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मीडिया और हिस्पैनिक दर्शकों के साथ

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प्रकाशन और विज्ञापनों के लिए ओह बढ़ रहा हिस्पैनिक दर्शकों के साथ

अमेरिका अब स्पेनिश बोलने वालों की दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी संख्या है।इन दर्शकों पर ध्यान बढ़ रहा जिम Conaghan वे कुल आबादी की तुलना में एक उच्च दर पर पड़ोस के खबर का उपभोग खासकर के रूप में लिखते हैं, और ऑनलाइन विपणक और समाचार पत्रों के प्रिंट में उन लोगों के साथ कनेक्ट करने के लिए अवसरों का एक झुंड को खोलता है।
द्वारा
NetNewsCheck,
आबादी में जनसांख्यिकीय परिवर्तन बाजार और मीडिया के उद्यमों के लिए दोनों चुनौतियों और अवसरों का सृजन।स्पेनिश कि बड़ी और बढ़ती समूह पर भी अधिक ध्यान केन्द्रित करेंगे जो बात उन पर एक ताजा रिपोर्ट में।
रिपोर्टसे जून में प्रकाशितInstituto Cervantes, एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर का पता चला: संयुक्त राज्य अमेरिका अब दुनिया में स्पेनिश बोलने वालों का दूसरा सबसे बड़ा समूह है।मेक्सिको को छोड़कर लैटिन अमेरिका में किसी भी अन्य स्पेनिश बोलने वाले देश की तुलना में अधिक है, स्पेन से अधिक, संयुक्त राज्य अमेरिका में स्पेनिश बोलने वाले 52 लाख लोग हैं।रिपोर्ट में यह भी स्पेनिश भाषा का अध्ययन लगभग 8 लाख अमेरिकियों को देखते हैं उल्लेख किया।
स्टोरी विज्ञापन के बाद भी जारी
कुल में एक प्रभावशाली संख्या है, जबकि जनगणना ब्यूरो से हिस्पैनिक जनसंख्या पर डेटा है कि समूह का भौगोलिक वितरण में महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत है।मेन और वरमोंट की आबादी में से कम से कम 2% हिस्पैनिक मूल के हैं, जबकि उदाहरण के लिए, अनुपात न्यू मैक्सिको के लिए भारी रहे हैं - 10 में चार हिस्पैनिक हैं जहां और कैलिफोर्निया, - लगभग आधा है।
स्थान के अलावा, हिस्पैनिक बाज़ार पर विश्लेषण करने का एक तरीका उपभोक्ता व्यवहार और दृष्टिकोण है। पर देख रहा हैआईआरआई से अनुसंधानतीन हिस्पैनिक समूहों को अलग, एक बाजार खुफिया और विश्लेषण फर्म।Acculturated हिस्पैनिक्स अमेरिकी संस्कृति में आत्मसात कर रहे हैं, डिजिटल जानकार हैं और उच्च आय है।दोहरी संस्कृति हिस्पैनिक्स स्पेनिश और अंग्रेजी दोनों में मीडिया की भारी उपभोक्ताओं को और अधिक बारीकी से हिस्पैनिक परंपराओं का पालन करते हैं और कर रहे हैं।Unacculturated हिस्पैनिक्स क्रय निर्णय लेने के लिए अंग्रेजी में कम आराम और स्पेनिश भाषा के मीडिया पर अधिक निर्भर हैं।
हिस्पैनिक खबर पाठकों और सभी आयामों के उपभोक्ताओं, प्रिंट और ऑनलाइन दोनों की सेवा करने के लिए विपणक अखबार मीडिया उद्यमों के साथ कनेक्ट करने के लिए कारणों में से बहुत सारे हैं।
हिस्पैनिक प्रकाशन के राष्ट्रीय संघलेखा परीक्षित हिस्पैनिक अखबारों और पत्रिकाओं का प्रचलन अधिक 15.8 मिलियन प्रतियां पर, 2013 के माध्यम से 2005 से तीन गुना कि बाहर बताया।इसके अलावा, हिस्पैनिक प्रकाशनों विज्ञापन में अधिक $ 1 अरब हर साल पिछले एक दशक से हुई हैं।हिस्पैनिक विशेष प्रकाशनों, परे, अखबार मीडिया उद्यमों के साथ हिस्पैनिक सगाई दर्शाताजन्मस्थान में मतभेदऔर भी गैर हिस्पैनिक आबादी के चिंतनशील उम्र मतभेद।
ब्रांड कनेक्शन
अखबार डिजिटल सामग्री का उपयोग करने के लिए मोबाइल उपकरणों के उपयोग के लिए अच्छा उदाहरण है।अमेरिका में पैदा हुआ हिस्पैनिक वयस्कों के अनुसार, कुल मिलाकर वयस्क हिस्पैनिक आबादी की तुलना में पिछले एक महीने में अखबार डिजिटल सामग्री के लिए एक मोबाइल डिवाइस का इस्तेमाल किया है करने के लिए 23% अधिक संभावना हैनीलसन स्कारबोरोडेटा।इसी तरह, अंग्रेजी बोलने के लिए पसंद करते हैं, जो हिस्पैनिक्स अखबार डिजिटल सामग्री के लिए एक मोबाइल डिवाइस का इस्तेमाल किया है करने के लिए 24% से अधिक होने की संभावना है।
और हिस्पैनिक सहस्त्राब्दी, ज्यादा अन्य पृष्ठभूमि के सहस्त्राब्दी की तरह, मोबाइल उपकरणों के लिए एक महत्वपूर्ण स्नेह है।कुल मिलाकर, हिस्पैनिक सहस्त्राब्दी 25% अधिक समग्र वयस्क हिस्पैनिक आबादी की तुलना में अखबार सामग्री के लिए मोबाइल का उपयोग करने की संभावना है, और अमेरिका में पैदा हुआ हिस्पैनिक सहस्त्राब्दी के लिए, कि यह आंकड़ा मोबाइल का उपयोग करने के लिए और अधिक होने की संभावना 34% तक बढ़ जाता है।
एक में दस्तावेज के रूप मेंयह पिछले वसंत प्यू रिसर्च रिपोर्ट, हिस्पैनिक आबादी कुल आबादी की तुलना में एक उच्च दर पर स्थानीय और पड़ोस खबर सेवन करती है।स्थानीय हिस्पैनिक समुदाय के अखबार कनेक्शन का एक उदाहरण बुलायाडलास मॉर्निंग समाचार,अल दीयाऔर दक्षिणी मेथोडिस्ट विश्वविद्यालय द्वारा पहले इस साल के शुरू में एक प्रयास है,हिस्पैनिक परिवारों नेटवर्कडलास मॉर्निंग समाचारद्वारा प्रशिक्षित कमरे में घर माताओं इकट्ठा, रिपोर्ट और सामाजिक मीडिया, विशेष रूप से फेसबुक पर जानकारी साझा करने के साथ यह शिक्षा के मुद्दों पर केंद्रित है।
अखबार मीडिया के उद्यमों को भी स्थानीय दर्शकों डिजिटल उत्पादों के साथ पहुंच का विस्तार करने के लिए उनके स्पेनिश भाषा के प्रिंट प्रकाशनों की ब्रांड पहचान लाभ कर रहे हैं।उदाहरण के लिए,बजरा,एक दो बार साप्ताहिक प्रिंट उत्पाद जो प्रकाशितलॉस एंजिल्स टाइम्सने भी दो ऑनलाइन स्पेनिश भाषा के उत्पादों का उत्पादनHoylosangeles.comस्थानीय बाजार के लिए समाचार और जानकारी प्रदान करता है औरhoydesportes.comखेल की दुनिया को शामिल किया गया - स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ।
राष्ट्रपति पद के चुनाव के मौसम में दो की घोषणा हिस्पैनिक मूल के उम्मीदवारों और धाराप्रवाह स्पेनिश बोलती है, जो दूसरे के साथ, शुरू हो जाता है, हिस्पैनिक मतदाताओं के लिए अपील कर चुनावी सफलता के लिए महत्वपूर्ण है कि एक मान्यता है।और नीलसन स्कारबोरो डेटा स्थानीय चुनावों हर हफ्ते प्रिंट या डिजिटल रूप में अखबार मीडिया के साथ लगे हुए हैं में वे हमेशा वोट जो कहते हैं कि हिस्पैनिक्स के 61% दिखा।
से निपटने के चुनाव कवरेज में एक दृष्टिकोण हैस्पेनिश भाषा के मीडिया के साथ साझेदारीवाशिंगटनपोस्ट, Univision, स्पेनिश भाषा प्रसारण टेलीविजन नेटवर्क के साथ काम करने के लिए 2016 के चुनाव को कवर करने के लिए पिछले महीने की योजना की घोषणा की।साझेदारी रिपब्लिकन राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के लिए एक मंच प्रायोजक होगा।
विपणक द्वारा इन और अन्य प्रयासों, सार्वजनिक कार्यालय और मीडिया के उद्यमों के लिए उम्मीदवारों तेजी से बदलते बाजार जनसांख्यिकी के पैमाने प्रदर्शित करता है।
जिम Conaghan, एक नियमित CrowdCheck योगदानकर्ता, अमेरिका के न्यूजपेपर्स एसोसिएशन में अनुसंधान और उद्योग के विश्लेषण के उपाध्यक्ष है।

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टिप्पणियां (2) -

लैरी ग्रिम्स 5 महीने पहले तैनात
बोली अनुसंधान "आत्मसात"पाठकों के साथ-साथ द्विभाषी पाठकों का एक उच्च% "पारंपरिक अंग्रेजी भाषा"मीडिया से उनके मुख्य समाचार और फीचर सामग्री प्राप्त करने के preee संकेत मिलता है कि मैंने देखा है कि oher सांस्कृतिक अध्ययन खंडन करने के लिए लगता है।वे कई निश्चित रूप से उनके पारिवारिक मूल करने के लिए मजबूत संबंधों रखने हालांकि अमेरिका संस्कृति में डूबे होने के लिए पसंद करते हैं।इसके अलावा, मुख्य रूप से स्पेनिश बोलने auidences सेवारत उन स्थानीय समाचार पत्र, एक बहुत कम, कम समृद्ध पाठक को तिरछा करने के लिए करते हैं;बाजार में खुदरा विक्रेताओं और servie प्रदाताओं का एक बड़ा प्रतिशत के लिए एक प्राथमिक लक्ष्य नहीं है कि एक पाठक।

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Saturday, 14 June 2014


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मशहूर कथाकार शैवाल से एक मुलाकात

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समाज और संस्कृतिA-A+

‘मैं खुद को क्रिएटिव बनाए रखने के लिए काम करता हूं, मुंबई के लिए नहीं’

शैवाल हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं. उनकी ‘कालसूत्र’ कहानी पर चर्चित फिल्म ‘दामुल’ का निर्माण हुआ. उन्होंने इस फिल्म के लिए कथा, पटकथा और संवाद लिखे. इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार स्वर्ण कमल मिला. प्रसिद्घ फिल्म निर्देशक प्रकाश झा ने दामुल के बाद उनसे मृत्यदंड फिल्म की पटकथा लिखवाई. उन्हाेंने नई फिल्म ‘दास कैपिटल’ के लिए कथा, पटकथा और संवाद लिखे हैं. हाल ही में आई फिल्म ‘मांझी- द माउंटेनमैन’ में वे संवाद सलाहकार हैं. उनसे निराला की बातचीत
निराला
September 10, 2015
18-web आप विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं, ऐसे में लेखन की प्रेरणा कहां से मिली?हम लोग मूल रूप से बिहार के ‘बाढ़’ कस्बे के रहने वाले हैं. वहीं पढ़ाई-लिखाई हुई. मेरे पिताजी राजकमल चौधरी (प्रसिद्ध मैथिल और हिंदी लेखक) के पिता के साथ शिक्षक थे. बिहार के एक उपन्यासकार अनूप लाल मंडल के साथ भी उन्होंने काम किया. पिताजी भी लिखते थे. इसका असर मुझ पर और मेरे बड़े भाई पर भी पड़ा. आठवीं क्लास से मैं भी बाल कविताएं लिखने लगा. बाल भारती आदि में कविताएं छपने लगीं. मैट्रिक पास किया तो बड़ों के लिए कविताएं लिखने लगा. फिर इंटर पास करने के बाद मैं और बड़े भाई मिलकर ‘कथाबोध’ नाम की पत्रिका निकालने लगे. शे.रा. यात्री, नरेंद्र कोहली जैसे लेखकों ने उस वक्त हमारी पत्रिका में लिखा बाकी जो बेहतरीन कहानीकार होते थे, हम लोग उनकी कहानियां छापते थे. जो स्थानीय लेखक थे, जिनकी कहानियां नहीं छपती थीं, उनकी किताबें भी सहयोग के तौर पर छापते थे, इस तरह लेखन से लगाव होता गया.
आप कविताएं लिखते थे लेकिन पहचान कथाकार की है. कथा की दुनिया में कब प्रवेश किया?
जब से कथाबोध पत्रिका निकालने लगा तभी से कहानियों की समझ होने लगी थी. ग्रेजुएशन के पहले साल में मैंने ‘और सीढि़यां टूट गईं…’ शीर्षक से एक कहानी लिखी. वह कहानी ‘रेखा’ पत्रिका में प्रकाशित हुई. उसके बाद ‘अपर्णा’, ‘कात्यायनी’ आदि पत्रिकाओं में कहानियां भेजने लगा. कहानियां तो लिखने लगा लेकिन कविता से न तो सरोकार कम हुआ, न लिखना बंद किया.
यानी कि तब से लगातार लिख रहे हैं!
नहीं. अभी तो लिखना शुरू ही किया था कि दूसरे किस्म की परेशानी सामने आ गईं. हम भाइयों ने जिस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था, वह एक साल बाद बंद हो गई. इस बीच पिताजी की तबियत ज्यादा खराब हुई तब उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया. बड़े भाई की भी तबियत खराब रहने लगी. घर में आर्थिक संकट था. मैंने तब कॉलेज में नया-नया दाखिला लिया था. संकट के उस दौर में मैंने सब छोड़-छाड़कर अर्थोपार्जन की ओर ध्यान लगाया और एक साथ पांच-छह ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया. उससे जो आमदनी होती थी, उससे अपनी पढ़ाई भी करता था और घर की देखरेख भी.
इस तरह लेखन छूट जाने पर एक लंबा गैप रहा. लेखन से एक लंबे समय तक दूरी बनी रही. वह तो जब बीएससी आखिरी साल में पढ़ रहा था तो राजकमल चौधरी का एक पत्र आया, जिसमें लिखा था कि वे बाढ़ आने वाले हैं. नीलम सिनेमा हॉल के मैनेजर को भी बता दीजिएगा कि आने वाला हूं. आप और क्या-क्या लिख रहे हैं, यह भी देखूंगा और यह भी बताइए कि आप लेखन के अलावा और क्या करते हैं? तब मैं क्या जवाब देता कि अब लेखन छोड़कर सब करता हूं. बीएससी के बाद साइंस टीचर के रूप में मेरी नौकरी राजगीर के पास एक गांव में लगी. मुझे बुलाकर ले जाया गया, क्योंकि उस समय साइंस टीचर कम मिलते थे, उनकी बड़ी इज्जत भी होती थी लेकिन उस गांव में सांप्रदायिक तनाव इतना रहता था कि मैं नौकरी छोड़कर चला आया. फिर रिजर्व बैंक फील्ड सर्विस में नौकरी की लेकिन 11 बाद वहां से भी नौकरी छोड़नी पड़ी. बाद में प्रखंड सांख्यिकी पर्यवेक्षक के तौर पर मेरी नौकरी लगी और पटना जिले के बाढ़ को छोड़कर घोसी में नौकरी करने आ गया. वही घोसी इलाका मेरे कथालेखन का गुरु बना और आज भी कथालेखन के क्षेत्र में उसी इलाके को मैं अपना गुरु मानता हूं.
वह इलाका कैसे गुरु हुआ?
वहां जिस पद पर आया था, उसके लिए पूरे इलाके को घूमना जरूरी था. घूमता रहा तो फिर से कथाकार मन जागृत हो गया. मैं हर 15वें दिन एक कहानी लिखकर ‘कहानी’ पत्रिका के संपादक संपत राय को भेजता था. वह मेरी हर कहानी लौटा देते और लिखते कि शैवाल तुम में बड़ी आग है लेकिन इस आग को एक आकार कैसे दिया जाए, फिलहाल मैं नहीं समझ पा रहा इसलिए यह कहानी लौटा रहा हूं. उनके बार-बार लौटाने के बाद भी मैंने लिखना नहीं छोड़ा. उसी क्रम में 1976 में ‘दामुल’ कहानी मैंने भेजी और वह वहां छप गई. घोसी में रहते हुए ही मैंने ‘कहानी’ पत्रिका को कहानी भेजने के साथ ही, ‘रविवार’ पत्रिका मंे ‘गांव’ नाम से कॉलम लिखना शुरू किया. गांव में मेरी एक कहानी ‘अर्थतंत्र’ भी छप चुकी थी, साथ ही धर्मयुग में ‘समुद्रगाथा’ कहानी भी छपी थी.
कविताओं से कहानियों की दुनिया, फिर फिल्म लेखन की प्रेरणा कहां से मिली?
‘रविवार’ में एक पत्रकार अरुण रंजन थे. 1980 के करीब बिहारशरीफ में दंगा हुआ था. सभी पत्रकार बिहारशरीफ जा रहे थे. मैं भी अरुण रंजन के साथ गया. सबने रिपोर्ट वगैरह लिखी, मैंने बिहारशरीफ दंगे पर कुछ छोटी-छोटी कविताएं लिखीं. कविताएं छपीं. तब बिहारशरीफ दंगे पर प्रकाश झा एक डॉक्यूमेंट्री बना रहे थे. उन्होंने मुझे पत्र लिखा कि वे अपनी डॉक्यूमेंट्री में मेरी कविताओं का इस्तेमाल करना चाहते हैं. इस तरह प्रकाश झा से मेरे रिश्ते की शुरुआत हुई. बाद में उनसे खतो-किताबत का रिश्ता बन गया. उन्होंने फिल्म के लिए और कहानियां मांगी, मैंने दे दीं. समुद्रगाथा भेजी, उन्हें पसंद आईं. फिर कालसूत्र कहानी पर बात हुई. ‘दामुल’ की कहानी कालसूत्र नाम से ही प्रकाशित हुई थी. तीन साल तक  ‘दामुल’ पर काम चला और बाद में 1985 में फिल्म आई तो सबने देखा-जाना. उस साल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में उसे सर्वोच्च फिल्म का पुरस्कार भी मिला. उसके बाद ‘सारिका’ में एक कहानी प्रकाशित हुई थी ‘बेबीलोन’, प्रकाशजी उस पर भी फिल्म बनाना चाहते थे, बात भी हुई थी लेकिन किसी वजह से वह रुक गई.
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सोशल नेटवर्किंग के बारे में

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प्रस्तुति- सृष्टि शरण 


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 नयी दिल्ली। भारतीय सेना ना केवल अपने बहादुरी और शौर्य के लिए दुनियाभर में जानी जाती है बल्कि अब उसके साथ एक नया कृतिमान भी जुड़ गया है। अमेरिकी सेना को पछ... SponsoredTubeless Vs Tubetype Tyres!Bridgestone फेसबुक पर अपलोड करें वीडियो और हो जाएं मालामाल फेसबुक पर अपलोड करें वीडियो और हो जाएं मालामाल Friday, July 3, 2015, 23:47 [IST] 
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  • Published in विविध

प्रस्तुति- राजेश सिन्हा 

    क्या मौजूदा वक्त में मीडिया इतना बदल चुका है कि मीडिया पर नकेल कसने के लिये अब सरकारों को आपातकाल लगाने की भी जरुरत नहीं है। यह सवाल इसलिये क्योंकि चालीस साल पहले आपातकाल के वक्त मीडिया जिस तेवर से पत्रकारिता कर रहा था आज उसी तेवर से मीडिया एक बिजनेस मॉडल में बदल चुका है, जहां सरकार के साथ खड़े हुये बगैर मुनाफा बनाया नहीं जा सकता है। और कमाई ना होगी तो मीडिया हाउस अपनी मौत खुद ही मर जायेगा। यानी 1975 वाले दौर की जरुरत नहीं जब इमरजेन्सी लगने पर अखबार के दफ्तर में ब्लैक आउट कर दिया जाये। या संपादकों को सूचना मंत्री सामने बैठाकर बताये कि सरकार के खिलाफ कुछ लिखा तो अखबार बंद हो जायेगा। या फिर पीएम के कसीदे ही गढ़े। अब के हालात और चालीस बरस पहले हालात में कितना अंतर आ गया है।
    यह समझने के लिये 40 बरस पहले जून 1975 में लौटना होगा। आपातकाल लगा तो 25 जून की आधी रात के वक्त लेकिन इसकी पहली आहट 12 जून को तभी सुनायी दे गई जब इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरागांधी के खिलाफ फैसला सुनाया और समाचार एजेंसी पीटीआई ने पूरे फैसले को जस का तस जारी कर दिया। यानी शब्दों और सूचना में ऐसी कोई तब्दिली नही की जिससे इंदिरागांधी के खिलाफ फैसला होने के बाद भी आम जनता खबर पढने के बाद फैसले की व्याख्या सत्ता के अनुकूल करें । हुआ यही कि आल इंडिया रेडियो ने भी समाचार एजेंसी की कापी उठायी और पूरे देश को खबर सुना दी कि, श्रीमति गांधी को जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 [ 7 ] के तहत भ्रष्ट साधन अपनाने के लिये दोषी करार दिया गया । और प्रधानमंत्री को छह वर्षों के लिये मताधिकार से वंचित किया गया। और 600 किलोमीटर दूर बारत की राजधानी नई दिल्ली में इलाहबाद में दिये गये फैसले की खबर एक स्तब्धकारी आघात की तरह पहुंची। इस अविश्वसनीय खबर ने पूरे देश को ही जैसे मथ डाला। एक सफदरजंग मार्ग पर सुरक्षा प्रबंध कस दिये गये। ट्रकों में भरकर दिल्ली पुलिस के सिपाही पहुंचने लगे। दल के नेता और कानूनी विशेषज्ञ इंदिरा के पास पहुंचने लगे। घर के बाहर इंदिरा  के समर्थन में संगठित प्रदर्शन शुरु हो गये। दिल्ली परिवहन की कुल 1400 बसों में से 380 को छोडकर बाकी सभी बसों को भीड़ लाद लाद कर प्रदर्शन के लिये 1, सफदरजंग पहुंचाने पर लगा दिया गया । और यह सारी रिपोर्ट भी समाचार एजेंसी के जरीये जारी की जाने लगी। असल में मीडिया को ऐसे मौके पर कैसे काम करना चाहिये या सत्ता को कैसे काम लेना चाहिये यह सवाल संजय गांधी के जहन में पहली बार उठा।
    और संजय गांधी ने सूचना प्रसारण मंत्री इन्द्र कुमार गुजराल को बुलाकर खूब डपटा कि प्रधानमंत्री के खिलाफ इलाहबाद हाईकोर्ट के पैसले को बताने के तरीके बदले भी तो जा सकते थे। उस वक्त आल इंडिया रेडियो में काम करने वाले न्यूज एडिटर कपिल अग्निहोत्री के मुताबिक वह पहला मौका था जब सत्ता को लगा कि खबरें उसके खिलाफ नही जानी चाहिये। और पहली बार समाचार एजेंसी पीटीआई-यूएनआई को चेताया गया कि बिना जानकारी इस तरह से खबरें जारी नहीं करनी है। और चूंकि तब समाचार एजेंसी टिकी भी सरकारी खर्च पर ही थी तो संजय गांधी ने महसूस किया कि जब समाचार एजेंसी के कुल खर्च का 80 फिसदी रकम सरकारी खजाने से जाती है तो फिर सरकार के खिलाफ खबर को एजेंसियां क्यों जारी करती है । उस वक्त केन्द्र सरकार रेडियो की खबरों के लिये 20 से 22 लाख रुपये समाचार एजेंसी पीटीआई-यूएनआई को देती थी ।
    बाकि समाचार पत्र जो एजेंसी की सेवा लेते वह तीन से पांच हजार से ज्यादा देते नहीं थे। यानी समाचार एजेंसी तब सरकार की बात ना मानती तो एजेंसी के सामने बंद होने का खतरा मंडराने लगता। यह अलग मसला है कि मौजूदा वक्त में सत्तानुकूल हवा खुद ब खुद ही एजेंसी बनाने लगती है क्योंकि एजेंसियों के भीतर इस बात को लेकर ज्यादा प्रतिस्पर्धा होती है कि कौन सरकार या सत्ता के ज्यादा करीब है । लेकिन दिलचस्प यह है आपातकाल लगते ही सबसे पहले आपातकाल का मतलब होता क्या है इसे सबसे पहले किसी ने महसूस किया तो सरकारी रेडियो में काम करने वालों ने ही । और पहली बार आपातकाल लगने के बाद सुबह तो हुई लेकिन मीडिया के लिये 25 जून 1975 की रात के आखरी पहर में ही घना अंधेरा छा गया । असल में उसी रात जेपी यानी जयप्रकाश नारायण को गांधी पीस फाउंडेशन के दफ्तर से गिरफ्तार किया गया और जेपी ने अपनी गिरप्तारी के वक्त मौजूद पत्रकारों से जो शब्द कहे उसे समाचार एंजेसी ने जारी तो कर दिया लेकिन चंद मिनटों में ही जेपी के कही शब्द वाली खबर किल..किल..किल कर जारी कर दी गई । और समूचे आपाकताल के दौर यानी 18 महीनों तक जेपी के शब्दो को किसी ने छापने की हिम्मत नहीं की । और वह शब्द था , “ विनाशकाले विपरीत बुद्दी “ ।
    जेपी ने 25 की रात अपनी गिरफ्तारी के वक्त इंदिरा गांधी को लेकर इस मुहावरे का प्रयोग किया था कि जब विनाश आता है तो दिमाग भी उल्टी दिशा में चलने लगता है । कपिल अग्निहोत्री के मुताबिक वह रात उनके लिये वाकई खास थी । क्योंकि उनका घर रउफ एवेन्यू की सरकारी कालोनी में था। जो गांधी पीस फाउंडेशन के ठीक पीछे की तरफ थी । तो रात का बुलेटिन कर जब वह घर पहुंचे और खाने के बाद पान खाने के लिये मोहन सिंह प्लेस निकले तबतक उनके मोहल्ले में सबकुछ शांत था । लेकिन जब वापस लौटे को बडी तादाद में पुलिस की मौजूदगी देखी । एक पुलिस वाले से पूछा, क्या हुआ है। तो उसने जबाब देने के बदले पूछा, तुम किधर जा रहे है। इसपर जब अपने घर जाने की बातकही तो पुलिस वाले ने कहा देश में इमरजेन्सी लग गई है। जेपी को उठाने आये हैं। और कपिल अग्निहोत्री के मुताबिक उसके बाद तो नींद और नशा दोनों ही फाख्ता हो गये। स्कूटर वापस मोड़ रेडियो पहुंच गये। रात डेढ बडे न्यूज डायरेक्टर भट साहेब को फोन किया तो उन्होने पूछी इतना रात क्या जरुरत हो गई । जब आपातकाल लगने और जेपी की गिरफ्तारी अपनी आंखों से देखने का जिक्र किया तो भट साहेब भी सकते में आ गये। खैर उसके बाद ऊपर से निर्देश या कि सुबह आठ बजे के पहले बुलेटिन में आपातकाल की जानकारी और उस पर नेता, मंत्री , सीएम की प्रतिक्रिया ही जायेगी। इस बीच पीटीआई ने जेपी की गिरफ्तारी की खबर, विनाशकाले विपरित बुद्दी के साथ भेजी जिसे चंद सेकेंड में ही किल किया जा चुका था। तो अब समाचार एंजेसी पर नहीं बल्कि खुद ही सभी की प्रतिक्रिया लेनी थी तो रात से ही हर प्रतिक्रिया लेने के लिये फोन घनघनाने लगे। पहला फोन बूटा सिंह को किया गया। उन्हें जानकारी देकर उनकी प्रतिक्रिया पूछी तो जबाब मिला, तुस्सी खुद ही लिख दो, मैनू सुनाने दी जरुरत नही हैगी। मै मुकरुंगा नहीं। इसी तरह कमोवेश हर सीएम , नेता ने यही कहा कि आप खुद ही लिख दो। कपिल अग्निहोत्री के मुताबिक सिर्फ राजस्थान के सीएम सुखाडिया ने एक अलग बात बोली कि लिख तो आप ही दो लेकिन कड़क लिखना। अब कडक का मतलब आपातकाल में क्या हो सकता है यह कोई ना समझ सका। लेकिन सभी नेता यह कहकर सो गये ।
    और अगली सुबह जब बुलेटिन चला तो पहली बार समाचार एजेंसी के रिपोर्टर आल इंडिया रेडियो पहुंचे। सारे नेताओ का प्रतिक्रिया लिखकर ले गये। और उसी वक्त तय हो गया कि अब देश भर में फैले पीआईबी और आलइंडिया रेडियो ही खबरों का सेंसर करेंगे। यानी पीआईबी हर राज्य की राजधानी में खुद ब खुद खबरों को लेकर दिशा-निर्देश बताने वाला ग्राउंड जीरो बन गया। यानी मौजूदा वक्त में पीआईओ के साथ खड़े होकर जिस तरह पत्रकार खुद को सरकार के साथ खडे होने की प्रतिस्पर्धा करते है वैसे हालात 1975 में नहीं थे। यह जरुर था कि सरकारी विज्ञापनों के लिये डीएवीपी के दप्तर के चक्कर जरुर अखबारो के संपादक लगाते। क्योंकि उस वक्त डीएवीपी का बजट सालाना दो करोड़ रुपये का था। लेकिन अब के हालात में तो विज्ञापन के लिये सरकारों के सामने खबरो को लेकर संपादक नतमस्तक हो जाते हैं क्योंकि हर राज्य के पास हजारो करोड़ के विज्ञापन का बजट होता है।
    इसे एक वक्त हरियाणा के सीएम हुड्डा ने समझा तो बाद में राजस्थान मे वसुधंरा से लेकर बिहार में नीकिश कुमार से लेकर दिल्ली में केजरीवाल तक इसे समझ चुके है। यानी अब खबरो को स्थायी पूंजी की छांव भी चाहिये। लेकिन अब की तुलना में चालिस बरस के कई हालात उल्टे भी थे। मसलन अभी संघ की सोच के करीबियों को रेडियो, दूरदर्शन से लेकर प्रसार भारती और सेंसर बोर्ड से लेकर एफटीआईआई तक में फिट किया जा रहा है तो चालीस साल पहले आपातकाल लगते ही सरकार के भीतर संघ के करीबियों और वामपंथियों की खोज कर उन्हें या तो निकाला जा रहा था या हाशिये पर ढकेला जा रहा था । वामपंथी धारा वाले आंनद स्वरुप वर्मा उसी वक्त रेडियो से निकाले गये। हालांकि उस वक्त उनके साथ साम करने वालो ने आईबी के उन अधिकारियो को समझाया कि रेडियो में कोई भी विचारधारा का व्यक्ति हो उसके विचारधारा का कोई मतलब नहीं है क्योंकि खबरो के लिये पुल बनाये जाते हैं। यानी जो देश की खबरें जायेगी उसके लिये पुल वन, विदेशी खबोर क लिये पुल दू। और जिन खबरों को लेना है जब वह सेंसर होकर पुल में लिखी जा रही है और उससे हटकर कोई दूसरी खबर जा नहीं सकती तो फिर विचारधारा का क्या मतलब। और आनंद स्वरुप वर्मा तो वैसे भी उस वक्त खबरों का अनुवाद करते हैं। क्योंकि पूल में सारी खबरें अंग्रेजी में ही लिखी जातीं। तो अनुवादक किसी भी धारा का हो सवाल तो अच्छे अनुवादक का होता है।
    लेकिन तब अभी की तरह आईबी के अधिकारियों को भी अपनी सफलता दिखानी थी तो दिखायी गई। फिर हर बुलेटिन की शुरुआत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नाम से होनी चाहिये। यानी इंदिरा गांधी ने कहा है। और अगर किसी दिन कही भी कुछ नहीं कहा तो इंदिरा गांधी ने दोहराया है कि..., या फिर इंदिरा गांधी के बीस सूत्री कार्यक्रम में कहा गया है कि.. । यानी  मौजूदा वक्त में जिस तरह नेताओ को सत्ताधारियों को कहने की जरुरत नहीं पडती और उनका नाम ही बिकता है तो खुद ब खुद ही अब तो नेताओं को खुश करने के लिये उनके नाम का डंका न्यूज चैनलों में बजने लगता है। वह चालीस बरस पहले आपाताकाल के दबाब में कहना पड़ रहा था। फिर बडा सच यह भी है कि मौजूदा वक्त में जैसे गुजरात के रिपोर्टरों या पीएम के करीबी पत्रकारों को अपने अपने सस्थानो में जगह मिल रही है चालिस साल पहले आपातकाल के वक्त जेपी के दोलन पर नजर रखने के लिये खासतौर से तब बिहार में चाक चौबंद व्यवस्था की गई। चूंकि रेडियो बुलेटिन ही सबकुछ होता था तो पटना में होने शाम साढे सात बजे के सबसे लोकप्रिय बुलेटिन के लिय़े शम्भूनाथ मिश्रा तो रांची से शाम छह बजकर बीस मिनट पर नया बुलेटिन शुरु करने के लिये मणिकांत वाजपेयी को दिल्ली से भेजा गया। फिर अभी जिस तरह संपादकों को अपने अनुकूल करने केलिये प्रधानमंत्री चाय या भोजन पर बुलाते हैं।
    या फिर दिल्चस्प यह भी है कि चालीस बरस पहले जिस आपातकाल के शिकार अरुण जेटली छात्र नेता के तौर पर हुये वह भी पिछले दिनो बतौर सूचना प्रसारण मंत्री जिस तरह संपादकों से लेकर रिपोर्टर तक को घर बुलाकर अपनी सरकार की सफलता के प्रचार-प्रसार का जिक्र करते रहे। और बैठक से निकलकर कोई संपादक बैठक की बात तो दूर बल्कि देश के मौजूदा हालात पर भी कलम चलाने की हिम्मत नहीं रख पाता है । जबकि आपातकाल लगने के 72 घंटे के भीतर इन्द्र कुमार गुजराल की जगह विघाचरण शुक्ल सूचना प्रसारण बनते ही संपदकों को बुलाते हैं। और दोपहर दो बजे मंत्री महोदय पद संभालते है तो पीआईबी के प्रमुख सूचना अधिकारी डां. ए आर बाजी शाम चार दिल्ली के बडे समाचार पत्रा को संपादकों को बुलावा भेजते है। मुलगांवकर { एक्सप्रेस } ,जार्ज वर्गीज { हिन्दुस्तान टाइम्स },गिरिलाल जैन { स्टेटेसमैन  } , निहालसिंह {स्टेटसमैन }  और विश्वनाथ { पेट्रियाट  } पहुंचते हैं।
    बैठक शुरु होते ही मंत्री महोदय कहते है कि सरकार संपादकों के कामकाज के काम से खुश नहीं है। उन्हें अपने तरीके बदलने होंगे। इसपर एक संपादक जैसे ही बोलते हैं कि ऐसी तानाशाही को स्वीकार करना उनके लिये असम्भव है। तो ठीक है कहकर मंत्री जी भी उत्तर देते है कि , “ हम देखेगें कि आपके अखबार से कैसा बरताव किया जाये “ । तो गिरिलाल जैन बहस करने के लिये कहते हैं कि ऐसे प्रतिबंध तो अंग्रेजी शासन में भी नहीं लगाय़े गये थे। शुक्ल उन्हें बीच में ही काट कर कहते है , “यह अंग्रेजी शासन नहीं है । यह राष्ट्रीय आपातस्थिति है “।  और इसके बाद संवाद भंग हो जाता है। और उसके बाद अदिकत्र नतमस्तक हुये। करीब सौ समाचारपत्र को सरकारी विज्ञापन बंद कर झुकाया गया। लेकिन तब भी स्टेटसमैन के सीआर ईरानी और एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका ने झुकने से इंकार कर दिया। तो सरकार ने इनके खिलाफ फरेबी चाले चलने शुरु की । लेकिन पीएमओ के अधिकारी ही सेंसर बोर्ड में तब्दिल हो गये । प्रेस परिषद भंग कर दी गई । आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर रोक का घृणित अध्यादेश 1975 लागू कर दिया गया । यह अलग बात है कि बावजूद चालिस साल पहले संघर्ष करते पत्रकार और मीडिया हाउस आपातकाल में भी दिखायी जरुर दे रहे थे । लेकिन चालीस साल बाद तो बिना आपातकाल सत्ता झुकने को कहती है तो हर कोई सरकारों के सामने लेटने को तैयार हो जाता है।

    न्यूज बैंक इन b4m

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    डॉ. कठेरिया के नेतृत्व में महिला फेसबुक उपयोगकर्ता पर हिंदी विवि में हुआ शोध
    फेसबुक उपयोग करने वाली 47 प्रतिशत प्रतिभागी फेसबुक के नियम, कानून से परिचित हैं
    34 प्रतिशत प्रतिभागी फेसबुक का उपयोग सामाजिक सरोकार के लिए करती हैं
    55 प्रतिशत प्रतिभागी फेसबुक का उपयोग सूचना प्राप्त करने के लिए करती हैं
    मित्रों से चैट करने के लिए केवल 13 प्रतिशत ही इसका उपयोग करती हैं
    युवतियां फेसबुक का उपयोग सामाजिक मुद्दों एवं महत्वपूर्ण विषयों के संदर्भ में अधिक करती हैं
    विचारों के आदान-प्रदान के लिए फेसबुक को सशक्त माध्यम की संज्ञा दी गई है
    फेसबुक अब फेस और बुक तक ही नहीं रह गया है बल्कि यह किसी भी व्‍यक्ति के चरित्र को चरितार्थ करता है। शोध में प्राप्‍त निष्‍कर्षों के अनुसार 80 प्रतिशत उपयोगकर्ता सामाजिक परिवर्तन के लिए फेसबुक  के योगदान को मानते हैं। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान समय में फेसबुक सामाजिक परिवर्तन का अंग है। यह माध्यम समाज में नई सोच और विचारों को जन्म दे रहा है। खासकर सामाजिक कुरूतियां, महिला उत्पीड़न आदि जैसे विषयों को खत्म करने में महत्वपूर्ण माध्यम बन रहा है। आज की महिला इस माध्यम से खुद को जागरूक और शक्तिशाली मान रही हैं। इस संदर्भ में फेसबुक उपयोगकर्ताओं के आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं। आज पुरुषों की अपेक्षा महिला उपयोगकर्ताओं की संख्यां तेजी से बढ़ रही है। उक्त आंकड़े महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के जनसंचार विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. धरवेश कठेरिया के नेतृत्व में वर्धा शहर स्थित  हिंदी विवि में विषय-फेसबुक का उपयोग, दायित्व और सीमाएं पर हुए शोध से प्राप्त हुआ है।
    आज के युग को सोशल मीडिया का युग कहा जाय तो गलत नहीं होगा। ऐसे में हर कोई सोशल मीडिया पर आना चाहता है। भारत में सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं में महिलाओं की संख्या पुरूषों की अपेक्षा बहुत कम है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण शिक्षा भी है। कई महिलाएं तकनीकी रूप से दक्ष नही हैं तो कई सोशल साईट (फेसबुक, ट्वीटर) पर आने से डरती हैं। सोशल साईटों पर महिलाओं की भागीदारी, सामाजिक जिम्मेदारी और सोशल मीडिया का महिलाओं पर प्रभाव को शोध के केंद्र में रखा गया है। शोध में प्राप्त आंकड़ों के अनुसार सबसे ज्यादा 20 प्रतिशत महिलाएं 1वर्ष से फेसबुक का उपयोग कर रही हैं। इससे साफ पता चलता है कि महिलाओं का प्रतिशत हाल के वर्षों में बढ़ा है। फेसबुक पर समय खर्च करने के मामले में 86 प्रतिशत आंकडे़ 1घंटा के आसपास प्राप्त होते हैं। तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि फेसबुक उपयोगकर्ता फेसबुक का सामान्य उपयोग कर रहे हैं। 47 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि वे फेसबुक संबंधी नियम व शर्तों से परिचित हैं। जबकि 15 प्रतिशत उपयोगकर्ता परिचित नहीं हैं। 34 प्रतिशत प्रतिभागी फेसबुक का उपयोग सामाजिक सरोकार के लिए करती हैं वहीं 21 प्रतिशत समय बीताने के लिए और 04 प्रतिशत व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के लिए फेसबुक का इस्तेमाल करती हैं।
    फेसबुक की शुरूआत फरवरी 2004 में हुई थी। जिसने बहुत कम समय में युवाओं के बीच पहुंच बनाकर प्रसिद्धि पाई। भारत में फेसबुक उपयोगकर्ताओं के बीच स्त्री-पुरुष का अनुपात लगभग 75 और 25 का है। यह स्थिति तब है, जब भारत फेसबुक यूजर्स के मामले में दुनिया में तीसरे स्थान पर है। महानगरों में फेसबुक की लोकप्रियता शीर्ष पर है। रिसर्च फर्म सोशल बेकर्स के मुताबिक महिला फेसबुक उपयोगकर्ताओं के मामले में भारत, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के साथ खड़ा है, जहां फेसबुक पर महिला-पुरूष अनुपात क्रमश: 78 और 22 का है। जबकि चीन (39 फीसदी), नेपाल (31 फीसदी), पाकिस्तान (30 फीसदी) और श्रीलंका (32 फीसदी), इंडोनेशिया (41 फीसदी) भी भारत से आगे है।
    प्राप्त आंकड़ों के विशलेषण के आधार पर 48 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि फेसबुक सामाजिक मुद्दों पर जनमत बनाने में सक्षम है। आप फेसबुक का उपयोग क्यों करती हैं? के संदर्भ में 55 प्रतिशत मत सूचना प्राप्त करने के पक्ष में जाता है। 18 प्रतिशत मत मित्रों से चैट करने के लिए, 13 प्रतिशत मत विचारों के आदान-प्रदान हेतु एवं 14 प्रतिशत मत जनसंपर्क बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। फेसबुक माध्यम तथ्यों के आधार पर वर्तमान समय में सूचना प्राप्त करने का सबसे सशक्त माध्यम है। फेसबुक ने विचारों के आदान-प्रदान में क्रांति लाने का काम किया है? के संदर्भ में फेसबुक 51 प्रतिशत मतों के आधार पर विचारों के आदान-प्रदान में सशक्त भूमिका अदा कर रहा है। इसका मुख्य कारण है कि फेसबुक वाल के माध्यम से लोग एक-दूसरे के क्रांतिकारी विचारों से परिचित हो रहे हैं।

    शोध का हवाला देते हुए डॉ. कठेरिया ने कहा कि वर्तमान समय में फेसबुक सूचना आदान-प्रदान के साथ-साथ अकेलापन का साथी भी है। फेसबुक करियर निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। फेसबुक जनसंपर्क माध्यम का सबसे बड़ा हथियार है। कोई भी व्यक्ति अगर इसका उपयोग सही दिशा के लिए करता है तो यह हितकर है नहीं तो इसके परिणाम समाज के लिए बिस्फोटक भी हो सकते हैं। महिलाओं को फेसबुक इस्तेमाल करते समय सचेत रहने की जरूरत है। आप अपने पहचान के लोगों से ही जुड़ें।
    शोध संबंधी तथ्यों और आंकड़ों के संकलन के लिए सौ प्रश्‍नावली को आधार बनाया गया है। अध्ययन को स्वरूप देने के लिए शोध विषय-फेसबुक का उपयोग, दायित्व और सीमाएं के अध्ययन में वर्धा शहर में स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में उच्च शिक्षा से जुड़े देश के अलग-अलग प्रांतों से आए अध्ययनरत छात्राओं को शामिल किया गया है। इसमें मुख्य रूप से महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, बिहार, पश्चिम बंगाल, और उत्तर भारत के अनेक शहरों से आए अध्ययनरत छात्राओं के मतों को आधार बनाया गया है।
    67 प्रतिशत आंकड़े यह दर्शाते हैं कि फेसबुक सामाजिक मुद्दों से अवगत कराता है। 83 प्रतिशत लोगों का मानना है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए फेसबुक का योगदान महत्वपूर्ण है। फेसबुक किताबों से दूर करता जा रहा है के संदर्भ में 54 प्रतिशत उत्तरदाता का मत है कि यह किताबों से दूर नहीं कर रहा है। आंकडे़ दर्शाते हैं कि आज की युवतियां अपने करियर और अध्ययन के प्रति सजग और ईमानदार हैं क्योंकि उसे अपने सपनों को साकार और मूर्त रूप देना है। फेसबुक के कारण आप अपने परिवार, मित्र, संबंधी से दूर हो रही हैं के उत्तर में 79 प्रतिशत आंकडे़ दर्शाते हैं कि फेसबुक परिवार, संबंधी और मित्रों से दूर नहीं करता है। आज की युवतियां फेसबुक का उपयोग परिवार और मित्रों के बीच में बहुत ही संतुलित कर रही हैं।
    शोध अध्ययन में डॉ. कठेरिया के अलावा जनसंचार विभाग के सहायक प्रोफेसर, संदीप कुमार वर्मा, पीएच.डी. शोधार्थी, निरंजन कुमार, एमएससी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं एम.ए. जनसंचार के छात्र, अविनाश त्रिपाठी, पंकज कुमार, पूर्णिमा झा, पद्मा वर्मा एवं आईसीएसएसआर परियोजना के शोध सहायक, नीरज कुमार सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही। 40 प्रतिशत लोगों का मानना है कि फेसबुक व्यक्तिगत सोच को सामाजिक सोच में परिवर्तित करने में सक्षम है। आंकड़ों के अनुसार फेसबुक की लेखनी में मानहानी, अपमानसूचक 18, अश्‍लील विषयक 13, हिंसा और द्वेष उत्प्रेरक विषय 24 व किसी धर्म, जाति आदि के उपेक्षा के संदर्भ में 19 प्रतिशत मत प्राप्त होते हैं।

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    किताबी पत्रकार नहीं पत्रकारिता की समझ पैदा करने में मदद करे।

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    नमस्कार
    इस लिंक का अब मैं क्या कर सकता हूं. कैंप तो खत्म हो गया है। मेरे को पत्रकारिता जनसंचार के प्रिंट मीडिया टीवी पत्रकारिता और न्यू मीडिया के किसी भी विषय पर संवाद करने को कह सकती है। पर मेरा पंसदीदा व्याख्यान पहले पत्रकारिताऔर इसमें आ रहे छात्रों के बीच की तैयारी समझ और मीडिया को लेकर मन में व्याप्त अंर्तविरोध और तिलिस्म को खत्म कर जरूरी टिप्स पर केंद्रित रहता है। कभी एक सप्ताह का व्यावहारिक प्रशिक्षण और उसकी रूपरेखा पर हो तो घर क्लास रूम और आपसी सहयोग से बेहतर करने की सामूहिक कार्यप्रणाली और जिम्मेदारी को बताने पर हो सकता है। किस तरह फेसबुक पर एक पेज बनाकर तमाम छात्र रोजाना अपनी पसंद के अनुसार या पेज के कैरेक्टर के अनुसार खबरों को पोस्ट करके फ्री में अपनी 7मता दक्षता और अपनी गुणवत्ता को बढा सकते है इस कौशल का विकास करे। रोजाना पांच न्यूज लिखने की आदक का अभ्यास हो जिसमें दो दो न्यूज सिंगल और डबल कॉलम का हो और एक खबर लंबी या स्पेशल हो। इन खबरो को आप पेपर में खबर पढकर ही लिखे। इसी तरह की आदि इत्यादि बहुत सारी तैयारी के टिप्स पर काम करने की जरूरत है, ताकि वे खुद को किताबी पत्रकार की बजाय स्वनिर्मित पत्रकार की तरह खुद को विकसित कर सके। पत्रकारिता की पढाई से ज्यादा जरूरी है कि पहले एक सेमेस्टर में पत्रकार बनाने की जरूरतों आवश्यकताओं और लेखन की अनिवार्यता से लैस किया जाए। पत्रकारिता की समझ और पत्रकार की जिम्मेदारी दायित्व जरूरत और खबरों के प्रति उसकी ललक और खबर की प्रस्तुति से अपनी पहचान को आत्मसात करना सीखे। पहले सत्र में ही पत्रकारिता के प्रकार खबरों की विभिन्नता और पत्र पत्रिकाओं में अंतर चरित्र और हर प्रकार की दैनिक सांद्य वीकली पॉपनाईटली मंथली से लेकर अलग अलग कैरेक्टर यानी बाल पत्रिका कार्टून नारी युवा धार्मिक समाचार साहित्यिक खेल सिनेमा पर्यटन शैक्षिक कंपटीटिव प्रतियोगिता व्यस्क पत्रिका सेलेकर रहन सहन बिजनेस लाईफस्टाईल या गर की साजसज्जा रीयल स्टेट या इसी तरह की आधुनिक जीवन से संबंधित पत्रिकाओं को लेकर अलग अलग तरह की पत्रकारिता को भी विश्लेषित करना जरूरी है, ताकि पत्रकारिता के व्यापक दायरे को पहले छात्र समझ सके.
    पहले की पत्रकारिता पेन कागज की होती थी।एक पत्रकार की समझ ही मुख्य होता था। मगर अब तो पेनलेस पत्रकारिता का दौर है। अपनी आंख की बजाय कैमरे की आंख से विजुअल के अनुसार की पत्रकारिता की स्क्रिप्ट लिखी जाती है। । फिर पत्रकारिता के अलग मापदंड और विभाग यानी विचार सेक्शन और इंटरटेनमेंट सेक्शन की कार्यप्रणाली और आजकल सबसे ज्यादा लोगों की दिलचस्पी पर खरा उतरने के लिए सामूहिक प्रयास टीम वर्क के बारे में भी जानना आवश्यक है।
    इसी तरह के तमाम प्रसंगों पर प्रकाश डालते हुए चात्रों को बताना आवश्यक हो। उसकी रूचि के महत्व के देखते हुए उसके बारे में बताना और जैक ऑफ ऑल बट मास्टर ऑफ नन को लेकर भी बताना जरूरी है। मेरे ख्याल से पत्रकारिता जनसंचार के इतिहास पर भी पहले सेमेस्टर में खासा जोर देना जरूरी है।
    खैर बहुत सारी बकवास कर दी मैने . मैं खुदको रोकता हूं नहीं तो अभी और लंबा भाषण हो जाएगा। मगर इन तमाम पहलू को संयोजित कर पहले सेमेस्टर को इस तरह प्लान करना चाहिए कि चात्र मीडिया या पत्रकारिता के कल आज और कल के बारे में जान सके। इस सेमेस्टर के बाद मेरे ख्याल से छात्र इस तरह तैयार हो जाएगा कि हम फिर जिस प्रसंग पर भी गप्प करेंगे तो वो उसकी पकड में होगा । तब उसकी दिलचस्पी अधिक होगी.रोजाना न्यूज सूची बनाना (पेपर में छपी खबर के अनुसार और पांच न्यूज लिखने का अभ्यास हो। हर छात्र का अपना ब्लॉग हो जिसका हर 15 -15 दिन पर पोस्ट खबरों का मूल्यांकन हो ताकि छात्र की समझ और दिलचस्पी का खुलासा हो।
    शेष फिर एक नियोजित करीके से पाठ्यक्रम और तैयारी को विकसित किया जाए तो निसंदेह यहां के छात्र हॉर्स की तरह दौडेंगे।
    मगर क्षमा के साथ यह मेरा विचार है जरूरी नहीं कि सब सहमत हो । आपको एक पत्रकार बनने और बनाने की इस वैज्ञानिक प्रणाली को उछित और तर्कसंगत मानती हो तो विवि में इस सुझाव को जरूर रखेंगी। किताबी पत्रकार बनना या ना बनना एक समान होता है। ।
    शेष फिर 
    आपके सुझाव की उम्मीद रखूंगा।
    सादर
    आपका
    अनामी
    asb.deo

    क्रिकेट दुनिया का पहला हजारी 1009 नाबाद बल्लेबाज बना प्रणव

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    एक पारी में 1000 रन बनाकर प्रणव ने रचा नया इतिहास

    By: एबीपी न्यूज़ | Last Updated: Tuesday, 5 January 2016 4:03 PM
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    एक पारी में 1000 रन बनाकर प्रणव ने रचा नया इतिहास
    मुंबई: मुंबई के स्कूल क्रिकेटर प्रणव धनवाड़े ने इंटर स्कूल टूर्नामेंट में नाबाद 1009 रन बनाकर नया इतिहास रच दिया. वह क्रिकेट इतिहास में चार अंकों का स्कोर बनाने वाले दुनिया के पहले बल्लेबाज बने. केसी गांधी हायर सेकेंडरी स्कूल की तरफ से खेल रहे 15 वर्षीय धनवाड़े ने मुंबई क्रिकेट संघ द्वारा आयोजित भंडारी कप इंटरस्कूल टूर्नामेंट में आर्य गुरूकुल के खिलाफ केवल 323 गेंदों पर यह स्कोर बनाया और उनका स्ट्राइक रेट 312.38 रहा.
    धनवाड़े ने 395 मिनट तक चली अपनी इस पारी में 129 चौके और 59 छक्के जमाये. उनकी इस ऐतिहासिक पारी का अंत तब हुआ जब उनकी टीम ने तीन विकेट पर 1495 के स्कोर पर पारी समाप्त घोषित की. यह भी विश्व रिकॉर्ड है. धनवाड़े की स्कूल ने विक्टोरिया के न्यूसाउथ वेल्स के खिलाफ 1926 में बनाये गये 1107 रन के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ा. धनवाड़े के नाम पर अब भी किसी तरह की क्रिकेट में एक पारी में सर्वाधिक स्कोर का रिकॉर्ड दर्ज हो गया है. उन्होंने ब्रिटेन के एईजे कोलिन्स का क्लार्क हाउस के खिलाफ नार्थ टाउन में 1899 में बनाये गए नाबाद 628 रन के रिकॉर्ड को तोड़ा.
    pranav
    दसवीं में पढ़ने वाला प्रणव एमसीए के अनुभवी कोच मोबिन शेख का शिष्य है और वह ऑटोरिक्शा चालक का एकमात्र बेटा है. ठाणे के निकट कल्याण के वायलेंगर मैदान पर खेले गये मैच में उनकी टीम ने यह विशाल स्कोर अपने प्रतिद्वंद्वी के 17 ओवर में 31 रन पर आउट होने के जवाब में बनाया.
    धनवाड़े कल स्टंप उखड़ने के समय 652 रन बनाकर नाबाद थे लेकिन तब तक उन्होंने सभी तरह की क्रिकेट में एक पारी में सर्वोच्च स्कोर का रिकॉर्ड अपने नाम लिखवा दिया था.
    कल अपनी पारी के दौरान उन्होंने भारतीय स्कूली क्रिकेट में 546 रन के सर्वाधिक व्यक्तिगत स्कोर के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ा. यह रिकॉर्ड मुंबई के एक अन्य क्रिकेटर पृथ्वी शॉ ने 2013 में हैरिस शील्ड मैच में रिजवी स्प्रिंगफील्ड की तरफ से सेंट फ्रांसिस डि एसीसी के खिलाफ बनाया था.
    धनवाड़े के कोच शेख ने कहा, ‘‘धनवाड़े जब छह साल का था तब से मेरे पास है. उनके इस प्रदर्शन से इस क्षेत्र में क्रिकेट को काफी बढ़ावा मिलेगा. कल्याण के आसपास हमारे यहां काफी प्रतिभा है लेकिन उचित सुविधाएं नहीं होने से ये खिलाड़ी आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं. आज (पूर्व भारतीय कप्तान और एमसीए उपाध्यक्ष) दिलीप वेंगसरकर आये और उन्होंने मैदान उपलब्ध कराने की स्थिति में यहां अकादमी खोलने का वादा किया. ’’
    उन्होंने कहा, ‘‘यह अंडर-16 मैच के लिये उपयुक्त मैदान था और टूर्नामेंट एमसीए से मान्यता प्राप्त है. मैं विरोधी टीम के रवैये से भी खुश हूं. ’’
    मैच में गेंदबाजों का क्या हाल रहा ये बात इस स्कोर कार्ड से समझा जा सकता है.
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    First Published: Tuesday, 5 January 2016 1:42 PM

    कोमा में पड़े शख़्स की अद्भुत 'प्रेम कथा'

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    • 28 अगस्त 2014
    ये "लव जिहाद"के माहौल में एक अनोखी प्रेम कहानी है जो आपको जीवन और मृत्यु दोनों के बारे में सोचने पर मजबूर कर देगी.
    मैं इच्छा-मृत्यु पर स्टोरी करने के लिए घर से निकला था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में मेरी मुलाक़ात आइवी सिंह और उनकी मुंहबोली बेटी भूमिका से हुई.
    आइवी अपने ही घर में एक छोटा सा स्कूल चलाती हैं. बच्चों की चहल-पहल की आवाज़ दोपहर तक तो घर में गूंजती रहती है फिर एक चुप्पी सी छा जाती है. इस घर में एक ऐसा शख़्स भी रहता है जिनकी असाधारण कहानी, इच्छा-मृत्यु पर पहले से ही जटिल बहस को और उलझा देती है.

    पढ़िए आनंद सिंह की पूरी कहानी

    इस बेहद ख़ूबसूरत शख़्स का नाम आनंद सिंह है जो कि आइवी सिंह के पति हैं. आनंद सिंह की जवानी की तस्वीरें देखें तो किसी फ़िल्म स्टार से कम नहीं. लेकिन ये पच्चीस साल पहले की बात है.
    वे भारतीय नौसेना में कार्यरत थे, आइवी से शादी के कुछ महीने बाद छुट्टियों के लिए घर लौट रहे थे कि उनकी मोटरसाइकिल दुर्घटना का शिकार हो गई. मस्तिष्क में चोट लगी और उनका जीवन हमेशा के लिए बदल गया.
    अब वह न बोल सकते हैं, न खा सकते हैं, न चलफिर सकते हैं और डॉक्टरों के अनुसार उनके फिर से सक्रिय होने की संभावना नहीं है.पच्चीस साल से वह बिस्तर पर पड़े हैं, नाक में ट्यूब डली हुई है, खाने के लिए वो टयूब का और खिलाने के लिए आइवी का सहारा लेते हैं.

    आइवी सिंह की कहानी

    इन पच्चीस वर्षों में उनकी हर ज़रूरत आइवी सिंह ने पूरी की है. उनकी उम्र लगभग 48 साल है.
    शादी के समय उन्होंने जवानी में क़दम रखा ही था कि इस हादसे ने उनका जीवन भी हमेशा के लिए बदल दिया.
    वे बताती हैं, "हम केवल छह-सात महीने ही साथ रहे. वह भी लगातार नहीं, क्योंकि आनंद की नौकरी ही ऐसी थी और फिर यह दुर्घटना हो गई. तब से मेरा जीवन आनंद की देखभाल में ही गुज़रा है."
    (कीनियाई लड़का, भारतीय लड़की की प्रेम कहानी)
    जिस कमरे में आनंद दिन-रात लेटे रहते हैं, वह किसी अस्पताल के कमरे से कम नहीं है. एक अलमारी दवाइयों से भरी हुई है और उसमें ज़रूरत का सारा सामान मौजूद है, इंजेक्शन की सिरिंज से लेकर 'नेबोलाइज़र'ट्यूब तक. आइवी खुद एक प्रशिक्षित नर्स से कम नहीं हैं.
    मैं झिझकते हुए वो दो सवाल पूछ ही लेता हूँ जो मेरे दिल में तो हैं लेकिन ज़ुबान पर आसानी से नहीं आते कि क्या आपने आनंद को छोड़कर कभी दूसरी शादी के बारे में नहीं सोचा? और आपने अपना जीवन तो आनंद को जीवित रखने में गुज़ार दिया लेकिन वो क्या हालात होंगे जिनमें आप भी 'मर्सी किलिंग'या इच्छा मृत्यु का समर्थन कर सकती हैं?आईवी बताती हैं, "यदि कोई व्यक्ति कोमा में हो, पूरी तरह बेहोश और परिवार के पास इतना पैसा नहीं हो कि देखभाल कर सके तो यह किया जा सकता है क्योंकि उसे तो कुछ पता ही नहीं ..."और "हाँ मैंने शादी के बारे में सोचा था, लेकिन मेरी एक शर्त थी कि मेरे जीवन में जो भी दूसरा व्यक्ति आए उसे आनंद को भी स्वीकार करना होगा!"
    आइवी सिंह के जीवन में कोई दूसरा व्यक्ति तो नहीं आया. वे कहती हैं, "बीमार कोई जानबूझकर तो होता नहीं, शायद यही मेरी तक़दीर थी, मेरे माता-पिता ने हमेशा ही सिखाया था कि जिससे शादी हो रही है उसके दुख और परेशानी में शामिल रहना."
    लेकिन दस साल पहले उन्होंने एक बच्ची को गोद लेने का फ़ैसला किया.

    भूमिका की कहानी

    आइवी सिंह बताती हैं, ''भूमिका एक यतीमख़ाने में पल रही थी. मुझे बेटी चाहिए थी, मैं उसे घर ले आई.''
    अब भूमिका की उम्र दस-ग्यारह साल है. स्कूल से लौटते ही वह आनंद सिंह के साथ खेल में लग जाती है. "मुंह खोलो, मुंह बंद ... बोलो ए, बी, सी ... सब चीज़ें एक ही तरह बोलोगे...!"मुझे भी आनंद की बेजान आँखों में थोड़ी चमक नज़र आती है. वो गले से कुछ आवाज़ तो निकालने की कोशिश करते हैं लेकिन शायद इसका मतलब आइवी और भूमिका ही समझ सकते हैं.
    भूमिका भी अब पूरी फुर्ती के साथ वह सारे काम करती है जो पच्चीस वर्षों से आइवी करती आई हैं. इस बच्ची ने अपने जीवन का रास्ता भी तय कर रखा है, बड़े होकर वह डॉक्टर बनना चाहती है.

    मुश्किल सा सवाल

    आइवी और नन्ही भूमिका ने आनंद को ज़िन्दा रखा है. "उन्हें कुछ दिनों के लिए अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा तो घर बिल्कुल सूना हो गया."
    (इच्छा मृत्यु पर कहां क्या है कानून?)
    लेकिन मेरे मन में यह सवाल उठता है कि जो प्यार और देखभाल आनंद को मिली है, वो दूसरे कितने लोगों को मिल पाती होगी? कितने लोग आईवी की तरह अपना जीवन क़ुर्बान करने का जज़्बा रखते होंगे और यदि मरीज़ के ठीक होने की कोई संभावना न हो तो क्या उन्हें ये क़ुर्बानी देनी भी चाहिए?यही चर्चा आजकल हिंदुस्तानमें चल रही है. क्या जीवन के अधिकार में मृत्यु का अधिकार भी शामिल है? किन परिस्थितियों में किसी व्यक्ति को अपना जीवन ख़त्म करने का अधिकार होना चाहिए? जीवन का मालिक कौन है और यह मुश्किल फ़ैसला करने के लिए अधिकृत व्यक्ति कौन है?
    यह ज़िंदगी और मौत का सवाल है. ज़िंदगी कब जीने लायक़ नहीं रहती, इस जटिल सवाल का कोई आसान जवाब नहीं है.
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    १९४७ का भारत-पाक युद्ध

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    प्रस्तुति- स्वामी शरण, धीरेन्द्र पांडेय,


    भारतऔर पाकिस्तानके बीच प्रथम युद्ध सन् १९४७ में हुआ था। यह कश्मीरको लेकर हुआ था जो १९४७-४८ के दौरान चला।

    अनुक्रम

    पृष्ठभूमि

    1815 से पहले आज "कश्मीर"के नाम से जाने जाने वाले क्षेत्र को "पंजाब पहाड़ी राज्यों"के रूप में जाना जाता था और इसमे 22 छोटे स्वतंत्र राज्य शामिल थे। इन छोटे राज्यों मे राजपूत राजाओं के द्वारा जो (मुगल साम्राज्य के प्रति निष्ठावान थे) शासन किया जाता था। वास्तव में पंजाब के पहाड़ी राज्यों के राजपूत मुगल साम्राज्य का एक प्रमुख शक्ति थे और उन्होने सिखों के खिलाफ मुगलों के समर्थन में कई लड़ाइयां लड़ी थी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के उदय और मुगल साम्राज्य के बाद के पतन के बाद सिख पहाड़ी राज्यों की सत्ता को अस्वीकार करने लगे. इसलिए सिख गुरू महराजा रणजीत सिंह इन छोटे राज्यों पर जीत के लिए रवाना हो गये . अंततः एक के बाद एक सभी पहाड़ी राज्यों महराजा रणजीत सिंह ने विजय प्राप्त करी थी और इनको एक राज्य में विलय करके जम्मू का राज्य कहा जाने लगा .
    जे हचिंसंन और जे पी वोगेल द्वारा लिखित पंजाब जातियों का इतिहास मे दिये वर्णन के अनुसार 22 राज्यो मे 16 राज्यों हिंदु और 6 मुस्लिम थे। इनमे 6 मुस्लिम राज्यो मे दो राज्यों (कोटली और पुंछ) मंग्रालो दो (भीमबेर और खारी-खैरियाला) छिब्ब के द्वारा राजौरी जरालो द्वारा और किश्तवाड़ियों के द्वारा किश्तवाड़ पर शासन किया जाता था |
    प्रथम ब्रिटिश सिख युद्ध के सिख साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 1845 और 1846 के बीच में लड़ा गया था, के बाद् 1846 में लाहौर की संधि में, सिखों को 12 लाख रुपये की क्षतिपूर्ति भुगतान करने की आवश्यकता थी।
    क्योंकि वे इस् राशि का भुगतान नही कर सके ईस्ट इंडिया कंपनी ने डोगरा शासक गुलाब सिंह को 750,000 रुपये का भुगतान करने के बदले में सिख राज्य से कश्मीर प्राप्त करने की अनुमति दी. गुलाब सिंह जम्मू और कश्मीर राज्य के संस्थापक बन नव गठित राजसी राज्य के प्रथम महाराजा बन गये। जम्मू और कश्मीर की रियासत भारत के 1947 में अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने तक ब्रिटिश राज के दौरान की दूसरी सबसे बड़ी रियासत थी |

    भारत का बटवारा

    १९४७ मे अंग्रेजो के भारत छोड़ने के पहले और बाद मे जम्मू एवं कश्मीर की रियासत पर नये बने दोनो राष्ट्रों मे से एक मे विलय का भारी दबाव था। भारत के बटवारे पर हुए समझौते के दस्तावेज के अनुसार रियासतो के राजाओं को दोनो मे से एक राष्ट्र को चुनने का अधिकार था परंतु कश्मीर के महाराजा हरी सिंग अपनी रियासत को स्वतंत्र रखना चाहते थे और उन्होने किसी भी राष्ट्र से जुड़ने से बचना चाहा। अंग्रेजो के भारत छोड़ने के बाद रियासत पर रियासत पर पाकिस्तानी सैनिको और पश्तूनो के कबीलाई लड़ाको (जो कि उत्तर पश्चिमी सीमांत राज्य के थे) ने हमला कर दिया।
    इस भय से कि रियासत की फ़ौज इनका सामना नही कर पायेगी महाराजा ने भारत से सैनिक सहायता मांगी। भारत ने सैनिक सहायता के एवज मे कशमीर के भारत मे विलय की शर्त रख दी। महाराजा के हामी भरने पर भारत ने इस विलय को मान्यता दे दी और रियासत को जम्मु कश्मीर के नाम से नया राज्य बना दिया। भारतीय सेना की टुकड़ियां तुरंत राज्य की रक्षा के लिये तैनात कर दी गयी। किंतु इस विलय की वैधता पर पाकिस्तान असहमत था। चूंकि जाति आधारित आंकड़े उपलब्ध नही थे इसलिये महाराज के भारत से विलय के पीछे क्या कारण थे यह तय पाना कठिन था।
    पाकिस्तान की यह दलील थी कि महाराजा को भारतीय सेना बुलाने का अधिकार नही था क्योंकि अंग्रेजो के आने के पहले कशमीर के महाराजा का कोई पद नही था और यह पद केवल अंग्रेजो की नियुक्ती थी। इसलिये पाकिस्तान ने युद्ध करने का निर्णय लिया पर उसके सेना प्रमुख डगलस ग्रेसी ने इस आशय के पाकिस्तानी प्रधानमंत्री का आदेश मानने से इंकार कर दिया। उनका तर्क यह था कि कश्मीर पर कब्जा कर रही भारतीय सेनाएं ब्रिटिश राजसत्ता का प्रतिनिधित्व कर रही हैं अतः वह उससे युद्ध नही कर सकते। हालांकि बाद मे पाकिस्तान ने सेनाएं भेज दी पर तब तक भारत करीब करीब दो तिहायी कश्मीर पर कब्जा कर चुका था

    युद्ध का सारांश

    यह युद्ध पूर्व जम्मू और कश्मीर रियासत की सीमाओं के भीतर भारतीय सेनाअर्धसैनिक बलऔर पूर्व जम्मू और कश्मीर रियासत की सेनाओं और पाकिस्तानी सेनाअर्धसैनिक बल और पाकिस्तानके उत्तर पश्चिम सीमांत राज्य के कबीलाई लड़ाको जो खुद को आजाद कश्मीर की सेना के नाम से पुकारते थे के बीच लड़ा गया था। प्रारंभ मे पूर्व जम्मू और कश्मीर रियासत की सेना आजाद कश्मीर के कबीलाई लड़ाको के शुरुवाती हमलो के लिये तैयार नही थी उसे केवल सीमा की रखवाली के लिये बहुत कम संख्या मे तैनात किया गया था इसलिये उनकी रक्षा प्रणाली आक्रमण के सामने तुरंत ढह गयी और उनकी कुछ टुकड़िया दुश्मनो से जा मिली।
    आजाद कश्मीर के कबीलाई लड़ाके शुरूवाती आसान सफ़लताओं के बाद लूटपाट मे व्यस्त हॊ गये और उन्होने आगे बढ़ आसानी से कब्जे में आ सकने वाले नये इलाको पर हमला करने मे देर कर दी और महाराजा कए भारत मे विलय मे सहमती देते ही भारतीय सेना को विमानो की मदद से सैनिक पहुचाने का मौका दे दिया। १९४७ के अंत तक कश्मीर मे कब्जा करने के पकिस्तानी अभियान की हवा निकल गयी। केवल हिमालय के उपरी हिस्सो मे आजाद कश्मीर नाम की पाकिस्तानी सेना को कुछ सफ़लतायें मिली पर आखिर मे उन्हे लेह के बाहरी हिस्से से जून उन्नीस सौ अड़तालीस मे वापस खदेड़ दिया गया। पूरे १९४८ के दौरान दोनो पक्षो के बीच अनेक छोटी लड़ाइयां हुई पर किसी को भी कोई मह्त्वपूर्ण सामरिक सफ़लता नही मिली और धीरे धीरे एक सीमा जिसे आज नियंत्रण रेखा के नाम से जाना जाता है स्थापित हो गई। ३१ दिसम्बर १९४८ मे औपचारिक युद्ध विराम की घोषणा हो गयी।

    युद्ध के भाग

    इस युद्ध को दस भागो मे बाटा जा सकता है। यह भाग इस प्रकार से हैं।

    शुरूवाती हमला (गुलमर्ग का अभियान)

    शुरूवाती हमले का मुख्य उद्देश्य कश्मीर घाटी और इसके प्रमुख शहर श्रीनगर के नियंत्रण को अपने हाथ मे लेना था। जम्मू और कश्मीर रियासत (अब राज्य) की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर और शीतकालीन राजधानी जम्मू थी। मुज्जफ़राबाद और डोमेल मे तैनात रियासत की सेना तुरंत ही आजाद कश्मीर सेना नाम की पाकिस्तानी सेना से हार गयी (रियासत की सेना का एक धड़ा आजाद कश्मीर सेना से जा मिला था) और श्रीनगर का रास्ता खुल गया था। रियासत की सेना के पुनः संगठित होने के पहले श्रीनगर पर कब्जा करने के बजाय आजाद कश्मीर सेना सीमांत शहरो पर कब्जा करने और उसके निवासियों (गैर मुस्लिम) से लूटपाट एवं अन्य अत्याचार करने मे जुट गयी। पुंछ की घाटी मे रियासत की सेना पीछे हट कर शहरो मे केंद्रित हो गयीं और उनको कई महिनो के बाद भारतीय सेना घेरा बंदी से मुक्त कराया।

    कश्मीर घाटी का भारतीय सुरक्षातंत्र

    Indian soldiers fighting in 1947 war
    जम्मू और कश्मीर रियासत के भारत से विलय के बाद भारत ने विमान के द्वारा सैनिक और उपकरण श्रीनगर पहुंचाये। वहां पहुंच कर उन्होने रियासत की सेना को मजबूत किया और श्रीनगर के चारो ओर र्क सुरक्षा घेरा बनाया और आजाद कश्मीर सेना को हरा दिया। इस सुरक्षा घेरे मे भारतीय सेना के बख्तरबंद वाहनो के द्वारा विरोधियो को पीछे से घेरना भी शामिल था। हारकर पीछे हटती हुई पाकिस्तानी सेना का बारामुला और उरी तक पीछा करके इन दोनो शहरो को मुक्त करा लिया गया हालांकि पुंछ घाटी मे पाकिस्तानी सेना के द्वारा शहरो की घेरा बंदी जारी रही।
    गिलगित मे आजाद कश्मीर की कबीलाई सेना मे गिलगित राज्य के अर्ध सैनिक बल शामिल हो गये और चित्राल के मेहतर जागीरदार की सेना भी अपने जागीरदार के पकिस्तान मे विलय की घोषणा के बाद उसमे शामिल हो गयी

    पुंछ मे फसी सेनाओं तक पहुचने का प्रयास्

    भारतीय सेना ने आजाद कश्मीर की सेना का उरी और बारामुला पर कब्जे के बाद पीछा करना बंद कर दिया और एक सहायता टुकड़ी को दक्षिण दिशा मे पुंछ की घेरा बंदी तोड़ने के प्रयास मे भेजा। हालांकि सहायता टुकड़ी पुंछ पहुच गयी पर वह घेराबंदी नही तोड़ पायी और वह भी फंस गयी। एक दूसरी सहायता टुकड़ी कोटली तक पहुच गयी पर उसे अपना कोटली की मोर्चाबंदी को छोड़कर पीछे हटना पड़ा इसी बीच मीरपुर पर आजाद कश्मीर की सेना का कब्जा हो गया।
    झांगेर पर आजाद कश्मीर की सेना का कब्जा होना और नौशेरा और उरी पर हमला25 November1947 - 6 February1948

    झांगेर पर आजाद कश्मीर की सेना का कब्जा होना और नौशेरा और उरी पर हमला

    पाकिस्तान/आजाद कश्मीर की सेना ने झांगेर पर कब्जा कर लिया तत्पश्चात उसने नौशेरा पर नकाम हमला किया। पाकिस्तान/आजाद कश्मीर की सेना की दूसरी टुकड़ीयों ने लगातार उरी पर नाकाम हमले किये। दूसरी ओर भारत ने एक छोटे से आक्रमण से छ्म्ब पर कब्जा बना लिया। इस समय तक भारतीय सेना के पास अतिरिक्त सैन्य बल उपलब्ध हो गये ऐसे मे नियंत्रण रेखा पर स्थितियां स्थिर होने लगी।
    अभियान विजय -- झांगेर पर प्रतिआक्रमण7 फरवरी1948 - 1 मई1948

    अभियान विजय -- झांगेर पर प्रतिआक्रमण

    भारतीय सेना बलों ने झांगेर और रजौरी पर प्रतिआक्रमण कर के उन्हे कब्जे मे ले लिया। कश्मीर घाटी मे आजाद कश्मीर सेना ने उरी के सुरक्षा तंत्र पर आक्रमण जारी रखा। आजाद कश्मीर सेना ने उत्तर मे स्कार्दू की घेरा बंदी कर दी।
    भारतीय सेना का बसंत अभियान 1 मई1948 - 19 मई1948

    भारतीय सेना का बसंत अभियान

    आजाद कश्मीर की सेना के अनेक प्रतिआक्रमणो के बावजूद भारतीयो ने झांगेर पर नियंत्रण बनाये रखा हालांकि अब आजाद कश्मीर की सेना को नियमित पाकिस्तानी सैनिको की मदद अधिकाधिक मिलने लगी थी। कश्मीर घाटी मे भारतीयो ने आक्रमण कर तिथवाल पर कब्जा कर लिया। उंचे हिमालय के क्षेत्रो मे आजाद कश्मीर की सेना को अच्छी बढत मिल रही थी। उन्होने टुकड़ियो की घुसपैठ कर के कारगिल पर घेराबंदी कर दी तथा स्कार्दू की मदद के लिये जा रहे भारतीय सैन्य दस्तों को हरा दिया।
    भारतीय सेना का बसंत अभियान1 मई1948 - 19 मई1948

    अभियान गुलाब एवं इरेस (मिटाना)

    भारतीय सेना बलो ने कश्मीर घाटी मे हमला जारी रखा और उत्तर की ओर आगे बढ कर केरान और गुराऐस पर कब्जा कर लिया। उन्होने तिथवाल पर किये गये एक प्रतिआकर्मण को वापस खदेड़ दिया। पुंछ घाटी मे पुंछ मे फसी भारतीय टुकड़ी घेराबंदी तोड़कर कुछ समय के लिये बाहरी दुनिया से वापस जुड़ गयी। लंबे समय से फसी कश्मीर रियासत की टुकड़ी गिलगित स्काउट (पाकिस्तान) से स्कार्दू की रक्षा करने मे अब तक सफल थी इस लिये पाकिस्तानी सेना लेह की ओर नही बढ पा रही थी। अगस्त मे चित्राल (पाकिस्तान) की सेना ने माता-उल-मुल्क के नेत्रुत्व मे स्कार्दू पर हमला कर दिया और तोपखाने की मदद से स्कार्दू पर कब्जा कर लिया। इससे गिलगित स्काउट लद्दाख की ओर आगे जाने का मौका मिल गया।
    अभियान डक (बत्तख) 15 अगस्त1948 - 1 नवम्बर्1948

    अभियान डक (बत्तख)

    इस समय के दौरान नियंत्रण रेखा स्थापित होने लगी थी और दोनो पक्षो मे अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रो की रक्षा का ज्यादा महत्व था बनिस्बत की हमला करने के |इस दौरान केवल एक महत्वपूर्ण अभियान चलाया गया यह था अभियान डक जो कि भारतीय बलो द्वारा द्रास के कब्जे के लिये था इस दौरान पुंछ पर घेराबंदी जारी रही।
    अभियान ईजी (आसान) पुंछ तक पहुचना 1 November1948 - 26 November1948

    अभियान ईजी (आसान) पुंछ तक पहुचना

    अब भारतीय सेना सभी क्षेत्रो पर पाकिस्तानी सेना और उससे समर्थित आजाद कश्मीर सेना पर भारी होने लगी थी। पुंछ को एक साल लंबी घेराबंदी से आजाद करा लिया गया था और गिलगित स्काउट जो कि अब तक अच्छी कामयाबी हासिल कर रही थी उसे उसे आखिरकार हराकर उसका पीछा करते हुए भारतीय सेना ने कारगिल को आजाद करा लिया पर आगे हमला करने के लिये भारतीय सेना को रसद की आपूर्ती की समस्या आ सकती थी अतः उन्हे रुकना पड़ा जोजिला दर्रे को टैंक की मदद से (इससे पहले इतनी उंचाई पर पूरे विश्व मे कभी भी टैंक का इस्तेमाल नही हुआ था) कब्जे मे ले लिया गया पाकिस्तानी सेना टैंक की अपेक्षा नही कर रही थी और उनके तुरंत पांव उखड़ गये। टैंक का इस्तेमाल बर्मा युद्ध से मिले अनुभव के कारण ही संभव हो पाया था। इस दर्रे पर कब्जे के बाद द्रास पर आसानी से कब्जा हो गया।
    युद्ध विराम की ओर कदम 27 November1948 - 31 December1948

    युद्ध विराम की ओर कदम

    लड़ाई के इस दौर मे पहुंचने पर भारतीय प्रधानमंत्री ने मामले को संयुक्त राष्ट्र महासभा मे ले जा कर उनके द्वारा मामले का समाधान करवाने का मन बना लिया। 31 दिसम्बर1948को संयुक्त राष्ट्र के द्वारा युद्ध विराम की घोषणा की गई। युद्ध विराम होने से कुछ दिनों पहले पाकिस्तानी सेना ने एक प्रतिआक्रमण करके उरी और पुंछ के बीच के रास्ते पर कब्जा करके दोनो के बीच सड़क संपर्क तोड़ दिया। एक लंबे मोलभाव के बाद दोनो पक्ष युद्धविराम पर राजी हो गये। इस युद्धविराम की शर्तें[1]अगस्त 13, 1948को संयुक्त राष्ट्र ने अपनाया। इसमे पाकिस्तान को अपने नियमित और अनियमित सनिको को पूरी तरह से हटाने और भारत को राज्य मे कानून व्यवस्था लागू करने के लिये आवश्यक सैनिक रखने का प्रस्ताव था। इस शर्त के पूरा होने पर जनमत संग्रहकरके राज्य के भविष्य और मालिकाना हक तय करने का निर्धारण होता। इस युद्ध मे दोनो पक्षो के लगभग १५-१५ सौ सैनिक मारे जाने का अनुमान है। [2]और इस युद्ध के बाद भारत का रियासत के साठ प्रतिशत और पाकिस्तान का ४० प्रतिशत भूभाग पर कब्जा रहा।

    इस युद्ध से सीखी गयी सैन्य नीतियां

    बख्तरबंद वाहन का प्रयोग

    इस युद्ध के दो चरणो मे बख्तरबंद वाहन और हल्के टैंको का प्रयोग अत्यंत महत्वपूर्ण था इन दोनो मे ही बहुत ही कम संख्या मे इनका प्रयोग हुआ था। ये चरण थे
    • श्रीनगर पर प्रारंभिक हमले को नाकाम करना जिसमे भारत के २ बख्तरबंद वाहनो ने पाकिस्तान के अनियमित सैनिको के दस्ते पर पीछे से हमला किया
    • जोजिला दर्रे पर ११ हल्के टैंकोकी मदद से भारतीय सेना का कब्जा
    यह घटनाएं यह बताती हैं कि असंभावित जगहो पर बख्तरबंद वाहनो के हमले का दुश्मन पर मानसिक दबाव पड़ता है। ऐसा भी हो सकता है की हमलावरों ने टैकरोधी हथियारो का प्रयोग नही किया शायद उन्होने आवश्यक न जानकर उन्हे पीछे ही छोड़ दिया। बख्तरबंद वाहनो के प्रयोग की सफलता ने भारत की युद्ध नीति पर गहरी छाप छोड़ी चीन के साथ युद्धके वक्त भारतीयो ने बड़ी मेहनत से दुर्गम इलाको मे बख्तरबंद वाहनो का प्रयोग किया किंतु उस युद्ध मे बख्तर बंद वाहनो को अपेक्षित सफलता नही मिली।

    सीमा रेखा मे आये बदलाव

    सीमा रेखा मे आये परिवर्तनो का यदि अध्ययन किया जाय तो काफी रोचक तथ्य उभर कर आते हैं। एक बार सेनाओं का जमावड़ा पूरा होने के बाद नियंत्रण रेखा मे बदलाव बेहद धीमा हो गया और विजय केवल उन इलाकों तक सीमित हो गयी जिनमे सैनिक घनत्व कम था जैसे की उत्तरी हिमालय के उंचे इलाके जिनमे शुरुवात मे आजाद कश्मीर की सेना को सफलताएं मिली थी। १९४८ में पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण करके, उसके एक तिहाई भाग पर अधिकार कर लिया। अभी तक यह एक तिहाई भाग पाकिस्तान के पास है।

    सेनांओ की तैनाती

    जम्मू और कश्मीर रियासत की सेनाएं इस युद्ध के प्रारंभ मे फैली हुईं और छोटी संख्या मे केवल आतंकवादी हमलो से निपटने के लिये तैनात थीं। जिससे वे पारंपरिक सैनिक हमले के सामने निष्फल साबित हुई। इस रणनीति को भारत ने पूर्वी पाकिस्तान (आज का बंग्लादेश) मे भारत पाकिस्तान के बीच तीसरे युद्धमे सफलता पूर्वक प्रयोग किया।[कृपया उद्धरण जोड़ें]

    संदर्भ

    Notes



  • "Resolution adopted by the United Nations Commission for India and Pakistan on 13 August 1948 [संयुक्त राष्ट्र महासभा भारत और पाकिस्तान के द्वारा पारित प्रस्ताव]". mtholyoke.edu. 1948-11-09. अभिगमन तिथि: 2015-09-03.

    1. "Indo-Pakistani Conflict of 1947-48". ग्लोबल सेक्युरिटी. २०११-०७-११. अभिगमन तिथि: २०१५-०९-०३.

    Bibliography

    Major sources
    • 'प्रतिरक्षा पत्रकारिता'शिव अनुराग पटैरया छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी,
    • Operations In Jammu and Kashmir 1947-1948, Ministry of Defence, Government of India, Thomson Press (India) Limited. New Delhi 1987. This is the Indian Official History.
    • The Indian Army After Independence, by KC Praval, 1993. Lancer International, ISBN 1-897829-45-0
    • Slender Was The Thread: The Kashmir confrontation 1947-1948, by Maj Gen LP Sen, 1969. Orient Longmans Ltd New Delhi.
    • Without Baggage: A personal account of the Jammu and Kashmir Operations 1947-1949 Lt Gen. E. A. Vas. 1987. Natraj Publishers Dehradun. ISBN 81-85019-09-6.
    • Kashmir: A Disputed Legacy, 1846-1990 by Alastair Lamb, 1991. Roxford Books. ISBN 0-907129-06-4.
    Other sources
    • The Indian Armour: History Of The Indian Armoured Corps 1941-1971, by Maj Gen Gurcharn Sandu, 1987, Vision Books Private Limited, New Delhi, ISBN 81-7094-004-4.
    • Thunder over Kashmir, by Lt Col Maurice Cohen. 1955 Orient Longman Ltd. Hyderabad
    • Battle of Zoji La, by Brig Gen SR Hinds, Military Digest, New Delhi, 1962.
    • History of Jammu and Kashmir Rifles (1820-1956), by Maj K Barhma Singh, Lancer International New Delhi, 1990, ISBN 81-7062-091-0.

    बीबीसी स्पेशलन्यूज

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    कर्पूरी की विरासत पर घमासान



    फिर दिखा दलितों का असहाय चेहरा



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    सींग वाले बारासिंघे कहां से आए?



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    विश्व की पत्रकारिता का इतिहास और भारत

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    पत्रकारिता का इतिहास, प्रौद्योगिकीऔर व्यापारके विकास के साथ आरम्भ हुआ।

    अनुक्रम

    इतिहास

    लगता है कि विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131 ईस्वी पूर्व रोममें हुआ था। उस साल पहला दैनिक समाचार-पत्र निकलने लगा। उस का नाम था – “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं)। वास्तव में यह पत्थर की या धातुकी पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे। ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं और इन में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।
    मध्यकाल में यूरोपके व्यापारिक केंद्रों में ‘सूचना-पत्र ‘ निकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। लेकिन ये सारे ‘सूचना-पत्र ‘ हाथ से ही लिखे जाते थे।
    15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्गने छापने की मशीन का आविष्कार किया। असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया। इस के फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अख़बारों का भी प्रकाशन संभव हो गया।
    16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नकल करने का काम महंगा भी था और धीमा भी। तब वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा। समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन’। यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है।

    भारत में पत्रकारिता का आरंभ

    छापेकी पहली मशीन भारतमें 1674 में पहुंचायी गयी थी। मगर भारत का पहला अख़बार इस के 100 साल बाद, 1776 में प्रकाशित हुआ। इस का प्रकाशक ईस्ट इंडिया कंपनीका भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्स था। यह अख़बार स्वभावतः अंग्रेज़ी भाषा में निकलता था तथा कंपनी व सरकार के समाचार फैलाता था।
    सब से पहला अख़बार, जिस में विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त किये गये, वह 1780 में जेम्स ओगस्टस हीकी का अख़बार ‘बंगाल गज़ेट’था। अख़बार में दो पन्ने थे और इस में ईस्ट इंडिया कंपनीके वरिष्ठ अधिकारियों की व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। जब हीकी ने अपने अख़बार में गवर्नर की पत्नी का आक्षेप किया तो उसे 4 महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुरमाना लगा दिया गया। लेकिन हीकी शासकों की आलोचना करने से पर्हेज़ नहीं किया। और जब उस ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुरमाना लगाया गया और एक साल के लिये जेल में डाला गया। इस तरह उस का अख़बार भी बंद हो गया।
    • 1790 के बाद भारत में अंग्रेज़ी भाषा की और कुछ अख़बार स्थापित हुए जो अधिक्तर शासन के मुखपत्र थे। पर भारत में प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्र थोड़े-थोड़े दिनों तक ही जीवित रह सके।
    • 1819 में भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था। वह बंगाली भाषाका पत्र – ‘संवाद कौमुदी’ (बुद्धि का चांद) था। उस के प्रकाशक राजा राममोहन रायथे।
    • 1822 में गुजराती भाषाका साप्ताहिक ‘मुंबईना समाचार’ प्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार-पत्र है।
    • 1826 में ‘उदंत मार्तंड’नाम से हिंदीके प्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह साप्ताहिक पत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया।
    • 1830 में राममोहन राय ने बड़ा हिंदी साप्ताहिक ‘बंगदूत’का प्रकाशन शुरू किया। वैसे यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेज़ी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था। यह कोलकातासे निकलता था जो अहिंदी क्षेत्र था। इस से पता चलता है कि राममोहन राय हिंदी को कितना महत्व देते थे।
    • 1833 में भारत में 20 समाचार-पत्र थे, 1850 में 28 हो गए और 1953 में 35 हो गये। इस तरह अख़बारों की संख्या तो बढ़ी, पर नाममात्र को ही बढ़ी। बहुत से पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार-पत्र कई महीनों से ले कर दो-तीन साल तक जीवित रहे।
    उस समय भारतीय समाचार-पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे और उसके साथ समाज-सुधारकी भावना भी थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नये और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे। इस के कारण नये-नये पत्र निकले। उन के सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किस भाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थी – भाषा शुद्ध हो या सब के लिये सुलभ हो? 1846 में राजा शिव प्रसादने हिंदी पत्र ‘बनारस अख़बार’का प्रकाशन शुरू किया। राजा शिव प्रसाद शुद्ध हिंदी का प्रचार करते थे और अपने पत्र के पृष्ठों पर उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोल-चाल की हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। लेकिन उसी समय के हिंदी लखक भारतेंदु हरिशचंद्रने ऐसी रचनाएं रचीं जिन की भाषा समृद्ध भी थी और सरल भी। इस तरह उन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी है और हिंदी के भविष्य के बारे में हो रहे विवाद को समाप्त कर दिया। 1868 में भरतेंदु हरिशचंद्र ने साहित्यिक पत्रिका ‘कविवच सुधा’ निकालना प्रारंभ किया। 1854 में हिंदी का पहला दैनिक ‘समाचार सुधा वर्षण’निकला।

    इन्हें भी देखें

    बाहरी कड़ियाँ


    संचार के प्रकार

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      संचार मानव जीवन की बुनियादी जरूरतों में से एक है, जिसके न होने की स्थिति में मानव अधूरा होता है। अपने समाज में मानव कहीं संचारक के रूप में संदेश सम्प्रेषित करता है, तो कहीं प्रापक के रूप में संदेश ग्रहण करता है। संचार प्रक्रिया में संचारक शब्दिक संकेतों के रूप में उद्दीपकों को सम्प्रेषित कर प्रापक के व्यवहार को बदलने का प्रयास करता है। संचार केवल शाब्दिक नहीं होता है, बल्कि इसमें उन सभी क्रियाएं भी सम्मलित किया गया है, जिनसे प्रापक प्रभावित होता है। संचार प्रक्रिया में संदेश का प्रवाह संचारक से प्रापक तक होता है। इस प्रक्रिया में शामिल लोगों की संख्या के आधार पर संचार के प्रकारों का वर्गीकरण किया जाता है, क्योंकि मानव एक-दो लोगों से एक किस्म का तथा किसी समूह/समूदाय के साथ अन्य किस्म का व्यवहार करता है। संचार प्रक्रिया में शामिल लोगों की संख्या के आधार पर संचार मुख्यत: चार प्रकार का होता है :- 
    1.अंत: वैयक्तिक संचार,
    2.अंतर वैयक्तिक संचार,
    3.समूह संचार, और
    4.जनसंचार।

    1. अंत: वैयक्तिक संचार
    (Intrapersonal Communication)

            यह एक मनोवैज्ञानिक क्रिया तथा मानव का व्यक्तिगत चिंतन-मनन है। इसमें संचारक और प्रापक दोनों की भूमिका एक ही व्यक्ति को निभानी पड़ती है। अंत: वैयक्तिक संचार मानव की भावना, स्मरण, चिंतन या उलझन के रूप में हो सकती है। कुछ विद्वान स्वप्न को भी अंत: वैयक्तिक संचार मानते हैं। इसके अंतर्गत् मानव अपनी केंद्रीय स्नायु-तंत्र (Central Nervous Systemतथा बाह्य स्नायु-तंत्र (Perpheral Nervous System) का प्रयोग करता है। केंद्रीय स्नायु-तंत्र में मस्तिष्क आता है, जबकि बाह्य स्नायु-तंत्र में शरीर के अन्य अंग। इस पर मनोविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान में पर्याप्त अध्ययन हुए हंै। जिस व्यक्ति का अंत: वैयक्तिक संचार केंद्रित नहीं होता है, उसे समाज में च्पागलज् कहा जाता है। मनुष्य के मस्तिष्क का उसके अन्य अंगों से सीधा सम्बन्ध होता है। मस्तिष्क अन्य अंगों से न केवल संदेश ग्रहण करता है, बल्कि संदेश सम्प्रेषित भी करता है। जैसे, पांव में चोट लगने का संदेश मस्तिष्क ग्रहण करता है और मरहम लगाने का संदेश हाथ को सम्प्रेषित करता है। 
    यह एक स्व-चालित संचार प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से मानव अपना तथा अन्य दूसरों का मूल्यांकन करता है। सामाजिक विज्ञान के अध्ययन की जितनी भी प्रणालियां हैं, उन सभी का आधार अंत: वैयक्तिक संचार ही है। इसे आभ्यांतर, स्वगत या अंतरा वैयक्तिक संचार भी कहा जाता है। यह समस्त संचारों का आधार है। इसकी प्रक्रिया व्यापक होने के साथ-साथ बड़ी रहस्यवादी होती हैं। भारतीय मनीषियों ने अंत: वैयक्तिक संचार प्रक्रिया को सुधारने तथा विकास की राह पर ले जाने का लगातार प्रयास किया है, परिणामस्वरूप योग व साधना की उत्पत्ति व विकास हुआ। समाज में अंत: वैयक्तिक संचार के कई उदाहरण मौजूद हैं-
    (1)शारीरिक रूप में मजबूत व्यक्ति अपनी भौतिक शक्ति के कारण सदैव दूसरों पर प्रभुत्व जमाने के लिए स्वयं से संचार करता है। 
    (2)निर्धन व्यक्ति सदैव अपनी भूख मिटाने के लिए स्वयं से संचार करता है।  
    (3)विद्यार्थी सदैव अच्छे अंक पाने के लिए स्वयं से संचार करता है।
    (4)बेरोजगार व्यक्ति नौकरी पाने के लिए संचार करता है... इत्यादि।
    इसी क्रम में मैथिली शरण गुप्त की रचना काफी प्रासंगिक हैै :- 
    कोई पास न रहने पर भी जनमन मौन नहीं रहता।
    आप-आप से ही कहता है, आप-आप की ही सुनता है।। 
    अंत: वैयक्तिक संचार एक शरीरतांत्रिक क्रिया है, जिसके चलते मानव में मूल्य, अभिवृत्ति, विश्वास, अपनापन इत्यादि का जन्म होता है। व्यावहारिक प्रक्रिया के आधार पर इसको भौतिक-अभौतिक अथवा अंत:-वाह्य रूपों में विभाजित किया जा सकता है। 
    विशेषताएं :अंत: वैयक्तिक संचार की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-  
    1. इससे मानव स्वयं को संचालित करता है तथा अपने जीवन की योजनाओं को तैयार करता है।
    2. मानव सुख-द:ुख का एहसास करता है। 
    3. अपने जीवन के लिए उपयोगी तथा आवश्यक आयामों का आविष्कार करता है, 
    4. दिल और दिमाग पर नियंत्रण रखता है, और
    5. फीडबैक व्यक्त करता है। 
    2. अंतर वैयक्तिक संचार
    (Interpersonal Communication)
          अंतर वैयक्तिक संचार से तात्पर्य दो व्यक्तियों के बीच विचारों, भावनाओं और जानकारियों के आदान-प्रदान से है। यह आमने-सामने होता है। इसके लिए दो व्यक्तियों के बीच सम्पर्क का होना जरूरी है। अत: अंतर वैयक्तिक संचार दो-तरफा (Two-way प्रक्रिया है। यह कहीं भी स्वर, संकेत, शब्द, ध्वनि, संगीत, चित्र, नाटक इत्यादि के रूप में हो सकता है। इसमें फीडबैक तुुरंत और सबसे बेहतर मिलता है। संचारक जैसे ही किसी विषय पर अपनी बात कहना शुरू करता है, वैसे ही फीडबैक मिलने लगता है। अंतर वैयक्तिक संचार का उदाहरण मासूम बच्चा है, जो बाल्यावस्था से जैसे-जैसे बाहर निकलता है, वैसे-वैसे समाज के सम्पर्क में आता है और अंतर वैयक्तिक संचार को अपनाने लगता है। माता-पिता के बुलाने पर उसका हंसना, बोलना या भागना अंतर वैयक्तिक संचार का प्रारंभिक उदाहरण है। इसके बाद वह ज्यों-ज्यों किशोरावस्था की ओर बढ़ता है, त्यों-त्यों भाषा, परम्परा, अभिवादन आदि अंतर वैयक्तिक संचार प्रक्रिया से सीखने लगता है। पास-पड़ोस के लोगों से जुडऩे में भी अंतर वैयक्तिक संचार की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं।
           अंतर वैयक्तिक संचार में फीडबैक का महत्वपूर्ण स्थान है। इसी के आधार पर संचार प्रक्रिया आगे बढ़ती है। साक्षात्कार, कार्यालयी वार्तालॉप, समाचार संकलन इत्यादि अंतर वैयक्तिक संचार का उदाहरण है। अंतर वैयक्तिक संचार सामाजिक सम्बन्धों का आधार है। इसके लिए मात्र दो लोगों का मौजूद होना जरूरी नहीं है, बल्कि दोनों के बीच परस्पर अंत:क्रिया का होना भी जरूरी है। वह चाहे जिस रूप में हो। टेलीफोन पर वार्तालॉप, ई-मेल या सोशल नेटवर्किग साइट्स पर चैटिंग अंतर वैयक्तिक संचार के अंतर्गत् आते हैं। सामान्यत: दो व्यक्तियों के बीच वार्तालॉप को ही अंतर वैयक्तिक संचार की श्रेणी में रखा जाता है, परंतु कुछ संचार वैज्ञानिक तीन से पांच व्यक्तियों के बीच होने वाले वार्तालॉप को भी इसी श्रेणी में मानते हैं, बशर्ते संख्या के कारण अंतर वैयक्तिक संचार के मौलिक गुण प्रभावित न हो। संचार वैज्ञानिकों का मानना है कि जैसे-जैसे लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी होगी, वैसे-वैसे अंतर वैयक्तिकता का गुण कम होगा और समूह का निर्माण होगा।
    विशेषताएं : अंतर वैयक्तिक संचार बेहद आंतरिक संचार है, जिसके कारण  
    (1)फीडबैक तुरंत तथा बेहतर मिलता है।
    (2)बाधा आने की संभावना कम रहती है।
    (3)संचारक और प्रापक के मध्य सीधा सम्पर्क और सम्बन्ध स्थापित होता है।
    (4)संचारक के पास प्रापक को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त अवसर होता है।
    (5)संचारक और प्रापक शारीरिक व भावनात्मक दृष्टि से एक-दूसरे के करीब होते हैं।
    (6)किसी बात पर असहमति की स्थिति में प्रापक को हस्तक्षेप करने का मौका मिलता है।
    (7)प्रापक के बारे में संचारक पहले से बहुत कुछ जानता है।
    (8)संदेश भेजने के अनेक तरीके होते हैं। जैसे- भाषा, शब्द, चेहरे की प्रतिक्रिया, भावभंगिमा, हाथ पटकना, आगे-पीछे हटना, सिर झटकना इत्यादि।
    3. समूह संचार
    (Group Communication)
           यह अंतर वैयक्तिक संचार का विस्तार है, जिसमें सम्बन्धों की जटिलता होती है। समूह संचार की प्रक्रिया को समझने के लिए समूह के बारे में जानना आवश्यक है। समूह संचार को जानने के लिए समूह से परिचित होना अनिवार्य है। मानव अपने जीवन काल में किसी-न-किसी समूह का सदस्य अवश्य होता है। अपनी आवश्यकतओं की पूर्ति के लिए नये समूहों का निर्माण भी करता है। समूहों से पृथक होकर मानव अलग-थलग पड़ जाता है। समूह में जहां व्यक्तित्व का विकास होता है, वहीं सामाजिक प्रतिष्ठा बनती है। समूह के माध्यम से एक पीढ़ी के विचार दूसरे पीढ़ी तक स्थानांतरित होता है। समूह को समाज शास्त्रियों और संचार शास्त्रियों ने अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं :-  

    • मैकाइवर एवं पेजके अनुसार- समूह से तात्पर्य व्यक्तियों के किसी ऐसे संग्रह से है जो एक दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
    • ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार- जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति एक साथ मिलते हैं और एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं तो वे एक समूह का निर्माण करते हैं।
          अत: जब कुछ लोग एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक-दूसरे से पारस्परिक सम्पर्क बनाते हैं तथा एक दूसरे के अस्तित्व को पहचानते हैं तो उसे एक समूह कहते हैं। इस प्रकार से निर्मित समूह की सबसे प्रमुख विशेषता यह होती है कि सभी लोग स्वयं को समूह का सदस्य मानते हैं। समाजशास्त्री चाल्र्स एच. कूले के अनुसार- समाज में दो प्रकार के समूह होते हैं। पहला, प्राथमिक समूह (Primary Group)-  जिसके सदस्यों के बीच आत्मीयता, निकटता एवं टिकाऊ सम्बन्ध होते हैं। परिवार, मित्र मंडली व सामाजिक संस्था आदि प्राथमिक समूह के उदाहरण हैं। दूसरा, द्वितीयक समूह (Secondary Group)- जिसका निर्माण संयोग व परिस्थितिवश या स्थान विशेष के कारण कुछ समय के लिए होता है। ट्रेन व बस के यात्री, क्रिकेट मैच के दर्शक, जो आपस में विचार-विमर्श करते हंै, द्वितीयक समूह के सदस्य कहलाते हैं।
           सामाजिक कार्य व्यवहार के अनुसार समूह को हित समूह और दबाव समूह में बांटा गया है। जब कोई समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्य करता है, तो उसे हित समूह कहा जाता है। इसके विपरीत जब अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्य समूहों या प्रशासन के ऊपर दबाव डालता है, तब वह स्वत: ही दबाव समूह में परिवर्तित हो जाता है। व्यक्ति समूह बनाकर विचार-विमर्श, संगोष्ठी, भाषण, सभा के माध्यम से विचारों, जानकारियों व अनुभवाओं का आदान-प्रदान करता है, तो उसे समूह संचार कहा जाता है। इसमें फीडबैक तुरंत मिलता है, लेकिन अंतर वैयक्तिक संचार की तरह नहीं। फिर भी, यह बहुत ही प्रभावी संचार है, क्योंकि इसमें व्यक्तित्व खुलकर सामने आता है। समूह के सदस्यों को अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर मिलता है। समूह संचार कई सामाजिक परिवेशों में पाया जाता है। जैसे- कक्षा, रंगमंच, कमेटी हॉल, बैठक इत्यादि। कई संचार विशेषज्ञों ने समूह संचार में सदस्यों की संख्या २० तक मानते हंै, जबकि कई संख्यात्मक की बजाय गुणात्मक विभाजन पर जोर देते हैं। लिण्डग्रेन (१९६९) के अनुसार, दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक दूसरे के साथ कार्यात्मक सम्बन्ध में व्यस्त होने पर एक समूह का निर्माण होता है।
           
             समूह संचार और अंतर वैयक्तिक संचार के कई गुण आपस में मिलते हैं। समूह संचार कितना बेहतर होगा, फीडबैक कितना अधिक मिलेगा, यह समूह के प्रधान और उसके सदस्यों के परस्पर सम्बन्धों पर निर्भर करता है। समूह का प्रधान संचार कौशल में जितना अधिक निपुण तथा ज्ञानवान होगा। उसके समूह के सदस्यों के बीच आपसी सम्बन्ध व सामन्जस्य जितना अधिक होगा, संचार भी उतना ही अधिक बेहतर होगा। छोटे समूहों में अंतर वैयक्तिक संचार के गुण ज्यादा मिलने की संभावना होती है। बड़े समह की अपेक्षा छोटे समूह में संचार अधिक प्रभावशाली होता है, क्योंकि छोटे समूह के अधिकांश सदस्य एक-दूसरे से पूर्व परिचित होते हैं। सभी आपस में बगैर किसी मध्यस्थ के विचार-विमर्श करते हैं। सदस्यों को अपनी बात कहने का मौका भी अधिक मिलता है। समूह के सदस्यों के हित और उद्देश्य में काफी समानता होती है तथा सभी संदेश ग्रहण करने के लिए एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। प्रापक पर संदेश का सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न होता है, जिसे फीडबैक के रूप में संचारक ग्रहण करता है। 

    विशेषताएं : समूह संचार में :- 
    १. प्रापकों की संख्या निश्चित होती है, सभी अपनी इच्छा व सामर्थ के अनुसार सहयोग करते हैं,
    २. सदस्यों के बीच समान रूप से विचारों, भावनाओं का आदान-प्रदान होता है,
    ३. संचारक और प्रापक के बीच निकटता होती है,
    ४. विचार-विमर्श के माध्यम से समस्याओं का समाधान किया जाता है,  
    ५. संचारक का उद्देश्य सदस्यों के बीच चेतना विकसित कर दायित्व बोध कराना होता है, 
    ६. फीडबैक समय-समय पर सदस्यों से प्राप्त होता रहता है, और
    ७. समस्या के मूल उद्देश्यों के अनुरूप संदेश सम्प्रेषित किया जाता है।
    4. जनसंचार
    (Mass Communication)
           आधुनिक युग में जनसंचार  काफी प्रचलित शब्द है। इसका निर्माण दो शब्दों जन+संचार के योग से हुआ है। च्जनज् का अर्थ नता अर्थात् भीड़ होता है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, जन का अर्थ पूर्ण रूप से व्यक्तिवादिता का अंत है। गिन्सवर्ग के अनुसार, जनता असंगठित और अनाकार व्यक्तियों का समूह है जिसके सदस्य सामान्य इच्छाओं एवं मतों के आधार पर एक दूसरे से बंधे रहते हैं, परंतु इसकी संख्या इतनी बड़ी होती है कि वे एक-दूसरे के साथ प्रत्यक्ष रूप से व्यक्तिगत सम्बन्ध बनाये नहीं रख सकते हैं। समूह संचार का वृहद रूप है- जनसंचार। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग १९वीं सदी के तीसरे दशक के अंतिम दौर में संदेश सम्प्रेषण के लिए किया गया। संचार क्रांति के क्षेत्र में तरक्की के कारण जैसे-जैसे समाचार पत्र, रेडियो, टेलीविजन, केबल, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि का प्रयोग बढ़ता गया, वैसे-वैसे जनसंचार के क्षेत्र का विस्तार होता गया। इसमें फीडबैक देर से तथा बेहद कमजोर मिला है। आमतौर पर जनसंचार और जनमाध्यम को एक ही समझा जाता है, किन्तु दोनों अलग-अलग हैं। जनसंचार एक प्रक्रिया है, जबकि जनमाध्यम इसका साधन। जनसंचार माध्यमों के विकास के शुरूआती दौर में जनमाध्यम मनुष्य को सूचना अवश्य देते थे, परंतु उसमें जनता की सहभागिता नहीं होती थी। इस समस्या को संचार विशेषज्ञ जल्दी समझ गये और समाधान के लिए लगातार प्रयासरत रहे। इंटरनेट के आविष्कार के बाद लोगों की सूचना के प्रति भागीदारी बढ़ी है तथा मनचाहा सूचना प्राप्त करना और दूसरों को सम्प्रेषित करना संभव हो सका।   

           जनसंचार को अंग्रेजी भाषा में Mass Communication कहते हैं, जिसका अभिप्राय बिखरी हुई जनता तक संचार माध्यमों की मदद से सूचना को पहुंचाना है। समाचार पत्र, टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, केबल, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि अत्याधुनिक संचार माध्यम हैं। जनसंचार का अर्थ विशाल जनसमूह के साथ संचार करने से है। दूसरे शब्दों में, जनसंचार वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बहुल रूप में प्रस्तुत किए गए संदेशों को जन माध्यमों के जरिए एक-दूसरे से अंजान तथा विषम जातीय जनसमूह तक सम्प्रेषित किया जाता है। संचार विशेषज्ञों ने जनसंचार की निम्नलिखित परिभाषा दी है :-

    • लेक्सीकॉन यूनिवर्सल इनसाइक्लोपीडियाके अनुसार- कोई भी संचार, जो लोगों के महत्वपूर्ण रूप से व्यापक समूह तक पहुंचता हो, जनसंचार है। 
    • बार्करके अनुसार- जनसंचार श्रोताओं के लिए अपेक्षाकृत कम खर्च में पुनर्उत्पादन तथा वितरण के विभिन्न साधनों का इस्तेमाल करके किसी संदेश को व्यापक लोगों तक, दूर-दूर तक फैले हुए श्रोताओं तक रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र जैसे किसी चैनल द्वारा पहुंचाया जाता है। 
    • कार्नरके अनुसार- जनसंचार संदेश के बड़े पैमाने पर उत्पादन तथा वृहद स्तर पर विषमवर्गीय जनसमूहों में द्रुतगामी वितरण करने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में जिन उपकरणों अथवा तकनीक का उपयोग किया जाता है उन्हें जनसंचार माध्यम कहते हैं। 
    • कुप्पूस्वामीके अनुसार- जनसंचार तकनीकी आधार पर विशाल अथवा व्यापक रूप से लोगों तक सूचना के संग्रह एवं प्रेषण पर आधारित प्रक्रिया है। आधुनिक समाज में जनसंचार का कार्य सूचना प्रेषण, विश्लेषण, ज्ञान एवं मूल्यों का प्रसार तथा मनोरंजन करना है। 
    • जोसेफ डिविटोंके अनुसार- जनसंचार बहुत से व्यक्तियों में एक मशीन के माध्यम से सूचनाओं, विचारों और दृष्टिकोणों को रूपांतरित करने की प्रक्रिया है।
    • जॉर्ज ए.मिलरके अनुसार- जनसंचार का अर्थ सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचाना है।
    • डी.एस. मेहता के अनुसार- जनसंचार का अर्थ जनसंचार माध्यमों जैसे- रेडियो, टेलीविजन, प्रेस और चलचित्र द्वारा सूचना, विचार और मनोरंजन का प्रचार-प्रसार करना है। 
    • रिवर्स पिटरसन और जॉनसनके अनुसार-
              -जनसंचार एक-तरफा होता है।
              -इसमें संदेश का प्रसार अधिक होता है। 
              -सामाजिक परिवेश जनसंचार को प्रभावित करता है तथा जनसंचार का असर सामाजिक परिवेश पर
                पड़ता है।
              -इसमें दो-तरफा चयन की प्रक्रिया होती है।
              -जनसंचार जनता के अधिकांश हिस्सों तक पहुंचने के लिए उपर्युक्त समय का चयन करता है। 
              -जनसंचार जन अर्थात् लोगों तक संदेशों का प्रवाह सुनिश्चित करता है।

    • डेनिस मैकवेल के अनुसार- 
            -जनसंचार के लिए औपचारिक तथा व्यस्थित संगठन जरूरी है, क्योंकि संदेश को किसी माध्यम द्वारा      
              विशाल जनसमूह तक पहुंचाना होता है।
            -जनसंचार विशाल, अपरिचित जनसमह के लिए किया जाता है।
            -जनसंचार माध्यम सार्वजनिक होते हैं। इसमें भाषा व वर्ग के लिए कोई भेद नहीं होता है। 
            -श्रोताओं की रचना विजातीय होती है तथा वे विभिन्न संस्कृति, वर्ग, भाषा से सम्बन्धित होते हैं।
            -जनसंचार द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों में एक ही समय पर सम्पर्क संभव है।
            -इसमें संदेश का यांत्रिक रूप में बहुल संख्या में प्रस्तुतिकरण या सम्प्रेषण होता है। 

               उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि जनसंचार यंत्र संचालित है, जिसमें संदेश को तीब्र गति से भेजने की क्षमता होती है। जनसंचार माध्यमों में टेलीविजन, रेडियो, समाचार-पत्र, पत्रिका, फिल्म, वीडियो, सीडी, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि आते हैं, जो संदेश को प्रसारित एवं प्रकाशित करते हंै। जनमाध्यमों के संदर्भ में मार्शल मैक्लूहान ने लिखा है कि- च्माध्यम ही संदेश हैट्ट। माध्यम का अर्थ मध्यस्थता करने वाला या दो बिन्दुओं को जोडऩे से है। व्यावहारिक दृष्टि से संचार माध्यम एक ऐसा सेतु है जो संचारक और प्रापक के मध्य ट्यूब, वायर, प्रवाह इत्यादि से पहुंचता है।
    विशेषताएं : जनसंचार की विशेषताएं काफी हद तक संदेश सम्प्रेषण के लिए प्रयोग किये गये माध्यम पर निर्भर करती हंै। जनसंचार माध्यमों की अपनी-अपनी विशेषताएं होती हैं। प्रिंट माध्यम के संदेश को जहां संदर्भ के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है, भविष्य में पढ़ा जा सकता है, दूसरों को ज्यों का त्यों दिखाया व पढ़ाया जा सकता है, वहीं इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के संदेश को न तो सुरक्षित रखा जा सकता है, न तो भविष्य में ज्यों का त्यों देखा तथा दूसरों को दिखाया जा सकता है। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक  माध्यम के संदेश को अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी ग्रहण कर सकता है, लेकिन प्रिंट माध्यम के संदेश को ग्रहण करने के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की मदद से संदेश को एक साथ हजारों किलोमीटर दूर फैले प्रापकों के पास एक ही समय में पहुंचाया जा सकता है, किन्तु प्रिंट माध्यम से नहीं। वेब द्रुतगति का जनसंचार माध्यम है। इसकी तीव्र गति के कारण देश की सीमाएं टूट चुकी हैं। इसी आधार पर मार्शल मैकलुहान ने च्विश्वग्रामज् की कल्पना की। इंटरनेट आधारित वेब माध्यम की मदद से सम्प्रेषित संदेश को प्रिंट माध्यम की तरह पढ़ा, इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की तरह देखा व सुना जा सकता है। कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर Ctrl S (कीज) की मदद से भविष्य के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है। जनसंचार की निम्नलिखित विशेषताएं निम्नलिखित हैं :- 
    1.विशाल भू-भाग में रहने वाले प्रापकों से एक साथ सम्पर्क स्थापित होता है,
    2.समस्त प्रापकों के लिए संदेश समान रूप से खुला होता है,
    3.संचार माध्यम की मदद से संदेश का सम्प्रेषण किया जाता है,
    4.सम्प्रेषण के लिए औपचारिक व व्यवस्थित संगठन होता है,
    5.संदेश सम्प्रेषण के लिए सार्वजनिक संचार माध्यम का उपयोग किया जाता है, 
    6.प्रापकों के विजातीय होने के बावजूद एक ही समय में सम्पर्क स्थापित करना संभव होता है,
    7.संदेश का यांत्रिक रूप से बहुल संख्या में प्रस्तुतिकरण या सम्प्रेषण होता है, तथा
    8.फीडबैक संचारक के पास विलम्ब से या कई बार नहीं भी पहुंचता

    पत्रकारिता और इलके माध्यम

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    संस्कृति

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    लोक संस्कृति


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    प्रमुख विषय

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    संचार माध्यम (Communication Medium)


             
    संचारमाध्यम को अंग्रेजी मे Communication Medium संचार माध्यम का प्रभाव समाज में अनादिकाल से ही रहाहै। संचार माध्यम स्रोत एवं श्रोता के मध्य एक मध्य-स्थल दृश्य है जोमुख्यत: सूचना को संचारक से लेता है तथा प्रापक को देता है। प्रकृति केआधार पर संचार माध्यमों का वर्गीकरण निम्नलिखित है :-

    1.       परम्परागत माध्यम : संचार केपरम्परागत माध्यम का उद्भव अनादिकाल में ही हो गया था। तब मानव संचार काअर्थ तक नहीं जानता था। सभ्यता के विकास से मुद्रण के आविष्कार तकपरम्परागत माध्यमों से ही संदेश का सम्प्रेषण (संचार) होता था। इन माध्यमोंद्वारा सम्प्रेषित संदेश का प्रभाव समाज के साक्षर और निरक्षर दोनों तरहके लोगों पर होता था। इसके अंतर्गत धार्मिक प्रवचन, हरिकथा, सभा, पर्यटन, गारी, गीत, संगीत, लोक संगीत, नृत्य, रामलीला, रासलीला, कठपुतली, कहानी, कथा, किस्सा, मेला, उत्सव, चित्र, शीला-लेख, संकेत इत्यादि आते हैं। इसप्रकार के परम्परागत माध्यम अनादिकाल से ही संदेश सम्प्रेषण के साथ मनोरंजनका कार्य भी करते आ रहे हैं। दंगल (कुश्ती), खेलकूद, लोकगीत प्रतियोगिताके आयोजन के पीछे प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ लोगों के समक्षस्वस्थ्य मनोरंजन प्रस्तुत करना था। 

    1.      मुद्रित माध्यम :जर्मनी के जॉनगुटेनवर्ग ने टाइप का निर्माण किया, जो मुद्रण (प्रिंटिंग प्रेस) का आधारबना है। मुद्रण के आविष्कार के बाद संचार के क्षेत्र में क्रांति आ गयी।हालांकि इससे पूूर्व हस्तलिखित पत्रों के माध्यम से सूचना सम्प्रेषण काकार्य प्रारंभ हो चुका था, लेकिन उसकी पहुंच कुछ सीमित लोगों तक ही थी।मुद्रित माध्यम के प्रचलन के बाद संचार को मानो पर लग गया। प्रारंभ मेंमुद्रित माध्यम के रूप में केवल पुस्तक को प्रचलन था, किन्तु बाद मेंसमाचार पत्र, पत्रिका, पम्पलेट, पोस्टर इत्यादि मुद्रित माध्यम के रूप मेंसंचार का कार्य करने लगे। वर्तमान समय में भी शिक्षित जनमानस के बीचमुद्रित माध्यमों का काफी प्रचलन है। मुद्रण तकनीकी के क्षेत्र में लगातारहो रहे विकास ने मुद्रित माध्यमों को पहले की अपेक्षा काफी अधिक प्रभावीबना दिया है। मुद्रित माध्यमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनके संदेशको कई बार पढ़ा, दूसरो को पढ़ाया तथा साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करने केलिए सुरक्षित रखा जा सकता है। 

    1.      इलेक्ट्रॉनिक माध्यम : टेलीग्राफ केआविष्कार से संचार को इलेक्ट्रानिक माध्यम मिल गया। इसकी मदद से दूर-दराजके क्षेत्रों में त्वरित गति से सूचना का सम्प्रेषण संभव हो सकता। इसके बादक्रमश: टेलीफोन, रेडियो, वायरलेस, सिनेमा, टेप रिकार्डर, टेलीविजन, वीडियोकैसेट रिकार्डर, कम्प्यूटर, मोडम, इंटरनेट, सीडी/डीवीडी प्लेयर, पॉडकास्टरइत्यादि के आविष्कार से संचार क्रांति आ गई। इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमोंको उनकी प्रकृति के आधार पर श्रव्य और दृश्य-श्रव्य माध्यमों में विभाजितकिया जा सकता है। श्रव्य माध्यम के अंतर्गत टेलीफोन, रेडियो, वायरलेस, टेपरिकार्डर इत्यादि तथा दृश्य-श्रव्य माध्यम के अंतर्गत सिनेमा, टेलीविजन, वीडियो कैसेट प्लेयर, सीडी/डीवीडी प्लेयर इत्यादि आते हैं। इलेक्ट्रॉनिकसंचार माध्यम को द्रूतगति का संचार माध्यम भी कहते हैं। इनकी मदद सेलाखों-करोड़ों की संख्या वाले तथा दूर-दूर तक बिखरे लोगों के पास सूचना कासम्प्रेषण संभव हो सका है। 


      
    संचारके उपरोक्त तीनों माध्यम मानव सभ्यता के विकास का परिचायक है। तीनों कीअपनी-अपनी विशेषताएं है। संचार क्रांति के मौजूदा युग में भी परम्परागतमाध्यम अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सक्षम है, क्योंकि मुद्रित माध्यममाध्यम की केवल पढ़े-लिखे तथा इलेक्ट्रॉनिक की केवल साधन सम्पन्न समाज केबीच लोकप्रियता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत गांवों का देश है, जहां की 70 फीसदी आबादी की अर्थव्यवस्था का प्रमुख साधन खेती-किसानी है।गांवों की हालात 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में भी संतोष जनक नहीं है।कमोवेश यहीं स्थिति तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों की है। 



    The Courses दि सोेे मदससहलगमोूगदल

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    1.
    Journalism (Medium -English)


    Bhavan’s S.P. College the first such institution in Delhi to start journalism Course as far back is 1967 has been known for the high standard it has maintained and the top journalists it has produced. Equips students to take to Print and Electronic Media with expertise and skill. Diploma also leads to Master’s Degree of Guru Jambeshwar University after private appearance for second year.

    Course Structure:
    Paper - I (a) Introduction to Journalism,
    (b) Constitution of India and Press Laws
    Paper - IIReporting
    Paper - IIIWriting
    Paper - IVEditing
    Paper - V Human Communications
    Paper - VICultural Heritage of India

    Assignment and Class Tests
    2.
    Journalism/ (Medium Hindi)

    The most sought after course by Hindi media, both print and electronic. Special attention for development of Translation skill. Leads to Master’s Degree of Guru Jambeshwar University.

    Course Structure:
    Paper - I A. Introduction to Journalism
    B. Constitution of India & Press Laws
    Paper - IIReporting
    Paper - IIIWriting & Language Translation
    Paper - IVEditing
    Paper - V Human Communication
    Paper - VICultural Heritage of India

    Assignment and Class Tests
    3.
    Public Relations
    Since 1967, Complete Training both theoretical and practical, to mould successful professionals. Case Studies and PR campaign planning. Leads to Master’s Degree of Guru Jambeshwar University.

    Course Structure:
    Paper - I Principles of Public Relations and Communication
    Paper - IIMedia of Public Relations
    Paper - IIICorporate Public Relations
    Paper - IVEditing and Production of Publications
    Paper - V Advertising Theory and Practice
    Paper - VICultural Heritage of India
    4.
    Marketing & Advertising
    Enables to handle the challenges of Advertising with complete insight of Marketing and creativity, needs and possibilities of different media, Campaign Planning.

    Course Structure:
    Paper - I Marketing Management
    Paper - IIAdvertising Principles and Practices
    Paper - IIIMedia and Creative Advertising
    Paper - IVArt and Production
    Paper - V Marketing Research and Applied Psychology
    Paper - VICultural Heritage of India
    5.
    Marketing And Sales Management
    Comprehensive course which equips students with keen Marketing and Management skills. Course structured to meet current needs of the market.

    Course Structure:
    Paper - I Marketing Principal & Practices
    Paper - IIAdvertising Principal & Practices
    Paper - IIIBusiness Law & Business Economics
    Paper - IVSales Promotion & Sales Management
    Paper - V Marketing Research & Consumer Behaviour
    Paper - VICultural Heritage of India    
    6.
    Industrial Relations & Personnel Management
    Since 1971, the only course of its kind which approaches the area with a Human Relations Management (HRM) prospective.

    Course Structure:
    Paper - I Organisational Behaviour
    Paper - IIPersonnel Management
    Paper - IIIHuman Resource Development
    Paper - IVIndustrial Relations
    Paper - V Labour Legislation (Social Security & Social Welfare)
    Paper - VICultural Heritage of India
    7.
    Mass Communication (Medium English)
    S.P. College rated as one of top ten institutions of Mass Communication in India. Enables the students to handle print and electronic media issues with complete knowledge and confidence. Leads to Master’s Degree of Guru Jambeshwar University.

    Course Structure:
    Paper - I Communication
    Paper - IIMass Communication
    Paper - IIIPrint Media
    Paper - IVElectronic Media
    Paper - V Advertising & Corporate Communication
    Paper - VICultural Heritage of India

    Assignment and Class Tests
    8.
    Mass Communication / स्नातकोत्तर दूरसंचार डिप्लोमा  (Medium Hindi)
    S.P. College rated as one of top ten institutions of Mass Communication in India. Enables the students to handle print and electronic media issues with complete knowledge and confidence. Leads to Master’s Degree of Guru Jambeshwar University.

    Course Structure:
    Paper - I Communication
    पेपर 1 संचार
    Paper - IIMass Communication
    पेपर 2 जन - संचार
    Paper - IIIPrint Media
    पेपर 3 मुद्रांकन माध्यम
    Paper - IVElectronic Media
    पेपर 4 इलेक्ट्रोनिक माध्यम
    Paper - V Advertising & Corporate Communication
    पेपर 5 विज्ञापन और जनसम्पर्क / संस्थानिक संचार
    Paper - VICultural Heritage of India
    पेपर 6 भारतीय संस्कृति की विरासत

    Assignment and Class Tests

    नियत कार्य तथा कक्षा परीक्षा
    9.
    International Trade (Export & Import Management)
    A class room-to-work-spot course-practical knowledge of Import Export Management and changing rules and practices.

    Course Structure:
    Paper - I International Marketing
    Paper - IIEconomics Analysis and Marketing Research
    Paper - IIIFinancial Management for Export Enterprises
    Paper - IVInternational Business Environment
    Paper - V Export / Import Practices, Procedures and Documentation
    Paper - VICultural Heritage of India
    10.
    Financial Management
    For over three decades this course has been the last word in financial management education. Integrates the changing laws and services. No accounts background necessary.

    Course Structure:
    Paper - I Advanced Cost & Management Accounting
    Paper - IIInternational Financial Management
    Paper - IIIFinancial Markets and Services
    Paper - IVFinancial Management
    Paper - V Direct Tax Laws and Tax Planning
    Paper - VICultural Heritage of India
    11.
    Storage and Materials Management
    Highly professional course, all about materials management, tailored to the needs of different departments, Purchase, Inventory, logistics management.

    Course Structure:
    Paper - I Management Principles & Managerial Economics
    Paper - IIPurchasing Management
    Paper - IIIInventory Management
    Paper - IVStores Management, Transportation and Materials Handling
    Paper - V Organisation for Materials Management.
    Computerization of Materials Management
    Paper - VICultural Heritage of India
    12.
    Effective Entrepreneurship
    An indispensable driver of economic development, productivity and employment, Entrepreneurship provides information on the process of
    formulating, planning and implementing a new venture. The course addresses the dynamics of today’s entrepreneurial challenges and
    suggests effective ways of dealing with them.

    Course Structure:
    Paper - I The idea of Entrepreneurship and Entrepreneurship Development
    Paper - IIEntrepreneurial Ideas, Industry/Sector Electives and Business Plan
    Paper - IIIImplementation and Growth
    Paper - IVCo-operation, Competition and Excellence.
    Paper - V Family Business, Vales & Ecosystem
    Paper - VI Cultural Heritage of India.

    NOTE:
    1. The Bharatiya Vidya Bhavan has always held the view that knowledge and understanding of India’s Cultural Heritage should be an essential ingredient of
      all forms of education in the country. The study of this subject has, therefore been made compulsory in all its Post Graduate Courses.
    2. Each paper in each course carries 100 marks.
    3. Each student will have to submit a Study Paper on a topic connected with his/her course of study. This will carry 100 marks.
    4. There will be a Viva Voice test before the final Examination. This will carry 100 marks.
    5. Students of Journalism will, in addition, have to complete assignments given in the class and also work on the College Laboratory Journal, ALPHA. A total of 200 marks has been allotted for this purpose.
    6. Students of Journalism & Mass Communication are also provided online editing classes to equip them with a working knowledge of the software used in Newspapers/ Magazines at an additional fee of Rs. 2,000/-.
    7. Mass Communication students are provided practical exposure to Electronic Media through a series of workshops spread over 2 months at an additional fee of
      Rs. 2000/-.


    13.
    Advanced Professional Post Graduate Programme

    Advanced professional PG Diploma programme in Communication and Management is a full-time course and has the same core subjects as the one year PG Programmes with three times more time and subject inputs than the one year programme.

    Each topic receives more intensive and extensive coverage ensuring deeper understanding of different dimensions of the subject with emphasis on practical application. There will be more assignments and tests. The students have to make use of Computer Lab. and Library for longer hours. Through the library is not a leading library, students of Advanced professional Post Graduate Programme will be issued books for a short period.

    Project Study is given significant importance and it is expected to reflect the depth and nature of learning-gain acquired during the period of the study.The Project therefore, carries 300 marks, equivalent to the marks of the three papers. As the projects is the outcome of important research and survey, the students are given special training in research and survey, methodology through lectures & practicals.

    प्रिंट पत्रकारिता: समाचार पत्र और प्रकाशन समूह

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    पत्रकारिता: 

    पत्रकारिता अंग्रेजी के जर्नलिज्मका अनुवाद है। जर्नलिज्मशब्द मेंफ्रेंच शब्द जर्नीया जर्नलयानी दैनिक शब्द समाहित है। जिसका तात्पर्यहोता है, दिन-प्रतिदिन किए जाने वाले कार्य। पहले के समय में सरकारीकार्यों का दैनिक लेखा-जोखा, बैठकों की कार्यवाही और क्रियाकलापों को जर्नलमें रखा जाता था, वहीं से पत्रकारिता यानी जर्नलिज्मशब्द का उद्भव हुआ। 16वीं और 18 वीं सदी में पिरियोडिकल के स्थान पर डियूरलन और जर्नलशब्दों का प्रयोग हुआ। बाद में इसे जर्नलिज्मकहा जाने लगा। पत्रकारिताका शब्द तो नया है लेकिन विभिन्न माध्यमों द्वारा पौराणिक काल से हीपत्रकारिता की जाती रही है। जैसा कि विदित है मनुष्य का स्वभाव ही जिज्ञासुप्रवृत्ति का होता है। और इसी जिज्ञासा के चलते आरम्भ में ही उसने विभिन्नखोजों को भी अंजाम दिया। पत्रकारिता के उदभव और विकास के लिए इसीप्रवृत्ति को प्रमुख कारण भी माना गया है।
    अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के चलते मनुष्य अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं कोजानने का उत्सुक रहता है। वो न केवल अपने आस पास साथ ही हर विषय को जाननेका प्रयास करता है। समाज में प्रतिदिन होने वाली ऐसी घटनाओं और गतिविधियोंको जानने के लिए पत्रकारिता सबसे बहु उपयोगी साधन कहा जा सकता है। इसीलिएपत्रकारिता को जल्दी में लिखा गया इतिहासभी कहा गया है। समाज से हर पहलू और आत्मीयता के साथ जुड़ाव के कारण ही पत्रकारिता कोकला का दर्जा भीमिला हुआ है। पत्रकारिता का क्षेत्र अत्यन्त व्यापकता लिए हुए है। इसेसीमित शब्दावली में बांधना कठिन है। पत्रकारिता के इन सिद्धान्तों कोपरिभाषित करना कठिन काम है, फिर भी कुछ विद्वानों ने इसे सरल रूप सेपरिभाषित करने का प्रयास किया है, जिससे पत्रकारिता को समझने में आसानीहोगी।

    महात्मा गॉधी के अनुसार-पत्रकारिता का अर्थ सेवा करना है। 

    डॉ. अर्जुन तिवारी ने एनसाइक्लोपिडिया आफ ब्रिटेनिका के आधार पर इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-
    ‘‘पत्रकारिता के लिए अंग्रेंजी में जर्नलिज्मशब्द का प्रयोग होता हैजो जर्नलसे निकला है,जिसका शाब्दिक अर्थ दैनिकहै। दिन-प्रतिदिन केक्रिया-कलापों, सरकारी बैठकों का विवरणजर्नलमें रहता था। 17वीं एवं 18वीं सदी में पिरियाडिकल के स्थान पर लैटिन शब्दडियूरनल’ ‘और’ ‘जर्नलशब्दों के प्रयोग हुए। 20वीं सदी में गम्भीर समालोचना और विद्वत्तापूर्णप्रकाशन को भी इसी के अन्तर्गत माना गया। जर्नलसे बनाजर्नलिज्मअपेक्षाकृत व्यापक शब्द है। समाचार पत्रों एवं विविधकालिकपत्रिकाओं के सम्पादन एवं लेखन और तत्सम्बन्धी कार्यों को पत्रकारिता केअन्तर्गत रखा गया। इस प्रकार समाचारों का संकलन-प्रसारण, विज्ञापन की कलाएवं पत्र का व्यावसायिक संगठन पत्रकारिता है। समसामयिक गतिविधियों के संचारसे सम्बद्ध सभी साधन चाहे वे रेडियो हो या टेलीविजन इसी के अन्तर्गतसमाहित हैं।’’

    डॉ.बद्रीनाथ कपूर के अनुसार‘‘पत्रकारिता पत्र-पत्रिकाओं के लिए समाचार लेख आदि एकत्रित तथा सम्पादित करने, प्रकाशन आदेश आदि देने का कार्य है।’’­

    हिन्द शब्द सागर के अनुसार‘‘ज्ञान और विचार शब्दों तथा चित्रों के रूप में दूसरे तक पहुंचाना ही पत्रकारिता है।’’

    श्री रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर के अनुसार‘‘ज्ञान और विचार शब्दों तथा चित्रों के रूप में दूसरे तक पहुँचाना ही पत्रकला है।’’

    सी.जी.मूलर "सामयिक ज्ञान के व्यवसाय को पत्रकारिता मानते हैं। इसव्यवसाय में आवश्यक तथ्यों की प्राप्ति, सावधानी पूर्वक उनका मूल्यांकन तथाउचित प्रस्तुतीकरण होता है।

    विखमस्टीड ने"पत्रकारिता को कला, वृत्ति और जन सेवा माना है।’’

    मुद्रण तकनीक और समाचार पत्र: 

    पांचवीं शताब्दी ईसवी पूर्व में रोम में संवाद लेखक हुआ करते थे। मुद्रणकला के आविष्कार के बाद इसी तरह से लिखकर खबरों को पहुंचाया जाने लगा।मुद्रण के आविष्कार के बारे में तय तारीख के बारे में कहा जाना मुश्किल है, लेकिनईसा की दूसरी शताब्दी में इसके आविष्कार को लेकर कुछ प्रमाण मिले हैं। इस दौरान चीन में सर्वप्रथम कागज का निर्माण हुआ।सातवीं शताब्दी मे कागज के निर्माण की प्रक्रिया को गुप्त रखा गया।कागज का आधुनिक रूप फ्रांस के निकोलस लुईस राबर्ट ने 1778 ई में बनाया। लकड़ी के ठप्पों सेछपाई का काम भी सबसे पहले पाँचवी तथा छठी शताब्दी में चीन में शुरू हुआइन ठप्पों का प्रयोग कपड़ो की रंगाई में होता था। भारत में छपाई का काम भीलगभग इसी दौरान आरंभ हो गया था। 11वीं सदी में चीन में पत्थर के टाइप बनाएगए ताकि अधिक प्रतियाँ छापी जा सके। 13वी-14वीं सदी में चीन ने अलग-अलगसंकेत चिन्हों को बनाने में सफलता प्राप्त कर ली।धातु टाइपों से पहली पुस्तक 1409 ईसवीं में छापी जाने के प्रमाण हैंबाद में कोरिया से चीन होकर धातु टाइप यूरोप पहुँचा। 1500 ईसवीं तक पूरेयूरोप में सैकड़ों छापेखाने खुल गए थे, जिनसे समाचार पत्रों और पुस्तक काप्रकाशन होने लगा।नीदरलैंड से 1526 में न्यू जाइटुंग का प्रकाशन प्रारंभ हुआ।  इसके बाद लगभग एक शताब्दी तक कोई दूसरा समाचार पत्र प्रकाशित नहीं हुआ। दैनिक पत्रों के इतिहास मेंपहला अंग्रेजी दैनिक  11 मार्च 1709 को डेली करंटप्रकाशित हुआ।


    प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के बाद काफी समय तक किताबें और सरकारीदस्तावेज़ ही उनमें मुद्रित हुआ करते थे। सोलहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध मेंपूरा यूरोप युद्धों को झेल रहा था, सामंतवाद लगातार अपनी शक्ति खो रहा था।अनेक विचारधाराएं उत्पन्न हो रहीं थी।  उद्यमी  व्यक्ति अनेक पीढ़ियों तकअपने समकालीन लोगों में ग्रन्थकार, घटना लेखक, सार लेखक, समाचार लेखक, समाचार प्रसारक,रोजनामचा नवीस, गजेटियर  के नाम से जाने जाते थे। इस दौरान ‘आक्सफोर्ड गजटऔर फिर लंदन गजटनिकले जिनके बारे में पेपीज ने लिखाथा, 'बहुत सुन्दर समाचारों से भरपूर और इसमें कोई टिप्पणी नहीं।'इसमें सन् 1665 और उसके बाद तक समाचार प्रकाशित होते थे। तीस वर्ष बाद समाचारपुस्तिकाशब्द का लोप हो गया और अब उसके पाठक उसे समाचार पत्र कहने लगे। समाचार पत्र शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख सन् 1670 में मिलता है। इस प्रकार के समाचार-लेखकों का महत्व आने वाले समय में लम्बी अवधि तक बना रहा।

    भारत में पुर्तगाली मिशनरियों द्वारा स्थापित प्रेस में धार्मिक पुस्तकोंका प्रकाशन ज्यादा होता था। 1558 में तमिलनाडु में और 1602 में मालाबार केतिनेवली में दूसरी प्रेस लगाई गई। बाद में 1679 में बिचुर में एक प्रेस कीस्थापना हुई जिसमें तमिल-पोर्तुगीज शब्दकोष छापा गया। फिर कोचीन और मुबंईमें भी ऐसे प्रेस स्थापित किए गए।ब्रिटिश भारत में सबसे पहले अंग्रेजी प्रेस की स्थापना 1674 में बम्बई में हुई थी।इसके बाद 1772 में चेन्नई और 1779 में कोलकता में सरकारी छापेखाने कीस्थापना हुई। सन् 1772 तक मद्रास और अठारहवीं सदी के अंत तक भारत के लगभगज्यादातर नगरों में प्रेस स्थापित हो गए थे।

    हिकी'ज बंगाल गजट:  भारत में पहला समाचार पत्र

    भारत मे सर्वप्रथम जेम्स आगस्ट्स हिक्की ने "हिकी' बंगाल गजट"के नाम सेअखबार निकाल कर पत्रकारिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल की। इस अखबार मेभ्रष्टाचार और शासन की निष्पक्ष आलोचना होने के कारण सरकार ने इसकेप्रिंटिंग प्रेस को जब्त कर लिया।जैम्स हिक्कीद्वारा 29 जनवरी 1780 कोबंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवरटाइजरनामक साप्ताहिक पत्र प्रारम्भ कियागया। वस्तुतः इसी दिन से भारत में पत्रकारिता का विधिवत् प्रारम्भ हुआ। यहपत्र राजनीतिक और आर्थिक विषयों का साप्ताहिक है और इसका सम्बन्ध हर दल सेहै, मगर यह किसी दल के प्रभाव में नहीं आएगा। स्वयं के बारे में हिक्की कीधारणा थी-‘‘मुझे अखबार छापने का विशेष चाव नहीं है, न मुझमें इसकीयोग्यता है। कठिन परिश्रम करना मेरे स्वभाव में नहीं है, तब भी मुझे अपनेशरीर को कष्ट देना स्वीकार है ताकि मैं मन और आत्मा की स्वाधीनता प्राप्तकर सकूं।"दो पृष्ठों के तीन कालम में दोनों ओर से छपने वाले इस अखबारके पृष्ठ 12 इंच लंबे और 8 इंच चौड़े थे। इसमें हिक्की का विशेष स्तंभ पोयट्सकार्नर होता था। इसके बाद 1780 में इंडिया गजट का प्रकाशन हुआ। 50 वर्षों तक प्रकाशित होने वाले इस अखबार में ईस्ट इंडिया कंपनी कीव्यावसायिक गतिविधियों के समाचार दिए जाते थे। कलकत्ता में पत्रकारिता केविकास के जो प्रमुख कारण थे उसमें से एक था वहां बंदरगाह का होना। इसकेअलावा कलकत्ता अंग्रेजो का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र भी था। एक और कारण यहथा कि पश्चिम बंगाल से ही आजादी के ज्यादातर आंदोलन संचालित हो रहे थे।18वींशताब्दी के अंत तक बंगाल से कलकत्ता कोरियर, एशियाटिक मिरर, ओरिएंटल स्टारतथा मुंबई से बंबई हेराल्ड अखबार 1790 में प्रकाशित हुआ, और चेन्नई सेमद्रास कोरियर आदि समाचार पत्रप्रकाशित होने लगे। इन समाचार पत्रों कीविशेषता यह थी कि इनमें परस्पर प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहयोग था। मद्राससरकार ने समाचार पत्रों पर अंकुश लगाने के लिए कड़े फैसले भी लिए। मुबंई औरमद्रास से शुरू हुए पत्रों की उग्रता हिक्की की तुलना में कम थी। हालांकिवे भी कंपनी शासन के पक्षधर नहीं थे।मई 1799 में सर वेलेजली ने सबसे पहले प्रेस एक्ट बनायाजो कि भारतीय पत्रकारिता जगता का पहला कानून था। एक प्रमुख बात जो देखनेको मिली वो थी अखबारों को शुरू करने वाले लोगों की कठिनाई। बंगाल जर्नल केसंपादक बिलियम डुएन को भी पूर्ववत् संपादकों की तरह ही भारत छोड़ना पड़ा।

    हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव (1826-1867)

    उदन्त मार्तण्ड: हिन्दी पत्रकारिता का आरंभ30 मई 1826 ई.सेहिन्दी के प्रथम साप्ताहिक पत्र उदंत मार्तण्डद्वारा हुआ जो कोलकाता सेकानपुर निवासी पं. युगल किशोर शुक्ल द्वारा प्रकाशित किया गया था। श्रीशुक्ल पहले सरकारी नौकरी में थे, लेकिन उन्होंने उसे छोड़कर समाचार पत्र काप्रकाशन करना उचित समझा। हालांकि हिन्दी में समाचार पत्र का प्रकाशन करनाएक मुस्किल काम था, क्योंकि उस दौरान इस भाषा के लेखन में पारंगत लोगउन्हें नहीं मिल पा रहे थे। उन्होंने अपने प्रवेशांक में लिखा था कि‘‘यह उदन्त मार्तण्डहिन्दुस्तानिया के हित में पहले-पहल प्रकाशित है, जोआज तक किसी ने नहीं चलाया। अंग्रेजी, पारसी और बंगला में समाचार का कागजछपता है उसका सुख उन बोलियों को जानने वालों को ही होता है और सब लोग पराएसुख से सुखी होते हैं। इससे हिन्दुस्तानी लोग समाचार पढ़े और समझ लें, पराईअपेक्षा न करें और अपनी भाषा की उपज न छोड़े।....’’  उदंत मार्तण्ड कामूल्य प्रति अंक आठ आने और मासिक दो रुपये था। क्योंकि इस अखबार को सरकारविज्ञापन देने में उपेक्षा पूर्ण रवैया अपनाती थी।यह दुर्भाग्य ही था किहिन्दी पत्रकारिता का उदय के साथ ही आर्थिक संकट से भी इसको रूबरू होनापड़ा।  यह पत्र सरकारी सहयोग के अभाव  और ग्राहकों की कमी के कारण कम्पनीसरकार के प्रतिबन्धों से अधिक नहीं लड़ पाया। लेकिन आर्थिक संकट और बंगालमें हिन्दी के जानकारों की कमी के चलते आखिरकार ठीक 18 महीने के पश्चात सन् 1827 में इसे बंद करना पड़ा।  तमाम कारणों के बाद भी केवल 18 माह तक चलनेवाले इस अखबार ने हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने का काम तो कर हीदिया।  उन्होंने अपने अंतिम पृष्ठ में लिखा-
          "आज दिवस को उग चुक्यो मार्तण्ड उदन्त।
          अस्तांचल को जात है दिनकर अब दिन अंत।"
    आर्थिक संकटों के चलते ज्यादातर हिन्दी समाचार पत्रों को काफी कठिनाइयाँ आईऔर उनमें ज्यादातर बंद करने पड़े। हिन्दी पत्रों की इस श्रंखला में श्रीभारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कवि वचन सुधाऔरहरिश्चन्द्र चन्द्रिकातथाबालबोधिनी कोलकाता के भारतमित्रप्रयोग केहिन्दी प्रदीप’, कानपुर केब्राह्मणजैसे पत्रों ने हिन्दी पत्रकारिता की एक नई परंपरा स्थापित की।उस समय हिन्दी के पत्र साहित्यिक, सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण कोप्रसारित करने अथवा प्रभावित करने के उद्देश्य से निकाले जाते थे और इसअर्थ में वे देश के अन्य समाचार पत्रों से भिन्न नहीं थे, क्योंकि उस समयपत्रकारिता इतनी कठिन थी। शिक्षा के अभाव में उद्योग समाप्त हो रहे थे। जब विश्व में कहीं लड़ाई होती थी तो उसकासीधा प्रभाव समाचार पत्रों पर पड़ताथा। युद्ध के दौरान राजस्थान समाचारको दैनिक पत्र का दर्जा प्राप्त होगया, परन्तु जब युद्ध बन्द हो गया तो वह दैनिक भी बंद हो गया। कोलकाता केभारतमित्रका भी दो बार दैनिक के रूप में प्रकाशन हुआ था परन्तु वह अल्पअवधि तक ही जीवित रह सका। कानपुर के श्री गणेश शंकर विद्यार्थी काप्रताप’, काशी का आज’, प्रयाग का अभ्युदयदिल्ली से स्वामी श्रद्धानन्दका अर्जुनऔर फिर उनके पुत्र पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति का वीर अर्जुनऐसे पत्र थे, जो निश्चित उद्देश्यों और विचारों को लेकर प्रकाशित किए गएथे। स्वाधीनता के समय तक दिल्ली में अनेक दैनिक पत्र थे। इनमें वीरअर्जुनसबसे पुराना था। 1936 ई. में हिन्दुस्तान टाइम्सके साथ इसकाहिन्दी संस्करणहिन्दुस्तानभी प्रकाशित हुआ। मार्च 1947 ई. में नवभारत’, ‘विश्वमित्रऔर एक दैनिक पत्रनेताजीके नाम से प्रकाशित हुूआ था।उद्योग की दौड़ में इनमें से केवल दो पत्रहिन्दुस्तानऔर नवभारत टाइम्सही रह गए। वीर अर्जुनकई हाथों मेंं बिका,  और लोकप्रिय हुआ, लेकिन उसकापुराना व्यक्तित्व और महत्व समाप्त हो गया। स्वाधीनता से पूर्व हिन्दी केअनेक दैनिक और साप्ताहिक पत्र विद्यमान थे। इनमें दिल्ली का वीर अर्जुन’, आगरा का सैनिक’, कानपुर का प्रतापवाराणसी का संसार, पटना काराष्ट्रवाणी और नवशक्ति  साप्ताहिक पत्र थे।  मध्य प्रदेश में खण्डवा काकर्मवीर राष्ट्रीय चेतना से ओत प्रोतलेखन के लिए प्रसिद्ध था। इलाहाबाद कीइंडियन प्रेस से प्रकाशित होने वाला साप्ताहिक पत्र देशदूत था, जो हिन्दीका एक सचित्र साप्ताहिक पत्र था। उस समय के पत्रों में  चाहे वह सैनिक, प्रताप, अभ्यूदय अथवा आज जो भी हो उनमें राजनीतिक विचार एवं साहित्यिकसामग्री भरपूर मात्रा में थी। यशपाल की कहानियाँ सर्वप्रथम कानपुर केसाप्ताहिक पत्र प्रताप में प्रकाशित हुई थी। उस समय हिन्दी में कुछ उच्चकोटि के मासिक पत्र भी थे जो विभिन्न स्थानों से प्रकाशित होते थे। हिन्दीपत्रकारिता में हिन्दी के कवियों, लेखकों, आलोचकों को मुख्य रूप सेप्रोत्साहन दिया जाता था।  हिन्दी पत्र का संपादक हिन्दी  के विकास से जुड़ीगतिविधियों को प्रोत्साहन देना अपना कत्र्तव्य समझता था। उस समय की भाषामें इन्द्रजी का वीर अर्जुन, गणेश जी और उनके बाद नवीन जी का प्रताप, पराड़कर जी का आज, पं. माखनलाल चतुर्वेदी का कर्मवीर, प्रेमचंद जी का हंस औरपं. बनारसी दास चतुर्वेदी का विशाल भारत था

    हिन्दी पत्रकारिता के विकास युग

    आदि युग-हिन्दी पत्रकारिता के उद्भव काल अर्थात् 30 मई 1826 को पं.जुगल किशोर शुक्ल द्वारा उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन आरंभ करने से 1872 तकउसका आदि युग रहा। भारतीयपत्रकारिता के उस आरंभिक युग में पत्रकारिता काउद्देश्य जनमानस में जागरुकता पैदा करना था। इस दौरान 1857 की क्रांति काप्रभाव भी लोगों पर देखने को मिला । भारतेन्दु युग- हिन्दी साहित्य के समानही हिन्दी पत्रकारिता मे भी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अपना एक अलग ही स्थानहै।  भारतेन्दु जी ने 1868 से ही पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखना आरंभ कर दियाथा।  पत्रकारों के इस युग में पत्रकारिता का उद्देश्य जनता में राष्ट्रीयएकता की भावना जागृत करना था। भारतेन्दु युग 1900 ई. सन माना जाता है। इसदौरान महिलाओं की समस्याओं पर आधारित बालबोधनी पत्रिका का भी प्रकाशन किया।मालवीय युग- 1887 में कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह ने मालवीय जी किसंपादकत्व में हिन्दोस्थाननाम समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ किया था। बादमें मालवीय जी ने स्वयं अभ्युदयनामक पत्रिका निकाली। बालमुकुन्द गुप्त, अमृतलाल चक्रवर्ती, गोपाल राम गहमरी आदि उस युग के प्रमुख संपादक थे। 1890 से 1905 तक के राजनैतिक परिवर्तन वाले  युग में पत्रकारिता कालक्ष्य भीराजनैतिक समझ को जागृत करना था।
    द्विवेदी युग-पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा 1903 में सरस्वतीका प्रकाशन करने के साथ ही पत्रकारिता को एक नया स्वरूप मिल गया। इस दौरानपत्रकारिता का विस्तार भी तेजी से हुआ। द्विवेदी युग का समय 1905 से 1920 माना जाता है। द्विवेदी युग में देश के कोने-कोने से पत्र-पत्रिकाओं का बड़ीतादाद में प्रकाशन होने लगा।
    गांधी युग-मोहनदास करमचन्द गांधी अर्थात महात्मा गांधी का हिन्दीपत्रकारिता बड़ा योगदान रहा है। गांधी युग 1920 से 1947 तक माना जाता है। इसदौर में स्वतंत्रता आंदोलनो में भी तेजी आई थी आजादी को प्राप्त करने कीहोड़ में इन आंदोलनो के साथ पत्रकारिताभी काफी विकसीत होने लगी।इनमहत्वपूर्ण वर्षो में ही हिन्दी और भारतीय पत्रकारिता के मानक निर्धारितहुए। उन्हीं वर्षों में ही विश्व पत्रकारिता जगत मे भारतीय पत्रकारिता कीविशेष पहचान बनी। शिवप्रसाद गुप्त, गणेशशंकर विद्यार्थी, अम्बिका प्रसादवजपेयी,माखनलाल चतुर्वेदी, बाबूराम विष्णु पराड़कर आदि स्वनामधन्य पत्रकारउसी युग के हैं। कर्मवीर, प्रताप, हरिजन, नवजीवन, इंडियन ओपीनियन आदिदर्जनों पत्र पत्रिकाओं ने उस युग में स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई उर्जाप्रदान की ।
    आधुनिक युग-स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर अब तक के वर्षों की हिन्दीपत्रकारिता की विकास यात्रा को आधुनिक युग में रखा जाता है। इस युग मेंपत्रकारिता के विषय क्षेत्र का विस्तार और नए आयामों का उद्भव हुआ हैआधुनिक दौर में भाषा और खबरों के चयन में भी काफी परिवर्तन देखने का मिलरहे हैं। खासतौर पर अखबारों की खबर पर समाज की आधुनिक सोच का प्रभाव भीपूरी तरह से देखने को मिल रहा है। इतना ही नहीं अखबारों में प्रबंधन औरविज्ञापन के बड़ते प्रभाव का असर भी हो रहा है। हर दिन नए नए अखबार एक नएस्वरूप में लोगों के सामने अ रहे है। खोजी पत्रकारिता का समावेश भी तेजी सेअखबारों को अपना चपेटे में ले रहा है। ज्यादातर अखबार इंटरनेट पर भी अपनेसारे संस्करण उपलब्ध करा रहे हैं। अन्य किताबों से संकलित करके पिछले कईसालों पुराने समाचार पत्र के विकास को जानने का प्रयास किया है। कुछ ऐसेअखबार और उनके प्रकाशन के वर्षो का विवरण हम छात्रों की सुविधा के लिए देरहें है।

    एक शताब्दी से अधिक पुराने समाचार पत्र
    1 बाम्बे समाचार, गुजराती दैनिक, बंबई                                        1822
    2 क्राइस्ट चर्च स्कूल (बंबई शिक्षा समिति की पत्रिका)                    1825
      द्विभाषी वार्षिक पत्र, बंबई
    3 जाम-ए-जमशेद, गुजराती दैनिक, बंबई                                     1832
    4 टाइम्स आफ इंडिया अंग्रेजी दैनिक, बंबई                                   1838
    5 कैलकटा रिव्यू, अंग्रेजी त्रैमासिक कलकत्ता                               1844
    6 तिरुनेलवेलि डायोसेजन मैगजीन, तमिल मासिक तिरुनेलवेलि  1849
    7 एक्जा़मिनर, अंग्रेज़ी साप्ताहिक, बंबई                                       1850
    8 गार्जियन, अंग्रेज़ी पाक्षिक, मद्रास                                               1851
    9 ए इंडियन, पुर्तगाली साप्ताहिक, मारगांव                                   1861  
    10 बेलगाम समाचार, 10 मराठी साप्ताहिक बेलगाम                     1863
    11 न्यू मेन्स ब्रैड्शा, अंग्रेज़ी मासिक कलकत्ता                              1865
    12 पायनीयर, अंग्रेज़ी दैनिक, लखनऊ                                           1865
    13 अमृत बाजार पत्रिका, अंग्रेज़ी दैनिक कलकत्ता                         1868
    14 सत्य शोधक, मराठी साप्ताहिक, रत्नगिरी                                1871
    15 बिहार हैरॉल्ड, अंग्रेज़ी साप्ताहिक, पटना                                   1874
    16 स्टेट्समैन, (द) अंग्रेज़ी दैनिक, कलकत्ता                                  1875
    17 हिन्दू, अंग्रेज़ी दैनिक, मद्रास                                                     1878
    18 प्रबोध चंद्रिका, मराठी साप्ताहिक, जलगांव                               1880
    19 केसरी, मराठी दैनिक पुणे                                                         1881
    20 आर्य गजट, उर्दू साप्ताहिक, दिल्ली                                           1884
    21 दीपिका, मलयालम दैनिक, कोट्टायम                                        1887
    22 न्यू लीडर,अंग्रेजी साप्ताहिक, मद्रास                                         1887
    23 कैपिटल, अंग्रेजी साप्ताहिक, कलकत्ता                                    1888

    प्रमुख प्रकाशन समूह और उनकी पत्रिकाएं :

    1-बेनट कॉलमेन एण्ड कम्पनी लि. (पब्लिक लि.)- टाइम्स आफ इंडिया , इकोनेमिक टाइम्स (अंग्रेजी दैनिक 1961), नवभारत टाइम्स (हिन्दीदैनिक,1950), महाराष्ट्र टाइम्स (मराठी दैनिक,1972),  सांध्य टाइम्स (हिन्दी दैनिक,1970), धर्मयुग(हिन्दी पाक्षिक,1957), टाइम्स आफ इंडिया (गुजराती दैनिक,1989)
    2-इंडियन एक्सप्रेस (प्रा. लि. कम्पनी)- लोकसत्ता (मराठीदैनिक,1948), इंडियन एक्सप्रेस (अंग्रेजी दैनिक1953) फाइनेशियल एक्सप्रेस (अंग्रेजी दैनिक 1977), लोक प्रभा (मराठी साप्ताहिक 1974), जनसत्ता (हिन्दी 1983), समकालीन(गुजराती दैनिक 1983) स्क्रीन (अंग्रेजी साप्ताहिक,1950), दिनमानी (तमिल दैनिक,1957)
    3-आनन्द बाजार पत्रिका(प्रा.लि.)- आनन्द बाजार पत्रिका (बंगालीदैनिक ,1920), बिजनेस स्टैण्डर्ड (अंग्रेजी दैनिक 1976), टेलीग्राफ (अंगे्रजी दैनिक1980), संडे (अंग्रेजी साप्ताहिक1979), आनन्द कोष (बंगालीपाक्षिक 1985),स्पोर्ट्स वल्र्ड  (अंग्रेजी साप्ताहिक,1978)  बिजनेस वल्र्ड (अंग्रेजी पाक्षिक,1981)
    4-मलायालम मनोरमर लि. (पब्लिक लि.)- मलयालम मनोरमा (दैनिक,1957)द वीक (अंगे्रजी दैनिक1982), मलयालम मनोरमा (मलसालम साप्ताहिक,1951)
    5- अमृत बाजार पत्रिका प्रा. लि.- अमृत बाजार पत्रिका (अंगे्रजीदैनिक1868), युगान्तर(बंगाली दैनिक,1937), नारदन इंडिया पत्रिका(अंगे्रजीदैनिक1959), (हिन्दी दैनिक 1979)
    6-हिन्दी समाचार लि(पब्लिक लि.)- हिन्दी समाचार (उर्दू दैनिक,1940 ,) पंजाब केसरी (हिन्दी दैनिक,1965)
    7- स्टेट्मैन लिमिटेड (प्रा. लि.)-स्टेट्मैन (अंगे्रजी दैनिक1875) 
    8- मातृभूमि प्रिंटिंग एण्ड पब्लिशिंग कम्पनी लि.(प्रा. लि.)- मातृभूमि डेली (मलयांलम दैनिक ,1962), चित्रभूमि (मलयालम साप्ताहिक11- उषोदया पब्लिकेशन प्रा. लि.-
    रानी मुथु (तमिल मासिक 1969), इन्दू (तेलगु दैनिक 1973), न्यूज टाइम्स (अंगे्रजी दैनिक1984)
    12- कस्तूरी एण्ड संस लिमेटेड (प्रा. लि.)- हिन्दू (अंगे्रजी दैनिक 1878), स्पोटर्स स्टार (अंगे्रजी साप्ताहिक 1878), फ्रंट लाइन (अंग्रेजी पाक्षिक)
    13-द प्रिंटर्स (मैसूर लिमिटेड)- दक्खन हैरल्ड(अंगे्रजी दैनिक 1948), प्रजावागी (कन्नड़ दैनिक 1948),   सुधा (कन्न्ड साप्ताहिक 1948), मयुर (कन्न्ड मासिक 1968)
    14-सकाल पेपर्स (प्रा. लि.)- सकाल (मराठी दैनिक,1948), संडे सकाल(मराठी साप्ताहिक 1980), साप्ताहिक सकाल (मराठी साप्ताहिक 1987), अर्धमानियन (मराठी साप्ताहिक 1992),
    15-मैं जागरण प्रकाशन प्रा.लि.- जागरण (हिन्दी दैनिक 1947)
    16-द ट्रिब्यून ट्रस्ट- (अंगे्रजी दैनिक 1957), ट्रब्यून (हिन्दी दैनिक 1978), ट्रब्यून (पंजाबी दैनिक 1978)
    17-लोक प्रकाशन (प्रा. लि.)- गुजरात समाचार (गुजराती दैनिक 1932)
    18-सौराष्ट्र ट्रस्ट- जन्म भूमी (गुजराती दैनिक, 1934), जन्मभूमीप्रवासी (गुजराती दैनिक 1939), फुलछाव (गुजराती दैनिक ,1952), कच्छमित्र(गुजराती साप्ताहिक ,1957), व्यापार (सप्ताह में दो बार,गुजराती, 1948)
    19-ब्लिट्ज पब्लिकेशन्स(प्रा. लि.)- ब्लिट्ज न्यूज मैगजीन (अंगे्रजीसाप्ताहिक,1957), ब्लिट्ज (उर्दू साप्ताहिक,1963), ब्लिट्ज (हिन्दीसाप्ताहिक 1962), सीने ब्लिट्ज (अंगे्रजी साप्ताहिक)
    20-टी. चन्द्रशेखर रेड्डी तथा अन्य (साझेदारी)- दक्खन क्रोनिकल (अंगे्रजी दैनिक 1938),आंध्रभूमी (तेलगु दैनिक, 1960),आंध्र भूमी सचित्र बार पत्रिका (तेलगु साप्ताहिक 1977)
    21-संदेश लिमिटेड (पब्लिक लिमिटेड)- संदेश (गुजराती दैनिक 1923), श्री (गुजराती साप्ताहिक 1962), धर्म संदेश (गुजराती पाक्षिक1965)

    पत्रकारिता के प्रकार : ग्रामीण पत्रकारिता, आर्थिक, खेल, रेडियो, टेलीविजन, फिल्म, फोटो, खोजी, अनुसंधान, वृत्तांत, अपराध। 

     

     

     

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    Wednesday, 25 December 2013

    समाचार पत्रों पर अलग-अलग समयों में लगाए गए प्रतिबन्ध


    1857 ई. के संग्राम केबाद भारतीय समाचार पत्रों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और अब वेअधिक मुखर होकर सरकार के आलोचक बन गये। इसी समय बड़े भयानक अकाल से लगभग 60 लाख लोग काल के ग्रास बन गये थे, वहीं दूसरी ओर जनवरी1877 में दिल्ली में हुए 'दिल्ली दरबार'पर अंग्रेज़ सरकार ने बहुत ज़्यादा फिजूलख़र्ची की। परिणामस्वरूप लॉर्ड लिटन की साम्राज्यवादी प्रवृति के ख़िलाफ़ भारतीय अख़बारों ने आग उगलना शुरू कर दिया। लिंटन ने 1878 ई. में 'देशी भाषा समाचार पत्र अधिनियम'द्वारा भारतीय समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता नष्ट कर दी। 

    वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट

    'वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट'तत्कालीन लोकप्रियएवं महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी समाचार पत्र 'सोम प्रकाश'को लक्ष्य बनाकरलाया गया था। दूसरे शब्दों में यह अधिनियम मात्र 'सोम प्रकाश'पर लागू होसका। लिटन के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट से बचने के लिए 'अमृत बाज़ार पत्रिका' (समाचार पत्र), जो बंगला भाषा कीथी, अंग्रेज़ी साप्ताहिक में परिवर्तित हो गयी। सोम प्रकाश, भारत मिहिर, ढाका प्रकाश, सहचर आदि के ख़िलाफ़ मुकदमें चलाये गये। इस अधिनियम के तहतसमाचार पत्रों को न्यायलय में अपील का कोई अधिकार नहीं था। वर्नाक्यूलरप्रेस एक्ट को 'मुंह बन्द करने वाला अधिनियम'भी कहा गया है। इस घृणितअधिनियम को लॉर्ड रिपन ने 1882 ई. में रद्द कर दिया।

    समाचार पत्र अधिनियम

    लॉर्ड कर्ज़न द्वारा 'बंगाल विभाजन'के कारण देश में उत्पन्न अशान्ति तथा 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस'में चरमपंथियों के बढ़ते प्रभाव के कारण अख़बारों के द्वारा सरकार कीआलोचना का अनुपात बढ़ने लगा। अतः सरकार ने इस स्थिति से निपटने के लिए 1908 ई.का समाचार पत्र अधिनियम लागू किया। इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई किजिस अख़बार के लेख में हिंसा व हत्या को प्रेरणा मिलेगी, उसके छापाखाने वसम्पत्ति को जब्त कर लिया जायेगा। अधिनियम में दी गई नई व्यवस्था केअन्तर्गत 15 दिन के भीतर उच्च न्यायालय में अपील की सुविधा दी गई। इसअधिनियम द्वारा नौ समाचार पत्रों के विरुद्व मुकदमें चलाये गये एवं सात केमुद्रणालय को जब्त करने का आदेश दिया गया।
    1910 ई.के 'भारतीय समाचार पत्र अधिनियम'में यह व्यवस्था थी कि समाचार पत्र केप्रकाशक को कम से कम 500 रुपये और अधिक से अधिक 2000 रुपये पंजीकरण जमानतके रूप में स्थानीय सरकार को देना होगा, इसके बाद भी सरकार को पंजीकरणसमाप्त करने एवं जमानत जब्त करने का अधिकार होगा तथा दोबारा पंजीकरण के लिएसरकार को 1000 रुपये से 10000 रुपये तक की जमानत लेने का अधिकार होगा।इसके बाद भी यदि समाचार पत्र सरकार की नज़र में किसी आपत्तिजनक साम्रगी कोप्रकाशित करता है तो सरकार के पास उसके पंजीकरण को समाप्त करने एवं अख़बारकी समस्त प्रतियाँ जब्त करने का अधिकार होगा। अधिनियम के शिकार समाचार पत्रदो महीने के अन्दर स्पेशल ट्रिब्यूनल के पास अपील कर सकते थे।

    अन्य अधिनियम

    प्रथम विश्वयुद्ध के समय 'भारत सुरक्षा अधिनियम'पास कर राजनीतिक आंदोलन एवं स्वतन्त्र आलोचना पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। 1921 ई.सर तेज बहादुर सप्रू की अध्यक्षता में एक 'प्रेस इन्क्वायरी कमेटी'नियुक्त की गई। समिति के ही सुझावों पर 1908 और 1910 ई. के अधिनियमों कोसमाप्त किया गया। 1931 ई. में 'इंडियन प्रेस इमरजेंसी एक्ट'लागू हुआ। इस अधिनियम द्वारा 1910 ई. के प्रेस अधिनियम को पुनः लागू कर दिया गया। इस समय गांधी जी द्वारा चलाये गये सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रचार को दबाने के लिए इस अधिनियम को विस्तृत कर 'क्रिमिनल अमैंडमेंट एक्ट'अथवा 'आपराधिक संशोधित अधिनियम'लागू किया गया। मार्च1947 में भारत सरकार ने 'प्रेस इन्क्वायरी कमेटी'की स्थापना समाचार पत्रों से जुड़े हुए क़ानून की समीक्षा के लिए किया।
    भारत में समाचार पत्रों एवं प्रेस के इतिहास के विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ एक ओर लॉर्ड वेलेज़लीलॉर्ड मिण्टो, लॉर्ड एडम्सलॉर्ड कैनिंग तथालॉर्ड लिटन जैसे प्रशासकों ने प्रेस की स्वतंत्रता का दमन किया, वहीं दूसरी ओर लॉर्ड बैंटिकलॉर्ड हेस्टिंग्सचार्ल्स मेटकॉफ़लॉर्ड मैकाले एवं लॉर्ड रिपनजैसेलोगों ने प्रेस की आज़ादी का समर्थन किया। 'हिन्दू पैट्रियाट'के सम्पादक'क्रिस्टोदास पाल'को 'भारतीय पत्रकारिता का राजकुमारकहा गया है।

     

     

     

    विश्व व भारत में पत्रकारिता का इतिहास

     

    विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन131-59 ईस्वी पूर्वरोम में हुआ था। पहला दैनिक समाचार-पत्र निकालने का श्रेय जूलियस सीजर  को दिया जाता है। उनके पहले समाचार पत्र  का नाम था"Acta Diurna" (एक्टा डाइएर्ना) (दिन की घटनाएं)।इसे इसे वास्तवमें यह पत्थर की या धातु की पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे।ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं, और इन में वरिष्ठअधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों कीलड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।
    मध्यकाल में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में 'सूचना-पत्र'निकलने लगे। उनमें कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचारलिखे जाते थे। लेकिन ये सारे सूचना-पत्र हाथ से ही लिखे जाते थे। 1439 में योहानेस गुटेनबर्ग ने  धातु के अक्षरों से छापने की मशीन का आविष्कार किया।  उन्होंने 1450 के आस पास प्रथम मुद्रित पुस्तक कांस्टेंन मिसलतथा एकबाइबिल भी छापी, जो 'गुटेनबर्ग बाइबल'के नाम से प्रसिद्ध है। इस केफलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अखबारों का भी प्रकाशन संभव हो गया।
    16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूसनाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करताथा। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नकल करने का काम महंगा भी था औरधीमा भी। तब वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा।समाचार-पत्र का नाम थारिलेशन। यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है।

    भारत में पत्रकारिता का आरंभ:

    भारतमें समाचार पत्रों का इतिहास यूरोपीय लोगों के भारत में प्रवेश के साथ हीप्रारम्भ होता है। सर्वप्रथम भारत में प्रिंटिग प्रेस लाने का श्रेयपुर्तग़ालियों को दिया जाता है। 1557 ई. में गोवा के कुछ पादरी लोगों नेभारत की पहली पुस्तक छापी। छापे की पहली मशीन भारत में 1674 में पहुंचायी गयी थी। 1684 ई. में अंग्रेज़ ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी भारत की पहली पुस्तक की छपाईकी थी। 1684 ई. में ही कम्पनी ने भारत में प्रथम प्रिंटिग प्रेस(मुद्रणालय) की स्थापना की। मगरभारत का पहला अख़बार इस के 100 साल बाद, 1776 (कहीं 1766 भी लिखा गया है) में प्रकाशित हुआ। इस काप्रकाशक ईस्ट इंडिया कंपनी का भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्सथा। यह अख़बार स्वभावतः अंग्रेजी भाषा में निकलता था तथा कंपनी व सरकार के समाचार फैलाता था।
    File:Hicky's Bengal Gazette.pdf
    भारत का  सब से पहला अख़बार29 जनवरी 1780 में कलकत्ता से शुरू हुआ जेम्स ओगस्टस हीकी का अख़बार 'हिकी'ज बंगाल गजट'और 'दि आरिजिनल कैलकटा जनरल एड्वरटाइजर' था।अख़बारमें दो पन्ने थे, और इस में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों कीव्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। जब हीकी ने अपने अख़बार में गवर्नर कीपत्नी का आक्षेप किया तो उसे 4 महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये काजुरमाना लगा दिया गया। लेकिन हीकी ने शासकों की आलोचना करने से परहेज नहींकिया। और जब उस ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुरमाना लगाया गया और एक साल के लिये जेल में डाला गया। इसतरह उस का अख़बार भी बंद हो गया।



    इस दौरान कुछ अन्य अंग्रेज़ी अख़बारों का प्रकाशन भी हुआ, जैसे- बंगाल में'कलकत्ता कैरियर', 'एशियाटिक मिरर', 'ओरियंटल स्टार'; मद्रास में 'मद्रासकैरियर', 'मद्रास गजट'; बम्बई में 'हेराल्ड', 'बांबे गजट'आदि। 1818 ई. मेंब्रिटिश व्यापारी 'जेम्स सिल्क बर्किघम'ने 'कलकत्ता जनरल'का सम्पादनकिया। बर्किघम ही वह पहला प्रकाशक था, जिसने प्रेस को जनता के प्रतिबिम्बके स्वरूप में प्रस्तुत किया। प्रेस का आधुनिक रूप जेम्स सिल्क बर्किघम काही दिया हुआ है। हिक्की तथा बर्किघम का पत्रकारिता के इतिहास में महत्पूर्णस्थान है। 1790 के बाद भारत में अंग्रेजी भाषा की और कुछ अख़बार स्थापितहुए जो अधिकतर शासन के मुखपत्र थे। पर भारत में प्रकाशित होनेवालेसमाचार-पत्र थोड़े-थोड़े दिनों तक ही जीवित रह सके।
    1816 में पहला भारतीय अंग्रेज़ी समाचार पत्र कलकत्ता में गंगाधर भट्टाचार्य द्वारा 'बंगाल गजट'नाम से निकाला गया। यह साप्ताहिक समाचार पत्र था। 
    1818 ई. में मार्शमैन के नेतृत्व में बंगाली भाषा मेंपहला मासिक पत्र  'दिग्दर्शन'का प्रकाशन किया गया। जो भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र भी था। 
    राजा राममोहन राय ने भारतीय भाषा (बंगाली) में पहले साप्ताहिक समाचार-पत्र  संवादकौमुदी(बुद्धि का चांद) का 1819 में, 'समाचार चंद्रिका'का मार्च 1822 में और अप्रैल 1822 में फ़ारसी भाषा में'मिरातुल'अख़बारएवं अंग्रेज़ी भाषा में 'ब्राह्मनिकल मैगजीन'का प्रकाशन किया। 
    1822 में गुजराती भाषा का साप्ताहिकमुंबईना समाचारप्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप मेंआज तक विद्यमानहै।भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार-पत्र है।
    udant martand
    उदंत मार्तंड
    1826 में कानपुर निवासी पंडित युगल किशोर शुक्ल ने कलकत्ता से उदंत मार्तंडनाम से हिंदी के प्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशनप्रारंभ किया।यहसाप्ताहिकपत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया। इसके अंतिम अंक में लिखा है- उदन्त मार्तण्ड की यात्रा- मिति पौष बदी १ भौम संवत् १८८४ तारीख दिसम्बर सन् १८२७ ।
    आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त
    अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त ।
    गिल क्राइस्ट नाम ने अंग्रेज की भी कलकत्ता में हिंदी का श्रीगणेश करने वाले विद्वानों में गिनती की जाती हैं। 
    1830 में राजा राममोहन राय ने द्वारकानाथ टैगोर एवं प्रसन्न कुमार टैगोर के साथ बड़ा हिंदी साप्ताहिकबंगदूतका कोलकाता से प्रकाशन शुरू किया। वैसे यहबहुभाषीय पत्रथा, जो अंग्रेजी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था।बम्बई से 1831 ई. में गुजराती भाषा में 'जामे जमशेद'तथा 1851 ई. में 'रास्त गोफ़्तार'एवं 'अख़बारे सौदागार'का प्रकाशन हुआ।
    1833 में भारत में 20 समाचार-पत्र थे, 1850 में 28 हो गए, और 1953 में 35 हो गये। इस तरह अख़बारों की संख्या तो बढ़ी, पर नाममात्र को ही बढ़ी। बहुतसे पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार-पत्र कईमहीनों से ले कर दो-तीन साल तक जीवित रहे।
    उस समय भारतीय समाचार-पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपनेपाठकों को देना चाहते थे और उसके साथ समाज-सुधार की भावना भी थी। सामाजिकसुधारों को लेकर नये और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे। इस के कारणनये-नये पत्र निकले। उन के सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किसभाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थी-भाषा शुद्ध हो या सब के लिये सुलभहो? 1846 में राजा शिव प्रसाद ने हिंदी पत्र बनारस अख़बारका प्रकाशन शुरू किया। राजा शिव प्रसाद शुद्ध हिंदी का प्रचार करते थे औरअपने पत्र के पृष्ठों पर उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोल-चाल कीहिंदुस्तानी के पक्ष में थे। लेकिन उसी समय के हिंदी लखक भारतेंदुहरिशचंद्र ने ऐसी रचनाएं रचीं जिन की भाषा समृद्ध भी थी और सरल भी। इस तरहउन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी है और हिंदी के भविष्य के बारे में होरहे विवाद को समाप्त कर दिया।1868 में भरतेंदु हरिशचंद्र ने साहित्यिक पत्रिका कविवच सुधानिकालना प्रारंभ किया।1854 मेंहिंदी का पहला दैनिक समाचार पत्र 'सुधा वर्षणनिकला।१८६८ में देश का पहला सांध्य समाचार पत्र 'मद्रास मेल'शुरू हुआ। 
    अंग्रेज़ों द्वारा सम्पादित समाचार पत्र
    समाचार पत्र
    स्थान
    वर्ष
    टाइम्स ऑफ़ इंडिया
    1861 ई.
    स्टेट्समैन
    1878 ई.
    इंग्लिश मैन
    कलकत्ता
    -
    फ़्रेण्ड ऑफ़ इंडिया
    -
    मद्रास मेल
    1868 ई.
    पायनियर
    1876 ई.
    सिविल एण्ड मिलिटरी गजट
    -

    प्रतिबन्ध

    समाचार पत्र पर लगने वाले प्रतिबंध के अंतर्गत 1799 में लॉर्ड वेलेज़ली द्वारा पत्रों का 'पत्रेक्षण अधिनियम'औरजॉन एडम्सद्वारा 1823 ई. में 'अनुज्ञप्ति नियम'लागू कियेगये। इनके कारणराजा राममोहन राय का मिरातुल अख़बारबन्द हो गया।लॉर्ड विलियम बैंटिक प्रथम गवर्नर-जनरल था, जिसने प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया।कार्यवाहक गर्वनर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ़ ने 1823 के प्रतिबन्ध को हटाकर समाचार पत्रों को मुक्ति दिलवाई। यही कारण है कि उसे 'समाचार पत्रों का मुक्तिदाता'भी कहा जाता है। लॉर्ड मैकाले ने भी प्रेस की स्वतंत्रता का समर्थन किया। 1857-1858 के विद्रोह के बाद भारत में समाचार पत्रों को भाषाई आधार के बजाय प्रजातीय आधार पर विभाजित किया गया। अंग्रेज़ी समाचारपत्रों एवं भारतीय समाचार पत्रों के दृष्टिकोण में अंतर होता था। जहाँअंग्रेज़ी समाचार पत्रों को भारतीय समाचार पत्रों की अपेक्षा ढेर सारीसुविधाये उपलब्ध थीं, वही भारतीय समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा था। 

    भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजी और भाषाई पत्रकारिता की भूमिका

    जेम्स अगस्टन हिक्की ने 29 जनवरी 1780 में पहला भारतीय समाचार पत्र बंगालगजट कलकत्ता से अंग्रजी में निकाला। इसका आदर्श वाक्य था - सभी के लियेखुला फिर भी किसी से प्रभावित नहीं ।
    अपने निर्भीक आचरण और विवेक पर अड़े रहने के कारण हिक्की को इस्ट इंडियाकंपनी का कोपभाजन बनना पड़ा। हेस्टिंगस सरकार की शासन शैली की कटू आलोचनाका पुरस्कार हिक्की को जेल यातना के रूप में मिली। हिक्की ने अपना उद्देश्यही घोषित किया था -अपने मन और आत्मा की स्वतंत्रता के लिये अपने शरीरको बंधन में डालने में मुझे मजा आता है। समाचार पत्र की शुरूआत विद्रोह कीघोषणा से हुई।
    हिक्की भारत के प्रथम पत्रकार थे जिन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के लिये ब्रिटिश सरकार से संघर्ष किया।
    उत्तरी अमेरिका निवासी विलियम हुआनी ने हिक्की की परंपरा को समृद्ध किया। 1765 में प्रकाशित बंगाल जनरल जो सरकार समर्थक था 1791 में हुमानी केसंपादक बन जाने के बाद सरकार की आलोचना करने लगा। हुमानी की आक्रामक मुद्रासे आतंकित होकर सरकार ने उसे भारत से निष्कासित कर दिया।
    जेम्स बंकिघमको प्रेस की स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता था। उन्होंने 2 अक्टूबर 1818 को कलकत्ता से अंग्रजी का'कैलकटा जनरल'प्रकाशित किया। जो सरकारी नीतियों का निर्भीक आलोचक था। पंडित अंबिकाप्रशाद ने लिखा किइस पत्र की स्वतंत्रता व उदारता पहले किसी पत्र में नही देखी गयी। कैलकटाजनरल उस समय के एंग्लोइंडियन पत्रों को प्रचार प्रसार में पीछे छोड़ दियाथा। एक रूपये मूल्य के इस अखबार का दो वर्ष में सदस्य संख्या एक हजार सेअधिक हो गयी थी।सन् 1823 में उन्हें देश निकाला दे दिया गया। हालांकिइंगलैंड जाकर उन्होंने आरियंटल हेराल्ड निकाला जिसमें वह भारतीय समस्याओंऔर कंपनी के हाथों में भारत का शासन बनाये रखने के खिलाफ लगातार अभियानचलाता रहा।
    1861 के इंडियन कांउसिल एक्ट के बाद समाज के उपरी तबकों में उभरी राजनीतिकचेतना से भारतीय व गैरभारतीय दोनों भाषा के पत्रों की संख्या बढ़ी।  1861 में बंबई में टाइम्स आफ इंडिया की 1865 में इलाहाबाद में पायनियर 1868 मेंमद्रास मेल की 1875 में कलकत्ता स्टेटसमैन की और 1876 में लाहौर में सिविलऐंड मिलटरी गजट की स्थापना हुई।ये सभी अंग्रेजी दैनिक ब्रिटिश शासनकाल में जारी रहे। 
    टाइम्स आफ इंडियाने प्रायः ब्रिटिश सरकार की नीतियों का समर्थन किया। पायोनियरने भूस्वामी और महाजनी तत्वों का पक्ष तो मद्रास मेल यूरोपीय वाणिज्य समुदाय का पक्षधर था। स्टेटसमैनने सरकार और भारतीय राष्ट्रवादियों दोनों का ही आलोचना की थी। सिविल एण्ड मिलिटरी गजट ब्रिटिश दाकियानूसी विचारों का पत्र था। स्टेटसमैन, टाइम्स आफ इंडिया, सिविल एंड मिलिटरी गजट, पायनियर और मद्रास मेलजैसे प्रसिद्ध पत्र अंग्रेजी सरकार और शासन की नीतियों एवं कार्यक्रम का समर्थन करते थे।
    अमृत बाजार पत्रिका, बांबे क्रानिकल, बांबे सेंटिनल, हिन्दुस्तानटाइम्स, हिन्दुस्तान स्टैंडर्ड, फ्री प्रेस जनरल, नेशनल हेराल्ड व नेशनलकालअंग्रेजी में छपने वाले लक्ष्य प्रतिष्ठित राष्ट्रवादी दैनिक और साप्ताहिक पत्र थे।हिन्दू लीडर, इंडियन सोशल रिफार्मर व माडर्न रिव्यूउदारपंथी राष्ट्रीयता की भावना को अभिव्यक्ति देते थे।

    इंडियन नेशनल कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों को राष्ट्रीय पत्रों नेपूर्ण और उदारपंथी पत्रों ने आलोचनात्मक समर्थन दिया था। डान मुस्लिम लीगके विचारों का पोषक था। देश के विद्यार्थी संगठनों के अपने पत्र थे जैसेस्टूडेंट और साथी। भारत के राष्ट्रीय नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने 1874 मेंबंगाली ( अंग्रेजी ) पत्र का प्रकाशन व संपादन किया। इसमें छपे एक लेख केलिये उन पर न्यायालय की अवज्ञा का अभियोग लगाया गया था। उन्हें दो महीने केकारावास की सजा मिली थी। बंगाली ने भारतीय राजनीतिक विचारधारा के उदारवादीदल के विचारों का प्रचार किया था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की राय पर दयालसिंह मजीठिया ने1877 में लाहौर में अंग्रेजी दैनिक ट्रिब्यून की स्थापनाकी। पंजाब की उदारवादी राष्ट्रीय विचारधारा का यह प्रभावशाली पत्र था।
    लार्ड लिटन के प्रशासनकाल में कुछ सरकारी कामों के चलते जनता की भावनाओं कोचोट पहुंची, जिससे राजनीतिक असंतोष बढ़ा और अखबारों की संख्या में वृद्धिहुई। 1878 में मद्रास में वीर राधवाचारी और अन्य देशभक्त भारतीयों नेअंग्रेजी सप्ताहिक हिन्दू की स्थापना की। 1889 से यह दैनिक हुआ। हिन्दू कादृष्टिकोण उदारवादी था। लेकिन इसने इंडियन नेशनल कांग्रेस की राजनीति कीआलोचना के साथ ही उसका समर्थन भी किया। राष्ट्रीय चेतना का समाज सुधार केक्षेत्र में भी प्रसार हुआ। बंबई  में 1890 में इंडियन सोशल रिफार्मरअंग्रेजी साप्ताहिक की स्थापना हुई। समाज सुधार ही इसका मुख्य लक्ष्य था।
    1899 में सच्चिदानंद सिन्हा ने अंग्रेजी मासिक हिन्दुस्तान रिव्यू कीस्थापना की। इस पत्र का राजनैतिक और वैचारिक दृष्टिकोण उदारवादी था।

    1900 के बाद

    1900 में जी ए नटेशन ने मद्रास से इंडियन रिव्यू का और 1907 में कलकत्ता से रामानन्द चटर्जी ने मॉडर्न रिव्यू का प्रकाशन शुरू किया।
    मॉडर्न रिव्यू देश का सबसे अधिक विख्यात अंग्रेजी मासिक सिद्ध हुआ। इसमेंसामाजिक राजनीतिक ऐतिहासिक और वैज्ञानिक विषयों पर लेख निकलते थे औरअंतराष्ट्रीय घटनाओं के विषय में भी काम की खबरें होती थी। इसने इंडियननेशनल कांग्रेस में प्रायः दक्षिणपंथियों का समर्थन किया।
    1913 में बी जी हार्नीमन के संपादकत्व में फिरोजशाह मेहता ने बांबे क्रानिकल निकाला।
    1918 में सर्वेंटस आफ इंडिया सोसाइटी ने श्रीनिवास शास्त्री के संपादकत्वमें अपना मुखपत्र सर्वेंट आफ इंडिया निकालना शुरू किया। इसने उदारवादीराष्ट्रीय दृष्टिकोण से देश की समस्याओं का विश्लेषण और समाधान प्रस्तुतकिया। 1939 में इसका प्रकाशन बंद हो गया।
    1919 में गांधी ने यंग इंडियाका संपादन किया और इसके माध्यम सेअपने राजनीतिक दर्शन कार्यक्रम और नीतियों का प्रचार किया। 1933 के बादउन्होंने हरिजन ( बहुत सी भाषाओं में प्रकाशित साप्ताहिक ) का भी प्रकाशनशुरू किया।
    पंडित मोतीलाल नेहरू ने 1919 में इलाहाबाद से इंडीपेंडेंट ( अंग्रेजी दैनिक ) का प्रकाशन शुरू किया।
    स्वराज पार्टी के नेता ने दल के कार्यक्रम के प्रचार के लिये1922 में दिल्ली में के एम पन्नीकर के संपादकत्व में हिन्दुस्तान टाइम्स ( अंग्रेजी दैनिक ) का प्रकाशन शुरूकिया। इसी काल में लाला लाजपत राय के फलस्वरूप लाहौर से अंग्रेजी राष्ट्रवादी दैनिक प्यूपल का प्रकाशन शुरू किया गया।

    1923 के बाद धीरे  - धीरे समाजवादी, साम्यवादी विचार भारत में फैलने लगे।वर्कर्स एंड प्लेसंट पार्टी आफ इंडिया का एक मुखपत्र मराठी साप्ताहिकक्रांति था। मर्ट कांसपीरेसी केस के एम जी देसाई और लेस्टर हचिंसन केसंपादकत्व में क्रमशः स्पार्क और न्यू स्पार्क ( अंग्रेजी साप्ताहिक )प्रकाशित हुआ। मार्क्सवाद का प्रचार करना और राष्ट्रीय स्वतंत्रता एवंकिसानों मजदूरों के स्वतंत्र राजनीतिक आर्थिक संघर्षों को समर्थन प्रदानकरना इनका उद्देश्य था।
    1930 और 1939 के बीच मजदूरों किसानों के आंदोलनों का विस्तार हुआ और उनकीताकत बढ़ी। कांग्रेस के नौजवानों के बीच समाजवादी साम्यवादी विचार विकसितहुए। इस तरह स्थापित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने आधिकारिक पत्र के रूप मेंकांग्रेस सोशलिस्ट का प्रकाशन किया।
    कम्युनिस्ट के प्रमुख पत्र नेश्नल फ्रंट और बाद में प्युपलस् वार थे। ये दोनों अंग्रेजी सप्ताहिक पत्र थे।
    एम एन रॉय के विचार अधिकारिक साम्यवाद से भिन्न थे। उन्होंने अपना अलग दल कायम किया जिसका मुखपत्र था इंडीपेंडेंट इंडिया।

    राजा राममोहन राय

    राजा राममोहन राय ने सन् 1821 में बंगाली पत्र संवाद कौमुदी को कलकत्ता सेप्रकाशित किया। 1822 में फारसी भाषा का पत्र मिरात उल अखबार और अंग्रेजीभाषा में ब्रेहेनिकल मैगजीन निकाला।
    राजा राममोहन राय ने अंग्रेजी में बंगला हेराल्ड निकाला। कलकत्ता से 1829 में बंगदूत प्रकाशित किया जो बंगला फारसी हिन्दी अंग्रेजी भाषाओं में छपताथा।
    संवाद कौमुदी और मिरात उल अखबार भारत में स्पष्ट प्रगतिशील राष्ट्रीय औरजनतांत्रिक प्रवृति के सबसे पहले प्रकाशन थे। ये समाज सुधार के प्रचार औरधार्मिक-दार्शनिक समस्याओं पर आलोचनात्मक वाद-विवाद के मुख्य पत्र थे।
    राजा राममोहन राय की इन सभी पत्रों के प्रकाशन के पीछे मूल भावना यह थी ...मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि जनता के सामने ऐसे बौध्दिक निबंध उपस्थितकरूं जो उनके अनुभव को बढ़ावें और सामाजिक प्रगति में सहायक सिध्द हो। मैंअपनी शक्ति भर शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देनाचाहता हूं और प्रजा को उनके शासकों द्वारा स्थापित विधि व्यवस्था से परिचितकराना चाहता हूं ताकि जनता को शासन अधिकाधिक सुविधा दे सके। जनता उन उपायोसे अवगत हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और अपनी उचितमांगें पूरी करायी जा सके।
    दिसंबर 1823 में राजा राममोहन राय ने लार्ड एमहस्ट को पत्र लिखकर अंग्रेजीशिक्षा के प्रसार हेतु व्यवस्था करने का अनुरोध किया ताकि अंग्रेजी कोअपनाकर भारतवासी विश्व की गतिविधियों से अवगत हो सके और मुक्ति का महत्वसमझे।

    लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

    विष्णु शास्त्री चिपलणकर और लोकमान्य तिलक ने मिलकर 1 जनवरी 1881 से मराठी में केसरी और अंग्रेजी में मराठा साप्ताहिक पत्र निकाले।
    तिलक और उनके साथियों ने पत्र दृ प्रकाशन की उदघोषणा में कहा - हमारा दृढ़निश्चय है कि हम हर विषय पर निष्पक्ष ढंग से तथा हमारे दृष्टिकोण से जोसत्य होगा उसका विवेचन करेंगे। निःसंदेह आज भारत में ब्रिटिश शान मेंचाटुकारिता की प्रवृति बढ़ रही है। सभी ईमानदार लोग यह स्वीकार करेंगे कियह प्रवृति अवांछनीय तथा जनता के हितों के विरूद्ध है। इस प्रस्तावितसमाचारपत्र (केसरी) में जो लेख छपेंगे वे इनके नाम के ही अनुरूप होंगे।
    केसरी और मराठा ने महाराष्ट्र में जनचेतना फैलाई तथा राष्ट्रीय स्वाधीनताआंदोलन के इतिहास में स्वर्णिम योगदान दिया। उन्होंने भारतीय जनता को दीनदृ हीन व दब्बूपक्ष की प्रवृति से उठ कर साहसी निडर व देश के प्रतिसमर्पित होने का पाठ पढ़ाया। बस एक ही बात उभर कर आती थी -स्वराज्य मेराजन्मसिद्ध अधिकार है।
    सन् 1896 में भारी आकाल पड़ा जिसमें हजारों लोगों की मौत हुई। बंबई में इसीसमय प्लेग की महामारी फैली। अंग्रज सरकार ने स्थिति संभालने के लिये सेनाबुलायी। सेना घर दृ घर तलाशी लेना शुरू कर दिया जिससे जनता में क्रोध पैदाहो गया। तिलक ने इस मनमाने व्यवहार व लापरवाही से          क्षुब्ध होकरकेसरी के माध्यम से सरकार की कड़ी आलोचना की। केसरी में उनके लिखे लेख केकारण उन्हें 18 महीने कारावास की सजा दी गयी।

    महात्मा गांधी

    गांधीजी ने 4 जून 1903 में इंडियन ओपिनियन साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया।जिसके एक ही अंक से अंग्रेजी हिन्दी तमिल गुजराती भाषा में छः कॉलमप्रकाशित होते थे। उस समय गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में रहते थे।
    अंग्रेजी में यंग इंडिया और जुलाई 1919 से हिन्दी - गुजराती में नवजीवन का प्रकाशन आरंभ किया।
    इन पत्रों के माध्यम से अपने विचारों को जनमानस तक पहुंचाया। उनकेव्यक्तित्व ने जनता पर जादू सा कर दिया था। उनकी आवाज पर लोग मर - मिटने कोतैयार हो गये।
    इन पत्रों में प्रति सप्ताह महात्मा गांधी के विचार प्रकाशित होते थे।ब्रिटिश शासन द्वारा पारित कानूनों के कारण जनमत के अभाव में ये पत्र बंदहो गये। बाद में उन्होंने अंग्रेजी में हरिजन और हिन्दी में हरिजन सेवक तथागुजराती में हरिबन्धु का प्रकाशन किया तथा ये पत्र स्वतंत्रता तक छापतेरहे।

    अमृत बाजार पत्रिका

    सन् 1868 में बंगाल के छोटे से गांव अमृत बाजार से हेमेन्द्र कुमार घोष, शिशिर कुमार घोष और मोतीलाल घोष के संयुक्त प्रयास से एक बांगला साप्ताहिकपत्र अमृत बाजार पत्रिका शुरू हुआ। बाद में कलकत्ता से यह बांगला औरअंग्रेजी दोनों भाषाओं में छपने लगी।
    1878 के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट से बचने के लिये इसे पूर्णतः अंग्रेजीसाप्ताहिक बना दिया गया। सन् 1891 में अंग्रेजी दैनिक के रूप में इसकाप्रकाशन शुरु हुआ।
    अमृत बाजार पत्रिका ने तगड़े राष्ट्रीय विचारों का प्रचार किया और यहअत्याधिक लोकप्रिय राष्ट्रवादी पत्र रहा है। सरकारी नीतियों की कटू आलोचनाके कारण इस पत्र का दमन भी हुआ। इसके कई संपादकों को जेल की भी सजा भुगतनीपड़ी।
    जब ब्रिटिश सरकार ने धोखे से कश्मीर मे राजा प्रताप सिंह को गद्दी से हटादिया और कश्मीर को अपने कब्जे में लेना चाहा तो इस पत्रिका ने इतना तीव्रविरोध किया कि सरकार को राजा प्रताप सिंह को राज्य लौटाना पड़ा।

    पयामे आजादी

    स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी नेता अजीमुल्ला खां ने 8 फरवरी 1857 को दिल्लीसे पयामे आजादी पत्र प्रारंभ किया। शोले की तरह अपनी प्रखर व तेजस्वनीवाणी से जनता में स्वतंत्रता की भावना भर दी। अल्पकाल तक जीवित रहे इस पत्रसे घबराकर ब्रिटिश सरकार ने इसे बंद कराने में कोई कसर नही छोड़ी।
    पयामे आजादी पत्र से अंग्रेज सरकार इतनी आतंकित हुई कि जिस किसी के पास भीइस पत्र की कॉपी पायी जाती उसे गद्दार और विद्रोही समझ कर गोली से उड़ादिया गया। अन्य को सरकारी यातनायें झेलनी पड़ती थी। इसकी प्रतियां जब्त करली गयी फिर भी इसने जन दृ जागृति फैलाना जारी रखा।

    युगांतर

    जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी ने लिखा है -जहां तक क्रांतिकारी आंदोलन का संबंध है भारत का क्रांतिकारी आंदोलन बंदूक और बम के साथ नही समाचारपत्रों से शुरु हुआ।
    वारिन्द्र घोष का पत्र युगांतर वास्तव में युगान्तरकारी पत्र था। कोई जाननही पाता था कि इस पत्र का संपादक कौन है। अनेक व्यक्तियों ने ससमय अपनेआपको पत्र का संपादक घोषित किया और जेल गये। दमनकारी कानून बनाकर पत्र कोबंद किया गया।
    चीफ जस्टिस सर लारेंस जैनिकसन ने इस पत्र की विचारधारा के बारे में लिखाथा- इसकी हर एक पंक्ति से अंग्रेजों के विरुध्द द्वेष टपकता है। प्रत्येकशब्द में क्रांति के लिये उत्तेजना झलकती है।
    युगांतर के एक अंक में तो बम कैसे बनाया जाता है यह भी बताया गया था।सन् 1909 में इसका जो अंतिम अंक प्रकाशित हुआ उस परइसका मुल्य था- फिरंगदि कांचा माथा ( फिरंगी का तुरंत कटा हुआ सिर )

    एक से अधिक भाषा वाले भाषाई पत्र

    हिन्दु मुसलमान दोनों सांप्रदायिकता के खतरे को समझते थे। उन्हें पता था किसाम्प्रदायिकता साम्राज्यवादियों का एक कारगर हथियार है। पत्रकारिता केमाध्यम से सामप्रदायिक वैमनस्य के खिलाफ लड़ाई तेज की गयी थी। भाषाईपृथकतावाद के खतरे को देखते हुए एक से अधिक भाषाओं में पत्र निकाले जातेथे। जिसमें द्विभाषी पत्रों की संख्या अधिक थी।

    हिन्दी और उर्दू पत्र

    मजहरुल सरुर, भरतपुर 1850, पयामे आजादी, दिल्ली 1857, ज्ञान प्रदायिनी, लाहौर 1866, जबलपुर समाचार, प्रयाग 1868, सरिश्ते तालीम, लखनऊ 1883, रादपूताना गजट, अजमेर 1884, बुंदेलखंड अखबार, ललितपुर 1870, सर्वाहित कारक, आगरा 1865, खैर ख्वाहे हिन्द, मिर्जापुर 1865, जगत समाचार, प्रयाग 1868, जगत आशना, आगरा 1873, हिन्दुस्तानी, लखनऊ 1883, परचा धर्मसभा, फर्रुखाबाद 1889, समाचार सुधा वर्षण, हिन्दी और बांगला, कलकत्ता 1854, हिन्दी प्रकाश, हिन्दी उर्दू गुरुमुखी, अमृतसर 1873, मर्यादा परिपाटी समाचार, संस्कृतहिन्दी, आगरा 1873
    1846 में कलकत्ता से प्रकाशित इंडियन सन् भी हिन्दु हेरोल्ड की भांति पांचभाषाओं हिन्दी फारसी अंग्रेजी बांगला और उर्दू में निकलता था।
    1870 में नागपुर से हिन्दी उर्दू मराठी में नागपुर गजट प्रकाशित होता था।
    बंगदूत बांगला फारसी हिन्दी अंग्रेजी भाषओं में छपता था।

    गुजराती
    • बंबई में देशी प्रेस के प्रणेता फरदून जी मर्जबान 1822 में गुजराती मेंबांबे समाचार शुरु किया जो आज भी दैनिक पत्र के रुप में निकलता है।
    • 1851 में बंबई में गुजराती के दो और पत्रों रस्त गोफ्तार और अखबारेसौदागर की स्थापना हुई। दादाभाई नौरोजी ने रस्त गोफ्तार का संपादन किया। यहगुजराती भाषा का प्रभावशाली पत्र था।
    • 1831 में बंबई से पी एम मोतीबाला ने गुजराती पत्र जामे जमशेद शुरु किया
    मराठी

    • सूर्याजी कृष्णजी के संपादन में 1840 में मराठी का पहला पत्र मुंबई समाचार शुरु हुआ।
    • 1842 में कृष्णजी तिम्बकजी रानाडे ने पूना से ज्ञान प्रकाश पत्र प्रकाशित किया।
    • 1879 दृ 80 में बुरहारनपुर से मराठी साप्ताहिक पत्र सुबोध सिंधु का प्रकाशन लक्ष्मण अनन्त प्रयागी द्वारा होता था।
    • मध्य भारत में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का विकास मराठी पत्रों के सहारे ही हुआ था।
    हिन्दी पत्रकारिता
    हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दीपत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत् दायित्व केप्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित् इसलिए विदेशी सरकार की दमन-नीति का उन्हेंशिकार होना पड़ा था, उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी थी। उन्नीसवींशताब्दी में हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्ठा और हिन्दी-प्रचार आन्दोलनअत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भीकितना तेज और पुष्ट था इसका साक्ष्य भारतमित्र’ (सन् 1878 , में) सारसुधानिधि’ (सन् 1879 ई.) और उचितवक्ता’ (सन् 1880 ई.) के जीर्ण पृष्ठों परमुखर है। हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म करदिया है। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आजहिन्दी भाषा का परचम चंहुदिश फैल रहा है।

    हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ
    हिन्दी के साप्ताहिक पत्रों में साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्म-युग, दिनमान, रविवार एवं सहारा समय प्रमुख हैं। हिन्दुस्तान का सम्पादन, सम्पादिका मृणालपाण्डेय जी ने किया एवं धर्मयुग का सर्वप्रथम सम्पादन डॉ. धर्मवीर भारतीजी ने किया। धर्मयुग ने जन सामान्य में अपनी लोकप्रियता इतनी बना रखी थी किहर प्रबुद्ध पाठक वर्ग के ड्राइंग रूप में इसका पाया जाना गर्व की बातमाने जाने लगी थी। कुछ दिनों तक गणेश मंत्री (बम्बई) ने भी इसका सम्पादनकिया। कुछ आर्थिक एवं आपसी कमियों के अभाव के कारण इसका सम्पादन कार्य रूकगया। दिनमान´ का सम्पादन घनश्याम पंकज जी कर रहे थे साथ ही रविवार कासम्पादन उदय शर्मा के निर्देशन में आकर्षक ढंग से हो रहा था। इसी समयव्यंग्य के क्षेत्र में 'हिन्दी शंकर्स वीकली´ का सम्पादन हो रहा था।'वामा´ हिन्दी की मासिक पत्रिका महिलापयोगी का सम्पादन विमला पाटिल केनिर्देशन में हो रहा था। इण्डिया टुडे´ पहले पाक्षिक थी, परन्तु आज यहीसाप्ताहिक रूप में अपनी ख्याति बनाये हुये है। अन्य मासिक पत्रिकाओं में'कल्पना´, 'अजन्ता´, 'पराग´, 'नन्दन´, 'स्पतुनिक´, 'माध्यम´, 'यूनेस्कोदूत´, 'नवनीत (डाइजेस्ट)´, 'ज्ञानोदय´, 'कादम्बिनी´, 'अछूते´, 'सन्दर्भ´, 'आखिर क्यों´, 'यूथ इण्डिया´, 'जन सम्मान´, 'अम्बेडकर इन इण्डिया´, 'राष्ट्रभाषा-विवरण पत्रिका´, 'पर्यावरण´, 'डाइजेस्ट आखिर कब तक?´, 'वार्तावाहक´ आदि अनेक महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है।

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    Nainital, Uttarakhand., Uttarakhand, India
    Navin Joshi (born 26th November 1972) is a Media personality, journalist, author and Renowned Photo Journalist at Nainital, Uttarakhand, working with Rashtriya Sahara. Earlier he worked for Dainik Jagran for Five years. He is also a well known Kumaoni Poet Navin Joshi 'Navendu', his Kumaoni Poetry book "Ugadhi aankonk sween" is in Press. As a Photo Journalist, his Photographs presented in various exhibitions, including Nainital Rajbhawan and awarded by than Governor of Uttarakhand Mrs. Margret Alwa. He also got International Prize for Photography (http://www.panoramio.com/winners/?date=1-2010) He is the Son of Famous Hindi/Kumaoni Poet, writer & Editor Sri Damodar Joshi 'Dewanshu'' and Former Principal in Education Department Uttarakhand. He was born at Toli, Bageshwar. he studied initially at Naini, Jageshwar (Almora), and than GIC Almora, Diploma in Mechanical Engineering from Govt. Polytechnic Nainital, Graduation, PG Diploma and Masters Digree (With Gold Medal) in Journalism and Mass Communication from Kumaon University Nainital. He has been consistently writing, apart from working in media for Rashtriya Sahara and various Magazines.

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    भारत में हिंदी पत्रकारिता ( विस्तार से)
     हिन्दी का प्रथम पत्र उदंत मार्तंड
    हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल से हुई और इसका श्रेय राजा राममोहन राय कोदिया जाता है। राजा राममोहन राय ने ही सबसे पहले प्रेस को सामाजिकउद्देश्य से जोड़ा। भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक हितोंका समर्थन किया। समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार कियेऔर अपने पत्रों के जरिए जनता में जागरूकता पैदा की। राममोहन राय ने कई पत्रशुरू किये। जिसमें अहम हैं-साल 1816 में प्रकाशित बंगाल गजट। बंगाल गजटभारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र है।इस समाचार पत्र के संपादक गंगाधर भट्टाचार्य थे। इसके अलावा राजा राममोहनराय ने मिरातुल, संवाद कौमुदी, बंगाल हैराल्ड पत्र भी निकाले और लोगों मेंचेतना फैलाई। 30 मई 1826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले उदंत्त मार्तण्डको हिंदी का पहला समाचार पत्र माना जाता है।
    काल विभाजन:
    वास्तवमें हिंदी पत्रकारिता का तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर काल विभाजन करनाकुछ कठिन कार्य है। सर्वप्रथम राधाकृष्ण दास ने ऐसा प्रारंभिक प्रयास कियाथा। उसके बाद विशाल भारतके नवंबर 1930 के अंक में विष्णुदत्त शुक्ल नेइस प्रश्न पर विचार किया, किन्तु वे किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचे।गुप्त निबंधावली में बालमुकुंद गुप्त ने यह विभाजन इस प्रकार किया
    • प्रथम चरण सन् 1845 से 1877
    • द्वितीय चरण सन् 1877 से 1890
    • तृतीय चरण सन् 1890 से बाद तक
    डॉ. रामरतन भटनागर ने अपने शोध प्रबंध द राइज एंड ग्रोथ आफ हिंदी जर्नलिज्मकाल विभाजन इस प्रकार किया है
    • आरंभिक युग 1826 से 1867
    • उत्थान एवं अभिवृद्धि
      • प्रथम चरण (1867-1883) भाषा एवं स्वरूप के समेकन का युग
      • द्वितीय चरण (1883-1900) प्रेस के प्रचार का युग
    • विकास युग
      • प्रथम युग (1900-1921) आवधिक पत्रों का युग
      • द्वितीय युग (1921-1935) दैनिक प्रचार का युग
    • सामयिक पत्रकारिता – 1935-1945
    उपरोक्त में से तीन युगों के आरंभिक वर्षों में तीन प्रमुख पत्रिकाओं काप्रकाशन हुआ, जिन्होंने युगीन पत्रकारिता के समक्ष आदर्श स्थापित किए। सन् 1867 में कविवचन सुधा’, सन् 1883 में हिन्दुस्तानतथा सन् 1900 मेंसरस्वतीका प्रकाशन है।

    • काशी नागरीप्रचारणी द्वारा प्रकाशित हिंदी साहित्य के वृहत इतिहासके त्रयोदय भागके तृतीय खंड में यह काल विभाजन इस प्रकार किया गया है
    1.   प्रथम उत्थान सन् 1826 से 1867
    2.   द्वितीय उत्थान सन् 1868 से 1920
    3.   आधुनिक उत्थान सन् 1920 के बाद
    • ए हिस्ट्री आफ द प्रेस इन इंडियामें श्री एस नटराजन ने पत्रकारिता का अध्ययन निम्न प्रमुख बिंदुओं के आधार पर किया है
    1.   बीज वपन काल
    2.   ब्रिटिश विचारधारा का प्रभाव
    3.   राष्ट्रीय जागरण काल
    4.   लोकतंत्र और प्रेस
    • डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने हिंदी पत्रकारिताका अध्ययन करने की सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन मोटे रूप से इस प्रकार किया है
    1.   भारतीय नवजागरण और हिंदी पत्रकारिता का उदय (सन् 1826 से 1867)
    2.   राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति- दूसरे दौर की हिंदी पत्रकारिता (सन् 1867-1900)
    3.   बीसवीं शताब्दी का आरंभ और हिंदी पत्रकारिता का तीसरा दौर इस काल खण्ड का अध्ययन करते समय उन्होंने इसे तिलक युग तथा गांधी युग में भी विभक्त किया।
    • डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने अपनी पुस्तक पत्रकारिता के विविध रूपमें विभाजन के प्रश्न पर विचार करते हुए यह विभाजन किया है
    1.   उदय काल – (सन् 1826 से 1867)
    2.   भारतेंदु युग – (सन् 1867 से 1900)
    3.   तिलक या द्विवेदी युग – (सन् 1900 से 1920)
    4.   गांधी युग – (सन् 1920 से 1947)
    5.   स्वातंत्र्योत्तर युग (सन् 1947 से अब तक)
    • डॉ. सुशील जोशी ने काल विभाजन कुछ ऐसा प्रस्तुत किया है
    1.   हिंदी पत्रकारिता का उद्भव – 1826 से 1867
    2.   हिंदी पत्रकारिता का विकास – 1867 से 1900
    3.   हिंदी पत्रकारिता का उत्थान – 1900 से 1947
    4.   स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता – 1947 से अब तक[2]
    उक्त मतों की समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि हिंदी पत्रकारिता का कालविभाजन विभिन्न विद्वानों पत्रकारों ने अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग ढंग सेकिया है। इस संबंध में सर्वसम्मत काल निर्धारण अभी नहीं किया जा सका है।किसी ने व्यक्ति विशेष के नाम से युग का नामकरण करने का प्रयास किया है तो किसी ने परिस्थिति अथवा प्रकृति के आधार पर। इनमें एकरूपता का अभाव है।

    हिंदी पत्रकारिता का उद्भव काल (1826 से 1867)

    कलकत्ता से 30 मई, 1826 को उदन्त मार्तण्डके सम्पादन से प्रारंभ हिंदी पत्रकारिता कीविकास यात्रा कहीं थमी और कहीं ठहरी नहीं है। पंडित युगल किशोर शुक्ल केसंपादन में प्रकाशित इस समाचार पत्र ने हालांकि आर्थिक अभावों के कारण जल्दही दम तोड़ दिया, पर इसने हिंदी अखबारों के प्रकाशन का जो शुभारंभ किया वहकारवां निरंतर आगे बढ़ा है। साथ ही हिंदी का प्रथम पत्र होने के बावजूद यहभाषा, विचार एवं प्रस्तुति के लिहाज से महत्त्वपूर्ण बन गया।

    कलकत्ता का योगदान

    पत्रकारिता जगत में कलकत्ता का बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।प्रशासनिक, वाणिज्य तथा शैक्षिक दृष्टि से कलकत्ता का उन दिनों विशेष महत्वथा। यहीं से 10 मई 1829 को राजा राममोहन राय ने बंगदूत’ समाचार पत्र निकाला जो बंगलाफ़ारसीअंग्रेज़ी तथा हिंदी में प्रकाशित हुआ। बंगला पत्र समाचार दर्पणके 21 जून 1834 के अंक प्रजामित्रनामक हिंदी पत्र के कलकत्ता से प्रकाशित होने कीसूचना मिलती है। लेकिन अपने शोध ग्रंथ में डॉ. रामरतन भटनागर ने उसकेप्रकाशन को संदिग्ध माना है। बंगदूदतके बंद होने के बाद 15 सालों तकहिंदी में कोई पत्र न निकला।

    हिंदी पत्रकारिता का उत्थान काल (1900-1947)

    सन 1900 का वर्ष हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में महत्त्वपूर्ण है। 1900 में प्रकाशित सरस्वती पत्रिका]अपने समय की युगान्तरकारी पत्रिका रही है। वह अपनी छपाई, सफाईकागज औरचित्रों के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई। इसे बंगाली बाबू चिन्तामणि घोषने प्रकाशित किया था तथा इसे नागरी प्रचारिणी सभा का अनुमोदन प्राप्त था।इसके सम्पादक मण्डल में बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिका प्रसाद खत्री, जगन्नाथदास रत्नाकर, किशोरीदास गोस्वामी तथा बाबू श्यामसुन्दरदास थे। 1903 मेंइसके सम्पादन का भार आचार्य महावर प्रसाद द्विवेदी पर पड़ा। इसका मुख्यउद्देश्य हिंदी-रसिकों के मनोरंजन के साथ भाषा के सरस्वती भण्डार कीअंगपुष्टि, वृद्धि और पूर्ति करन था। इस प्रकार 19वी शताब्दी में हिंदीपत्रकारिता का उद्भव व विकास बड़ी ही विषम परिस्थिति में हुआ। इस समय जो भीपत्र-पत्रिकाएं निकलती उनके सामने अनेक बाधाएं आ जातीं, लेकिन इन बाधाओंसे टक्कर लेती हुई हिंदी पत्रकारिता शनैः-शनैः गति पाती गई।

    हिंदी पत्रकारिता का उत्कर्ष काल (1947 से प्रारंभ)

    अपने क्रमिक विकास में हिंदी पत्रकारिता के उत्कर्ष का समय आज़ादी के बादआया। 1947 में देश को आज़ादी मिली। लोगों में नई उत्सुकता का संचार हुआ।औद्योगिक विकास के साथ-साथ मुद्रण कला भी विकसित हुई। जिससे पत्रों कासंगठन पक्ष सुदृढ़ हुआ। रूप-विन्यास में भी सुरूचि दिखाई देने लगी। आज़ादीके बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में अपूर्व उन्नति होने पर भी यह दुख का विषयहै कि आज हिंदी पत्रकारिता विकृतियों से घिरकर स्वार्थसिद्धि और प्रचार कामाध्यम बनती जा रही है। परन्तु फिर भी यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता हैकि भारतीय प्रेस की प्रगति स्वतंत्रता के बाद ही हुई। यद्यपिस्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता ने पर्याप्त प्रगति कर ली है किन्तु उसकेउत्कर्षकारी विकास के मार्ग में आने वाली बाधाएं भी कम नहीं हैं।

    प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाएँ

    भारत केस्वाधीनता संघर्ष में पत्र-पत्रिकाओं की अहम भूमिका रही है। आजादी केआन्दोलन में भाग ले रहा हर आम-ओ-खास कलम की ताकत से वाकिफ था। राजा राममोहन रायमहात्मा गांधीमौलाना अबुल कलाम आज़ादबाल गंगाधर तिलकपंडित मदनमोहन मालवीयबाबा साहब अम्बेडकरयशपाल जैसेआला दर्जे के नेता सीधे-सीधे तौर पर पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े हुए थे औरनियमित लिख रहे थे। जिसका असर देश के दूर-सुदूर गांवों में रहने वालेदेशवासियों पर पड़ रहा था। अंग्रेजी सरकार को इस बात का अहसास पहले से हीथा, लिहाजा उसने शुरू से ही प्रेस के दमन की नीति अपनाई। 30 मई 1826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले उदंत्त मार्तण्डको हिंदी कापहला समाचार पत्र माना जाता है। अपने समय का यह ख़ास समाचार पत्र था, मगरआर्थिक परेशानियों के कारण यह जल्दी ही बंद हो गया। आगे चलकर माहौल बदला औरजिस मकसद की खातिर पत्र शुरू किये गये थे, उनका विस्तार हुआ। समाचारसुधावर्षणअभ्युदय, शंखनाद, हलधर, सत्याग्रह समाचार, युद्धवीर, क्रांतिवीर, स्वदेश, नयाहिन्दुस्तान, कल्याण, हिंदी प्रदीप, ब्राह्मण,बुन्देलखण्ड केसरी, मतवालासरस्वती, विप्लव, अलंकार, चाँद, हंस, प्रताप, सैनिक, क्रांति, बलिदान, वालिंट्यर आदि जनवादी पत्रिकाओं ने आहिस्ता-आहिस्ता लोगों में सोये हुएवतनपरस्ती के जज्बे को जगाया और क्रांति का आह्नान किया।
    नतीजतन उन्हें सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा। दमन, नियंत्रण के दुश्चक्र सेगुजरते हुए उन्हें कई प्रेस अधिनियमों का सामना करना पड़ा। वर्तमान पत्रमें पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारालिखा राजनीतिक भूकम्पशीर्षक लेख, ‘अभ्युदयका भगत सिंह विशेषांक, किसान विशेषांक, ‘नया हिन्दुस्तानके साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और फॉसीवादीविरोधी लेख, ‘स्वदेशका विजय अंक, ‘चॉंदका अछूत अंक, फॉंसी अंक, ‘बलिदानका नववर्षांक, ‘क्रांतिके 1939 के सितम्बर, अक्टूबर अंक, ‘विप्लवका चंद्रशेखर अंक अपने क्रांतिकारी तेवर और राजनीतिक चेतना फैलानेके इल्जाम में अंग्रेजी सरकार की टेढ़ी निगाह के शिकार हुए और उन्हेंजब्ती, प्रतिबंध, जुर्माना का सामना करना पड़ा। संपादकों को कारावास भुगतनापड़ा।

    गवर्नर जनरल वेलेजली

    भारतीय पत्रकारिता की स्वाधीनता को बाधित करने वाला पहला प्रेस अधिनियमगवर्नर जनरल वेलेजली के शासनकाल में 1799 को ही सामने आ गया था। भारतीयपत्रकारिता के आदिजनक जॉन्स आगस्टक हिक्की के समाचार पत्र हिक्की गजटकोविद्रोह के चलते सर्वप्रथम प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। हिक्की को एक सालकी कैद और दो हजार रूपए जुर्माने की सजा हुई। कालांतर में 1857 में गैंगिंकएक्ट, 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1908 में न्यूज पेपर्स एक्ट (इन्साइटमेंट अफैंसेज), 1910 में इंडियन प्रेस एक्ट, 1930 में इंडियन प्रेसआर्डिनेंस, 1931 में दि इंडियन प्रेस एक्ट (इमरजेंसी पावर्स) जैसे दमनकारीक़ानून अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करने केउद्देश्य से लागू किए गये। अंग्रेजी सरकार इन काले क़ानूनों का सहारा लेकरकिसी भी पत्र-पत्रिका पर चाहे जब प्रतिबंध, जुर्माना लगा देती थी।आपत्तिजनक लेख वाले पत्र-पत्रिकाओं को जब्त कर लिया जाता। लेखक, संपादकोंको कारावास भुगतना पड़ता व पत्रों को दोबारा शुरू करने के लिए जमानत कीभारी भरकम रकम जमा करनी पड़ती। बावजूद इसके समाचार पत्र संपादकों के तेवरउग्र से उग्रतर होते चले गए। आजादी के आन्दोलन में जो भूमिका उन्होंने खुदतय की थी, उस पर उनका भरोसा और भी ज्यादा मजबूत होता चला गया। जेल, जब्ती, जुर्माना के डर से उनके हौसले पस्त नहीं हुये।

    बीसवीं सदी की शुरुआत

    बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में सत्याग्रहअसहयोग आन्दोलनसविनय अवज्ञा आन्दोलन केप्रचार प्रसार और उन आन्दोलनों की कामयाबी में समाचार पत्रों की अहमभूमिका रही। कई पत्रों ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रवक्ता का रोल निभाया। कानपुर से 1920 मेंप्रकाशित वर्तमानने असहयोग आन्दोलन को अपना व्यापक समर्थन दिया था।पंडित मदनमोहन मालवीय द्वारा शुरू किया गया साप्ताहिक पत्र अभ्युदयउग्रविचारधारा का हामी था। अभ्युदय के भगत सिंह विशेषांक में महात्मा गांधीसरदार पटेलमदनमोहन मालवीयपंडित जवाहरलाल नेहरू के लेख प्रकाशित हुए। जिसके परिणामस्वरूप इन पत्रों को प्रतिबंध- जुर्माना का सामना करना पड़ा। गणेश शंकर विद्यार्थी काप्रताप’, सज्जाद जहीर एवं शिवदान सिंह चैहान के संपादन में इलाहाबाद सेनिकलने वाला नया हिन्दुस्तानराजाराम शास्त्री का क्रांतियशपाल काविप्लवअपने नाम के मुताबिक ही क्रांतिकारी तेवर वाले पत्र थे। इन पत्रोंमें क्रांतिकारी युगांतकारी लेखन ने अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ा दी थी।अपने संपादकीय, लेखों, कविताओं के जरिए इन पत्रों ने सरकार की नीतियों कीलगातार भतर्सना की। नया हिन्दुस्तानऔर विप्लवके जब्तशुदा प्रतिबंधितअंकों को देखने से इनकी वैश्विक दृष्टि का पता चलता है।

    चाँदका फाँसी अंक

    फाँसीवाद के उदय और बढ़ते साम्राज्यवाद, पूंजीवाद पर चिंता इन पत्रों में साफ़ देखी जा सकती है। गोरखपुर सेनिकलने वाले साप्ताहिक पत्र स्वदेशको जीवंतपर्यंत अपने उग्र विचारों औरस्वतंत्रता के प्रति समर्पण की भावना के कारण समय-समय पर अंग्रेजी सरकारकी कोप दृष्टि का शिकार होना पड़ा। खासकर विशेषांक विजयांक को। आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा संपादित चाँदके फाँसी अंक की चर्चा भी जरूरी है। काकोरी के अभियुक्तों को फांसी के लगभग एक साल बादइलाहाबाद सेप्रकाशित चॉंद का फाँसी अंक क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास की अमूल्य निधिहै। यह अंक क्रांतिकारियों की गाथाओं से भरा हुआ है। सरकार ने अंक की जनतामें जबर्दस्त प्रतिक्रिया और समर्थन देख इसको फौरन जब्त कर लिया औररातों-रात इसके सारे अंक गायब कर दिये। अंग्रेज हुकूमत एक तरफ क्रांतिकारीपत्र-पत्रिकाओं को जब्त करती रही, तो दूसरी तरफ इनके संपादक इन्हें बिनारुके पूरी निर्भिकता से निकालते रहे। सरकारी दमन इनके हौसलों पर जरा भी रोकनहीं लगा सका। पत्र-पत्रिकाओं के जरिए उनका यह प्रतिरोध आजादी मिलने तकजारी रहा।





    हिंदी पत्रकारिता का उत्कर्ष काल

    हिंदी पत्रकारिता का उत्कर्ष काल (1947 से प्रारंभ)

    अपनेक्रमिक विकास में हिंदी पत्रकारिता के उत्कर्ष का समय आजादी के बाद आया । 1947 में देश को आजादी मिली । लोगों में नई उत्सुकता का संचार हुआ ।औद्योगिक विकास के साथ-साथ मुद्रण कला भी विकसित हुई । जिससे पत्रों कासंगठन पक्ष सुदृढ़ हुआ । रूप-विन्यास में भी सुरूचि दिखाई देने लगी ।

    आजादी के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में अपूर्व उन्नति होने पर भी यहदुख का विषय है कि आज हिंदी पत्रकारिता विकृतियों से घिरकर स्वार्थसिद्धिऔर प्रचार का माध्यम बनती जा रही है । परन्तु फिर भी यह निर्विवाद रूप सेकहा जा सकता है कि भारतीय प्रेस की प्रगति स्वतंत्रता के बाद ही हुई ।

    यद्यपिस्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता ने पर्याप्त प्रगति कर ली है किन्तु उसकेउत्कर्षकारी विकास के मार्ग में आने वाली बाधाएं भी कम नहीं हैं ।पत्रकारिता एक निष्ठापूर्ण कर्म है और पत्रकार एक दायित्वशील व्यक्ति होताहै । अतः यदि हमें स्वच्छ पत्रकारिता को विकसित करना है तो पत्रकारिता केक्षेत्र में हुई अनधिकृत घुसपैठ को समाप्त करना होगा, उसे जीवन मूल्यों सेजोड़ना होगा, उसे आचरणिक कर्मों का प्रतीक बनाना होगा और प्रचारवादीमूल्यों को पीछे धकेल कर पत्रकारिता को जीवन, समाज, संस्कृति और कला कास्वच्छ दर्पण बनाना होगा, पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों कोअतीत से शिक्षा लेकर वर्तमान को समेटते हुए भविष्य का दिशानिर्देशन भीकरना चाहिए ।

    स्वतंत्रता प्राप्ति के आसपास यानी दो-चार वर्षआगे-पीछे कई दैनिक, साप्ताहिक पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ । जिसमें कुचतो निरंतर प्रगति कर रही हैं तथा कुछ बंद हो गई हैं ।

    प्रमुख पत्रोंमें नवभारत टाइम्स (1947), हिन्दुस्तान (1936), नवभारत (1938), नई दुनिया (1947), आर्यावर्त (1941), आज (1920), इंदौर समाचार (1946), जागरण (1947), स्वतंत्र भारत (1947), युगधर्म (1951), सन्मार्ग (1951), वीर-अर्जुन (1954), पंजाब केसरी (1964), दैनिक ट्रिब्यून, राजस्थान पत्रिका (1956), अमर उजाल (1948), दैनिक भास्कर (1958), तरूण भारत (1974), नवजीवन (1974), स्वदेश (1966), देशबंधु (1956), जनसत्ता 1903), रांची एक्सप्रेस, प्रभातखबर आदि शामिल हैं ।

    इसमें तरूण भारत और युगधर्म का प्रकाशन बंद होचुका है । शेष निरन्तर प्रगति कर रहे हैं । साप्ताहिक पत्रों में ब्लिट्ज(1962), पाञ्चजन्य (1947), करंट, चौथी दुनिया (1986), संडे मेल (1987), संडे आब्जर्वर (1947), दिनमान टाइम्स (1990) प्रमुख रहे । इनमें सेपाञ्चजन्य के अलावा सभी बंद हो चुके हैं ।

    प्रमुख पत्रिकाओं मेंधर्मयुग (1950), साप्ताहिक हिन्दुस्तान (1950), दिनमान (1964), रविवार (1977), अवकाश 1982), खेल भारती (1982), कल्याण (1926), माधुरी (1964), पराग (1960), कादम्बिनी (1960), नन्दन (1964), सारिका (1970), चन्दामा (1949), नवनीत (1952), सरिता (1964), मनोहर कहानियां (1939), मनोरमा (1924), गृहशोभा, वामा, गंगा (1985), इंडिया टुडे (1986), माया हैं । इनमेंसे दिनमान, रविवार, अवकाश, पराग, गंगा, माधुरी अब बंद हो चुकी हैं । इनमेंसे दिनमान ने नई प्रवृत्तियां प्रारंभ की थी । अतिथि सम्पादक की परम्पराप्रारम्भ की, जिसमें कई राजनेता, साहित्यकार व कलाप्रेमी अतिथि सम्पादक बने। वहीं रविवार खोजपूर्ण रिपोर्टिंग के

    स्वतंत्र प्रेस के पहले नायक हिकी

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    विनय मिश्र।
    जेम्स अगस्टस हिकी भारत के प्रथम पत्रकार थे, जिन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश सरकार से संघर्ष किया। उनकेबाद यह सूची लंबी है। हजारों पत्रकारों ने विदेशी और देसी शासन के खिलाफसंघर्ष जारी रखा, ताकि कलम स्वतंत्र रहे। आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवसपर भारत में स्वतंत्र प्रेस के अगुआ हिकी के बहाने महान कलमवीरों को हमारीश्रद्धाजलि..।
    प्रेस की स्वतंत्रता पर बहस बड़ी पुरानी है। शायद इस बहस की उम्र उतनीहै, जितनी प्रेस की है। भारत में समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लिएसंघर्ष आज से लगभग 232 साल पहले कोलकाता में समाचार पत्र के प्रकाश के साथही शुरू हुआ था। उस संघर्ष के नायक थे बंगाल गजट के संस्थापक-संपादक जेम्सअगस्टस हिकी। वो थे तो ब्रिटिश नागरिक, लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार केदमनकारी उपायों के खिलाफ उन्होंने डटकर संघर्ष किया।
    भारत का पहला समाचार पत्र
    बंगाल गजट दो पन्नों का साप्ताहिक था, जो पहली बार कोलकता में शनिवार 29 जनवरी 1780 को प्रकाशित हुआ। इसके संस्थापक-संपादक-प्रकाशक हिकी काडिक्शनरी आफ नेशनल बायोग्राफी में जिक्र नहीं है। यह भी नहीं पता कि वे कहापैदा हुए। बंगाल आबीचुअरी में भी उनका जिक्र नहीं है। हा, एचई ए काटन कीपुस्तककलकत्ता ओल्ड एंड न्यू [1907] में इतना जरूर उल्लेख है कि भारत मेंउनका कार्यकाल लालबाजार की जेल में समाप्त हो गया।
    उनके साहस के चर्चे अवश्य कई किताबों में मिलते हैं। बस्तीड ने पहलेभारतीय समाचार पत्र का जीवन और मृत्यु शीर्षक पुस्तक का एक अध्याय हिकी केबारे में लिखा है और उन्हें भारतीय प्रेस का अगुआ बताया है। मार्गरेटबर्न्स ने अपनी पुस्तक भारतीय प्रेस - भारत में जनमत के विकास का इतिहास [1940] में इस व्यक्ति के बारे में लिखा है कि उसने बड़ा साहस दिखाया औरबहुत कुछ खोया। लेकिन उनका नाम अमर रहेगा। आज हिकी अमर हैं, लेकिन उनकाचित्र धूमिल रह गया।
    दरअसल हिकी के चार पृष्ठों के 12 स्तंभ कंपनी सरकार के सिरदर्द थे।प्रत्येक पृष्ठ पर तीन स्तंभ होते थे। उसमें कंपनी के सर्वोच्च अधिकारी तकके खिलाफ तीखे व्यंग्य प्रकाशित किए जाते थे। तीखे व्यंग्य कभी-कभी अश्लीलभी हो गए। हेस्टिंग्स और इंपे जैसे अधिकारियों के खिलाफ गाली-गलौज वालीआलोचना के पक्ष में हिकी ने सफाई दी थी कि - पत्र का संपादक यह मानकर चलताहै कि एक-एक नागरिक और स्वतंत्र सरकार के लिए समाचार पत्र की आजादी आवश्यकहै।
    प्रजा को अपने सिद्धात और मत व्यक्त करने की पूरी स्वतंत्रता होनीचाहिए और उस आजादी पर अंकुश लगानेवाला प्रत्येक कार्य दमनकारी और समाज केलिए घातक कहलाएगा।
    जून 1781 में हेस्टिंग्स ने इंपे को आदेश दिया कि हिकी को गिरफ्तार करलिया जाये। तुरंत हिकी को सशस्त्र बल ने घेर लिया, हालाकि वे डरे नहीं।उन्होंने साहसपूर्वक कहा कि आप मुझे इस तरह घसीटकर नहीं ले जा सकते।उन्होंने गिरफ्तारी का वारंट भी दिखाने को कहा, लेकिन अदालत उठ चुकी थी।उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
    अगले दिन उच्चतम न्यायालय ने गवर्नर जनरल द्वारा उस पर लगाए गए आरोप कोलेकर जवाब-तलब किया। जब वह अपनी जमानत के लिए 80 हजार रुपये नहीं दे सके, तो जेल भेज दिया गया। अगले वर्ष हिकी को एक वर्ष जेल की सजा दी गई और 2 हजार रुपये का जुर्माना किया गया।
    संपादक के जेल जाने के बाद कुछ समय तक तो गजट निकलता रहा। लेकिन मार्च 1782 में एक आदेश द्वारा प्रेस को जब्त कर लिया गया। और इस प्रकार भारत कापहला समाचार पत्र और स्वतंत्र प्रेस का अगुआ बंद हो गया। हिकी ने साहस केसाथ लोहा लिया और उनका प्रेस तभी बंद हुआ, जब उसे जब्त कर लिया गया।
    उस समय भी उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता की बात कही थी, जबकि वह जेल में थे और अपने बीवी बच्चों की देखभाल करने में असमर्थ थे।
    -क्यों मनाया जाता है प्रेस स्वतंत्रता दिवस :-
    प्रत्येक वर्ष 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है।संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1993 में विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस कीघोषणा की थी। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार इस दिन प्रेस की स्वतंत्रता केसिद्धात, प्रेस की स्वतंत्रता का मूल्याकन, प्रेस की स्वतंत्रता पर बाहरीतत्वों के हमले से बचाव और प्रेस की सेवा करते हुए दिवंगत हुए संवाददाताओंको श्रद्धाजलि देने का दिन है।


    पत्रकारिता का इतिहास




    SC ने कोयला घोटाले में सिन्हा से मांगा जवाब

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    कोयला घोटाला मामले में सुप्रीम कोर्ट ने
    बड़ी खबर: अटक सकती है 72,825 शिक्षक भर्ती!

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    उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरी मिलना बेहद

    The Civilian Hindi News

    पत्रकारिता का इतिहास

    भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजी और भाषाई पत्रकारिता की भूमिका

    पत्रकारिता का इतिहासपत्रकारिता का इतिहास History of journalism
    जेम्सअगस्टन हिक्की ने 29 जनवरी 1780 में पहला भारतीय समाचार पत्र बंगाल गजटकलकत्ता से अंग्रजी में निकाला। इसका आदर्श वाक्य था सभी के लिये खुलाफिर भी किसी से प्रभावित नहीं ।
    अपनेनिर्भीक आचरण और विवेक पर अड़े रहने के कारण हिक्की को इस्ट इंडिया कंपनीका कोपभाजन बनना पड़ा। हेस्टिंगस सरकार की शासन शैली की कटू आलोचना कापुरस्कार हिक्की को जेल यातना के रूप में मिली।
    हिक्कीने अपना उद्देश्य ही घोषित किया था अपने मन और आत्मा की स्वतंत्रता केलिये अपने शरीर को बंधन में डालने में मुझे मजा आता है। समाचार पत्र कीशुरूआत विद्रोह की घोषणा से हुई।
    हिक्की भारत के प्रथम पत्रकार थे जिन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के लिये ब्रिटिश सरकार से संघर्ष किया।
    उत्तरीअमेरिका निवासी विलियम हुआनी ने हिक्की की परंपरा को समृद्ध किया। 1765 में प्रकाशित बंगाल जनरल जो सरकार समर्थक था 1791 में हुमानी के संपादक बनजाने के बाद सरकार की आलोचना करने लगा। हुमानी की आक्रामक मुद्रा से आतंकितहोकर सरकार ने उसे भारत से निष्कासित कर दिया।
    जेम्स बंकिघम ने 2 अक्टूबर 1818 को कलकत्ता से अंग्रजी का कैलकटा जनरल प्रकाशित किया। जो सरकारी नीतियों का निर्भीक आलोचक था।
    पंडित अंबिकाप्रशाद ने लिखा कि इस पत्र की स्वतंत्रता व उदारता पहले किसी पत्र में नही देखी गयी।
    कैलकटाजनरल उस समय के एंग्लोइंडियन पत्रों को प्रचार प्रसार में पीछे छोड़ दियाथा। एक रूपये मुल्य के इस अखबार का दो वर्ष में सदस्य संख्या एक हजार सेअधिक हो गयी थी।
    जेम्सबंकिघम को प्रेस की स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता था। सन् 1823 मेंउन्हें देश निकाला दे दिया गया। हालांकि इंगलैंड जाकर उन्होंने आरियंटलहेराल्ड निकाला जिसमें वह भारतीय समस्याओं और कंपनी के हाथों में भारत काशासन बनाये रखने के खिलाफ लगातार अभियान चलाता रहा।
    1961 के इंडियन कांउसिल एक्ट के बाद समाज के उपरी तबकों में उभरी राजनीतिकचेतना से भारतीय व गैरभारतीय दोनों भाषा के पत्रों की संख्या बढ़ी।
    1861 में बंबई में टाइम्स आफ इंडिया की 1865 में इलाहाबाद में पायनियर 1868 मेंमद्रास मेल की 1875 में कलकत्ता स्टेटसमैन की और 1876 में लाहौर में सिविलऐंड मिलटरी गजट की स्थापना हुई। ये सभी अंग्रेजी दैनिक ब्रिटिश शासनकालमें जारी रहे।
    टाइम्स आफ इंडिया ने प्रायः ब्रिटिश सरकार की नीतियों का समर्थन किया।
    पायोनियर ने भूस्वामी और महाजनी तत्वों का पक्ष तो मद्रास मेल ने यूरोपीय वाणिज्य समुदाय का पक्षधर था।
    स्टेटसमैन ने सरकार और भारतीय राष्ट्रवादियों दोनों का ही आलोचना की थी।
    सिविल एण्ड मिलिटरी गजट ब्रिटिश दाकियानूसी विचारों का पत्र था।
    स्टेटसमैनटाइम्स आफ इंडिया सिविल एण्ड मिलिटरी गजट पायनियर और मद्रास मेल जैसेप्रसिद्ध पत्र अंग्रेजी सरकार और शासन की नीतियों एवं कार्यक्रम का समर्थनकरते थे।
    अमृतबाजार पत्रिका बांबे क्रानिकल बांबे सेंटिनल हिन्दुस्तान टाइम्सहिन्दुस्तान स्टैंडर्ड फ्री प्रेस जनरल नेश्नल हेराल्ड नेश्नल काल अंग्रेजीमें छपने वाले लक्ष्य प्रतिष्ठित राष्ट्रवादी दैनिक और साप्ताहिक पत्र थे।हिन्दू लीडर इंडियन सोशल रिफार्मर माडर्न रिव्यू उदारपंथी राष्ट्रीयता कीभावना को अभिव्यक्ति देते थे।
    इंडियन नेशनल कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों को राष्ट्रीय पत्रों ने पूर्ण और उदारपंथी पत्रों ने आलोचनात्मक समर्थन दिया था।
    डान मुस्लिम लीग के विचारों का पोषक था। देश के विद्यार्थी संगठनों के अपने पत्र थे जैसे स्टूडेंट और साथी।
    सुरेंद्रनाथ बनर्जी का बंगाली ( 1879 अंग्रेजी में )
    भारतके राष्ट्रीय नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने 1874 में बंगाली ( अंग्रेजी )पत्र का प्रकाशन व संपादन किया। इसमें छपे एक लेख के लिये उनपर न्यायालय कीअवज्ञा का अभियोग लगाया गया था। उन्हें दो महीने के कारावास की सजा मिलीथी। बंगाली ने भारतीय राजनीतिक विचारधारा के उदारवादी दल के विचारों काप्रचार किया था।
    सुरेन्द्रनाथबनर्जी की राय पर दयाल सिंह मजीठिया ने 1877 में लाहौर में अंग्रेजी दैनिकट्रिब्यून की स्थापना की। पंजाब की उदारवादी राष्ट्रीय विचारधारा का यहप्रभावशाली पत्र था।
    लार्डलिटन के प्रशासनकाल में कुछ सरकारी कामों के चलते जनता की भावनाओं को चोटपहुंची जिससे राजनीतिक असंतोष बढ़ा और अखबारों की संख्या में वृद्धि हुई। 1878 में मद्रास में वीर राधवाचारी और अन्य देशभक्त भारतीयों ने अंग्रेजीसप्ताहिक हिन्दू की स्थापना की। 1889 से यह दैनिक हुआ। हिन्दु का दृष्टिकोणउदारवादी था। लेकिन इसने इंडियन नेश्नल कांग्रेस की राजनीति की आलोचना केसाथ ही सका समर्थन भी किया।
    राष्ट्रीयचेतना का समाज सुधार के क्षेत्र में भी प्रसार हुआ। बंबई  में 1890 मेंइंडियन सोशल रिफार्मर अंग्रेजी साप्ताहिक की स्थापना हुई। समाज सुधार हीइसका मुख्य लक्ष्य था।
    1899 में सच्चिदानंद सिन्हा ने अंग्रेजी मासिक हिन्दुस्तान रिव्यू की स्थापनाकी। इस पत्र का राजनैतिक और वैचारिक दृष्टिकोण उदारवादी था।
    1900 के बाद
    1900 में जी ए नटेशन ने मद्रास से इंडियन रिव्यू का और 1907 में कलकत्ता से रामानन्द चटर्जी ने मॉडर्न रिव्यू का प्रकाशन शुरू किया।
    मॉडर्नरिव्यू देश का सबसे अधिक विख्यात अंग्रेजी मासिक सिद्ध हुआ। इसमें सामाजिकराजनीतिक ऐतिहासिक और वैज्ञानिक विषयों पर लेख निकलते थे और अंतराष्ट्रीयघटनाओं के विषय में भी काम की खबरें होती थी। इसने इंडियन नेश्नल कांग्रेसमें प्रायः दक्षिणपंथियों का समर्थन किया।
    1913 में बी जी हार्नीमन के संपादकत्व में फिरोजशाह मेहता ने बांबे क्रानिकल निकाला।
    1918 में सर्वेंटस आफ इंडिया सोसाइटी ने श्रीनिवास शास्त्री के संपादकत्व मेंअपना मुखपत्र सर्वेंट आफ इंडिया निकालना शुरू किया। इसने उदारवादीराष्ट्रीय दृष्टिकोण से देश की समस्याओं का विश्लेषण और समाधान प्रस्तुतकिया। 1939 में इसका प्रकाशन बंद हो गया।
    1919 में गांधी ने यंग इंडिया का संपादन किया और इसके माध्यम से अपने राजनीतिकदर्शन कार्यक्रम और नीतियों का प्रचार किया। 1933 के बाद उन्होंने हरिजन (बहुत सी भाषाओं में प्रकाशित साप्ताहिक ) का भी प्रकाशन शुरू किया।
    पंडित मोतीलाल नेहरू ने 1919 में इलाहाबाद से इंडीपेंडेंट ( अंग्रेजी दैनिक ) का प्रकाशन शुरू किया।
    स्वराजपार्टी के नेता ने दल के कार्यक्रम के प्रचार के लिये 1922 में दिल्ली मेंके एम पन्नीकर के संपादकत्व में हिन्दुस्तान टाइम्स ( अंग्रेजी दैनिक ) काप्रकाशन शुरू किया। इसी काल में लाला लाजपत राय के फलस्वरूप लाहौर सेअंग्रेजी राष्ट्रवादी दैनिक प्युपल का प्रकाशन शुरू किया गया।
    1923 के बाद धीरे  – धीरे समाजवादी, साम्यवादी विचार भारत में फैलने लगे।वर्कर्स एंड प्लेसंट पार्टी आफ इंडिया का एक मुखपत्र मराठी साप्ताहिकक्रांति था। मर्ट कांसपीरेसी केस के एम जी देसाई और लेस्टर हचिंसन केसंपादकत्व में क्रमशः स्पार्क और न्यू स्पार्क ( अंग्रेजी साप्ताहिक )प्रकाशित हुआ।
    मार्क्सवादका प्रचार करना और राष्ट्रीय स्वतंत्रता एवं किसानों मजदूरों के स्वतंत्रराजनीतिक आर्थिक संघर्षों को समर्थन प्रदान करना इनका उद्देश्य था।
    1930 और 1939 के बीच मजदूरों किसानों के आंदोलनों का विस्तार हुआ और उनकी ताकतबढ़ी। कांग्रेस के नौवजवानों के बीच सामाजवादी साम्यवादी विचार विकसित हुए।इस तरह स्थापित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने अधिकारिक पत्र के रूप मेंकांग्रेस सोशलिस्ट का प्रकाशन किया।
    कम्युनिस्ट के प्रमुख पत्र नेश्नल फ्रंट और बाद में प्युपलस् वार थे। ये दोनों अंग्रेजी सप्ताहिक पत्र थे।
    एम एन रॉय के विचार अधिकारिक साम्यवाद से भिन्न थे। उन्होंने अपना अलग दल कायम किया जिसका मुखपत्र था इंडीपेंडेंट इंडिया।
    राजा राममोहन राय
    राजाराममोहन राय ने सन् 1821 में बंगाली पत्र संवाद कौमुदी को कलकत्ता सेप्रकाशित किया। 1822 में फारसी भाषा का पत्र मिरात उल अखबार और अंग्रेजीभाषा में ब्रेहेनिकल मैगजीन निकाला।
    राजाराममोहन राय ने अंग्रेजी में बंगला हेराल्ड निकाला। कलकत्ता से 1829 मेंबंगदूत प्रकाशित किया जो बंगला फारसी हिन्दी अंग्रेजी भाषाओं में छपता था।
    संवादकौमुदी और मिरात उल अखबार भारत में स्पष्ट प्रगतिशील राष्ट्रीय औरजनतांत्रिक प्रवृति के सबसे पहले प्रकाशन थे। ये समाज सुधार के प्रचार औरधार्मिक दार्शनिक समस्याओं पर आलोचनात्मक वाद विवाद के मुख्य पत्र थे।
    राजाराममोहन राय की इन सभी पत्रों के प्रकाशन के पीछे मूल भावना यह थी मेराउद्देश्य मात्र इतना है कि जनता के सामने ऐसे बौध्दिक निबंध उपस्थित करूंजो उनके अनुभव को बढ़ावें और सामाजिक प्रगति में सहायक सिध्द हो। मैं अपनीशक्ति भर शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहताहूं और प्रजा को उनके शासकों द्वारा स्थापित विधि व्यवस्था से परिचित करानाचाहता हूं ताकि जनता को शासन अधिकाधिक सुविधा दे सके। जनता उन उपायो सेअवगत हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और अपनी उचितमांगें पूरी करायी जा सके।
    दिसंबर 1823 में राजा राममोहन राय ने लार्ड एमहस्ट को पत्र लिखकर अंग्रेजी शिक्षाके प्रसार हेतु व्यवस्था करने का अनुरोध किया ताकि अंग्रेजी को अपनाकरभारतवासी विश्व की गतिविधियों से अवगत हो सके और मुक्ति का महत्व समझे।
    लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
    विष्णु शास्त्री चिपलणकर और लोकमान्य तिलक ने मिलकर 1 जनवरी 1881 से मराठी में केसरी और अंग्रेजी में मराठा साप्ताहिक पत्र निकाले।
    तिलकऔर उनके साथियों ने पत्र प्रकाशन की उदघोषणा में कहा हमारा दृढ़निश्चय है कि हम हर विषय पर निष्पक्ष ढंग से तथा हमारे दृष्टिकोण से जोसत्य होगा उसका विवेचन करेंगे। निःसंदेह आज भारत में ब्रिटिश शान मेंचाटुकारिता की प्रवृति बढ़ रही है। सभी ईमानदार लोग यह स्वीकार करेंगे कियह प्रवृति अवांछनीय तथा जनता के हितों के विरूद्ध है। इस प्रस्तावितसमाचारपत्र (केसरी) में जो लेख छपेंगे वे इनके नाम के ही अनुरूप होंगे।
    केसरीऔर मराठा ने महाराष्ट्र में जनचेतना फैलाई तथा राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलनके इतिहास में स्वर्णिम योगदान दिया। उन्होंने भारतीय जनता को दीन हीन वदब्बू पक्ष की प्रवृति से उठ कर साहसी निडर व देश के प्रति समर्पित होनेका पाठ पढ़ाया। बस एक ही बात उभर कर आती थी -स्वराज्य मेरा जन्मसिद्धअधिकार है।
    सन्1896 में भारी आकाल पड़ा जिसमें हजारों लोगों की मौत हुई। बंबई में इसीसमय प्लेग की महामारी फैली। अंग्रज सरकार ने स्थिति संभालने के लिये सेनाबुलायी। सेना घर घर तलाशी लेना शुरू कर दिया जिससे जनता में क्रोध पैदाहो गया। तिलक ने इस मनमाने व्यवहार व लापरवाही से          क्षुब्ध होकरकेसरी के माध्यम से सरकार की कड़ी आलोचना की। केसरी में उनके लिखे लेख केकारण उन्हें 18 महीने कारावास की सजा दी गयी।
    महात्मा गांधी
    गांधीजीने 4 जून 1903 में इंडियन ओपिनियन साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया। जिसकेएक ही अंक से अंग्रेजी हिन्दी तमिल गुजराती भाषा में छः कॉलम प्रकाशित होतेथे। उस समय गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में रहते थे।
    अंग्रेजी में यंग इंडिया और जुलाई 1919 से हिन्दी गुजराती में नवजीवन का प्रकाशन आरंभ किया।
    इनपत्रों के माध्यम से अपने विचारों को जनमानस तक पहुंचाया। उनके व्यक्तित्वने जनता पर जादू सा कर दिया था। उनकी आवाज पर लोग मर मिटने को तैयार होगये।
    इनपत्रों में प्रति सप्ताह महात्मा गांधी के विचार प्रकाशित होते थे।ब्रिटिश शासन द्वारा पारित कानूनों के कारण जनमत के अभाव में ये पत्र बंदहो गये। बाद में उन्होंने अंग्रेजी में हरिजन और हिन्दी में हरिजन सेवक तथागुजराती में हरिबन्धु का प्रकाशन किया तथा ये पत्र स्वतंत्रता तक छापतेरहे।
    अमृत बाजार पत्रिका
    सन् 1868 में बंगाल के छोटे से गांव अमृत बाजार से हेमेन्द्र कुमार घोष, शिशिरकुमार घोष और मोतीलाल घोष के संयुक्त प्रयास से एक बांगला साप्ताहिक पत्रअमृत बाजार पत्रिका शुरू हुआ। बाद में कलकत्ता से यह बांगला और अंग्रेजीदोनों भाषाओं में छपने लगी।
    1878 के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट से बचने के लिये इसे पूर्णतः अंग्रेजीसाप्ताहिक बना दिया गया। सन् 1891 में अंग्रेजी दैनिक के रूप में इसकाप्रकाशन शुरु हुआ।
    अमृतबाजार पत्रिका ने तगड़े राष्ट्रीय विचारों का प्रचार किया और यह अत्याधिकलोकप्रिय राष्ट्रवादी पत्र रहा है। सरकारी नीतियों की कटू आलोचना के कारणइस पत्र का दमन भी हुआ। इसके कई संपादकों को जेल की भी सजा भुगतनी पड़ी।
    जबब्रिटिश सरकार ने धोखे से कश्मीर मे राजा प्रताप सिंह को गद्दी से हटादिया और कश्मीर को अपने कब्जे में लेना चाहा तो इस पत्रिका ने इतना तीव्रविरोध किया कि सरकार को राजा प्रताप सिंह को राज्य लौटाना पड़ा।
    पयामे आजादी
    स्वतंत्रताआंदोलन के अग्रणी नेता अजीमुल्ला खां ने 8 फरवरी 1857 को दिल्ली से पयामेआजादी पत्र प्रारंभ किया। शोले की तरह अपनी प्रखर व तेजस्वनी वाणी से जनतामें स्वतंत्रता की भावना भर दी। अल्पकाल तक जीवित रहे इस पत्र से घबराकरब्रिटिश सरकार ने इसे बंद कराने में कोई कसर नही छोड़ी।
    पयामेआजादी पत्र से अंग्रेज सरकार इतनी आतंकित हुई कि जिस किसी के पास भी इसपत्र की कॉपी पायी जाती उसे गद्दार और विद्रोही समझ कर गोली से उड़ा दियागया। अन्य को सरकारी यातनायें झेलनी पड़ती थी। इसकी प्रतियां जब्त कर लीगयी फिर भी इसने जन जागृति फैलाना जारी रखा।
    युगांतर
    जगदीशप्रसाद चतुर्वेदी ने लिखा है जहां तक क्रांतिकारी आंदोलन का संबंध हैभारत का क्रांतिकारी आंदोलन बंदूक और बम के साथ नही समाचारपत्रों से शुरुहुआ।
    वारिन्द्रघोष का पत्र युगांतर वास्तव में युगान्तरकारी पत्र था। कोई जान नही पाताथा कि इस पत्र का संपादक कौन है। अनेक व्यक्तियों ने ससमय अपने आपको पत्रका संपादक घोषित किया और जेल गये। दमनकारी कानून बनाकर पत्र को बंद कियागया।
    चीफजस्टिस सर लारेंस जैनिकसन ने इस पत्र की विचारधारा के बारे में लिखा था इसकी हर एक पंक्ति से अंग्रेजों के विरुध्द द्वेष टपकता है। प्रत्येक शब्दमें क्रांति के लिये उत्तेजना झलकती है।
    युगांतरके एक अंक में तो बम कैसे बनाया जाता है यह भी बताया गया था। सन् 1909 मेंइसका जो अंतिम अंक प्रकाशित हुआ उस पर इसका मुल्य था फिरंगदि कांचा माथा ( फिरंगी का तुरंत कटा हुआ सिर )
    एक से अधिक भाषा वाले भाषाई पत्र
    हिन्दुमुसलमान दोनों सांप्रदायिकता के खतरे को समझते थे। उन्हें पता था किसाम्प्रदायिकता साम्राज्यवादियों का एक कारगर हथियार है। पत्रकारिता केमाध्यम से सामप्रदायिक वैमनस्य के खिलाफ लड़ाई तेज की गयी थी। भाषाईपृथकतावाद के खतरे को देखते हुए एक से अधिक भाषाओं में पत्र निकाले जातेथे। जिसमें द्विभाषी पत्रों की संख्या अधिक थी।
    हिन्दी और उर्दू पत्र
    मजहरुल सरुर, भरतपुर 1850
    पयामे आजादी, दिल्ली 1857
    ज्ञान प्रदायिनी, लाहौर 1866
    जबलपुरसमाचार, प्रयाग 1868
    सरिश्ते तालीम, लखनऊ 1883
    रादपूताना गजट, अजमेर 1884
    बुंदेलखंड अखबार, ललितपुर 1870
    सर्वाहित कारक, आगरा 1865
    खैर ख्वाहे हिन्द, मिर्जापुर 1865
    जगत समाचार, प्रयाग 1868
    जगत आशना, आगरा 1873
    हिन्दुस्तानी, लखनऊ 1883
    परचा धर्मसभा, फर्रुखाबाद 1889
    समाचार सुधा वर्षण, हिन्दी और बांगला, कलकत्ता 1854
    हिन्दी प्रकाश, हिन्दी उर्दू गुरुमुखी, अमृतसर 1873
    मर्यादा परिपाटी समाचार, संस्कृत हिन्दी, आगरा 1873
    1846 में कलकत्ता से प्रकाशित इंडियन सन् भी हिन्दु हेरोल्ड की भांति पांचभाषाओं हिन्दी फारसी अंग्रेजी बांगला और उर्दू में निकलता था।
    1870 में नागपुर से हिन्दी उर्दू मराठी में नागपुर गजट प्रकाशित होता था।
    बंगदूत बांगला फारसी हिन्दी अंग्रेजी भाषओं में छपता था।
    गुजराती
    बंबईमें देशी प्रेस के प्रणेता फरदून जी मर्जबान 1822 में गुजराती में बांबेसमाचार शुरु किया जो आज भी दैनिक पत्र के रुप में निकलता है।
    1851 में बंबई में गुजराती के दो और पत्रों रस्त गोफ्तार और अखबारे सौदागर कीस्थापना हुई। दादाभाई नौरोजी ने रस्त गोफ्तार का संपादन किया। यह गुजरातीभाषा का प्रभावशाली पत्र था।
    1831 में बंबई से पी एम मोतीबाला ने गुजराती पत्र जामे जमशेद शुरु किया।
    मराठी
    सूर्याजी कृष्णजी के संपादन में 1840 में मराठी का पहला पत्र मुंबई समाचार शुरु हुआ।
    1842 में कृष्णजी तिम्बकजी रानाडे ने पूना से ज्ञान प्रकाश पत्र प्रकाशित किया।
    1879 – 80 में बुरहारनपुर से मराठी साप्ताहिक पत्र सुबोध सिंधु का प्रकाशन लक्ष्मण अनन्त प्रयागी द्वारा होता था।
    मध्य भारत में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का विकास मराठी पत्रों के सहारे ही हुआ था।


    स्वतंत्र भारत में पत्रकारिता की भूमिका

    हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता की प्रमुख प्रवृतियां

    प्रमुख समाचार पत्र समूह

    द हिन्दू:

    सन 1878 में हिन्दू साप्ताहिक शुरू हुआ जो 1889 में दैनिक समाचारपत्र हो गया।हिन्दू स्वतंत्र संपादकीय और संतुलित समाचार के लिए काफी लोकप्रिय है। यहखबर जुटाने, पृष्ठ रचना और मुद्रण के लिए आधुनिक सुविधाओं का इस्तेमाल करताहै। यह समाचारपत्र तेरह केंद्रों में छपता है। इसका मुख्य संस्करण चेन्नईमें है।
    समाचारपत्र देखने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें।
    http://www.thehindu.com/

    टाइम्स आफ इंडिया

    इंडियन एक्सप्रेस

    हिन्दुस्तान टाइम्स समूह

    दैनिक जागरण

    अमर उजाला

    दैनिक भास्कर

    प्रभात खबर

    राजस्थान पत्रिका

    बिजनेस स्टैंडर्ड

    प्रमुख संपादक 

    महावीर प्रसाद द्विवेदी

    गणेश शंकर विद्यार्थी

    बाबूराव विष्णु पराड़कर

    बनारसी दास चतुर्वेदी

    अज्ञेय

    रघुवीर सहाय

    राजेंद्र माथुर

    प्रभाष जोशी

    सुरेंद्र प्रताप सिंह

    भारत में रेडियो

    भारतमें सबसे पहले रेडियो का प्रसारण 1923 मं कोलकाता के एक क्लब द्वारा कियागया था। इसके बाद बंबई रेडियो क्लब द्वारा रेडियो प्रसारण किया गया जो 1926 में इंडियन ब्राडकास्टिंग कंपनी बनाकर किया गया। 1936 में इसका नाम बदलकरआकाशवाणी कर दिया।
    1947 में आजादी के समय भारत में कुल 6 रेडियो स्टेशन मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई, लखनऊ और चंडीगढ़ काम कर रहे थे। आज रेडियो स्टेशन की संख्या 200 सेअधिक हो गयी है। 1956 में विविध भारती का आगमन हुआ। वर्तमान में विविधभारती के 43 केन्द्र है। इस समय रेडियो की पहुंच 92 फीसदी भारतीय भू भागऔर 98 फीसदी भारतीय जनता तक है।
    भारत में दूरदर्शन
    भारतमें टेलिविजन का प्रसारण सितंबर 1959 में एक प्रायोजिक परियोजना के रुपमें दिल्ली में एक केन्द्र खोलकर किया गया। प्रारंभ में टेलिविजन मेंशैक्षणिक कार्यक्रम का प्रसारण होता था बाद में समाचार व मनोरंजन के लियेकिया गया। 1982 में रंगीन टेलीविजन का प्रसारण आरंभ हुआ। 15 अगस्त 1984 कोसंपूर्ण देश में एक साथ दैनिक राष्ट्रीय कार्यक्रमों का प्रसारण आरंभहुआ।
    प्रसार भारती कानून
    रेडियोऔर दूरदर्शन को स्वायत्त देने वाले वर्तमान प्रसार भारती कानून का मूल नामप्रसार भारती (भारती प्रसारण निगम) विधान 1990 था। इसमें कुल चार अध्यायथे जो कुल 35 धाराओं उपधाराओं में बंटे थे। अधिनियम के अनुसार रेडियो दूरदर्शन का प्रबंधन एक निगम द्वारा किया जायेगा और यह निगम एक 15 सदस्यीयबोर्ड (परिषद) द्वारा संचालित होगा। परिषद में एक अध्यक्ष, एक कार्यकारीसदस्य, एक कार्मिक सदस्य, छह अंशकालिक सदस्य, एक एक पदेन महानिदेशक (आकाशवाणी और दूरदर्शन), सूचना और प्रसारण मंत्रालय का एक प्रतिनिधि औरकर्मचारियों के दो प्रतिनिधियों का प्रावधान था। अध्यक्ष व अन्य सदस्यों कीनियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी।
    प्रावधानोंके अनुसार यह प्रसार भारती बोर्ड सीधे संसद के प्रति उत्तरदायी होगा औरसाल में एक बार यह अपनी वार्षिक रिपोर्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत करेगा।अधिनियम में प्रसार भारती बोर्ड की स्वायत्ता के लिये दो समितियों का भीप्रावधान था  – संसद समिति और प्रसार परिषद। संसदीय समिति में लोक सभा के 15 और राज्य सभा के 7 सदस्य होंगे जबकि प्रसार भारती परिषद में 11 सदस्यहोंगे जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेंगे।
    अधिनियम के अनुसार प्रसार भारती के निम्न उद्देश्य
    1 देश की एकता और अखंडता तथा संविधान में वर्णित लोकतंत्रात्मक मुल्यों को बनाये रखना।
    2 सार्वजनिक हित के सभी मामलों की सत्य व निष्पक्ष जानकारी, उचित तथा संतुलित रुप में जनता को देना।
    3 शिक्षा तथा साक्षरता की भावना का प्रचार प्रसार करना।
    4 विभिन्न भारतीय संस्कृतियों व भाषाओं के पर्याप्त समाचार प्रसारित करना।
    5 स्पर्धा बढ़ाने के लिये खेल कूद के समाचारों को भी पर्याप्त स्थान देना।
    6 महिलाओं की वास्तविक स्थिति तथा समस्याओं को उजागर करना।
    7 युवा वर्ग की आवश्यकताओं पर ध्यान देना।
    8 छुआछूत असमानता तथा शोषण जैसी सामाजिक बुराईयों का विरोध करना और सामाजिक न्याय को प्रोत्साहन देना।
    9 श्रमिकों के अधिकार की रक्षा करना।
    10 बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना।



    पत्रकारिता का इतिहास


    समाचार पत्र का इतिहास




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    पच्चीस साल का स्वर्णिम सफर
    मार्टिनवाकर का कहना है-समाचार पत्र का इतिहास वस्तुतः उस राष्ट्र का इतिहास है, जहाँ से वह प्रकाशित होता है। समाचार पत्रों की व्याप्ति उस राष्ट्र की राजनीति से कहीं अधिक होती है। समाचारपत्र एक राष्ट्र की संस्कृति का दैनन्दिन का लेखा-जोखा है। इससे स्पष्ट है कि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री बीते हुए कल का जीवंत इतिहास बनाती है। इनमें समकालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, गतिविधियों का विवरण होता है जिनमें सम्पूर्ण समाज प्रतिबिम्बित होता है। इनमें प्रकाशित आलेख देश की वैचारिक परम्परा के संवाहक तो होते ही हैं, साथ ही वे तत्समय की प्रमुख घटनाओं को परखने की दृष्टि देते हैं।
    पत्र-पत्रिकाओं की इस निर्विवाद महत्ता को ध्यान में रखते हुए चौबीस वर्ष पूर्व सन 1984 में व्याकरणाचार्य कामताप्रसाद गुरू की साहित्यिक एवं पत्रकारीय धरोहर से
    , जो उनके पुत्र रामेश्वर गुरू द्वारा सौंपी गयी, भोपाल में कमला पार्क स्थित बुर्ज में समाचारपत्र संग्रहालय का बीजारोपण हुआ था। स्थापना के प्रारंभिक वर्षो में ही इसके चमत्कारिक विकास ने अपनी प्रासंगिकता और उपयोगिता की धाक जमा दी और लोग इसके सम्भावना भरे भविष्य के प्रति बड़े आशान्वित नजर आने लगे। लब्धप्रतिष्ठ पत्रकार श्री राजेन्द्र माथुर ने 1986 में संग्रहालय पर टिप्पणी करते हुए कहा था-जब बीज अंकुरित होकर इतनी आशा जगा रहा है तो पेड़ बनने पर उपलब्धि निश्चय ही बहुत बड़ी होगी। यह संग्रहालय अखिल भारतीय महत्व अर्जित करेगा।इतिहासविद् श्री शम्भुदयाल गुरू के अनुसारशोधकर्त्ताओं की आने वाली पीढ़ियाँ सप्रे संग्रहालय की ऋणी रहेंगी।जल्दी ही संग्रहालय ने बुद्धिजीवियों के बीच ऐसा विश्वास जमा लिया कि लोग अपनी बौद्धिक धरोहर को बेहिचक सौंपने लगे जिससे पत्र-पत्रिकाओं का इसका खजाना समृद्ध होता चला गया। यद्यपि इन सामग्री दाताओं की फेहरिश्त देशव्यापी और बहुत लम्बी है फिर भी इनमें से कुछ प्रमुख नाम- सर्वश्री बृजभूषण चतुर्वेदी, रतनलाल जोशी, धन्नालाल शाह, अमृतलाल वेगड़, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, यशवंत नारायण मोघे, अनंतमराल शास्त्री, प्रो. हनुमान वर्मा, यशवन्त अरगरे, आग्नेय, प्रो. विजय बहादुर सिंह, निर्मल नारद, डॉ. धनंजय वर्मा, शिवप्रसाद मुफलिस, देवीदयाल चतुर्वेदीमस्त, जगदीशप्रसाद चतुर्वेदी, श्रीरंजन सूरिदेव, गोविन्द मिश्र, बालशौरि रेड्डी आदि हैं। सन 1990 में मनीषी संपादक एवं चिंतक श्री नारायणदत्त ने इसे शोधार्थियों के लिएतीर्थ स्थानकी संज्ञा दी। सन 1991 में मध्यप्रदेश उच्च शिक्षा अनुदान आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. ओम नागपाल ने संग्रहालय को शोध केन्द्र का रूप देने की अनुशंसा की। अन्ततः फरवरी 1995 में बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल ने इसे अपने शोध केन्द्र के रूप में मान्यता प्रदान की और तब इसके नाम में समाचारपत्र संग्रहालय के साथ शोध संस्थान जुड़ गया। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय ने भी इसे अपना शोध केन्द्र घोषित किया है। पत्रकारिता एवं जनसंचार के अतिरिक्त साहित्य, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, कला-संस्कृति, धर्म-दर्शन, जैसे विषयों में भी एक उत्कृष्ट शोध केन्द्र के रूप में संस्थान की ख्याति देश-विदेश में बनी है।
    प्रारम्भ से ही इस संस्थान के प्रति प्रदेश सरकार के जनसम्पर्क विभाग एवं भोपाल नगर निगम का नजरिया सक्रिय सहयोग का रहा। शोध संस्थान के स्वयं के भवन का शिलान्यास 2 मार्च 1995 को हुआ और पं. माधवराव सप्रे की 125वीं जयन्ती के दिन 19 जून 1996 को इस भवन का उद्घाटन हुआ। इससे संग्रहीत सामग्री के उचित रखरखाव और उसके उपयोग की बेहतर व्यवस्था सम्भव हुई। पूरे देश में शोधार्थियों और अध्ययनकर्ताओं के बीच इस शोध केन्द्र की ख्याति इसलिए भी है कि यहाँ शोध सामग्री को बहुत ही अनूठे अंदाज में वर्गीकृत करके रखा गया है जो वांछित संदर्भ सामग्री की तुरंत एवं सहज उपलब्धता को सुनिश्चित करता है। संग्रहालय के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय तथ्य यह है कि यहाँ हिन्दी-उर्दू एवं अँगरेजी के अलावा लगभग सभी भारतीय भाषाओं की अनेक पत्र-पत्रिकाओं की फाइलें अपने प्रथम अंक से मौजूद हैं। विशेषकर उर्दू और मराठी पत्रकारिता के सम्बन्ध में तो यह दावा भी किया जा सकता है कि ऐसा अनूठा संग्रह सम्भवतः देश में कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिल सकता। कुछेक पत्र-पत्रिकाओं के ऐसे अंक भी यहाँ हैं जो उनके प्रकाशन संस्थानों के पास भी मौजूद नहीं हैं। संग्रहालय में उपलब्ध विपुल सन्दर्भ सामग्री की सूची इसके द्वारा प्रकाशित विवरणिका में उपलब्ध है। इस सामग्री के शोधपरक अध्ययन से जहाँ एक ओर कुछेक मान्यताएँ ध्वस्त हुई हैं तो कुछ सर्वथा नए तथ्य भी सामने आए हैं। इसमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
    (1857-1947) का आँखों देखा इतिहास दर्ज है जो इस महान संग्राम में भारतीय पत्रकारिता के अवदान को भी उजागर करता है। सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ के कार्यक्रमों के अन्तर्गत मध्यप्रदेश शासन के जनसम्पर्क विभाग द्वारा प्रकाशित कृतिसमाचारपत्रों में 1857की पाण्डुलिपि तैयार कर संग्रहालय ने अपने पास उपलब्ध सामग्री की उपयोगिता एवं महत्ता सिद्ध की है। सैकड़ों शोधार्थियों ने यहाँ की सामग्री का अध्ययन कर अपने शोध प्रबंध तैयार किए हैं। सामान्य शोधार्थियों के अतिरिक्त देशभर के अनेक विद्वानों, पत्रकारों, साहित्यकारों ने अपने व्यक्तिगत लेखन के लिए इस संग्रहालय का उपयोग किया है। इनमें सर्वश्री कमलेश्वर, विष्णु खरे, डॉ. कमल किशोर गोयनका, लक्ष्मण केडिया, सच्चिदानंद जोशी, सुरेश मिश्र, मदन मोहन जोशी, अच्युतानंद मिश्र, डा. सत्यनारायण शर्मा, प्रो. मैनेजर पाण्डेय, रमेश मुक्तिबोध, जवाहर कर्नावट, चित्रा मुद्गल जैसे मूर्धन्य विद्वान शामिल हैं। संग्रहालय ने शोध और संदर्भ-सामग्री के संग्रहण के प्रति अपनी तीव्र लालसा को न केवल सतत्‌ कायम रखा, स्वयं भी इस सामग्री के शोध अध्ययन और उसके प्रकाशन के क्रम को भी निरंतर बनाए रखा है।भारतीय पत्रकारिता कोश (1780-1947), माधवराव सप्रे व्यक्तित्व और कृतित्व, भारतीय पत्रकारिता : नींव के पत्थरजैसे इसके प्रकाशनों ने अपनी अकादमिक मूल्यवत्ता के आधार पर पत्रकारिता जगत में अच्छी पैठ बनायी है। यहाँ सेम.प्र. की उर्दू सहाफत इब्तेदा और इरतिका, मध्यप्रदेशातील मराठी पत्रकारिता, छत्तीसगढ़ः पत्रकारिता की संस्कार भूमि, हस्ताक्षर, स्मृति बिम्ब, समय से साक्षात्कार, तेवर, खबर पालिका की आचार संहिताजैसी शोधपरक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जो संग्रहालय की गहन शोध संलग्नता और उसकी निरन्तरता की परिचायक हैं।
    संथान ने जनसंचार पर केन्द्रित मासिक पत्रिकाआंचलिक पत्रकारके प्रकाशन के दायित्व का निर्वहन पूरी शिद्दत के साथ किया है। पत्रिका के जिन विशेषांकों की बहुत चर्चा हुई उनमेंगुलामी के खिलाफ कलम और कागज का जेहाद, राष्ट्रीय आन्दोलन और पत्रकारिता, प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाएँ, हिन्दी पत्रकारिता के 175 वर्ष, मध्यप्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, सरस्वती, छत्तीसगढ़ मित्र, विज्ञान लेखन कौशल और चुनौतियाँऔरमहिला पत्रकारिताविशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। देश के यशस्वी पत्रकारों के कृतित्व पर पत्रिका के जो विशेषांक बहुप्रशंसित एवं चर्चित रहे हैं उनमेंगणेश शंकर विद्यार्थी, द्वारकाप्रसाद मिश्र, माखनलाल चतुर्वेदी, माधवराव सप्रे, झाबरमल्ल शर्मा, बालकृष्ण शर्मा नवीन, गणेश मंत्री, देवीदयाल चतुर्वेदीमस्तप्रमुख हैं। इन प्रकाशनों ने संस्थान की प्रतिष्ठा को नई ऊचाइयाँ तो दी ही, साथ ही हिन्दी पत्रकारिता जगत को भी समृद्ध बनाया है। इसी क्रम में संस्थान ने पत्रकारिता एवं समाज से जुड़े विषयों पर संगोष्ठियों का आयोजन करके अपनी गहरी अकादमिक अभिरुचियों को भी अभिव्यक्त किया है। संस्थान ने पत्रकारों एवं पत्र-पत्रिकाओं को भी सम्मानित और पुरस्कृत करने की परम्परा डाली है। संस्थान द्वारा प्रतिवर्ष दिए जाने वाले सम्मान हैं- लाल बलदेवसिंह सम्मान (ज्येष्ठ पत्रकारों के लिए), माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता पुरस्कार (सम्पादन), जगदीशप्रसाद चतुर्वेदी पत्रकारिता पुरस्कार (रिपोर्टिंग), रामेश्वर गुरू पत्रकारिता पुरस्कार (पत्रिका, फीचर), झाबरमल्ल शर्मा पुरस्कार (इलेक्ट्रॉनिक मीडिया), के.पी. नारायणन पुरस्कार (अँगरेजी पत्रकारिता)। इन पुरस्कारों की आयोजना एवं संयोजना इस तरह से की गयी है कि पत्रकारिता की बुजुर्ग पीढ़ी के सम्मान के साथ ही नवोदित पीढ़ी का उत्साहवर्धन भी हो। संस्थान ने देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, पत्रकारों और समसामयिक विषयों पर एकाग्र प्रतिष्ठा-आयोजन भी किए जिनमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आतंकवाद के बढ़ते खतरे, उर्दू सहाफत की विरासत और मौजूदा हालात, बालकृष्ण शर्मा नवीन जन्मशताब्दी, सूचना का अधिकार, स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता की भूमिका, मध्यप्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, लोकचेतना में आंचलिक पत्रकारों की भूमिका, पं. द्वारका प्रसाद मिश्र जन्मशताब्दी समारोह, विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें देश के वरिष्ठ पत्रकारों, साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों की व्यापक हिस्सेदारी रही। इसी कड़ी मेंमीडिया में महिला विमर्शविषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में हर क्षेत्र की प्रबुद्ध महिलाओं की वैचारिक और सक्रिय भागीदारी ने इसे विशिष्ट एवं यादगार विमर्श बनाया।
    वर्ष 2006 से राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद
    , नईदिल्ली के  सहयोग से स्थापितविज्ञान संचार अभिलेखागारप्रभाग के माध्यम से, पत्रकारिता जगत को लोकप्रिय विज्ञान लेखन के लिए महत्वपूर्ण संदर्भ स्रोत सामग्री उपलब्ध कराने का अनूठा प्रयास, संग्रहालय कर रहा है। विज्ञान संचार अभिलेखागार प्रभाग के तत्वावधान मेंहिन्दी में विज्ञान लेखन- कौशल एवं चुनौतियाँविषय पर दो के तत्वावधान मेंहिन्दी में विज्ञान लेखन- कौशल एवं चुनौतियाँविषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का भी सफल आयोजन किया गया। विज्ञान संचार अभिलेखागार के विकास और इसके कार्यक्रमों के निर्धारण के लिएपरामर्श मण्डलगठित किया गया है जिसमें विभिन्न विज्ञान विषयों के वरिष्ठ विद्वानोंप्राध्यापकों एवं विज्ञान-लेखकों को शामिल किया गया है।
    संग्रहालय का एक अन्य विशिष्ट प्रभाग प्राचीन पाण्डुलिपियों, दस्तावेजों एवं पत्राचारों का है। इस संग्रह में जो दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ हैं उनमें- मनुस्मृति, धर्म प्रवृत्ति, समयसार, संहिताष्टक, कुंडार्कमूल, मुहूर्त चिंतामणि, श्री सूक्तक, गृहलाघव, तत्वप्रदीप, कृत्य मंजरी, भावप्रकाश, मिताक्षरा, झाँसी की राइसो, श्रुतिबोध जैसी सन 1509 से लेकर 1925 तक की पांडुलिपियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। हाल ही में गोस्वामी तुलसीदास कृतश्री रामविवाह मंगल, श्री राम गीतावली, प्रांगन गीताएवंश्री उमाशंभु विवाह मंगलकी हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं जो अपनी प्राचीनता एवं साहित्यिकता की दृष्टि से अमूल्य हैं। हिन्दी के ख्यातनाम गजलगो दुष्यंतकुमार की हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ और पत्राचार इस संग्रहालय की नवीनतम उपलब्धि हैं। जिन महत्वपूर्ण विद्वानों के पत्र व्यवहार संग्रहालय की श्रीवृद्धि करते हैं उनमें महत्वपूर्ण हैं- बनारसीदास चतुर्वेदी, गणेशदत्त शर्माइन्द्र, श्रीरंजन सूरिदेव, माखनलाल चतुर्वेदी, वृन्दावनलाल वर्मा, सेठ गोविन्ददास, सुभद्राकुमारी चौहान, सुमित्रानंदन पंत, हजारीप्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, भवानीप्रसाद मिश्र, नन्ददुलारे वाजपेयी, लोचनप्रसाद पाण्डेय।
    सामग्रीदाताओं के प्रति संस्थान की कृतज्ञता एवं उन्हीं के नाम पर सामग्री यहाँ रखने का भाव श्लाघनीय है। उसी का सुफल है कि अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आज यहाँ 19664 शीर्षक पत्र-पत्रिकाओं की फाइलें
    , ३5 हजार पुस्तकें, तीन हजार दस्तावेज एवं एक हजार पाण्डुलिपियाँ संग्रहीत हैं और इनमें रोज-ब-रोज वृद्धि हो रही है। यहाँ दानदाताओं द्वारा दी गई सामग्री उनके नाम से ही संग्रहीत और प्रदर्शित है। संस्थान की इस खूबी को ध्यान में रखकर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने एक समारोह में सप्रे संग्रहालय को भोपाल का गौरव निरूपित किया था।
    बात कुछ अधूरी रहेगी यदि संस्थान की इस स्वर्णिम यात्रा के सूत्रधार और नियामक वरिष्ठ पत्रकार श्री विजयदत्त श्रीधर की आत्मीय संलग्नता
    , एकनिष्ठ जुनूनी प्रयत्न और इस स्वप्न को साकार करने की उनकी अदम्य जीवट के साथ उनके सहयोगियों के अनथक परिश्रम की चर्चा न की जाये। इसी के बलबूते ही संस्थान को बौद्धिक तीर्थ का विशेषण विद्वानों से समय-समय पर मिलता रहा है। यहाँ संग्रहीत इस मुद्रित धरोहर के डिजिटलीकरण एवं कम्प्यूटरीकरण की महत्वाकांक्षी योजना को मूर्त रूप देने के लिए संस्थान प्रयासरत है ताकि शोधार्थियों को नई तकनीक से और ज्यादा आसानी से वांछित संदर्भ मिल सकें।
    संग्रहीत सामग्री की सुरक्षा के अचूक प्रयत्न
    , आगन्तुकों को यहाँ का अनमोल खजाना दिखाने का उत्साह, शोधार्थियों को सन्दर्भ सामग्री उपलब्ध कराने की तत्परता और मार्गदर्शन और इनसे कहीं बढ़कर नए सामग्रीदाताओं की अनवरत खोज इस संग्रहालय की उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं।
    डॉ. शिवकुमार अवस्थी
    डॉ.

    मीडिया की भूमिका

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    प्रस्तुति- स्वामी शरण



    भूमिका

    मीडिया एक दोधारी अस्त्र है| जहाँ एक तरफ यह लोगों के विचार को एक रूप देता है वही दूसरी तरफ पाठकों को आकर्षित करने के लिए सनसनीखेज मुद्दे बनाना इसका चरित्र है|
    किसी बच्चे को सजा न देने के अपने मकसद पर आगे बढ़ते हुए किशोर न्याय अधिनियम के धारा 19 को शामिल किया गया| यह धारा सुनिश्चित करती है कि “एक किशोर जिसने कोई अपराध किया है तथा उसे इस कानून के प्रावधानों के अंतर्गत लिया गया है तो फिर वह इस कानून के अंतर्गत किए जाने वाले किसी अपराध से बरी नहीं किया जाएगा|”

    परिचय

    एक समान प्रावधान 1986 के किशोर न्याय अधिनियम (जेजेए) में शामिल किया गया था| इसको अतिरिक्त, सेक्शन 19 के उप-ऐक्शन (2) कहता है बोर्ड यह निर्देशित करते हुए कि ऐसे आरोपों के प्रासंगिक रिकोर्ड को अपील  की अवधि के गुजर जाने के बाद हटाया जाएगा या एक उचित अवधि के बाद जो मामले के लिहाज से कानून के अंतर्गत सुझाया गया है| के बाद हटा दिया जाएगा| एक आदेश पारित करेगा| मॉडल कानून 7 वर्ष तक रखे गए रिकार्ड या दस्तावेज जो किशोर से संबंध है का प्रावधान रखता है और उसके बाद बोर्ड के द्वारा उसे नष्ट कर दिया जाना है| इस प्रकार कानून यह स्पष्ट संदेश है की एक बच्चा अपने बीते हुए व्यवहार के कारण विपरीत रूप से प्रभावित नहीं होगा|
    सेक्शन 19 के विधान में शामिल होने के बावजूद कानून के साथ विरोध में आए किशोरों को मुख्यधारा समाज में पुन: जुड़ने में कठिनाई प्राप्त होती है| विद्यालय, किशोर जो कानून के साथ विरोध में है उनको विद्यालय से निकाल दिए जाते रहने के तौर पर जाने जाते रहे हैं| यह मानते हुए कि ऐसे किशोरों का अन्य बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा| उनके लिए रोजगार के अवसर कम होते रहते हैं क्योंकि उनका कलंक नौकरी जगत में भी उनका पीछा करता रहता है| और इस तरह वे एक अनुचित तनख्वाह वाले असंगठित सेक्टर में रोजी-रोटी कमाने के लिए बाध्य कर के जाते है| इस तरह पीड़ित करने को कम करने के लिए किशोर कानून मीडिया रिपोर्टों को प्रतिबंधित कर किशोर की निजता के अधिकार की रक्षा करता है| अधिनियम की किसी भी सुनवाई में शामिल कानून के साथ विरोध में किशोर या देख रेख की जरूरत वाले बच्चे के नाम के प्रकाशक पर प्रतिबंध, इत्यादि.
    (1) किसी भी समाचार पत्र, पत्रिका समाचार पृष्ठ या दृश्य माध्यम में कानून के साथ विरोध में किशोर या देख रेख की जरूरत वाले बच्चे से जुड़ी जाँच-पड़ताल जो इस अधिनियम के तहत चल्र रहा है में उनका नाम, पता या विद्यालय या कोई भी खास सामग्री जो किशोर या बच्चे को पहचान के लिए तैयार किए गए है प्रकाशित नहीं होंगे और न ही ऐसे किसी किशोर या बच्चे की तस्वीर ही प्रकाशित किए जा सकेंगे;
    (2) कोई भी व्यक्ति जो उप सेक्शन (1) के इन प्रावधानों का विरोध करता है, वह दंड का भागी होगा जो पच्चीस हजार रूपए तक का हो सकता है| ऐसे प्रावधान बी.सी.ए. 1945 और 1986 अधिनियम में भी शामिल किए गए थे| लेकिन 2006 संशोधन में जुर्माना 1,000/- रू. से 25,000/- रू. तक बह गया और इस संशोधन ने बच्चे जो देखरेख व सुरक्षा के जरूरत मंद है, को भी अपने भीतर समाहित कर लिया बीजिंग नियमों में भी एक समान प्रावधान मीडिया पर रोक लगाने के लिए शामिल किए गए|
    8.1 किशोर को निजता के अधिकार का उसके नाजायज प्रचार या स्तरी करण की प्रक्रिया के द्वारा पहुँचनेवाले नुकसान से बचने के लिए हरेक स्तर पर सम्मान किया जाना चाहिए|
    8.2 सिद्धांत में, कोई भी ऐसी सूचना जो किशोर अपराधी की पहचान को समाने लाता हो, प्रकाशित नहीं होगा|
    इसके अतिरिक्त किशोर अपराधियों के रिकोर्ड को सख्ती से गोपनीय तीसरी पार्टियों के लिए बंद रखा जायेगा और उसका उपयोग बाद के मामलों में उसे शामिल करते हुए वयस्क सुनवाई में नहीं किया जाएगा| इन प्रावधानों को कलंक से बचाने के लिए डाला गया और एक किशोर अपराधी को अपनी उम्र के दुसरे बच्चों के लिए हासिल अवसरों का लाभ उठाने के लिए सशक्त बनाने के लिए शामिल किया गया है| न ही, फैसले में अपरिपक्वता के कारण किया गया गैर कानूनी कार्य, उसके विरोध में लिया जाना चाहिए|
    फिर भी बार-बार समाचार पत्रों में किशोर अपराधी और वह अपराध जिसके लिए वह अभियुक्त है कि विस्तारपूर्वक वर्णन व तस्वीरों प्रमुखता से छपती हैं|
    किशोर व उसकी समर्थन प्रणाली, यदि कोई होती है, किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष लंबित मामले से ज्यादा गंभीरता से जुड़ा  होता है उर वह गलत कर रही मीडिया के विरूद्ध कोई करवाई नहीं करता| इसलिए मीडिया इस स्थिति का दुरूपयोग किशोर के  नुकसान हो जाने की हद तय करता रहता है| मीडिया की बददिमागी रिपोर्टिंग को रोकने के लिए, किशोर न्याय बोर्ड व उच्च न्यायालय को किशोर न्याय अधिनियम 2000 के सेक्शन 21 (2) के तहत सुओ – मोटो करवाई करनी चाहिए नियम 2002 कहता है बोर्ड को किसी भी मीडिया के खिलाफ जो कानून के साथ विरोध में आए बच्चे से जुड़ी किसी भी सामग्री को प्रकाशित करता है| जो बच्चे की पहचान का कारण बन सकता है, करवाई करना होगा| इसके अतिरिक्त वे जो बाल अधिकार के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं उन्हें इन प्रकाशनों को न्याय प्रणाली के समक्ष लाना चाहिए, मीडिया के साथ संवाद भी करना चाहिए और उन्हें कानून और उनकी रिपोर्टिंग का एक बाल जीवन पर क्या असर पड़ सकता है, से भी अवगत कराना चाहिए|
    सेक्शन 21, रिपोर्टरों और पत्रकारों को बाल देखरेख संस्थानों में चल रही परिस्थिति बच्चों के प्रति सरकार की उदसीनता, जेलों में किशोरों की गैर कानूनी कैद, किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष लंबित पड़े मामलों के प्रति पाठकों का ध्यानाकर्षण करने के लिए उन्हें किसी भी तरह से नहीं बांधता है| बल्कि ऐसे रिपोर्टों और लेखों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि मीडिया कवरेज बच्चों के लिए स्थितियों को बेहतर बना सकती है| अच्छे तौर पर सक्रिय पत्रकारिता ने बच्चों को बदतर स्थितियों को बदलने में सकारात्मक भूमिका निभाई है| सभी शिला बरसे नामक एक पत्रकार ने 1980 और 1990 में जेलों में बच्चों की भर्ती, किशोर मामलों की लंबे तौर पर रुके रहने आदि को जनहित में प्रकाश में लेन हेतु सर्वोच्च न्यायालय और मुम्बई उच्च न्ययालय याचिका दायर की और वह पूरे देश में एक एकसमान किशोर न्याय प्रणाली को स्थापित करने का औजार भी थी|
    इसका मतलब यह भी नहीं है कि मीडिया को किशोरों द्वारा किए गए अपराधों को ही प्रकाश में रखा जाता है| जिससे जनतायह विश्वास कर लेती है कि किशोरों द्वारा किए गए सारे अपराध हिंसक अपराध की सच्ची तस्वीर पेश करे| 2001 में 33,628 किशोर संज्ञान में लिए गए पूरे देश भर से 539  किशोर पर हत्या का अभियोग थे 36 हत्या के प्रयास थे जिनमें हत्या नहीं हुई, 506 पर बलात्कार के आरोप थे| बहुसंख्या को चोरी के मामले में गिरफ्तार किया गया था|
    स्रोत: चाइल्ड लाइन इंडिया, फाउन्डेशन

    3.5

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