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गांवों का अजायबघर

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PARI.

पी साईंनाथ ने बनाया गांवों का अजायबघर

एक सुखद बदलाव ने दस्तक दी है और हम आप हैं कि आहट से बेख़बर हैं। बहुत से पत्रकार पेशे से निराश होकर कंपनियों के प्रवक्ता बन गए, नेताओं के सचिव बन गए, पार्टियों के चुनावी योजनाकार बन गए और कुछ ने रसूख का इस्तमाल कर दुकानदारी कायम कर ली। कुछ ने एनजीओ खोला तो कुछ ने सर्वे कंपनी तो कुछ ने अपना चैनल। कुछ रियल इस्सेट में भी आ गए तो कुछ चुनाव लड़ने भी चले गए। निराशा और मजबूरियों ने पत्रकारों को क्या से क्या बना दिया। इसी वक्त में जब पत्रकार से लेकर मीडिया पर निगाह रखने वाले लोग निराशा से गुज़र रहे हैं पी साईनाथ ने एक नई लकीर खींची है। वो कितनी लंबी होगी उन्हें नहीं पता, वो कब मिट जाएगी इसकी भी चिन्ता नहीं है लेकिन बस अपने हाथ में जो भी था उससे एक लकीर खींच दी है।
http://www.ruralindiaonline.org इंटरनेट के अथाह सागर में यह एक नया टापू उभर आया है। जहां भारत के गांवों की हर एक तस्वीर को बचाकर रखने का सपना बोया गया है। पिछले बीस-तीस सालों में गांवों पर क्या कुछ गुज़री है हम जानते हैं। पेशे बदल गए हैं, बोलियां मिट गईं और बदल गईं, खान-पान सब कुछ बदला है। गांव वाले लोग बदल गए। कोई नया आया नहीं लेकिन जो था वो वहां से चला गया। पी साईंनाथ अब उस गांव को समेट लेना चाहते हैं जो हो सकता है एक दिन हमारी स्मृति से भी अचानक मिट जाए और वहां हम सौ नहीं एक सौ हज़ार स्मार्ट सिटी लहलहाते देखें। फेसबुक पर गांवों को लेकर हिन्दी की बिरादरी आए दिन उन स्मृतियों को निराकार रूप में दर्ज करते रहते हैं लेकिन साईनाथ ने रोने-धोने की स्मृतिबाज़ी से अलग हटकर एक ऐसा भंडार बनाने का बीड़ा उठाया है जो भविष्य में काम आएगा।
जब हम भारत के गावों के बारे में पढ़ेंगे और उन गांवों को गांवों में जाकर नहीं, इंटरनेट की विशाल दुनिया में ढूंढेंगे तब क्या मिलेगा। यहां वहां फैली सामग्रियों को हम कब तक ढूंढते रहेंगे। लिहाज़ा साईंनाथ ने तय किया है कि इन सबको एक साइट पर जमा किया जाए। कहानियां, स्मृतियां, रिपोतार्ज, तस्वीरें, आवाज़ और वीडियो सब। पत्रकार, कहानिकार और अन्य पेशेवर या कोई भी इसका स्वंयसेवक बन सकता है। साईंनाथ की तरफ से पत्रकारिता और अकादमी की दुनिया में एक बड़ा हस्तक्षेप हैं। कोई भी इन सामग्रियों को बिना पैसा दिये इस्तमाल कर सकता है। स्कूल कालेज के प्रोजेक्ट बना सकता है और इसे समृद्ध करने में योगदान कर सकता है। इस साइट पर आपको भारत के गांवों से जुड़ी तमाम सरकारी और महत्वपूर्ण रिपोर्ट भी मिलेगी।
साईंनाथ लिखते हैं कि भारत में 83 करोड़ लोग गांवों में रहते हैं और 700 से ज्यादा बोलियां बोलते हैं। स्कूलों में सिर्फ चार प्रतिशत भाषाएं ही पढ़ने के लिए उपलब्ध होती हैं। कई बोलियां मिट रही हैं। त्रिपुरा में एक बोली है सैमर जिसे अब सिर्फ सात लोग ही बोलते हैं। ऐसी ही विविधता साहित्य, संस्कृति, दंतकथाएं, कला, पेशा, उपकरणों में भी है। इन सबको बचाने के लिए ये वेबसाइट तैयार किया गया है। लेकिन आप इस साइट को लेकर भारत सरकार के किसी संस्कृति बचाओ प्रोजेक्ट से कंफ्यूज़ न हो जाएं। साईंनाथ आपकी जानकारी की दुनिया का विस्तार करना चाहते हैं। जहां आप यह देख समझ सकें कि मौजूदा आर्थिकी ने बनाने के साथ साथ क्या क्या मिटाया है। किसानों और खेती के संकट को भी इसमें शामिल किया गया है। जो बचा हुआ है और जो मिट चुका है दोनों का आर्काइव तैयार करने की योजना है। गांवों का एक जीता-जाता म्यूज़ियम। ताकि हम अपनी बर्बादियों के निशान उतनी ही आसानी से देख सकें जितनी आसानी से हमने इस गुलिस्तां को बर्बाद किया है।
The CounterMedia Trust की तरफ से इस साइट को संचालित किया जा रहा है। यह एक तरह की अनौपचारिक संस्था है जो सदस्यता शुल्क, वोलिंटियर,चंदा और व्यक्तिगत सहयोग से चलती है। इसमें कई रिपोर्टर, फिल्म मेकर, फिल्म एडिटर, फोटोग्राफ्र, डोक्यमेंटरी मेकर, टीवी, आनलाइन और प्रिंट पत्रकार सब शामिल हैं। इसके अलावा अकादमी की दुनिया से टीचर, प्रोफेसर, टेकी-प्रोफेशनल भी इसके आधार हैं। ये सब अपनी सेवाएं फ्री दे रहे हैं। मुख्यधारा की मीडिया के लिए भी अब झूठमूठ का रोने का मौका नहीं रहेगा कि उसके पास संवाददाता नहीं है। पैसे नहीं है। मीडिया को गांवों की चिन्ता नहीं है। बुनियादी बात यही है। बाकी सब बहाने हैं। लेकिन जैसा कि यह वेबसाइट पेशकश कर रही है कि कोई भी इसके कंटेंट का मुफ्त में इस्तमाल कर सकता है। इस लिहाज़ से यह एक बड़ा और स्वागतयोग्य हस्तक्षेप तो है ही।
लेकिन साईंनाथ के इस प्रयास को बहुत पैसे की भी ज़रूरत होगी। वे आप सब सामान्यजन से ही सहयोग की अपेक्षा रखते हैं। आप कुछ भी दान कर सकते हैं। अपने श्रम से लेकर पैसे तक। ताकि ल्युटियन दिल्ली की आंत में फंस गई पत्रकारिता को निकालने का एक माडल कामयाब किया जा सके। ऐसे माडल तभी कामयाब होंगे जब आप पाठक और दर्शक के रूप में सहयोग करेंगे। जैसे आप बेकार के न्यूज चैनल और अखबारों को खरीदने के लिए हर महीने हज़ार रुपये से भी ज्यादा खर्च कर देते हैं और फिर छाती कूटते रहते हैं कि कुछ बदलाव क्यों नहीं होता। क्या यही पत्रकारिता है। इस सवाल पर भी ग़ौर कीजिए कि जब अच्छे पत्रकारों के लिए जगह नहीं बची है तब उस माध्यम में आप अपनी मेहनत का पैसा क्यों खर्च करते हैं। आप अगर पार्टी के कार्यकर्ता हैं तो अलग बात है। अपनी पार्टी का जयकारा सुनते रहें या किसी और पार्टी के जयकारे की बारी का इंतज़ार कीजिए लेकिन आप इन सबसे अलग सिर्फ एक सामान्य नागरिक दर्शक हैं तो आपको पहल करनी चाहिए।

पत्रकारों के पत्रकार संजीव भानावत के लिए दो शब्ज

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महापत्रकार संजीव भानावत के प्रति दो शब्द 


 Anami Sharan Babal 
 दुनिया में हंसना सबसे कठिन होता है सर मगर आप हंसते भी है और जग को हंसाने और जागरण करने की अनवरत चेष्टा भी करते है। आपके साथ मेरा परिचय का संवंध या सिलसिला 1987 में तब शुरू हुआ जब मैं भारतीय जनसंचार संस्थान में प्रवेश किया तो आर्येन्द्र उपाध्यायके जरिए शुरू हुआ और 2015 में यह कहते हुए कतई संकोच नहीं हो रहा है कि लगभग 30 साल तक लगातार चलते और जलते हुए किसी युवा से अधिक मचलते हुए और पत्रकारिता के संग टहलते हुए आपको देखकर कभी कभी सहसा चकित रह जाता हूं। यह बार बार सुना था कि एक आदमी कभी रिटायर नहीं होता यह आपको देखकर महसूसकर लगता है कि आपकी उर्जा उष्मा और पत्रकारिता के लिए सर्मपण और अथक सक्रियता से अचंभा भी होता है। दिल्ली से आप दूर है यह सोच कर कभी कभी लगता था कि इतने सक्रिय सज्जन को तो दिल्ली में होना चाहिए था, मगर आज मैं पूरे गौरव के साथकहता हूं कि भगवाल ने आपको दिल्ली के दुर्गंध से दूर रखा तभी पत्रकारों के पत्रकार रहते और हजारों पत्रकार को पत्रतार बनाने के बाद भी आपमें ललक और जीवंतता बनी हुई है। तीन दशक तक लगातार सक्रिय देखते हुे मैं यह दावा करता हूं कि यदि पुरस्कारों में ईमानदारी बरती जाती और पत्रकारिता के लिए यदि कोई ज्ञानपीठ पुरस्कार होता तो इस समय आपसे योग्य उम्मीदवार कोई नहीं था। मेरी बात बहुतों को चापलूसी भी लग सकती है, मगर संजीव भानावत सेमेरा यही रिश्ता है कि आज तकहमलोग कभी न मिले है न फिलहाल मिलने का कोईसंयोग ही है। केवल शब्दों का नाता है। और फेसबुक पर लगातार छह माह तक आपके द्वारा आयोजित सम्मेलनों सेमिनारों की सफलता को देखकर आपकी क्षमता और आयोजन संगठन से मैं मोहित सा हो गया। ज्यादातरों के लिए एक आयोजन करना मुश्किल होता है, मगर यहां पर तो आयोजनों की बौछार को देखकर इसआदमी की दक्षता गुणवत्ता और पत्रकारिता के प्रति निष्ठा को मैं सलाम करता हूं।और हजारों पत्रकारों के गुरू को प्रणाम करता हूं, जिनके भीतर पत्रकारिता ही धड़कन है और जीवन भी। मगरसर पुरस्कारों की तो एक राजनीति होती है मगर मैं पूरे सम्मान के साथ यह मानता हूं कि आप अलग है। हालांकिमैं परमआ. रामजीलाल जांगिड सरका शिष्य रहा हूं जिसका मुझे गर्र्व भी है, पर इसका अफसोस भी है कि काश मैं अपका भी शिष्य रहता ताकि पत्रकारिता की गहराईयों को और जान पाता। पर मैं सर मैं एकलव्य कीतरह आपका शिष्य हूं,क्योंकि आपको गुरू और पत्रकारों के पत्रकार ( महा पत्रकार) है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि हजारों पत्रकारों को परिमार्जित करना किसी बी सुयोग्य संपादक से बड़ा काम है. बड़ी जिम्मेदारी है। क्योंकि संपादक तो अपने अधीन पत्रकारों को निखारते हैं , मगर एक गुरू तो मिट्टी के माधो को आकार देता है।मेरी निष्ठा और आपके प्रति सम्मान हमेशा बनी रहेगी, क्योंकि आप मेरे गुरू शिक्षकमार्गदर्शक औरसलाहकार जीवनभर रहेंगे। अपने इस मन और दिल से माने गे गुरूको प्रणाम करता हूं , और यह मेरा सौभाग्य है कि इस समय आपसे योग्य पत्रकारिता का गुरू कोई नहीं है

मोदी live / संजय द्विवेदी

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बुक रिव्यू: आम चुनाव पर संपूर्ण किताब है 'मोदी Live'

सईद अंसारी | नई दिल्ली, 13 जनवरी 2015 | अपडेटेड: 00:28 IST

कवर पेज 'मोदी Live'
किताब का नाम:मोदी live
लेखक का नाम:संजय द्विवेदी
प्रकाशक: मीडिया विमर्श
मूल्य: 25 रुपये साल 2014 के आम चुनाव और मोदी यह दो मुख्य बिन्दु और हर बिन्दु से जुड़ी अनेकानेक शंकाएं और उनके समाधान सभी कुछ समाविष्ट हैं 'मोदी live'में. देश की स्वाधीनता से लेकर 2014 तक के चुनावों तक के प्रत्येक घटनाक्रम, तत्कालीन राजनीति, राजनैतिक दलों की कार्यप्रणाली सभी को बखूबी उभारा है संजय द्विवेदी ने पुस्तक 'मोदी live'में.
जन नायक से जन-मानस की अपेक्षाएं, 2014 के चुनाव, नायक का चुंबकीय व्यक्तित्व, उसकी कार्यशैली, जनता की जागरुकता, करवट लेती राजनीति और लोकतंत्र की शक्ति सभी कुछ अति रोचक और प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया गया है 'मोदी live'में. मोदी अनायास ही जनता के नायक नहीं बने बल्कि घटनाक्रम से संजय द्विवेदी ने यह सिद्ध किया है. हर घटनाक्रम पर संजय की पैनी नजर रही है. जनता के साथ सीधा जुड़ाव और उनके मन में उम्मीदों के पूरा होने का विश्वास जगाना आसान नहीं होता. लेखक ने स्पष्ट किया है मोदी के उदाहरण से कि जनतंत्र में यदि नायक की जनता के साथ संवेदनहीनता है तो सत्ता पलटते देर नहीं लगती.
मोदी जनता से निरंतर जुड़े रहे और यही जुड़ाव उन्हें विजयी बना गया. मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व और संचार माध्यमों का सही इस्तेमाल यही पर्याप्त नहीं थे मोदी को महानायक बनाने के लिए. मोदी के साथ केवल सपने नहीं थे बल्कि उन्हें साकार करने के लिए दृढ़ संकल्प थे और सुनियोजित कार्यशैली भी. संजय द्विवेदी ने बीजेपी, संघ और मोदी पर विशेष दृष्टि रखी है. कोई भी घटनाक्रम संजय की पकड़ से अछूता नहीं रहा है. कांग्रेस की विफलता और उस विफलता के कारणों पर भी बेबाक टिप्पणी की है संजय ने.
संघ और बीजेपी का जुड़ाव और संघ के ही द्वारा नरेंद्र मोदी को नायक के रूप में प्रस्तुत करना अनायास नहीं बल्कि बड़ी कुशलता से संजय ने यह दर्शाया है कि नायक वही होता है जिसके पास दूरदर्शिता होती है और जन-जन की समस्याओं के सामाधान भी. यही कारण था कि बीजेपी की ऐतिहासिक जीत, बीजेपी की नहीं बल्कि मोदी के नाम पर पूर्ण बहुमत से सरकार बनी क्योंकि लीक से हटकर नया और सार्थक कर दिखाने का मोदी में हौसला है.
लेखक संजय द्विवेदी ने देश के विभाजन से लेकर 2009 तक के चुनाव परिणाम और उनके कारण व 2014 के चुनाव में बीजेपी की जीत का निष्पक्ष विश्लेषण किया है. संजय ने स्पष्ट किया है कि किसी व्यक्ति विशेष के विरोध में सभी राजनैतिक दलों के एक हो जाने से विजय नहीं मिलती बल्कि जनता के दिल में विश्वास पैदा करने से विजय मिलती है. संसदीय लोकतंत्र को भी लेखक संजय द्विदी ने बखूबी परिभाषित किया है. पंडित नेहरू के समय जहां विरोध मर्यादित था, वहीं आज राजनैतिक विरोध को आलोचना मानकर संसद में अमर्यादित व्यवहार देखने को मिलता है.
लेखक संजय द्विवेदी ने लोकतंत्र की शक्ति को भी उजागर किया है कि अनेक राजनैतिक दलों के बावजूद भी हम सफल हैं और जन-जन की आवाज को दरकिनार नहीं किया जा सकता. संजय ने वाणी और कर्म में एकता पर विशेष जोर देने की बात की है क्योंकि इसी से जनता के मन में विश्वास पैदा होता है. मीडिया की सहभागिता को लेखक ने विशेष महत्व दिया है. लेखक के अनुसार आज का समय वास्तव में मीडियामय समय है. मीडिया की ही बदौलत हम आज हर राजनीतिज्ञ को जानते और पहचानते हैं. 2014 का चुनाव अगर ऐतिहासिक था तो मीडिया की ही बदौलत. मोदी ने भी अपने एक साक्षात्कार में यह स्पष्ट किया है, 'यदि सोशल मीडिया ना होता तो आम आदमी की क्रिएटीविटी का पता नहीं चलता.'
चुनाव अभियान के प्रत्येक घटनाक्रम पर संजय द्विवेदी की पैनी नजर रही है. एक जागरूक और जिन्दादिल पत्रकार बनकर संजय सामने आए हैं. 'मोदी live'किताब अपने आप में संपूर्ण है, कोई भी घटनाक्रम और राजनैतिक विमर्श संजय की दृष्टि से बच नहीं पाया है. विश्वास है कि संजय द्विवेदी की पुस्तक 'मोदी live'ना केवल प्रत्येक पाठक के मन को झकझोरेगी बल्कि उन्हें सपनों को साकार करने के लिए एक नई दिशा देगी ताकि उनका नायक लोकतंत्र के आकाश में एक ऊंची बहुत ऊंची उड़ान भरकर देश को आगे ले जाए. संजय द्वेदी को शुभकामनाएं.
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दिल्ली के दिल में क्या है?

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दिल्ली विधानसभा चुनावों की गुत्थी अचानक एक विकट गुत्थमगुत्था लगने लगी है.
अभी कुछ दिनों पहले तक लग रहा था कि लड़ाई एकतरफ़ा है और मोदी लहर दिल्ली में ‘आप’ की झाड़ू पर आसानी से झाड़ू लगा देगी! लेकिन अब यह पानीपत की लड़ाइयों जैसी भीषण, घनघोर, घमासान हो गयी है! और वैसे ही औचक नतीजों की सम्भावनाओं से भरी हुई!
‘आप’, बीजेपी और काँग्रेस. तीन पार्टियाँ, तीन चिन्ताएँ, तीन लक्ष्य!
‘आप’ के लिए अस्तित्व की लड़ाई, बीजेपी के लिए इज़्ज़त की लड़ाई और काँग्रेस के लिए बची रह गयी ज़मीन को बचाये रख पाने की लड़ाई!
सवाल यह है कि इनमें से कौन जीतता है या कोई नहीं जीतता है?एक विश्लेषण.

— क़मर वहीद नक़वीBy: Qamar Waheed Naqvi
दिल्ली जीते, फिर यहाँ जीते, फिर वहाँ जीते, इधर जीते, उधर जीते, पूरब जीते, पश्चिम जीते, उत्तर जीते, लेकिन अबकी बार दिल्ली का उत्तर क्या होगा? टेढ़ा सवाल है! अबकी बार, किसकी सरकार, किसका बंटाधार? सवाल एक नहीं, दो हैं! किसकी सरकार? किसका बंटाधार? या फिर जम्मू-कश्मीर की तरह अधर में अटकी सरकार? वैसे जम्मू-कश्मीर में सरकार क्यों अटक गयी? ऐसे तो गुत्थियाँ कई थीं. लेकिन सुनते हैं कि दिल्ली की गुत्थी ने वहाँ सब अटका दिया!

तीन पार्टियाँ, तीन चिन्ताएँ

दिल्ली की गुत्थी अचानक विकट गुत्थमगुत्था बन गयी है! अभी कुछ दिनों पहले तक लग रहा था कि लड़ाई एकतरफ़ा है! हर जगह मोदी लहर झाड़ू लगा रही है. तो दिल्ली में भी वह kejriwal-versus-kiran-bedi-fight-for-delhi-assembly-electionआसानी से ‘आप’ की झाड़ू पर झाड़ू फेर देगी! लेकिन अब? दिल्ली की जंग बहुत बड़ी हो गयी है! पानीपत की लड़ाइयों जैसी भीषण, घनघोर, घमासान! और वैसे ही औचक नतीजों की सम्भावनाओं से भरी हुई!
सेनाएँ सज चुकी हैं. सेनापति चुन लिये गये हैं. केजरीवाल, किरण बेदी और अजय माकन. ‘आप’, बीजेपी और काँग्रेस. तीन पार्टियाँ, तीन चिन्ताएँ, तीन लक्ष्य! ‘आप’ के लिए अस्तित्व की लड़ाई, बीजेपी के लिए इज़्ज़त की लड़ाई और काँग्रेस के लिए बची रह गयी ज़मीन को बचाये रख पाने की लड़ाई! और मोदी-शाह जोड़ी ने तो किरण बेदी को मैदान में उतार कर वाक़ई इस लड़ाई को कुछ ज़्यादा ही गम्भीरता से ले लिया है! साफ़ है कि वह हर क़ीमत पर दिल्ली का यह चुनाव जीतना चाहते हैं. और इसीलिए फ़िलहाल जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने की कोशिशों को भी ठंडे बस्ते में रख दिया गया, क्योंकि मुफ़्ती मुहम्मद सईद से समझौता करने के लिए बीजेपी को अनुच्छेद 370 और आफ़्स्पा जैसे कुछ मुद्दों पर नरम होना पड़ता और यह बात दिल्ली के चुनावों में उसके गले पड़ सकती थी. इसलिए अब जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने की कोशिशें 7 फ़रवरी के बाद ही दुबारा शुरू होंगी!

मोदी को कितने नम्बर?

आख़िर दिल्ली क्यों बीजेपी और ख़ास कर मोदी-शाह जोड़ी के लिए नाक का सवाल है? दिल्ली भले ही एक छोटा-सा राज्य हो, भले ही उसे पूर्ण राज्य का दर्जा न मिला हो, लेकिन केन्द्र में मोदी सरकार आने के साढ़े आठ महीने के भीतर ही अगर दिल्ली में बीजेपी हार जाती है तो उसकी बड़ी खिल्ली उड़ेगी! दिल्ली देश की राजधानी है. उसका अलग चरित्र है. यहाँ का पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग और युवा वर्ग विकास के बैरोमीटर से ही सब कुछ नापता है. मोदी के विकास के नारे पर ही यहाँ लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 70 में से 60 विधानसभा क्षेत्रों में ज़बर्दस्त बढ़त दर्ज की थी. विकास के मुद्दे पर ही यहाँ शीला दीक्षित पन्द्रह साल तक राज कर सकीं. अब यह चुनाव बतायेगा कि विकास की परीक्षा में मोदी सरकार को दिल्ली ने कितने नम्बर दिये!
kiran-bedi
किरण बेदी
arvind-kejriwal
अरविन्द केजरीवाल
इसलिए सिर्फ़ साढ़े आठ-नौ महीने बाद ही बीजेपी अपने पिछले 60 के आँकड़े से अगर बहुत दूर रह कर चुनाव जीत भी जाये तो भी उसकी किरकिरी तो होगी. लेकिन अगर कहीं बीजेपी कैसे भी बहुमत के आँकड़े से पीछे रह गयी तो फिर तो बंटाधार हो जायेगा! और विपक्ष ख़ासकर काँग्रेस को सरकार पर हमला करने और अपने आपको फिर से खड़ा करने के लिए आक्सीजन मिल जायेगी! उधर, आगे बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राजनीतिक रूप से बड़े महत्त्वपूर्ण राज्य हैं, जहाँ बीजेपी अपना सिक्का चलाने के सपने देख रही है. दिल्ली में नतीजे अगर चमकीले न हुए, तो इन राज्यों में बीजेपी को अपनी शक्ल निखारने में दिक़्क़त हो सकती है.

किरण बेदी, क्या दाँव उलटा पड़ेगा?

दिल्ली की लड़ाई में मोदी-शाह जोड़ी के लिए कई परेशानियाँ हैं. एक तो यह कि दूसरे राज्यों की तरह यहाँ मुक़ाबला न काँग्रेस से है, न यूपीए की किसी पार्टी से. यहाँ राष्ट्रपति शासन के रूप में केन्द्र सरकार ही ख़ुद राज कर रही थी और मुक़ाबले में केजरीवाल हैं, जिनके ख़िलाफ़ बीजेपी के पास ’49 दिन के भगोड़े’ और ‘अराजकतावादी केजरीवाल’ जैसी बातों को छोड़ कर कोई मुद्दा ही नहीं है. केजरीवाल का मुक़ाबला कैसे हो? बीजेपी ज़रूर नर्वस है. इसीलिए केजरीवाल के ख़िलाफ़ ‘ट्रम्प कार्ड’ के तौर पर मोदी-शाह जोड़ी ने किरण बेदी पर दाँव लगाया है. बीजेपी में या फिर बाक़ी राजनीतिक दलों में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो (याद तो नहीं पड़ता) कि पर्चे दाख़िल होने का काम शुरू हो जाने के बाद कहीं से ‘सम्भावित मुख्यमंत्री’ को ‘आयात’ किया जाये! और फिर अब तक तो पार्टी बहुत इतराते हुए सभी राज्यों में सिर्फ़ मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ती रही, तो इस बार उसे बाहर से एक चेहरा लाने की ज़रूरत क्यों पड़ गयी? क्या मोदी लहर ढलान पर है? और अगर ऐसा है भी, तो किरण बेदी क्या पार्टी को कोई ऐसा करिश्मा दे पायेंगी, जिसकी उनसे उम्मीद की जा रही है? वह बहुत कड़क पुलिस अफ़सर रही हैं, राजनीति में बहुत लचीलापन चाहिए. बीजेपी में शामिल होने के बाद वह दो बार पार्टी कार्यकर्ताओं से सम्बोधित हुईं. देख कर साफ़ लगा कि अभी तो उन्हें बहुत सीखना है! दिल्ली बीजेपी पहले से ही गुटों में गुटगुटायी हुई है. बाहर से आयी किरण बेदी पार्टी के अन्दर कितने कुलाबे जोड़ पायेंगी? और फिर सबसे आख़िर में सबसे बड़ा सवाल कि क्या केजरीवाल की अपील को वह काट पायेंगी, जिसके लिए उन्हें लाया गया है? कम से कम मुझे तो अभी तक उनके पास ऐसी कोई जादुई छड़ी नहीं दिखी!
दूसरी बात यह कि बीजेपी ने तो हालाँकि किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया है, लेकिन किरण बेदी अपने हाव-भाव से ख़ुद को उसी रूप में पेश कर रही हैं. बीजेपी सरकारों में अब तक मुख्यमंत्री संघ काडर से होता रहा है. किरण बेदी बाहर से आयी हैं और ख़बर है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किये जाने पर सवाल उठा दिया है. ख़बरों के मुताबिक भागवत को किरण बेदी के बीजेपी में आने पर क़तई एतराज़ नहीं है, लेकिन सम्भावित मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें पेश किये जाने पर उन्हें सख़्त आपत्ति है. उन्होंने यह भी जानना चाहा है कि यह किसका फ़ैसला है? तो क्या मोदी-शाह जोड़ी ने सरकार और पार्टी के काम में संघ के दख़ल को कम करने की क़वायद शुरू कर दी है? लेकिन क्या यह इतना आसान है? अब ताज़ा अटकलें हैं कि बीजेपी शायद किरण बेदी को सीधा-सीधे मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार न घोषित कर उन्हें चुनाव अभियान समिति का मुखिया घोषित करे. एक-दो दिन में इस पर स्थिति साफ़ होने की उम्मीद की जा रही है.
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इस बीच आरएसएस ने इन ख़बरों का खंडन किया है कि संघ प्रमुख को किरण बेदी के बीजेपी में आने से कोई परेशानी है. संघ की तरफ़ से यह ट्वीट किया गया:
संघ ने यह भी कहा कि मीडिया का एक तबक़ा ग़लत ख़बरें फैला रहा है:
संघ के प्रवक्ता राजीव तुली ने भी समाचार एजेन्सी पीटीआइ को बताया कि संघ का इससे कोई लेना-देना नहीं है कि बीजेपी किसे मुख्यमंत्री के तौर पर अपना उम्मीदवार बनाती है और यह बीजेपी का अन्दरूनी मामला है, जिसमें संघ दख़ल नहीं देता.
बहरहाल, इन तमाम सफाइयों के बावजूद पार्टी के भीतर से छन कर आ रही ख़बरों के निहितार्थ यही हैं कि संघ को भी और पार्टी के भीतर एक तबक़े में बेदी के नाम पर सब कुछ सहज नहीं है.
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केजरीवाल और ‘आप’ का बुलबुला!

और अरविन्द केजरीवाल जानते हैं कि इस चुनाव में अगर वह पिट गये तो बंटाधार हो जायेगा और ‘आप’ नाम के बुलबुले की कहानी शायद ख़त्म ही हो जाये. इसलिए लोकसभा चुनाव हारने के बाद से केजरीवाल ने दिल्ली छोड़ कर किसी और तरफ़ झाँका भी नहीं. उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने दिल्ली में सरकार बना कर और चला कर दिखा दी, तो ‘आप’ देश में एक नये राजनीतिक विकल्प के तौर पर उभर सकती है. ‘भगोड़ा’ और ‘अराजक’ छवि की तरफ़ वह फिर कभी नहीं लौटना चाहते. इसीलिए उनकी आम आदमी पार्टी ने अब अपनी शैली पूरी तरह बदल ली है. वह अब धरने और आन्दोलनों के बोल नहीं बोलती. भाषा भी संयंत हो गयी है. उसने राजनीतिक दलों के सारे तौर-तरीक़े भी सीख लिये हैं. पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती अपनी ‘इमेज’ और अपना ‘परसेप्शन’ बदलने की है कि उसे एक ‘ज़िम्मेदार राजनीतिक दल’ माना जाये. इसके लिए उन्होंने काफ़ी कड़ी मेहनत भी की है और यह सच है कि पिछले दो महीनों में पार्टी को इसमें बड़ी सफलता भी मिली है, उसके बारे में लोगों की राय भी सुधरी है, लेकिन कहाँ तक, यह 7 फ़रवरी को ही पता चलेगा. बहरहाल, अगर ‘आप’ अपनी 28 सीटों का पुराना आँकड़ा भी छू ले तो भी यह उसकी उपलब्धि ही होगी!

काँग्रेस: आठ के ऊपर या नीचे?

और लोकसभा चुनावों में हार के बाद काँग्रेस में पहली बार ‘कुछ कर दिखाने’ की अकुलाहट दिख रही है. पिछली विधानसभा में काँग्रेस को आठ सीटें मिली थीं. उसकी लड़ाई फ़िलहाल तो यही है कि उसका आँकड़ा इससे नीचे क़तई न जाये. वह पूरा ज़ोर लगा रही है कि अपनी सीटों की संख्या वह कम से कम दहाई के पार तो ले जाये. इसलिए बड़े-बड़े दिग्गजों को मैदान में उतारने की तैयारी कर रही है. अब देखते हैं कि दिल्ली के दिल में क्या है? और पानीपत जैसी इस लड़ाई में कौन जीतता है या कोई भी नहीं जीतता है?
http://raagdesh.com


टेलीग्राम: (1857 का विद्रोह 'दबाने'वाले) की मौत

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टेलीग्राम: 1857 का विद्रोह 'दबाने'वाले की मौत

  • 13 जुलाई 2013
तार जैसे कारगर हथियार की वजह से अंग्रेज़ों को 1857 के विद्रोह को दबाने में काफ़ी मदद मिली.
जब टेलीग्राम की सुविधा शुरु हुई थी तो भारत में लोगों को इसकी अहमियत पतानहीं थी, लेकिन 1857 के ग़दर के दौरान और उसके बाद से लेकर आज तक तारसामाजिक ताने-बाने का हिस्सा रहा है.तारने लोगों को जोड़े भी रखा और यह आतंक का भी पर्याय बना रहा.
शुरुआतीदिनों में ईस्ट इंडिया कंपनी ने तार का इस्तेमाल अपने सिपाहियों को ख़बरकरने के लिए किया. फिर मौत की ख़बर देने के लिए इनका इस्तेमाल होता रहा.लंबे वक़्त तक ये तार और बैरंग चिट्ठियां आने का मतलब यही आतंक था.
भारतीयडाक-तार सेवा के इतिहास पर शोध करने वाले अरविंद कुमार सिंह बताते हैं, ‘1857 के विद्रोह के वक़्त अंग्रेज़ों के टेलीग्राफ़ विभाग की असल परीक्षाहुई, जब विद्रोहियों ने अंग्रेज़ों को जगह-जगह मात देनी शुरू कर दी थी.अंग्रेज़ों के लिए तार ऐसा सहारा था जिसके ज़रिए वो सेना की मौजूदगी, विद्रोह की ख़बरें, रसद की सूचनाएं और अपनी व्यूहरचना सैकड़ों मील दूर बैठेअपने कमांडरों के साथ साझा कर सकते थे.
( भारत में तार सेवा हमेशा के लिए बंद होने जा रही है)

हिटलिस्ट में थे टेलीग्राफ़ ऑफ़िस

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि तार की वजह से बग़ावत दबानेमें अंग्रेज़ों को काफ़ी मदद मिली. एक तरफ़ विद्रोहियों के पास ख़बरेंभेजने के लिए हरकारे थे, दूसरी तरफ़ अंग्रेजों के पास बंदूक़ों के अलावासबसे बड़ा हथियार था- तार, जो मिनटों में सैकड़ों मील की दूरी तय करता था.इस वजह से अंग्रेज़ों का टेलीग्राफ़ विभाग बाग़ियों की हिट लिस्ट में आगया.नतीजा यह हुआ कि दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, इंदौर जैसी जगहों परबाग़ियों ने तार लाइनें ध्वस्त कर दीं और वहां काम कर रहे अंग्रेज़कर्मचारियों को मार डाला. मेरठ समेत कई जगहों पर बाग़ियों ने तार के खंभोंको जलावन की तरह इस्तेमाल किया.कुछ जगह तार गोलियां बनाने के काम आए. लोहारों ने खंभों का इस्तेमाल तोप बनाने तक में किया. 918 मील लंबी तार की लाइनें तोड़ दी गईं.
अरविंदकुमार सिंह बताते हैं, ‘बिहार के सासाराम और आरा, इलाहाबाद और अलीगढ़ मेंइन्हें उखाड़कर तोप की तरह इस्तेमाल किया गया. दिल्ली में विद्रोही तारविभाग के काम से इतने नाराज़ थे कि जब उन्हें कुछ समझ न आया तो उन्होंनेराइफल के कुंदों से तार मशीनें ही तोड़ डालीं.'
बाद में सन 1902 मेंइन कर्मियों की याद में दिल्ली में टेलीग्राफ मैमोरियल खड़ा किया गया. जिसपर उन कर्मचारियों के नाम दर्ज किए गए जिन्होंने विद्रोह की ख़बरें तार सेभेजते हुए जान गंवाई थीं.

1857 के बाद बिछीं सैकड़ों मील लंबी लाइनें

1857-58 में तार की वजह से मिली कामयाबी के बाद अंग्रेज़ों ने पूरे हिंदुस्तान कोतार के लिए ज़रिए जोड़ने का फ़ैसला किया. सैकड़ों मील की नई लाइनें बिछाईगईं.1885-86 में डाक और तार विभाग के दफ़्तर एक कर दिए गए. इसके बाद 1 जनवरी 1882 से अंतरदेशीय प्रेस टेलीग्राम शुरू हुए जिनका फ़ायदाअख़बारों ने उठाया.
आज़ादी के बाद 1 जनवरी 1949 को नौ तारघरोंआगरा, इलाहाबाद, जबलपुर, कानपुर, पटना और वाराणसी आदि में हिंदी में तार सेवा कीशुरुआत हुई. आज़ादी मिलने के बाद भारत ने पहली पंचवर्षीय योजना में हीसिक्किम के खांबजांग इलाके में दुनिया की सबसे ऊंची तार लाइन पहुंचा दी.
तेज़ गति से तार बांटने का काम करने के लिए 1949-50 में मोटरसाइकिलों का इस्तेमाल शुरू कर दिया गया.इनसभी बदलावों का नतीजा यह हुआ कि 1957-58 में एक साल में तीन करोड़ दस लाखतार भेजे गए, और इनमें से 80 हज़ार तार हिंदी में थे. 1981-82 तक देश में 31 हज़ार 457 तारघर थे और देशी तारों की बुकिंग 7 करोड़ 14 लाख तक पहुंचचुकी थी.

रेल से पहले आया था तार

1849 तक भारत में एक किलोमीटर रेलवे लाइन तक नहीं बिछी थी. 1857 के बाद रेलवेलाइन बिछाने पर ब्रिटिश सरकार ने पूरी तरह ध्यान देना शुरू किया. इसके बाद 1853 में पहली बार बंबई (मौजूदा मुंबई) से ठाणे तक पहली ट्रेन चली.
सन 1865 के बाद देश में लंबी दूरियों को रेल से जोड़ना शुरू किया गया लेकिन तार उससे पहले ही अपना काम शुरू कर चुका था.
अरविंदकुमार सिंह कहते हैं, 'भारत में रेलों के विस्तार से पहले ही तार का आगमनहो चुका था. इसने उस वक़्त समाज को नज़दीक किया और उसके एकीकरण का कामकिया. इसके अलावा इसका सबसे बड़ा फ़ायदा अंग्रेज़ों को अपना नागरिक औरसैन्य प्रशासन मज़बूत करने में मिला.'

ख़बरें 10 दिन नहीं, 10 मिनट में पहुंचीं

भारतीयमीडिया के लिए तार एक वरदान ही था. भारत में जब अख़बारों की शुरुआत हुई तोउस वक़्त देश के किसी हिस्से में होने वाली घटना की ख़बरें एक हफ़्ते या 10 दिन बाद तक अख़बारों में जगह हासिल कर पाया करती थीं.
मगर तार केइस्तेमाल के बाद उन्हें उसी दिन छापना मुमकिन हो पाया. इसके लिए ब्रिटिशसरकार ने अख़बारों को ख़ास किस्म के कार्ड मुहैया कराए थे.
‘1882 में इनलैंड प्रेस टेलीग्राम क्रैडिट कार्ड शुरू हुए. इनसे छोटे-बड़े सभीअख़बारों को काफ़ी मदद मिली. संवाददाता मुफ़्त में अपनी ख़बरें तार केज़रिए भेज सकते थे. तार विभाग में प्रेस के लिए कमरे बनाए गए. इसने ख़बरोंको लोगों तक जल्द से जल्द पहुंचाने में योगदान दिया. यह क्रांतिकारी हथियारथा.रेडियो को भी समाचार टेलीग्राम से मिलते थे. तब ख़बरों के प्रति ललक पैदा हुई. मगर इसका उलटा असर भी पड़ा.
अरविंदकुमार सिंह ने बताया, "तार की वजह से ही अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ख़बरें भीतेज़ी से अख़बारों के पन्नों पर आने लगीं. यह बात भी कही गई कि ये सुविधाबंद कर दी जाए. मद्रास कूरियर अख़बार पर सरकार ने बंदिशें लगाने की कोशिशभी की, लेकिन बंगाल असेंबली की मीटिंग में इसका जमकर विरोध हुआ और इसेदेखते हुए इनलैंड टेलीग्राम पर रोक नहीं लगाई जा सकी."
भारत में तारअब इतिहास का हिस्सा बनने जा रहा है. हो सकता है कि ईमेल, मोबाइल फ़ोन औरइंटरनेट मैसेंजर की दुनिया में पली-बढ़ी पीढ़ी इसके लंबे इतिहास और अहमियतको भूल ही जाए.
मगर जिस टेलीग्राम ने भारत को एक कोने से दूसरे तकजोड़ने में मदद की, ब्रिटिश राज को पैर जमाने में जिसने अपना योगदान दिया, वो आसानी से भूल जाने योग्य नहीं है.

कहाँ गए हमारे कार्टून?

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मीडिया/ गोविन्द सिंह
के शंकर पिल्लै
कार्टून पर हमले भलेही यूरोपीय देशों में हो रहे हों, लेकिन अपने देश में वह पहले ही मरणासन्न हालत में है. साढ़े तीन दशक पहले जब हमने पत्रकारिता में कदम रखा था तब लगभग हर अखबार में कार्टून छपा करते थे, उन पर चर्चा हुआ करती थी, नामी कार्टूनिस्ट हुआ करते थे. हिन्दी अखबार, जिनकी अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत कमजोर मानी जाती थी, वहाँ भी दो-दो कार्टूनिस्ट होते थे. अस्सी के दशक में नवभारत टाइम्स में दो कार्टूनिस्ट थे. एक दिल्ली में और एक मुंबई में. सैमुएल और कदम. तभी सुधीर तैलंग भी आ गए. इस तरह तीन हो गए. बाद में दिल्ली संस्करण में दो कार्टूनिस्ट हो गए थे, काक और सुधीर तैलंग. यही नहीं लखनऊ से नया संस्करण शुरू हुआ तो वहाँ भी एक कार्टूनिस्ट रखे गए थे, इरफ़ान. बाक़ी अखबारों की भी कमोबेश यही स्थिति थी. जनसत्ता शुरू हुआ तो वहाँ भी काक और राजेन्द्र नियुक्त हुए. यानी कार्टूनिस्ट के बिना अखबार की कल्पना नहीं की जा सकती थी. आज नवभारत टाइम्स में एक भी कार्टूनिस्ट नहीं है. अन्य अखबारों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है. कहीं फ्रीलांसर कार्टूनिस्ट से काम चलाया जा रहा है तो कहीं पार्ट टाइम कार्टूनिस्ट हैं. कहीं उनसे अतिरिक्त काम लिया जाता है तो कहीं उन्हें रेखांकन और रेखाचित्र बनाने को कहा जाता है. अंग्रेज़ी अखबारों में भी कोई कद्दावर कार्टूनिस्ट नहीं दिखाई पड़ता.
आर के लक्ष्मण
एक ज़माना था, जब इसी देश में शंकर पिल्लई जैसे कार्टूनिस्ट थे, आरके लक्ष्मण थे, अबू अब्राहम, मारियो मिरांडा थे, सुधीर दर थे, कुट्टी थे, रंगा थे. सुधीर तैलंग अब भी हैं, लेकिन शायद किसी बड़े अखबार को उनकी सेवाओं की जरूरत नहीं रही. अन्य अखबारों में भी कार्टूनिस्ट हैं, लेकिन अब वे उस ऊंचाई तक नहीं पहुँच पाते जहां शंकर या आरके लक्ष्मण पहुँच पाए थे. अजीत नैनन, रविशंकर, केशव, सुरेन्द्र, उन्नी, राजेन्द्र धोड़पकर, जगजीत राणा, शेखर गुरेरा, पवन और असीम त्रिवेदी जैसे कार्टूनिस्ट हैं, पर वे अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं या कहिए किसी तरह मशाल जलाए हुए हैं. पहले कार्टूनिस्ट का दर्जा भी वरिष्ठ संपादकों के बराबर ही होता था. लक्ष्मण का दर्जा प्रधान सम्पादक के लगभग बराबर था. स्थानीय सम्पादक से ऊपर तो था ही. सम्पादकीय विभाग में वह एक स्वायत्त इकाई थे. शंकर के कार्टूनों से तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू प्रभावित थे.      
दो दशक पहले तक अखबारों के पहले पेज पर तीन-चार कॉलम का एक बड़ा कार्टून छपता था, पॉकेट कार्टून होता था और अन्दर भी सम्पादकीय पेज या उसके सामने वाले पेज पर बड़ा कार्टून होता था. आज पॉकेट कार्टून ही नहीं बचा तो बड़े कार्टून की क्या बिसात! सम्पादकीय पेज पर कभी कभार कार्टून दिखता तो है, पर उसे किसी घटना पर स्वतःस्फूर्त बना कार्टून नहीं कहा जा सकता, वह महज लेख को सप्लीमेंट करने वाला स्केच बनकर रह जाता है. पॉकेट कार्टून की जगह सिंडिकेटेड कार्टून छप रहे हैं, जिनमें थोड़ा बहुत हास्य होता है, करारा व्यंग्य तो नहीं ही होता. लक्ष्मण के बड़े कार्टून रोज-ब-रोज की घटनाओं पर तीखा प्रहार करते थे, साथ ही पॉकेट कार्टून भी आम आदमी के दर्द को मार्मिकता के साथ उभारता था. ये कार्टून दिन भर की किसी खबर पर कार्टून के जरिये एक तीखी टिप्पणी किया करते थे. आर के लक्ष्मण ने एक बार कहा था, ‘परिस्थितियाँ इतनी खराब हैं कि यदि मैं कार्टून न बनाऊँ तो आत्महत्या कर लूं.’ इससे पता चलता है कि कार्टून कितना अपरिहार्य था. इनका महत्व सम्पादकीय के समान होता था. आज यह सब गायब है. पहले पेज पर से बड़े कार्टून को गायब हुए कितने ही साल हो गए हैं. हिन्दू को छोड़कर बहुत कम अखबारों में राजनीतिक कार्टून दीखते हैं.
आर के लक्ष्मण अपने महान चरित्र आम आदमी के साथ 
हालात देखकर वाकई लगता है कि यह दौर कार्टून के लिए ठीक नहीं है. ऐसा क्यों हुआ? इसकी शुरुआत नब्बे के दशक में आए आर्थिक सुधारों के साथ ही हो गयी थी. अखबार के पन्नों पर से विचार की जगह लगातार सिमटती चली गयी. अखबारों का निगमीकरण शुरू हुआ. अखबार किसी एक पक्ष में खड़े नहीं दिखना चाहते थे. वे किसी से दुश्मनी मोल नहीं ले सकते थे. फिर समाज से सहिष्णुता भी धीरे-धीरे कम होने लगी. राजनेता कार्टून को अपने ऊपर हमला मानने लगे. एक समय था, जब नेता इस बात पर खुश होते थे कि उन्हें कार्टून का विषय के तौर पर चुना गया. लक्ष्मण एक वाकया सुनाते हैं, १९६२ के युद्ध के बाद उन्होंने नेहरू का मजाक उड़ाते हुए एक कार्टून बनाया. उनसे भी ज्यादा मजाक उनके तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन का उड़ाया. कार्टून छापा तो सवेरे ही नेहरू का उन्हें फोन आया. लक्ष्मण डरे हुए थे कि पता नहीं प्रधान मंत्री कार्टून का बुरा ना मान गए हों. लेकिन दूसरी तरफ से आवाज आयी कि उनका कार्टून देखकर मजा आया. क्या लक्ष्मण उस कार्टून को अपने दस्तखत करके उन्हें उपहार में दे सकते हैं? लक्ष्मण बताते हैं कि वे गदगद हो गए. ऐसे ही सुधीर तैलंग बताते हैं कि एक बार उन्हें डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने फोन किया कि क्यों तैलंग ने छः महीने से उन पर कार्टून नहीं बनाया? क्या वे भारतीय राजनीति के लिए अप्रासंगिक हो गए हैं? काक साहब कहा करते थे कि हमारा सबसे पहला हमला अगले की नाक पर होता है. इस हमले को सहने की ताकत धीरे-धीरे हमारे नेताओं और हमारे समाज में कम होती जा रही है.
दरअसल कार्टून अत्यधिक शक्तिशाली होता है. कभी-कभी वह सम्पादकीय से भी ताकतवर होता है. कार्टून चूंकि एक तरह की बौद्धिक लड़ाई है, हमला है, इसलिए उसे झेल पाने की क्षमता भी कम होने लगी. पत्र-स्वामियों को लगा कि क्यों इस तरह का जोखिम लिया जाए. लिहाजा उन्होंने धीरे-धीरे कार्टून को बेदखल करना शुरू किया. उसकी जगह मनोरंजन ने ली. आज कार्टून अखबार से उठकर टीवी के परदे पर पहुँच रहा है तो इसीलिए कि मनोरंजन के रूप में उसकी कीमत बढ़ रही है.
 (आउटलुक , १६-३१ जनवरी, २०१५ के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का मूल रूप) 

आर के लक्ष्मण

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आर. के. लक्ष्मण
जन्म23 अक्टूबर 1921 (आयु 93)
मैसूर, भारत
व्यवसायव्यंग-चित्रकार
हस्ताक्षर
रासीपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मण (जन्म: २३ अक्टूबर १९२१, मैसूर), संक्षेप में आर. के. लक्ष्मण, भारत के एक प्रमुख व्यंग-चित्रकारहैं। आम आदमी की पीड़ा को अपनी कूँची से गढ़कर, अपने चित्रों से तो वे पिछले अर्द्ध शती से लोगों को बताते आ रहे हैं; समाजकी विकृतियों, राजनीतिक विदूषकों और उनकी विचारधारा के विषमताओं पर भी वे तीख़े ब्रश चलाते हैं। लक्ष्मण सबसे ज़यादा अपने कॉमिक स्ट्रिप "द कॉमन मैन"जो उन्होंने द टाईम्स ऑफ़ इंडिया[1]में लिखा था, के लिए प्रसिद्ध है।

अनुक्रम

जन्म और बाल्यावस्था:

आर के लक्ष्मण का जन्म मैसूरमें हुआ था। उनके पिता एक स्कूल के संचालक थे और लक्ष्मण उनके छः पुत्रो में सबसे छोटे थे। उनके बड़े भाई आर. के. नारायण[2]एक प्रसिद्ध उपन्यासकार है और केरल के एम् जे विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर है।
बचपन से ही लक्ष्मण को चित्रकलामें बहुत रूचि थी। वे फर्श, दरवाज़ा, दीवार, आदि में चित्र बनाते थे। एक बार उन्हें अपने अध्यापक से पीपल के पत्तेके चित्र बनाने के लिए शभाशी भी मिला था, तबसे उन्होंने एक चित्रकार बनना चाहा। वे ब्रिटन के मशहूर कार्टूनिस्ट सर डेविड लौ[3]से बहुत प्रभावित हुए थे। लक्ष्मण अपने स्थानीय क्रिकेट टीम "रफ एंड टफ एंड जॉली"के कप्तान थे और उनके हरकतों से प्रेरित होकर, उनके बड़े भाई ने "डोडो दमणिमेकर"और "द रीगल क्रिकेट क्लब"जैसे कहानियों को लिखा।
उनका सुखद बचपन तब हिल गया था जब उनके पिता पक्षाघात के शिखार बने और उसके एक ही साल बाद उनका देहांत हो गया। तब लक्ष्मण ने स्कूली शिक्षा को जारी रखा पर घर के बाकी बड़ो की ज़िम्मेदारी बड़ गयी।
हाई स्कूल के बाद, लक्ष्मण आर्ट, ड्राइंग और पेंटिंग के बारे में उनकी आजीवन हितों पर ध्यान केंद्रित करने की उम्मीद कर मुंबई के जेजे स्कूल के लिए आवेदन किया, लेकिन कॉलेज के डीन ने उनको लिखा की उनके चित्रों में वह बात नहीं था जिससे वह उन्हें अपने कॉलेज में दाखिला दे सके और उनके आवेदन को अस्वीकार कर दिया। बाद में उन्होने मैसूर विश्वविद्यालय[4]से बी एउतीर्ण किया। इसी दौरान उन्होंने अपने स्वतंत्र कलात्मक गतिविधियों को भी जारी रखा और स्वराज्यपत्रिका एवं एक एनिमेटेडचित्रके लिए अपने कार्टूनो का योगदान दिया।

व्यवसाय:

लक्ष्मण पहले-पहले स्वराज्यऔर ब्लिट्जजैसे पत्रिकाओ के लिए काम करते थे। जब वे मैसूर के महाराजा कॉलेजमें पढ़ रहे थे, तब वे अपने बड़े भाई आर.के. नारायण के कहानियों का वर्णन "द हिन्दू"पत्रिका में करते थे और स्थानीय पत्रिका "स्वतन्त्रता"के लिए राजनेतिक कार्टूनो को भी छुड़ाया करते थे। लक्ष्मण कन्नड़ के हास्य पत्रिक "कोरावंजी"के लिए भी कार्टूनो को छुड़ाया करते थे। संयोग से, कोरावंजी को अलोपथ डॉ॰ एम्. शिवरामने सन्न १९४२ में स्थापित किया था जो स्वयं, हास्य को प्रोत्साहित करते थे। उन्होंने तो इस मासिक पत्रिका को हास्य और व्यंग्य कार्टूनो के लिए ही समर्पित किया था। डॉ॰ शिवराम स्वयं कन्नड़ के एक पख्यात टीटोलीय थे और उन्होंने लक्ष्मण को बहुत प्रोत्साहित किया। लक्ष्मण मद्रास के जेमिनी स्टूडियोज में गर्मियों के छुट्टी में काम करते थे। उनकी पहली पूर्वकालिक नौकरी एक राजनीतिक कार्टूनिस्ट के रूप में "द फ्री प्रेस जॉर्नल", मुम्बईमें था। श्री बाल ठाकरे[5]उनके सहयोगी थे। बाद में लक्ष्मण को "द टाइम्स ऑफ़ इंडिया"पत्रिका में नौकरी मिली और उन्होंने वहाँ पचास वर्षोंसे भी अधिक काम किया।
लक्ष्मण ने १९५४ में एशियन पैंट्स ग्रुप के लिए एक लोकप्रिय शुभकर "गट्टू"को बनाया। उन्होंने कुछ उपन्यास भी लिखे है। उनके कार्टूनों को "मिस्टर एंड मिसेस ५५"नामक हिंदी चित्र और "कामराज"नामक तमिल चित्र में दिखाए गए है। उनके रचनाओ में वह रेखाचित्र भी शामिल है जो "मालगुडी डेज", जो श्री आर. के. नारायण द्वारा लिखित उपन्यास का टेलीविज़न अनुकूलन के लिए तैयार किये गए थे।
सिम्बायोसिस अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में आर. के. लक्ष्मण के नाम पर एक कुर्सी भी है।

निजी ज़िन्दगी:

आर. के. लक्ष्मण का पहला विवाह भरतनाट्यम नर्तकी और सिनेमा अभिनेत्री कमला लक्ष्मणसे हुआ था (विवाह से पहले उन्हें बेबी कमला और कुमारी कमला के नमो से जाना जाता था)। उनसे तलाक के बाद, आर. के. लक्ष्मण ने फिर विवाह किया और उनके दूसरे पत्नी (जो एक लेखिका है) का नाम भी कमलाथा। फिल्मफेयर, एक सिनेमा पत्रिका के कार्टून सीरीज "द स्टार ऐ हाव नेवर मेट"में उन्होंने कमला लक्ष्मण की एक कार्टून बनाकर उसको यह शीर्षक दिया "द स्टार ओनली ऐ हाव मेट"
सितम्बर २००३ में, लक्ष्मण ने एक स्ट्रोक के प्रभाव के कारण अपनी बाई ओर से रुक छोड़ दिया। वे इस आघात से कुछ दूर तक उबर पाये है। २०१२ अक्टूबर में, लक्ष्मण ने अपनी ९१व जन्मदिन को पुणे में मनाया।अप्ने निवास मे एक निजि सभा के दोरान, लक्ष्मण ने केक को काटा और उनके एक आराधक राजवर्धन पाटिल ने उन्हे "द ब्रेनी क्रो"नामक एक व्रित्छित्र को प्रस्तुत किया, जो इन्की सब्से पसन्दीदा पक्षी के जीवन और अस्तित्व के बारे मे था। शिव सेना प्रमुख श्री बाल ठाकरे, जो अतीत मे कार्टूनिस्ट के रूप मे लक्ष्मण के सहयोगी थे, ने उन्हे जन्मदिन की शुभकामनाये भेजे। इस दिन मे वैग्यानिक श्री जयन्त नार्लिकर[6]और सिम्बायोसिस विश्वविध्यालय के चान्सेल्लर श्री एस. बी. मजुम्दार ने भी उन्हे शुभकाम्नाये भेजे।

सम्मान एवं पुरस्कार:

किताबें:

  • दि एलोक्वोयेन्ट ब्रश
  • द बेस्ट आफ लक्षमण सीरीज
  • होटल रिवीयेरा
  • द मेसेंजर
  • सर्वेन्ट्स आफ इंडिया
  • द टनल आफ टाईम (आत्मकथा)

मल्टी-मीडिया:

  • इंडिया थ्रू थे आईज ऑफ़ आर. के. लक्ष्मण-देन टू नाउ (सीडी रोम)
  • लक्ष्मण रेखास-टाइम्स ऑफ़ इंडिया प्रकाशन
  • आर. के. लक्ष्मण की दुनिया- सब टीवी पर एक शो

सन्दर्भ:


हिन्दी और हिन्दी पत्रकारिता की पीड़ा / संजय कुमार सिंह

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Sanjaya Kumar Singh :

 हिन्दी, हिन्दी की नौकरी, अर्ध बेरोजगारी और हिन्दी में बने रहना... जनसत्ता में उपसंपादक बनने के लिए लिखित परीक्षा पास करने के बाद इंटरव्यू से पहले ही सहायक संपादक बनवारी जी ने बता दिया था कि प्रशिक्षु रखा जाएगा और (लगभग) एक हजार रुपए महीने मिलेंगे। इतने में दिल्ली में रहना मुश्किल है, रह सकोगे तो बताओ। मैंने पूछा कि प्रशिक्षण अवधि कितने की है। बताया गया एक साल और फिर पूरे पैसे मिलने लगेंगे। पूरे मतलब कितने ना मैंने पूछा और ना उन्होंने बताया। बाद में पता चला कि प्रशिक्षण अवधि में 40 प्रतिशत तनख्वाह मिलती है। पूरे का मतलब अब आप समझ सकते हैं। मेरे लिए उस समय भी ये पैसे कम नहीं, बहुत कम थे।
नौकरी शुरू करने के बाद कुछ ही समय में यह समझ में आ गया कि मैं इस पेशे में गलत आ गया हूं। मैं मानता हूं कि यह पेशा (कम वेतन और सुविधाओं के कारण) मेरे लायक नहीं है। आप यह मान सकते हैं कि मैं इस पेशे के लायक नहीं था। मुझे दोनों में कोई खास अंतर नहीं लगता है। वैसे, मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि जनसत्ता या हिन्दी पत्रकारिता ने वेतन भत्तों के अलावा जो दिया वह कत्तई कम नहीं है। पर यह तो मिलना ही था। मैं यह बताना चाहता हूं कि आम नौकरियों में जो वेतन भत्ते, सुविधाएं आदि अमूमन मिलते ही हैं वह भी पत्रकारिता में मुश्किल है और जिन सुविधाओं के लिए पत्रकार बड़ी और लंबी-चौड़ी खबरें लिखते हैं वे खुद उन्हें नहीं मिलतीं। दुर्भाग्य यह कि वे इसके लिए लड़ते नहीं हैं, बोल भी नहीं पाते और इस तरह लिखना तो अपमान भी समझते हैं। हिन्दी पत्रकारिता बहुत हद तक एक पवित्र गाय की तरह है जिसके खिलाफ कुछ बोला नहीं जाता और उससे कुछ अपेक्षा भी नहीं की जाती है। फिर भी लोग उसकी सेवा करते रहते हैं।

अखबारों या पत्रकारिता की हालत खराब होने का एक कारण यह भी है कि अब पेशेवर संपादक नहीं के बराबर हैं। जो काम देख रहे हैं उनमें ज्यादातर को पत्रकारिता की तमीज नहीं है और पैसे कमाने की मजबूरी ऊपर से। अपने लिए और लाला के लिए भी। नियुक्ति के मामले में संपादकों पर दबाव आज से नहीं है। जनसत्ता ज्वायन करने के बाद विज्ञापन निकला कि एक राष्ट्रीय हिन्दी अखबार को जमशेदपुर में अपने पटना संस्करण के लिए जमशेदपुर में रिपोर्टर चाहिए था। मैंने आवेदन किया। लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के बाद कॉल लेटर नहीं आया तो मैंन कुछ परिचितों से चर्चा की। संयोग से अखबार के उस समय के प्रधान संपादक परिचित के परिचित निकले और इंटरव्यू उन्हीं ने लिया था। परिचित के साथ बात-चीत में उन्होंने स्वीकार किया कि उस समय तक कोई नियुक्ति नहीं हुई थी पर साथ ही यह भी कहा कि मैं किसी राजनीतिज्ञ से अखबार के बड़े लोगों में से किसी को कहलवा दूं तो चुनाव हो जाएगा (उन्होंने दो-चार नाम भी बताए) वरना सिफारिश के बगैर उनके यहां कोई नियुक्ति नहीं होती। हिन्दी में सच पूछिए तो तीन ही राष्ट्रीय अखबार हैं। एक में मैं था ही, दूसरे की हालत यह रही। तीसरा अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया समूह का था जो अखबार को प्रोडक्ट मानने की घोषणा कर चुका था और अब कह चुका है कि वह खबरों का नहीं विज्ञापनों का धंधा करता है। इस संस्थान ने एक नीतिगत फैसला लिया और नवभारत टाइम्स का ब्यूरो बंद कर दिया। अब लगता है कि टाइम्स समूह के मालिकानों की ही तरह जनसत्ता के मालिकानों ने भी उस समय के फैशन के अनुसार अपने हिन्दी प्रकाशन पर ध्यान देना बंद कर दिया होगा।

हिन्दी पत्रकारों के लिए एक संभावना आजतक चैनल शुरू होने की योजना से बनी। कुछ लोगों ने मुझे वहां जाने की सलाह दी। कुछ ही दिनों में वहां जान पहचान निकल आई और मैं पूरी सिफारिश (यह सिफारिश पत्रकारों की थी, मंत्री या ऐसे किसी शक्तिशाली की नहीं) के साथ उस समय वहां जो काम देख रहा था उनसे बातचीत के लिए पहुंचा। अच्छी बातचीत हुई और मामला ठीक लग रहा। चलते समय उन्होंने पूछा कि मुझे जनसत्ता में कितने पैसे मिलते हैं और इसके जवाब में मैंने जो पैसे मिलते थे वह बताया तो उन्होंने ऐसा मुंह बनाया जैसे मैं कहीं बेगार कर रहा था। जनसत्ता में मेरी नौकरी सिर्फ छह घंटे की थी और मैं खुद को अर्ध बेरोजगार मानता था। ऐसे में मेरी कम तनख्वाह पर उन्होंने जो मुंह बनाया उसपर मुझे गुस्सा आ गया और मैंने बहुत ही खराब ढंग से कहा कि उतने पैसे मुझे सिर्फ छह घंटे काम करने के मिलते हैं और टीवी में चूंकि कम से कम 12 घंटे काम करने की बात हो रही है इसलिए मैं ढाई से तीन गुना तनख्वाह की अपेक्षा करूंगा। मुझे उस समय भी पता था कि इस तरह नहीं कहना चाहिए पर जो मैं हूं सो हूं। बाद में इस चैनल के सर्वेसर्वा मशहूर पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह हुए और उन्हें जिन्हें नहीं रखना था उनके लिए बड़ी अच्छी शर्त रखी थी – अनुभवी लोग चाहिए। उन दिनों उमेश जोशी के अलावा गिनती के लोग थे जो अखबार और टीवी दोनों में काम करते थे। पर इनमें से कोई आजतक में नहीं रखा गया। आज तक जब शुरू हुआ था तो देश में हिन्दी के समाचार चैनलों में काम करने वाले या कर चुके बहुत कम लोग थे। उनमें उसे अनुभवी कहां और कैसे मिले यह अलग विषय है। हां, आज तक शुरू होने पर जो प्रेस विज्ञप्ति जारी हुई थी वह अंग्रेजी में बनी थी और एक पीआर एजेंसी के लिए उसका हिन्दी अनुवाद मैंने किया था।

इसके बाद चैनलों की एक तरह से बाढ़ आई और प्रिंट मीडिया के कई लोगों ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का रुख किया और कई बगैर अनुभव के लोग खप गए। कइयों की मोटी तनख्वाह हो गई और पत्रकारों की तनख्वाह इतनी बढ़ गई थी कि इंडिया टुडे ने इसपर स्टोरी भी की थी। जुगाड़ और जान-पहचान के साथ मुमकिन है, योग्यता से भी काफी लोग इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चले गए पर मुझे मौका नहीं मिला। सच कहूं तो आज तक वाली घटना के बाद मैं किसी टीवी चैनल में नौकरी मांगने गया भी नहीं। एक मित्र अब बंद हो चुके चैनल में अच्छे पद पर थे। काफी लोगों को रखा भी था। मेरे एक साथी ने बहुत जिद की कि उस साझे मित्र से नौकरी के लिए बात करने में कोई बुराई नहीं है और ज्यादा से ज्यादा वह मना कर देगा। मैं भी उसके साथ चलूं। मैं नहीं गया। लौटकर साथी ने बताया ने कि उस मित्र ने जितनी देर बात की उसके पैर मेज पर ही रहे। नौकरी तो उसने नहीं ही दी। वह मित्र है तो हिन्दी भाषी पर नौकरी अंग्रेजी की करता है।

इधर जनसत्ता में तरक्की हो नहीं रही थी। प्रभाष जोशी रिटायर हो गए। नए संपादक ने तरक्की की रेवड़ी बांटी और कुछ लोगों को दो तरक्की दी। मुझे एक ही तरक्की मिली थी। मैं फिर निराश ही रहा। संपादक जी कुछ दिन में छोड़ गए। उनके बाद ओम थानवी आए। लगा नहीं कि ज्यादा समय चल पाउंगा। इसी बीच वीआरएस लेने का ऑफर आ गया और मैंने उसे गले लगा लिया। हिन्दी अखबार में आने से पहले मैं जमशेदुपर में अमृत बाजार पत्रिका के लिए रिपोर्टिंग करता था और दि टेलीग्राफ में मेरी रिपोर्ट प्रकाशित हो चुकी थी। मैं अंग्रेजी पत्रकारिता में भी जा सकता था – पर वहां शायद कमजोर होता या उतना मजबूत नहीं जितना हिन्दी में था या हूं। इसलिए मैंने अंग्रेजी पत्रकारिता में जाना ठीक नहीं समझा और अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद को प्राथमिकता दी। मुझे लगता है मेरे स्वभाव और मेरी सीमाओं के लिहाज से यह ठीक ही रहा।

bhadas4media / आवाजाही-कानाफूसी

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प्रस्तुति-- उपेन्द्र कश्यप, किशोर प्रियदर्शी, धीरज पांडेय राहुल मानव


  1. नईदुनिया में इन दिनों पौरस के हाथी की भूमिका कौन निभा रहा है?
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  3. अनुराग मुस्कान 'न्यूज नेशन'में एक बुलेटिन पढ़कर 'इंडिया न्यूज'वापस लौट आए, देवेंद्र देवा का ट्रांसफर, वरुण चौहान की नई पारी
  4. आईबीएन7 में कचरा हटाओ अभियान जारी, अबकी पंकज श्रीवास्तव हुए बर्खास्त
  5. इजराइल विरोधी टिप्पणी पर मशहूर अमेरिकी एंकर जिम क्लान्सी को सीएनएन न्यूज चैनल से इस्तीफा देना पड़ा
  6. डा. प्रदीप भटनागर, गौरव जैन, आशीष जैन, श्रवण गर्ग, आनंद दुबे के बारे में सूचनाएं
  7. क्या नयी शक्ल मे मीडिया सेंसरशिप लाने वाली है मोदी सरकार...?
  8. उपजा फैजाबाद की नयी कार्यकारिणी गठित, कृपा शंकर अध्यक्ष बने
  9. व्यालोक पाठक 'शिक्षा विमर्श'पत्रिका के सहायक संपादक बने
  10. 'नईदुनिया'से अरविंद तिवारी और विनोद पुरोहित गए
  11. रंजीत सिंह ने इंडिया टुडे ग्रुप से इस्‍तीफा दिया, लाइव इंडिया जाएंगे
  12. अब वाड्रा के हंटर पर डांस करेंगे बड़का टीवी संपदक !!
  13. अरुण अग्रवाल आईटीवी लौटे, प्रदीप परमेश्वरन बने डेन के सीईओ
  14. संजीव पालीवाल की आईबीएन7 से छुट्टी, इनके मोटी सेलरी वाले नाकारा चेले भी जाएंगे
  15. सहारा उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार हसन काज़मी का अश्लील वीडियो कांड, नौकरी से निकाला गया
  16. सुरेश तिवारी की संविदा नियुक्ति अवैध, इस्तीफ़ा लिया
  17. ज्वलंत स्वरूप बने साकाल मीडिया समूह के सीईओ
  18. आजतक को अलविदा कह दिया दीपक शर्मा ने
  19. संपादक जी को टेक्निकल के कर्मचारियों ने नाम दिया है- 'राष्ट्रीय हुदहुद'!
  20. जनरल मैनेजर सरकुलेशन डा. रामाज्ञा तिवारी की दैनिक जागरण से विदाई
  21. आरसी शुक्ला ने आजतक छोड़ा, बने आईबीएन7 के एक्जीक्यूटिव एडिटर
  22. हिन्दुस्तान, रांची के ब्यूरो प्रमुख अजय कुमार बने सीएम रघुवर दास के राजनीतिक सलाहकार
  23. पत्रकार एलएल शर्मा ने एक ही अखबार में 25 साल की पारी पूरी की
  24. Kiran Vadodaria elected INS president
  25. पीटीआई यूनियन और प्रबंधन की साठगांठ!
  26. महिपाल ने दैनिक जागरण और अजीत सिंह ने प्रभात खबर को बोला बाया-बाय
  27. पंकज मजपुरिया 'पीपुल्स समाचार'से 'दबंग दुनिया'सीईओ बनकर आए
  28. उपेंद्र राय सहारा से मुक्त हुए!
  29. अंग्रेजी दैनिक द हितवाद के स्टेट हेड श्रीकांत साकालकर इसी 31 दिसंबर को कार्यमुक्त होंगे!
  30. 15 वर्षों से अमर उजाला में सेवारत मयंक मिश्रा ने सिटी चीफ पद से इस्तीफा दिया
  31. रमेश चंद और बीनू मिश्रा को डेस्क पर भेजा गया, वेद रत्न शुक्ला का इस्तीफा
  32. ओम द्विवेदी, शीतल गुप्ता और अतुल शाह के बारे में सूचनाएं
  33. रक्तिम दास नेटवर्क18 में ईवीपी बने
  34. भूमि कारोबारी रविन्द्र कुमार बने जनसंदेश टाइम्स, बनारस के संपादक
  35. तरुण गुप्ता, सुदेश त्यागी, सतीश के. सिंह, मुकेश भाटी और राकेश सोन के बारे में सूचनाएं
  36. पत्रिका में उठापटक का दौर : ज्ञानेश उपाध्याय, उपेंद्र शर्मा, संतोष खाचरियवास, अमित वाजपेयी के बारे में सूचनाएं
  37. एसके राजीव और चन्दन झा छुट्टी पर भेजे गए, प्रभात परिमल की नौकरी गई
  38. निखिल वागले को अगर मौका मिला तो वह बलात्कारी बन सकते हैं!
  39. नईदुनिया इंदौर में रूमनी घोष को फिर मिला सिटी का जिम्मा, आक्रामक रवैये से कई रिपोर्टर परेशान
  40. दौलत सिंह बने राजस्थान पत्रिका, जयपुर के संपादक
  41. विवेक रॉय और निखिल शर्मा के बारे में सूचनाएं
  42. 'मध्यप्रदेश जनसंदेश'के फीचर संपादक बने रवि प्रकाश मौर्य, 4 अन्य भी जुड़े
  43. प्रवीण खारीवाल ने दिया इस्तीफा, 'दबंग दुनिया'के बंद होने की चर्चा
  44. 'इंडिया न्यूज'और 'न्यूज एक्स'के ग्रुप सीईओ आरके अरोड़ा ने इस्तीफा दिया
  45. ‘मेरी दिल्ली’ अखबार से सात लोगों ने दिया इस्तीफा, खुद का अखबार निकालेंगे
  46. Editor of The Guardian is stepping down
  47. रमेश ठाकुर और कपिल श्रीमाली के बारे में सूचनाएं
  48. आशुतोष मिश्र हिन्दुस्तान, गोरखपुर के हिस्से बने
  49. किशोर मालवीय 'डीडी किसान'में गए, पीयूष पांडेय भास्कर के हुए, सौरभ अमर उजाला से जुड़े
  50. प्रेस एसोसिएशन आफ इंडिया : राजीव रंजन बने अध्यक्ष, हरपाल बेदी महासचिव
  51. मनोज, किशोर, अविनाश, सौरभ और संजय के बारे में सूचनाएं
  52. पीयूष गुप्ता, वीआर कृष्णामूर्ति अय्यर, सोम साहू के बारे में सूचनाएं
  53. मोदी के 'हनुमान'ने तेवर दिखाए तो अंग्रेजी अखबार यूं बन बैठा केजरीवाल विरोधी!
  54. सूरज सिंह ने नवोदय टाइम्स के साथ शुरू की नई पारी
  55. प्रभात खबर के दरभंगा ब्यूरो चीफ अमित रंजन कार्यमुक्त, विनोद गिरी को नई जिम्मेदारी
  56. गोपाल बाजपेयी को नई जिम्मेदारी, मनीष काले का इस्तीफा, राजेश शाह व हेतन कार्यमुक्त
  57. संगम पांडेय, शिल्पी गुप्ता, अभिनय, सीपी शुक्ला, सुधीर द्विवेदी, योगेश पढियार के बारे में सूचनाएं
  58. शेखर गुप्ता अब अपनी मीडिया कंपनी शुरू करेंगे, अखबार से लेकर टीवी तक लांच करेंगे
  59. नीरज मेहरा और संजय सिंह की नई पारी
  60. आलोक शुक्ला, योगेश जोशी और महेंद्र मिश्रा ने न्यूज एक्सप्रेस के साथ नई पारी शुरू की
  61. नेटवर्क18 में राजीव लूथरा, ध्रुव काजी और हरिहरन महादेवन को बड़े ओहदे मिले
  62. शैलेष बने फोकस न्यूज के सलाहकार, ईटीवी में मुकेश राजपूत को प्रमोशन
  63. पत्रिका समूह में तबादलों की बयार, कई संपादक इधर उधर हुए
  64. ''मैंने एसएन विनोद की गलत नीतियों से नाराज होकर 'जिया इंडिया'से खुद इस्तीफा दिया''
  65. पड़ोसी से विवाद में पद का दुरुपयोग करने वाले व्यक्ति को प्रेस कौंसिल का अध्यक्ष बनाना ठीक नहीं
  66. आनंद पांडे का ओहदा इसलिए सिकुड़ गया!
  67. ''जिया इंडिया''नाम की पत्रिका लांच होने से पहले ही संपादक कृपाशंकर को हटा दिया गया!
  68. दैनिक जागरण से रवि शंकर शर्मा का इस्तीफा, सुरेंद्र यादव का तबादला, नायर ने नेटवर्क18 छोड़ा
  69. दैनिक जागरण का एक और विकेट दैनिक भास्कर ने गिराया, मधुरेश की नई पारी
  70. आनंद पांडे ने 'नईदुनिया'ज्वाइन किया
  71. विद्युत प्रकाश मौर्य, राकेश सिंह, दीपक कुमार झा और अभिषेक कुमार राय के बारे में सूचनाएं
  72. काटजू की जगह पूर्व न्यायाधीश सीके प्रसाद होंगे पीसीआई प्रमुख
  73. विनोद भारद्वाज और घनश्याम श्रीवास्तव की नई पारी
  74. अमिताभ सिन्हा आजतक छोड़ आईबीएन7 पहुंचे, तुषार बनर्जी ने 'बीबीसी'और अभिषेक ने 'खबर मंत्र'छोड़ा
  75. राघव बहल ने शुरू किया Quintillion Media, कई पत्रकार जुड़े
  76. जी न्यूज प्रबंधन ने कई आरोपों के कारण बरेली के संवाददाता दीपक शर्मा को चैनल से हटाया
  77. लौट के रितेश लक्खी फिर से फोकस न्यूज हरियाणा आए
  78. अमित मिश्र, अरूण अशेष और रोहित तिवारी के बारे में सूचनाएं
  79. जेपी शर्मा और उनकी टीम (बाबूलाल धायल, आलोक शर्मा) ने समाचार प्लस छोड़कर ईटीवी राजस्थान ज्वाइन कर लिया
  80. अतुल अग्रवाल को मिल गई नौकरी, ईटीवी हैदराबाद पहुंचे
  81. जिया न्यूज दिल्ली में रहेगा या मुंबई जाएगा?
  82. साधना न्यूज में भगदड़, मुकेश कुमार और ब्रजमोहन सिंह को लेकर सूचनाएं
  83. मध्य प्रदेश सरकार द्वारा बांटे जा रहे लैपटॉप ने ली संपादक ओमप्रकाश मेहता की नौकरी
  84. हिदुस्‍तान में रंजीव बने एनई, राजीव बाजपेयी बनाए गए ब्‍यूरो चीफ
  85. आई नेक्‍स्‍ट, रांची के हेड बने शंभूनाथ चौधरी, आज करेंगे ज्‍वाइन
  86. अमित त्रिपाठी ने फोकस टीवी ज्वाइन किया
  87. डा. बर्तवाल, विपिन बनियाल, मीनाक्षी राणा के बारे में सूचनाएं
  88. भड़ास पर खबर छपने के बाद कल्पतरु एक्सप्रेस ने राज कमल को फिर से नौकरी पर रखा
  89. अमित कुमार आर्य, डा. जयपाल सिंह व्यस्त, हरिनारायण सिंह, राहुल सिंह, रंजीत कुमार चंद्रवंशी, शुभ्रांशु चौधरी, पद्मिनी प्रकाश के बारे में सूचनाएं
  90. रवि प्रकाश का आई-नेक्स्ट से छूटा साथ, खोलेंगे आलोक सांवल की पोल
  91. अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय में मीडिया कंसलटेंट बने समीउर रहमान
  92. आनंद पांडे संभालेंगे 'नईदुनिया'को?
  93. सीबी सिंह, नौशाद अली, कौशल, विशाल के बारे में सूचनाएं
  94. रतिभान त्रिपाठी, केके सिंह, दिलीप नागपाल, अश्विनी शर्मा के बारे में सूचनाएं
  95. कल्पतरु एक्सप्रेस ने 40 को बाहर का रास्ता दिखाया, नाराज कर्मचारी न्यायालय की शरण लेंगे
  96. निशांत कौशिक हिंदुस्तान, मेरठ के नए ब्यूरो चीफ, गणेश भेजे गए बुलंशहर
  97. जयराम शुक्ल 'चरैवेती'के संपादक बने, संघ से जुडे पत्रकारों में नाराज
  98. इश्क और उगाही के काम में तन-मन से जुटे हैं संपादक जी
  99. 'तहलका'से संजय दुबे और विकास बहुगुणा की विदाई
  100. सच्चिदानंद ने दुखी होकर हिंदुस्तान अखबार को अलविदा कहा
  101. डीएनई रोहित तिवारी दबंग दुनिया से पत्रिका पहुंचे, शशिभूषण को नई जिम्मेदारी
  102. एयरटेल और सैमसंग मिलकर लांच करेगी आईडीटीवी, कीमत 44,900 रुपये से शुरू
  103. अक्षय राउत, एमके अग्रवाल, अनुराग प्रसाद, रवीना राज कोहली, कृष्ण कुमार और सतीश कुमार के बारे में सूचनाएं
  104. रिलायंस वालों से खफा भूपेंद्र चौबे ने इस्तीफा दिया, मुकदमा से डरे हिंदुस्तान प्रबंधन ने संवाददाता को निकाला
  105. संजीव कुमार न्यूज एक्सप्रेस के सीओओ बने, जागरण में सुधीर का तबादला और राजेश का इस्तीफा
  106. 'नईदुनिया'से विदा हुए श्रवण गर्ग अब दिल्ली में लांच कराएंगे 'दबंग दुनिया'
  107. जनसंदेश टाइम्स बनारस तालाबंदी की ओर, संपादक आशीष बागची ने डेढ़ दर्जन लोगों को निकाला
  108. 'नवोदय टाइम्स'के कुमार गजेन्द्र, सतेंद्र त्रिपाठी, सज्जन, निहाल सहित 8 पत्रकारों ने पंजाब केसरी ज्वाइन किया
  109. केंद्र सरकार ने भाजपा किसान मोर्चा के नेता नरेश सिरोही को 'किसान चैनल'का एडवाइजर बनाया
  110. रुबी अरुण के बाद अलका सक्सेना भी न्यूज एक्सप्रेस से जुड़ीं, मैनेजिंग एडिटर बनाई गईं
  111. आज तक के स्ट्रिंगर शरद के खिलाफ डकैती का मुकदमा झूठा निकला
  112. आलोक सांवल का मूड फिर बिगड़ा, मृदुल त्यागी को बाहर का रास्ता दिखाया
  113. जिंदल और कांग्रेस की हार के बाद फोकस टीवी में छंटनी, संपादक रितेश लक्खी हटाए गए
  114. अमर उजाला के पत्रकार दिलीप का लीवर ट्रांसप्लांट होगा, 25 लाख लगेंगे, मदद की अपील
  115. सुरेन्द्र सोरेन और संजय ने खबर मंत्र छोड़ा, आनंद कुमार फिर मीडिया में सक्रिय होंगे
  116. सुदर्शन न्यूज से मैनेजिंग एडिटर नवीन पांडेय का इस्तीफा, दैनिक भास्कर दिल्ली के संपादक राजेश उपाध्याय का तबादला
  117. ए सूर्य प्रकाश को प्रसार भारती का अध्यक्ष नियुक्त किया गया
  118. पत्रिका सतना से कई गए, कृपा, राखी की नई पारी, मुकेश का इस्तीफा, गोपी व वीरेंद्र जागरण गए
  119. मुकेश राजपूत ईटीवी में डिप्टी एडिटर बने, पत्रिका ने माछीवाल को नौकरी से निकाला
  120. न्यूज एक्सप्रेस में रवि के वैश्य बने क्राइम एंड एसआईटी हेड, प्रवीण दुबे भास्कर पहुंचे, नदीम ने जागरण पकड़ा
  121. राकेश शर्मा, हर्यंश्व सिंह और सर्वेंद्र के बारे में सूचनाएं
  122. अनिरुद्ध त्यागी राजस्थान पत्रिका से और आकाश वर्मा आजतक से जुड़े
  123. न्यूज एक्स से जुड़ गए पंकज पचौरी
  124. भड़ास की खबर सच हुई, सीमा गुप्ता बन गईं लोकसभा टीवी की सीईओ और एडिटर इन चीफ (देखें किस पत्रकार को कितना नंबर मिला)
  125. न्‍यूज30 हुआ डिब्‍बा बंद, राजकुमार एनबीटी पहुंचे
  126. बजरंग झा ने न्यूज24 और मनीष प्रसाद ने न्यूज एक्सप्रेस से इस्तीफा दिया
  127. राकेश त्रिपाठी और रूबी अरुण ने न्यूज एक्सप्रेस ज्वाइन किया
  128. एक साल पुरानी फोटो छापने के मामले में फोटोग्राफर सेवामुक्त, रिपोर्टर सस्पेंड
  129. खस्ताहाल हैं कन्नौज के स्ट्रिंगर, कई ने दिया इस्तीफा
  130. वैदिक, वशिष्ट, राहुल, समीर, अमित, रविकांत के बारे में सूचनाएं
  131. उदयन रे और प्रजेश शंकर का इस्तीफा
  132. 'न्यूज एक्सप्रेस'चैनल में संदीप शुक्ला का भी कद बढ़ा, एडिटर (महाराष्ट्र) के साथ कार्पोरेट अफेयर्स के जनरल मैनेजर भी बने
  133. कैनविज टाइम्स से जुड़े तारिक, रज़ा का जोश प्लस से इस्तीफा
  134. नितिन का बीबीसी से इस्तीफा, माइक्रोसॉफ्ट से जुड़े
  135. केसर सिंह, मुकेश राजपूत, मदन, अमित और सूरत के बारे में सूचनाएं
  136. आईबीएन7 से फिर जुड़ गईं पत्रकार ऋचा अनिरुद्ध
  137. विनोद कापड़ी का इस्तीफानामा : इसी के साथ इस बुलेटिन के समाचार समाप्त हुए... मिलते हैं छोटे से ब्रेक के बाद...
  138. अपनी विदाई को लेकर कापड़ी संकेतों में ही सारी बातें फेसबुक पर लिख रहे थे
  139. न्यूज एक्सप्रेस में बड़ा उलटफेर : कापड़ी गए, प्रसून शुक्ला बने सीईओ और एडिटर इन चीफ
  140. ईटीवी के मनीष का लखनऊ तबादला, रीतेश का हिन्दुस्तान से इस्तीफा
  141. आशीष पंडित बने ज़ी मीडिया के सीईओ, समीर अहलूवालिया सीईओ कंटेंट
  142. अमर उजाला, हिमाचल से अरुण, निकुंज और शंभू प्रसाद का इस्तीफा
  143. रजत शर्मा बने न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष
  144. आर. राजमोहन, देशपाल सिंह पंवार, महेश शर्मा, देवेंद्र, धीरज, संचिता, सौरभ के बारे में सूचनाएं
  145. सिटी टाइम्स के फैजाबाद संस्करण के संपादकीय प्रभारी बने रमेश मिश्र
  146. वर्चस्व की लड़ाई में दफन होता दबंग दुनिया, गीत दीक्षित को निपटाने का अभियान
  147. वरिष्ठ पत्रकार सुमंत मिश्र बने हिंदी दैनिक 'दक्षिण मुंबई'के संपादक
  148. ज़ी के कंटेंट, क्रिएटिव हेड भारत रंगा ने इस्तीफा दिया
  149. समीर अहलूवालिया के बाद अब क्या सुधीर चौधरी की बारी है?
  150. 'रिपोर्टर 24X7'से जुड़े शशिकांत सांडभोर
  151. हल्द्वानी दैनिक जागरण से आलोक शुक्ल हटाये गये, बेंजवाल आये
  152. आईबीएन7 से आकाश शर्मा का इस्तीफा, आजतक जा सकते हैं
  153. कमल, डीपी, मनीष, जितेन्द्र, प्रशांत, रमेश, हिमांशु और मनजीत के बारे में सूचनाएं
  154. अमर उजाला कानपुर के शिशु अखबार कांपैक्ट से छह रिपोर्टरों का तबादला
  155. भोपाल शिफ्ट होगी भास्कर डॉट कॉम की टीम, नवनीत गुर्जर को डिजिटल हेड बना ज्ञान गुप्ता के पर कतरे गए
  156. सरकार की भेदभाव नीति से नाराज़ भोपाल के पत्रकार, मुख्यमंत्री के डिनर में चुनिंदा पत्रकारों को ही मिले तोहफे
  157. 'नईदुनिया'प्रबंधन ने की श्रवण गर्ग से मुक्ति पाने की तैयारी, ब्यूरो दिए जाएंगे ठेके पर
  158. सीएनएन-आईबीएन के राधाकृष्णन को पदोन्नति, आईटीवी से जुड़े मनीष और पंकज ने ज्वाइन किया लोकमत
  159. न्यूज़-एक्स के सीईओ बने संजय दुआ, मुहम्मद यासीन का भास्कर से इस्तीफा
  160. दैनिक भास्कर छत्तीसगढ़ से न्यूज एडिटर राजेश जोशी और डिप्टी चीफ रिपोर्टर सुदीप त्रिपाठी का इस्तीफा
  161. इच्‍छा के अनुरूप बाइट नहीं मिलने पर ईटीवी ने आनंद जिले के रिपोर्टर की ले ली नौकरी
  162. राधाकृष्णन नायर, दीपिका, भूपेंद्र, अनुभा, पूजा, अहमद के बारे में सूचनाएं
  163. दैनिक जागरण लखनऊ में कार्यरत रहे ज्ञानेश्वर और सुनीत को एनबीटी में मिली इंट्री
  164. अमर उजाला, वाराणसी से पंकज का इस्‍तीफा, पवन बने मिर्जापुर जिले के प्रभारी
  165. भारत सिंह एवं मनीष श्रीवास्‍तव पहुंचे वॉयस ऑफ मूवमेंट
  166. आशीष ने हिंदुस्‍तान तथा प्रियंका ने दैनिक जागरण ज्‍वाइन किया
  167. अमर उजाला की धर्मशाला यूनिट खत्म, आदित्य सिन्हा ने दिया इस्तीफा
  168. हरियाणा न्यूज़ के सीईओ दीपक का इस्तीफा, दबंग दुनिया, मुंबई और अमर उजाला, हिमाचल में भारी फेरबदल
  169. Uday Shankar elected as IBF President
  170. राजदीप सरदेसाई टीवी टुडे समूह के साथ जुड़े, पढ़िए अरुण पुरी का वेलकम लेटर
  171. अशोक पांडेय की हिंदुस्‍तान में वापसी की चर्चा, कई और बदलाव भी
  172. अमर उजाला के सिटी चीफ पंकज सिंह वाराणसी से चाहते हैं तबादला
  173. हरे प्रकाश उपाध्याय ने 'जनसंदेश टाइम्स'छोड़ने का ऐलान किया, चार महीने की सेलरी दाबे बैठा है प्रबंधन
  174. वरिष्ठ पत्रकार अवनीश मिश्र दैनिक जागरण में डिप्टी एडिटर (इंडस्ट्री एंड कार्पोरेट अफेयर्स) बने
  175. युवा पत्रकार अखिल वोहरा बने साप्ताहिक अखबार 'प्रखर भारत'के संपादक
  176. एनबीटी के राजनीतिक सम्पादक बनाए गए नदीम, दिल्ली बैठेंगे
  177. दबंग दुनिया मुंबई के संपादक नीलकंठ का तबादला, अभिलाष अवस्थी बने नए संपादक, सुधांशु ने हिंदुस्तान मुरादाबाद ज्वाइन किया
  178. सुभारती से विजय भोला को भी जाना पड़ा
  179. 'खबर मंत्र'के स्थानीय संपादक शंभू नाथ चौधरी का इस्तीफा, 'नेशन संवाद'से जुटे
  180. मयंक राय ने समाचार प्‍लस तथा नवीन पांडेय ने नभाटा ज्‍वाइन किया
  181. कावेरी बामजई बनीं इंडिया टुडे ग्रुप की एडिटर-एट-लार्ज
  182. भास्कर को बाय बोल लाइव इंडिया से जुड़े बसंत झा
  183. हिंदी के अच्छे संपादक वही हुए हैं जिनका हिंदी के साथ अंग्रेजी पर समान अधिकार रहा
  184. हिंदुस्तान मुरादाबाद में फेरबदल, हरियाणा हैरिटेज का अखबार दिल्ली से निकलेगा
  185. न्यूज नेशन ग्रुप से जुड़ा रहूंगा, डे-टुडे के अफेयर्स नहीं देखूंगा : शैलेश
  186. 'न्यूज नेशन'के सीईओ और एडिटर इन चीफ शैलेश का इस्तीफा
  187. गगन नायर, नितिन प्रधान, राजकिशोर, निखिल वागले के बारे में सूचनाएं
  188. दैनिक जागरण, मेरठ के संपादक मनोज झा ज्योतिषी भी हैं!
  189. इंडिया टुडे में बस दो महीने ही रह पाए शेखर गुप्ता
  190. 'चैनल वन'के स्पोर्ट्स एटिडर मनीष शर्मा इंटरनेशन स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट ट्रेनिंग के लिए श्रीलंका जाएंगे
  191. राजस्थान पत्रिका जयपुर के नए स्थानीय संपादक बने राजीव तिवाड़ी
  192. वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी हिंदुस्तान, लखनऊ से रिटायर होने के बाद दैनिक भास्कर, पटना से जुड़ गए
  193. 'राजस्थान पत्रिका'में सुनील जैन को नई जिम्मेदारी, 'सेंट्रल टुडे'निकालेंगे कुमार नीलाभ
  194. एसएम खान बने आरएनआई प्रमुख
  195. अमर उजाला आगरा से चार का इस्तीफा, एक का तबादला, साधना न्यूज से दुर्गेश और रवींद्र का इस्तीफा
  196. सितंबर अंत तक लॉन्च होगा कृषि आधारित चैनल 'ग्रीन टीवी'
  197. यूनीवार्ता न्यूज़ एजेंसी से जुड़े तरुण वत्स
  198. न्यूज एक्सप्रेस को अलविदा कह नवीन कुमार ने न्यूज24 ज्वाइन किया
  199. आज समाज में राजशेखर मिश्रा हुए किनारे, प्रिंट लाइन में जाने लगा कुणाल वर्मा का नाम
  200. एपीएन न्यूज़, लखनऊ के स्थानीय संपादक श्रेय शुक्ल का इस्तीफ़ा
  201. अमर उजाला के एचआर हेड वैभव वशिष्ट की छुट्टी, नए एचआर हेड बने केएल शाही
  202. हिमाचल सीएम ने अमर उजाला को झूठा अखबार कहा, धीमान का इस्तीफा, उदय का प्री-रिटायरमेंट
  203. पंकज पांडेय भास्कर छोड़ हिंदुस्तान जाएंगे, रहीसुद्दीन रिहान एनबीटी से जुड़े, अशित त्यागी हिंट के साथ
  204. दैनिक जागरण, बिहार के स्थानीय संपादक पद से शैलेंद्र दीक्षित आज रिटायर हो जाएंगे
  205. संजय गुप्ता ने प्रशांत मिश्र को चार साल का सेवा विस्तार दिया
  206. डिप्टी एमई बने सुमित अवस्थी, इंडिया न्यूज से रामनिवास मकराना का इस्तीफा
  207. आरके अरोड़ा बने आईटीवी नेटवर्क ग्रुप के सीईओ
  208. राकेश कुमार, विनय तिवारी, सुमित अवस्थी, पुनीत परिंजा के बारे में सूचनाएं
  209. नवीन कुमार और निखिल दुबे का न्यूज एक्सप्रेस से इस्तीफा, अक्षय गौर की नई पारी, राजेश कुमार ने डे नाइट चैनल छोड़ा
  210. लेडीज टायलेट न होने पर महिला पत्रकार का इस्तीफा
  211. ईटीवी में कंसल्टेंट बने पत्रकार प्रवीण बागी
  212. तबादला रुकवाने में सफल हुए हेमंत शर्मा!
  213. हरवीर सिंह, नलिन मेहता और शशिकांत कोन्हेर के बारे में सूचनाएं
  214. हिमाचल में दैनिक जागरण ने इस्तीफा मांगा तो राजेश्वर ठाकुर ने मजीठिया के लिए मुकदमा कर दिया
  215. सुमित अवस्थी ने जी न्यूज से इस्तीफा दिया, आईबीएन7 का नया चैनल हेड बनने की चर्चा
  216. अतुल चंद्रा बने यूपी में बीबीसी के संवाददाता
  217. दबंग दुनिया इंदौर से आकांक्षा और विवान गए, मोहम्मद शेख और संदीप आए
  218. दैनिक जागरण छोड़ भास्कर में गए मनीष कुकरेती
  219. साधना न्यूज से विदा हुईं माधुरी सिंह
  220. मीडिया में नौकरी न मिलने पर कार्पोरेट के हिस्से बने राजीव मिश्रा, सैमसंग संग नई पारी शुरू
  221. दूरदर्शन जाने वाले पत्रकारों का 'आरक्षण'केंद्र बना भाजपा मुख्‍यालय!
  222. एफ एम रेनबो कोलकाता से निकाले गए 100 आरजे, उम्र का हवाला देकर किया बाहर
  223. सरकार ने पीआईबी प्रमुख को हटाया, डीडी नयूज़ को मिला नया महानिदेशक
  224. न्यूज एक्सप्रेस से नहीं गए विनोद कापड़ी और नवीन कुमार, लेकिन इसी चैनल में कार्यरत चार जर्नलिस्टों ने दिया इस्तीफा
  225. छत्तीसगढ़ में 'आम आदमी पत्रिका'शुरू, अनिल द्विवेदी बने संपादक
  226. न्यूज एक्सप्रेस से अलग हुए रोहित पुनेठा, नितिन गुप्ता और कुंदन सिंह
  227. नेटवर्क 18 ग्रुप के सीओओ बने आलोक अग्रवाल, सीईओ संजय दुआ इस्तीफा देकर जा रहे आईटीवी
  228. गौरव सहाय जी न्यूज पहुंचे, सुशील सिंह और विद्याशंकर ने ए2जेड छोड़ा, न्याय सेतु से शशि भूषण हटे
  229. अजीत अंजुम ने न्यूज24 के साथियों को भेजी आखिरी लंबी-चौड़ी चिट्ठी (पढ़ें इनटरनल अलविदा मेल)
  230. 'खबर मंत्र'में सेलरी संकट, बोकारो से बसंत मधुकर समेत कई का इस्तीफा
  231. मजीठिया के लिए आवाज उठाने वाले रविन्द्र को अमर उजाला प्रबंधन ने जम्मू भेजा
  232. मीडिया की नौकरी में लौट भी जाऊं तो इसका अर्थ यह तो नहीं कि राजनीति में मेरा समय पूरा हो गया : पंकज शर्मा
  233. अखिलेश यादव की आंख की किरकिरी अनंत जनाने ने एनडीटीवी से इस्तीफा दिया
  234. दैनिक जागरण के निदेशक मंडल से तीन स्वतंत्र निदेशकों ने दिया इस्तीफा
  235. आई नेक्‍स्‍ट से इस्‍तीफा देकर आज समाज में एसोसिएट एडिटर बने कुणाल वर्मा
  236. जनसंदेश टाइम्‍स इलाहाबाद में दो को छोड़ सभी को निकाल दिया गया
  237. कांग्रेस के बुरे दिन आए तो पंकज शर्मा फिर पत्रकारिता में लौट आए!
  238. पत्रकार से तो मैं पटवारी भला, ये कह सुखविन्दर ने छोड़ा भास्कर
  239. रामकृपाल सिंह ने नवभारत टाइम्स से मुक्ति पा ली, एक्सटेंशन लेने से मना किया
  240. अंशुमान जाएंगे इंडिया टुडे, सागरिका की चर्चा टाइम्स नाऊ के साथ, अमिताभ श्रीवास्तव और फैजल इस्लाम के कामकाज में बदलाव
  241. पीएसीएल के संकट से ध्वस्त होने लगा पर्ल ग्रुप, मैग्जीन बंद, चैनल बंद होने की आशंका
  242. 'दबंग दुनिया'में विवाद, हलचल और तरह-तरह की कानाफूसी
  243. संजीव त्रिवेदी, सुनील कुमार पांडेय, मुनीश शर्मा, राजेश नेगी, साहिल गर्ग, पंकज अग्रवाल, नरेश मेहरा के बारे में सूचनाएं
  244. रायपुर में सत्य प्रकाश ने इंडिया न्यूज छोड़कर न्यूज एक्सप्रेस का दामन थामा
  245. सदगुरु शरण भेजे गए पटना, प्रदीप बरेली एवं धर्मेंद्र मुरादाबाद पहुंचे
  246. वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र शर्मा दैनिक नवज्योति से सेवानिवृत्त
  247. सुभाष सिंह का जयपुर तबादला, नेशनल दुनिया को मकान मालिक ने बकाए का नोटिस भेजा
  248. 'ताई'ने तार दिया अभिलाष खांडेकर, हरीश कश्यप, पंकज क्षीरसागर को
  249. लखनऊ में पत्रकारों की मान्‍यता से जुड़ी 46 पत्रावलियां गायब, शक के दायरे में एक डिप्‍टी डायरेक्‍टर
  250. अनूप, संदीप का न्यूज़ टुडे से इस्तीफा, लोकसभा टीवी से जुड़ेंगे अभिलाष
  251. न्यूज एक्सप्रेस से विनोद कापड़ी देंगे इस्तीफा, न्यूज24 जाएंगे!
  252. सुदर्शन न्यूज चैनल से राजीव शर्मा, आलोक नंदन, योगेश गुलाटी और राय तपन भारती समेत कई मीडियाकर्मी कार्यमुक्त
  253. संदीप चौधरी ने आईबीएन7 से इस्तीफा दिया, दैनिक भास्कर पंजाब से पुनीत और अनुज गए, अमरेंद्र ने पत्रिका ज्वाइन किया
  254. खारीवाल ने खुद 'दंबग दुनिया'से जुड़ने की 'भड़ास'की खबर को सच बताया!
  255. लक्ष्मण ने नभाटा मुंबई से दिया इस्तीफा, अमर उजाला में चंद्रभान व प्रदीप का तबादला
  256. प्रवीण खारीवाल 'दबंग दुनिया'के प्रधान संपादक बने
  257. अंदरुनी राजनीति से दुखी सौरभ शर्मा का दैनिक जागरण, मेरठ से इस्तीफा
  258. आईबीएन लोकमत से निखिल वागले और न्यूज एक्सप्रेस से नवीन कुमार का इस्तीफा
  259. एसएफआई में सक्रिय रह चुके पत्रकार सुरेश बाफना आखिर कैसे सुमित्रा महाजन के ओएसडी हो सकते हैं!
  260. दूसरी बार भी न्यूज एक्सप्रेस में टिक नहीं पाए एसएन विनोद, अब दूसरी बार जिया न्यूज पहुंचे
  261. सुरेंद्र धीमान अमर उजाला हिमाचल के नए स्टेट ब्यूरो, राजेश मंढोत्रा डिमोट कर धर्मशाला भेजे गए
  262. नेटवर्क18 डिजिटल की सीईओ दुर्गा रघुनाथ ने इस्तीफा दिया
  263. राजस्थान संवाददाता मोहम्मद इकबाल को दि हिन्दू ने मुस्लिम होने के कारण हटाया!
  264. मिथिलेश सिन्हा 34 साल की लंबी पारी के बाद नवभारत टाइम्स से रिटायर
  265. सुकेश रंजन ने इंडिया टीवी छोड़ा, न्यूज24 संभालेंगे दीप, न्यूजलोक डाट काम से दिनेश जुड़े, कई अन्य इधर-उधर
  266. प्रदीप हेजमादी बने ज़ी टीवी के बिज़नेस हेड
  267. कमल शर्मा का तबादला, प्रियंका और अली मोहम्‍मद का इस्‍तीफा
  268. हिंदुस्तान अखबार में कानाफूसी : शशि शेखर जाएंगे, हेमंत शर्मा आएंगे!
  269. पी साईनाथ और प्रवीन स्वामी ने 'द हिन्दू'से इस्तीफा दिया
  270. रफीक खान बने एडिटर, सतीश श्रीवास्तव को साथ लाए, राहुल शर्मा न्यूज11 में एंकर बनकर पहुंचे
  271. पुनीत परींजा, रजत गुप्ता, उपेंद्र पांडेय, हेमंत त्यागी, वैभव कुमार, मोहित बहल के बारे में सूचनाएं
  272. न्यूज24 से अजीत अंजुम का इस्तीफा, इंडिया टीवी ज्वाइन करेंगे
  273. भास्कर लुधियाना से मोहित का इस्तीफा, हिन्दुस्तान से जुड़े वैभव
  274. मृदुल त्‍यागी न्‍यूज कोआर्डिनेटर बनकर फिर पहुंचे आई नेक्‍स्‍ट
  275. मनोज बिसारिया ने ज्वाइन किया साधना हरियाणा न्यूज़, नवीन जोशी हुए रिटायर
  276. टीवी9, मुंबई छोड़ भास्कर न्यूज, दिल्ली के साथ जुड़े अश्विनी शर्मा
  277. दैनिक भास्कर पंजाब के एजीएम अजीत कुमार सिंह का इस्तीफा
  278. नेटवर्क18 से जुड़ेंगे उमेश उपाध्याय, दैनिक भास्कर से जुड़े नरेश
  279. बृजेश सिंह, नवलकांत सिन्हा, राजेश शर्मा, शरद पुरोहित और हरे प्रकाश उपाध्याय के बारे में सूचनाएं
  280. फाइनली! राजदीप ने नेटवर्क18 को अलविदा कहा
  281. क्या राघव बहल की नेटवर्क18 में वापसी हो रही है?
  282. सागरिका घोष ने ट्वीट किया- 'गुडबाय सीएनएन-आईबीएन'
  283. आर.एन.शुक्ला 'दबंग दुनिया', रायपुर के जीएम बने
  284. 'इंडिया न्यूज'चैनल की अमानवीयता से नाराज चार पत्रकारों ने दिया इस्तीफा
  285. नवीन जोशी रिटायर हो गए : कुछ सवाल, कुछ बतकही
  286. रास बिहारी, दीपिका और राकेश के बारे में सूचनाएं
  287. अरुण आदित्य, सचिन शर्मा, वेंकटेश, अनिल खेड़ा, हरीओम के बारे में सूचनाएं
  288. हिन्दुस्तान, लखनऊ से जुड़े वैभव और दिलीप
  289. राजस्थान पत्रिका के कई संस्करणों में बड़े पैमाने पर फेरबदल
  290. आलोक श्रीवास्तव बने डीडी नेशनल के चैनल एडवाइजर
  291. प्रभात खबर से जुड़े विकास कुमार
  292. पत्रिका में कई ईधर से उधर, गिर्राज, सिद्धार्थ, हरीश और आशुतोष के बारे में सूचनाएं
  293. अनिल राय बने सहारा न्यूज़ ब्यूरो प्रमुख
  294. हिन्दी पत्रिका 'समाचार विस्फोट'से जुड़े अजय पांडे
  295. कावेरी बामजयी, सुकेश रंजन और बाल्मीकी मणि के बारे में सूचनाएं
  296. विनोद यादव ने मनीकंट्रोल डॉट कॉम से इस्तीफा दिया
  297. मालिक के रवैये से नाराज प्रभात रंजन दीन ने वायस आफ मूवमेंट से इस्तीफा दिया
  298. मीटिंग में प्रधान संपादक की गाली न सुनना पड़े इसलिए संपादक ने इस्तीफा दे दिया!
  299. दैनिक जागरण में अवनींद्र कमल, संजीव जैन, मनीष शर्मा, अश्विनी त्रिपाठी, नीरज गुप्ता, सुमन लाल की जिम्मेदारी बदली
  300. अजय राजपूत, रास बिहारी, विजय गुप्ता, गुंजन कुमार, हरीश लखेड़ा, दिनेश और दुर्जय पासवान के बारे में सूचनाएं
  301. आज समाज के कई ब्यूरोज में कोआर्डिनेशन का काम देखेंगे रवि जायसवाल
  302. संजय पांडेय, नीलाभ, शिवेंद्र सिंह चौहान बन गए अंबानी के कर्मचारी, रिलायंस से जुड़े
  303. 'आज समाज'से जुड़े रवीन ठुकराल, 'संडे गार्डियन'की भी संभाली कमान
  304. वरिष्ठ पत्रकार मधुसूदन आनंद ने जी न्यूज से इस्तीफा दिया, मानीटरिंग डिपार्टमेंट पर समीर अहलूवालिया ने गिराई गाज

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नारी अब तुम केवल 'विज्ञापन'हो

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प्रस्तुति-- स्वामी शरण, सृष्टि शरण



               ज हम विकसित समाज में रह रहें है.जहाँ हम अपनी परम्परा और आदर्शों को लेकर आगे बढ़ रहे है.आज हम अपनी जीवन  शैली को आज के अनुरूप ढालने का प्रयास कर रहे है.पर क्या इस प्रयास में हम अपनी पहचान तो नहीं खो रहे है. हम तो अपने बड़ों की बताई बातों  को सम्मान देते है.उनके अनुसार आगे बढते है, समाज में नारी का ओहदा सबसे ऊँचा मानते है. आज की नारी पुरुषप्रधान समाज में पुरुषों के कंधे  से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है.लेकिन इस भाग दौड में हम कहीं कुछ पीछे छोड़ते जा रहे है क्या हम कभी उस पर गौर करेंगे ?                                                           
           ऐसा क्या है जो प्रगति के मायने बदल रहा है?प्रगति से तो देश, समाज, की बदलती तस्वीर सामने आती है.आमतौर पर हम अपने आसपास के माहौल से प्रभावित होते है.और अपनी सफलता के लिए सभी के सहयोग को सर्वोपरि मानते है.आज के समय में प्रतियोगिता का समय है.जहाँ हर कोई दूसरे से आगे निकलने के लिए हर तरह के प्रयास करता है.इस माहौल में विज्ञापनों का बोलबाला है.जो हमें वर्तमान की एक नयी परिभाषा समझाते है, आज विज्ञापन उत्पाद के अनुसार नहीं होते, इनमे श्रेष्ठता की जंग  ही दिखाई  देती है जिसमे केवल आगे निकलने की धुन सवार है. .विज्ञापन में सादगी का स्वरुप कहीं खोता जा रहा है.विज्ञापन पश्चिमी सभ्यता के अनुसरण करनेवाले ज्यादा लगने लगे है.क्योंकि कहीं न कही इनमे औरत को एक अश्लीलता प्रदर्शन का जरिया बनाया जा रहा है. आज आप टेलिविज़न के किसी भी विज्ञापनों को देखें तो पता चलता है कि उनमें प्रचार से ज्यादा अश्लीलता ने अपना स्थान पा लिया है जिस पर किसी को भी एतराज़ नहीं न ही कोई शिकायत है.आप किसी भी उत्पाद का विज्ञापन लेले चाहे फिर वो नेपकिन का विज्ञापन हो,परफ्यूम का होसाबुन का हो, क्रीम का,शैम्पू का,कोल्ड ड्रिंक का, सूटिंग-शर्टिंग का, कॉस्मेटिक्स के विज्ञापन हो सभी नारी की अस्मिता पर सवाल उठाते नज़र आ रहे है.क्या हम इस तरह की बेइजती इसी तरह  होते रहने देंगे या इस लिए कदम उठाएंगे क्योंकि इन विज्ञापनों में नारी के स्वरुप को देखकर कम से कम इस बात पर यकीं नहीं होता कि हमारे देश में नारी को देवी का दर्ज़ा प्राप्त हैदेवी को तो हम कम से कम इस तरह के स्वरुप में नहीं पूजते? क्या हम अपने मूल्यों और आदर्शों के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे? क्या हम अपनी बहिन,बेटियों को वो समाज, वो माहौल दे रहे है जो उन्हें मिलना चाहिए?दरअसल समाज में बढ़ रही अराजकता के पीछे भी कहीं न कहीं हमारी बदली सोच ही जिम्मेदार है.आज नारी को समाज में सम्मान तो मिल रहा है  पर कहीं न कहीं अभी भी पूर्ण सम्मान की इबारत लिखी जाना बाकी है,.क्या अगर विज्ञापनों में नारी का अश्लील स्वरुप नहीं होगा तो कंपनियों को उस की सही कीमत नहीं मिलेगी? मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ.अगर सही विचार और सही सोच के साथ सही मार्गदर्शन हो तो इस तरह के विज्ञापनों को बदलकर परम्परा और संस्कृति से जुड़े मूल्यों को ध्यान में रख कर विज्ञापन बन सकते है और कम्पनियाँ लाभ  प्राप्ति के सारे रिकॉर्ड तोड़ सकती  है तो क्यों नहीं इस और सार्थक प्रयास की शुरुआत हम करें और नारी की धूमिल होती तस्वीर में आशा और विश्वास के नए रंग भरें...............                                                                                

न्यू मीडिया ने New Media

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 सौजन्य-- krishna instituteof mass communication

'न्यू मीडिया'संचार का वह संवादात्मक (Interactive)स्वरूप है जिसमेंइंटरनेट का उपयोग करते हुए हम पॉडकास्ट, आर एस एस फीड, सोशल नेटवर्क (फेसबुक, माई स्पेस, ट्वीट्र), ब्लाग्स, विक्किस, टैक्सट मैसेजिंग इत्यादिका उपयोग करते हुए पारस्परिकसंवाद स्थापित करते हैं। यह संवाद माध्यमबहु-संचार संवाद का रूप धारण कर लेता है जिसमें पाठक/दर्शक/श्रोता तुरंतअपनी टिप्पणी न केवल लेखक/प्रकाशक से साझा कर सकते हैं, बल्कि अन्य लोग भीप्रकाशित/प्रसारित/संचारित विषय-वस्तु पर अपनी टिप्पणी दे सकते हैं। यहटिप्पणियां एक से अधिक भी हो सकती है अर्थात बहुधा सशक्त टिप्पणियांपरिचर्चा में परिवर्तित हो जाती हैं। उदाहरणत: आप फेसबुक को ही लें - यदिआप कोई संदेश प्रकाशित करते हैं और बहुत से लोग आपकी विषय-वस्तु पर टिप्पणीदेते हैं तो कई बार पाठक-वर्ग परस्पर परिचर्चा आरम्भ कर देते हैं और लेखकएक से अधिक टिप्पणियों का उत्तरदेता है।
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न्यू मीडिया का भविष्य
यह सत्य है कि समय के अंतराल के साथ न्यू मीडियाकी परिभाषा और रूप दोनोबदल जाएं। जो आज नया है संभवत भविष्य में नया न रह जाएगा यथा इसे और संज्ञादे दी जाए। भविष्य में इसके अभिलक्षणों में बदलाव, विकास या अन्य मीडियामें विलीन होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
न्यू मीडियाने बड़े सशक्त रूप से प्रचलित पत्रकारिता को प्रभावित किया है।ज्यों-ज्यों नई तकनीक,आधुनिक सूचना-प्रणाली विकसित हो रही हैत्यों-त्योंसंचार माध्यमों व पत्रकारिता में बदलाव अवश्यंभावी है।
वेब पत्रकारिता
इंटरनेट के आने के बाद अखबारों के रुतबे और टीवी चैनलों की चकाचौंध के बीचएक नए किस्म की पत्रकारिता ने जन्म लिया। सूचना तकनीक के पंख पर सवार इसमाध्यम ने एक दशक से भी कम समय में विकास की कई बुलंदियों को छुआ है। आजऑनलाइन पत्रकारिता का अपना अलग वजूद कायम हो चुका है। इसका प्रसार औरप्रभाव करिश्माई है। आप एक ही कुर्सी पर बैठे-बैठे दुनिया भर के अखबार पढ़सकते हैं। चाहे वह किसी भी भाषा में या किसी भी शहर से क्यों न निकलता हो।सालों और महीनों पुराने संस्करण भी महज एक क्लिक दूर होते हैं।
ऑनलाइन पत्रकारिता की दुनिया को मोटे तौर पर दो भागों में बांट सकते हैं।१. वे वेबसाइटें जो किसी समाचार पत्र या टीवी चैनल के वेब एडिशन के रूप मेंकाम कर रही हैं। ऐसी साइटों के अधिकतर कंटेंट अखबार या चैनल से मिल जातेहैं। इसलिए करियर के रूप में यहां डेस्क वर्क यानी कॉपी राइटर या एडिटर कीही गुंजाइश रहती है।
२. वे वेबसाइटें जो न्यूजपोर्टल के रूप मेंस्वतंत्र अस्तित्व रखती हैं। यानी इनका किसी चैनल या पेपर से कोई संबंधनहीं होता। भारत में ऐसी साइटों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। काम के रूपमें यहां डेस्क और रिपोर्टिंग दोनों की बराबर संभावनाएं हैं। पिछले दिनोंकई ऐसे पोर्टल अपनी ऐतिहासिक रिपोर्टिंग के लिए चर्चा में रहे।
अगरआप खेल, साहित्य, कला जैसे किसी क्षेत्र विशेष में रुचि रखते हैं, तो ऐसीविशेष साइटें भी हैं, पत्रकारिताके क्षितिज को विस्तार दे सकती हैं।
स्टाफ के स्तर पर डॉट कॉम विभाग मुख्य रूप से तीन भागों में बंटा होता है।
जर्नलिस्ट : वे लोग जो पोर्टल के कंटेंट के लिए जिम्मेदार होते हैं।
डिजाइनर : वेबसाइट को विजुअल लुक देने वाले।
वेब डिवेलपर्स/प्रोग्रामर्स : डिजाइन किए गए पेज की कोडिंग करना, लिंक देना और पेज अपलोड करना।
इंटरनेट पत्रकारिता में वही सफल हो सकता है, जिसमें आम पत्रकार के गुणोंके साथ-साथ तकनीकी कौशल भी हो। वेब डिजाइनिंग से लेकर साइट को अपलोड करनेतक की प्रक्रिया की मोटे तौर पर समझ जरूरी है। एचटीएमएल और फोटोशॉप कीजानकारी इस फील्ड में आपको काफी आगे ले जा सकती है। आपकी भाषा और लेखन शैलीआम बोलचाल वाली और अप-टु-डेट होनी चाहिए।
यह एक फास्ट मीडियम है, यहां क्वॉलिटी के साथ तेजी भी जरूरी है। कॉपी लिख या एडिट कर देना ही काफीनहीं, उसे लगातार अपडेट भी करना होता है।
वेब पत्रकारिता लेखन व भाषा
वेब पत्रकारिता, प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में आधारभूत अंतर है। प्रसारणव वेब-पत्रकारिता की भाषा में कुछ समानताएं हैं। रेडियो/टीवी प्रसारणोंमें भी साहित्यिक भाषा, जटिल वलंबे शब्दों से बचा जाता है। आप किसीप्रसारण में, 'हेतु, प्रकाशनाधीन, प्रकाशनार्थ, किंचित, कदापि, यथोचितइत्यादि'जैसे शब्दों का उपयोग नहीं पाएँगे।कारण? प्रसारण ऐसे शब्दोंसे बचने का प्रयास करते हैं जो उच्चारण की दृष्टि से असहज हों या जन-साधारणकी समझ में न आएं। ठीक वैसे ही वेब-पत्रिकारिता की भाषा भी सहज-सरल होतीहै।
वेब का हिंदी पाठक-वर्ग आरंभिक दौर में अधिकतर ऐसे लोग थे जो वेबपर अपनी भाषा पढ़ना चाहते थे, कुछ ऐसे लोग थे जो विदेशों में बसे हुए थेकिंतु अपनी भाषा से जुड़े रहना चाहते थे या कुछ ऐसे लोग जिन्हें किंहींकारणों से हिंदी सामग्री उपलब्ध नहीं थी जिसके कारण वे किसी भी तरह कीहिंदी सामग्री पढ़ने के लिए तैयार थे। आज परिस्थितिएं बदल गई हैं मुख्यधारावाला मीडिया आनलाइन उपलब्ध है और पाठक के पास सामग्री चयनित करने काविकल्प है।
इंटरनेट का पाठक अधिकतर जल्दी में होता है और उसे बांधेरखने के लिए आपकी सामग्री पठनीय, रूचिकर व आकर्षक हो यह बहुत आवश्यक है।यदि हम ऑनलाइन समाचार-पत्र की बात करें तो भाषा सरल, छोटे वाक्य वपैराग्राफ भी अधिक लंबे नहीं होने चाहिएं।
विशुद्ध साहित्यिक रुचिरखने वाले लोग भी अब वेब पाठक हैं और वे वेब पर लंबी कहानियां व साहित्यपढ़ते हैं। उनकी सुविधा को देखते हुए भविष्य में साहित्य डाऊनलोड करने काप्रावधान अधिक उपयोग किया जाएगा ऐसी प्रबल संभावना है।साहित्यि कवेबसाइटें स्तरीय साहित्यका प्रकाशन कर रही हैं और वे निःसंदेह साहित्यिकभाषा का उपयोग कर रही हैं लेकिन उनके पास ऐसा पाठक वर्ग तैयार हो चुका हैजो साहित्यिक भाषा को वरियता देता है।
सामान्य वेबसाइट के पाठक जटिलशब्दों के प्रयोग वसाहित्यिक भाषा से उकता जाते हैं और वे आम बोल-चाल कीभाषा अधिक पसंद करते हैं अन्यथा वे एक-आध मिनट ही साइट पर रूककर साइट सेबाहर चले जाते हैं।
सामान्य पाठक-वर्ग को बाँधे रखने के लिए आवश्यकहै कि साइट का रूप-रंग आकर्षक हो, छायाचित्र व ग्राफ्किसअर्थपूर्ण हों, वाक्य और पैराग्राफ़ छोटे हों, भाषा सहज व सरल हो। भाषा खीचड़ी न हो लेकिनयदि उर्दू या अंग्रेज़ी के प्रचलितशब्दों का उपयोग करना पड़े तो इसमेंकोई बुरी बात न होगी। भाषा सहज होनी चाहिए शब्दों का ठूंसा जाना किसी भीलेखन को अप्रिय बना देता है।
हिंदी वेब पत्रकारिता में भारत-दर्शन की भूमिका
इंटरनेट पर हिंदी का नाम अंकित करने में नन्हीं सी पत्रिका भारत-दर्शन कीमहत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1996से पहली भारतीय पत्र-पत्रिकाओं की संख्यालगभग नगण्य थी। 1995 में सबसे पहले अँग्रेज़ी के पत्र, 'द हिंदू'ने अपनीउपस्थिति दर्ज की और ठीक इसके बाद 1996 में न्यूज़ीलैंड से प्रकाशितभारत-दर्शन ने प्रिंट संस्करण के साथ-साथ अपना वेब प्रकाशन भी आरंभ करदिया। भारतीय प्रकाशनों में दैनिक जागरण ने सबसे पहले 1997 में अपनाप्रकाशन आरंभ किया और उसके बाद अनेक पत्र-पत्रिकाएं वेब पर प्रकाशितहोनेलगी।
हिंदी वेब पत्रकारिता लगभग 15-16 वर्ष की हो चुकी है लेकिनअभी तक गंभीर ऑनलाइन हिंदी पत्रकारिता देखने को नहीं मिलती। न्यू मीडियाका मुख्य उद्देश्य होता है संचार की तेज़ गति लेकिन अधिकतर हिंदीमीडिया इसबारे में सजग नहीं है। ऑनलाइन रिसर्च करने पर आप पाएंगे कि या तो मुख्यपत्रों के सम्पर्क ही उपलब्ध नहीं, या काम नहीं कर रहे और यदि काम करते हैंतो सम्पर्क करने पर उनका उत्तर पाना बहुधा कठिन है।
अभी हमारेपरम्परागत मीडिया को आत्म मंथन करना होगा कि आखिर हमारी वेब उपस्थिति केअर्थ क्या हैं? क्या हम अपने मूल उद्देश्यों में सफल हुए हैं? क्या हम केवलइस लिए अपने वेब संस्करण निकाल रहे है क्योंकि दूसरेप्रकाशन-समूह ऐसेप्रकाशन निकाल रहे हैं?
क्या कारण है कि 12 करोड़ से भी अधिकइंटरनेट के उपभोक्ताओं वाले देश भारत की कोई भी भाषाइंटरनेट पर उपयोग कीजाने वाली भाषाओं में अपना स्थान नहीं रखती? मुख्य हिंदी की वेबसाइटस केलाखों पाठक हैं फिर भी हिंदी का कहीं स्थान न होना किसी भी हिंदी प्रेमी कोसोचने को मजबूर कर देगा कि आखिर ऐसा क्यों है! हमें बहुत से प्रश्नों केउत्तर खोजने होंगे और इनके समाधान के लिए ठोस कदम उठाने होंगें।
न्यू मीडिया विशेषज्ञ या साधक?
आप पिछले १५ सालों से ब्लागिंग कर रहे हैं, लंबे समय से फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब इत्यादि का उपयोग कर रहे हैं जिसके लिए आप इंटरनेट, मोबाइल वकम्प्यूटर का प्रयोग भी करते हैं तो क्या आप न्यू मीडिया विशेषज्ञ हुए? ब्लागिंग करना व मोबाइल से फोटो अपलोड कर देना ही काफी नहीं है। आपको इनसभी का विस्तृत व आंतरिक ज्ञान भी आवश्यक है। न्यू मीडिया की आधारभूतवांछित योग्यताओं की सूची काफी लंबी है और अब तो अनेक शैक्षणिक संस्थानकेवल'न्यू मीडिया'का विशेष प्रशिक्षण भी दे रहे हैं या पत्रकारिता मेंइसे सम्मिलित कर चुके हैं।
ब्लागिंग के लिए आप सर्वथा स्वतंत्र हैलेकिन आपको अपनी मर्यादाओं का ज्ञान और मौलिक अधिकारों की स्वतंत्रता कीसीमाओं का भान भी आवश्यक है। आपकी भाषा मर्यादित हो और आप आत्मसंयम बरतेंअन्यथा जनसंचार के इन संसाधनों का कोई विशेष अर्थ व सार्थक परिणाम नहींहोगा।
इंटरनेट पर पत्रकारिता के विभिन्न रूप सामने आए हैं -
अभिमत - जो पूर्णतया आपके विचारों पर आधारित है जैसे ब्लागिंग, फेसबुक या टिप्पणियां देना इत्यादि।
प्रकाशित सामग्री या उपलब्ध सामग्री का वेब प्रकाशन - जैसे समाचारपत्र-पत्रिकाओं के वेब अवतार।
पोर्टल व वेब पत्र-पत्रकाएं (ई-पेपर और ई-जीन जिसे वेबजीन भी कहा जाता है)
पॉडकास्ट - जो वेब पर प्रसारण का साधन है।
कोई भी व्यक्ति जो 'न्यू मीडिया'के साथ किसी भी रूप में जुड़ा हुआ हैकिंतु वांछित योग्यताएं नहीं रखता उसे हम 'न्यू मीडिया विशेषज्ञ'न कह कर'न्यू मीडिया साधक'कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं।

पत्रकारिता का उद्देश्य

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पत्र- पत्रिकाओं में सदा से ही समाज को प्रभावित करने की क्षमता रही है। समाज में जो हुआ, जो हो रहा है, जो होगा, और जो होना चाहिए यानी जिस परिवर्तन की जरूरत है, इन सब पर पत्रकार को नजर रखनी होती है। आज समाज में पत्रकारिता का महत्व काफी बढ़ गया है। इसलिए उसके सामाजिक और व्यावसायिक उत्तरदायित्व भी बढ़ गए हैं। पत्रकारिता का उद्देश्य सच्ची घटनाओं पर प्रकाश डालना है, वास्तविकताओं को सामने लाना है। इसके बावजूद यह आशा की जाती है कि वह इस तरह काम करे कि ‘बहुजन हिताय’ की भावना सिद्ध हो।
महात्मा गांधी के अनुसार, ‘पत्रकारिता के तीन उद्देश्य हैं- पहला जनता की इच्छाओं, विचारों को समझना और उन्हें व्यक्त करना है। दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाएं जागृत करना और तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को नष्ट करना है। गांधी जी ने पत्रकारिता के जो उद्देश्य बताए हैं, उन पर गौर करें तो प्रतीत होता है कि पत्रकारिता का वही काम है जो किसी समाज सुधारक का हो सकता है।
पत्रकारिता नई जानकारी देता है, लेकिन इतने से संतुष्ट नहीं होता वह घटनाओं, नई बातों नई जानकारियों की व्याख्या करने का प्रयास भी करता है। घटनाओं का कारण, प्रतिक्रियाएं, उनकी अच्छाई बुराइयों की विवेचना भी करता है।
पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के अनुसार, पत्रकारिता पेशा नहीं, यह जनसेवा का माध्यम है। लोकतांत्रिक परम्पराओ की रक्षा करने शांति और भाईचारे की भावना बढ़ाने में इसकी भूमिका है।
समाज के विस्तृत क्षेत्र के संदर्भ में पत्रकारिता के निम्नलिखित उद्देश्य व दायित्व बताये जा सकते है-
. नई जानकारियां उपलब्ध कराना
. सामाजिक जनमत को अभिव्यक्ति देना
. समाज को उचित दिषा निर्देश देना
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 स्वस्थ मनोरंजन की सामग्री देना
. सामाजिक कुरीतियों को मिटाने की दिशा में प्रभावी कदम उठाना
. धार्मिक सांस्कृतिक पक्षों का निष्पक्ष विवेचन करना
. सामान्यजन को उनके अधिकार समझाना
. कृषि जगत व उद्योग जगत की उपलब्धियां जनता के सामने लाना
. सरकारी नीतियों का विश्लेषण और प्रसारण
. स्वास्थ्य जगत के प्रति लोगों को सतर्क करना
. सर्वधर्म समभाव को पुष्ट करना
. संकटकालीन स्थितियों में राष्ट्र का मनोबल बढ़ाना
. वसुधैव कुटुम्बकम की भावना का प्रसार करना
समाज में मानव मूल्यों की स्थापना के साथ जन जीवन को विकासोन्मुख बनाना पत्रकारिता का दायित्व है। पत्रकारिता के सामाजिक और व्यवसायिक उत्तरदायित्व के अनेकानेक आयाम हैं। अपने इन उत्तरदात्वि का निर्वाह करने के लिए पत्रकार का एक हाथ हमेशा समाज की नब्ज पर होता है।

विज्ञापनों में सेक्स का पुट कितना सही ?

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वंदना
बीबीसी संवाददाता


डियोड्रेंट के कई विज्ञापनों पर सरकार ने आपत्ति दर्ज की है
एक ऐसे दौर में जहाँ बाज़ार नए-नए उत्पादों से पटापड़ा है, विज्ञापन वो तरीका है जिनके ज़रिए कंपनियाँ लोगों को अपनाउपभोक्ता बनाने की कोशिश करती हैं. इन विज्ञापनों को रुचिकर बनाने के लिएगीत, संगीत, कटाक्ष, स्टार पावर ..कई तरह के पैंतरों का इस्तेमाल किया जाताहै. इन्हीं में से एक दाँव पेच है सेक्स पावर.....
हाल फिलहाल में कई ऐसे विज्ञापन आपने टीवी के पर्दे पर देखे होंगे जिनमें सेक्स को एक तरह से उत्पाद बेचने का ज़रिया बनाया गया है.
सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने कुछ दिन पहले ऐसे कईविज्ञापनों पर आपत्ति दर्ज करते हुए एडवर्टाइज़मेंट स्टेंडर्ड काउंसिल ऑफ़इंडिया (एएससीआई) को कहा है कि ये अश्लील और अभद्र है. सरकार का कहना हैकि एएससीआई या तो ये विज्ञापन टीवी पर से हटवा ले या फिर इनमें बदलाव करें.ये विज्ञापन विभिन्न डियोड्रेंट कंपनियों के हैं.
यहाँ सेक्शुयल और सेंसुयल में फ़र्क करनाआना चाहिए. भारत बहुत बदल चुका है. उत्पाद बेचने के लिए सेक्शुएलिटी केइस्तेमाल में ग़लत क्या है. विज्ञापनों में महिलाओं को भी सेक्स के प्रतिआकर्षित होने का उतना भी हक़ है जितना पुरुषों को."अगर ये कहकर विज्ञापनबंद किए जा रहे हैं कि इसमें सेक्स है तो टीवी पर आने वाली सास बहू सीरियलभी बंद होने चाहिए क्योंकि वे बहुत ही पिछड़ी हुई सोच के हैं.
पूजा बेदी
आज भी समाज में भले ही सेक्स पर खुले तौर परचर्चा करना अच्छा नहीं माना जाता लेकिन विज्ञापनों में सेक्स के इस्तेमालको लेकर बहस कोई नई नहीं है.
ऐसे विज्ञापनों का इतिहास रहा है. 90 के दशक मेंमॉडल मिलिंद सोमन और मधु सपरे के उस विज्ञापन को लेकर काफ़ी हंगामा हुआ थाजिसमें एक जूते के विज्ञापन में दोनों लगभग निर्वस्त्र थे केवल जूते और एकपाइथन बदन पर लिपटा हुआ था..
गर्मियों में ठंडक पहुँचाते पेय पदार्थ काविज्ञापन जहाँ कभी कोई घरेलू महिला करती थी आज उसे आमसूत्र का नाम देकरकिसी और ही अंदाज़ में करवाया जा रहा है. कई मशहूर विज्ञापन बना जुकेप्रह्लाद कक्कड़ ये तो मानते हैं कि कुछ विज्ञापन वाकई अभद्र होते हैं परसाथ ही कहते हैं कि सृजनात्मकता के लिए कुछ ढील देनी पड़ती है.
वे कहते हैं, “डियोड्रेंट के कई विज्ञापनआपत्तिजनक और अजीब हैं..अगर कोई विज्ञापन नारी का अपमान करता है तो वो कलभी ग़लत माना जाता था और आज के नए समाज में भी उसे ग़लत ही माना जाएगा.लेकिन एक्स डियो जैसे विज्ञापनों में मज़ाक, नटखटपन का पुट है. इसमें मुझेग़लत नहीं नज़र आता. ऐसे विषयों पर समाज में चर्चा की ज़रूरत है न कि ओवररिक्शन की. महिला संगठन तो अक्सर ही ओवर रिएक्ट करती रहती हैं.”
'महिला करे तो ग़लत क्या है'?
नारी को विज्ञापनों में ग़लत ढंग से दिखाने कोलेकर कई बार विवाद हो चुका है. डियोड्रेंट के विज्ञापनों में कई बार दिखायाजाता है कि कैसे कोई लड़की पुरुष द्रारा लगाए डियो की ख़ुशबू से आकर्षितहोकर कामुक हो जाती है.
वहीं किसी गाड़ी या मोटरसाइल के सुंदर डिज़ाइन कीतुलना नारी शरीर के विभिन्न अंगों से की जाती है. वगैरह वगैरह.....क्या येउप्ताद बेचने के बहाने नारी शरीर को बेचने का सामान नहीं है.?
पूजा बेदी एक चर्चित मॉडल रह चुकी हैं और कई विज्ञापनों में काम कर चुकी हैं. वे इस बहस को दूसरे नज़रिए से देखती हैं.
वे कहती हैं, "यहाँ सेक्शुयल और सेंसुयल में फ़र्ककरना आना चाहिए. इस तरह के सभी विज्ञापनों को एक ही रंग में देखना ग़लतहै. भारत बहुत बदल चुका है. हर उत्पाद को बाज़ार तक पहुँचाने का तरीका होताहै. इन्हें बेचने के लिए सेक्शुएलिटी के इस्तेमाल में ग़लत क्या है. जहाँतक महिलाओं की बात है तो आजकल विज्ञापनों में महिलाओं को ही नहीं पुरुषोंकी भी सेक्स अपील इस्तेमाल की जाती है. वैसे भी विज्ञापनों में महिलाओं कोभी सेक्स के प्रति आकर्षित होने का उतना भी हक़ है जितना पुरुषों को."
पूजा तो ये भी कहती हैं कि अगर ये कहकर कोईविज्ञापन बंद किए जा रहे हैं कि इसमें सेक्स है तो टीवी पर आने वाली सासबहू सीरियल भी बंद होने चाहिए क्योंकि वे बहुत ही पिछड़ी हुई सोच के हैंक्योंकि ऐसी दकियानूसी बातें परिवारों के लिए ज़्यादा ख़तरनाक है.
शालीनता की दहलीज़
विज्ञापन बनाने वालों को ख़ुद ही ये तयकर लेना चाहिए कि लकीर कहाँ है .इस क्षेत्र में सरकार का हस्तक्षेप ख़तरनाकहो सकता है. आज एक विज्ञापन पर ऐतराज़ जताया है, कल को कह सकते हैं किविज्ञापनों में राजनीतिक पुट नहीं हो सकता है, फिर कहेंगे आप राजनेताओं कोनहीं दिखा सकते.
प्रह्लाद कक्कड़
यहाँ ये सवाल भी उठता है किआपत्तिजनकविज्ञापन बनाने को लेकर कंपनियों की तो अकसर आलोचना होती है परक्या टीवी प्रसारकों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती जो उन्हें दिखाती हैं.?
एएससीआई के महसचिव ऐलन कोलाको बताते हैं, “केबलटेलीवीज़न नेटवर्क नियमों के तहत इन चैनलों की ज़िम्मेदारी बनती हैं कि येऐसे विज्ञापन न दिखाएँ. एएससीआई टीवी चैनलों को लिख सकती है कि वो इनविज्ञापनों को दिखाना बंद करें. अगर वे न मानें तो हम सूचना प्रसारणमंत्रालय को बताते हैं जो अपने स्तर पर कदम उठाता है.”
लेकिन प्रह्लाद कक्कड़ इस बात के पक्ष में नहीं है कि विज्ञापन के क्षेत्र में सरकार का दख़ल हो.
उनका कहना है, “विज्ञापन बनाने वालों को ख़ुद हीये तय कर लेना चाहिए कि लकीर कहाँ है .इस क्षेत्र में सरकार का हस्तक्षेपख़तरनाक हो सकता है. आज एक विज्ञापन पर ऐतराज़ जताया है, कल को कह सकते हैंकि विज्ञापनों में राजनीतिक पुट नहीं हो सकता है, फिर कहेंगे आप राजनेताओंको नहीं दिखा सकते.”
विज्ञापन करोड़ों में खेलने वाला उद्योग है जहाँउपभोक्ता, दर्शक, कंपनियाँ, प्रसारक सबएक दूसरे से जुड़े हैं और सबकोशायद एक दूसरे की ज़रूरत है.
वैसे इस बात में कोई शक़ नहीं कि स्क्रीन पर बहुतसारे बेहतरीन और सृजनशील विज्ञापन भी देखने को मिलते हैं..ग्राहकों कोलुभाने के लिए कभी-कभी इस सृजनशीलता में थोड़ी ढील भी ली जाती है....
लेकिन रचना करने वालों को शायद इस बात का ध्यान भी रखना होगा कि ढील का दायरा शालीनता की दहलीज़ को न लांघे.

हिंदी को मार्केट की भाषा बनाना होगा: हरिवंश

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हरिवंश, ग्रुप एडिटर, प्रभात खबर 
दरअसल देखा जाए तो यह बात तो बिल्कुल सही है कि हिंदी कवियों और विचारकों की भाषा बन गई है। ये बात पूरी तरह से सही दिखाई दे रही है। दुनिया बदली है। आज का जमाना बहुत ज्यादा एडवांस है। आज का जमाना टेक्नोलॉजी का जमाना है। लेकिन हिंदी को इस लायक विकसित नहीं किया गया कि वो आज के जमाने की भाषा बन सके। हिंदी को कारोबार की भाषा बनाना होगा। लेकिन हिंदी भाषा को लेकर ऐसे कोई भी प्रयास नहीं किए गए हैं। देखिए 1598 में जब भारत में गुजरात के नजदीक डच व्यापार करने आए तो उन्होंने डच और हिंदी की डिक्शनरी निकाली। उस वक्त ये कारोबार की भाषा थी। ये आजादी के समय में सामाजिक परिवर्तन की भाषा थी इसलिए यह उस समय मजबूत थी, लेकिन अभी यह कारोबार या सामाजिक परिवर्तन की भाषा नहीं रही है। आजादी के बाद इसे दोनों भूमिकाओं से अलग कर दिया गया है। अगर गैर हिंदी क्षेत्रों को देखा जाए तो ये राज्य कितने आगे निकल गए हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि उनकी अपनी क्षेत्रिय भाषा कमजोर पड़ गई हो। उनकी अपनी क्षेत्रिय भाषा भी उतनी ही मजबूत होती जा रही है, बंगाल को देखो बांग्ला भाषा कितनी मजबूत हो गई है और वो कितनी आगे निकल गई है। तमिल को देखें तो विश्व स्तर पर तमिल भाषा में उनके अधिवेशन होते हैं। और उन अधिवेशनों में दुनिया भर के लोग आते हैं। ऐसा वहां पर क्यों है? क्योंकि उन्होंने अपनी भाषा को मजबूत किया है। लेकिन हिंदी में उसका उल्टा है हिंदी के कवि चाहतें है कि उन्हें पुरस्कार मिले, हिंदी के विचारक सोंचते हैं कि उन्हें भी कोई इनाम मिलें लेकिन बाकी भाषाओं के लोग ऐसा नहीं सोचते।  
हकीकत मे देखा जाए तो हिंदी को कारोबार की भाषा बनाने की कोशिश ही नहीं की गई। जैसा आपने कहा कि कई हिंदी अखबार हिंग्लीश का प्रयोग कर रहे हैं तो वे अखबार आम बोलचाल की भाषा के शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं तो ठीक है लेकिन जबरदस्ती से किसी अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी में घुसा देना हिंदी की छवि के उल्टा होगा। आज के समय मे अंग्रेजी संस्कृति में रहने वाले, अंग्रेजी का प्रचार करने वाले हिंदी दिवस मना रहे हैं। ये हिंदी दिवस इसलिए नहीं मना रहे कि वो हिंदी से प्यार करते हैं या हिंदी का प्रचार करना चाहते हैं बल्कि वो हिंदी से पैसा कमाना चाहते हैं। ऐसा करने से हिंदी के अस्तित्व पर असर तो पड़ेगा लेकिन हिंदी को ज्यादा बड़ा खतरा नहीं है, हिंदी आने वाले दिनों में मजबूत होगी। क्योंकि उदारीकरण की भी एक सीमा है। दुनिया के तीन चौथाई लोग अंग्रेजी के बाहर रहते हैं उनकी भाषा अंग्रेजी नहीं हो सकती। इसलिए आशा है कि आने वाले सालों में हिंदी और भी ज्यादा मजबूत होगी।
प्रस्तुति--उपेन्द्रकश्यप, किशोर प्रियदर्शी 

सिकुड़ती पत्रकारिता और फैलता मीडिया

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- पुण्य प्रसून वाजपेयी


:10
समाचार4मीडिया.कॉम ब्यूरो


मीडिया का विस्तार तो हो रहा है, लेकिन जर्नलिज्म गायब है। आज मीडिया से आंदोलन और पसीने की महक खत्म हो रही है। लेकिन इस विस्तार का फायदा है क्योंकि विस्तार लोगों को जोड़ेगा, जागरूक बनाएगा औऱ ऐसा होगा तो देश की तस्वीर आईने की तरह साफ होगी। लेकिन इस सब के बीच पत्रकारिता को नुकसान हुआ है यह तो तय है।
टीवी का रिमोट हाथ में लिए दर्शक और अखबार के पन्ने पलटता दर्शक कुछ खोज रहा है क्योंकि जो उसे मिल रहा है जो जानकारी मिल रही है उस जानकारी का वह क्या करे। जानकारी का अभाव एक बड़ा संकट है। लोगों के सामने जानकारी का संकट इसलिए है क्योंकि पत्रकारों की इंटलेक्चुअल हत्या हो रही है।
मुनाफे और घाटे के सिद्धात ने पूरे समाज को प्रभावित किया है। मीडिया भी इसी के पीछे चल रहा है। मशीनीकरण ने भी काफी कुछ बदला है। पहले कहा जाता था कि अखबार निकालना एक बेटी की विदाई की तरह होता है लेकिन मशीन ने इस श्रम को हर लिया और संवेदनाएं मरने लगीं। और एडवरटाइजिंग ने पत्रकारिता पर कब्जा कर लिया।
देखें तो आज देश का वित्तमंत्री मानसून है, मानसून न आए तो अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है, लेकिन हर जगह सरकार की सफलता के ऐड दिख रहे हैं और जो सपने दिखाए जा रहे हैं क्या ऐड के माध्यम से जो सपने दिखाए जा रहे है मीडिया उसके सच्चाई जाहिर करने में कोई भूमिका निभा पा रहा है। पतन समूचे समाज का हुआ है। मीडिया के हाथ अगर कमजोर हुए हैं तो यह ऊपरी स्तर पर आई कमियों के कारण हुआ है। इसे नवप्रवेशी की कमियों पर थोपकर नहीं बचा सकता। मंथन होता है तो विष भी निकलता है और अमृत भी। हमें दोनों का उपयोग करना सीखना होगा।

प्रस्तुति- नुपूर सिन्हा, समिधा


खबरों पर स्टैंड लेना ही पड़ता है: / अमिताभ अग्निहोत्री

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पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश पत्रकार अपने करियर की शुरुआत सब एडिटर या उपसंपादक के तौर पर ही करते हैं और पत्रकारिता के शीर्ष पर पहुंचने वाले अधिकांश शख्स मैनेजिंग एडिटर के तौर पर रिटायर होते हैं। पर वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ अग्निहोत्री अपने आप में विरले ही हैं। उन्होंने दैनिक जागरण से सब एडिटर के तौर पर करियर की शुरुआत की और आज समाचार प्लस चैनल के मैनेजिंग एडिटर के तौर पर अपने करियर की पारी को आगे बढ़ा रहे हैं। समाचार4मीडिया के असिस्टेंट एडिटर अभिषेक मेहरोत्रा के सात सवालों का ‘चक्रव्यूह’ कुछ यूं पार किया अमिताभ अग्निहोत्री ने...

 एक सब एडिटर से मैनेजिंग एडिटर बनने का नुस्खा क्या है, यह बताइए ताकि तमाम नवोदित पत्रकार इससे प्रेरणा पा सकें?
देखिए, सफलता का एक ही मूलमंत्र है काम के प्रति समर्पण। सन् 88 में आईआईएमसी में टॉप करने के बाद माननीय कमलेश्वर जी की संपादकीय टीम का हिस्सा बनते हुए दैनिक जागरण में सब एडिटर बना। वहां डेस्क के काम को तल्लीनता के साथ सीखा। जब करीब डेढ़ वर्ष बाद कमलेश्वर जी और उनकी टीम ने दैनिक जागरण छोड़ा तो जागरण प्रबंधक ने मेरे काम को देखते हुए अखबार निकालने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी। बस फिर क्या था, खूब जम कर काम किया और फिर छह महीने में प्रमोशन दर प्रमोशन मिलते गए और सब एडिटर से डीएनई यानी डिप्टी न्यूज एडिटर तक का सफर तय किया। लेकिन मन में रिपोर्टिंग करने की जो इच्छा थी, उसके चलते 1991 में जागरण के नैशनल ब्यूरो का हिस्सा बन गया। वह दौर राम मंदिर आंदोलन का था और मेरी बीट उस समय बीजेपी, आरएसएस और वीएचपी थी, तो बस रोज बड़ी खबरें ब्रेक करता था और 6 दिसंबर की तिथि निर्धारण के बारे में भी जागरण ने ही सबसे पहले खबर ब्रेक की थी, वो बाइलाइन स्टोरी बहुत चर्चा का विषय बनी।

उसके बाद 1993 में अखबार ‘आज’ के नैशनल ब्यूरो का हिस्सा बना। यह वो दौर था जब शादी हुई थी तो थोड़ा समय वैवाहिक जीवन से लेकर सामाजिक जिम्मेदारी और घर निर्माण आदि आवश्यक कार्यों को देना था, तो उस समय ‘आज’ के साथ एक दशक लंबी पारी खेली। उसके बाद 2004 में दैनिक भास्कर ग्रुप के प्रमुख सुधीर अग्रवाल के साथ मीटिंग हुई और फिर भास्कर के नैशनल ब्यूरो को जॉइन किया। भास्कर के बैनर तले भी जमकर रिपोर्टिंग करने के बाद 2008 में दिल्ली में‘देशबंधु’ अखबार की लॉन्चिंग के समय संपादक के तौर पर वहां जुड़ गया। यह वो समय था जब अखबार के बंडल की बंधाई से लेकर अखबार की छपाई तक हर विधा को बारीकी से सीखा, साथ ही साथ रिपोर्टिंग से लेकर एडिटोरियल राइटिंग तक अपनी कलम खूब चलाई।

पर हमेशा नया सीखने की ललक ने कदम कहीं भी ठहरने नहीं दिए। 2010 में टोटल टीवी ज्वाइन कर टेलिविजन इंडस्ट्री को समझा। फीड ट्रांसफर से लेकर पीटूसी और ब्रॉडकास्टिंग तक के हर चरण को समझने के लिए ज्यादा से ज्यादा समय दिया। करीब डेढ़ साल वहां काम करने के बाद दिसंबर 2011 में समाचार प्लस की परिकल्पना के साथ जुड़ा और 15 जून 2012 को समाचार प्लस का यूपी/उत्तरांचल चैनल लॉन्च किया और 6 अगस्त 2013 को राजस्थान चैनल शुरू कर दिया।



समाचार प्लस के शो ‘बिग बुलेटिन’ और ‘चक्रव्यूह ‘में आप जिस तरह से अपनी तल्ख टिप्पणी रखते हैं, वो कोई स्ट्रैटजी है या फिर यह आपका स्टाइल है?
बेबाक बोलना मेरी आदत है। ‘बिग बुलेटिन’ में ही नहीं, 2004 से जब टीवी चैनलों में पैनल डिस्कशन का हिस्सा बना करता था, तब भी नेताओं को खरी-खोटी सुनाता था। मेरा साफ मानना है कि अगर आपने काम नहीं किया है, तो आपको सुनना ही पड़ेगा। हां एक बात जरूर है कि समाचार प्लस के शो ‘बिग बुलेटिन’ के दौरान मैंने मैनजिंग एडिटर के तौर पर एक एडिटोरियल व्यू देने की परंपरा जरूर शुरू की। इसका फीडबैक यह मिला कि अधिकांश दर्शक यही कहते हैं कि आपकी बात जनता की आवाज होती है। तमाम लोग सवाल पूछते हैं कि जिस तरह आप नेताओं को असलियत दिखाते हैं, क्या आपसे नेता नाराज नहीं होते, इस पर मेरा एक ही जवाब होता है कि मैं पक्षपात विहीन टिप्पणी करता हूं, न मुझे किसी का भय है और न किसी से द्वेष। आज भी जब किसी शो में बैठता हूं तो एक अघोषित दवाब अपने ऊपर महसूस करता हूं, जो मेरी ज्यूरी यानी दर्शकों का होता है। लोगों की आपसे अपेक्षाएं होती हैं और अगर आप न्यायसंगत बात नहीं कह पा रहे हैं, तो आपको मीडिया से संन्यास ले लेना चाहिए।

माना जाता है कि संपादक या मैनिजिंग एडिटर पर प्रबंधन का काफी दवाब होता है, आपका इस पर क्या कहना है?
मेरा इस सवाल पर एक ही जवाब होता है कि जितने दवाब या दखलअंदाजी का जिक्र किया जाता है, असल में वैसा होता नहीं है। अधिकांशत:  मैंने पाया है कि प्रबंधन के दबाव के नाम पर एक हौव्वा बनाया जाता है। देशबंधु में मैं जब संपादक हुआ तो मैंने वहां निधन/श्रद्धांजलि का एक कॉलम शुरू किया जो मुफ्त में छपता था। लोगों ने हमारे इस कदम का खूब स्वागत किया, प्रबंधन ने भी कभी इस पर कोई आपत्ति नहीं उठाई। मेरा मानना है कि अगर आप ठीक नीयत से काम करते हैं, तो कोई आपको नहीं रोकता है।

ऐडवरटोरियल कॉन्सेप्ट पर आपकी क्या राय है ?
मैं इस कॉन्सेप्ट से बिल्कुल इत्तेफाक नहीं रखता हूं। मेरा स्पष्ट मानना है कि एडिटोरियल और ऐडवरटाइज़मेंट के बीच अंतर रखना ही चाहिए। ऐडवरटोरियल कॉन्सेप्ट पाठक या दर्शक के साथ छलावा है। प्रायोजित परिशिष्ट की अवधारणा ही मूलत: गलत है। अखबार या चैनल की संपादकीय ईमानदारी के साथ कुछ भी लागलपेट नहीं होनी चाहिए।

आजकल चैनलों पर खबरों के साथ-साथ खेल, क्राइम और मनोरंजन शो भी खूब आ रहे हैं, कहीं चैनल अपने मुख्य काम से भटक तो नहीं गए हैं ?
मैं सोच ही रहा था कि यह सवाल अभी तक क्यों नहीं पूछा गया ? हार्ड कोर खबरों को तो चैनल दिखाते हैं ही, पर हां साथ ही साथ काफी अन्य सेक्टर की खबरों या फीचरिश खबरों को भी लिया जा ता है। इस बात को उदाहरण के जरिए समझिए। हमारे यहां एक कहावत है, खिचड़ी के चार यार-चटनी, पापड़, दही, अचार तो बस इसी आधार पर जैसे हिंदुस्तान के भोजन की थाली विविधता पूर्ण होती है। चैनल भी विविधताओं के साथ आपको कंटेंट परोस रहे हैं ताकि आपके लिए कुछ बोरिंग न हो।

आजकल जिस तरह मीडिया इंस्टिट्यूट्स की बाढ़ आई है, क्या आपको लगता है कि इससे जर्नलिज्म के स्टूडेंट्स की क्वॉलिटी बहुत बढ़िया हो गई है?
आपने कबीर का दोहा `कबीर' यह घर प्रेम का,  खाला का घरनाहिं । सीस उतारे हाथि धरि,  सो पैसे घर माहिं’ तो सुना ही होगा। बस इसी तर्ज पर मेरा मानना है कि अब कुकुरमुत्तों के तरह उग रहे मीडिया इंस्टिट्यूट्स से कोई बड़ा लाभ नहीं हो रहा है। सुविधा की नौकरी और सुरक्षित जीविका चाहने वाले पत्रकारिता में न आएं, यही ठीक है। पत्रकारिता को मैं एक अनुष्ठान की तरह मानता हूं। जिस तरह अध्यात्म के लिए आत्मा का शुद्धिकरण जरूर है उसी तरह जर्नलिज्म के लिए व्यक्तित्व का शुद्धिकरण आवश्यक है।

मीडिया ट्रायल के नाम पर तमाम बार मीडिया को कठघरे में किया जा ता है, आप इसे किस तरह देखते हैं ?
तमाम बार मैंने मीडिया ट्रायल पर आयोजित चर्चाओं में भाग लिया है और मेरा इस विषय पर यही कहना है कि जिस तरह लोग मीडिया ट्रायल की बात करते हैं तो ऐसे में खबर लिखना या चलाना बहुत ही मुश्किल है। सिर्फ कथित घटना के चलते अमुक पर लगा कथित आरोप लिखना कहां तक सही है। अगर मेरे सामने कोई घटना घटी है या मैं किसी भी तरह से घटना से परिचित हूं तो मुझे एक स्टैंड लेना ही पड़ेगा। अगर हम हर समय फाइनल फैसले का ही इंतजार करते हैं तो फिर किसी भी खबर को पूरी तरह से बीस साल बाद ही रिपोर्ट कर सकेंगे।

प्रस्तुति-- किशोर प्रियदर्शी, राहुल मानव

उपभोक्ता समाज पर विज्ञापन का मायाजाल

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 डॉ महेश परिमल

पिछले कुछ वर्षों में मीडिया का विस्तार इतनी तेजी से हुआ है कि संचार की दुनिया ही बदल गई है। मीडिया से जुड़े और भी कई माध्यम हैं जिनमें काफी परिष्कार और निखार आया है। जन सम्पर्क और विज्ञापन का माध्यम समाचार पत्रों के साथ-साथ बेहद प्रभावी व संप्रेषणशील स्रोत के रूप में उभरे हैं। यही नहीं बल्कि एक दूसरे पर परस्पर निर्भर भी हो गए हैं। सरकारों ने तो अनेक वर्षों से अपने-अपने जन सम्पर्क विभाग गठित कर रखे हैं जो उसके कार्य-कलापों को जनता तक पहुंचाते हैं। इसी प्रकार औद्योगिक प्रतिष्ठानों ने भी जनसंपर्क को आर्थिक उदारवाद के इस दौर में काफी महत्व दिया है। आज का समाज उपभोक्तावादी समाज कहा जाता है अतएव अपने उत्पाद को ज्यादा से ज्यादा बेचना औद्योगिक प्रतिष्ठानों के लिए उच्च प्राथमिकता का विषय हो गया है। जीवन का कोई भी क्षेत्र अब विज्ञापन और जनसंपर्क की पहुंच से अछूता नहीं है। पिछले 50 वर्षों में भारतीय विज्ञापन विधा ने बहुत लंबी दूरी तय की है। उसका शिल्प इतना उन्नत हुआ है कि किसी भी विकसित देश से टक्कर ले सकता है। विज्ञापन और जन सम्पर्क एक प्रकार से जुड़वा विधाएं हैं। इन्होंने एक स्वतंत्र उद्योग की शक्ल अख्तियार कर ली है।
'प्राइम टाइम'जिस समय सबसे ज्यादा दर्शक टीवी देखते हैं, को भी विज्ञापनदाताओं ने खरीद रखा है। इस समय चंद बड़ी कंपनियों का एकाधिकार है और वे सतही मनोरंजन के साथ दर्शकों के आगे अपने उत्पादनों को भी सरका देती है। सवाल है कि क्या मुनाफाखोरी के लिए करोड़ों लोगों के हितों को ताक पर रख देना उचित है? फूहड़ किस्म के विज्ञापन भी बेदस्तूर जारी है जबकि पाठकों की अभिरुचियों का स्तर इस बीच काफी उठा है। ये विकृतियां अभी खत्म हो सकती है जब विज्ञापनों को लेकर स्पष्ट और सख्त नीति बनाई जाए तथा आवश्यक हो तो उसे कानूनी जामा पहनाया जाए। जनसम्पर्क कला एवं विज्ञापन के क्षेत्र में प्रबुद्ध रोजगार की विपुल संभावनाएं हैं। अतएव शासन, विश्वविद्यालयों, समाचार पत्र संगठनों व जनसम्पर्क प्रतिष्ठानों को आपस में विचार विमर्श कर एक ऐसा संयुक्त फोरम बनाना होगा ताकि इसे स्वतंत्र उद्योग स्वरूप देते हुए रोजगार के एक महती स्रोत के रूप में विकसित किया जा सके।

आज हमारे में चुपके-चुपके बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ रहा है। इसे हम अभी तो नहीं समझ पा रहे हैं, पर भविष्य में निश्चित रूप से यह हमारे सामने आएगा। इस बार इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हमारी मानसिकता पर हमला करने के लिए मासूमों का सहारा लिया है। हमारे मासूम याने वे बच्चे, जिन पर हम अपना भविष्य दांव पर लगाते हैं और उन्हें इस लायक बनाते हैं कि वे हमारा सहारा बनें। सहारा बनने की बात तो दूर, अब तो बच्चे अपने माता-पिता को बेवकूफ समझने लगे हैं और उनसे बार-बार यह कहते पाए गए हैं कि पापा, छोड़ दो, आप इसे नहीं समझ पाएंगे। इस पर हम भले ही गर्व कर लें कि हमारा बच्चा आज हमसे भी अधिक समझदार हो गया है, पर बात ऐसी नहीं है, उसकी मासूमियत पर जो परोक्ष रूप से हमला हो रहा है, हम उसे नहीं समझ पा रहे हैं। आज घर में नाश्ता क्या बनेगा, इसे तय करते हैं आज के बच्चे। तीन वर्ष का बच्चा यदि मैगी खाने या पेप्सी पीने की जिद पकड़ता है तो हमें समझ लेना चाहिए कि यह अनजाने में उसके मस्तिष्क में विज्ञापनों ने हमला किया है। मतलब नाश्ता क्या बनेगा, यह माता-पिता नहीं, बल्कि कहीं बहुत दूर से बहुराष्ट्रीय कंपनियां तय कर रही हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां बहुत ही धीरे से चुपके-चुपके हमारे निजी जीवन में प्रवेश कर रही है, इस बार उन्होंने निशाना तो हमें ही बनाया है, पर इस बार उन्होंने कांधे के रूप में बच्चों को माध्यम बनाया है। यह उसने कैसे किया, आइए उसकी एक बानगी देखें- इन दिनों टीवी पर नई कार का विज्ञापन आ रहा है। जिसमें एक बच्चा अपने पिता के साथ कार पर कहीं जा रहा है, थोड़ी देर बाद वह अपने गंतव्य पहुंचकर कार के सामने जाता है और अपने दोनों हाथ फैलाकर कहता है ''माय डैडीड बिग कार''इस तरह से अपनी नई कार को बेचने के लिए बच्चों की आवश्यकता कंपनी को आखिर क्यों पड़ी? जानते हैं आप? शायद नहीं, शायद जानना भी नहीं चाहते। टीवी और प्रिंट मीडिया पर प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों में नारी देह के अधिक उपयोग या कह लें कि दुरुपयोग को देखते हुए कतिपय नारीवादी संस्थाओं ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। नारी देह अब पुरुषों को आकर्षित नहीं कर पा रही है, इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने बच्चों का सहारा लिया है। अब यह स्थिति और भी भयावह होती जा रही है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब बच्चों में अपना बाजार देख रही हैं। आजकल टीवी पर आने वाले कई विज्ञापन ऐसे हैं, जिसमें उत्पाद तो बड़ों के लिए होते हैं, पर उसमें बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है। घर में नया टीवी कौन सा होगा, किस कंपनी का होगा, या फिर वाशिंग मशीन, मिक्सी किस कंपनी की होगी, यह बच्चे की जिद से तय होता है। सवाल यह उठता है कि जब बच्चों की जिद के आधार पर घर में चीजें आने लगें, तो फिर माता-पिता की आवश्यकता ही क्या है? जिस तरह से हॉलीवुड की फिल्में हिट करने में दस से पंद्रह वर्ष के बच्चों की भूमिका अहम् होती है, ठीक उसी तरह आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां बच्चों के माध्यम से अपने उत्पाद बेचने की कोशिश में लगी हुई हैं। क्या आप जानते हैं कि इन मल्टीनेशनल कंपनियों ने इन बच्चों को ही ध्यान में रखते हुए 74 करोड़ अमेरिकन डॉलर का बाजार खड़ा किया है। यह बाजार भी बच्चों के शरीर की तरह तेजी से बढ़ रहा है। इस बारे में मार्केटिंग गुरूओं का कहना है कि किसी भी वस्तु को खरीदनें में आज के माता-पिता अपने पुराने ब्रांडों से अपना लगाव नहीं तोड़ पाते हैं। दूसरी ओर बच्चे, जो अभी अपरिपक्व हैं, उन्हें अपनी ओर मोड़ने में इन कंपनियों को आसानी होती है। नई ब्रांड को बच्चे बहुत तेजी से अपनाते हैं। इसीलिए उन्हें सामने रखकर विज्ञापन बनाए जाने लगे हैं, आश्चर्य की बात यह है कि इसके तात्कालिक परिणाम भी सामने आए हैं। याने यह मासूमों पर एक ऐसा प्रहार है, जिसे हम अपनी आंखों से उन पर होता देख तो रहे हैं, पर कुछ भी नहीं कर सकते, क्योंकि आज हम टीवी के गुलाम जो हो गए हैं। आज टीवी हमारा नहीं, बल्कि हम टीवी के हो गए हैं।
हाल ही में एक किताब आई है, ''ब्रांड चाइल्ड''। इसमें यह बताया गया है कि 6 महीने का बच्चा कंपनियों का ''लोगो''पहचान सकता है, 3 साल का बच्चा ब्रांड को उसके नाम से जान सकता है और 11 वर्ष का बालक किसी निश्चित ब्रांड पर अपने विचार रख सकता है। यही कारण है कि विज्ञापनों के निर्माता ''केच देम यंग''का सूत्र अपनाते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के बच्चे सोमवार से शुक्रवार तक रोज आमतौर पर 3 घंटे और शनिवार और रविवार को औसतन 3-7 घंटे टीवी देखते हैं। अब तो कोई भी कार्यक्रम देख लो, हर 5 मिनट में कॉमर्शियल ब्रेक आता ही है और इस दौरान कम से कम 5 विज्ञापन तो आते ही हैं। इस पर यदि क्रिकेट मैच या फिर कोई लोकप्रिय कार्यक्रम चल रहा हो, तो विज्ञापनों की संख्या बहुत ही अधिक बढ़ जाती है। इस तरह से बच्चा रोज करीब 300 विज्ञापन तो देख ही लेता है, यही विज्ञापन ही तय करते हैं कि उसकी लाइफ स्टाइल कैसी होगी। इस तरह से टीवी से मिलने वाले इस आकाशीय मनोरंजन की हमें बड़ी कीमत चुकानी होगी, इसके लिए हमें अभी से तैयार होना ही पड़ेगा।
समय बदल रहा है, हमें भी बदलना होगा। इसका आशय यह तो कतई नहीं हो जाता कि हम अपने जीवन मूल्यों को ही पीछे छोड़ दें। पहले जब तक बच्चा 18 वर्ष का नहीं हो पाता था, तब तक वह अपने हस्ताक्षर से बैंक से धन नहीं निकाल पाता था। लेकिन अब तो कई ऐसी निजी बैंक सामने आ गई हैं, जिसमें 10 वर्ष के बच्चे के लिए के्रडिट कार्ड की योजना शुृरू की है। इसके अनुसार कोई भी बच्चा एटीएम जाकर अधिक से अधिक एक हजार रुपए निकालकर मनपसंद वस्तु खरीद सकता है। सभ्रांत घरों के बच्चों का पॉकेट खर्च आजकल दस हजार रुपए महीने हो गया है। इतनी रकम तो मध्यम वर्ग का एक परिवार का गुजारा हो जाता है। सभ्रांत परिवार के बच्चे क्या खर्च करेंगे, यह तय करते हैं, वे विज्ञापन, जिसे वे दिन में न जाने कितनी बार देखते हैं। चलो, आपने समझदारी दिखाते हुए घर में चलने वाले बुध्दू बक्से पर नियंत्रण रखा। बच्चों ने टीवी देखना कम कर दिया। पर क्या आपने कभी उसकी स्कूल की गतिविधियों पर नजर डाली? नहीं न...। यहीं गच्चा खा गए आप, क्योंकि आजकल स्कूलों के माध्यम से भी बच्चों की मानसिकता पर प्रहार किया जा रहा है। आजकल तो स्कूलें भी हाईफाई होने लगी हैं। इन स्कूलों में बच्चों को भेजना किसी जोखिम से कम नहीं है।
अब यह प्रश् उठता है कि क्या आजकल स्कूलें बच्चों का ब्रेन वॉश करने वाली संस्थाएं बनकर रह गई हैं? बच्चे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ग्राहक बनकर अनजाने में ही पश्चिमी संस्कृति के जीवन मूल्यों को अपनाने लगे हैं। यह चिंता का विषय है। पहले सादा जीवन उच्च विचार को प्राथमिकता दी जाती थी, पर अब यह हो गया है कि जो जितना अधिक मूल्यवान चीजों को उपयोग में लाता है वही आधुनिक है। वही सुखी और सम्पन्न है। ऐसे में माता-पिता यदि बच्चों से यह कहें कि आधुनिक बनने के चक्कर में वे कहीं भटक तो नहीं रहे हैं, तो बच्चों का यही उत्तर होगा कि आप लोग देहाती ही रहे, आप क्या जानते हैं इसके बारे में। ऐसे में इन तथाकथित आधुनिक बच्चों से यह कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करेंगे?

औरत के बदन से बड़ा कुछ नहीं

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  आज वर्तमान समय में नारी पर हो रहे अत्याचारों से नारी को मुक्त करने, उन्हें आजाद करने पर विशेष चर्चाएं होती रहती है। सरकार ने भी इस दिशा में कई कारगर कदम उठाएं है। नारी मुक्ति के लिए हम और आप सभी प्रयासरत हैं।आज की नारी किन्हीं बेडि़यों में बंधी हुई नहीं है, जिन्हें हम और आप मिलकर मुक्त करवा दें। सामाजिक परम्पराओं की अदृश्य बेडि़यों ने नारी को जकड़ रखा है। आडम्बरी समाज द्वारा बनाई परम्पराओं में परिवर्तन लाना ही नारी मुक्ति की ओर सशक्त कदम होगा। नारी संकीर्ण वैचारिक जेल में कैद है, विचारों में परिवर्तन ऊंची और खुली सोच ही इस कैद को तोड़ सकती है।
हमारा देश सैंकड़ों वर्ष तक गुलाम रहा। गुलामी के दौरान जुल्म सहते-सहते अनेकों समझौते करने पड़े, अपनी संस्कृति को भी हम भुलाते गए। नारी का सदैव सम्मान करने वाली भारतीय संस्कृति को भी ग्रहण लगता गया। मुगल साम्राज्य के दौरान सुंदर महिलाओं की अस्मित लूट ली जाती थी, जिसके भय से पर्दा प्रथा का पर्दापण हुआ। फिर अंग्रेजों का राज हुआ, जिसमें अंगे्रज महिलाओं द्वारा तत्कालीन भारतीय समाज के नियमों के उल्ट कम वस्त्र पहने जाते थे। गुलामियत सहने की आदत-सी पड़ चुकी है, भारतीयों को।

आजादी के 61 वर्ष जीने के बावजूद पश्चिमी सोच हम पर हावी रही है। पश्चिमी देशों में स्त्रियों द्वारा शरीर का खुला प्रदर्शन, बात-बात पर तलाक ले दूसरी-तीसरी-चौथी शादी करना, बगैर शादी किये पुरुष मित्र के साथ रहना आदि को ही कुछ तथाकथित लोगों ने आजादी मान लिया है। तभी वे लिव-इन रिलेशन की वकालत भारत में भी करते हैं। ऐसी सोच वाले व्यक्तियों को ज्ञात होना चाहिए कि गंदगी जल से साफ होती है, मल से नहीं।

भारत में अनादिकाल से ही नारी को सम्मान का हकदार माना गया है, लेकिन पश्चिमी सभ्यता की पौराणिक दंत कथानुसार आदम और हव्वा में केवल पुरुष को ही प्राणवान माना गया है, तथा स्त्री का निर्माण पुरुष की पसली से हुआ अतः उसमें प्राण नहीं माना गया। इसी प्रकार पशु-पक्षी, जलचर आदि को भी प्राणहीन मान उन्हें गुलाम बनाना, मारना या उससे कैसा भी निर्मम कांड करना धर्म संगत माना गया है, लेकिन आगे चलकर अनेक दार्शनिकों ने इसका घोर विरोध कर स्त्री को प्राणवान माना। धीरे-धीरे अन्य जीव-जंतुओं में भी प्राण होने पर सहमत हुए। जब कि हिन्दुस्तान में अनादिकाल से ही स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, जलचर यहां तक की पेड़-पौधे, वनस्पति तक में भी जीवन माना गया है।
भारत में अधिकांश लोगों का मानना है कि नारी को पश्चिमी देशों में भारत से अधिक आजादी है। हां , यह कुछ हद तक सही भी हैं। वहां की नारी भारतीय नारी से अधिक आजाद हैं, अपने अंग दिखाने में, अपने पति को शीघ्र बदलने में, विवाह पूर्व व विवाहोत्तर अनैतिक संबंध बनाने में स्वतंत्र हैं, लेकिन पूरे विश्व में मान-सम्मान भारतीय नारी का ही अधिक होता है। तभी तो भारत के 62 वर्ष के लोकतांत्रिक कार्यकाल केञ् 19 वें वर्ष में एक महिला ने प्रधानमंत्री पद (श्रीमती इंदिरा गांधी, दिनांक 24 फरवरी 1966) व 61 वें वर्ष में एक अन्य महिला ने राष्ट्रपति पद (महामहिम प्रतिभा देवीसिंह पाटिल दिनांक 25 जुलाई 2007) जैसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त किये। जबकि अमेरिका के 200 वर्ष से अधिक के लोकतांत्रिक काल में अब तक कोई भी महिला राष्ट्रपति नहीं बन सकी। स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्री मंडल में भारत की प्रथम स्वास्थ्य मंत्री होने का गौरव भी एक महिला (राजकुमारी अमृत कौर) को ही मिला।

पश्चिम में स्वतंत्र-सी दिखने वाली नारी असल में स्वतंत्र नहीं है। पैसे के लालची पश्चिमी औरत की देह का वैश्वीकरण हो चुका है। भारत में एक विशेष 'प्रजाति'के लोग हैं, जिनका मानना है कि पश्चिमी देशों में जो हो रहा है, ठीक वैसा ही अगर हमारे देश में होगा तभी हम विकसित कहलाएंगे अन्यथा भौतिकतावादी संसार में पिछड़ कर रह जाएंगे। इसका प्रभाव भारत की कुछ प्रतिशत जनता पर देखा जा सकता है। मानव की संवेदना से जुड़ी भारतीय संस्कृति पर पश्चिमवादी इलैक्ट्रोनिक मीडिया द्वारा आश्चर्यजनक रूपसे बाजार व विज्ञापन की संस्कृति का वर्चस्व स्थापित हो गया है। उपभोक्तावादी बहुराष्ट्रीयन कंपनियों सहित भारतीय कंपनियों ने भी स्त्री को बाजार और विज्ञापन के माध्यम से देह के रूप में प्रस्तुत किया है।

भूमण्डलीकरण के दौर में जब सब कुछ बाजार में बदल गया है,तो ऐसे दौर में शोषण के तरीके बहुत संगीन व महीन हो गए हैं। जिसे समझ पाना बहुत कठिन हो गया है। पैसे व ग्लैमर की चकाचौंध में औरतें स्वयं उसका शिकार हो रही है। स्वेच्छा से इनका वरण कर उपभोक्तावादी बाजार ने रूप सौंदर्य देह के रूप में नारी को काफी समय से परिभाषित किया जाता रहा है, के चलते ............ लेकिन आधुनिक युग में देह प्रदर्शित करती नारी कब वस्तु में तब्दील हो गई, शायद नारी को भी इसका आभास नहीं।

क्या औरत का, बदन से ज्यादा वतन नहीं? औरत के बदन से जन्म लेने वाला इंसान, औरत के बदन को ही अपनी रोजी (व्यापार) का साधन बना रहा है। विज्ञापन युग में औरत को तुच्छ समझने वाला पुरुष उसके देह के प्रदर्शन के बिना टी.वी., फ्रीज, साबुन, कपड़े, कार तो क्या स्वयं पुरुष के पहनने वाले अंडरवियर तक नहीं बेच पा रहा है। उपभोक्तावादी कंपनियां पुरुष प्रवृति को भांपते हुए नारी देह के आकर्षक के जरिये धन जुटाने में जुटी हैं।

औरत की अपनी इच्छा भी इस व्यवस्था में रची बसी हुई लगती है। वैश्वीकरण व बाजारवाद के चलते स्त्रियां वस्तु बनती जा रही है। सच तो यह है कि नारी को सदैव वस्तु ही समझा जाता है, हाड़-मांस की सजीव एवं सुंदर वस्तु। ज्ञात ही होगा, कि पूर्व में राजा-महाराजा सुंदर स्त्रियों को विष कन्या बनाकर दूसरे राज्य में भेज कर राजाओं की हत्याएं करवाते थे। इतना ही नहीं देवता भी अप्सराओं का प्रयोग विश्वामित्र जैसे ऋषियों की तपस्या भंग करवाने हेतु सुंदर हथियार के रूप में करते थे। अपने फर्ज के लिए सुसाईड वुमैन बनी इन स्त्रियों को किसी भी युग में शहीद का दर्जा नहीं मिला, क्यों...? क्योकि नारी को केवल सुंदर हथियार समझा जाता रहा है? हथियार कभी शहीद नहीं होते, हथियार का केवल प्रयोग होता है। पुरुष स्त्री को कितना भी दोयम समझें या उसे वस्तु समझें, लेकिन नारी के देह के आकर्षण से कभी बाहर नहीं हो पाया। पुरुष की इसी कमजोरी का बाजारवाद सहित सिनेमा जगत ने भी खूब फायदा उठाया। नारी देह का प्रदर्शन कर लाखों करोड़ों कमाएं।

कुछ दशक पूर्व की फिल्मों में अभिनेत्रियों के बदन पर पूरे वस्त्र होते थे। केवल गर्दन का ऊपरी हिस्सा ही देखने को मिलता था। पूरी फिल्म के एकाध दृश्य ही थोड़े कम वस्त्र पहने सहअभिनेत्री पर दर्शाएं जाते थे। हीरो-हीरोइन के प्रेम दृश्य में यदि चुम्बन दृश्य दर्शाना आवश्यक हो तो दो फूलों का आपस में टकराना दिखाया जाता था। जिसे देख भारतीय दर्शक रोमांचित हो उठते थे, लेकिन आज की फिल्मों में चुम्बन दृश्य को आम बात हो गई है। साढ़े पांच-छह फुट लंबी अभिनेत्री के बदन पर मात्र कुछ इंच के ही वस्त्र होते हैं। दो कदम आगे बढ़ने की होड़ में बलात्कार के दृश्य किसी सी-ग्रेड फिल्म के दृश्य से कम नहीं होते तथा आइटम सांग के नाम पर अभिनेत्री द्वारा इंचों के हिसाब से डाले वस्त्रों में से भी कैमरा झांक जाता है। पिछले दशक खलनायक फिल्म में संजय दा-माधुरी दीक्षित पर दर्शाया गीत 'चोली केञ् पीछे क्या है'ने हंगामा-सा मचा दिया था, लेकिन 21 सदीं के प्रथम दशक में तो अभिनेत्री करीना कपूर द्वारा फिल्म में 'टच-मी, टच-मी.... जरा-जरा टच मी, टच-मी'गीत के फिल्मांकन ने नारी देह को एक प्रदर्शित वस्तु के साथ-साथ उपभोग की वस्तु भी बनाकर रख दिया। धन पिपासु अभिनेत्रियों ने पुरुष की नारी देह के प्रति आकर्षण को धन से तोलना आरंभ कर देह का खुला प्रदर्शन शुरू कर दिया।

पुरुष की नारी देह के प्रति दिवानगी को भांपते हुए फिल्म निर्माताओं द्वारा धन पिपासु अभिनेत्रियों से देह का खुला प्रदर्शन करवाना शुरू कर दिया है। क्या औरत का, बदन से ज्यादा वतन नहीं? अभिनय के दम पर वर्षों की मेहनत से जो मुकाम एक अभिनेत्री बनाती है, उसे देह प्रदर्शन के शॉर्टकट से कुछ अभिनेत्रियां कुछ ही समय में प्राप्त कर लेती हैं, भले ही वह सफलता अस्थाई व अल्पकालीक ही क्यों न हो।      

अघोषित आपातकाल के साए में नया साल!

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मुरेश कुमार


सन् 2014 मीडिया को नए ढंग से परिभाषित करने का वर्ष रहा है। ये भी कहा जा सकता है कि वह उसी दिशा में एक क़दम आगे और बढ़ा है जिसमें उसकी यात्रा नवउदारवादी दौर में चल रही थी और ये भी सच है कि ये मीडिया के असली चरित्र से परदा उठने का साल रहा है। उसका ढाँचा, उसके उद्देश्य, उसके निर्माता, निर्देशक और उसके लाभार्थियों, सबके चेहरे पिछले 365 दिनों में मानो बेनकाब हो गए। वह किसका स्वार्थ साधक है, उसके सरोकार क्या हैं, लोकतंत्र के प्रति उसका रवैया क्या है और वह किस दिशा में जा रहा है, इन सबको लेकर किसी तरह की ग़लतफ़हमियों के लिए कोई गुंज़ाइश बीते वर्ष ने नहीं छोड़ी है। वे प्रवृत्तियाँ जो उसके अंदर उसके जन्मकाल से ही विद्यमान थीं, लेकिन दबी-छिपी होने की वजह से भ्रम पैदा करती थीं, इस परिवर्तनकारी वर्ष में ख़त्म हो गई हैं। ये सचमुच सच का सामना करने का समय है। उस कड़वे सच का जो हमें यथार्थ की ज़मीन पर निर्ममता से पटककर कह रहा है कि भ्रमों की भूल-भुलैया से निकलो, मुख्यधारा के मीडिया द्वारा गढ़ी जा रही भ्रांतियों में मत फँसो, मृग मारीचिकाओं का पीछा मत करो और नए विकल्प खोजो। ये मीडिया न तो लोकतंत्र का हितैषी है और न ही जनहितकारी है। ये कार्पोरेट का दलाल है, मार्केट का एजेंट है। ये फासीवादी बनने को उद्धत है, निरंकुशता का पुजारी है, व्यक्तिवाद का महिमामंडन करता है, समाज को गुमराह करता है।
बीते वर्ष की सबसे महत्वपूर्ण घटना ज़ाहिर है कि आम चुनाव में विजय हासिल करके नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार का सत्तारोहण और फिर उसके बाद बदला हुआ राजनीतिक परिदृश्य रही। समूचा मीडिया सब कुछ भूलकर इसी एक घटना के इर्द-गिर्द परिक्रमा करता रहा। पत्रकारीय विवेक को परे रखकर उसने वही किया जो मोदी और उनकी सेना ने चाहा। परोक्ष रूप से उसने मार्केट के द्वारा प्रोजेक्ट किए गए नेता को सत्तारूढ़ करवाने में अपना भरपूर योगदान दिया। पहली बार लोगों ने कार्पोरेट जगत के द्वारा संचालित मीडिया की भूमिका को करीब से जाना-पहचाना। सबने महसूस किया कि मीडिया की निष्ठा किसके प्रति है और वह उसे सिद्ध करने के लिए कितना निर्लज्ज हो सकता है। उसने नवउदारवादी एजेंडा को अपना एजेंडा बना लिया और वही सब करने लगा जो उद्योग एवं व्यापार जगत चाहता था और जिसके लिए उसने मोदी को अपना प्रतिनिधि के रूप में पेश किया था। माहौल बेशक़ मनमोहन-सोनिया की सरकार के विरूद्ध था, लेकिन उसके प्रति घृणा का वातावरण बनाने और मोदी एंड कंपनी को एकमात्र विकल्प के रूप में पेश करने का काम उसी ने किया। इसके लिए उसने बहुत सारे तथ्यों को छिपाया, बहुतों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया और कई मिथ गढ़े। मार्केटिंग के ज़रिए गढ़े गए तमाशों को उसने इस तरह पेश किया मानो भारत में नए युग का सूत्रपात हो गया हो और अब रामराज बस आने वाला है। उसने आलोचनात्मक दृष्टि को छोड़ दिया और प्रशंसात्मक शैली को अपनाते हुए अपने और अपने आकाओं के उद्देश्यों में खुद को झोंक दिया। सबसे ख़तरनाक़ बात तो ये थी कि उसने उन फासीवादी शक्तियों से सीधी मुठभेड़ करने से कन्नी काट ली जो लोकतंत्र को पटरी से उतारने, बहुसंख्यकवाद को स्थापित करने और भय तथा आतंक के वातावरण के स्रजन में प्राणपण से जुटा हुआ था। सांप्रदायिक सद्भाव की आड़ में वह विवादों और विद्वेष को हवा देता रहा। मीडिया के एक छोटे से हिस्से को छोड़कर मोदीकाल के छह महीनों में कम से कम एक दर्ज़न ऐसे मुद्दे उठे हैं जिन्हें सीधे-सीधे सरकार के संरक्षण में, उसके इशारे से हवा दी गई। प्रधानमंत्री की खामोशी, साध्वी निरंजन ज्योति, साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ और इन सबके महागुरू अमित शाह जैसे कुख्यात लोगों को छोड़ दें, मंत्रिमंडल के सदस्यों और बीजेपी के नेताओं ने भड़काऊ बयानों की जैसी फसल काटी है, वह स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में अभूतपूर्व रही है। लेकिन क्या मीडिया ने इसे इस रूप में देखा और दिखाया। नहीं, वह ऐसा करने में नाकाम रहा और इसकी वजह पत्रकारों की कमअक्ली नहीं सरकार और प्रबंधन का दबाव रहा है। कहने का मतलब ये है कि चुनाव के ज़रिए सन् 2014 मुख्य धारा के मीडिया के चरित्र में आए लगभग स्थायी बदलाव का साल रहा है। यानी आप चाहें तो बेहिचक कह सकते हैं कि मीडिया अब पूरी तरह जनता की नहीं, मालिकों, कार्पोरेट जगत और सत्ताधारियों की आवाज़ बन चुका है। कार्पोरेट के कसते शिकंजे का ही परिणाम था नेटवर्क 18 का मुकेश अंबानी द्वारा अधिग्रहण और राजदीप सरदेसाई तथा सागोरिका घोष की वहाँ से अचानक विदाई। कुछ और बड़े मीडिया समूहों में कार्पोरेट हिस्सेदारी में इज़ाफ़ा हुआ, जिसका मतलब है उनका नियंत्रण बढ़ना। ज़ी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा और उद्योगपति नवीन जिंदल का टकराव भी इसी का एक नमूना था। मुकेश अंबानी का मीडिया साम्राज्य बढ़ता जा रहा है और वह दिन भी दूर नहीं जब हम उनका एकाधिकार देखेंगे। कुछ लोग इसे कंसोलिडेशन का नाम दे रहे हैं यानी अब धीरे-धीरे मगरमच्छ छोटी मछलियों को निगल जाएंगे और उन्हीं का साम्राज्य कायम हो जाएगा। निश्चय ही अधिग्रहण और विलय की ये प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, बिना किसी ठोस तैयारी और बड़े खज़ाने के चलने वाले चैनलों की शामत आने वाली है। हालाँकि विरोधाभास ये भी है कि चैनलों की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा होता जा रहा है। मंत्रालय की सूची के मुताबिक भारत में इस समय 821 चैनल हैं जिनमें से 407 तो न्यूज़ के ही हैं। पत्र-पत्रिकाओं की संख्या भी पचान्नवे हज़ार के आसपास जा पहुँची है।
बहरहाल, मीडिया के इस कारोबारीकरण ने पत्रकारिता और पत्रकारों की साख को पूरी तरह से पलीता लगा दिया। बहुत सारे पत्रकार इस साल फिसलते नज़र आए। यही वजह थी कि मोदी ने उन्हें न्यूज़ ट्रेडर के तमगे से नवाज़ने की हिम्मत जुटा ली और वे बेशर्मी से खिखियाते रह गए। अब बड़े पत्रकारों को या तो कार्पोरेट हितों का प्रतिनिधि माना जाता है या फिर उन्हें दलालों की तरह देखा जाने लगा है। कुछ पत्रकार तो वाकई में फिक्की और सीआईआई के नौकर हो गए। बहुत सारे पत्रकार इस साल विभिन्न दलों के बाकायदा सदस्य भी बने। एम जे अकबर जैसे लोग प्रवक्ता बनने तक से नहीं शर्माए तो हरिवंश नीतीश कुमार के प्रति अपनी निष्ठाओं का पुरस्कार राज्यसभा की सदस्यता के रूप में प्राप्त करके उपकृत हुए। कई नामचीन पत्रकारों की विशाल संपत्ति के चर्चे मीडिया में प्रमाण सहित सामने आए। ज़ाहिर है ये पत्रकारीय हुनर से तो नहीं ही इकट्ठी की गई होगी। मीडिया संस्थानों ने भी धन उगाही के लिए भयादोहन आदि के तरीकों को और तरज़ीह दी। पेड न्यूज़, क्रास प्रमोशन आदि हथकंडों का चलन और बढ़ गया।
मीडिया में सुधार की आवाज़ें इस साल एकदम से बिला गईं। सेल्फ रेगुलेशन के पैरोकारों को या तो अपनी सीमाओं अथवा मिथ्या धारणाओं का एहसास हो गया या फिर वे भी कार्पोरेट की बारात में शामिल हो गए। मीडिया के शैशवास्था में होने की उनकी दलील कितनी खोखली थी ये भी साफ़ ज़ाहिर हो गया। इलेक्ट्रानिक मीडिया बच्चा नहीं है और अगर है भी तो ऐसा शैतान बच्चा है, जिसे अपने स्वार्थ सिद्ध करने के सारे गुर आते हैं। वह झूठ बोलता है, धोखा देता है, डराता-धमकाता है और अपने भोलेपन की आड़ में बहुत कुछ ऐसा करता है जिसकी किसी बच्चे से अपेक्षा नहीं की जा सकती। वैसे ये कहना ज़्यादा सही होगा कि उस बच्चे को शातिर दिमाग चला रहे हैं। बड़बोले मार्कंडेय काटजू दूसरे कार्यकाल के चक्कर में मीडिया को दुरूस्त करने की बात भूल गए और न्याय व्यवस्था और राजनीतिज्ञों को पाठ पढ़ाने में लग गए। नई सरकार ने सरकारी मीडिया को पूरी तरह से टेक ओवर कर लिया। सरकारी नियंत्रण में चलने वाले तमाम मीडिया संस्थान यानी प्रसार भारती से लेकर लोकसभा, राज्यसभा टीवी तक सब मोदी के गुणगान करने लगे। वहाँ तमाम नियुक्तियाँ संघनिष्ठा के आधार पर की जा रही हैं इसलिए ज़ाहिर है कि उन्हें किस काम के लिए तैयार किया जा रहा होगा। निजी चैनलों को तो मोदी और उनके कारकूनों ने पहले से ही कस दिया था इसलिए उनकी तरफ से कोई विरोध न होना था न हुआ। दरअसल, मीडिया को झुकाने की कोशिश की गई थी लेकिन अब उनके चरणों में लोट रहा है। पत्रकार मोदी के दरबार में हाज़िरी लगाने और उनके साथ सेल्फी के लिए मरे जा रहे हैं।
यही है इस साल की सबसे महत्वपूर्ण प्रवृत्ति कि मीडिया के संघीकरण हो गया है और उसी का नतीजा है कि धर्म तथा जाति का महत्व बढ़ गया है (याद करें राजदीप सरदेसाई का जीएसबी प्रसंग)। सवर्ण हिंदू जातियाँ अब ठस्से से मीडिया के एजेंडे को सेट कर रही हैं, जिससे उसका धर्मनिरपेक्ष चरित्र तो ध्वस्त हो ही रहा है, वह ऐसी राजनीति का भी हमसफर बन गया है जो खुले आम फासीवाद की वकालत करता है। इस्लामी आतंकवाद की इकहरी व्याख्या करके वे एक धर्म विशेष के प्रति ऩफरत का लावा उगलते रहते हैं। लव जिहाद, गोडसे का महिमामंडन, धर्मांतरण, गो-रक्षा आदि वे सारे मुद्दे प्रमुखता से मीडिया में छा गए हैं जो विद्वेष को बढ़ाते हैं। मीडिया इस तरह के अभियान चलाने वालों को खुली बहस का नाम देकर मंच मुहैया करवा रहा है। वे मीडिया का इस्तेमाल करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को अंजाम दे रहे हैं।
पत्रकारिता के चरित्र में एक बदलाव ये देखने में आया कि उसमें रिपोर्टिंग का तत्व कमतर होता चला गया। न्यूज़ एजेंसी एनएऩआई सारे चैनलों का सबसे बड़ा ज़रिया बन गई। उसी की ख़बरें सारे चैनलों पर छा गईं। वही लाइव उपलब्ध करवाने लगा और यहां तक कि नरेंद्र मोदी ने उसे लंबा इंटरव्यू दिया जो सभी चैनलों ने बढ़-चढ़कर दिखाया। इससे विविधता का विकल्प ख़त्म हो गया। रही-सही कसर राजनीतिक दलों, ख़ास तौर पर बीजेपी द्वारा मुफ़्त में फीड उपलब्ध कराए जाने से पूरी हो गई। मोदी की सेना ने सभी दलों को एक ही तरह की लाइव सुविधा प्रदान कर दी, जिससे उनके संसाधन तो बच गए मगर उन्होंने खुद को इस्तेमाल होने के लिए भी प्रस्तुत कर दिया। धन बचाने की प्रवृत्ति मीडिया में इस तरह हावी हो गई कि प्रमुख घटनाओं के कवरेज के लिए भी मीडिया घरानों ने संवाददाताओं को नहीं भेजा और एजंसियों से मिलने वाली सामग्री को ही सजा-सँवारकर दिखाया। यही वजह है कि छोटे-मोटे स्टिंग ऑपरेशन के अलावा इस वर्ष मीडिया ने बड़ी स्टोरी ब्रेक नहीं कीं। ले-देकर एक वेद प्रताब वैदिक द्वारा हाफ़िज़ सईद का हल्का-फुल्का इंटरव्यू उसकी उपलब्धि कही जा सकती है। बाक़ी तो वे इधर-उधर से मिलने वाली ख़बरों का पीछा ही करते रहे। ख़ास तौर पर व्यापार एवं उद्योग जगत के काले कारनामों को उजागर करने के मामले में तो उन्होंने ज़ुबान सिलकर रखी। ये मीडिया में रिपोर्टिंग की हत्या का भी साल रहा। हालाँकि ये दुनिया भर में हो रहा है और आप कह सकते हैं कि नवउदारवादी मीडिया की पॉलिटिकल इकॉनामी का ही हिस्सा है। केवल इंडियन एक्सप्रेस और हिंदू ही दो ऐसे मीडिया संस्थान रहे जिन्होंने काफी हद तक मीडिया की नाक बचाए रखी। टीवी चैनल अपनी वीरता का परिचय अपने गले से देते रहे।
सन् 2014 को सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और उसके आतंक दोनों ही चीज़ों के लिए याद रखा जाएगा। राजनीतिक दलों, ख़ास तौर पर मोदी के मीडिया मैनेजरों ने तो उसका जमकर इस्तेमाल ही नहीं किया बल्कि उसे रणभूमि में भी तब्दील कर दिया। मोदी की सेना ने जैसा गंद सोशल मीडिया में मचाया उससे उस मीडिया की उपयोगिता और सार्थकता ही संदिग्ध हो गई। उसने सामान्य शिष्टाचार का ही उल्लंघन नहीं किया बल्कि अपनी घृणा, विद्वेष और हिंसक व्यवहार से संवाद के वातावरण को दूषित कर दिया। लेकिन डिजिटल का दूसरा पक्ष ये भी है कि इलेक्ट्रानिक तथा प्रिंट मीडिया के लिए वह समाचारों का एक बड़ा स्रोत बन गया है। अब बहुत सारी ख़बरें ट्वीटर, फेसबुक आदि से ही पैदा हो रही हैं। पश्चिम में तो पत्र-पत्रिकाओं के दुर्दिन ही डिजिटल मीडिया की वजह से आ रहे हैं और वहाँ उसी का बोलबाला बढ़ रहा है। ताज़ ख़बर ये है कि ब्रिटेन में कुल विज्ञापन राजस्व का आधे से ज़्यादा डिजिटल मीडिया को जा रहा है। ये ट्रेंड देर अबेर भारत में भी आएगा। इसी के मद्देनज़र बड़े मीडिया घरानों ने डिजिटल मीडिया में निवेश बढ़ा दिया है और वे इस पर अधिक ध्यान भी केंद्रित करने लगे हैं।
ये साल मीडिया के आर्थिक संकट और पत्रकारों की छँटनी के लिए भी जाना जाएगा। इस साल कई छोटे-बड़े चैनलों के बंद होने की ख़बरें आईँ तो, कई बड़े नेटवर्क में बड़े स्तर पर छँटनियाँ भी हुईँ। इसमें नेटवर्क-18 अगुआ रहा। ख़बर भारती, पी7, भास्कर न्यूज़, 4रीयल न्यूज. आदि के बंद होने से बड़ी संख्या में पत्रकार बेरोज़गार हुए। इनमें से ज़्यादातर चैनल चिट फंड कंपनियों द्वारा चलाए जा रहे थे और जब उनकी मातृकंपनियाँ धोखाधड़ी के आरोपों में फँस गईं तो ऐसा होना लाजिमी हो गया। प्रिंट मीडिया में भी हालात कुछ बेहतर नहीं रहे। वहाँ से भी एकमुश्त छँटनी के समाचार पूरे साल सुनाई पड़ते रहे। आउटलुक समूह की कई पत्रिकाओं के बंद होने का मामला तो राष्ट्रीय मीडिया में बेहद उछला मगर क्षेत्रीय अख़बारों में हुआ कत्ले आम वहीं दबा रह गया। तमाम तरह की बहानेबाज़ियों तथा तिकड़मों के ज़रिए मजीठिया आयोग की सिफारिशें मानने से इंकार करने वाले अख़बारों को अंतत सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के सामने घुटने टेकने पड़े, लेकिन इसके बावज़ूद उन्होंने उन्हें लागू करने में बहुत तरह के घालमेल किए। अभी भी इसे लेकर कर्मचारियों में गहरा असंतोष है।
अगर कंटेंट के स्तर पर देखें तो वही सनसनी और मनोरंजनवाद हावी रहा। हालाँकि निर्मल बाबा लौट आया और कुछ नए बाबा भी कुंडली मारकर बैठ गए मगर पिछले दो साल में चुनावों की भरमार होने की वजह से मीडिया बेशक भूत-प्रेत और चमत्कार आदि छोड़कर राजनीति की तरफ लौट आया, लेकिन उसे प्रस्तुत करने का तौर तरीका सतही और अगंभीर था। ज़ाहिर है जब मक़सद टीआरपी जुटाना या प्रसार संख्या बढ़ाना हो जाए तो कंटेंट का ट्रीटमेंट, पैकेजिंग और प्रेजेंटेशन वही रहता है, उसमें कोई बदलाव नहीं आता। टेलीविज़न पर होने वाली बहसें भी इसी का शिकार रहीं। वे माहौल में उत्तेजना घोलने से ज़्यादा योगदान नहीं दे सकीं। दूससंचार नियामक प्राधिकरण यानी ट्राई विज्ञापनों की अवधि 12 मिनट तक सीमित करने का निर्देश देने के बावजूद दर्शकों को किसी तरह की राहत देने में नाकाम रहा। वैसे ट्राई दूसरे मोर्चों पर भी कुछ नहीं कर पाया। मसलन, क्रॉस मीडिया ऑनरशिप के सवाल पर उसकी सिफ़ारिशें धूल खा रही हैं। मीडिया के स्वामित्व में पारदर्शिता लाने उसे संपादकीय सामग्री पर प्रभाव डालने से रोकने के लिए दी गई रिपोर्ट भी ठंडे बस्ते में डाल दी गई है। इसके पहले सैम पित्रोदा की भी रिपोर्ट का भी यही हश्र हुआ था। ज़ाहिर है कि सत्तातंत्र और मीडिया घरानों के बीच साठ-गाँठ का मामला है, जो मीडिया मे सुधार को होने ही नहीं देता। इसी तरह केबल डिस्ट्रीब्यूशन के डिजिटाइशन से टीवी चैनलों द्वारा जो उम्मीदें बाँधी गई थी वे भी बेकार साबित हुईं। केबल से वितरण के खर्च में बीस-तीस फ़ीसदी की कमी ज़रूर आई, लेकिन डीटीएच की लुटाई ने उन्हें वहीं ले जाकर खड़ा कर दिया। ये खर्च ही चैनलों का सबसे बड़ा संकट साबित हो रहा है क्योंकि कुल खर्च का ये पचास-साठ फ़ीसदी तक होता है।
सवाल उठता है कि नए वर्ष के लिए 2014 सबसे बड़ा संदेश क्या छोड़कर जा रहा है? वह कौन सी प्रवृत्ति है जो अवाँछित होते हुए भी उस पर हावी रहेगी? अगर संक्षेप में इसका जवाब देना हो तो कहा जा सकता है कि वे हैं तरह-तरह के भय और आतंक। ये भय पत्रकारों के जीवन में अस्थिरता और अनिश्चतता से लेकर सत्तातंत्र एवं उसके सहयोगी संघ परिवारियों तक के हैं। उद्योग-व्यापार जगत, पुलिस, सेना, नौकरशाही अब सबके सब उन लोगों की सेवा में हैं जो इस लोकतांत्रिक देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए कृत संकल्प हैं और इस हाथ आए मौके को चूकना नहीं चाहते। ऐसे में डेमोक्रेसी क्या और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या। उन्हें स्वेच्छाचारी, निरंकुश सत्ता अपने बूटों तले रौंदने के लिए तैयार बैठी है। इसने एक आतंक का स्रजन किया है। इसीलिए बहुत से लोग या तो पाला बदलकर सत्ताप्रतिष्ठान के साथ हो गए हैं या फिर अब खामोश रहकर सलामती की दुआएँ कर रहे हैं। ये एक अघोषित आपातकाल की सी स्थिति है। इस अघोषित आपातकाल का मीडिया कैसा होगा सोचा जा सकता है। ऐसे हालात में चाहता तो बहुत हूँ कि नए साल की शुरूआत में आशावादी रहूँ, मगर क्या करूं। बकौल ग़ालिब-
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती।
वैसे मीडिया के इस अंधकार युग में अगर अब उम्मीद की भी जा सकती है तो उन वैकल्पिक पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल मीडिया पर लगे जुझारूओं से जो तमाम जोखिम उठाकर जी जान से जुटे हुए हैं। पश्चिमी देशों में भी गंभीर पत्रकार यही कर रहे हैं। वे अपने तमंचों से मुख्यधारा के मीडिया की तोपों का मुक़ाबला कर रहे हैं और यकीन मानिए उनकी कोशिश प्रभाव दिखा रही है। क्या पता कल को हमारे देश में भी कोई जुलियन असांज, कोई एडवर्ड स्नोडेन इतना विस्फोटक जुटा ले कि मीडिया के होने का औचित्य लोगों को समझ में आए और उसकी पुनर्प्रतिष्ठा हो सके।
ख़बरों की दुनिया से इतर मनोरंजन चैनलों की अगर सुध ली जाए तो वहाँ ऐसा कोई परिवर्तनकारी चीज़ें नहीं हुईं जिन्हें चिन्हित किया जाए। ज़िंदगी नामक चैनल पर पाकिस्तानी धारावाहिकों और लघु फिल्मों का प्रसारण एक ताज़ा हवा का झोंका ज़रूर लाया मगर बाक़ी के चैनल मनोरंजन के उसी घिसे-पिटे फार्मूलों के इर्द गिर्द अपना कारोबार बुनते रहे। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के धारावाहिकों का एक और दौर आया मगर उनका ट्रीटमेंट या तो सांप्रदायिकता से ओत-प्रोत और पुनरूत्थानवादी रहा या फिर वे साज़िशों की अंतहीन गाथा के रूप में पेश किए गए। हाल में शुरू हुए एपिक चैनल की सामग्री का आकलन करने में अभी समय लगेगा

आर के लक्ष्मण की याद में...

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In memory of RK Laxman
नई दिल्ली: कभी किसी के कमरे के बाहर से तो कभी किसी की बैठक में पीछे से झांकता वो आम आदमी कार्टून के छोटे से बक्से में भी कितना बड़ा था। जिसे रोज़ आर के लक्ष्मण हमारे लिए खींचा करते थे। कभी अपनी मुस्कान से तो कभी बेपरवाही से ऐसे देखना कि जैसे किसी ने देखा ही नहीं तो कभी ऐसे देखना कि सब देख लिया है। आर के लक्ष्मण अब हमारे बीच नहीं हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया उनके बिना कोना बनकर रह जाएगा। बिना लक्ष्मण के कोने से वो अखबार कैसे पूरा लगेगा सोच कर आंखें भर आती हैं।

पुणे के एक अस्पताल से लक्ष्मण के गुज़रने की खबर आई है। कई दिनों से बीमार चल रहे थे। आर के लक्ष्मण एक अंग्रेज़ी अखबार के पन्ने पर हर दिन हिन्दी का आम आदमी बन कर आते थे। आप इसे गैर-अंग्रेज़ी आम आदमी कह सकते हैं जो मराठी तो बोलता है, पंजाबी तो बोलता है मगर अंग्रेज़ी नहीं जानता। सत्ता उसके लिए उस अंग्रेज़ी की तरह है जो बोलते हुए यह समझती है कि कोई नहीं समझ रहा मगर लक्ष्मण का आम आदमी सब सुन कर सब समझ कर वहां से चल देता था।

लक्ष्मण के आम आदमी के देखने पर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। बल्कि लिखी ही गई होगी। सत्ता को बाहर से सामान्य और तटस्थ भाव से देखना लक्ष्मण ने सिखाया। इन दिनों हम सत्ता को सत्ता के जैसा होकर देखने लगे हैं। लक्ष्मण का आम आदमी सत्ता से दूरी बनाए रखने का संकेत था। इससे दूरी बरतनी चाहिए। इसके हर काम को एक आदमी की निगाह से देखा जाना चाहिए। इसलिए लक्ष्मण का आम आदमी झांक कर देखता था। झांकना एक ऐसी क्रिया है जिसके पता होने का अहसास उस जगह या व्यक्ति को नहीं होता जहां कोई निगाह बाहर से भीतर से आ रही होती है।

किसी से बच कर, बचाकर सबकुछ देख लेना ही झांकना है। लक्ष्मण का आम आदमी इस हैरत से झांकता था जैसे जो नहीं देखनी चाहिए थी वो भी उसने देख लिया है। जनता ने सब जान लिया है, बस सत्तानशीनों को ही खबर नहीं है। लक्ष्मण ने हमें इस लोकतंत्र में झांकना सिखाया है।

आर के लक्ष्मण हर दिन सत्ता के लिए एक नई लक्ष्मण रेखा खींचते थे। वे याद दिलाते थे कि आपने जो वादा किया है उसकी लक्ष्मण रेखा कहां खत्म होती है। कहीं आप उसके पार तो नहीं जा रहे हैं। एक ऐसी खामोश आवाज़ जो बोलने वाले नेताओं से भी ज्यादा बोलती थी। जो उनकी खामोश पलों की साज़िशों में भी बोल पड़ती थी। आम आदमी को राम या देवता तो सब कहते थे मगर अपने राम की ज़िंदगीभर किसी ने खिदमत की तो सिर्फ लक्ष्मण ने।

लक्ष्मण की वफ़ादारी और ज़िम्मेदारी सिर्फ वो आम आदमी ही रहा जो उनके राम थे। आपके कार्टून सिर्फ मील के पत्थर नहीं हैं। बल्कि सत्ता की ज़मीर के वो पत्थर हैं जिनसे टकराये बिना कोई नहीं बच सकता। लक्ष्मण साहब आपके कार्टून हमारे जज़्बात हैं। हम याद रखेंगे आपको।
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