार होने से एक और उम्मीदवारी कम हो गया है। बीजेपी सुप्रीमो अमित शाह के पाल भी क्रिकेट कमान थामने का मौका था मगप पार्टी के सामने यह पद बौना है। कांग्रेसी होने के बाद भी सबों के आंखों के राज दुलारे भूतपूर्व पत्रकार राजीव शुक्ला भी अलग पार्टी के हो मगर वित्त मंत्री के निर्देशों पर वे खासे एक्टिव भी है । देखना यही है कि बीसीसीआई के राजनीतिकरण  का अगला हीरो कौन बनता है।  

 

.........और अंत में मुंगेरीलाल बनाम अरविंद केजरीवाल के हसीन सपने

 

बिल्ली के भाग्य से झीका टूटा की तर्ज पर दिल्ली की सत्ता पर 49 दिनों के लिए काबिज होने  वाले श्रीमान अरविंद केजरीवाल एक अजीब नेता है। इवकी कथनी और करनी में अंतर ही अंतर है। दिल्ली के लिए कुछ किया हो न किया हो मगर ड्रामा इतना कर दिया और कर रहे है कि एक झूठ को सौ बार कहकर सच का शक्ल करके  ही मानेंगे। दिल्ली चुनाव में इस बार चुनावी फसल अपने बयानों को ही प्रचारित कर रहे है।  जो कहा सो किया के नारे को बुलंद करते हुए आम पार्टी को खास ए आम बना दिया। लोकसभा चुनाव में आम को दरकिनार करके खासोआम को हवाईजहाज से बुला बुलाकर टिकट दिया.। मगर अब  लंच के नाम पर पैसा बटोरते हुए केजरीवाल तमाम नेतों को मानो मुंह चिढा रहे हो कि मेरे साथ तो लंच करने के लिए लाखों खर्चने वाले भी है। कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा के हवाई टिकट के अपग्रेडेशन पर चीखने वाले केजरीवाल जब बिजनेस क्लास में यात्रा करते हुए पाए गए तो बेचारे एके की सफाई पर मन अभिभूत सा हो गया।  उनके मन में एक -एक भारतीयों को इसी क्लास में हवाई सफर कराने का सपना है। वाह एके भईया अपन देश धन्य है कि इसके नेता लोग दाल रोटी नहीं अब हवाई यात्रा कराने के हवाई सपने देख और बेचने लगे है जी यह है मुंगेरीलाल केजरावाल का यह सपना कि जब होगा मेरे बाप के पास हवाई जहाज अपना तभी कर सकेंगे इंडियन बिजनेस क्लास में सफर कर पूरा मेरा सपना।  आम पार्टी के बाप  एके के सपने को सलाम  

 

 

 

 

 

      

 

 

 

 


 

 

नोबेल पुरस्कार क्या है

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प्रस्तुति-- कृति शरण , सृष्टि शरण

नोबेल पुरस्कार
वर्णन
उत्कृष्ट योगदान के लिए शांति, साहित्य, भौतिकी, रसायन, चिकित्सा विज्ञान और अर्थशास्त्र
प्रदानकर्ता
स्वीडिश एकेडमी
नोबेल समितिकी शाही स्वीडिश एकेडमी
नोबेल समितिकी कारोलिन्स्का संस्थान
नोरवेगियन नोबेल समिति
देश
स्वीडन
नार्वे (
शान्ति पुरस्कार मात्र)
प्रथम सम्मानित
१९०१
अधिकृत वेबसाईट
नोबेल फाउंडेशनद्वारा स्वीडनके वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबेलकी याद में वर्ष १९०१मे शुरू किया गया यह शांति, साहित्य, भौतिकी, रसायन, चिकित्सा विज्ञान और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में विश्व का सर्वोच्च पुरस्कार है। इस पुरस्कार के रूप में प्रशस्ति-पत्र के साथ 14 लाख डालर की राशि प्रदान की जाती है। अल्फ्रेड नोबेल ने कुल ३५५ आविष्कार किए जिनमें १८६७में किया गया डायनामाइटका आविष्कार भी था। नोबेल को डायनामाइट तथा इस तरह के विज्ञान के अनेक आविष्कारों की विध्वंसक शक्ति की बखूबी समझ थी। साथ ही विकास के लिए निरंतर नए अनुसंधान की जरूरत का भी भरपूर अहसास था। दिसंबर १८९६में मृत्यु के पूर्व अपनी विपुल संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने एक ट्रस्ट के लिए सुरक्षित रख दिया। उनकी इच्छा थी कि इस पैसे के ब्याज से हर साल उन लोगों को सम्मानित किया जाए जिनका काम मानव जाति के लिए सबसे कल्याणकारी पाया जाए। स्वीडिश बैंकमें जमा इसी राशि के ब्याज से नोबेल फाउँडेशन द्वारा हर वर्ष शांति,साहित्य, भौतिकी, रसायन, चिकित्सा विज्ञान और अर्थशास्त्र में सर्वोत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाता है। नोबेल फ़ाउंडेशन की स्थापना २९ जून१९००को हुई तथा 1901 से नोबेल पुरस्कार दिया जाने लगा। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार की शुरुआत 1968से की गई। पहला नोबेल शांति पुरस्कार १९०१ में रेड क्रॉसके संस्थापक ज्यां हैरी दुनांतऔर फ़्रेंच पीस सोसाइटीके संस्थापक अध्यक्ष फ्रेडरिक पैसीको संयुक्त रूप से दिया गया।
अल्फ्रेड नोबेल
अनुक्रम
नोबेल फाउंडेशन
नोबेल फाउंडेशन का प्रारम्भ २९ जून १९०० में हुआ। इसका उद्देश्य नोबेल पुरस्कारों का आर्थिक रूप से संचालन करना है। नोबेल के वसीहतनामे के अनुसार उनकी ९४% से ज्यादा वसीहत के मलिक वो लोग है जिन्होने मानव जाति के लिए विभिन्न क्षेत्रों में उत्तम कार्य किया है। इसलिए प्रत्येक वर्ष उस वसीहत की ब्याज की राशि उन लोगो को ईनाम के रूप मे दी जाती है। नोबेल फाउंडेशन मे ५ लोगों की टीम है जिसका मुखिया स्वीडन की किंग ऑफ काउन्सिल द्वारा तय किया जाता है अन्य चार सदस्य पुरस्कार वितरक संस्थान के न्यासी (ट्रस्टियों) द्वारा तय किए जाते हैं। स्टॉकहोम में नोबेल पुरस्कार सम्मान समारोह का मुख्य आकर्षण यह होता है कि सम्मानप्राप्त व्यक्ति स्वीडन के राजा के हाथों पुरस्कार प्राप्त करते है।
२०१० में प्रदान किए गए नोबेल पुरस्कार
  • चिकित्सा- रॉबर्ट एडवर्ड (ब्रिटेन), को इन विट्रो फ़र्टिलाइज़ेशन (आईवीएफ़) तकनीक का विकास करने के लिये, जिससे टेस्ट ट्यूब बेबी संभव हुई
  • भौतिकी- आंद्रे गिएम और काँस्टेंटीन नोवोसेलॉफ़ (दोनों दोनों इंगलैंड के मैंचैस्टर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक) को ग्रेफ़ीन पर किए गए शोध के लिए
  • रसायन- रिच्हर्द फ हेक, इ-इच्हि नेगिशि, अकिर सुजुकि।
  • साहित्य- मारियो वर्गास लियोसा (पेरू के साहित्यकार) को
  • शांति- लू श्याबाओ (चीन के मानवाधिकार कार्यकर्ता)
  • अर्थशास्त्र- अमरीका के पीटर डायमंड और डेल मॉर्टेंसन के अलावा ब्रिटेन के क्रिस्टोफ़र पिसारिदेस को बेरोज़गारी, रोज़गार के अवसर और वेतन पर सरकारी नीतियों के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए
साहित्य का नोबेल पाने वाले आज तक के सबसे कम उम्र के साहित्यिक रूडयार्ड किपलिंग रहे है। वर्ष 1907 में जब उन्हें जंगल बुकके लिए नोबेल सम्मान मिला तब वह केवल 42 वर्ष के थे।
२००९ में प्रदान किए गए नोबेल पुरस्कार
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बाहरी कडियाँ


नोबेल पुरस्कार

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
लेख (प्रतीक्षित)
नोबेल पुरस्कार
विवरण
नोबेल फाउंडेशन द्वारा स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबेल की स्मृतिमें शांति, साहित्य, भौतिकी, रसायन, चिकित्सा विज्ञान और अर्थशास्त्र केक्षेत्र में दिया जाने वाला विश्व का सर्वोच्च पुरस्कार है।
स्थापना
वर्ष1901
घोषणा एवं पुरस्कार वितरण
पुरस्कार के लिए बनी समिति और चयनकर्ता प्रत्येक वर्षअक्टूबरमें नोबेल पुरस्कार विजेताओं की घोषणा करते हैं लेकिन पुरस्कारों का वितरण अल्फ्रेड नोबेल की पुण्य तिथि10 दिसम्बरको किया जाता है।
सम्मानित भारतीय
अब तक कुल नौ भारतीय नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए हैं।
अन्य जानकारी
अर्थशास्त्रके लिए पुरस्कार स्वेरिजेश रिक्स बैंक, स्वीडिश बैंक द्वारा अपनी 300वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में1967में आरम्भ किया गया और इसे1969में पहली बार प्रदान किया गया। इसे अर्थशास्त्र में 'नोबेल स्मृति पुरस्कार'भी कहा जाता है।
अद्यतन
18:42, 11 अक्टूबर 2014 (IST)
नोबेल पुरस्कारनोबेल फाउंडेशन द्वारा स्वीडन के वैज्ञानिकअल्फ्रेड नोबेल की स्मृति में शांति, साहित्य, भौतिकी, रसायन, चिकित्साविज्ञान और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में दिया जाने वाला विश्व का सर्वोच्चपुरस्कार है। नोबेल फाउंडेशन का प्रारम्भ29 जून, 1900में हुआ। इसका उद्देश्य नोबेल पुरस्कारों का आर्थिक रूप से संचालन करनाहै। नोबेल के वसीहतनामे के अनुसार उनकी 94% से ज़्यादा वसीहत के मलिक वोलोग है जिन्होंने मानव जाति के लिए विभिन्न क्षेत्रों में उत्तम कार्य कियाहै।

स्थापना

नोबेल पुरस्कार की स्थापना स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ्रेड बर्नाड (बर्नहार्ड) नोबेल ने 1901 ई. में की थी। अल्फ्रेड बर्नाड (बर्नहार्ड)नोबेल का जन्म 1833 ई. में स्वीडन के शहर स्टॉकहोम में हुआ था। 9 वर्ष कीआयु में वे अपने परिवार के साथ रूस चले गये। अल्फ्रेड नोबेल एक अविवाहितस्वीडिश वैज्ञानिक और केमिकल इंजीनियर थे जिसने 1866 ई. में डाइनामाइट कीखोज की। स्वीडिश लोगों को 1896 में उनकी मृत्यु के बाद ही पुरस्कारों केबारे में पता चला, जब उन्होंने उनकी वसीयत पढ़ी, जिसमें उन्होंने अपने धनसे मिलने वाली सारी वार्षिक आय पुरस्कारों की मदद करने में दान कर दी थी।अपनी वसीयत में उन्होंने आदेश दिया था कि "सबसे योग्य व्यक्ति चाहे वहस्केडीनेवियन हो या ना हो पुरस्कार प्राप्त करेगा।"उनके द्वारा छोड़े गयेधन पर मिलने वाला ब्याज उन व्यक्तियों के बीच वार्षिक रूप से बाँटा जाताहै, जिन्होंने विज्ञान, साहित्य, शांति और अर्थशास्त्र के क्षेत्र मेंउत्कृष्ट योगदान दिया है। विश्व के सबसे अधिक गौरवशाली पुरस्कार को 'नोबेलफाउंडेशन'द्वारा मदद प्रदान की जाती है।

मुख्य बिंदु

  • पहले नोबेल पुरस्कार पाँच विषयों में कार्य करने के लिए दिए जातेथे। अर्थशास्त्र के लिए पुरस्कार स्वेरिजेश रिक्स बैंक, स्वीडिश बैंकद्वारा अपनी 300वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में 1967 में आरम्भ किया गया औरइसे 1969 में पहली बार प्रदान किया गया। इसे अर्थशास्त्र में नोबेल स्मृतिपुरस्कार भी कहा जाता है।
  • पुरस्कार के लिए बनी समिति और चयनकर्ता प्रत्येक वर्षअक्टूबरमें नोबेल पुरस्कार विजेताओं की घोषणा करते हैं लेकिन पुरस्कारों का वितरण अल्फ्रेड नोबेल की पुण्य तिथि10 दिसम्बरको किया जाता है।
  • प्रत्येक पुरस्कार में एक वर्ष में अधिकतम तीन लोगों को पुरस्कारदिया जा सकता है। इनमें से प्रत्येक विजेता को एक स्वर्ण पदक, डिप्लोमा, स्वीडिश नागरिकता में एक्सटेंशन और धन दिया जाता है।
  • अगर एक पुरस्कार में दो विजेता हैं, तो धनराशि दोनों में समान रूपसे बांट दी जाती है। पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं की संख्या अगर तीन है तो चयनसमिति के पास यह अधिकार होता है कि वह धनराशि तीन में बराबर बाँट दे या एकको आधा दे दे और बाकी दो को बचा धन बराबर बाँट दे।
  • अब तक केवल दो बार मृत व्यकियों को यह पुरस्कार दिया गया है। पहलीबार एरिएक्सेल कार्लफल्डट को 1931 में और दूसरी बार संयुक्त राष्ट्रसंघ केमहासचिव डैग डैमरसोल्ड को 1961ई. में दिया गया था।
  • 1974 में नियम बना दिया गया कि मरणोपरांत किसी को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जाएगा।
  • पुरस्कार वितरण 1901 से प्रारंभ किया गया था। 1969 से यह पुरस्कारअर्थशास्त्रक्षेत्र में भी दिया जाने लगा।
  • 1937 से लेकर 1948 ई. तकगाँधी जीको पाँच बार शांति पुरस्कारों के लिए नामित किया गया पर एक बार भी उन्हें इस पुरस्कार के लिए नहीं चुना गया।

नोबेल पुरस्कार प्राप्त भारतीय

क्रम
नाम
वर्ष
क्षेत्र
चित्र
1.
1913
साहित्य
2.
1930
भौतिकी
3.
1979
शांति
4.
1983
भौतिकी
5.
1998
अर्थशास्त्र
6.
1968
विज्ञान

7.
राजेन्द्र कुमार पचौरी
2007
शांति

8.
वेंकटरामन रामकृष्णन
2009
रसायन

9.
2014
शांति

समाचार

10 अक्टूबर, 2014, शुक्रवार

भारत के कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार

वर्ष2014में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप सेभारतऔरपाकिस्तानकी झोली में गया। इस पुरस्कार के लिए भारत में बाल अधिकारों के लिए कार्यकरने वाले कैलाश सत्यार्थी और लड़कियों की पढ़ाई के लिए संघर्ष करने वालीपाकिस्तान की मलाला यूसुफजई को चुना गया है। नोबेल पुरस्कार समिति ने10 अक्टूबर, 2014शुक्रवारको दोनों के नामों की घोषणा की। राष्ट्रपतिप्रणब मुखर्जीऔर प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदीसमेत कई गणमान्य लोगों ने सत्यार्थी को पुरस्कार के लिए बधाई दी है। पुरस्कार10 दिसंबर, 2014को दिया जाएगा। पुरस्कार के रूप में 11 लाख डॉलर (करीब 6 करोड़ 74 लाख रुपये) दिए जाएंगे।कैलाश सत्यार्थीभारतमें एक गैर सरकारी संगठन (बचपन बचाओ आंदोलन) का संचालन करते हैं। यह एनजीओबाल श्रम और बाल तस्करी में फंसे बच्चों को मुक्त कराने की दिशा में कार्यकरता है। नोबेल पुरस्कारों की ज्यूरी ने कहा, "नार्वे की नोबेल कमेटी नेबच्चों और युवाओं पर दबाव के विरुद्ध और सभी बच्चों को शिक्षा मुहैया करानेके लिए किए गए संघर्षों को देखते हुए कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई को 2014 का नोबेल शांति पुरस्कार देने का फैसला किया है।"नोबेल कमेटी ने कहाकि "बचपन बचाओ आंदोलन"नामक एनजीओ चलाने वाले सत्यार्थी नेगांधी जीकी परंपरा को कायम रखा है और वित्तीय लाभ के लिए बच्चों के शोषण केख़िलाफ़ कई शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों की अगुआई की है। कैलाश सत्यार्थीइंटरनेशनल सेंटर ऑन चाइल्ड लेबर औरयूनेस्कोसे जुड़े रहे हैं। शांति के नोबेल पुरस्कार के 278 दावेदार थे जिनमें पोपफ्रांसिस, बान की मून, एडवर्ड स्नोडेन, कांगो के डॉक्टर डेनिस मुक्वेग, उरुग्वे के राष्ट्रपति जोस मोजिस जैसे बड़े नाम शामिल थे।

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..........हाजिर हो / अनामी शरण बबल -2

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 13 दिसंबर-2014

 

 लालूजी का मजाक

अपन बिहार के भूत मुख्यमंत्री और भूत रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव उर्फ लालू भईया भी बड़े मजाकिया है। इनकी वाणी से हास्य रस का प्रवाह हर समय होते रहता है। भले ही चारा से बेचारा होकर पोलिटिकल लीला मैदान के लिए आवारा हो गए हो, मगर हास्यरस प्रवाहित करने से बाज नहीं आते। अंधेर राज के बादशाह रहने और चारा गेम के कोर्ट में जाने के बावबाद पूरे राज्य को बपौती मानकर अंगूठाटेक पत्नी को सत्ता की राबड़ी चाटने का मौका दे ही दिया। और लोकसभा चुनाव में तो पत्नी और बेटी तक  के मात खाने के बाद भी लालू भईया का हास्यरस उफान पर ही है। खासकर अब तो नेताजी को समधि बना लेने के बाद तो इनको तिनके का सहारा भी मिल गया है। मोदी सरकार के गिरने की भविष्यवाणी करने वाले ज्योतिषी लालू भईया जब कभी मौका लगे तो अपन अतीत पर भी नजर डाल ही लिया करें ताकि अपनी राजनीतिक ईमानदारी और कर्मठता का बोध होता रहे। जिससे बिहार आज तक त्रस्त है।

 

 

ममता दीदी के साथी

 

पश्चिम बंगाल से वामपंथ को बेआबरू करके सत्ता पर काबिज हुई तुनक मिजाजी के साथ साथ  अपनी सादगी के लिए मशहूर मुख्यमंत्री को आमतौर पर  सौ खून माफ की तरह सबलोग  बर्दाश्त कर लेते है।। सभी दलों में सबों के साथ रही हैं पर अपनी तुनकमिजाजी और जब तब हमलावर हो जाने की हल्ला बोल शैली से वे लगभग अछूत सी मानी जाती रही है। इनसे बात करना भी आत्महत्या करने के समान होता है कि अगर बात नहीं बनी तो कमरे की गोपनी वार्ता  को तड़का लगाकर फौरन सार्वजनिक करने में भी दीदी को देर नहीं लगती है। विपक्ष के कैरेक्टर को ही  सत्ता में आकर सिंहनाद कर रही है। मगर इनके संगी साथी हर तरह के है।  और तो और इनके साथी कभी रेप करने और कराने तो कभी हत्या कराने तक की धमकी देने में लिहाज नहीं बरतते। और दीदी तो पीएम पर बौखलाकर देख लेने तक की धमकी उछालती है। लगता कवि बाबा नागार्जुन की इंदिरा पर लिखी एक कविका दीदी को सुनाना होगा।  ममता जी ममता जी क्या हुआ आपको सत्ता की मस्ती में भूल गयी (बाप को ) सबको। सादगी की मूरत के पीछे स्वार्थ हिंसा और दादागिरी को उतार फेंकने में पब्लिकको देर नहीं लगेगी ममता जी। यह जरूर याद रखेंगी। प्रजातंत्र में कोई कानून से उपर नहीं होता।

 

मांझी शैली जरूरी है

 

बिना किसी माई बाप के बिहार के सीएम बनते ही जीतन मांझी पूरे देश में छा गए। रोजाना अलूल जलूल फिजूल भाषण और टिप्पणियों से बिहार का जिक्र हो या न हो पर मांझी की चर्चा होने लगी। काम और पिछड़ेपन से ज्यादा रोचक मांझी बन गए। विदेश में जाकर या योजना आयोग की बैठक हो या पूंजीपतियों को बिहार का न्यौता पार्टी देकर मांझी साहब अपनी शैली से कभी हटे नहीं। प्रधानमंत्री तक बनने का सपना देखने वाले मांझी आज नीतिश कुमार के लिए सिरदर्दबन गएहै। नीतिश कुमार ने तो सोचा था कि खडाऊं साबित होने वाले मांझी हनुमान साबित होंगे। मगर हनुमान तो इस बार राम को ही परास्त करने में जुट गए। मगर वाचालता के लिए मशहूर मांझी साहब ने इलस खबरची से ठठाकर बताया कि मेरे आगे पीछे तो कोई माई बाप है नहीं  न अपनी कोई पहचान थी, इसीलिए मैने गंवई शैली को औजार बनाया। ताकि सत्ता रहे ना रहे पर जब कभी चर्चा हो तो लोग मांझी शैली को न भूला सके।  और अंत में ताल ठोक कर दावा किया कि मेरा छह माह दूसरों को सालों पर भारी पड रहा है।

 

कितने मुलायम दांत ?

 

हाथी के दांत को तो लोग अभी तक तक तो प्रतीक बिम्ब मुहावरे और व्यंग्य में प्रयोग करते थे, मगर तमाम उदाहरणों पर मुलायम नेताजी के दांत भारी पड़ रहे है। मामला चाहे सैफई में हीरो हिरोईनों के डांस कराने का हो या मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों की मौत और बलात्कार का हो या अखिलेश सरकार की निंदा आलोचना का, मामला हो  हालात के बेकाबू होने से पहले ही मुलायम अपने बेटे की सरकार पर बरस पड़ते। जमकर निंदा प्रहार करते और एक टाईम लाईन देकर संभल जाने की धमकी भी उछाल देते। बाप की बौखलाहट के सामने दूसरी पार्टी के नेता भी शरमा जाते कि जब बाप ही बरस रहा है तो हम क्या करे। मगर मुलायम जी भी महान है। जब मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती ने करोड़ा रुपए फूंक कर अपना बर्थ डे मनाया तो नेताजी आग पानी लेकर सरकारी पैसे के दुरूपयोग का नारा बुलंद किया था । और जब बेटे के रूप में सता घर की है तो अपने 75 वें जन्मदिन पर रामपुर में आजम की मेजबानी में जमकर सरकारी रुपयों का होलिका दहन को नेताजी खामोशी से देखते रहे। और जब इसकी चारो तरफ निंदा होने लगी तो नेताजी एक बार फिर बेटे की सरकार पर आग बबूला हो गए। हाथी के तो केवल दो ही दांत दिखाने के होते है, पर पूरा देश अभी तक यह तय नहीं कर पा रहा है कि नेताजी के मुंह  कितने मुलायम दांत है ?

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जय हो राहुल बाबा के नाम पर

 

देश के भावी प्रधानमंत्री के रुप में हमेशा से देखे जाने वाले कांग्रेसी युवराज भी बड़े अजीब है। कहने को तो अपनों के साथ रहते है, मगर सांसद निधि में घपला राहुल बाबा के साथ हो यह सुनना बडा अजीब लगता है, मगर एक बनी हुई सड़क का ही दोबारा टेंडर होना और काम चालू होने पर  बाबा की खामोशी पर संदेह उठता है। क्या हमारे बाबा इतने बाबा है कि अपने आस पास के लोगों को भी नहीं पहचान पा रहे है । तब युवराज को तो प्यार की बजाय पब्लिक भी कहीं बाबा न कहने लग जाए ।

 

राज्यपाल होकर भी नहीं बदलें

 

रंगा सियार की कहानी सब जानते हैं कि शेर का लिबास पहनकर शेर होने का भ्रम तो पैदा कर दिया, मगर शाम होते ही अपने स्वजनों के विलाप को सुनकर शेर बना सियार भी पलक झपकते ही सियार की तरह हूंआ हूंआ करने लगा और शेर का सारा नाटक समाप्त होते ही रंगा सियार मार डाला गया। यूपी के राजभवन में बैठकर भी सबके लिए एक समान होने की बजाय राजपा?ल महोदय अंदर से हाफ पैंट ही निकले। एक जनसभा में मंदिर की वकालत करते हुए महोदय भूल गए कि वे कहां पर आसीन है ?  यूपी के राजपाल महोदय ने सादगी से अपने मन की बात तो कह दी मगर पूरे सूबे का तापमान गरमा दिया। लगता है कि बड़े पदों पर  लोगों को बैठाने से पहले यह बताने की जरूरत है कि वे किन मुद्दो पर अपने मुखार को बंद रखे।

 

अवैध संतान सुख का विलाप

 

 

कमाउं पूत सबको प्यारा लगता है। हर तरह का संरक्षण देकर अपनी तिजोरी भरने वाले राजनैतिक मां बार अपने अवैध पूत यादव सिंह से भीतर ही भीतर सहमे हुए है। तमाम नियम कानून तोड़कर एक डिप्लोमाधारी  को नोएडा के सभी ऑथिरिटी का चीफ इंजीनियर तक बनवा देने वाले इस पूत के बूते जमकर मलाई काटी, खाई और अपनी अवैध संपति में जमकर इजाफा किया। अपने अवैध मां बाप के आशीष से करप्शन के इस इंजीनियर ने नोएडा की जमीन को अपनी बपौती मानकर जिसको चाहा जब चाहा कौडियों के दाम सरकारी पन्नों पर दिया ,और अपने तमाम अवैध रिश्तेदारों की खातिरदारी की। खरबों की कमाई करने वाला यह पूत फिलहाल इंकम टैक्स के छापो से अपनी काली कमाई से बेपर्दा हो रहा है। हालांकि चालाक इंजीनियर तो फिलहाल पकड से बाहर है। मगर इसकी डायरियों से बड़े राज खुलने की आस है। मगर सवाल यहां पर सबसे गरम है कि सरकारी पकड में आने से पहले ही यह अवैध पूत कहीं अपने अवैध सगे संबंधियों के हाथों परलोक न सिधार जाए। इसकी संभावना ही ज्यादा है, क्योंकि पकड मे आने पर सफेदपोश कई मां बाप जो कहीं दागदार न हो जाए। बेचारा यादव सिंह तेरा क्या होगा जब एक साथ इतने लोग तेरे जान के प्यासे हो जाए ?मैं तो केवल तेरे जान की फ्रिक और उपर वाले से दुआ कर सकता हूं कि सरकारी हत्थे में  आ जा ताकि तेरी जिंदगी सेफ रह सके।

 

 

 

और जब केजरीवाल को रण छोडना पडा

 

चुनाव से पहले देश विदेश घूमकर चुनावी खजाना भरने वाले आप ( सबके बाप ) ने एक बार फिर अपने सपनों की दुकान जनता के लिए खोल दी है। रणछोड़ की इमेज को बदलने के लिए सबसे पहले वे क्षमा मांगते हुए  लोगों को भरोसा दे रहे है कि अब दोबारा इस तरह की गलती नहीं करूंगा। वे लोगों को यह सपना दिखा रहे है कि इस बार सत्ता में आया तो उम्मीद से ज्यादा दूंगा।  जनसभा में एक दर्शक श्रोता ने जब यह जानना चाहा कि उम्मीद से कम ही सहीं पर क्या देंगे तो केजरीवाल की बोलती ही बंद हो गयी और लोग ठठाकर हंस पडे।तब अपनी खिल्ली से बचने के लिए और रण ना छोडने की वकालत करने वाले एके को फिरहाल खिसकना ही ज्यादा बेहतर लगा।

 

ये कहां आ गए हम ...

 

सपा मुखिया नेताजी के कंधे पर बंदूक चलाने वाले पूर्व सपा नेता अमर सिंह की अमरगाथा फिलहाल गर्दिश में है। सपा छोड़ते समय तो सोचा था कि चमक दमक और गौरवगाथा के सामने दर्जनों दल अपने दलदल में समाहित करने की होड़ लगा देंगे। मगर कुछ नहीं हुआ । अमर उम्मीदों के साथ राह तकते रह गए मगर कोई नहीं आया। पंजा में जाने की कसरत की तो वहां से भी निराशा मिली। फिर से सपाई होने की जुगत लगाई तो इस बार बेटा राज के आगे बाप बेबस निकले। और भी कई पाले में जाने की पहल की तो कोई मुंह तक नहीं लगाया। और अंत में जब प्रधानमंत्री मोदी के लिए  शहनाई वादन करके अपनी उम्मीद को कमल पंख देना चाहा तो पहले से मौजूद सबसे बडे घर को नचा रहे सिंह ने आंखे दिखा दी। अपने लिए अपनी पार्टी बनाकर अपनी औकात नापने की पहल की तो परिणाम इतना बुरा निकला कि खुद वे शर्मा गए। आज भौसागर में कोई खेवनहार नहीं है। जिधर देखते है उधर ही निराशा। शायराना शैला में बात करने वाले अमरप्रेम के नायक शायद यही गुनगुना रहे होंगे कि ये कहां आ गए हम तेरे साथ.......

 

कवि मोदी की कविताएं

 

और अंत में आपके सामने प्रस्तुत है अपने कर्मठ और सख्त माने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक कविता।  आप तमाम लोगों को यह जानकर अच्छा लगेगा कि मोदी जी एक कवि भी है और 2008 में इनकी कविताओं को गुजराती में आंख आ धन्य छे ( आंखे ये धन्य है) का प्रकाशन भी हो चुका है। सिर्फ कविता ही नहीं बल्कि कहानियों का भी एक संग्रह गुजराती में प्रेमतीर्थ छपा है । कविताओं का अनुवाद किया है हिन्दी गुजराती की चर्चित कवयित्री श्रीमती अंजना संधीर ने। मोदी के चरित्र को विश्लेषित करती कविता का आनंद ले।  

जाना नही,

यह सूर्य मुझे पसंद है

अपने सातो घोड़ों की लगाम

हाथ में रखता है

लेकिन, उसने कभी भी घोड़े को

चाबुक मारा हो

ऐसा जानने में आया नहीं।

इसके बावजूद

सूर्य की गति

सूर्य की मति,

सूर्य की दिशा

सब एकदम बरकरार

केवल प्रेम।

कवि मोदी जी की कविताओं की किताबमेरे पास आ गयी है लिहाजा मोदी की कविताओं का रस हर बार चखाया जरूर चखाया जाएगा। एकदम पक्का।    

 

 

और अंत में

 

 








कहां चला चौथा खंभा?

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राज और समाज पर खरी आवाज


मीडिया स्वतंत्र या स्वच्छंद?

कहां चला चौथा खंभा?
कल बीबीसी उर्दू सेवा के पत्रकार का एक लेख ब्लॉग पर डाला था। लोगों ने (ख़बर पैदा करने का सही तरीक़ा)पढ़ाऔर उनके कमेंट भी आए। इधर बीच कुछ समय से लगातार मीडिया की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह उठने लगे हैं। गुजरात दंगों से लेकर मुंबई हमले और ऐसे ही कई मामलों में। अखबारों में तो फिर भी गनीमत है लेकिन कुछ चैनल ब्रेकिंग न्यूज के चक्कर में सारी हदें ब्रेक करते जा रहे हैं। मुंबई हमले की बात के बाद कुछ गाइडलाइंस बनी। मीडिया स्वतंत्र होनी चाहिए इसमें कोई दो राय नहीं। पत्रकारिता के विद्यार्थी और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने के कारण मैं भी मीडिया पर किसी दबाव और प्रतिबंध का विरोधी हूं लेकिन मुझे लगता है कि हमें स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता का भेद जरूर याद रखना चाहिए।
आखिर इससे क्या होगा?
फिलहाल मैं जिस खबर के बारे में बात करूंगा वह है वरुण गांधी के भड़काऊ भाषण की। चुनाव आयोग के पास दर्ज शिकायत और खबरों के अनुसार वरुण ने पीलीभीत में मार्च के पहले हफ्ते में धर्म विशेष के खिलाफ भाषण दिया। वरुण को ऐसी बात नहीं बोलनी चाहिए थी और अगर बोली है तो उन्हें कानूनन उचित सजा मिलनी चाहिए। वरुण के भड़काऊ भाषण से न तो पीलीभीत के उस कस्बे में न ही जिले में और न ही उप्र में किसी प्रकार का सांप्रदायिक तनाव हुआ। लेकिन बीच कुछ चैनलों ने वरुण के आपत्तिजनक टैपों को रोज दर्जनों बार दिखाया। खास बात यह कि टैप दिखाने के पहले वो यह भी कह रहे थे, 'आइए आप को सुनाते हैं वरुण गांधी का वह जहरीला भाषण जो उन्होंने.......'आप जिस टैप को खुद जहरीला कह रहे हैं उसे बार-बार क्यों दिखा रहे हैं? ने बताया कि इसलिए दिखा रहे हैं ताकि मतदाता जागरुक हों। मतदाता इससे जागरुक होगा या द्वेष फैलेगा?
यह कैसी पत्रकारिता?
वरुण ने जो जहर एक, दो या तीन बार उगला उसे हमारे निरपेक्ष चैनलों ने सैकड़ों बार उगला। आखिर क्यों? वरुण ने गलत किया है तो उसे सजा मिलनी चाहिए न कि उस जहर को वहां तक पहुंचाना चाहिए जहां नहीं पहुंचा है। तकलीफ तब होती है जब उन्हें ऐसी खबरें बताते-सुनाते देखना पड़ता है जिन्हें देखकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आया। वरुण और राज ठाकरे जैसे लोगों को कौन बना रहा है? कौन करता है इन्हें महिमा मंडिता। जो व्यक्ति सिंगल कॉलम, या चंद सेंकेंड की खबर का भी हकदार नहीं उसे लीड छाप रहे हैं और उसपर प्राइम टाइम में बहस चला रहे हैं। क्या मेरे जैसा प्रशिक्षु इसे ही पत्रकारिता समझे?
इनके रास्ते पर कोई नहीं
सच तो यह है कि आज का युवा और समाज ऐसे लोगों को न तो महत्व देता है और न ही उनके भड़कावे पर कुछ करता है। राज के साथ कुछ लोग हैं पूरा मुंबई नहीं वैसे ही वरुण के साथ भी कुछ ही लोग हैं। देश का युवा न तो इनसे प्रभावित है और न ही इनके रास्ते पर चलना चाहता है।
मीडिया ने गायब किए मुद्दे!
इस चुनाव में कोई राष्ट्रीय मुद्दा नहीं रह गया है। आतंकवाद, भ्रष्टाचार, महंगाई, मंदी, बेरोजगारी जैसे मुद्दे राजनीतिक दलों को कितना याद है यह तो पता नहीं लेकिन चैनलों को बिल्कुल याद नहीं। घंटों इस बात पर लाइव टॉकशो होता है कि कौन कमजोर, कौन गुलाम लेकिन इन मुद्दों पर न तो नेता कुछ बोलते हैं न चैनल कुछ पूछते हैं। कहा जाता है कि जनता जो चाहती है हम वह देते हैं। तो भइया जनता को इस बात से मतलब है कि उसकी नौकरी चली गई है। सुबह की चाय से रात के चावल तक सब महंगे हो गए हैं। क्या खाए, क्या बचाए? घर से निकलता है तो पता नहीं रात को लौटेगा या नहीं? नर्सरी में एडमिशन से लेकर टॉप लेवल नौकरियों तक पैसे का बोलबाला है। यह मुद्दे कौन उठाएगा।
इसको भी हवा कर दिया
इस चुनाव का एक सबसे बड़ा मुद्दा भाजपा के पीएम इन वेटिंग ने उठाया। स्विस बैंकों में जमा काले धन का। हो सकता है उन्होंने राजनीतिक लाभ के लिए उठाया हो? यह मामला पहले भी उठा है लेकिन इतने व्यापक पैमाने पर पहली बार किसी ने यह मसला उठाया है लेकिन हमारे चैनलों से यह मुद्दा गयाब है। बुढिय़ा/गुडिय़ा और कांधार/गुजरात में फंसी मीडिया इस मसले पर चुप है। हमेशा स्टिंग ऑपरेशन करने वाले इस मसले पर क्यों नहीं खोजी पत्रकारिता का कमाल दिखाते हैं? देश को यह सच कौन बताएगा? नेताओं से यह सच कौन उगलवाएगा? उम्मीद मीडिया से है लेकिन............व्यावसायिक प्रतिबद्धता अगर मजबूरी है तो पेशेगत नैतिकता उससे ज्यादा जरूरी है।

6 टिप्‍पणियां:

  1. यह उम्मीद करनी बेकार है। जब सभी कुछ अर्थ पर टिका हो तो कौन किसी की टाँग खीचेगा ?
    उत्तर दें
  2. स्थिति बद से बदतर ही होती जानी है ! यह अर्थतंत्र है !
    उत्तर दें
  3. हालाँकि मेरा सुझाव कुछ अटपटा सा लग सकता है ,लेकिन हम वाकई चौथे खंबे की विश्वसनीयता को लेकर चिंतित हैं तो इस पर काम किया जा सकता है । क्या कुछ समर्पित और ईमानदार लोग मिलकर एक अखबार खड़ा नहीं कर सकते जो सच्चे पत्रकारों को मौका भी दे और समाज का सच भी सामने लाये ।
    उत्तर दें
  4. ab kiski mmane?kiski sunen?
    उत्तर दें
  5. http://hinduonline.blogspot.com/

    Before the grand lanch function of "Bharat Swabhiman Mission"
    Baba Ramdev seems to be genueinly interested
    in the betterment of desh, dharam, rajniti
    and i used to watch him on Aastha channel regularly

    But right from the lanch function of "Bharat Swabhiman Mission"
    where Babaji had invited a Shia Muslim maulaavi
    and introduced him as his darling brother
    speeches of Babaji has lost its sharpness
    for the protection of desh, dharam, rajniti

    Maybe its the price one has to pay
    to garner support of all residing in india
    and whether they are muslim
    it does not matter

    As a common hindu
    what more could i have done but
    only stopped actively watching Babaji
    from that lanch function
    though i still regard Babaji
    as a great yoga master
    and for his oratory skills

    But, now in the present controvercy
    of Devband fatva against Vande Mataram
    attended by Babaji and home minister
    hindus should protest and show their displeasure
    to both Babaji and home minister
    for agreeing to be a part of function
    working against the spirit of Bharat
    and consolidating/ fanning the Jihadi movement

    As politicians support Jihadis
    for capturing muslim vote bank
    is Babaji trying to capture
    muslim and sickular followers
    by agreeing to attend Jihadi function
    and not speacking out against
    the fatva then and there
    not even 2 days after that

    all this when Babaji is
    the most outspoken hindu guru
    who is more than ready to
    give sound bytes on each and every
    topic including yoga
    and never take any nonsense
    laying down from any celebrited reporters/ editors

    is it that like all other leaders
    whether they are politicians or not
    they are always supporting Jihadis
    at the cost of hindus
    and like them Babaji too
    wants to capture muslim and sickular followers
    and / or
    even Babaji fears from Jihadis

    O Hindus come out of your hibrenation
    how long you want to wait
    for things to get worse
    before trying for their recovery

    its easy to get charged up against Jihadis
    but path to recovery goes first
    by winning over the sickular hindus

    O Hindus, this is the time
    to lanch campainge against
    all sickular hindus
    in the form of Babaji
    and dont wait for RSS/ BJP/ VHP
    dont look forward for their orders
    listen to your heart/ mind

    Babaji has a reputation
    of coming out sucessfully
    from every controvery in the past
    which where lanched by sickulars
    but this time
    if common hindus campainge
    against his sickular tendencies
    at least he has to say sorry
    for his moments of weakness

    i appeal all PRO-HINDU bloggers
    to write-up on this topic from their heart
    so that greater clearity and publicity to
    hindu's view emerage in media

    also remember that
    blogging alone cannot provide
    answers to worldly problems.


    http://hinduonline.blogspot.com/2009/11/original-post-no-4-o-hindus-come-out-of.html


    .
    उत्तर दें
  6. hello blogger friend,

    for so long you didnot post on your blog.

    is everything alright?

    looking forward to your posts.

....... .हाजिर हो / अनामी शरण बबल -3

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16 दिसंम्बर 

माफ करना निर्भया दामिनी.....
 
माफ करना दामिनी निर्भया या और जो भी नाम हो तुम्हारा । पर क्या करे दामिनी कि हम सब तेरी शहादत का पूरा क्या कुछ भी सम्मान तक नहीं कर सके। हमलोग शर्मसार भी नही है और सही मायने में तो बहुतों को याद भी नहीं है दामिनी कि तेरे साथ जो कुछ भी हुआ उसके दो साल बीत गए है। पत्ता ही नहीं चला दामिनी कि 730 दिन बीत गए। क्या करे दामिनी पूरे देश में तो मानों रेप पर रोक होने की बजाय देश में  रेपक्रांति सी आ गयी है। रोजाना दर्जनों महा मर्दानाओं की क्रांति की खबरें आ रही है। अकेले दिल्ली में रेप की घटननाएं कई गुना बढ़ गयी। और क्यों न बढ़े दामिनी तेरी घटना के बाद तो लगा मानो देश में भूचाल आ गया हो मौन प्रधानमंत्री भी इससे विह्वलना हुए। कानून को बदला गया। फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाया गया। पर अँत में क्या हुआ?नीचली अदालतों ने तो फांसी की सजा दी। मगर उपर जाते जाते यह सारा सीन ही बदल गया। यही तो रेपिस्टों के हौसले को कुतुबमीनार तक ले गया। पूरे देश को लगा कि जब इतना हंगामा होने के बाद भी कुछ नहीं हुआ तो औरों का क्या होगा। पर माफ करना दामिनी तेरे साथ हमलोग हमेशा तेरे साथ रहेंगे क्योंकि तुम तो वो बहादुर लड़की हो जिसने दम तोड़कर समाज के चेहरे को शर्मसार और बेलिवास कर गयी। यह अलग है कि हम लोग में शर्म का माद्दा कम है। फिलहाल दामिनी नमन,सलाम ।
    

.. इतना फास्टट्रैक कोर्ट
देश में बलात्कार होता था, होता रहेगा, और हो रहा है। कोई लगाम नहीं कोई रोक टोक नहीं। बलात्कार करने का तो हौसला बहुतों मे हैं पर इसका भय ही नहीं है। लोगों को लगता हैं कि हर आदमी से लेकर संस्थाएं भी रेप के लिए उकसाती है। रेप को लेकर सिर्फ हाथी के दांत वाला मामला है। हमारे देश के नेताजी भी यह कहकर तालियां पिटवाकर अपना सीना 76 इंच (साल) का कर लेते हैं कि क्या करोगे बच्चा है गलती हो गयी।  नेताजी जैसे सफेदपोसों के इस बयान से मर्दो को कितना बल मिलता है। पर क्या करे दूसरे के गम पर सांत्वना देना सरल होता है नेताजी क्या .जाने कि इस तरह की घटनाएं कभी घऱ कि कन्या के साथ होन के बाद धरती घूमने लगती है। और सारा दर्शन बकवास लगने लगता है।     

महिला सुरक्षा मुद्दा नहीं मजाक है

आप पार्टी का दिल्ली में एंट्री का कोई लाभ हुआ हो या नहीं यह तो समय तय करेगा, मगर केवल 14 माह में दिल्ली में फिर से विधानसभा चुनाव होने की तैयारी चल रही है। सामाजिक या किसी गरम मुद्दे पर सवाल करने की बजाय तमाम दलों के दलदली नेता दामिनी – निर्भया कांड के बाद सीना तानकर गरजने और बरसने का कोई भी मौका जाने नहीं दिया। दिल्ली में पानी बिजली शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार पर बोलने की बजाय अब दिवंगत निर्भया दामिनी को लेकर एक नया मुद्दा बनाना ज्यादा आसान है। पींडिता की मौत के बाद पीडित परिवार के घर जाकर करीब 40 मिनट तक कांग्रेस सुप्रीमों अपने पुत्र के साथ रही। इस हादसे के बाद ढ्रामा तो बहपत हुआ मगर आम तौर पर हैपी एंडिंग की बजाय यह नाटक लंबा ही खींच गया। महिलाओं में जागरण की खबंरों को तो खूब उछाला गया, मगर दामिनी के दर्द को बूझने की पहल कोई नहीं कर पाया।  और यहीं दामिनी की कोर्ट फास्ट टैक केवल झुनझुना साबित होकर रह गया।  जिससे कोर्ट का रहस्य रोमांच भी  देश के मर्दो का रोमांचित कर रहा है।
प्याजी कमल

बीजेपी एक प्याजी पार्टी है। इसके भीतर इतनी परतें है कि सारे खालों को उतारना आसान नहीं। एक तरफ काम के नाम पर सपनों की दुकान से रोजाना सपनों की सौदागिरी कर रहे प्रधानमंत्री व्यग्र है. काम करने की ललक और रफ्तार इतनी तेज है कि नौकर से लेकर नौकरशाह तक भी इस 56 इंच सीना वाले इस आदमी को बूझ नहीं पा रहे है। कमल पार्टी के लोग देश भक्ति और समाज जागरण के नाम पर रोजाना सुबह सुबह शाखा लगाकर देश को आह्रवान  करते हैं, कि हे हे भारत मैय्या मां हम खद्दरों से बड़ा देशप्रेमी और कोई नहीं। मगर इसी कमल के लोग यूपी विधानसभा चुनाव 2016 को ध्यान में रखते हुए बांग्लादेशी घुसपैठियों को भारत का नागरिक बनवा रहे है. बाकायदा राशनकार्ड आधार दिलवा रहे है ताकि यूपी की जंग को फतह की जा सके। मजे कि बात तो यह है कि मामला खुलने के बाद इनके नेता शर्मसार होने की बजाय फिर घऱ वापसी का राग दोहरा रहे है। प्रधानमंत्री जी अपने सिपहसालारों के रुप में साथ चल रहे बाबा भोले की औडम बौडम बारात पर नियंत्रण रखे,नहीं तो आपको बेलगाम करते इनको देर नहीं लगेगी।

बाहुबलि पप्पू यादव दंपति
लालू यादव की लाज रखने वाले राजद सांसद पप्पू यादव एक महान सांसद है। हालांकि इनके ऊपर चार्ज तो हत्या का है और इसी आरोप के चलते तिहाड़ मे भी कई माह तक समाधि भी जमा चुके है। आजकल अपनी इमेज को बदलने के लिए पप्पू भईया संस्कृत पढ रहे है। अपनी सांसद मैडम सॉरी कुलगुरूआईन को भी सामाजिक कार्यो में लगा रखा है।. पूरे इलाके में आजकल पप्पू यादव को लोग बडे श्रद्दा से देख रहे है। कहीं  ऐसा ना हो जाए कि अगले कुछ माह या साल के भीतर पप्पू भईया भी कहीं एक स्वामी पप्पू जी के रूप में मीनी चंद्रास्वामी की तरह पूरे समाज और खासकर महिलाओं को ज्ञान बॉटने में तल्लीन ना हो जाए ?

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19 दिसम्बर 2014

 


गुजरात में कब आएंगे अच्छे दिन मोदी जी ?

बनारस के लिए प्रधानमंत्री की दरियादिली को देखकर सुनकर गुजरात और खासकर बडौदा के लोग अपने आपको  खासे ठगे हुए से महसूस रहे है। ज्यादातर लोगों का मानना है कि एक भावी पीएम  के रुप में लोगों रिकॉर्डतोड मतों से नवाजा था, मगर भावनाओं से ज्यादा राजनीति को तरजीह देकर वे बनारस के हो गए। बनारस के लिए हजारो करोड की दर्जनों परियोजनाओं को चालू कराने और पूरे शहर को आधुनिक बनाने की कवायद पर भी बडौदा वासियों का दिल कसक रहा है। यहां के लोगों को लग रहा है कि कि यह सब उनके लिए भी हो सकता था। उधर शेष गुजरातियों ने पीएम को मतलबी करार दिया। ज्यादातर गुजरातियों का दर्द है कि पहली बार गुजरात पीएम देने वाला स्टेट बनता, मगर जीवन भर यहां रहने वाले ने इस राज्य को उस गरिमा और गौरव से वंचित करदिया। कपास के मजदूर बेमौत मर रहे है। पानी संकट बना हुआ है। लोगों को अपने राज्य में अच्छे दिन की आस लगी गै।

 

कितने (कितनी) और कब तक साध्वी निरंजनाएं ?

रामजादो और (ह) रामजादों में अंतर बयान करके साध्वी ज्योति निरंजना भले ही फिलहाल बच गयी हों, मगर लगता है कि वे अब अल्प संख्यक से बहुसंख्यक होती जा रही है। भले ही मोदी कड़क दंबग और सख्त हों, मगर अपनों के सामने ही उनकी एक नहीं चल रही है। कोई धर्म की दुकान खोलकर 2021 तक हिन्दुस्तान को केवल हिन्दू वाला देश बनाने का दावा कर रहा है, तो कोई धर्म की दुकान में घऱ वापसी कोचलता रहेगा को रोक नहीं रहे है। कोई ईसाईयों को फिर हिन्दू बनाने पर उतावला है। तो कोई अयोध्या मामले को हवा दे रे है। यानी विदेश में चीन जापान और अमरीका में जाकर सबको मुग्ध भलेही कर लिए हो, मगर अपनो के सामने लाचार से दिख रहे है। मोदी जी आपसे पहले वाले पीएमसाहब को मौनमोहन ही कहा जाता था। आप तो वाचाल रहे है, मगर अब बारी आपकी है इन सगे संबंधियों के सौतेलापन पर लगाम लगाने की, अन्यथा आपते 14 घंटे के कामकाज पर पानी फिरते देर नहीं लगेगी। क्या ख्याल है ?

 

योग दिवस के पीछे रामदेव ?

नरेन्द्र मोदी को मुख्यमंत्रीसेप्रधानमंत्री बनाने में हरिद्वारवाले योग गुरू की भी बड़ी भऊमिकारही है। पर्दे के पीछेरहते हे पेम के ले इन्होने बहुत कुछकिया। दोनों अपस में कितने करीबी हैं कि चुनाव के दौरान अपनी पत्नी ( काश) को भीडमीडिया और दुश्मनों से बचाने के लिए अंत में उनको पंतजलि में ही गुप्त तौर पर रखना पड़ा। अपने मिशन सत्ता सिंहासन  पाने के बाद एक ही झतके मैं सारा कर्ज वसूल कर पीएम ने वो कारनामा कर दिया कि योग को ग्लोबल ख्याति दिलाने के नाम पर 21 जून को योग अंतरराष्ट्रीय  दिवस घोषित करवा ही दिया। सचमुच अहलान उतारने वाला बंदा मोदी जैसा हो तो सामने वाला भी जान न्यौछावर करके ही दम लेगा। .यही तो गुजरात के इस 56 इंचीछाती की खासियत है।

बिजली कंपनी का चयन सुख

केंद्रीय उर्जा मंत्री भी मजाक करते है।देश के ग्रामीण इलाकों में तो आज भी बिजली का आना एक खबर से कम नहीं है। और दिल्ली से बाहर निकलते ही एनसीआर इलाके में ही दो घंटे से लेकर आठ घंटे तक तो सामान्य तौर पर बिजली गुल रहती है। बिदली के नदारद रहने का यह सिलसिला आज से नहीं बल्कि दशकों जारी है, और लोग इस कदर इसके  अभ्यस्त हैं कि इस पावर कट को नियति या अपने जीवन का हिस्सा मान चुके हैं। दिल्ली के ही गरीब और पुर्नवास कॉलोनियों ,ग्रामीण इलाकों में आज भी रोजाना अमूमन दो चार घंटे तो बिजली गुल का गुलगुला गेम चलता ही रहता है। दिल्ली में तीन पावक कंपनियों के अलग लग क्षेत्र है।, मगर इस हकीकत को दरकिनार कर पावर मंत्री लोगों को अपनी पसंद का पावर कंपनी चुनने का सपना दिखा रहेहै। पावर मंत्रीजी अगर आप परिवहन मंत्री के रूप यात्रा के साधन चुनने को कहते तो बात कुछ हज्म हो जाती , मगर इस तरह के बयान देकर खुद को पप्पू साबित करने की बेताबी न दिखाएं , अन्यथा मोदी मंत्रीमंडल में रहना आसान नहीं होगा।   


फडनवीस के निर्देश का चरितार्थ

मुख्यमंत्री भले ही देवेन्द्र फडनवीस महाराष्ट्र के हों,मगर अलग विदर्भ  राज्य की चिंता अभी से सताने लगी है।  महाराष्ट्र विभाजन के बाद विदर्भ राज्य का स्वायत आकार लेना संभावित है। हो सकता है कि 2019 विधानसभा चुनाव से पहले कुछ ऐसा हो भी जाए। नागपुर के प्रभावशाली दबंग और जनता के बीच खासे लोकप्रिय फडनवीस ने किसानों के आत्महत्या के लिए कुख्यात विदर्भ के किसानों के जख्म पर मरहम लगाना शुरू कर दिया है। बैंक के तमाम बडे अधिकारियों को किसानों से फिलहाल वसूली पर जाने से रोक लगा दी है। निसंदेह इससे एक बेहतर संदेश तो जाएगा, मगर महाजनी चंगूल में फंसे किसानों के दर्द और मौत को रोकना सरल नहीं है। हालात बदले या न बदले मगर, विदर्ब पर कब्जाकरने की कवायद की फडनवीस प्लान के मोहरे सक्रिय हो गए है।   



कैलाश सत्यार्थी के नाम पर कैलाश विजयवर्गीय को शुभकामनाएं
यह एक अजीब संयोग है कि जीवन भर एक दूसरे के खिलाफ लडने वाले पाकिस्तान और भारत के ही दो लोग इस बार शांति नोबल पुरस्कार के लिए नवाज दिए गए। सबसे कम उम्र की मलाला युसूफजई और दशकों से बचपन बचाओं आंदोलन चला रहे कैलाश सत्यार्थी इस बार शांति के प्रतीक बने। दोनों को यह सम्मान संयुक्त तौर पर मिला। राजनीति की सारी कडवाहटों से अलग दोनों ने एक बाप बेटी की तरह इस सम्मान को स्वीकारा और मिलजुल कर काम करने की इच्छा जाहिर की। हालांकि आंतकवादियों के निशाने पर हमेशा रही मलाला के चयन पर किसी को हैरानी नहीं हुई। मगर ज्यादातर भारतीयों को कैलाश सत्यार्थी के चयन के बाद ही पता चला कि ये कौन है। मध्यप्रदेश के भाजपाईयों ने तो हद कर दी कि कैलाश सत्यार्थी को ही कैलाश विजयवर्गीय समझकर विधायक और राज्यमंत्री के घर बधाईयों का तांता लग गया। तब कहीं जाकर कैलाश विजयवर्गीय को यह सफाई देनी पडी कि मैं नहीं यह सम्मान सत्यार्थी को दिया गया है।

विवेकानंद जी का विश्व प्रसिद्ध भाषण

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स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। स्वामी विवेकानंद का जब भी जिक्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है। 

 
विवेकानंद का भाषण…

 
अमेरिका के बहनों और भाइयों…


 
आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूँ । मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी है जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है।
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ , जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूँ , जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इजराइलियों की पवित्र स्मृति याँ संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ , जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है।
भाइयों ,
मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियाँ सुनाना चाहूँगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है ; जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियाँ अंत में समुद्र में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है – जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुँचते हैं।
सांप्रदायिकताएँ, कट्टरताएँ और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।
स्वामी विवेकानंद




प्रस्तुति- - स्वामी शरण 

.........हाजिर हो / अनामी शरण बबल-- 6

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22 दिसम्बर--- 2014

 

नंबर गेम कहीं ले न डूबे मोदी जी

आजकल हमारे प्रधानमंत्री के उपर नंबर गेम का खतरा मंडरा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर की कोई संस्था पत्रिता या संगठन आजकल नंबर गेम रेस में हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एकदम टॉप पर खते हुए भारत में अपनी जगह बना रही है। गुमनाम से सर्वे भी बडी खबर बन जा रही है। देश के लोग भी अंगूली दबाकर हैरान है कि केवल छह माह में मोदी सब पर भारी कैसे हो गए। ओबामा से लेकर और तमाम ग्लोबल नेता भी मोदी के आगे ढेर पड़े है। बीजेपी नेता फूले नहीं समा रहे है कि मोदी मैजिक से संसार चकित है। विपक्ष भी हैरान है किइस मोदी में क्या दम है। मगर मोदी जी इस नंबर गेम के पोलटिक्स और साजिश को बूझिए। खुद सोचिए कि सता संभालने के केवल सात माह में ग्लोबल लेबल पर आपने ऐसा क्या कमाल कर दिखाया कि आपको आसमान पर चढाया जा रहा है। पूरा देश अब मैजिक से बाहर आकर सवाल करने लगा है। बिखरे भले हो , मगर एक होकर आग बबूला हो रहे है. जनसभाओं में आपके ही वायदों की खिल्ली उडाये का दौर चालू हो गया है। लिहाजा ग्लोबल पावर बनने से पहले देश में पावरफूल  बनिए। अपने वायदों पर खुद को खरा साबित कीजिए तभी विदेशी वंबररेस से जनता खुश होगी। अन्यथा सितारा डूबने पर क्या होता है यह बताने दिखाने और जताने की कोई जरूरतनहीं है। आप तो खुद ही मंजे हुए प्लेयर  है।

 

अपने गिरहबान में भी झाकों प्रभु 

 

केवल विरोध के लिए विरोध करना विरोधी दलों का कैरेक्टर है।, मगर सत्ता पर एकदम हमलावर हो जाने से लोगों में उल्टा ही असर भी पड़ता है। सभी थके मांदे हारे बुजुर्ग हो गए और एक होकर भी कई कई बार बिखर चुके महारथियों ने इस बार नेताजी को नेता मानकर एक होने का मंचन किया है।  इस महा गठबंधन का पहला शक्ति परीक्षण के तौर पर आज जंतर मंतर से आग बबूला होने का मौका था।  इस पावर शो में तमाम नेता पानी पी पीकर मोदी सरकार पर बरस रहे थे। जनता को धोखा देने झूठे वायदजे करने और ठगने का आरोप लगा लगाकर मोदी कंपनी को कोस रहे थे। मगर कभी अपने गिरहबान में भी तो झांको तमाम महाप्रभुओं,  कि जब राज्य की ही सत्ता मिली तो आपलोगौं ने क्या किया। अंधेरगर्दी मचा मचा कर जनता को क्या दिया। किन किन वायदों पर खरे ही नहीं साबित हुए। ई पब्लिक बडी शातिर हो गयी है नेताजी। डायलॉग पर तालियां भले ही बजा दे मगर मौका आने पर बीबी समेत बेटी तक के गले में हार की तख्ती टांगते देर नहीं लगाती। अपने दशकों के कर्मो कुकर्मो का हिसाब केवल सात माह में मांगते आपको शर्म आए या न आए पर हिसाब मांगते आपलोगों को देखकर  जनता जरूर शरमा रही है ।

 

हिन्दू नेता मुस्लमान हिंदू नेता

 

 

भाजपा सरकार के केवल सात माह के शासन में ही देश का सौहार्द खतरे में है। सामाजिक सद्भाव का तापमान गिर रहा है, तो धार्मिक उन्माद का टेंपरेचर गरमा रहा है। तमाम हिन्दू नेता मुंह में मिर्ची लगा लगाकर माहौल को भडका रहे है। सब बेकाबू है, कमल छापी विधायक से लेकर संघ और न जान तमाम संगठन रोजाना अपनी बुद्दिमानी से देश को ललकारने में लगे है। तथाकथित हिन्दूनेताओं के प्यार भरे बोल से मुस्लमान नेता के तौर पर देश में चर्चित और मौलाना कहे जाने पर कलेजा और चौड़ा करने वाले यादव समधि मुस्लमान नेता भी अपने वोटरों को अपना बनाए रखने के लिए हिन्दू नेताओं को ललकारना चालू कर दिया है। दोनों तरफ के जुबानी जंग से माहौल पर खतरे की आशंका है। हिन्दू और मुस्लमान हिन्दू नेताओं के बीच ताल ठोक कर देख लेने की धमकी उछाली जा रही है। मगर मोदी जी आप इस समय अग्निपरीक्षा के सामने खडे है।  जहां पर देश की कानून व्यवस्था और शांति बनाये रखना आपका पहला धर्म है। माहौल को सुधारने और सामान्य करने की चेष्टा को दुरूस्त करे,  नहीं तो सबसे ज्यादा खतरा आपकी ही क्रेडीबिलिटी और इमेज पर पड़ेगी।

 

 

वाड्रा पर केस तो रहेगा ही

 

अपने ससुराली पावर प्रेशर, पोलिटिकल कांटैक्ट और किराये की पहचान पर उछल कूद रहे मुरादाबादी दामादजी पर तमाम कांग्रेसी सरकारे मेहरबान रही है। इसी के बूते कौडियों के भाव जमीन खरीदकर अरबों में बेचकर एक पल में ही मोटी कमाई करने वाले दामाद जी के मुकदमें की सरकारी फाईल से दो पन्ने लापता हो गए। यह मामला खुला भी तो सूचना अधिकार के तहत। कांग्रेसियों की निष्ठा भी वंदनीय है। सबको पत्ता है कि अगर दामादजी दागदार होंगे तो पार्टी और इसके ऑक्सीजन भाई बहन की साख पर भी आंच आएगी, लिहाजा दामाद को सेफ करने के लिए अलविदा कहने से पहले पंजा सरकार ने वह कर दिखाया जो नहीं करना चाहिए  था। पर मामला कोर्ट में है। लापता पन्ने कोर्ट समेत दामाद जी के फाईल में भी है । उधर दामादजी के लिए जमीन खोजने और डील कराने वाला डीलर नागर भी तो पुलिस और कानून की नजर में है। लिहाजा बात बनने की बजाय कोर्ट की नजर में तो दामादजी और चढ जाएंगे । अब देखना यह दिलचस्प होगा कि तेरा क्या होगा पीतल शहर के प्रोपटी डीलर दामाद जी ?

 

रामजादों की करतूत

 

रामजादों या हरामजादों की सरकार बनेगी का नारा बुलंद करके भले ही साध्वी ज्योति निरंजना संकट में फंस गयी थी,, मगर एक सप्ताह के अंदर भाजपा के कई विधायकों नें इस तरह की हरकते की है लोगों में रामजादों की व्याख्या ही बदलती दिख रही है। कोटा के एक विधायक तो अपने वोटरों को वोट नहीं डालने पर घर से निकाल बाहर करने की धमकी दी। और मजे कि बात है कि अपने कारनामों पर शर्मसार होने की बजाय पूरी ठिठाई से कहा कि वोटरों से शाम दाम दंड  सारे हथकंडे अपनाना ही पडता है। रामलला के दूत की तरह प्रचारित कमल छापी नेताओं की हरकत्तों से तो लगता है कि ज्योति निरंजना अपनी पार्टी के बारे में ही टिप्पणी क रही थीक्या ?

विधाओं की कोई एल.ओ.सी. नहीं होती : कान्तिकुमार जैन

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कांतिकुमार जैन उन संस्‍मरणकारों में से जिन्‍होंने संस्‍मरण कोसाहि‍त्‍य की केंद्रीय वि‍धा के रुप में स्‍थापित किया। उनके संस्‍मरण खासेचर्चित और कुचर्चित भी हुए। उनसे प्रसिद्ध समीक्षक साधना अग्रवाल कीबातचीत-
कान्ति जी, जहाँ तक मुझे मालूम है, छत्तीसगढ़ीबोली का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन आपने किया है- नई कविता और भारतेन्दु पूर्वहिन्दी गद्य पर भी आपका कार्य है। आलोचना की पुरानी फाइल पलटने से मुझेउसमें आपका एक लेख- मुक्तिबोध मंडल के कविदेखने को मिला। मुक्तिबोध मंडल के कवियों ने ही आरंभ में नर्मदा की सुबहकी योजना बनाई थी जिसे अज्ञेय ने न केवल झटक लिया बल्कि बहुत से पुराने कवियों को हटा दिया। ऐसा क्यों कर हुआ? कृपया इसे स्पष्ट करें।
1972 में जब मैं मप्र हिन्दी ग्रंथ अकादमी के लिए नई कवितानामकपुस्तक लिख रहा था, तब मैंने देखा कि विवेचकों के आग्रहों, पूर्वाग्रहों औरदुराग्रहों के कारण नई कविता का सच्चा इतिहास नहीं लिखा जा सका है। हिन्दीमें समीक्षा को ही इतिहास मान लिया जाता है। नई शोध के फलस्वरूप उपलब्ध नईजानकारी को इतिहास में समाहित करने की परंपरा हमारे विश्वविद्यालयों मेंनहीं है। मैंने उक्त पुस्तक में मुक्तिबोध के विवेचन के साथ जब मुक्तिबोधमंडल के कविका विचार सामने रखा तो डॉ. जगदीश गुप्त जैसे नई कविता केविचारकों ने प्रारंभ में अपनी असहमति प्रकट की, किन्तु बाद में वे भी मेरेतर्कों और तथ्यों से आश्‍वस्‍त हुए।
मुक्तिबोध ने नर्मदा की सुबहकी योजना बनाई थी। मुक्तिबोध के मित्र औरशुजालपुर में उनके विद्यालय-सहयोगी रह चुके वीरेन्द्र कुमार जैन मानते हैंकि मालवा में ही हिन्दी की प्रयोगवादी और नई कविता का जन्म हुआ था। बादमें इस काव्यधारा में नेमिचंद जैन और भारतभूषण अग्रवाल जुड़े। वीरेन्द्रकुमार जैन ने मुक्तिबोध पर लिखे और 13 मई, 1973 के धर्मयुगमें प्रकाशितअपने लंबे संस्मरण में स्पष्ट किया है कि कैसे अज्ञेय जी की संगठन क्षमताके कारण उन्हें तारसप्तकके संपादन के लिए आमंत्रित किया गया। ठीक यहीबात शमशेर जी ने भी कही है। अज्ञेय जी ने तार सप्तककी मूल सूची से कुछनाम निकाल दिए और कुछ नए जोड़ दिए। अज्ञेय तारसप्तक के झंडा बरदार नेतानहीं थे। मुक्तिबोध के अनन्य मित्र और मुक्तिबोध मंडल के कविप्रमोदवर्मा ने मुझे अपने पत्र में लिखा: दूसरा तारसप्तकछप चुका था। मुक्तिबोधको यह देखकर हैरानी हुई कि नई कविता के नाम से प्रस्तुत छठे दशक की कवितातारसप्तकके मूलतः वामपंथी रुझान को काट तराश कर कोरम कोर, सौंदर्यपरककलावादी बना दी गई है। ऐसा तो छायावाद के जमाने में भी नहीं हुआ था। तोक्या यह सब उनके नव स्वाधीन देश को अंतरराष्ट्रीय पूँजीवाद की गिरफ्त मेंरहे चले आने के लिए ही किया जा रहा था?’
मैंने मुक्तिबोध मंडल की अपनी स्थापना का लंबा विवेचन किया जो डॉ. नामवरसिंह संपादित आलोचनामें छपा भी। इस विवेचन में जिन कवियों और विचारकोंके नाम आए थे वे सब मेरे परिचित मित्र थे, श्रीकांत वर्मा, शिवकुमारश्रीवास्तव, रामकृष्ण श्रीवास्तव, जीवनलाल विद्रोही’, प्रमोद वर्मा, अनिलकुमार, सतीश चौबे- सभी मुक्तिबोध के प्राचीन मित्र। परसाई और भाऊ समर्थ भीगो वे कवि नहीं थे। मुक्तिबोध ने बहुत सोच-विचार कर कवियों की सूची कीअंतिम रूप दिया और उनकी कविताएँ भी एकत्र की थीं। यदि नर्मदा की सुबहछपगई होती तो हिन्दी की स्वतंत्रता परवर्ती कविता का इतिहास कुछ दूसरा हीहोता। अज्ञेय जी ने सप्तक श्रृंखला के माध्यम से मुक्तिबोध द्वाराप्रस्तावित नर्मदा की सुबहवाली वामपंथी रुझान की कविता को हाईजैक करलिया। सप्तकों की खानापूरी करने के लिए बाद में वे बहुत ही साधारण कवियोंको ही हाईलाइट करते रहे। आलोचनामें प्रकाशित अपने लेख में मैंने विवेचितकवियों का समीक्षात्मक आकलन तो किया ही था, उनका संस्मरणात्मक आख्यान भीप्रस्तुत किया था, दोनों को ताने-बाने की तरह बुनते हुए। मेरे बाद केसंस्मरणों में इसी शैली का उपयोग किया गया है। मुझे संतोष है कि यह शैलीसामान्य पाठकों के साथ ही सुधी आलोचकों को भी पसंद आई। यह शैली विद्वत्ताका आतंक पैदा करने के स्थान पर हार्दिकता जगाती है।
कायदे से सागर विवि के हिन्दी विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष होने के नाते ही नहीं, बल्कि आप में जो आलोचनात्मक प्रतिभा है, उसे देखते हुए आपको आलोचक होना चाहिए था, क्योंकि आपके संस्मरणों में आपके आलोचक की चमक की चिंगारी जहाँ-तहाँ प्रचुरता से दिखती है, मेरे मन में जब-तब यह सवाल उठता है। कृपया अपनी स्थिति से हमें परिचित कराएँ।
एक समय था जब हिन्दी का विश्‍वविद्यालयीन अध्यापक कवि होता ही था। फिरकवि के रूप में प्रतिष्ठा न मिलने पर वह कविता का पाला छोड़कर आलोचना केक्षेत्र में सक्रिय होता था। आचार्य नगेन्द्र, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ.नामवर सिंह जैसे अनेकानेक कवि-आलोचकों से हम परिचित हैं। हमारे यहाँ आलोचनाके साथ विद्वता का फलतः गंभीरता का अनिवार्य रिश्ता माना जाता है। विद्वताआतंकित तो करती है, आकर्षित नहीं करती। हमारे विश्‍वविद्यालय विद्वत्ता काविकास तो करते हैं, संवेदना का नहीं। ज्यादा विद्वत्ता से मुझे भय लगताहै। ऐसा नहीं है कि आलोचना के क्षेत्र में मैंने कुलांचे न भरी हों, परवहाँ बहुत भीड़ थी। वहाँ कोई किसी को तब तक घास नहीं डालता जब तक उसके साथअपना गुट या शिष्यमंडली न हो। आलोचना के क्षेत्र में मेरी स्थिति शरणार्थीकी थी। हिन्दी समाज कुम्हार के उस चाक के समान है जो माँगे दिया न देय। ऐसेमें मैंने संस्मरणों की राह पकड़ी, शरणार्थी से पुरुषार्थी बनने के लिए।वह भी लगभग दिवसावसान के समय। समीक्षा को मैंने संस्मरणों की मुस्कान सेमिला दिया, 33, 67 के अनुपात में। यह मेरी अपनी रेसेपीथी। मेरी यहरेसेपीआलोचकों को पसंद आई। मेरे अच्छे संस्मरण वे माने गए, जिनमें मैंनेरचनाकार या चिंतक या अध्यापक के छोटे-छोटे आत्मीय प्रसंगों के आधार परउसके व्यापक एवं बृहत्तर रचना कर्म और जीवन मूल्यों का विश्‍लेषण किया।जैसे बच्चन के, डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी के, रजनीश के या सुमनके। आपचाहें तो इन्हें संस्मरणात्मक समीक्षा कह लें या समीक्षात्मक संस्मरण।तुम्हारा परसाईशीर्षक पुस्तक मैंने इसी शैली में लिखी है।
पाठकों को गंभीरता और आलोचना की यह फिजां पसंद आई। याद कीजिए, शायर का वह मंसूबा जिसमें वह कहता है:
क्यों न फिरदौस में दोजख को मिला दें या रब
सैर के वास्ते थोड़ी सी फिजां और सही।
मेरे संस्मरण साहित्य की सैर के शौकीनों को यही थोड़ी सी फिजां मुहैया करते हैं।
सागर विवि से अवकाश प्राप्त करने के बाद संस्मरण लिखने की बात सहसा आपके मन में कैसे उठी? यूँ जहाँ-तहाँ आपने इसका संकेत दिया है लेकिन मुझे लगता है आपके पाठक के नाते मेरे मन में इस प्रश्‍न को लेकर जो जिज्ञासा है, उसका निदान आप ही कर सकते हैं।
संस्मरण लिखने की न तो मेरी कोई तैयारी थी, न ही आकांक्षा, कोई योजना भीन थी। डॉ. कमला प्रसाद के कहने से मैं श्रीमती सुधा अमृतराय पर एक संस्मरणलिख चुका था। उसे मित्रों ने पसंद किया, भाषा विज्ञान जैसा नीरस विषयपढ़ाने वाले से ऐसी तरल भाषा और रोचक शैली की अपेक्षा किसी को नहीं थी। ऐसेमें एक दिन स्थानीय महाविद्यालय के अध्यापक मित्र घर आए। वे लेखक भी हैं, समीक्षा जैसी गुरु गंभीर विधा में लिखते हैं। कमला से उन्हें एलर्जी है, पुराने सहयोगी रह चुकने कारण। उनके गुरुओं ने उन्हें बताया था कि संस्मरणहल्की-फुल्की विधा है। उनके गुरु के गुरु आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयीप्रेमचंद द्वारा संपादित हंसके आत्मकथांक/संस्मरणांक का काफी मखौल उड़ाचुके थे। उन्हें लगा कि भाषा विज्ञान और समीक्षा के पुण्य तीर्थ से संस्मरणके गटर में पतन मेरे सारे पुण्यों को नष्ट कर देगा। मेरे उद्धार की चिंताके कारण उन्होंने फरमाया-संस्मरण तो वो लिखता है जो चुक जाता है। संस्मरणतो मरे हुओं पर लिखे जाते हैं। कुछ भी लिख दो, मरा हुआ व्यक्ति न प्रतिवादकर सकता है, न ही आपकी खबर ले सकता है। फिर संस्मरण तो आत्मश्‍लाघा की विधाहै। जिसे कोई भाव नहीं देता, वह अपनी पीठ ठोकने लगता है। संस्मरण उनके लिएशेड्यूल्ड कास्ट विधा थी और संस्मरण लेखक को वे कुल की हीनी, जात कमीनी, ओछी जात बनाफर राय का सगोत्री मानते थे। उनकी चेतना पर संस्मरण का मरणकाबिज था, संस्‍मृत के पक्ष में भी, मनोवैज्ञानिक और व्यक्तिपरक सोनोग्राफीकी। सुमन जी, त्रिलोचनजी या प्रेमशंकर जी ने तो कम आपत्ति की, उनकेअनुगतों ने ज्यादा हो-हल्ला मचाया।
जो जितना पुराना और बड़ा कांवड़िया था, उसने उतना ही ज्यादा हल्लामचाया। यह सब तो सच है पर लिखना नहीं चाहिए। कुछ ने मेरी औकात बताई। क्यापिद्दी, क्या पिद्दी का शोरबा। कुछ ने मुझ पर क्रुयेलिटीका आरोप लगाया।मुझे संतोष है कि सुमन जी ने अपने होशो हवास में हंसमें प्रकाशित मेरासंस्मरण पढ़ लिया था, प्रेमशंकर जी ने भी। मैं संस्मरण श्रद्धालुओं के लिएनहीं लिखता। आस्था सुदृढ़ करने के लिए जो संस्मरण पढ़ते हैं, उन्हें मेरीसलाह है कि वे कल्याणया कल्पवृक्षपढ़ें। इसी बीच दो दुर्घटनाएँ और होगईं। मेरी कूल्हे की हड्डी टूट गई, काफी अर्से तक चलना-फिरना दूभर हो गया।न पुस्तकालय जा सकते, न ही अपने अध्ययन कक्ष की अलमारियों की ऊपरी शेल्फोंसे किताब निकाल सकते। ईश्‍वर प्रदत्त इस चुनौती का सामना मैंने संस्मरणलिखकर किया। ईश्‍वर से तो मैं निबट लिया पर कमलेश्वर का क्या करूँ? कमलेश्‍वर को अध्यापकों की सारी प्रजाति पतितऔर नालायकलगती है। उनकेलेखे रचनशीलताही सर्वोपरि है। सो भैये, लो एक पतित और नालायक प्राध्यपकके संस्मरण पढ़ो। जान कर संतोष हुआ कि उनको मेरे संस्मरण पठनीय ओर प्रिज्मकी तरह लगे। वाहे गुरु की फतह।
सवाल यह भी है कि पहला संस्मरण लिखने-छपने के बाद पत्रिका के संपादक और पाठकों की प्रतिक्रिया का आप पर कैसा असर हुआ?
पहला संस्मरण छपा अप्रैल-अक्टूबर ‘96 की वसुधामें। वह किंचित् लंबाथा, डॉ. कमला प्रसाद ने कहा कि आपके संस्मरण वसुधाके बहुत पन्‍ने घेरतेहैं पर रोचकता के कारण पाठक उन्हें पूरा पढ़ते हैं। मैं छोटे संस्मरण लिखही नहीं पाता। छोटे संस्मरण मुझे या तो शोक प्रस्ताव जैसे लगते हैं याचरित्र प्रमाणपत्र जैसे। हंसमें मेरे लंबे-लंबे संस्मरण छपे और पाठकोंको पसंद आए। भारत भारद्वाज ने लिखा कि संस्मरणों का जो दिग्विजयी अश्‍वकाफी अर्से से प्रयाग और काशी के बीच घूम रहा था, वह अब सागर में स्थायीरूप से बाँध लिया गया है। मेरे संस्मरणों पर कमला प्रसाद को और राजेन्द्रयादव को बहुत सुनना पड़ा, अश्‍लीलता को लेकर। अश्‍लीलता मेरे संस्मरणों मेंमेरे कारण नहीं थी, संस्मृत के अपने व्यक्तित्व के कारण थी। पर कई सुधियोंको दुःशासन द्वारा भरी सभा में द्रौपदी के चीरहरण में अश्‍लीलता याअनैतिकता नहीं दिखाई पड़ी, दिखाई पड़ी वेदव्यास द्वारा महाभारत में चीरहरणका उल्लेख किए जाने पर। इन दिनों एक विज्ञापन आ रहा है दूरदर्शन पर। लड़कीपूछती है- क्या खा रहे हो? लड़का कहता है- लो तुम भी खाओ। लड़की फिर कहतीहै- पर यह तो तंबाखू है। लड़का कहता है- जीरो परसेंट टोबेको, हंड्रेडपरसेंट टेस्ट। मेरे संस्मरणों में भी अश्‍लीलता जीरो प्रतिशत ही है, स्वादकुछ लोगों को शत-प्रतिशत मिलता है। यह उनकी अपनी स्वादेन्द्रिय का कमाल है।
संस्मरण हिन्दी में एक अरसे से लिखे जाते रहे हैं बल्कि पिछले वर्षों में काशीनाथ सिंह, दूधनाथसिंह एवं रवीन्द्र कालिया की संस्मरण पुस्तकें भी छपीं जो वस्तुतः उनकेसमकालीन रचनाकारों पर केन्द्रित हैं। आपने किस तरह संस्मरण की पूरी परंपरासे अलग हटकर कबीर के कपूत बनने का साहस संजोया?
अभी कुछ दिन हुए, संस्मरणों के एक प्रेमी पाठक मुझसे मिलने आए थे।उन्होंने बातचीत के दौरान बचपन में पूछी जाने वाली एक बुझौवल सुनाई:
तीतर के इक आगे तीतर
तीतर के इक पीछे तीतर
आगे तीतर पीछे तीतर
बताओ कुल कितने तीतर
फिर इस बुझौवल का संस्मरण-पाठ भी पेश किया:
का के है आगे इक का
का के पीछे है इक का
आगे इक का, पीछे इक का
बताओ कुल कितने हैं का
यहाँ एक का काशीनाथ का है, दूसरा कालिया का, तीसरा इस नाचीज कान्तिकुमारका है। यह सब कबीर के कपूत हैं, कपूतों की वह परंपरा उग्रऔर अश्कसेहोती हुई कृष्णा सोबती, हरिपाल त्यागी तक पहुँचती है। मैं भी इसी परंपरा काएक पड़ाव हूँ। मैं कुछ ज्यादा ही कपूत साबित हुआ।
कुछ विद्वानों का मत है कि आपने संस्मरण विधा को हाल के दिनोंमें प्रकाशित अपने संस्मरणों से केन्द्रीय विधा बना दिया है। इस बारे मेंआपको क्या कहना है?
इस संबंध में मैं क्या कहूँ? संस्मरण विधा आज समकालीन लेखन की केन्द्रीयविधा बन गई हैं, इसमें संदेह नहीं। पर इसका सारा श्रेय मेरा ही नहीं है।काशीनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह के संस्मरणों से इस विधा मेंजो खुलापन आया था, उससे पाठकों की एक मानसिकता बन गई थी। मुझे उस मानसिकताका लाभ मिला।किसी भी संस्मरणीय के केवलकृष्णपक्ष का उद्घाटन करना लक्ष्‍य नहीं है, बल्कि उसके व्यक्तित्व कीसंरचना के तानों-बानों और उसके परिवेश की सन्निधि में उसकी रचनात्मकता केछोटे-बड़े प्रसंगों के माध्यम से स्कैनिंगमेरा अभीप्सित है। अपनेसंस्मरणों को रोचक और पठनीय बनाने के लिए रचनात्मक कल्पना का उपयोग तोमैंने किया है पर फेकता’(fake) का नहीं। मेरे संस्मरणों में अनेक प्रसंगसेंधे भरने के लिए गाल्पनिक तो हो सकते हैं पर वे पूरी तरह काल्पनिक नहींहैं।अपने संस्मरणों में मैं स्वयं को बचाकर नहीं चलता।
मैंने कभी डायरी नहीं लिखी। स्मृति के और पुराने पत्रों के सहारे हीलिखता हूँ। एकाध संस्मरण में जहाँ भ्रमवश दूसरों से सुने तथ्यों के सहारेमुझसे घटनाओं की पूर्वापरता में गड़बड़ी हुई है, पाठकों ने मुझे पकड़ लियाहै, इसका अर्थ मैंने यही लगाया कि हिन्दी में सुधी और सावधान पाठकों की कमीनहीं है। असावधानीवश हुई इन चूकों को स्वीकार करने में मुझे कोई संकोचनहीं हुआ। जैसे विद्रोहीके संदर्भ में कमलेश्‍वर ने या मुक्तिबोध केसंदर्भ में ललित सुरजन ने या वसुधाके अंतिम अंक के संबंध में भारतभारद्वाज ने मेरी त्रुटि की ओर ध्यान आकर्षित किया। मैं इनका कृतज्ञ हूँ।ये त्रुटियाँ किसी बदनीयती के कारण नहीं हुईं। संस्मृतों के संपूर्णव्यक्तित्व या रचनाशीलता के नियामक तत्त्वों के मेरे निष्कर्षों पर इनकाकोई प्रभाव नहीं पड़ता। पर भूल तो भूल है।
अपने संस्मरणों पर मेरे पास हजारेक पत्र तो आए ही होंगे। टेलीफोन भी कमनहीं आए। लोग पाठकों के न होने का रोना बेवजह ही रोते हैं। अकेले रजनीशवाले संस्मरण पर ही मुझे सैकड़ों पत्र मिले और अभी तक मिल रहे हैं। देश सेभी, विदेशों से भी। इन पत्रों के आधार पर मैंने एक श्रृंखला लिखने का मनबनाया है- संस्मरणों के पीछे क्या है? रजनीश के संस्मरण पर प्राप्तप्रतिक्रियाओं वाला संस्मरण तो लिखा भी जा चुका है- रजनीश का दर्शन:आध्यात्मिक दाद खुजाने का मजा।असल में संस्मरणों को संस्मृत का ही आईनानहीं होना चाहिए, उसे उसके परिवेश का भी अता-पता देना चाहिए। उसे प्रचलितजीवन मूल्यों की प्रासंगिकता की भी जाँच पड़ताल करनी चाहिए।मेरे लिए संस्मरण विशिष्ट कालखंड का सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक इतिहास है।
पिछले दिनों हिन्दी की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में रसालजी, अंचलजी और सुमनजी पर जिस तरह आपके संस्मरण छपे उससे आपके दुश्मनों की संख्या में जरूर इजाफा हुआ, लेकिनसच बात यह भी है कि आज हिन्दी की कोई भी पत्रिका आपके संस्मरण के बिनाअधूरी लगती है। क्या अब आप पूर्णतः संस्मरण समर्पित हैं या और भी आपकी कोईयोजना है?
आपके इस प्रश्‍न के उत्तर में मैं नसीम रामपुरी का एक शेर उद्धृत करना चाहता हूँ:
हार फूलों का मेरी कब्र पर खुद टूट पड़ा
देखते रह गए मुँह फेर के जाने वाले
ऐसा तो नहीं है कि मैं अब संस्मरण छोड़कर कुछ और नहीं लिखता, पर अब जोकुछ लिखता हूँ, वह संस्मरणमय हो उठता है। तुम्हारा परसाईमेरी नव्यतमपुस्तक है जिसे मैंने परसाई जी के जीवन, व्यक्तित्व, परिवेश औरव्यंग्यशीलता का संस्मरणात्मक आख्यान कहा है। तुम्हारा परसाईपढ़कर एकनामी-गिरामी प्रकाशक ने मुझे लिखा कि मुक्तिबोध पर भी ऐसी पुस्तक मैं क्योंनहीं लिखता? मेरा उत्तर था, ऐसी पुस्तक लिखने के जितने धैर्य और समय कीआवश्यकता है, वह अब मेरे पास नहीं है। हाँ, मुक्तिबोध जी के नागपुर केदिनों पर लिखने का मन जरूर बना रहा हूँ, ‘महागुरु मुक्तिबोध: जुम्मा टैंककी सीढ़ियों परनाम से। यह जीवनलाल वर्मा विद्रोही’, रामकृष्णश्रीवास्तव, श्रीकांत वर्मा, शिवकुमार श्रीवास्तव, प्रमोद वर्मा, अनिलकुमार, सतीश चौबे, भाऊ समर्थ, हरिशंकर परसाई जैसे रचनाकारों के साहित्य, संस्मरणों और पत्रों के माध्यम से नागपुर के दिनों के मुक्तिबोध के जीवन, मानसिकता और रचनाशीलता को डिस्कवरकरने की संस्मरणमय कोशिश होगी। इसकोशिश के कुछ अंश आपने हंस’, ‘वसुधा’, ‘साक्षात्कार’, ‘आशय’, ‘अन्यथा’, ‘परस्परजैसी पत्रिकाओं में देखे भी होंगे। मालगुड़ी डेज़ की तरह अपनेबचपन के दिनों का वृत्तांत भी मैं लिख रहा हूँ बैकुंठपुर में बचपनके नामसे। छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचल के अभावों, संघर्षों, शोषण, प्रकृति सेतादात्म्य और लोक की अदम्य जिजीविषा का आख्यान। यह भी संस्मरणात्मक हीहोगा। फिर संस्मरणों की मेरी नई पुस्तक भी है-जो कहूँगा, सच कहूँगानामसे। एक तरह से लौटकर आना नहीं होगाका दूसरा खंड। इन संस्मरणों में मेरीशिकायत मानवीय दुर्बलता से उतनी नहीं, जितनी टुच्चे स्वार्थों और संकीर्णसोच के कारण किए जाने वाले छल, छद्म और फरेब से है। कथनी और करनी में जितनीदूरी आज दिखाई पड़ रही है, उतनी शायद कभी नहीं रही। मानवीय गरिमा का क्षरणकरने वाली किसी भी चतुराई या संकीर्णता से मुझे एलर्जी है। इस एलर्जी कोप्रकट करना दुश्मनों की संख्या में इजाफा करना है। मेरे दुश्मन बढ़ रहे हैंअर्थात् मेरे संस्मरण ठीक जगह पर चोट कर रहे हैं। मे देअर ट्राइवइनक्रीज़
अभीशब्द शिखरपत्रिका मेंआपके नाम लिखे कुछ महत्वपूर्ण लेखकों के पत्र छपे हैं। राजेन्द्र यादव केलिखे पत्रों से ऐसा आभास होता है कि आप पर लगातार दबाव डालकरहंसके लिए उन्होंने आपसे संस्मरण लिखवाए ही नहीं बल्कि आपको जेल भिजवाने का भी पूरा प्रबंध कर दिया है। वस्तुस्थिति क्या है, यह आप ही बताएँगे।
नहीं, राजेन्द्र यादव का मुझ पर संस्मरण के लिए कोई दबाव नहीं था।संस्मरण के पात्र का चुनाव सदैव मेरा ही रहा है, उसका ढंग भी। अब 70 साल कीउम्र में कोई मुझ पर दबाव डालकर कुछ लिखा लेगा, यह प्रतीति ही मुझेहास्यास्पद लगती है। राजेन्द्र यादव अच्छे संपादक हैं, वे रचनाकार कीसीमाओं को और क्षमताओं को पहचानते हैं। वे साहसी भी हैं, मुझे लगता है वेजितने बद नहीं, बदनाम उससे बहुत ज्यादा हैं। शायद बदनामी मनोवैज्ञानिक रूपसे उनके लिए क्षतिपूर्ति उपकरण है। बदनामी और विवाद उन्हें अपनी महत्तासिद्ध करने के लिए अनिवार्य लगते हैं। कुछ लोग होते हैं जिन्हें चर्चा मेंबने रहना अच्छा लगता है। चर्चा और बदनामी उनके लिए लगभग पर्याय होते हैं।मैं आपको बताऊँ, ‘अंचलवाला संस्मरण तो कोई छापने को तैयार ही नहीं था।अंचल प्रगतिशील रह चुके थे, ‘लाल चूनरवाले। अतः प्रगतिशील खेमे कीपत्रिकाएँ अपने नायक का सिंदूर खुरचित रूप दिखाने को तैयार नहीं थीं। अंचलजी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रह चुके थे। अतः सम्मेलन सेसंबद्ध पत्रिकाओं के अपने संकोच थे। अक्षय कुमार जैन ने तो मुझे साफ लिखाकि हिन्दी के पाठक अभी ऐसी मानसिकता के नहीं हो पाए हैं कि वे आपके ऐसेसंस्मरण पचा सकें। वागर्थ’ (उस जमाने की), ‘वाणी’, ‘अक्षराजैसी निरामिषपत्रिकाओं से मैं क्या उम्मीद करता? अन्ततः मैंने वह राजेन्द्र यादव को भेजदिया। राजेन्द्र यादव से मेरी कोई आत्मीयता नहीं थी। जीवाजीविश्‍वविद्यालय में मैंने उनका उपन्यास नहीं लगाया था। वे मुझसे रुष्ट थे।सोचा, उनको भी खंगाल लिया जाए। हफ्ते भर में उनका पत्र आया, शीघ्र छपेगा।अंचलछपने पर बड़ा बावेला मचा। अश्‍लील, क्रुयेल, अनैतिक, चरित्रहनन, खुदबड़े पाक बने फिरते हैं टाइप। जेल पहुँचाने का इंतजाम राजेन्द्र यादव नेनहीं, मेरे मित्रों ने किया। भोपाल के मेरे एक बहुत पुराने मित्र ने जोस्वयं को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से बड़ा तो नहीं, पर उनके समकक्ष मानतेहैं, अंचल जी की बेटी को कानूनी कार्यवाही के लिए उकसाया। वह स्वयं अनुभवीहै, उसके पति न्यायाधीश हैं। वे कानून के जानकार हैं, समझदार। अतः उन मित्रमहोदय के बहकावे में नहीं आए। हाँ, एक अखिल मुहल्ला कीर्ति के धनी कवि नेजरूर मुझ पर मानहानि जैसा कुछ करने की धमकी दी। पर वे भी टांय-टांय फिस्ससे ज्यादा नहीं बढ़ पाए। सुधीर पचौरी और विष्णु खरे जैसी सुधी और नीरक्षीरविवेकी विचारकों ने अश्‍लीलता की चलनी में मेरी छानबीन की, यह भूलकर कि सूपकहे तो कहे, चलनी क्या कहे जिसमें बहत्तर छेद। हिन्दी समाज में अश्‍लीलताकी कबड्डी खेलना समीक्षकों का सबसे पसंदीदा खेल है। यार लोग चाहते हैं किमैं मित्रों के कांधे पर चढ़कर नहीं, भूतपूर्व मित्रों के कांधों पर चढ़करअंतिम यात्रा पर निकलूँ। यहाँ हर पड़ोसी, दूसरे की खिड़की में ताक-झाँक कीफिराक़ में रहता है, अपनी खिड़की में मोटे-मोटे ब्लाइंडडालकर। अपनेसंस्मरणों के हर शब्द के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ। किसी राजेन्द्र यादवके पाले में गेंद फेंकना बेईमानी भी है, अनैतिकता भी। वह कायरता तो है ही।
कहने की जरूरत नहीं कि आज हिन्दी में आपने संस्मरण विधा में नईजान फूंकी है और हर नया लेखक कान्तिकुमार जैन बनने की कोशिश में लगा है। आपइस स्थिति को किस रूप में देखते हैं।
आपके इस तरह के प्रश्‍न के उत्तर में मैं आपको एक लतीफा सुनाना चाहताहूँ- स्कूल में पढ़ने वाले और नए-नए तरुण हुए एक छात्र को उसके एक सहपाठीने एक प्रेम प्रसंग के निपटारे के लिए द्वंद युद्ध में ललकारा। यह युद्धतलवारों से लड़ा जाना था। ललकारित छात्र ने अपने पिताजी से कहा कि पिताजी, आप मेरे लिए एक लंबी तलवार बनवा दें जो सहपाठी की तलवार से छह इंच लंबी हो।पिताजी समझ गए। बोले- बेटे! यदि तुम्हें सामनेवाले को परास्त करना है तोछह इंच आगे बढ़कर मारो। इस तरह के युद्ध तलवार की लंबाई से नहीं, भीतर केहाँसले से लड़े जाते हैं। यदि किसी का मेरुदंड कमजोर हो तो न तलवार कीलंबाई काम आती है, न पिताजी का संरक्षण। ऐसे लोगों को संस्मरण नहीं लिखनेचाहिए।
मुझे लगता है कि आपके संस्मरणों के पीछे परसाई खड़े हैं आशीर्वाद की मुद्रा में, क्योंकियह बात तो बिल्कुल साफ है कि आपके भीतर के आलोचक और परसाई के व्यंग्य कीधार से आपके संस्मरण परवान चढ़े हैं। वैसे तो अपनी नई पुस्तकतुम्हारा परसाईमें विनम्रतापूर्वक यह कहकर कि तुम्हारा परसाई में मेरा क्या है, आपने अपना संकोच स्पष्ट कर दिया है फिर भी कुछ बचा रहता है परसाई से उऋण होने के लिए। इस प्रसंग में आप कुछ और जोड़ना चाहेंगे।
परसाई जी मेरे मित्र थे- आत्मीय और अंतरंग। उनका और मेरा लगभग चालीसवर्षों का साथ था। उनसे प्रेरित और प्रभावित न होना कठिन था। वे मुझसे बड़ेथे, प्रतिष्ठित। फिर विचारधारा के स्तर पर भी मैं उनके बहुत निकट रहा हूँ।मुझे उनकी जो बात सबसे पसंद थी वह यह कि अपनी विचारधारा की वे अपनेव्यंग्यों में घोषणा नहीं करते थे, उसे संवेदित होने देते थे। जैसे बिजलीइंसुलेटेड वायर के भीतर ही भीतर दौड़ती रहती है, यहाँ से वहाँ तक। पर अंतमें वह तार झटका भी देता है और प्रकाश भी। इस अर्थ में वे हिन्दी के अनेकवामपंथी लेखकों से विशिष्ट हैं।दुर्भाग्यहै कि हिन्दी में संघवाद, विचारधारा और उसके संगठनों का प्राधान्य है। हरसंगठन अपने आदमी की तमाम-तमाम चूकों, खामियों, विचलनों को ढाँकने-मूँदनेमें लगा है। ठीक राजनीतिक दलों की तरह। संप्रदायवाद, भ्रष्टाचार, छल, घोटालों, बेईमानियों का हम गुट निरपेक्ष या संगठन तटस्थ होकर विरोध नहींकरते। परसाई ऐसा करते थे। इसीलिए परसाई की मार चतुर्मुखी होती थी ओर उनकाप्रभाव भी इसीलिए सब तरह के पाठकों पर था। ऐसे समय परसाई जी जैसे लेखकों कोहोना चाहिए।गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता है, जिसमेंअपने अवसान के समय सूर्य पूछता है कि मेरे बाद पृथ्वी का अंधकार कौन दूरकरेगा। मिट्टी का एक दिया सामने आया। बोला- अपनी शक्ति भर मैं करूँगा। मैंमिट्टी का वही दिया हूँ।
तुम्हारा परसाईएक विलक्षण पुस्तक है जो काशीनाथ सिंह जी की पुस्तककाशी का अस्सीकीतरह धमाके से विधाओं की वर्जनाओं को तोड़ती है। संस्मरणात्मक भी यह हैलेकिन उससे ज्यादा परसाई के जीवन और लेखन का मोनोग्राफ। क्या आपको ऐसा नहींलगता?
विधाओं का वर्गीकरण तो साहित्य शास्त्रियों ने सुविधा के लिए कर रखा है।विधाओं की चौहद्दी में बँधने से रचनाकारों की क्रियेटिविटी बाधित होती है।जैसे बहुत घिसने से बासन का मुलम्मा छूट जाता है, वैसे ही पीढ़ी दर पीढ़ीकाम में आते रहने से विधाओं की दीप्ति भी फीकी पड़ जाती है। समर्थ रचनाकारप्रत्येक युग में साहित्य के परिधान में कुछ न कुछ परिवर्तन करता है।वास्तव में विधाओं की कोई एलओसी नहीं होती। विधाओं का अतिक्रमण करने सेसाहित्य की थकान मिटती है, साहित्यकार की भी। तुम्हारा परसाईको मैंनेजानबूझकर परसाई के जीवन, व्यक्तित्व, परिवेश और व्यंग्यशीलता कासंस्मरणात्मक आख्यान कहा है। इससे परसाई जी के जीवन के और लेखन केतानों-बानों को समझने में सुविधा होती है। मुझे संतोष है कि इधर हिन्दी केबहुत से लेखक संस्मरण लिखने में रुचि ले रहे हैं। हर पत्रिका के लिएसंस्मरण लगभग अनिवार्य हो गए हैं। इन संस्मरणों से हिन्दी साहित्य केवास्तविक इतिहास का कच्चा माल सामने आ रहा है। हिन्दी साहित्य के समकालीनइतिहास की दूसरी परंपरा का सामने आना कई दृष्टियों से वांछनीय है।
अंतिम सवाल, मुझे ठीक से नहीं मालूम लेकिन मैंयह जानना चाहती हूँ कि आपकी धर्मपत्नी साधना जैन का आपके लेखन में कितनासहयोग है- आपकी स्मृति को रिफ्रेश करने में या संदर्भों को दुरुस्त करनेमें?
साधना मेरी पत्नी हैं पढ़ी-लिखीं, साहित्यिक समझ से भरपूर। घटनाओं केपूर्वापर क्रम की और व्यक्ति द्वारा उच्चरित कथन को ज्यों का त्यों दुहरासकने की उनमें विलक्षण प्रतिभा है। उर्दू के शेर तो उन्हें ढेरों याद हैं।अपने संस्मरण लेखन में जहाँ कहीं मैं अटकता हूँ, स्मृति का मैगनेट साफ करनेमें वे मेरी सहायता करती हैं। वे मेरी जीवन-संगिनी हैं फलतःसंस्मरण-संगिनी भी। 1962 में मुझसे विवाह के उपरांत वे मेरे सारे मित्रोंको जानती हैं और उन्हें समझती भी हैं। मैं डायरी नहीं लिखता पर यदि लिखतातो पत्नी से छिपाकर नहीं रखता। मैं हिन्दी के उन लेखकों में नहीं हूँ जोअपनी पत्नी को दर्जा तीन पर स्थान देते हैं- पहले मेरा लेखन, फिर मेरेदोस्त, फिर तू। मैं उन लेखकों में भी नहीं हूँ जो यह कहकर गौरवान्वित होतेहैं, लेखन तो मेरा अपना है, मेरी पत्नी का इसमें कोई योग नहीं है। ऐसे लोगया तो मुझे सामंती पुरुषाना अहंकार से ग्रस्त लगते हैं या अपनी पत्नी कोनिर्बुद्धि समझते हैं। संयोग से न तो मुझमें वैसा अहंकार है, न ही साधनावैसी निर्बुद्धि हैं।
अपने संस्मरणों में अपनी पत्नी का उल्लेख करने का परिणाम यह हुआ है किबहुत से संस्मरण लेखक अपनी पत्नी को भी क़ाबिले उल्लेख समझने लगे हैं। एकने तो अपनी पत्नी को करवाचौथी परिधि से निकालकर साहित्य का कोई पुरस्कार भीदिलवा दिया है। गुजरात की एक धर्मपत्नी ने जिनके पति अच्छे खासेसाहित्यकार हैं और जिन्होंने प्रेम विवाह किया था, बड़े दुःख से मुझे लिखा-काश! मेरे पति भी अपने संस्मरणों में उसी सम्मान और स्नेह से मेरा उल्लेखकरते जैसे आप अपनी पत्नी का करते हैं। उस उमर में जब साहित्यकार पति और कुछनहीं कर सकता, उसे इतना तो करना ही चाहिए।
(भारतीय लेखक, अक्टूबर-दिसंबर, 05  से साभार)
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2014: हिन्दी साहित्य ने भरे कितने कदम?

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प्रस्तुति-- स्वामी शरण

पत्रकारिता इतिहास पर मूल्यांकन से पहले जांच करे

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पत्रकारिता का इतिहास


पत्रकारिता का इतिहास, प्रौद्योगिकीऔर व्यापारके विकास के साथ आरम्भ हुआ।

इतिहास

लगता है कि विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131 ईस्वी पूर्व रोममें हुआ था। उस साल पहला दैनिक समाचार-पत्र निकलने लगा। उस का नाम था – “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं)। वास्तव में यह पत्थर की या धातुकी पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे। ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं और इन में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।
मध्यकाल में यूरोपके व्यापारिक केंद्रों में ‘सूचना-पत्र ‘ निकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। लेकिन ये सारे ‘सूचना-पत्र ‘ हाथ से ही लिखे जाते थे।
15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्गने छापने की मशीन का आविष्कार किया। असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया। इस के फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अख़बारों का भी प्रकाशन संभव हो गया।
16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नकल करने का काम महंगा भी था और धीमा भी। तब वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा। समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन’। यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है।

भारत में पत्रकारिता का आरंभ

छापेकी पहली मशीन भारतमें 1674 में पहुंचायी गयी थी। मगर भारत का पहला अख़बार इस के 100 साल बाद, 1776 में प्रकाशित हुआ। इस का प्रकाशक ईस्ट इंडिया कंपनीका भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्स था। यह अख़बार स्वभावतः अंग्रेज़ी भाषा में निकलता था तथा कंपनी व सरकार के समाचार फैलाता था।
सब से पहला अख़बार, जिस में विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त किये गये, वह 1780 में जेम्स ओगस्टस हीकी का अख़बार ‘बंगाल गज़ेट’था। अख़बार में दो पन्ने थे और इस में ईस्ट इंडिया कंपनीके वरिष्ठ अधिकारियों की व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। जब हीकी ने अपने अख़बार में गवर्नर की पत्नी का आक्षेप किया तो उसे 4 महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुरमाना लगा दिया गया। लेकिन हीकी शासकों की आलोचना करने से पर्हेज़ नहीं किया। और जब उस ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुरमाना लगाया गया और एक साल के लिये जेल में डाला गया। इस तरह उस का अख़बार भी बंद हो गया।
  • 1790 के बाद भारत में अंग्रेज़ी भाषा की और कुछ अख़बार स्थापित हुए जो अधिक्तर शासन के मुखपत्र थे। पर भारत में प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्र थोड़े-थोड़े दिनों तक ही जीवित रह सके।
  • 1819 में भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था। वह बंगाली भाषाका पत्र – ‘संवाद कौमुदी’ (बुद्धि का चांद) था। उस के प्रकाशक राजा राममोहन रायथे।
  • 1822 में गुजराती भाषाका साप्ताहिक ‘मुंबईना समाचार’ प्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार-पत्र है।
  • 1826 में ‘उदंत मार्तंड’नाम से हिंदीके प्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह साप्ताहिक पत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया।
  • 1830 में राममोहन राय ने बड़ा हिंदी साप्ताहिक ‘बंगदूत’का प्रकाशन शुरू किया। वैसे यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेज़ी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था। यह कोलकातासे निकलता था जो अहिंदी क्षेत्र था। इस से पता चलता है कि राममोहन राय हिंदी को कितना महत्व देते थे।
  • 1833 में भारत में 20 समाचार-पत्र थे, 1850 में 28 हो गए और 1953 में 35 हो गये। इस तरह अख़बारों की संख्या तो बढ़ी, पर नाममात्र को ही बढ़ी। बहुत से पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार-पत्र कई महीनों से ले कर दो-तीन साल तक जीवित रहे।
उस समय भारतीय समाचार-पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे और उसके साथ समाज-सुधारकी भावना भी थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नये और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे। इस के कारण नये-नये पत्र निकले। उन के सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किस भाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थी – भाषा शुद्ध हो या सब के लिये सुलभ हो? 1846 में राजा शिव प्रसादने हिंदी पत्र ‘बनारस अख़बार’का प्रकाशन शुरू किया। राजा शिव प्रसाद शुद्ध हिंदी का प्रचार करते थे और अपने पत्र के पृष्ठों पर उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोल-चाल की हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। लेकिन उसी समय के हिंदी लखक भारतेंदु हरिशचंद्रने ऐसी रचनाएं रचीं जिन की भाषा समृद्ध भी थी और सरल भी। इस तरह उन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी है और हिंदी के भविष्य के बारे में हो रहे विवाद को समाप्त कर दिया। 1868 में भरतेंदु हरिशचंद्र ने साहित्यिक पत्रिका ‘कविवच सुधा’ निकालना प्रारंभ किया। 1854 में हिंदी का पहला दैनिक ‘समाचार सुधा वर्षण’निकला।

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आंकड़े होंगे भविष्य की पत्रकारिता का आधार

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आंकड़े होंगे आगे की पत्रकारिता का आधार

 

 


आंकड़े होंगे आगे की पत्रकारिता का आधार
आंकड़े होंगे आगे की पत्रकारिता का आधार

मुकूल श्रीवास्तव

वाशिंगटन पोस्ट अखबार के बिकने की खबर की घोषणा के बाद से ही अमेरिकी मीडिया में अखबारों के भविष्य को लेकर बहस जारी है.
भारत के लिए भी यह बड़ा सबक है क्योंकि अखबारों का जो हाल आज अमेरिका में है, वैसा आने वाले सालों में भारत में भी होगा. इंडियन रीडरशिप सर्वे के चौथी तिमाही की रिपोर्ट के अनुसार भारत के शीर्ष दस हिंदी दैनिकों की औसत पाठक संख्या में 6.12 प्रतिशत की गिरावट आई है, वहीं अंग्रेजी दैनिकों में गिरावट की दर 4.75 प्रतिशत रही. पत्रिकाओं में यह गिरावट सबसे ज्यादा 30.15 प्रतिशत रही. बढ़ते डिजिटलीकरण और सूचना क्रांति ने अखबारों की दुनिया बदल दी है.
पत्रकारिता के जिस रूप से हम परिचित हैं वह दिन-प्रतिदिन बदलता जा रहा है. जब विभिन्न वेबसाइट  और वेब न्यूज पोर्टल पल-पल खबरें अपडेट कर रहे हैं तो समाचार पत्रों की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है. कल के अखबार की खबरें यदि पाठक आज ही इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त कर सकता है तो फिर कल के अखबार की जरूरत ही क्या है! पर भारत के संदर्भ में, जहां निरक्षरों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है और अखबारों से नए पाठक जुड़ रहे हैं, स्थिति अमेरिका जितनी गंभीर नही है. पर चुनौती कोई भी क्यों न हो, अपने साथ अवसर भी लाती है.
भारत के अखबारों का कंटेंट और उसके प्रस्तुतीकरण का तरीका भी तेजी से बदल रहा है. प्रिंट और डिजिटल दोनों का तालमेल हो रहा है. इस बदलाव में बड़ी भूमिका आंकड़े निभा रहे हैं. वह चाहे पाठकों की पृष्ठभूमि को जानकर उसके अनुसार सामग्री को प्रस्तुत करना हो या समाचार या लेखों में आंकड़ों को शीर्ष भूमिका में रखकर कथ्य को इंफोग्राफिक्स की सहायता से दशर्नीय और पठनीय बना देना. अखबारों के डिजिटल संस्करण इन आंकड़ों के बड़े स्रेत बन रहे हैं. वर्ल्ड वाइड वेब के जनक सर टिम बरनर्स ली का मशहूर कथन है कि ‘डाटा (आंकड़ों) का विश्लेषण ही पत्रकारिता का भविष्य है’.
आंकड़ा पत्रकारिता, पत्रकारिता का वह स्वरूप है जिसमें विभिन्न प्रकार के आंकड़ों का विश्लेषण करके उन्हें समाचार का रूप दिया जाता है. विकिलीक्स और सूचना के अधिकार के इस दौर में जहां लाखों आंकड़े हर उस व्यक्ति के लिए उपलब्ध हैं जो वास्तव में उनके बारे में जानने का इच्छुक है, वहीं उन आंकड़ों को समाचार रूप में प्रस्तुत करना एक चुनौती है. एक बात जो पत्रकारों और पत्रकारिता के पक्ष में जाती है वह यह है कि भले ही आंकड़े सबके अवलोकन के लिए उपलब्ध हैं, पर उनका विश्लेषण कर उनसे अर्थपूर्ण तथ्य के लिए अखबार अभी भी एक विश्वसनीय जरिया हैं.
वेबसाइट और पोर्टल पर समाचार का संक्षिप्त या सार रूप ही दिया जाता है क्योंकि डिजिटल पाठक सरसरी तौर पर सूचनाओं की जानकारी चाहते हैं जिससे वे अपडेट रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कम्प्यूटर स्क्रीन और स्मार्ट फोन की स्क्रीन भी तथ्यों के प्रस्तुतीकरण में एक बड़ी बाधा बनती है और शायद इसीलिए आंकड़ों का बेहतरीन विश्लेषण अखबार के पन्नों में होता है. जहां पढ़ने के लिए माउस के कर्सर या टच स्क्रीन को संभालने जैसी कोई तकनीकी समस्या नहीं होती है.
समाचार पत्र इस तरह की किसी तकनीकी सीमा से मुक्त हैं और चौबीस घंटे में एक बार पाठकों तक पहुंचने के कारण उनके पास पर्याप्त समय भी रहता है, जिससे आंकड़ों का बहुआयामी विश्लेषण संभव हो पाता है. त्वरित सूचना के इस युग में आंकड़ा आधारित पत्रकारिता का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि महज सूचना या आंकड़े उतने प्रभावशाली नहीं होते हैं जितना कि उनका विश्लेषण और उस विश्लेषण द्वारा निकाले गए वे परिणाम जो आम जनता की जिंदगी पर प्रभाव डालते हैं. बात चाहे खाद्य सुरक्षा बिल की हो या मनरेगा जैसी योजनाओं की, सभी में आंकड़ों का महत्वपूर्ण रोल रहा है.
सरकार अगर आंकड़ों की बाजीगरी कर रही है तो जनता को व्यवस्थित तरीके से आंकड़ा पत्रकारिता के जरिए ही बताया जा सकता है कि इन योजनाओं से असल में देश की तस्वीर कैसी बन रही है. इसमें कोई संशय नहीं है कि भविष्य में हमारे पास जितने ज्यादा आंकड़े होंगे हम उतना ही सशक्त होंगे, पर पाठकों को बोझिल आंकड़ों के बोझ से बचाना भी है और उन्हें सूचित भी करना है और इस कार्य में भारत में अभी भी समाचार पत्र अग्रणी हैं.
आंकड़ा पत्रकारिता पाठकों अथवा दर्शकों को उनके महत्व की जानकारी प्राप्त करने में मदद करती है. यह एक ऐसी कहानी सामने लाती है जो ध्यान देने योग्य है और पहले से जनता की जानकारी में नहीं है और पाठकों को एक गूढ़ विषय को आसानी से समझने में मदद करती है. दुनिया के बड़े मीडिया समूहों जैसे द गार्डियन, ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन ने इस पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया है.
माना जा रहा है कि वाशिंगटन पोस्ट ने वर्षो से पंजीकरण द्वारा अपने पाठकों के बारे में जो आंकड़े जुटाए है उनका इस्तेमाल कर अखबार अपनी लोकप्रियता और प्रसार दोनों बढ़ाएगा. यानी डिजिटल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करके अखबारों की सामग्री को बेहतर करने के लिए  पाठकों की रु चियों और आवश्यकताओं को जानना जरूरी है और इसमें आंकड़ों का प्रमुख योगदान है. द गार्डियन ने तो अपने विशेष डेटा ब्लॉग के जरिये आडियंस के बीच अच्छी-खासी पकड़ बना ली है.
हालांकि की कुछ लोग यह भी मानते हैं कि डेटा पत्रकारिता वास्तव में पत्रकारिता ही नहीं है, पर यदि इसे थोड़ा करीब से देखा जाए तो किसी को भी इसे पत्रकारिता मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए. डेटा पत्रकारिता सामान्य पत्रकारिता से केवल इस मायने में भिन्न है कि इसमें जानकारी जुटाने के लिए अधिक भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ती है. पर आंकड़ों के अथाह सागर में से काम के आंकड़े निकालना भी कोई आसान काम नहीं है. डेटा पत्रकारिता के लिए समाचार का विशिष्ट होना आवश्यक है. इसके लिए आवश्यक है एक मजबूत संपादकीय विवरण, जिसके पास आकर्षक ग्राफिक्स और चित्रों का समर्थन हो.
भारत इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण इसलिए है कि यहां स्थितियां अमेरिका जैसी नहीं है, जहां इंटरनेट का साम्राज्य फैल चुका है. भारत में डिजिटल और प्रिंट माध्यम, दोनों साथ-साथ बढ़ रहे हैं. वह भी एक दूसरे की कीमत पर नहीं बल्कि दोनों के अपने दायरे हैं. अगर प्रिंट के पाठक कम हो रहे हैं तो नए पाठकों जुड़ भी रहे हैं. नए प्रिंट के पाठक जल्दी ही डिजिटल मीडिया के पाठक हो रहे हैं जिसमें ग्रामीण भारत बड़ी भूमिका निभा रहा है.
तथ्य यह भी है कि सूचना क्रांति के बढ़ते प्रभाव और सूचना के अधिकार जैसे कानून के कारण आंकड़े तेजी से संकलित और संगठित किए जा रहे हैं. वहां खबरों के असली नायक आंकड़े हैं, जो पल-पल बदलते भारत की वैसी ही तस्वीर आंकड़ों के रूप में हमारे सामने पेश कर रहे हैं, तो अब समाचार तस्वीर के दोनों रुख के साथ-साथ यह भी बता रहे हैं कि अच्छा कितना अच्छा है और बुरा कितना बुरा है.

बीबीसी वर्ल्ड सर्विस

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प्रस्तुति-- राहुल मानव, समिधा, राकेश


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प्रकारRadio network
देशUnited Kingdom (external use only)
उपलब्धताWorldwide
स्वामीBBC
Key peoplePeter Horrocks (Director)
विमोचन तिथि19 दिसम्बर 1932
Former namesBBC Empire Service
आधिकारिक जालस्थलwww.bbcworldservice.com
बीबीसी वर्ल्ड सर्विसदुनिया का सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय प्रसारक है,[1][2]जो सादृश और अंकीय लघु तरंगों (एनालॉग एंड डिजिटल शार्टवेव), इंटरनेट स्ट्रीमिंग और पॉडकास्टिंग, उपग्रह, एफएम और एमडब्ल्यू प्रसारणों के जरिये दुनिया के कई हिस्सों में 32 भाषाओं में प्रसारण करता है। यह राजनीतिक रूप से स्वतंत्र, (बीबीसी के घोषणपत्र में उल्लिखित विषयों का ब्यौरा उपलब्ध कराने के समझौते के आदेश द्वारा)[3]गैर-लाभकारी और वाणिज्यिक विज्ञापनोंसे मुक्त है।
अंग्रेजी भाषाकी सेवा हर दिन 24 घंटे प्रसारित होती है। जून 2009 में बीबीसी की रिपोर्ट है कि विश्व सेवा के साप्ताहिक श्रोताओं का औसत 188 मिलियन लोगों तक पहुंच गया।[4]वर्ल्ड सर्विस के लिए ब्रिटिश सरकार विदेशी और राष्ट्रमंडल कार्यालय द्वारा अनुदान सहायता के माध्यम से वित्तपोषित करती है।[5] 2014 से यह अनिवार्य बीबीसी लाइसेंस शुल्क से वित्तपोषित होगा, जो ब्रिटेन में टेलीविजन पर प्रसा‍रित कार्यक्रमों को देखने वाले हर घर पर लगाया जायेगा.[6]
बीबीसी वर्ल्ड सर्विस रेडियो अकादमी का एक संरक्षक है।[7]वर्ल्ड सर्विस के निदेशक पीटर हॉरोक है।

इतिहास

बीबीसी वर्ल्ड सर्विस 1932 में बीबीसी एम्पायर सर्विस के तौर पर एक लघु तरंग सेवा के रूप शुरू हुई.[8]इसके प्रसारणों का मुख्य मकसद ब्रिटिश साम्राज्यके बाहरी हिस्सों में अंग्रेजी बोलने वालेलोगों तक पहुंचना था या जैसा कि जार्ज पंचमने अपने पहले शाही क्रिसमस संदेश में कहा था, "उन पुरुषों और महिलाओं तक पहुंचना, जो बर्फ, रेगिस्तान या समुद्र के कारण अलग-थलग हैं और सिर्फ आवाजें ही हवा के माध्यम से उन तक पहुंच सकती हैं।"[9]
पहले पहल एम्पायर सर्विस के प्रति उम्मीदें बहुत कम थीं। महानिदेशक सर जॉन रीथ (बाद में लॉर्ड रीथ) ने उद्घाटन कार्यक्रम में कहा: "शुरुआती दिनों में ज्यादा उम्मीद मत कीजिए, कुछ समय के लिए हम अपेक्षाकृत साधारण कार्यक्रम संचारित करेंगे, ताकि सुगम अभिग्रहण का सबसे अच्छा मौका दिया जा सके और इस बात के साक्ष्य दिये जा सकें कि प्रत्येक क्षेत्र में सेवा के लिए उपयुक्त सामग्री का प्रकार क्या हो. कार्यक्रम न बहुत रोचक होंगे और काफी अच्छे ही."[10]इस संबोधन को पांच बार पढ़ा गया, क्योंकि दुनिया के विभिन्न भागों में इसे लाइव प्रसारित किया गया।
3 जनवरी 1938 को पहली विदेशी भाषा सेवा अरबीशुरू की गई। जर्मनभाषा में प्रसारण दूसरे विश्व युद्धके शुरू होने के कुछ ही पहले शुरू हुआ और 1942 के अंत तक सभी प्रमुख यूरोपीय भाषाओं में प्रसारण होने लगे. नवम्बर 1939 में एंपायर सर्विस का नाम बीबीसी ओवरसीज सर्विसरखा गया और एक समर्पित बीबीसी यूरोपीय सेवा 1941 में जोड़ी गई। इन प्रसारण सेवाओं का वित्तपोषण घरेलू लाइसेंस शुल्क से नहीं, सरकार की आर्थिक अनुदान सहायता (विदेश विभाग के बजट से) होता था और प्रशासकीय रूप से इसे एक्सटर्नल सर्विसेज ऑफ द बीबीसीके रूप में जाना जाता था।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंतरराष्ट्रीय प्रसारण में बाहरी सेवाओं को दर्शकों की एक व्यापक श्रेणी के लिए समाचार के वैकल्पिक स्रोत के रूप में एक विशेष जगह मिली, क्योंकि खासकर दुश्मनों और कब्जे वाले क्षेत्रों में लोगों को अक्सर चुपके से सुनना पड़ता था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जॉर्ज ऑरवेलने ईस्टर्न सर्विस पर कई समाचार बुलेटिन प्रसारित किये.[11][12]
29 मार्च 1938 को शुरू होकर 1999 में बंद हुई जर्मन सेवा ने नाजी जर्मनी के खिलाफ प्रचार युद्ध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.[13]

बुश हॉउस, वर्ल्ड सर्विस के लिए घर.
यह सेवा बुश हाउस में स्थित थी, क्योंकि 8 दिसम्बर 1940 को एक बारूदी सुरंग के विस्फोट से ब्रॉडकास्ट हाउस में स्टूडियो का मूल घर क्षतिग्रस्त हो गया था। यूरोपीय सेवा पहले स्थानांतरित की गईं और उसके बाद 1958 में बाकी विदेश सेवाएं. बीबीसी की संपत्ति के उपयोग के संदर्भ में एक बड़े परिवर्तन के रूप में 2012 में वर्ल्ड सर्विस ब्रॉडकास्टिंग हाउस में वापस आ जायेगी, जब बीबीसी न्यूज, बीबीसी वर्ल्ड, वर्ल्ड सर्विस और बीबीसी लंदन पहली बार एक ही न्यूज रूम में आ जायेंगे.
"बीबीसी वर्ल्ड सर्विस"नाम 1 मई 1965 प्रभावी हुआ।[14]
अगस्त 1985 में पहली बार सेवा सेवा बंद हो गई। श्रमिक ब्रिटिश सरकार द्वारा सिन फेइन के मार्टिन मैकगिनीज के साथ साक्षात्कार वाले एक वृत्तचित्र पर प्रतिबंध लगाने के निर्णय के विरोध में हड़ताल पर थे। विदेशी सेवाओं का 1988 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ब्रांड के तहत पुन: नाम दिया गया।

लक्ष्य

वर्ल्ड सर्विस के अनुसार इसके उद्देश्यों में "अंतरराष्ट्रीय प्रसारण में दुनिया में सबसे जानी-पहचानी और सबसे ज्यादा सम्मानित आवाज बनना, जिससे कि ब्रिटेन, बीबीसी और दुनिया भर के दर्शकों को लाभ पहुंचाया जा सके."[15]ब्रिटेन सरकार. ने 2008/9 में वर्ल्ड सर्विस पर 241 मिलियन £खर्च किया था।[16]
बीबीसी ब्रिटिश सरकार का एक क्राउन निगम है, लेकिन वह स्वतंत्र रूप से संचालित होता है। ब्रिटिश सरकार का बीबीसी पर कोई प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं होता. वर्ल्ड सर्विस को अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर "संतुलित ब्रिटिश दृष्टिकोण"अपनाने की आवश्यकता होती है।[17]
शीत युद्धके दौरान वर्ल्ड सर्विस सोवियत संघके लिए अग्रणी अंतरराष्ट्रीय प्रसारकों में से एक था।[18]लोहे का परदा गिरने मतलब महाबली के धराशाई होने की वजह से सोवियत संघऔर पूर्वी यूरोप में वर्ल्ड सर्विस की गतिविधियों में महत्वपूर्ण बदलाव आये.[19] 2007 में विदेश एवं राष्ट्रमंडल कार्यालय की वार्षिक रिपोर्ट में हाउस ऑफ कॉमन्स की विदेश मामलों की समिति ने निष्कर्ष निकाला कि बीबीसी की रूसी सेवा का बोलशोए रेडियो के साथ संयुक्त परियोजना: "एक रूसी सरकारी प्रसारण नेटवर्क की अंतरराष्ट्रीय शाखा के साथ साझेदारी का विकास था, जिसने संपादकीय स्वतंत्रता के लिए बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की प्रतिष्ठा को खतरे में डाला."[20]
वर्ल्ड सर्विस के एक घटक बीबीसी लर्निंग इंगलिश लोगों को अंग्रेजी सीखने में मदद करने हेतु महत्वपूर्ण संसाधन प्रदान करती है।[21]

कार्यक्रम

बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के अंग्रेजी कार्यक्रम में खबर, पृष्ठभूमि, मनोरंजन, संस्कृति और आध्यात्मिक विषयों की पेशकश की जाती है। 1990 के दशक के बाद केवल खबर, पृष्ठभूमि और संस्कृति ही बचे रहे.

1945 के बाद:

1945 के बाद वर्ल्ड सर्विस अपनी प्रोग्रामिंग में ब्रिटिश पहचान वाली हो गई। यह लिलीबुलेरो गीत के हर घंटे प्रसारण (अभी भी प्रसारण होता है, पर पहले जितना नहीं) द्वारा सबसे स्पष्ट प्रतीक के रूप में पेश किया गया। इसके बाद बिग बेन की झंकार होती थी (अब अंग्रेजी भाषा के प्रसारणों में इसका उपयोग नहीं होता है). खबरों के अलावा संगीत के कार्यक्रम भी होते थे, जैसे जॉन पील के कार्यक्रम, एडवर्ड ग्रीनफील्ड द्वारा प्रस्तुत शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम, ज्यादातर चर्च के समारोहों वाले धार्मिक कार्यक्रम, जो अक्सर सेंट मार्टिन चर्च इन द फील्ड्स द्वारा आयोजित होते थे, साप्ताहिक नाटक, अंग्रेजी भाषा के पाठों जैसे शैक्षिक कार्यक्रम और जस्ट ए मिनटजैसे हास्य कार्यक्रम. एक घंटे के समाचार में हमेशा न्यूज फ्रॉम ब्रिटेन कहा जाने वाला अनुभाग निहित होता था। एक घंटे के समाचार में हमेशा न्यूज फ्रॉम ब्रिटेनकहा जाने वाला अनुभाग निहित होता था।
ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रमों में सबसे अहम था एलिस्टेयर कुक का लेटर फ्राम अमेरिका, जो करीब 50 से अधिक वर्षों तक प्रसारित किया गया। कई सालों तक ऑफ द शेल्फकार्यक्रम में एक उपन्यास, जीवनी या इतिहास पुस्तक के अंशों के रोजाना पाठ का प्रसारण होता था। सबसे लंबे समय से चल रहा कार्यक्रम है आउटलुक, जिसमें मानवीय रुचि की कहानियां होती हैं। जुलाई 1966 में इसका पहली बार प्रसारण किया गया और जॉन टिडमार्श द्वारा 30 सालों से अधिक समय तक इसे प्रस्तुत किया गया, जिन्हें प्रसारण के क्षेत्र में उनकी सेवाओं के लिए (ओबीई (OBE)) से सम्मानित किया गया।
उपग्रह संचार से पहले लघु तरंग प्रसारण व लंदन और विदेशों के बीच लिंक बहुत अविश्वसनीय थे और बीबीसी को अभिग्रहण रिपोर्ट्स के लिए उत्साही लघु तरंग श्रोताओं ("DXers") पर काफी निर्भर रहना पड़ता था। 1967 में उन्होंने 'बीबीसी वर्ल्ड रेडियो क्लब"नाम से एक नियमित कार्यक्रम शुरू किया, ताकि समर्पित तकनीकी सूचनादाताओं का एक नेटवर्क बनाया जा सके. पाइरेट रेडियो के पूर्व डीजे डौग क्रॉफोर्ड द्वारा प्रस्तुत इस कार्यक्रम में नियमित रूप से हर सप्ताह 16 बोरे पत्र प्राप्त होते थे।

1968 के बाद:

1990 के दशक के अंत में बीबीसी ने समाचार पर अधिक ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया। दूसरे खाड़ी युद्ध के दौरान अंग्रेजी में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने हॉफ आवर कार्यक्रम में छोटे समाचार सारांश का प्रसारण शुरू किया और अभी भी यह जारी है। नाटक और संगीत का प्रसारण अभी भी होता है, लेकिन उतनी बार नहीं, जितनी बार पहले होता था। बीबीसी वर्ल्ड सर्विस का तर्क था कि लोग मुख्य रूप से खबर के लिए रेडियो खोलते हैं और ज्यादातर लोग अन्य स्रोतों से भारी परिमाण में संगीत तक पहुंच बना सकते हैं।

वर्तमान प्रोग्रामिंग

बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की वर्तमान कार्यक्रम अनुसूची में समाचार कार्यक्रमों में द वर्ल्ड टुडे, न्यूज आवरऔर वर्ल्ड ब्रीफिंगतथा दैनिक कला और मनोरंजन समाचार कार्यक्रम द स्ट्रैंडशामिल है, जो 2008 के आखिर में शुरू किया गया था। एक दैनिक विज्ञान कार्यक्रम है, जिसमें हेल्‍्थ चेक, डिजिटल प्लानेट और साइंस इन एक्शन शामिल हैं। सप्ताहांत में ज्यादातर कार्यक्रम खेल की दुनियाके होते हैं, जिनमें अक्सर प्रीमियर लीग फुटबॉल मैचों का लाइव प्रसारण किया जाता है। रविवार को अंतरराष्ट्रीय, विविध ज्ञान शाखाओं पर बहस कार्यक्रम- द फोरमका प्रसारण होता है। कार्यदिवसों में एक घंटे का समय वैसे कार्यक्रम World: Have Your Sayको दिया जाता है, जिससे श्रोताओं को पाठ संदेश (टेक्स्ट मैसेज), फोन कॉल, ईमेल और ब्लॉग पोस्टिंग के जरिये समसामयिक घटनाओं पर चर्चा के लिए प्रोत्साहित मिलता है।

आंकड़े और भाषाएं

बीबीसी की ओर से 2004 में स्वतंत्र बाजार अनुसंधान एजेंसियों[specify]द्वारा कराये गये अनुसंधान में दर्शकों की संख्या का अनुमान निम्नलिखित है:
20042006
अंग्रेज़ी39 मिलियन44 मिलियन
फारसी20.4 मिलियन22 मिलियन
हिन्दी16.1 मिलियन21 मिलियन
उर्दू10.4 मिलियन12 मिलियन
अरबी12.4 मिलियन16 मिलियन
अफ्रीका और मध्य पूर्व में सेवा 66000000 श्रोताओं के लिए प्रसारण करती है, जिनमें से 18,700,000 अंग्रेजी में सुनते हैं।
अंग्रेजी के अलावा बीबीसी वर्ल्ड सर्विस निम्नलिखित भाषाओं में है:
60 साल के बाद जर्मन प्रसारण मार्च 1999 में बंद कर दिया गया, जैसा कि शोध से पता चला कि बहुसंख्यक जर्मन श्रोता अंग्रेजी संस्करण ही सुनते थे। उन्हीं कारणों से डच, फिनिश, यूरोप के लिए फ्रेंच, हिब्रू, इतालवी, जापानीऔर मलय में प्रसारण बंद कर दिये गये।
25 अक्टूबर 2005 को यह घोषणा की गई कि बल्गेरियाई, क्रोएशियाई, चेक, ग्रीक, हंगेरियन, कजाख, पोलिश,[22]स्लोवाक, स्लोवेनेऔर थाई भाषाकी रेडियो सेवाएं मार्च 2006 तक खत्म कर दी जायेंगी, ताकि 2007 में एक अरबीऔर फ़ारसीभाषा के टीवी न्यूज चैनल को वित्त पोषित किया जा सके. रोमानियाई प्रसारण 1 अगस्त 2008 को बंद हो गये।
जनवरी 2011 में, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने घोषणा की कि वह पांच भाषाओं की सेवाएं समाप्त करेगा: अल्बेनियन, मैसेडोनियन, अफ्रीका के लिए पुर्तगाली, सर्बियाई और कैरिबियन के लिए अंग्रेजी. ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि तीन बाल्कनदेशों की अंतरराष्ट्रीय सूचना तक काफी पहुंच है और स्थानीय बोलियों में प्रसारण की निरंतरता अनावश्यक है। यह सरकार की व्यापक खर्च समीक्षा से संबद्ध अभी और 2014 के बीच 16 प्रतिशत की बजट कटौती का सामना करने के कारण 650 नौकरियां (इसके कर्मचारियों की संख्या के 25 प्रतिशत से अधिक) कम करने का एक हिस्सा है। कुछ दिन पहले बीबीसी ऑनलाइन पर 360 नौकरियों में कटौती के बाद बीबीसीकी कटौती 1000 से भी ज्यादा नौकरियों तक पहुंच जायेगी.[23]

ट्रांसमिशन

परंपरागत रूप से बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने लघुतरंग पर भरोसा किया, क्योंकि उसमें अपनी सेंसरशिप, दूरी और स्पेक्ट्रम की कमी की बाधाओं को दूर करने की क्षमता है। इस उद्देश्य के लिए बीबीसी ने 1940 के दशक से दुनिया भर में मुख्यत:, पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों में, लघुतरंग रिले स्टेशनों के नेटवर्क को बनाए रखा है, इन दशकों में इनमें से कुछ स्टेशनों ने तेजी से शक्तिशाली होते मध्यम तरंग और साथ ही एफएम आउटलेट हासिल कर लिये हैं। ऐसे सीमा पार प्रसारणों का एक विशेष उपयोग विदेशों में ब्रिटिश प्राधिकार वाले क्षेत्रों में आपात संदेश भेजना रहा है, जैसा कि सितम्बर 1970 में काले सितंबर की घटनाओं के दौरान जॉर्डनको खाली करने की सलाह के लिए इस्तेमाल किया गया था। इन सुविधाओं का 1997 में निजीकरण किया गया, क्योंकि मर्लिन कम्युनिकेशंस, जो बाद में अधिगृहीत कर लिया गया और वीटी कम्युनिकेशंस (अब यह बॉबकॉक इंटरनेशनल समूह का हिस्सा है) द्वारा कई प्रसारकों के लिए एक व्यापक नेटवर्क के हिस्से के रूप में संचालित हुआ। बीबीसी कार्यक्रम परंपरागत रूप से वॉयस ऑफ अमेरिकाया ओआरएफ (ORF) ट्रांसमीटरों के जरिये प्रसारित होते रहे हैं, जबकि इसकी प्रोग्रामिंग भौतिक रूप से ब्रिटेन में स्थित स्टेशन से रिले होती है।
1980 के दशक के बाद से उपग्रह वितरण ने स्थानीय स्टेशनों के लिए बीबीसी प्रोग्रामिंग रिले करने को संभव बनाया है, आम तौर पर न केवल समाचार बुलेटिनों को, बल्कि शैक्षिक, नाटक और खेल प्रोग्रामिंग को भी. वर्ल्ड सर्विस भारी संख्या में उपग्रहों और केबल प्रणालियों पर एक नि:शुल्क (मूल) चैनल के रूप में उपलब्ध है। लाइव स्ट्रीम और पिछले कार्यक्रमों का एक संग्रह (अब पॉडकास्ट सहित) दोनों अब इंटरनेटपर उपलब्ध हैं।

अफ्रीका

प्रसारण पारंपरिक रूप से ब्रिटेन, साइप्रस, (देखें यूरोप), एसेंसियन द्वीपपर बड़े बीबीसी अटलांटिक रिले स्टेशन और छोटे लेसोथोरिले स्टेशन और सेशेल्समें हिंद महासागर के रिले स्टेशन से किये जाते हैं। अंग्रेजी कार्यक्रमों की अनुसूची का एक बड़ा हिस्सा अफ्रीका से और उसके लिए लिया जाता है, मिसाल के तौर पर नेटवर्क अफ्रीका, फोकस ऑन अफ्रीकाऔर अफ्रीका हैव योर से . 1990 के दशक में बीबीसी ने अफ्रीका के कई राजधानी शहरों में एफएम सुविधाएं जोड़ीं. अफ्रीका के लिए बीबीसी सेवा पुर्तगाली और फ्रेंच भाषाओं का भी उपयोग करती है।

अमेरिका

इस क्षेत्र में बीबीसी लघुतरंग प्रसारण पारंपरिक रूप से अटलांटिक रिले स्टेशन और कैरेबियन रिले कंपनी द्वारा वर्द्धित किये जाते है और एंटीगुआ में एक स्टेशन संयुक्त रूप से डियूट्सचे वेले के साथ चलाया जाता है। इसके अलावा, रेडियो कनाडा इंटरनेशनल के साथ हुए एक विनिमय समझौते के तहत न्यू ब्राउनश्विक में उसके स्टेशन तक पहुंच हो पाती है। हालांकि, "सुनने की बदलती आदतों"के कारण वर्ल्ड सर्विस को 1 जुलाई 2001 को उत्तरी अमेरिका और आस्ट्रेलेसिया की ओर निर्देशित लघुतरंग रेडियो प्रसारण बंद करना पड़ा.[24][25]इस बदलाव का विरोध करने के लिए लघुतरंग श्रोताओं का एक समूह बनाया गया।[26]एक्सएम रेडियो और साइरिश सैटेलाइट रेडियो दोनों कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका[27]के लिए वाणिज्यिकउपग्रह रेडियो पर वर्ल्ड सर्विस का पुन: प्रसारण करते हैं और सार्वजनिक रेडियो स्टेशन अक्सर वर्ल्ड सर्विस के समाचार प्रसारण एएम और एफएम रेडियो, बहुधा पब्लिक रेडियो इंटरनेशनल (पीआरआई (PRI)) के माध्यम से करते थे। बीबीसी और पीआरआई डब्ल्यूबीजीएच (WGBH) रेडियो बोस्टनके साथ द वर्ल्ड कार्यक्रम का सह-निर्माण करते हैं और बीबीसी न्यूयॉर्क नगर में डब्ल्यूएनवाईसी (WNYC) पर द टेकअवे मार्निंग न्यूज कार्यक्रम से संबद्ध है। बीबीसी वर्ल्ड सर्विस प्रोग्रामिंग कनाडा में सीबीसी रेडियो वन के सीबीसी रेडियो ओवरनाइट कार्यक्रमों के हिस्से के रूप में भी प्रसारण करती है।
बीबीसी कैरिबियन[28]मध्य अमेरिकाऔर दक्षिण अमेरिकामें कई भाषाओं में प्रसारण जारी रखे हुए है, जिसमें अंग्रेजी में विशेषज्ञ कैरेबियन समाचार सेवा भी शामिल है। उत्तर पूर्वी अमेरिका से कैरिबियनऔर पश्चिमी अफ्रीकी लघुतरंग रेडियो प्रसारण प्राप्त करना संभव है, लेकिन बीबीसी इस क्षेत्र में प्राप्ति की गारंटी नहीं देता.[29]इसने फ़ॉकलैंड द्वीपके लिए अपनी विशेषज्ञ प्रोग्रामिंग समाप्त कर दी है, फ़ॉकलैंड द्वीप प्रोग्रामिंग सेवा के लिए वर्ल्ड सर्विस प्रोग्रामिंग की एक धारा जारी रखे हुए है।[30]

एशिया

कई दशकों तक वर्ल्ड सर्विस का सबसे बड़ा दर्शक समूह एशिया, मध्य पूर्व, पूर्व के करीब और दक्षिण एशियामें रहा है। ब्रिटेन और साइप्रस में ट्रांसमिशन सुविधाएं ओमानके बीबीसी ईस्टर्न रिले स्टेशन और सिंगापुरमें सुदूर पूर्वी रिले स्टेशन द्वारा पूरी की जाती हैं। जब पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश में 1997 में चीनी संप्रभुता बहाल हो गई, जब पूर्व एशियाई रिले स्टेशन हांगकांग से थाईलैंडले जाया गया। एक ही साथ इन सुविधाओं ने बीबीसी वर्ल्ड सर्विस को उन क्षेत्रों में आसानी से सिगनल सुलभ कराने में मदद मिली, जहां लघु तरंग श्रवण परंपरागत रूप से लोकप्रिय रहा है। 6195, 9740 15310/360 और 17790/760 किलोहर्ट्ज अंग्रेजी लघुतरंग आवृतियां.व्यापक रूप से जानी जाती है।
सबसे बड़ा दर्शक समूह अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू,बंगालीऔर दक्षिण एशिया की अन्य प्रमुख भाषाओं का है, जहां बीबीसी प्रसारक घरेलू नाम बन गये हैं। अपने ईरानीदर्शक समूह के साथ फ़ारसीसेवा अनिवार्य रूप से अफगानिस्तानका राष्ट्रीय प्रसारक है। वर्ल्ड सर्विस एशिया और मध्य पूर्व के अरबी देशों में हर दिन अंग्रेजी में अठारह घंटे तक उपलब्ध है। अफगानिस्तान और इराक में रिले को जोड़कर ये सेवाएं मध्य और पूर्व के पास के ज्यादातर इलाकों में सुलभ है, कम से कम शाम में. हांगकांग और सिंगापुर में अंग्रेज़ी में बीबीसी (BBC) वर्ल्ड सर्विस अनिवार्य रूप से घरेलू प्रसारक के रूप में मानी जाती है और आरटीएचके (RTHK) तथा मीडियाकॉर्प के साथ हुए दीर्घावधि समझौतों के जरिये आसानी से उपलब्ध है। फिलीपींस में डीजेआरजे 810 एएम 12mn - से 5 am तक अंग्रेजी में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस का प्रसारण करता है।

जाम करना

ईरान, इराकऔर म्यांमार/बर्मा ने अतीत में बीबीसी को जाम किया है और मैंडेरियन में शक्तिशाली प्रसारण चीनी गणराज्य द्वारा अभी भी नहीं सुनने योग्य बना दिये गये हैं। जापान और कोरिया में वर्ल्ड सर्विस सुनने परंपरा बहुत कम रही है, हालांकि 1970 से 1980 के दशक के दौरान जापान में लघुतरंग श्रवण लोकप्रिय था। उन दो देशों में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस केवल लघुतरंग और इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध था। सितम्बर 2007 तक दक्षिण कोरिया में स्काईलाइफ (चैनल 791) द्वारा एक उपग्रह प्रसारण (सदस्यता की आवश्यकता) उपलब्ध हो गया।
13 जनवरी 2006, शुक्रवार को थाई बीबीसी को बंद कर दिया गया, ताकि अरबी भाषा के नये उपग्रह टीवी प्रसारण स्टेशन के लिए संसाधनों को वहां लगाया जा के लिए एक नया अरबी, यद्यपि वहां साप्ताहिक अधिक थे 570000 श्रोताओं.[31]

यूरोप

वर्ल्ड सर्विस यूरोप तक अंग्रेज़ी भाषा का कवरेज प्रदान करने के लिए ऑरफोर्ड नेस में एक मध्य तरंग ट्रांसमीटर का उपयोग करता है, जिसमें 648 kHz आवृत्ति (जो दक्षिण पूर्व इंग्लैंड के हिस्सों में सुनी जा सकती है) शामिल है। इस आवृत्ति पर संचरण मार्च 2011 के पहले सप्ताह में बंद होना तय हुआ है। एक दूसरा चैनल (1296 kHz) पारंपरिक रूप से विभिन्न मध्य यूरोपीय भाषाओं में प्रसारण करता है, लेकिन 2005 में इसने डीआरएम (DRM) प्रारूप के जरिये अंग्रेजी भाषा के प्रसारण शुरू किये.[32]यह एक डिजिटल लघुतरंग तकनीक है, जिसपर वीटी को उम्मीद है कि यह विकसित देशों में सीमा पार के प्रसारणों के लिए मानक बन जायेगा.
1990 के दशक में बीबीसी ने पूर्व सोवियत राष्ट्रसमूहों विशेष रूप से चेक (बीबीसी चेक सेक्शन, स्लोवाक गणराज्यों (बीबीसी स्लोवाक सेक्शन) पोलैंड (बीबीसी पोलिश सेक्शन (जहां यह एक राष्ट्रीय नेटवर्क था) और रूस (बीबीसी रूसी सेवा). इसने शीत युद्ध के दौरान एक मजबूत दर्शकों समूह बनाया था, जबकि आर्थिक पुनर्गठन ने इन सरकारों को पश्चिमी निवेश ठुकराना कठिन कर दिया. इनमें से कई सुविधाएं अब घरेलू नियंत्रण में हैं, क्योंकि आर्थिक और राजनीतिक स्थितियां बदल गई हैं।
18 फ़रवरी 2008, सोमवार को बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने यूरोप में एनालॉग लघु तरंग प्रसारण बंद कर दिया. इस नोटिस में कहा गया, "पूरी दुनिया में वैसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो एफएम, उपग्रह और ऑनलाइन सहित अन्य प्लेटफार्मों की एक श्रृंखला पर रेडियो सुनने का चुनाव करते हैं, जबकि बहुत कम ही लघु तरंग पर सुनते हैं।[33]यह कभी -कभी संभ्रव होता है कि यूरोप में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस उत्तरी अफ्रीका के लिए लक्षित एसडब्ल्यू आवृत्तियों को पकड़ ले. 648 kHz मध्य तरंग अभी भी बेनेलक्स और फ्रांस व जर्मनी के कुछ हिस्सों की ओर निर्देशित है। बीबीसी का शक्तिशाली 198 kHz लघुतरंग, जो दिन में ब्रिटेन में घरेलू बीबीसी रेडियो 4 का प्रसारण करता है (और रात में वर्ल्ड सर्विस प्रदान करता है) को आयरलैंड गणराज्य, नीदरलैंड, बेल्जियम और फ्रांस के कुछ हिस्सों, जर्मनी और स्कैडिनेविया में सुना जा सका है।
10 दिसम्बर 2008, बुधवार को बीबीसी वर्ल्ड सर्विस और ड्यूट्स्चे वेले ने एक संयुक्त डीआरएम (DRM) डिजिटल रेडियो स्टेशन में प्रसारण शुरू कर दिया है। यह प्रत्येक साझेदार द्वारा निर्मित अंग्रेजी भाषा के समाचार और सूचना कार्यक्रमों के मिश्रण का प्रसारण करता है और इसका लक्ष्य यूरोप की मुख्य भूमि के श्रोता होते हैं। अन्य बातों के अलावा स्टेशन डीआरएम (DRM) रेडियो रिसीवर्स के निर्माण को प्रोत्साहित करने की उम्मीद करता है।
बीबीसी के पूर्व लघुतरंग ट्रांसमीटर यूनाइटेड किंगडम में रैंपिशम वूफरटॉन और स्केलटन में स्थित हैं। पूर्व बीबीसी पूर्वी भूमध्य रिले स्टेशन साइप्रसमें है।

प्रशांत महासागरीय क्षेत्र

सिंगापुर से लघुतरंग रिले (देखें एशिया, ऊपर) जारी है, लेकिन ऑस्ट्रेलियाई ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (एबीसी (ABC)) के जरिये ऐतिहासिक रिले और रेडियो न्यूजीलैंड इंटरनेशनल का 1990 के दशक से नाम मिट गया। वर्ल्ड सर्विस ऑस्ट्रेलिया में सदस्यता डिजिटल एयर पैकेज (फॉक्‍सटेल और अस्टर के जरिये उपलब्ध है) के एक हिस्से के रूप में उपलब्ध है। एबीसी न्यूज रेडियो, एसबीएस (ABS) रेडियो और विभिन्न सामुदायिक रेडियो स्टेशन कई कार्यक्रमों का प्रसारण करते हैं। इनमें से कई स्टेशन आधी रात से भोर की अवधि के दौरान सीधा फ़ीड प्रसारित करते हैं। यह उपग्रह सेवा ऑप्टस औरोरा के जरिये स्यूडो-फ्री-टू-एयर भी उपलब्ध है, जो राष्ट्रीय टेलीविजन सेवाओं (सुदूर क्षेत्रों में रह रहे अर्हता प्राप्त नागरिकों के लिए इसकी सदस्यता उपलब्ध है) के स्थानीय पुनर्प्रसारण की रक्षा के लिए कोड परिवर्तित है।
ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में 152.025 मेगाहर्ट्ज पर एक प्रसारण सेवा प्राप्त की जा सकती है। यह ऑस्ट्रेलिया में डीएबी+ नेटवर्क पर एसबीएस6 (SBS6) नाम से भी उपलब्ध है।
बीबीसी वर्ल्ड सर्विस रेडियो ऑस्ट्रेलिया पर रिले होती है और अब बीबीसी रेडियो समाचार कार्यक्रमों भी प्रसारित करती है।
बीबीसी वर्ल्ड सर्विस न्यूजीलैंड के ऑकलैंड में एएम आवृत्ति (810 kHz) पर उपलब्ध है।

ब्रिटेन

बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ब्रिटेन में प्रसारण के लिए धन प्राप्त नहीं करती और विश्वसनीय मध्यम तरंग प्राप्ति पारंपरिक रूप से केवल दक्षिण पूर्व इंग्लैंड (देखें यूरोप, ऊपर) में ही संभव रहा है। डिजिटल प्रसारण की शुरूआत के बाद से वर्ल्ड सर्विस का निर्माण ब्रिटेन में और अधिक व्यापक रूप से उपलब्ध किया गया है, जो सेवा अब डीएबी, फ्रीव्यू, वर्जिन मीडिया और स्काई डिजिटल पर उपलब्ध है। ब्रिटिश घरेलू रेडियो स्टेशन बीबीसी रेडियो 4 के प्रसारण के 0100 बजे जीएमटी खत्म होने के बाद, वर्ल्ड सर्विस पूरी रात अपनी सभी आवृत्तियों पर प्रसारण करती है, जिसमें 198 kHz दीर्घ तरंग भी शामिल है, जो महाद्वीपीय यूरोप के हिस्सों में सुनी जा सकती है।
हालांकि बीबीसी ने कहा कि पश्चिमी यूरोप के लिए लघुतरंग प्रसारण बंद कर दिये गये है (मार्च 2007 तक),[34] 6195 और 9410 kHz की लघुतरंग प्राप्ति, जो संभव है पश्चिमी रूस के लिए लक्ष्यित हो, ब्रिटेन में दिन में कुछ घंटों के लिए अभी भी संभव है (कभी-कभी एक उच्च शक्ति संकेत के साथ). बहरहाल, यह कथित तौर पर असंभव हो गया है, क्योंकि बीबीसी ने कहा है कि यूरोप के लिए शेष सभी एनालॉग लघुतरंग प्रसारण फरवरी 2008 तक बंद कर दिये जायेंगे.[35]थोड़े मामलों में, एसेंसियन आइलैंडमें रिले स्टेशन से 15,400 kHz अभी भी श्रवण योग्य बने हुए हैं, क्योंकि कुछ आवृत्तियां अफ्रीका के लिए निर्देशित हैं। दक्षिणी इंग्लैंड के कुछ हिस्सों में 648 kHz मध्यम तरंग भी उपलब्ध है।
2002 में डोरसेटमें हूक के निवासियों ने एक सिगनल के इतना मजबूत होने की बात बताई कि वे अपने टोस्टरों और बिजली के दूसरे उपकरणों के माध्यम स्टेशन की सेवा प्राप्त करने में सक्षम थे।[36]

अंतराल संकेत

अंग्रेजी में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस का अंतराल संकेत बो बेल्य था, जिसकी रिकॉर्डिंग 1926 में की गई। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान आशा के एक प्रतीक के रूप में शुरू किया गया यह प्रसारण हाल तक पिछले कई अंग्रेजी भाषा (अगर सभी नहीं) के प्रसारणों में इस्तेमाल किये गये। हालांकि 1970 के दशक के कुछ वर्षों के लिए अंतराल के रूप में इस्तेमाल करने हेतु ऑरेजेज और लेमंस का इस्तेमाल किया गया था व बो बेल्स को जल्दी ही फिर से शुरू किया गया।
जनवरी 1941 ने अंतराल संकेत के रूप में मोर्स कोडवर्ण "वी" (V) की शुरुआत को देखा. अंतराल संकेत टिंपानी सहित कई विविधताओं वाले थे, जिसमें बीथोवेन की पांचवीं सिम्फनी (जो वी वर्ण के साथ मेल खाता है) के पहले के चार स्वर और इलेक्ट्रॉनिक सुर थे, जो हाल तक कुछ पश्चिमी यूरोपीय सेवाओं के लिए उपयोग में लाये जाते थे। अन्य भाषाओं में, अंतराल संकेत में तीन स्वर बी-बी-सी हैं। ऐसा लगता है कि बाद में लघुतरंग प्रसारणों पर अंतराल संकेतों का उपयोग छोड़ दिया गया।
चित्र:BBC World Service Top of Hour.ogg
बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की टॉप ऑफ आवर घोषणा का एक नमूना
बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की हस्ताक्षर धुन अब पांच स्वर रूपांकन वाला है, जिसे संगीतकार डेविड अर्नोल्ड ने रचा है। यह अलग-अलग बदलावों में पूरे नेटवर्क पर सुना जाता है।[37][38]वर्ल्ड सर्विस की प्रसिद्ध हस्ताक्षर धुन लिलिबुलेरोपहले कई घंटों के पूरा होने के शीर्ष के करीब प्रसारित की जाती थी, इसके बाद ग्रीनविच समय संकेत और घंटेवार समाचार होते थे।[38]अब, विभिन्न किस्म की आवाजों के जरिये सूचना दी जाती है, "दिस इज द बीबीसी इन .."और इसके बाद विभिन्न शहरों के नाम (जैसे. कंपाला, मिलान, दिल्लीजोहांसबर्ग) लिये जाते हैं। अभी एकदम हाल तक, घंटेवार अनुक्रम इस घोषणा से शुरू होता था "दिस इल लंडन"- पर अब यह और अधिक प्रचारमूलक रूप से होता है, "ह्रेयरएवर यू आर, यू आर विद बीबीसी"या "विथ वर्ल्ड न्यूज एवरी हॉफ आवर, दिस इज बीबीसी". ब्रिटेन को छोड़कर, ये घोषणाएं अब बीबीसी वर्ल्ड सर्विस को संदर्भित नहीं करतीं, लेकिन सिर्फ "द बीबीसी"को. हाल ही में, लिलिबुलेरो का उपयोग केवल सामयिक रूप से होने लगा है और जब भी यह चलाया जाता है, इसके एक छोटे संस्करण का प्रयोग किया जाता है। यह सुझाव दिया गया (वर्ल्ड सर्विस स्टाफ द्वारा) है कि लिलिबुलेरो के उपयोग में कमी सबसे पहले इस कारण है कि इसकी पृष्ठभूमि उत्तरी आयरलैंडमें प्रोटेस्टेंट मार्चिग गीत के रूप में है।[38]
बीबीसी की आधिकारिक प्रतिक्रिया यह है कि यह निर्णय प्रसारण इंजीनियरों द्वारा किया गया है, जिन्होंने इसे लघु तरंग मश के माध्यम से विशेष रूप श्रव्य पाया और जाना कि यह अंग्रेजी के इस पुराने गाने की धुन है "देयर वाज एन ओल्ड वूमैन टॉस्ट अप इन ए ब्लैंकेट, क्वाइट 20 टाइम्स एज हाई एज द मून.[37]
चित्र:BBC World Service Big Ben 1-1-2009.ogg
बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की घोषणा और समय संकेत
जीएमटी (GMT) की घोषणा अंग्रेजी सेवा पर हर घंटे पर की जाती है, उदाहरण के लिए "13 घंटे ग्रीनविच मीन टाइमको 1300 जीएमटी (GMT) कहा जाता है। 0000 जीएमटी (GMT) को "मिडनाइट ग्रीनविच मीन टाइम"के रूप में घोषित किया जाता है।

समाचार

वर्ल्ड सर्विस की कार्यक्रम सूची की मुख्य विशेषता खबर है। यह लगभग हमेशा एक घंटे के एक मिनट बाद प्रसारित होता है, जहां एक पांच मिनट का बुलेटिन होता है और आधे घंटे में दो मिनट का सार पेश्ह किया जाता है। कभी -कभी इन बुलेटिनों को संचारित करने वाले कार्यक्रमों से अलग किया जाता है, जबकि दूसरे समय वे कार्यक्रम का अभिन्न हिस्सा होते हैं (जैसे कि वर्ल्ड ब्रीफिंग, न्यूज आवरया द वर्ल्ड टुडे).

उद्घोषक और समाचार वाचक

बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने 11 उद्घोषकों / समाचार वाचकों को नियुक्त किया है। अप्रैल 2010 तक प्रस्तुति विभाग में पुनर्गठन के बाद नियमित रूप से समाचार पढ़ने वालों की सूची इस प्रकार है:
  • डेविड ऑस्टिन
  • जूली कैंडलर
  • गेइनोर हॉवेल्स
  • जोनाथन इजार्ड
  • डेविड लेगी
  • स्टीवर्ट मैसिन्तोश
  • मैरियन मार्शल
  • सु मांटगोमेरी
  • माइकल पॉवेल्स
  • इयान पर्डन
  • जैरी स्मिट
इनको भी सुना जाता है
  • कैथी क्लग्सटन
  • माइक कूपर
  • झो डायमंड
  • ब्लेरी गोगा
  • जॉन जेसन
  • निक केली
  • फियोना मैकडोनल्ड
  • विक्टोरिया मीकिंग
  • नील नुन्स
  • जोनाथन ह्वीटले

बीबीसी ब्रेकिंग न्यूज नीति

ब्रेकिंग न्यूज[39]के लिए बीबीसी नीतिएक प्राथमिकता सूची में है। घरेलू खबरों के साथ संवाददाता पहले एक "सामान्य मिनट"सारांश (सभी स्टेशनों और चैनलों के उपयोग के लिए) रिकॉर्ड करते हैं और फिर उसके बाद रेडियो 5 लाइव पर रिपोर्ट करना प्राथमिकता होती है, उसके बाद उसे घरेलू बीबीसी समाचार चैनल और अन्य कार्यक्रमों के लिए भ्रेजा जाता है, जिनका प्रसारण हो रहा होता है। विदेशी खबरों के लिए पहले एक "सामान्य मिनट"रिकार्ड किया जाता है और तब रपटें वर्ल्ड सर्विस रेडियो पर भेजी जाती हैं और उसके बाद संवाददाता उस समय चल रहे किन्हीं अन्य कार्यक्रमों के लिए वार्ता करते हैं।

भाषाओं की सीमा

बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की भाषा प्रसारण सेवाओं का इतिहास (भाषा के आधार पर छांटे गये)[40][41][42]
भाषाप्रारंभ तिथि:समापन तिथिपुनर्प्रसारण तिथि
अफ्रीकी14 मई 19398 सितंबर 1957-
अल्बेनियन12 नवम्बर 1940 बीबीसी अल्बेनियन्20 जनवरी 196720 फ़रवरी 1993
अरबी3 जनवरी 1938 बीबीसी अरबी--
अज़ेरी30 नवम्बर 1994 बीबीसी अज़ेरी--
बेल्जियम फ्रेंच और बेल्जियन डच28 सितंबर 194030 मार्च 1952-
बंगाली (बंगाली बीबीसी)11 अक्टूबर 1941 बीबीसी बांग्ला--
बुल्गारियन7 फ़रवरी 1940 बीबीसी बुल्गेरियाई23 दिसम्बर 2005-
बर्मी2 सितंबर 1940 बीबीसी बर्मी--
क्रोएशियन29 सितंबर 1991 बीबीसी क्रोएशियाई आर्काइव(31 जनवरी 2006).-
चीनी केनटोनीज5 मई 1941 बीबीसी चीनी--
चीनी होकीन1 अक्टूबर 19427 फ़रवरी 1948-
चीनी मैंड्रीन5 मई 1941 बीबीसी चीनी--
चेक31 दिसम्बर 1939 बीबीसी चेक आर्काइव28 फ़रवरी 2006-
डैनिश9 अप्रैल 194010 अगस्त 1957-
डच11 अप्रैल 194010 अगस्त 1957-
इंडोनेशियाके लिए डच28 अगस्त 19442 अप्रैल 1945, 13 मई 195125 मई 1946
अंग्रेज़ी25 दिसम्बर 1936 बीबीसी वर्ल्ड सर्विस--
अंग्रेजी (कैरिबियाई)25 दिसम्बर 1976 बीबीसी कैरिबियन--
फ़िनिश18 मार्च 194031 मार्च 1997-
अफ्रीका के लिए फ्रेंच20 जून 1960 बीबीसी फ्रेंच--
कनाडा के लिए फ्रेंच2 नवम्बर 19428 मई 1980-
यूरोप के लिए फ्रेंच27 सितंबर 193831 मार्च 1995-
दक्षिण पूर्व एशिया के लिए फ्रेंच28 अगस्त 19443 अप्रैल 1955-
जर्मन27 सितंबर 193830 मार्च 1999-
ऑस्ट्रिया के लिए जर्मन29 मार्च 194315 सितंबर 1957-
ग्रीक30 सितंबर 1939 बीबीसी यूनानी आर्काइव31 दिसम्बर 2005-
साइप्रस के लिए ग्रीक16 सितंबर19403 जून 1951-
गुजराती1 मार्च 19423 सितंबर 1944-
हौसा13 मार्च 1957 बीबीसी हौसा--
हीब्रू30 अक्टूबर 194928 अक्टूबर 1968-
हिन्दी11 मई 1940 बीबीसी हिन्दी--
हंगेरियन5 सितंबर 1939 बीबीसी हंगरी आर्काइव31 दिसम्बर 2005-
आइसलैंडिक1 दिसम्बर 194026 जून 1944-
इटालियन27 सितंबर 193831 दिसम्बर 1981-
इन्डोनेशियन30 अक्टूबर 1949 बीबीसी इन्डोनेशियाई--
जापानी4 जुलाई 194331 मार्च 1991-
कज़ाख1 अप्रैल 1995 बीबीसी कज़ाख आर्काइव16 दिसम्बर 2005-
किन्यारवांडा8 सितंबर 1994 बीबीसी किन्यारवांडा--
किरगिज़1 अप्रैल 1995 बीबीसी किरगिज़--
लक्जमबर्गिश29 मई 194330 मई 1952-
मैसडोनियन6 जनवरी 1996 बीबीसी मेसीडोनियन--
मलय2 मई 194131 मार्च 1991-
मालटीस10 अगस्त 194031 दिसम्बर 1981-
मराठी1 मार्च 19423 सितंबर 1944, 25 दिसम्बर 195831 दिसम्बर 1944
नेपाली7 जून 1969 बीबीसी नेपाली--
नोर्वेयिन9 अप्रैल 194010 अगस्त 1957-
पश्तो15 अगस्त 1981 बीबीसी पश्तो--
फारसी28 दिसम्बर 1940 बीबीसी फ़ारसी--
पोलिश7 सितंबर 1939 बीबीसी पोलिश आर्काइव23 दिसम्बर 2005-
अफ्रीका के लिए पुर्तगाली4 जून 1939 बीबीसी पैरा अफ्रीका--
पुर्तगाली-ब्रासील14 मार्च 1938 बीबीसी ब्रासील--
यूरोप के लिए पुर्तगाली4 जून 193910 अगस्त 1957-
रोमानियन15 सितंबर 1939 बीबीसी रोमानियाई आर्काइव1 अगस्त 2008-
रूसी भाषा (बीबीसी रूसी सेवा)7 अक्टूबर 1942 बीबीसी रूसी26 मई 194324 मार्च 1946
सर्बियन29 सितंबर 1991 बीबीसी सर्बियाई25 फ़रवरी 2011[43]-
सिंहली10 मार्च 1942 बीबीसी सिंहली30 मार्च 197611 मार्च 1990
स्लोवाक31 दिसम्बर 1941 बीबीसी स्लोवाक आर्काइव31 दिसम्बर 2005-
स्लोवेन22 अप्रैल 1941 बीबीसी स्लोवेन आर्काइव23 दिसम्बर 2005-
सोमाली18 जुलाई 1957 बीबीसी सोमाली--
अमेरिका के लिए स्पेनिश14 मार्च 1938 बीबीसी मुंडो--
स्वाहिली27 जून 1957 बीबीसी स्वाहिली--
स्वीडिश19414 मार्च 1961-
तमिल3 मई 1941 बीबीसी तमिल--
थाई27 अप्रैल 1941 बीबीसी थाई आर्काइव5 मार्च 1960, 13 जनवरी 20063 जून 1962
तुर्की20 नवम्बर 1939 बीबीसी तुर्की--
यूक्रेनीयन1 जून 1992 बीबीसी यूक्रेनी--
उर्दू3 अप्रैल 1949 बीबीसी उर्दू--
उज़बेक30 नवम्बर 1994 बीबीसी उजबेक--
वियतनामी6 फ़रवरी 1952 बीबीसी वियतनामी--
वेल्श (पैटागोनिया के लिए)19451946-
यूगोस्लाव (सर्बो-क्रोएशियाई)15 सितंबर 193928 सितंबर 1991-

पत्रिका प्रकाशन

अपने इतिहास में विभिन्न समयों में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने पत्रिकाओं और प्रोग्राम गाइड का प्रकाशन किया है:
  • लंदन कॉलिंग : लिस्टिंग
  • बीबीसी वर्ल्डवाइड : अंतरराष्ट्रीय श्रोता समूह के हित की विशेषताओं वाला (लंदन कॉलिंगको बीच में शामिल किया हुआ।)
  • बीबीसी ऑन एयर : मुख्य रूप से लिस्टिंग
  • बीबीसी फोकस ऑन अफ्रीका : सामयिकी
इनमें से, केवल बीबीसी फोकस ऑन अफ्रीकाअभी भी प्रकाशित किया जा रहा है।

इन्हें भी देखें

  • बीबीसी (BBC) वर्ल्ड सर्विस टेलीविजन
  • बीबीसी (BBC) पर्शियन
  • बीबीसी (BBC) रूसी सेवा
  • बीबीसी (BBC) अरबी
  • बीबीसी (BBC) बांग्ला
  • बीबीसी (BBC) नेपाली

संदर्भ

  1. "Microsoft Word - The Work of the BBC World Service 2008-09 HC 334 FINAL.doc" (PDF). अभिगमन तिथि: 2011-02-16.
  2. "World s largest international broadcaster visits city". Coal Valley News. अभिगमन तिथि: 2011-02-16.
  3. "An Agreement Between Her Majesty’s Secretary of State for Culture, Media and Sport and the British Broadcasting Corporation". BBC Trust. Archived from the original on 2012-07-30.
  4. "BBC's international news services attract record global audience of 238 million". BBC.
  5. "BBC World Service (BBCWS), The UK's Voice around the World". BBC. Archived from the original on 2006-11-01.
  6. "About Us: BBC World Service". British Foreign & Commonwealth Office. 22 अक्टूबर 2010. अभिगमन तिथि: 9 जनवरी 2011.
  7. द रेडियो अकादमी "संरक्षक"
  8. विश्लेषण: यूरोप में बीबीसी (BBC) की आवाज़जैन रेपा, बीबीसी (BBC) न्यूज़ ऑनलाइन: 25 अक्टूबर 2005
  9. बीबीसी (BBC) वेबसाइट से 1930 सदी से ऐतिहासिक क्षण: 1932 - साम्राज्य सेवा की स्थापना हुई
  10. वर्ल्ड सर्विस की 75 वीं वर्षगांठ डीवीडी पर रिकॉर्डिंग को लिखित रूप दिया गया ; पूरा सार फ्री टू स्पीक की 75 वी सालगिरह के शुरुआती कार्यक्रम- रीथ ग्लोबल डिबेट - के भाग के रूप में संचरित.
  11. West, W. J., सं (1985). Orwell: The War Broadcasts. Duckworth & Co/BBC. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-9999723305
  12. West, W. J., सं (1985). Orwell: The War Commentaries. Duckworth & Co/BBC. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0563203490
  13. जर्मन सेवा की आधिकारिक स्रोत है बीबीसी जर्मन सर्विस के कार्ल ब्रिनिट्जर की किताब"हेयर स्प्रिच्ट लंदन". लंदन में निर्वासन में रह रहे ब्रिनिट्ज़र एक जर्मन वकील हैं और वे ने वाले हैम्बर्ग से, एक संस्थापक सदस्य थे।
  14. "The 1960s". BBC World Service. अभिगमन तिथि: 2010-04-25.
  15. "Annual Review 2008/2009". BBC News. 2010. अभिगमन तिथि: 2010-04-08.
  16. "Foreign and Commonwealth Office Budget". Archived from the original on 2009-10-05. अभिगमन तिथि: 2010-03-08.
  17. "BBC protocol". Archived from the original on 2012-07-22.
  18. "Broadcasters and historians from both sides of the Iron Curtain assess impact of Western radios during the Cold War".
  19. "Why the World Service still matters". The Independent (London). 9 जुलाई 2007. Archived from the original on 30 मई 2011.
  20. 2007 विदेश और राष्ट्रमंडल कार्यालय का वार्षिक रिपोर्ट, ड हॉउस ऑफ़ कॉमंस फॉरेन अफेर्ज़ कमिटी, नवंबर 2007 http://www.publications.parliament.uk/pa/cm/cmfaff.htm
  21. "BBC Learning English". bbc.co.uk. BBC. अभिगमन तिथि: 2008-10-03.
  22. बीबीसी (BBC) ईस्ट यूरोप वौयेसेज़ सैलेंस्डबीबीसी (BBC) न्यूज़ ऑनलाइन: 21 दिसम्बर 2005
  23. बीबीसी (BBC) वर्ल्ड सर्विस टू 'कट अप टू 650 जॉब्स'http://www.guardian.co.uk/media/2011/jan/25/bbc-world-service-jobs
  24. बीबीसी (BBC) एआर कवर 03 से पृष्ठ 1-136[मृत कड़ियाँ]
  25. "BBC World Service | FAQ". Bbc.co.uk. 2005-08-10. अभिगमन तिथि: 2011-02-16.
  26. "Save the BBC World Service in North America and the Pacific! - BBC to Cut Off 1.2 Million Listeners on July 1". Savebbc.org. 2001-06-06. अभिगमन तिथि: 2011-02-16.
  27. XM Satellite Radio (1999-07-26). BBC WORLD SERVICE AND XM ANNOUNCE PROGRAMMING ALLIANCE. प्रेस रिलीज़. अभिगमन तिथि: 2007-10-17.
  28. लिसनिंग इन द कैरिबियन, BBCCaribbean.com
  29. "FAQ | World Service". Bbc.co.uk. अभिगमन तिथि: 2011-02-16.
  30. "Press Office - Falkland Islands and BBC to boost home-grown media". BBC. 2006-02-23. अभिगमन तिथि: 2011-02-16.
  31. Clare Harkey (13 मार्च 2006). "BBC Thai service ends broadcasts". BBC News. अभिगमन तिथि: 2008-11-08.
  32. "BBC Launches DRM Service In Europe". BBC World Service. 2005-09-07. अभिगमन तिथि: 2006-11-15.
  33. बीबीसी (BBC) विश्व सेवा. "यूरोप के लिए शॉर्टवेव परिवर्तन फरवरी 2008"http://www.bbc.co.uk/worldservice/help/2008/02/080208_sw_changes_euro.shtml
  34. On Air Now: 20:32-21:00 GMT (2009-03-12). "BBC World Service - Help and FAQs - Shortwave reductions". Bbc.co.uk. अभिगमन तिथि: 2011-02-16.
  35. On Air Now: 20:32-21:00 GMT (2009-03-12). "BBC World Service - Help and FAQs - Shortwave changes for Europe". Bbc.co.uk. अभिगमन तिथि: 2011-02-16.
  36. "Toaster speaks Russian | The Sun |News". The Sun. 2002-05-10. अभिगमन तिथि: 2011-02-16.
  37. BBC. "What is the BBC World Service signature tune?". अभिगमन तिथि: 2010-09-04.
  38. Robert Weedon (16 दिसम्बर 2009). "Audio Identities". अभिगमन तिथि: 2010-09-04.
  39. http://www.bbc.co.uk/bbctrust/assets/files/pdf/review_report_research/impartiality_business/f2_news_submission.txt
  40. "75 Years - BBC World Service | Multi-lingual audio | BBC World Service". Bbc.co.uk. अभिगमन तिथि: 2011-02-16.
  41. अंतर्राष्ट्रीय प्रसारण के इतिहास (आईईईई (IEEE)), खंड I.
  42. "BBC World Service | Languages". Bbc.co.uk. अभिगमन तिथि: 2011-02-16.
  43. http://news.bbc.co.uk/2/hi/programmes/from_our_own_correspondent/9407506.stm

बाहरी लिंक्स

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प्रस्तुति-- अखौरी प्रमोद, राहुल मानव

चाइना रेडियो इण्टरनैशनल
सीआरआई.jpg
अनुज्ञा प्राप्त नगरबीजिंग
प्रसारण क्षेत्रविश्वव्यापी
प्रथम प्रसारण तिथि३ दिसम्बर १९४१
प्रारूपविदेशी भाषा के रेडियो कार्यक्रम
सम्बद्धताराजकीय रेडियो, चलचित्र और दूरदर्शन प्रशासन
स्वामीFlag of the People's Republic of China.svg चीनी जनवादी गणराज्य
जालस्थलसीआरआई, हिन्दी में सीआरआई

चाइना रेडियो इण्टरनैशनल (सी॰आर॰आई या सीआरआई) (चीनी: 中国国际广播电台), जिसका पुराना नाम रेडियो पेकिंग है, की स्थापना ३ दिसम्बर, १९४१को हुई थी। चीनके एक मात्र अन्तर्राष्ट्रीय रेडियो के रूप में सीआरआई की स्थापना चीन व दुनिया के अन्य देशों की जनता के बीच मैत्री व पारस्परिक समझ बढ़ाने के उद्देश्य से की गई थी।
अपनी स्थापना के आरम्भिक दिनों में सीआरआई, जापानी भाषामें प्रतिदिन १५ मिनटों का कार्यक्रम प्रसारित करता था। पर आज ७० वर्षों के बाद यह ५७ विदेशी भाषाओं व चीनी मानक भाषाव ४ बोलियों में दुनिया भर में प्रतिदिन २११ घण्टों की प्रसारण सेवा प्रदान करता है। इसके कार्यक्रमों में समाचार, सामयिक टिप्पणी के साथ साथ आर्थिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक व तकनीकी विषय सम्मिलित हैं।
१९८४से सीआरआई की घरेलू सेवा भी प्रारम्भ हुई। तब से सीआरआई अपने एफ़एम ८८.७ चैनल पर प्रति दिन ६ बजे से रात १२ बजे तक ९ भाषाओं में संगीत कार्यक्रम प्रसारित करता रहा है। और इस दौरान इसके एफफेम ९१.५ चैनल तथा एमडब्लू १२५१ किलोहर्ट्ज़ फ़्रीक्वेंसी पर अंग्रेज़ी भाषाके कार्यक्रम भी होते हैं।
विदेशों में सीआरआई के २७ ब्यूरो खुले हैं और चीन के सभी प्रान्तों तथा हांगकांगमकाउसमेत सभी बड़े नगरों में इसके कार्यालय काम कर रहे हैं। १९८७से अब तक सीआरआई ने दुनिया के दस से अधिक रेडियो स्टेशनों के साथ सहयोग समझौता सम्पन्न किया है। इसके अतिरिक्त सीआरआई का बहुत से रेडियो व टीवी स्टेशनों के साथ कार्यक्रमों के आदान-प्रदान या अन्य सहयोग के लिये घनिष्ट सम्बन्ध भी हैं।
सीआरआई को प्रतिवर्ष विभिन्न देशों के श्रोताओं से लाखों चिट्ठियां प्राप्त होती हैं। विदेशी लोगों में सीआरआई, चीन की जानकारी पाने का सब से सुगम और सुविधाजनक माध्यम होने के कारण भी प्रसिद्ध है। १९९८में सीआरआई का आधिकारिक जालस्थल भी खोला गया। आज वह चीन के पांच मुख्य सरकारी प्रेस जालस्थलों सम्मिलित है। सीआरआई के अपने समाचारपत्र व टीवी कार्यक्रम भी हैं।

भाषाएँ

चाइना रेडियो इण्टरनैशनल निम्नलिखित भाषाओं में प्रसारण करता है:
अंग्रेज़ी
अरबी
अल्बानियाई
आइसलैण्डिक
इण्डोनेशियाई
इतालवी
उइगुर
उर्दू
एस्टोनियाई
एस्परान्तो
कज़ाख
कम्बोडियाई
कोरियाई
क्रोएशियाई
चेक
जर्मन
जापानी
डच
डैनिश
तमिल
तिब्बती (ल्हासा और कांग्बा)
तुर्क
थाई
नेपाली
नॉर्वेजियाई
पश्तो
पुर्तगाली
पॉलिश
फ़ारसी
फ़िलिपीनो
फ़ीनिश
फ़्रान्सीसी
बर्मी
बांग्ला
बुल्गारियाई
बेलारूसी
मंगोलियाई
मन्दारिन
मलय
यूक्रेनी
यूनानी
रूसी
रोमानियाई
लाओती
लिथुआनियाई
वियतनामी
सर्बियाई
सिंहली
स्पेनी
स्वाहीली
स्वीडिश
हौसा
हंगेरियाई
हिन्दी
हिब्रू
(स्रोत: चाइनाब्रॉड्कास्ट.सीएन)‎‏

बाहरी कडियाँ

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