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खोजी पत्रकारिता खोजी पत्रकारिता

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खोजी पत्रकारिता (Investigative journalism), पत्रकारिताका वह रूप है जिसमें रिपोर्टर किसी एक विषय (मुद्दे) को लेकर उसकी गहन छानबीन करते हैं।

बाहरी कड़ियाँ


पत्रकारिता के छात्रों के लिए जरूरी नोट्स

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प्रस्तुति- राजेश सिन्हा


Saturday, 14 June 2014


पत्रकारिता के प्रमुख प्रकार

पत्रकारिताकेप्रमुखप्रकार:
    () खोजीपत्रकारिता-जिसमेंआमतौरपरसार्वजनिकमहत्त्वकेमामलोंजैसे, भ्रष्टाचार, अनियमितताओंऔरगड़बड़ियोंकीगहराईसेछानबीनकरसामनेलानेकीकोशिशकीजातीहै।स्टिंगऑपरेशनखोजीपत्रकारिताकाहीएकनयारूपहै।
() वाचडागपत्रकारिता-लोकतंत्रमेंपत्रकारिताऔरसमाचारमीडियाकामुख्यउत्तरदायित्वसरकारकेकामकाजपरनिगाहरखनाहैऔरकोईगड़बड़ीहोनेपरउसकापरदाफ़ाशकरनाहोताहै, परंपरागतरूपसेइसेवाचडागपत्रकारिताकहतेहैं।
    () एडवोकेसीपत्रकारिता-इसेपक्षधरपत्रकारिताभीकहतेहैं।किसीखासमुद्देयाविचारधाराकेपक्षमेंजनमतबनानेकेलिएलगातारअभियानचलानेवालीपत्रकारिताकोएडवोकेसीपत्रकारिताकहतेहैं।
  (पीतपत्रकारिता-पाठकोंकोलुभानेकेलियेझूठीअफ़वाहों, आरोपों-प्रत्यारोपों, प्रेमसंबंधोंआदिसेसंबंधिसनसनीखेज  समाचारोंसेसंबंधितपत्रकारिताकोपीतपत्रकारिताकहतेहैं।

  ()   पेजथ्रीपत्रकारिता- एसीपत्रकारिताजिसमेंफ़ैशन, अमीरोंकीपार्टियों , महफ़िलोंऔरजानेमानेलोगोंकेनिजीजीवन  केबारेमेंबतायाजाताहै।

1 comment:

Vaibhaw Singhsaid...
बहुत ही सराहनीय प्रयास भैया

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मीडिया की जरूरी बातें

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रजत अमरनाथ,वरिष्ठ पत्रकार-

भारत में खोजी पत्रकारिताआखिरी साँसे ले रहा है. अखबार में तो यदा-कदा खोजी पत्रकारिता के कभी-कभी दर्शन हो भी जाते हैं, लेकिन टेलीविजन न्यूज़ में इसके दर्शन दुर्लभ ही हो गए हैं. खोजी पत्रकारिता के धुरंधर रिपोर्टरऔर पत्रकार या तो हाशिए पर चल गए या फिर खानापूर्ती की ख़बरों में झोंक दिए गए.इसी मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार रजत अमरनाथकी एक टिप्पणी –


“खोजी पत्रकारिता” यानि “INVESTIGATIVE JOURNALISM” आज वेंटिलेटर पर है और अंतिम सांसें ले रहा है. कभी -कभी उभारा लेता भी है तो सिर्फ “INDIAN EXPRESS” और “THE HINDU” जैसे अख़बारों की वजह से. टीवी के “खोजी पत्रकारों” और “संपादकों” की नज़र में “खोजी पत्रकारिता” का मतलब सिर्फ और सिर्फ “स्टिंग” है, आखिर ऐसा हो भी क्यों न जब मालिकान और संपादक ही अपना हित साधने के लिए सत्ता के चरणों में दंडवत हैं. मालिकों को “राज्यसभा” की सीट चाहिए तो “संपादक” को TRPके जरिए कमाई ताकि उसकी मठाधीशी कायम रह सके.
एक खबर के बदले Deepak Sharmaजैसे लाजवाब खोजी पत्रकार निकाल दिए जाते हैं और तो दूसरी तरफ अंडरवर्ल्डमें भी अपनी खोजी खबरों के जरिए पैठ बनाने वाली Sheela Raval को भी टीवी पर एंटरटेनमेंट की खबर करते देखा जा सकता है (वैसे टीवी पर कई बार “छोटा शकील” को शीला जी को “दीदी” कहते सुना है) आखिर किसी भी चैनल का मालिक या संपादक कागजों में लिपटे भ्रष्टाचार को उजागर क्यूँ नहीं करना चाहते??? अपने ही अच्छे और सोर्सफुल रिपोर्टर का इस्तेमाल सही तरीके से क्यूँ नहीं करते???
पांच राज्यों मे सत्ता परिवर्तन हुआ है पांचों ही राज्यों में भ्रष्टाचार में लिप्त सरकार थी सत्ता परिवर्तन भी इसी वजह से हुआ है,इस समय पांचो राज्य खबरों से लबरेज हैं लेकिन सारे चैनल “योगी मय” “मोदी मय” हैं कोई भी चैनल चाहे तो पिछली सरकारों का कच्चा चिठ्ठा खोल कर रख दे और जनता को बता दे कि बादल ने कितना लूटा???हरीश रावत ने कितना सरकारी पैसा सत्ता पाने के लिए लुटाया???उत्तर प्रदेश में चाचा से भतीजे की लड़ाई की असली वजह क्या थी???खनन की बंदरबांट क्या थी???बुआ भतीजा अब क्यों एक हो रहे हैं???? रातोंरात जो अधिकारी हटाए जा रहे है उसके पीछे की वजह क्या है??? गोआ में कौन कौन बिका कितने में बिका??? मणिपुर की सरकार बनने के क्या मायने है???? लेकिन ये सब खबरें करेगा कौन???
ये न्यूज़ चैनलों का आपातकाल है जहाँ न अब ज़रूरत उदय शंकर जी,राजू संथानम जी,शाज़ी ज़माँ जी,अरूप घोष जी, प्रभात डबराल जी,विनोद दुआ जी,शीला रावल जी जैसों की नहीं है जो रिपोर्टर के पीछे खड़े हो कर कहे कि “तुम ठोको नेता मंत्री अधिकारी को मैं निपट लूंगा बस सबसे बढ़िया ख़बर लाओ”
(जिसका भी नाम लिखा है उनके साथ काम करनेऔर करीब से जानने का मौका भी मिला था)




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सिर्फ बेचने की तरकीब की तलाश

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Posted by Shalini Shrinet
January 31, 2017

पत्रकारिताः सिर्फ बेचने की तरकीबें खोजी जाती हैं

कहां जा रही है पत्रकारिता? पत्रकारों की छवि धूमिल होती जा रही है। जहां पहले पत्रकारों का नाम सुनकर एक सम्मान और आदर का भाव आता था, वहीं अब लोग कद्र ही नहीं करते। एक समय था 1997-98 में जब मैं बीए कर रही थी तो कुछ सहेलियां पत्रकारों का नाम सुनकर कहती थीं, अरे बाप रे, वो तो पत्रकार हैं, बाल की खाल निकालेंगे या बातों की तह तक जाकर तहकीकात करेंगे।
आज के पत्रकार बातों की तह तक नहीं जाते या असलियत नहीं जानना चाहते, उनको इस बात से मतलब है कि कौन सी खबर कितनी बिकेगी। कौन सी खबर किस तरह लगाई या दिखाई जाए कि ज्यादा बिके। पत्रकारिता भी अब दुकानदारी हो गई है। आज की आधी पत्रकारिता तो जान-पहचान पर चलती है। जबकि अच्छे अखबार या चैनल को जान-पहचान की जरूरत नहीं होती।
कुछ जानने वाले दोस्तों ने पत्रकारिता की नौकरी छोड़ दी और अब काम की तलाश में हैं। वो सिर्फ इसलिए कि वे जिस भी टीवी चैनल या अखबार में थे, वहां पर खुद को कठपुतली की तरह महसूस करते रहे। अब वहां इस बात पर जोर दिया जाता है कि कौन सी खबर की हेडिंग कितनी वल्गर और सनसनीखेज होगी कि ज्यादा से ज्यादा लोग उसे पढ़ेंगे और देखेंगे। कुछ दोस्तों ने इन बातों पर प्रतिक्रिया की तो उनको परेशान करके नौकरी से निकाल दिया गया और आगे नौकरी मिलना मुश्किल हो गया।
माना जाता है कि पत्रकारिता सही खबरों को लोगों तक पहुंचाने का मंच है। लेकिन हमारे पत्रकार जो बोलना या लिखना चाहिए, वो न बोल या लिखकर वे वो बोलते हैं जो विवादित हो, क्योंकि उनका मानना है कि ऐसी खबरें लोग देखते हैं।
मेरा रंग पर इंटरव्यू के दौरान एक वरिष्ठ पत्रकार से मुलाकात हुई। उन्होंने बातचीत में बताया कि मैंने तमाम टीवी चैनलों में काम किया लेकिन मुझे कभी ये नहीं लगा कि जो खबर जानी चाहिए वो जा रही है। हमेशा इस बात का दबाव रहता था कि ऐसी खबर हो कि ज्यादा लोग देखें या पढ़ें, उसकी सत्यता से कोई मतलब नहीं होता था। एक समय के बाद वहां मेरा दम घुटने लगा और मैंने नौकरी छोड़ दी और अपना काम शुरू कर लिया।
उनका कहना है कि अब पत्रकारिता दुकानदारी हो गई है। जहां सिर्फ बेचने की तरकीबें खोजी जाती हैं, न कि लोगों तक कोई अच्छी या सच्ची खबर पहुंचाने की।

न्यूज चैनलों में इंटर्न की भूमिका

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प्रस्तुति- किशोर प्रियदर्शी 


  1. 1. महात्मा गाांधी अांतरराष्‍ट्रीय् हहांदी हिश््िहि्ायय, िधाा (महाराष्‍टर) MAHATMA 

  1. 2. न्यूज चैनलों के प्रतत इंटनथ का नजररया (आउटपुट डेस्क के संदर्थ में) -सारांश- न्यूज चैनलों के प्रति इंटनों के नजरिए को नकाि नह ं जा सकिा। इस शोध के दौिान इस बाि का पिा चलिा है कक इंटनन के दौिान छात्रों को ससखने का भिपुि मौका समलिा है। छात्र इसका फायदा भी उठािे हैं। छात्रों को सबसे ज्यादा मौके छोटे चैनलों में समलिे हैं। अधधकांश इंटनों का मानना है कक काम ससखने में उन्हें कोई खास ददक्कि नह ं आिी। हालांकक आधे इंटनों का मानना है। कक आउटपुट के कमनचारियों का व्यवहाि उनके प्रति बेहिि नह ं था। प्रस्तािना ‘इडियट वाक्स’ ने पूि दतुनया को खुद में समेट सलया है। आज भािि के 13.8 किोड़ घिों में टेसलववजन (‘इडियट वाक्स’) है। इन घिों में सिकाि चैनलों के साथ साथ प्राइवेट चैनलों के प्रोग्रासमग चैनल औि न्यूज एंि किेंट अफेयसन के कुल 800 चैनल देखे जािे हैं। इन चैनलों में 400 सौ (392 के अलावा कुछ टेस्टंग पि हैं) न्यूज एंि किेंट अफेयसन के चैनल हैं। सजनमें ्थानीय भाषा औि ्थानीय चैनलों की संख्या भी शासमल है। ये सभी चैनल 24 घंटे न्यूज पिोसने का दावा कििे हैं। इस दावे को पूिा किने के सलए िीन सशफ्टों में मीडिया कमी काम कििे है। जहां इस इडियट वॉक्स की भूख शांि किने के सलए खबिों की िोज द जािी है। ये काम न्यूज चैनल के आउटपुट डिपाटनमेंट में होिा है। जहां असस्टेंट प्रोड्यूसि से लेकि संपादक िक लगे होिे हैं। इन सब के बीच एक ऐसा ह शख्स काम कििा है जो कई सं्थाओं में अवैितनक िौि पि िो कई
  2. 3. सं्थाओं मेँ मामूल ्टाइपन पि काम कििे हैं। जो बाकक पत्रकािों की ििह ह खबिों औि उसके दिटमेंट के सलए जुझिे िहिे हैं। ये मीडिया सं्थानों के छात्र होिे हैं। सजन्हें अकुशल माना जािा है। प्रबंधन की भाषा में इन्हें इंटनन कहा जािा है। आज के दौि में ये इंटनन न्यूज चैनलों के सलए खासकि छोटे न्यूज चैनलों के सलए िो बैकबोन साबबि हो िहे हैं। इनका उद्देश्य न्यूज चैनलों में होने वाल गतिववधधयों को ससखना होिा है। िाकक आने वाले समय में वो भी मीडिया को बेहिि िि के से सीख सके। इसके सलए ये इंटनन अपने एकेिसमक गतिववधधयों से समय तनकालकि न्यूज चैनलों में इंटनन किने जािे हैं। इनका उद्देश्य कम समय में बेहिि प्रदशनन किना होिा है िाकक जब वे इस क्षेत्र में आये िो उन्हें काम की बाि ककयों की जानकाि िहे। उपकल्पना  इंटनथ करने िाले छात्रों के प्रतत चैनल कर्मथयों का व्यिहार बुरा रहता है ।  इंटनथ के करते समय आउटपुट डस्ेक के कायथकताथ इंटनथ को कायथ र्सााने में मदद करते है ।  इंटनथ को छोटे चैनलों की अपेक्षा बड़ ेचैनलों मे सीाने का मौका ज्यादा र्मलता ही ।
  3. 4. शोध का उद्देश्य  क्या इंटननसशप के दौिान उन्हें सीखने समझने का मौका समलिा है।  इंटनन के दौिान होने वाल पिेशानी का पिा चल पायेगा।  आउटपुट के कमनचाि इंटनन को सीखाने या सीखने में ककिनी मदद कििे हैं।  इंटनन के प्रति बाकक कमनचारियों का कैसा व्यवहाि होिा है।  इंटनन को काम सीखने का मौका बड़ ेया छोटे चैनलों में समलिा है। शोध सीमा एिं प्रविधध प्र्िुि शोध का अध्ययन क्षेत्र न्यूज चैनलों में इंटनन कि चुके महात्मा गांधी अंिििाष्ट्ि य दहन्द ववश्वववद्यालय के जनसंचाि एवं मीडिया अध्ययन केन्र के 10 छात्रों को ससमसलि ककया गया है। इन छात्रों से प्रश्नावल ववधध से प्राप्ि आंकड़ों का ववश्लेषण ककया गया हैं। साथ ह मीडिया सं्थानों में काम कि चुके मीडिया कसमनयों के अनुभवों का अध्ययन ककया जायेगा। इसके सलए साक्षात्काि ववधध का इ्िेमाल ककया जायेगा।
  4. 5. साक्षात्कार का विश्लेषण मीडिया में काम कि चुके लोगों के तनजी अनुभव के आधाि पि साक्षात्काि सलये गये हैं। साक्षात्काि में ये बाि सामने आयी है कक इंटननसशप के दौिान छात्रों को छोटे न्यूज चैनलों में ज्यादा सीखने का मौका समलिा है जबकक बड़ े न्यूज चैनल इंटनन को ज्यादा िवज्जो नह ं द जािी। इसके साथ ह बड़ ेन्यूज चैनल एक सीसमि समय के सलए इंटनन िखिे हैं औि उसके बाद उसे वह रिन्यू कम ह कििे हैं। जबकक छोटे न्यूज चैनलों में सीखने का समय औि मौका ज्यादा ददया जािा है। कई छोटे न्यूज चैनल इंटनन के दम पि चल िहे हैं। छोटे न्यूज चैनलों में कम कमनचारियों के होने के कािण इंटनन को हि ि्ेक औि डिपाटनमेंट में मौका ददया जािा है। जहां छात्रों को हि ववभाग को जानने का मौका समल जािा है। कई बाि छात्रों के सु्ि िवैये के चलिे उन्हें सीखने का मौका नह ं समल पािा है। टाल मटोल किने वाले छात्र आउटपुट के कसमनयों के साथ बेहिि सामंज्य नह ं बना पािे हैं। जो काम उन्हें ददया जािा है ससफन उिना ह काम किके शांि हो जािे हैं। कफि उन्हें दोबािा काम देने के सलए ढूंढ़ना पड़िा है। ऐसे में कई छात्र इंटनन के दौिान कुछ नह ं पािे। जबकक एसक्टव छात्र इंटनन के दौिान बेहिि प्रदशनन कििे हैं। उनका ध्येय सीखना होिा है। इंटनन से साधािणिया पैकेसजंग का काम सलया जािा है। कई बाि काम की जानकाि नह ं होने की वजह से कई बाि छात्र काम को लेकि उलझन में िहिे हैं सजन्हें कई सहकमी बेहिि िि के से हैंिल कििे हैं जबकक कई सहकमी अपनी खीज जादहि कि देिे हैं। हालांकक जॉब के दौिान भी इन सब हालािों से गुजिना होिा है। साक्षात्काि के दौिान कई मीडिया कसमनयों ने इस बाि की वकालि की कक इंटनन को एक तनसश्चि िासश द जानी चादहए।
  5. 6. साक्षात्काि के अवलोकन से इस बाि का पिा चलिा है कक इंटनन की भूसमका न्यूज चैनलों में बेहद महत्वपूणन है। इन्हें नकािा नह ं जा सकिा। यहां एसक्टव िहने पि सीखने का मौका है। इन्हें अवैितनक नह ं िखना चादहए। 120 100 80 60 40 20 0 आंकड़ों का विश्लेषण प्रश्न 1 का विश्लेषण प्रश्न 1:- क्या न्यूज चैनलों मेंइंटनथ को सीाने का मौका र्मलता है। हााँ नह ं आरेा क्रम.1:- के अनुसाि न्यूज चैनलों में इंटनन किने वालो को न्यूज चैनलों में काम सीखने का पूिा 100% मौका समलिा है। प्रश्न 2 का विश्लेषण 100 80 60 40 20 0 प्रश्न 2:- आउटपटु डेस्क पर काम सीाने के दौरान इंटन थ को परेशानी होती है। हााँ नह ं
  6. 7. आरेा क्रम.2:- के अनुसाि आउटपुट ि्ेक पि काम सीखने वाले 20 फीसद इंटनों ने माना कक उन्हें कोई पिेशानी नह ं होिी है जबकक 80 फीसद लोगों ने काम के दौिान पिेशानी की बाि को माना है। प्रश्न 3 का विश्लेषण 100 90 80 70 60 50 40 30 20 10 0 प्रश्न 1:- आउटपुट डस्ेक में काम करने िाले लोग सीाने में इंटनथ की मदद करते ह।। हााँ नह ं आरेा क्रमांक 3:- 90 फीसद इंटनों का मानना है कक आउटपुट ि्ेक पि काम किने वाले लोग उन्हें सीखने में मदि कििे है। जबकक 10 फीसद लोगों ने इसका जवाब ना में ददया है। प्रश्न 4 का विश्लेषण 60 50 40 30 20 10 0 प्रश्न 4:- क्या आउटपुट डस्ेक के लोगों का व्यिहार इंटनथ के प्रतत नकारात्मक रहता है। हााँ नह ं
  7. 8. आरेा क्रमांक 4:- आउटपुट में काम कि चुके 50 फीसद इंटनन ये मानिे हैं कक आउटपुट के कमनचारियों का उनके प्रति व्यवहाि नाकािात्मक होिा है। जबकक 50 फीसद इंटनों ने कमनचारियों के व्यवहाि को सह बिाया है। 100 90 80 70 60 50 40 30 20 10 0 प्रश्न 5 का विश्लेषण प्रश्न 5:- क्या इंटनथ को बड़ ेचैनलों में सीाने का ज्यादा मौका र्मलता है। हााँ नह ं आरेा क्रमांक 5:- बड़ ेचैनलों में काम ससखने का िफ्िाि थोड़ी धीमी है। मात्र 10 फीसद इंटननस ऐसा मानिे है कक बड़ ेचैनलों में काम ज्यादा ससखने को समलिा है। आंकड़ों से ये बाि जादहि होिा है कक छोटे चैनलों में इंटननस को ज्यादा ससखने को समलिा है। 90 फीसद इंटननस ऐसा मानिे हैं। 100 80 60 40 20 0 प्रश्न 6 का विश्लेषण प्रश्न 6:- क्या इंटनथ को छोटे चैनलों में सीाने का अधधक मौका र्मलता है। हााँ नह ं
  8. 9. आरेा क्रमांक 6:- 90 फीसद इंटनों का मानना है कक छोटे चैनलों में उन्हें ज्यादा ससखने का मौका समलिा है। जबकक 10 फीसद ये मानिे है कक उन्हें सीखने का मौका छोटे चैनलों में नह ं समलिा है। तनष्कषथ आकड़ों के आधार पर ये कहा जा सकता है कक छात्रों को इंटनथ के दौरान काम र्साने का र्रपूर मौका र्मलता है। सबसे अधधक िहीं छात्र सीा पाते ह। जो छोटे चैनलों में इंटनथ करते ह।। हालांकक एक नाकारात्म पक्ष ये है कक छोटे चैनलों के कमथचाररयों का इंटरथनों के प्रतत व्यिहार ाासा अ्छा नहीं रहता। संदर्थ ग्रंर् साक्षात्कार आउटपुट में कायथरत पत्रकारों से र्लया गया है। अलग-अलग न्यूज चैनलों में इंटनथ कर चुके विद्याधर्थयों की राय ली गई।

प्रसारण पत्रकारिता एक विश्लेषण

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टेलीविजन समाचार
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साउंड मिश्रण
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समाचार वाचन, एंकरिंग, चर्चा, वार्ता, लाइव चर्चा
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ध्वनि : सिद्धांत और संयोजन
माइक्रोफोन, स्टूडियो संरचना, रेकार्डिंग उपकरण, डिजिटल रिकार्डिंग और संपादन

टीवी न्यूजचैनलोो का आत्मसंघर्ष

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प्रस्तुति- हंस राज पाटिस सुमन                
                         

    
       


भारत में टेलीविजन पत्रकारिता अपनी चरम सीमा पर है। टेलीविजन ने कुछ ही दशकों में पत्रकारिता को एक नई दिशा दी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में रेडियो की हमेशा से ही एक सशक्त पहचान रही है और वर्तमान में न्यू मीडिया नए आयाम गढ़ रहा है, इसी के बीच टेलीविजन पत्रकारिता लगातार खुद को सशक्त करती नजर आती है। टीवी समाचार की बात करें तो हमारे देश में हिंदी समाचार चैनलों की अपनी एक अलग पहचान है। इसके श्रोता अपेक्षाकृत अंग्रेजी न्यूज चैनलों से अधिक हैं। टीवी में समाचार प्रसारण के कई पहलू हैं।
टेलीविजन समाचार प्रसारण में दूरदर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका की चर्चा की गई। पहली बार दूरदर्शन प्रसारण के लंबे अतंराल के बाद नियमित समाचार प्रसारण की शुरूआत 1965 से हुई थी जिसमें हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाएं भी शामिल थीं। 2003 में दूरदर्शन 24 घंटे के समाचार चैनल के रूप में स्थापित किया गया। चौबीस घंटे समाचार बुलेटिनों के प्रसारण के अलावा व्यवसाय, खेल-कूद, स्वास्थ्य, कला और संस्कृति से संबंधित अनेक कार्यक्रमों का नियमित रूप से प्रसारण किया जाता है ।
आज टेलीविजन या समाचार पत्र कहा जाता है। ज्ञान और सूचना के स्त्रोत को दृष्टिगत रखते हुए समाचार पत्र का मुख्य कार्य पाठक को जानकारी देना तथा उसका मनोरंजन करना बताया जाता है। समाचार पत्र के लिए मनोरंजन शब्द बड़ा व्यापक है। पाठक किसी लिंग, आयु, श्रेणी, व्यवसाय अथवा रूची वर्ग का हो सकता है। वैसे भी टेलीविजन में सभी के लिए रूचिकर सामग्री हो-यही मनोरंजन शब्द से अभिप्रत है। साहित्य की विभिन्न विधाओं, उपन्यास-कथा, कविता, संस्करण, जीवनी आदि-बाल जगत, महिला जगत, युवा जगत, वृद्धावस्था, विज्ञान, फिल्म, दूरदर्शन, रंगमंच, संगीत, नृत्य व अन्य कलाओं से जुड़ी समूची पठन सामग्री मनोरंजन का ही अंग कहा जा सकता है। समाचार यानि न्यूज की चर्चा के चलते जानकारी तथा सूचना देने के पक्ष तक ही सीमित रहते हुए यही कहा जा सकता है कि इस पक्ष के भी दो अंग है। एक शुद्ध समाचार तथा दूसरा समाचार के हमारे समाज, देश व समूची मानवता पर पड़े या पड़ सकने वाले प्रभाव का आकलन, विवेचन तथा उस विषय में जनमत तैयार करने का प्रयास है।
बदलती दुनिया, बदलते सामाजिक परिदृश्य, बदलते बाजार, बाजार के आधार पर बदलते शैक्षिक-सांस्कृतिक परिवेश और सूचनाओं के अम्बार ने समाचारों को कई कई प्रकार दे डाले हैं। कभी उंगलियों पर गिन लिये जाने वाले समाचार के प्रकारों को अब पूरी तरह गिना पाना संभव नहीं है। एक बहुत बड़ा सच यह है कि इस समय सूचनाओं का एक बहुत बड़ा बाजार विकसित हो चुका है। इस नये नवेले बाजार में समाचार उत्पाद का रूप लेते जा रहे हैं। समाचार पत्र हों या चैनल, हर ओर समाचारों को ब्रांडेड उत्पाद बनाकर परोसने की कवायद शुरू हो चुकी है। खास और एक्सक्लूसिव बताकर समाचार को पाठकों या दर्शकों तक पहुंचाने की होड़ ठीक उसी तरह है, जिस तरह किसी कम्पनी द्वारा अपने उत्पाद को अधिक से अधिक उपभोक्ताओं तक पहुंचाना।
समाचार के परम्परागत स्त्रोतों में आज भी रेडियो व टीवी का प्रमुख स्थान बना हुआ है। बहुत पहले से रेडियो का इस्तेमाल स्त्रोत के रूप में होता आया है। रेडियो से मिले एक या दो पंक्तियों के समाचार पाकर उसे विस्तृत रूप से प्राप्त कर समाचार पत्र में प्रस्तुत कर देने की कवायद बहुत दिनों से होती आई है।
खबरिया चैनल भी समाचार पत्रों के लिये स्त्रोत का कार्य करते हैं। कभी कभी तो दूर-दराज के समाचारों को टीवी से प्राप्त करके उसे स्थानीयता से जोड़ा जाता है। छोटे समाचार पत्र टीवी के समाचारों और फोटो को प्राप्त करके ही खुद के पृष्ठ भरा करते हैं। वास्तव में जहां समाचार पत्र के संवाददाता नहीं हैं, वहां का टीवी ही सबसे बड़ा स्त्रोत तो है ही, वहां भी महत्वपूर्ण है जहां संवाददाताओं की फौज है। ऐसा इसलिये कि कभी कभी समाचार टीवी से ही पता चलते हैं और तब समाचार पत्रों के संवाददाता घटना स्थल पर पहुंचते हैं या फिर येन केन प्रकारेण उस समाचार का विस्तृत रूप प्राप्त करते हैं। सच यह भी है कि कभी कभी समाचार पत्रों से मिली खबर पर टीवी संवाददाता सक्रिय होते हैं और सजीव विजुअल्स की सहायता से उसे प्रस्तुत करते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मी़डिया एक दूसरे के पूरक हैं।
समाचार संकलन
समाचारों का मार्केट तैयार करने की बात बड़ी तेजी से सामने आ रही है। कुछ नया करके आगे निकल जाने की होड़ में लगभग सभी समाचार पत्र और चैनल शामिल हैं। यही वजह है कि बीसवीं सदी के अंतिम दशक से समाचारों के प्रकारों की फेहरिस्त लगातार बढती नजर आ रही है। इंटरनेट के प्रयोग ने इस फेहरिस्त को लम्बा करने और सम्यक व अद्यतन जानकारियों से लैस करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सच तो यह है कि इंटरनेट ने भारत के समाचार पत्रों को विश्व स्तर के समाचार पत्रों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। सर्वाधिक गुणात्मक सुधार व विकास हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में देखने को मिला है।
समाचार के कई प्रकार हैं। घटना के महत्व, अपेक्षितता, अनपेक्षितता, विषय क्षेत्र, समाचार का महत्व, संपादन हेतु प्राप्त समाचार, प्रकाशन स्थान, समाचार प्रस्तुत करने का ढंग आदि कई आधारों पर समाचारों का विभाजन, महत्ता व गौणता का अंकन किया जाता है। तथा उसके आधार पर समाचारों का प्रकाशन कर उसे पूर्ण, महत्वपूर्ण व सामयिक बनाया जा सकता है।
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हुए सूचना विस्फोट ने समाचार स्त्रोतों का जखीरा ला खड़ा किया है। पुराने प्रचलित स्त्रोतों पर से निर्भरता हटती चली गयी और इंटरनेट के माध्यम से वह सब कुछ कम्प्यूटर स्क्रीन पर प्रस्तुत होने लगा, जिसके लिये संवाददाताओं को लम्बे समय तक चलने वाली कवायद करनी पड़ती थी। इंटरनेट के आगमन के पूर्व समाचार पत्रों के लिये समाचार प्राप्ति के निम्नलिखित ३ स्त्रोत होते थे -
१. ज्ञात स्त्रोत
समाचार प्राप्ति के वे स्त्रोत जिनकी आशा, अपेक्षा, अनुमान पहले से होता है समाचार प्राप्ति के ज्ञात स्त्रोत कहलाते हैं।
पुलिस स्टेशन, ग्राम पालिका, नगर पालिका, अस्पताल, न्यायालय, मंत्रालय, श्मशान, विविध समितियों की बैठकें, सार्वजनिक वक्तव्य, पत्रकार सम्मेलन, सरकारी-गैर सरकारी संस्थाओं के सम्मेलन, सभा-स्थल पर कार्यक्रम आदि समाचार के ज्ञात स्त्रोत हैं।
२. अज्ञात स्त्रोत
समाचारों के वे स्त्रोत जिनकी आशा व अपेक्षा नहीं होती और जहां से समाचार आकस्मिक रूप से प्राप्त होते हैं समाचार प्राप्ति के अज्ञात स्त्रोत कहलाते हैं।
संवाददाता द्वारा सामाजिक चेतना, तर्कशक्ति, ज्ञान, अनुभव और दूरदृष्टि के बल पर एकत्रित किये जाने वाले असंगत, अप्रतीक्षित, आकस्मिक घटनाओं आदि से सम्बंधित समाचार, समाचार प्राप्ति के अज्ञात स्त्रोत हैं।
३. पूर्वानुमानित स्त्रोत
समाचार प्राप्ति के वे स्त्रोत जिनके सम्बंध में पहले से अनुमान लगाया गया हो समाचार के पूर्वानुमानित स्त्रोत कहलाते हैं।
गंदी बस्तियों में फैलने वाली बीमारियों, महामारियों, शिक्षा संस्थानों में होने वाली घपलेबाजियों, कल-कारखानों में मजदूरों द्वारा अपनी मांगों को लेकर होने वाली हड़तालों, तालेबंदियों, निकट भविष्य में होने वाली मूसलाधार बरसातों में धाराशायी होने वाली बहुमंजिली जीर्ण-शीर्ण इमारतों, फसलों व मौसम से सम्बंधित समाचार पूर्वानुमानित होते हैं।
इक्कीसवीं सदी में दिख रहा है सब कुछ संस्कृति के विकसित होने और आम आदमी के बीच साक्षरता बढने के साथ बढी जानने के अधिकार के प्रति जागरुकता ने न केवल संवाददाताओं के मानसिक बोझ को हल्का कर दिया बल्कि वह सब कुछ आसानी से उपलब्ध कराना शुरू कर दिया, जिसके लिये खोजी पत्रकारिता का सहारा लेना शुरू कर दिया गया था।
यह अनायास हुआ नहीं कहा जाएगा कि भ्रष्टाचार के वे मामले भी चुटकियों में प्रकाश में आने लगे, जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर अदने से अधिकारी भी लिप्त होते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री को कटघरे में ला खड़ा करने और घोटाले का पर्दाफाश होने पर कई मंत्रियों को त्यागपत्र देने की खबरें अब आम हो चुकी हैं। इलेक्ट्रानिक चैनलों के छिपे कैमरे ने वह सब कुछ दिखाना शुरू कर दिया है, जिसकी शिकायत को हवा में उड़ा देने की तरकीवों में लोग माहिर हो चुके थे। ऐसी खबरों का प्रकाशन होने लगा है, जिन्हें कभी राष्ट्रहित में प्रकाशित न करने की दुहाई देकर संवाददाताओं को लाचार कर दिया जाता था। तहलका द्वारा किया गया सेना में भ्रष्टाचारके मामलों का उजागर होना इसी का उदाहरण है।
यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इक्कीसवीं सदी में सूचना क्रांति की धमक के साथ प्रवेश करने वाला पाठक या दर्शक इतना अधिक जिज्ञासु हो चुका है कि समय बीतने से पहले वह सब कुछ जान लेना चाहता है, जो उससे जुड़ा है और उसकी रुचि के अनुरूप है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि समाचारों के परम्परागत स्त्रोतों और नये उभरते स्त्रोतों के बीच सार्थक समन्वय स्थापित करके वह सब कुछ समाचार के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाए, जो डिमांड में है। यहां कुछ समाचार स्त्रोतों की चर्चा की जा रही है।
स्थानीय समाचार
गांव या कस्बे, जहां से समाचार पत्र का प्रकाशन होता हो, विद्यालय या अस्पताल की इमारत का निर्माण, स्थानीय दंगे, दो गुटों में संघर्ष जैसे स्थानीय समाचार, जो कि स्थानीय महत्व और क्षेत्रीय समाचार पत्रों की लोकप्रियता को बढाने में सहायक होने के कारण स्थानीय समाचार पत्रों में विशेष स्थान पाते हों, स्थानीय समाचार कहलाते हैं। समाचार यदि लोगों से सीधे जुड़े होते हैं तो उसकी प्रसार व प्रचार की स्थिति बहुत अधिक मजबूत हो जाती है। इधर कई समाचार पत्रों ने अपने स्थानीय संस्करण प्रकाशित करने शुरू कर दिये हैं। ऐसे में दो से सात पृष्ठ स्थानीय समाचारों से भरे जा रहे हैं। यह कवायद स्थानीय बाजार में अपनी पैठ बनाने की भी है, ताकि स्थानीय छोटे छोटे विज्ञापन भी आसानी से प्राप्त किये जा सकें। स्थानीय समाचार में जन सहभागिता भी सुनिश्चित की जाती है, ताकि समाचार पत्र को लेग अपनी ही आवाज का प्रतिरूप मान सकें। कई समाचार पत्रों ने अपने स्थानीय कार्यालय या ब्यूरो स्थापित कर दिये हैं और वहां संवाददाताओं की कई स्तरों वाली फौज भी तैनात कर रखी है।
समाचार चैनलों में भी स्थानीयता को महत्व दिया जाने लगा है। कई समाचार चैनल समाचार पत्रों की ही तरह अपने समाचारों को स्थानीय स्तर पर तैयार करके प्रसारित कर रहे हैं। वे छोटे छोटे आयोजन या घटनाक्रम, जो समाचारों के राष्ट्रीय चैनल पर बमुश्किल स्थान पाते थे, अब सरलता से टीवी स्क्रीन पर प्रसारित होते दिख जाते हैं। कुछ शहरों में स्थानीय केबल समाचार चैनल भी शुरु हो गये हैं, और बहुत लोकप्रिय सिद्ध हो रहे हैं। यह कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में स्थानीय स्तर पर समाचार चैनल संचालित करने की होड़ मचने वाली है।
प्रादेशिक या क्षेत्रीय समाचार
जैसे जैसे समाचार पत्र व चैनलों का दायरा बढता जा रहा है, वैसे वैसे प्रादेशिक व क्षेत्रीय समाचारों का महत्व भी बढ रहा है। एक समय था कि समाचार पत्रों के राष्ट्रीय संस्करण ही प्रकाशित हुआ करते थे। धीरे धीरे प्रांतीय संस्करण निकलने लगे और अब क्षेत्रीय व स्थानीय संस्करण निकाले जा रहे हैं।
किसी प्रदेश के समाचार पत्रों पर ध्यान दें तो उसके मुख्य पृष्ठ पर प्रांतीय समाचारों की अधिकता रहती है। प्रांतीय समाचारों के लिये प्रदेश शीर्षक से पृष्ठ भी प्रकाशित किये जाते हैं। इसी तरह से पश्चिमांचल, पूर्वांचल या फिर बुंदेलभूमि शीर्षक से पृष्ठ तैयार करके क्षेत्रीय समाचारों को प्रकाशित किया जाने लगा है। प्रदेश व क्षेत्रीय स्तर के ऐसे समाचारों को प्रमुखता से प्रकाशित करना आवश्यक होता है, जो उस प्रदेश व क्षेत्र की अधिसंख्य जनता को प्रभावित करते हों। कुछ समाचार चैनलों ने भी क्षेत्रीय व प्रादेशिक समाचारों को अलग से प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है।
राष्ट्रीय समाचार
देश में हो रहे आम चुनाव, रेल या विमान दुर्घटना, प्राकृतिक आपदा बाढ, अकाल, महामारी, भूकम्प आदि रेल बजट, वित्तीय बजट से सम्बंधित समाचार, जिनका प्रभाव अखिल देशीय हो, राष्ट्रीय समाचार कहलाते हैं। राष्ट्रीय समाचार स्थानीय और प्रांतीय समाचार पत्रों में भी विशेष स्थान पाते हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर घट रही हर घटना दुर्घटना समाचार पत्रों व चैनलों पर महत्वपूर्ण स्थान पाती है। देश के दूर-दराज इलाके में रहने वाला सामान्य सा आदमी भी यह जानना चाहता है कि राष्ट्रीय राजनीति कौन सी करवट ले रही है, केन्द्र सरकार का कौन सा फैसला उसके जीवन को प्रभावित करने जा रहा है, देश के किसी भी कोने में घटने वाली हर वह घटना जो उसके जैसे करोड़ों को हिलाकर रख देगी या उसके जैसे करोड़ों लोगों की जानकारी में आना जरूरी है।
सच यह है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रचार प्रसार ने लोगों को समाचारों के प्रति अत्यधिक जागरुक बनाया है। पल प्रति पल घटने वाली हर बात को जानने की ललक ने कुछ औरकुछ और प्रस्तुत करने की होड़ को बढावा दिया है। सच यह भी है कि लोगों में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करने की ललक ने समाचार पत्रों की संख्या में तेजी से वृद्धि की है। एक तरफ इलेक्ट्रानिक मी़डिया से मिली छोटी सी खबर को विस्तार से पढाने की होड़ में शामिल समाचार पत्रों का रंग रूप बदलता गया, वहीं समाचार चैनलों की शुरूआत करके इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अपने दर्शकों को खिसकर जाने से रोकने की कवायद शुरू कर दी। हाल यह है कि किसी भी राष्ट्रीय महत्व की घटना-दुर्घटना या फिर समाचार बनने लायक बात को कोई भी छोड़ देने को तैयार नहीं है, न इलेक्ट्रानिक मीडिया और न ही प्रिंट मीडिया। यही वजह है कि समाचार चैनल जहां राष्ट्रीय समाचारों को अलग से प्रस्तुत करने की कवायद में शामिल हो चुके हैं, वहीं बहुतेरे समाचार पत्र मुख्य व अंतिम कवर पृष्ठ के अतिरिक्त राष्ट्रीय समाचारों के दो-तीन पृष्ठ अलग से प्रकाशित कर रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीय समाचार
ग्लोबल गांव की कल्पना को साकार कर देने वाली सूचना क्रांति के बाद के इस समय में अंतर्राष्ट्रीय समाचारों को प्रकाशित या प्रसारित करना जरूरी हो गया है। साधारण सा साधारण पाठक या दर्शक भी यह जानना चाहता है कि अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव का परिणाम क्या रहा या फिर हालीवुड में इस माह कौन सी फिल्म रिलीज होने जा रही है या फिर आतंकवादी सरगना बिन लादेन कहां छिपा हुआ है। विश्व भर के रोचक रोमांचक को जानने के लिये अब हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के पाठकों और दर्शकों में ललक बढी है। यही कारण है कि यदि समाचार चैनल दुनिया एक नजर में या फिर अंतर्राष्ट्रीय समाचार प्रसारित कर रहे हैं तो हिन्दी के प्रमुख अखबारों ने अराउण्ड द वर्ल्ड, देश विदेश, दुनिया आदि के शीर्षक से पूरा पृष्ठ देना शुरू कर दिया है। समाचार पत्रों व चैनलों के प्रमुख समाचारों की फेहरिस्त में कोई न कोई महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समाचार रहता ही है।
कई चैनलों व समाचार पत्रों ने विश्व के कई प्रमुख शहरों में, खासकर राजधानियों में, अपने संवाददाताओं को नियुक्त कर रखा है। समाचार पत्रों के विदेशी समाचार वाले पृष्ठ को छायाचित्रों सहित इंटरनेट से तैयार किया जाता है। बहुतेरे समाचार विदेशी समाचार एजेंसियों से प्राप्त किये जाते हैं। कई फ्री-लांसिंग करने वाले यानी स्वतंत्र पत्रकारों व छायाकारों ने अपनी व्यक्तिगत वेबसाइट बना रखी है, जो लगातार अद्यतन समाचार व छायाचित्र उपलब्ध कराते रहते हैं। इंटरनेट पर तैरती ये वेबसाइटें कई मायनों में अति महत्वपूर्ण होती है। सच यह है कि जैसे जैसे देश में साक्षरता बढ रही है, वैसे वैसे अधिक से अधिक लोगों में विश्व भर को अपनी जानकारी के दायरे में लाने की होड़ मच गई है। यही वजह है कि समाचार से जुड़ा व्यवसाय अब अंतर्राष्ट्रीय समाचारों को अधिक से अधिक आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करने की होड़ मंस शामिल हो गया है।
संवाददाता
किसी भी समाचार पत्र या चैनल के लिये सबसे महत्वपूर्ण व कारगर समाचार स्त्रोत उसका संवाददाता होता है। स्वयं द्वारा नियुक्त संवाददाताओं द्वारा संग्रहित जानकारियों पर समाचार पत्र या चैनल को अधिक विश्वास होता है। इसलिये किसी कवरेज पर गये संवाददाता की रिपोर्ट को प्राथमिकता दी जाती है और उस कवरेज से जुड़ी जारी होने वाली विज्ञप्ति को नकार दिया जाता है।
कई बड़े समाचार पत्रों और चैनलों में संवाददाताओं की वैविध्यपूर्ण लम्बी चौड़ी फौज होती है। समाचारों की विविधता के हिसाब के ही संवाददाताओं को नियुक्त किया जाता है। राजनीतिक दलों के लिये अलग अलग संवाददाताओं का होना, शिक्षा-संस्कृति, साहित्य, खेल, अर्थ, विज्ञान, फैशन, न्यायालय, सरकारी कार्यालयों, पुलिस और अपराध आदि विषयों व विभागों की खबरों के लिये अलग-अलग संवाददाताओं का होना अब अपरिहार्य सा हो गया है। एक ओर जहां भूमण्डलीकरण और नई बाजार व्यवस्था में स्वयं को फिट करने के लिये प्रमुख देशों के प्रमुख नगरों में संवाददाता रखे जा रहे हैं, वहीं निरंतर बढ रही साक्षरता के चलते समाचारों के बाजार में अपना कब्जा बनाने के लिये छोटे छोटे गांवों और पिछड़े बाजारों में भी संवाददाता नियुक्त किये जा रहे हैं।
ऐसे में संवाददाताओं की यह जिम्मेदारी हो गयी है कि वे स्वयं को सौंपे गये स्त्रोतों यानी राजीनीतिक दल, स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय, तकनीकी संस्थान, अस्पताल, सरकारी कार्यालयों, न्यायालय, बाजार, पुलिस आदि को खंगालते रहें और लागातार समाचारों को विविधता के साथ प्रस्तुत करते रहें। एक अच्छे अखबार व चैनल में अस्सी प्रतिशत समाचार उसके अपने संवाददाताओं द्वारा खोजे गये, तैयार किये गये और प्रस्तुत किये गये होते हैं।
न्यूज एजेंसी
संवाददाताओं के बाद सबसे अधिक प्रयोग में आने वाला समाचार स्त्रोत न्यूज एजेंसियां हैं। देश विदेश की कई महत्वपूर्ण घटनाओं के लिये समाचार पत्र व चैनलों को इन्हीं पर निर्भर रहना पड़ता है। छोटे और कुछ मझोले समाचार पत्र तो पूरी तरह इन्हीं पर निर्भर होते हैं। देश के दूरदराज इलाकों व विदेशों के विश्वसनीय समाचार प्राप्त करने का यह सस्ता व सुलभ साधन है।
अपने देश में प्रमुख रूप से चार राष्ट्रीय न्यूज एजेंसियां काम कर रही हैं। ये हैं यूनाइटेड न्यूज आफ इंडिया (यूएनआई), प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया (पीटीआई), यूनीवार्ता और भाषा। यूएनआई और पीटीआई अंग्रेजी की न्यूज एजेंसी हैं, जबकि यूनीवार्ता व भाषा इन्हीं की हिन्दी समाचार सेवाएं हैं। इनके अतिरिक्त कई अन्य समाचार, विचार और फीचर एजेंसियां हैं, जिनका उपयोग मुख्य रूप से समाचार पत्रों द्वारा किया जा रहा है। बढती प्रतिद्वंदिता के चलते अब विदेशों के समाचारों के लिये विभिन्न विदेशी भाषाओं की न्यूज व फोटो एजेंसियों का भी सहारा लिया जा रहा है।
इंटरनेट
बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में कम्प्यूटर के प्रयोग और नये नये साफ्टवेयरों के कमाल ने समाचार पत्रों को ही नहीं, बल्कि समाचार पत्रों के दफ्तरों तथा समाचार को एकत्र करने वालों, सम्पादन करने वालों और उन्हें सजा-संवारकर कर प्रस्तुत करने वालों व उनकी सोच को भी बदल डाला। दूसरी ओर पाठकों की अपनी अभिरुचि व उनकी अपनी सोच में भी बहुत बड़ा बदलाव आया है। इसके चलते समाचार पत्र निरंतर बदलते रहने पर मजबूर हुए हैं। इस बदलाव को गति देने का कार्य किया है इंटरनेट ने, जिसने समाचारों को न केवल अद्यतन बनाने में सहयोग किया है,बल्कि देश विदेश के ताजातरीन समाचारों को सहजता से उपलब्ध कराने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
सच कहा जाये तो इंटरनेट और इंट्रानेट ने समाचार पत्रों व उनके कार्यालयों की शक्ल ही बदलकर रख दी है। एक ही यूनिट से कई कई ताजा संस्करण निकलना और वह भी रंगीन पृष्ठों के साथ, बहुत ही आसान हो गया है। बहुतेरे समाचारों के इंटरनेट संस्करण भी निकाले जा रहे हैं। वेब दुनिया में विचरते इन समाचार पत्रों के संस्करणों ने न केवल दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है, बल्कि पूरी दुनिया को सोलह से बीस पृष्ठों वाले समाचार पत्र में प्रस्तुत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।
जहां तक इंटरनेट के समाचार स्त्रोत के रूप में प्रयोग होने की बात है, तो यहां कहा ही जा सकता है कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के प्रारम्भ में ही कई समाचार पत्रों ने इंटरनेट के भरोसे ही देशविदेश का पूरा पृष्ठ ही देना शुरू कर दिया था। सबसे बड़ी बात यह कि जिन विजुअल्स के लिये समाचार पत्र व पाठक तरसते रहते थे, वे सब अब बहुत ही आसानी से उपलब्ध होने लगे हैं। इंटरनेट ने विदेशी समाचारों व फोटो के लिये अब एजेंसियों पर निर्भरता लगभग समाप्त कर दी है। देश विदेश के कई स्वतंत्र पत्रकार व फोटोग्राफर अपने द्वारा तैयार समाचारों और फोटों को एजेंसियों की अपेक्षा इंटरनेट के माध्यम से अधिक त्वरित गति से उपलब्ध करा रहे हैं। आज जिस संवाददाता व फोटोग्राफर की अपनी वेबसाइट नहीं है, उसे बहुत पिछड़ा हुआ माना जा रहा है। यही वजह है कि अब पत्रकारों के लिये कम्प्यूटर साक्षरता के साथ-साथ नेटवर्क साक्षरता अनिवार्य होती जा रही है।
विज्ञप्तियां
समाचारों का बहुत बड़ा स्त्रोत विज्ञप्तियां ही होती हैं। बहुत बार ऐसा होता है कि समाचार पत्र के पृष्ठों को भरने के लिये ताजा समाचार उपलब्ध ही नहीं होते, ऐसे में कार्यालय में पहुंची विज्ञप्तियां यानी प्रेस नोट ही वरदान साबित होती हैं। प्राय: विज्ञप्तियां दो प्रकार की होती हैं सामान्य और सरकारी विज्ञप्तियां।
सामान्य विज्ञप्तियां किसी शैक्षिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, खेल, आर्थिक, तकनीकी आदि के संस्थान, स्वयंसेवी संगठन, क्लब और संस्थाओं, राजनीतिक दल, श्रमिक-कर्मचारी संगठन, सामान्य जन आदि से भेजी जाती हैं। समाचार पत्रों में उपलब्ध स्थान का बहुत बड़ा हिस्सा इन्ही विज्ञप्तियों से भरा जाता है। समाचार पत्रों के कार्यालय में बहुत से ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो अथ विज्ञप्ति दाता तेरी जय हो कथन के ही पोषक होते हैं।
सरकारी विज्ञप्तियां विभिन्न सरकारी कार्यालयों द्वारा या तो सीधे या फिर सूचना कार्यालय के माध्यम से कार्यालयों में पहुंचायी जाती हैं। केन्द्र व प्रदेश सरकार के मंत्रियों के कार्यक्रमों व उनके वक्तव्यों से जुड़े समाचारों की विज्ञप्तियां सूचना विभाग के माध्यम से ही प्राप्त होती है। समाचार पत्रों में एक चलन सा है कि सरकारी संस्थानों या अर्धसरकारी उपक्रमों द्वारा सीधे या फिर सूचना विभाग द्वारा जारी विज्ञप्तियों को जस का तस छाप दिया जाता है।
होना यह चाहिए कि विज्ञप्तियों से अपने समाचार पत्र की भाषा, शैली व प्रस्तुतिकरण के आधार पर समाचार तैयार किये जाएं। यह मानकर चलना चाहिए कि अच्छे पाठक हमेशा संवाददाताओं द्वारा लिखे व प्रस्तुत किये गये समाचारों को ही पढना चाहते हैं। विज्ञप्तियों को सिरे से खारिज कर देने की प्रवृत्ति बहुतों में देखने को मिलती है। कई संवाददाता विज्ञप्तियों की एक लाइन पकड़कर पूरा का पूरा एक्सक्लूसिव समाचार तैयार कर लेने में कामयाब हो जाते हैं और उन्हें बाइलाइन यानी समाचार पर नाम भी मिल जाता है। कुशल संवाददाता विज्ञप्तियों को सतर्क होकर पढता है और न केवल रुचिकर समाचार बनाता है, बल्कि इनसेट और बाक्स भी तलाश लेता है।

न्यू मीडिया उर्फ जन जन की पत्रकारिता

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न्यू मीडिया क्या है?


मनुष्यमात्र की भाषायी अथवा कलात्मक अभिव्यक्ति को एक से अधिकव्यक्तियों तथा स्थानों तक पहुँचाने की व्यवस्था को ही मीडिया का नाम दियागया है। पिछली कई सदियों से प्रिंट मीडिया इस संदर्भ में अपनी महत्त्वपूर्णभूमिका निभाती आ रही है, जहाँ हमारी लिखित अभिव्यक्ति पहले तो पाठ्य रूपमें प्रसारित होती रही तथा बाद में छायाचित्रों का समावेश संभव होने परदृश्य अभिव्यक्ति भी प्रिंट मीडिया के द्वारा संभव हो सकी। यह मीडियाबहुरंगी कलेवर में और भी प्रभावी हुई। बाद में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भीसाथ-साथ अपनी जगह बनाई, जहाँ पहले तो श्रव्य अभिव्यक्ति को रेडियो केमाध्यम से प्रसारित करना संभव हुआ तथा बाद में टेलीविजन के माध्यम सेश्रव्य-दृश्य दोनों ही अभिव्यक्तियों का प्रसारण संभव हो सका। प्रिंटमीडिया की अपेक्षा यहाँ की दृश्य अभिव्यक्ति अधिक प्रभावी हुई, क्योंकियहाँ चलायमान दृश्य अभिव्यक्ति भी संभव हुई। बीसवीं सदी में कंप्यूटर केविकास के साथ-साथ एक नए माध्यम ने जन्म लिया, जो डिजिटल है। प्रारंभ मेंडाटा के सुविधाजनक आदान-प्रदान के लिए शुरू की गई कंप्यूटर आधारित सीमितइंटरनेट सेवा ने आज विश्वव्यापी रूप अख्तियार कर लिया है। इंटरनेट केप्रचार-प्रसार और निरंतर तकनीकी विकास ने एक ऐसी वेब मीडिया को जन्म दिया, जहाँ अभिव्यक्ति के पाठ्य, दृश्य, श्रव्य एवं दृश्य-श्रव्य सभी रूपों का एकसाथ क्षणमात्र में प्रसारण संभव हुआ।
यह वेब मीडिया ही न्यू मीडियाहै, जो एक कंपोजिट मीडिया है, जहाँ संपूर्णऔर तत्काल अभिव्यक्ति संभव है, जहाँ एक शीर्षक अथवा विषय पर उपलब्ध सभीअभिव्यक्यिों की एक साथ जानकारी प्राप्त करना संभव है, जहाँ किसीअभिव्यक्ति पर तत्काल प्रतिक्रिया देना ही संभव नहीं, बल्कि उस अभिव्यक्तिको उस पर प्राप्त सभी प्रतिक्रियाओं के साथ एक जगह साथ-साथ देख पाना भीसंभव है। इतना ही नहीं, यह मीडिया लोकतंत्र में नागरिकों के वोट के अधिकारके समान ही हरेक व्यक्ति की भागीदारी के लिए हर क्षण उपलब्ध और खुली हुईहै।
न्यू मीडियापर अपनी अभिव्यक्ति के प्रकाशन-प्रसारण के अनेक रूप हैं। कोईअपनी स्वतंत्र वेबसाइटनिर्मित कर वेब मीडिया पर अपना एक निश्चित पताआौर स्थान निर्धारित कर अपनी अभिव्यक्तियों को प्रकाशित-प्रसारित कर सकताहै। अन्यथा बहुत-सी ऐसी वेबसाइटें उपलब्ध हैं, जहाँ कोई भी अपने लिए पता औरस्थान आरक्षित कर सकता है। अपने निर्धारित पते के माध्यम से कोई भी इनवेबसाइटों पर अपने लिए उपलब्ध स्थान का उपयोग करते हुए अपनी सूचनात्मक, रचनात्मक, कलात्मक अभिव्यक्ति के पाठ्य अथवा ऑडियो/वीडियो डिजिटल रूप कोअपलोड कर सकता है, जो तत्क्षण दुनिया में कहीं भी देखे-सुने जाने के लिएउपलब्ध हो जाती है।
बहुत-सी वेबसाइटें संवाद के लिए समूह-निर्माण की सुविधा देती हैं, जहाँसमान विचारों अथवा उद्देश्यों वाले लोग एक-दूसरे से जुड़कर संवाद कायम करसकें। वेबग्रुपकी इस अवधारणा से कई कदम आगे बढ़कर फेसबुक और ट्विटर जैसीऐसी वेबसाइटें भी मौजूद हैं, जो प्रायः पूरी तरह समूह-संवाद केन्द्रितहैं। इनसे जुड़कर कोई भी अपनी मित्रता का दायरा दुनिया के किसी भी कोने तकबढ़ा सकता है और मित्रों के बीच जीवंत, विचारोत्तेजक, जरूरी विचार-विमर्शको अंजाम दे सकता है। इसे सोशल नेटवर्किंग का नाम दिया गया है।
न्यू मीडियासे जो एक अन्य सर्वाधिक लोकप्रिय उपक्रम जुड़ा है, वह हैब्लॉगिंगका। कई वेबसाइटें ऐसी हैं, जहाँ कोई भी अपना पता और स्थानआरक्षित कर अपनी रुचि और अभिव्यक्ति के अनुरूप अपनी एक मिनी वेबसाइट कानिर्माण बिना किसी शुल्क के कर सकता है। प्रारंभ में वेब लॉगके नाम सेजाना जानेवाला यह उपक्रम अब ब्लॉगके नाम से सुपरिचित है। अभिव्यक्ति केअनुसार ही ब्लॉग पाठ्य ब्लॉग, फोटो ब्लॉग, वीडियो ब्लॉग (वोडकास्ट), म्यूजिक ब्लॉग, रेडियो ब्लॉग (पोडकास्ट), कार्टून ब्लॉग आदि किसी भी तरह केहो सकते हैं। यहाँ आप नियमित रूप से उपस्थित होकर अपनी अभिव्यक्ति अपलोडकर सकते हैं और उस पर प्राप्त प्रतिक्रियाओं को इंटरैक्ट कर सकते हैं।ब्लॉगनिजी और सामूहिक दोनों तरह के हो सकते हैं। यहाँ अपनी मौलिकअभिव्यक्ति के अलावा दूसरों की अभिव्यक्तियों को भी एक-दूसरे के साथ शेयरकरने के लिए रखा जा सकता है।
बहुत से लोग ब्लॉगको एक डायरी के रूप में देखते हैं, जो नियमित रूप सेवेब पर लिखी जा रही है, एक ऐसी डायरी, जो लिखे जाने के साथ ही सार्वजनिक भीहै, सबके लिए उपलब्ध है, सबकी प्रतिक्रिया के लिए भी। एक नजरिये सेब्लॉगनियमित रूप से लिखी जानेवाली चिट्ठी है, जो हरेक वेबपाठक कोसंबोधित है, पढ़े जाने के लिए, देखे-सुने जाने के लिए और उचित हो तो समुचितप्रत्युत्तर के लिए भी।
वास्तव में न्यू मीडियामीडिया के क्षेत्र में एक नई चीज है। यह चीज यूंतो अब बहुत नई नहीं रह गई है लेकिन यह क्षेत्र पूर्णतः तकनीक पर आधारितहोने के कारण इस क्षेत्र में प्रतिदिन कुछ ना कुछ नया जुड़ता ही जा रहा है।शुरुआत में जब टेलीविजन और रेडियो नए-नए आए थे तब इनको न्यू मीडिया कहाजाता था। बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब पत्रकारिता के विद्यार्थी न्यूमीडिया के रूप में टेलीविजन और रेडियो को पढ़ा और लिखा करते थे, तकनीक मेंधीरे-धीरे उन्नति हुई और न्यू मीडिया का स्वरूप भी बदलता चला गया और आज हमन्यू मीडिया के रूप में वह सभी चीजें देखते हैं जो कि डिजिटल रूप में हमारेआस-पास मौजूद हैं। न्यू मीडिया को समझाने की बहुत से लोगों ने अपने-अपनेतरीके से कोशिश की है। न्यू मीडिया के क्षेत्र में जाने पहचाने नाम हैंप्रभासाक्षी डॉट कॉम के बालेन्दु शर्मा दाधीच। वे कहते हैं कि-
यूं तो दो-ढाई दशक की जीवनयात्रा के बाद शायद न्यू मीडियाका नाम न्यूमीडियानहीं रह जाना चाहिए क्योंकि वह सुपरिचित, सुप्रचलित और परिपक्वसेक्टर का रूप ले चुका है। लेकिन शायद वह हमेशा न्यू मीडियाही बना रहेक्योंकि पुरानापन उसकी प्रवृत्ति ही नहीं है। वह जेट युग की रफ्तार केअनुरूप अचंभित कर देने वाली तेजी के साथ निरंतर विकसित भी हो रहा है और नएपहलुओं, नए स्वरूपों, नए माध्यमों, नए प्रयोगों और नई अभिव्यक्तियों सेसंपन्न भी होता जा रहा है। नवीनता और सृजनात्मकता नए जमाने के इस नए मीडियाकी स्वाभाविक प्रवृत्तियां हैं। यह कल्पनाओं की गति से बढ़ने वाला मीडियाहै जो संभवतः निरंतर बदलाव और नएपन से गुजरता रहेगा, और नया बना रहेगा। फिरभी न्यू मीडिया को लेकर भ्रम की स्थिति आज भी कायम है। अधिकांश लोग न्यूमीडिया का अर्थ इंटरनेट के जरिए होने वाली पत्रकारिता से लगाते हैं। लेकिनन्यू मीडिया समाचारों, लेखों, सृजनात्मक लेखन या पत्रकारिता तक सीमित नहींहै। वास्तव में न्यू मीडिया की परिभाषा पारंपरिक मीडिया की तर्ज पर दी हीनहीं जा सकती। न सिर्फ समाचार पत्रों की वेबसाइटें और पोर्टल न्यू मीडियाके दायरे में आते हैं बल्कि नौकरी ढूंढने वाली वेबसाइट, रिश्ते तलाशने वालेपोर्टल, ब्लॉग, स्ट्रीमिंग ऑडियो-वीडियो, ईमेल, चैटिंग, इंटरनेट-फोन, इंटरनेट पर होने वाली खरीददारी, नीलामी, फिल्मों की सीडी-डीवीडी, डिजिटलकैमरे से लिए फोटोग्राफ, इंटरनेट सर्वेक्षण, इंटरनेट आधारित चर्चा के मंच, दोस्त बनाने वाली वेबसाइटें और सॉफ्टवेयर तक न्यू मीडिया का हिस्सा हैं।न्यू मीडिया को पत्रकारिता का एक स्वरूप भर समझने वालों को अचंभित करने केलिए शायद इतना काफी है, लेकिन न्यू मीडिया इन तक भी सीमित नहीं है। ये तोउसके अनुप्रयोगों की एक छोटी सी सूची भर है और ये अनुप्रयोग निरंतर बढ़ रहेहैं। जब आप यह लेख पढ़ रहे होंगे, तब कहीं न कहीं, कोई न कोई व्यक्ति न्यूमीडिया का कोई और रचनात्मक अनुप्रयोग शुरू कर रहा होगा।
न्यू मीडिया अपने स्वरूप, आकार और संयोजन में मीडिया के पारंपरिक रूपों सेभिन्न और उनकी तुलना में काफी व्यापक है। पारंपरिक रूप से मीडिया या मासमीडिया शब्दों का इस्तेमाल किसी एक माध्यम पर आश्रित मीडिया के लिए कियाजाता है, जैसे कि कागज पर मुद्रित विषयवस्तु का प्रतिनिधित्व करने वालाप्रिंट मीडिया, टेलीविजन या रेडियो जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से दर्शक याश्रोता तक पहुंचने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। न्यू मीडिया इस सीमा से काफीहद तक मुक्त तो है ही, पारंपरिक मीडिया की तुलना में अधिक व्यापक भी है।
पत्रकारिता ही क्या, न्यू मीडिया तो इंटरनेट की सीमाओं में बंधकर रहने कोभी तैयार नहीं है। और तो और, यह कंप्यूटर आधारित मीडिया भर भी नहीं रह गयाहै। न्यू मीडिया का दायरा इन सब सीमाओं से कहीं आगे तक है। हां, 1995 केबाद इंटरनेट के लोकप्रिय होने पर न्यूमीडिया को अपने विकास और प्रसार केलिए अभूतपूर्व क्षमताओं से युक्त एक स्वाभाविक माध्यम जरूर मिल गया।
न्यू मीडिया किसी भी आंकिक (डिजिटल) माध्यम से प्राप्त की, प्रसंस्कृत कीया प्रदान की जाने वाली सेवाओं का समग्र रूप है। इस मीडिया की विषयवस्तु कीरचना या प्रयोग के लिए किसी न किसी तरह के कंप्यूटिंग माध्यम की जरूरतपड़ती है। जरूरी नहीं कि वह माध्यम कंप्यूटर ही हो। वह किसी भी किस्म कीइलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल युक्ति हो सकती है जिसमें आंकिक गणनाओं याप्रोसेसिंग की क्षमता मौजूद हो, जैसे कि मोबाइल फोन, पर्सनल डिजिटलअसिस्टेंट (पीडीए), आई-पॉड, सोनी पीएसपी, ई-बुक रीडर जैसी युक्तियां औरयहां तक कि बैंक एटीएम मशीन तक। न्यू मीडिया के अधिकांश माध्यमों में उनकेउपभोक्ताओं के साथ संदेशों या संकेतों के आदान-प्रदान की क्षमता होती हैजिसे हम इंटरएक्टिविटीके रूप में जानते हैं।
न्यू मीडिया के क्षेत्र में हिन्दी की पहली वेब पत्रिका भारत दर्शन को शुरुकरने वाले न्यूजीलैण्ड के अप्रवासी भारतीय रोहित हैप्पी का कहना है किः-
न्यू मीडियासंचार का वह संवादात्मक स्वरूप है जिसमें इंटरनेट का उपयोगकरते हुए हम पॉडकास्ट, आर एस एस फीड, सोशल नेटवर्क (फेसबुक, माई स्पेस, ट्विटर), ब्लाग्स, विक्किस, टैक्सट मैसेजिंग इत्यादि का उपयोग करते हुएपारस्परिक संवाद स्थापित करते हैं। यह संवाद माध्यम बहु-संचार संवाद का रूपधारण कर लेता है जिसमें पाठक/दर्शक/श्रोता तुरंत अपनी टिप्पणी न केवललेखक/प्रकाशक से साझा कर सकते हैं, बल्कि अन्य लोग भीप्रकाशित/प्रसारित/संचारित विषय-वस्तु पर अपनी टिप्पणी दे सकते हैं। यहटिप्पणियां एक से अधिक भी हो सकती हैं। बहुधा सशक्त टिप्पणियां परिचर्चामें परिवर्तित हो जाती हैं।
वे फेसबुक का उदाहरण देकर समझाते हैं कि- यदि आप कोई संदेश प्रकाशित करतेहैं और बहुत से लोग आपकी विषय-वस्तु पर टिप्पणी करते हैं तो कई बार पाठकवर्ग परस्पर परिचर्चा आरम्भ कर देते हैं और लेखक एक से अधिक टिप्पणियों काउत्तर देता है। वे कहते हैं कि न्यू मीडिया वास्तव में परम्परागत मीडिया कासंशोधित रूप है जिसमें तकनीकी क्रांतिकारी परिवर्तन व इसका नया रूपसम्मिलित है। न्यू मीडिया का उपयोग करने हेतु कम्प्यूटर, मोबाइल जैसे उपकरणजिनमें इंटरनेट की सुविधा हो, की आवश्यकता होती है। न्यू मीडिया प्रत्येकव्यक्ति को विषय-वस्तु का सृजन, परिवर्धन, विषय-वस्तु का अन्य लोगों सेसाझा करने का अवसर समान रूप से प्रदान करता है। न्यू मीडिया के लिए उपयोगकिए जाने वाले संसाधन अधिकतर निशुल्क या काफी सस्ते उपलब्ध हो जाते हैं।
संक्षेप में कह सकते हैं कि न्यू मीडिया एक ऐसा माध्यम है जिसमें लेखक हीसंपादक है और वही प्रकाशक भी है। यह ऐसा माध्यम है जो भौगोलिक सीमाओं सेपूरी तरह मुक्त, और राजनैतिक-सामाजिक नियंत्रण से लगभग स्वतंत्र है। जहांअभिव्यक्ति न कायदों में बंधने को मजबूर है, न अल कायदा से डरने को। इसमाध्यम में न समय की कोई समस्या है, न सर्कुलेशन की कमी, न महीने भर तकपाठकीय प्रतिक्रियाओं का इंतजार करने की जरूरत। त्वरित अभिव्यक्ति, त्वरितप्रसारण, त्वरित प्रतिक्रिया और विश्वव्यापी प्रसार के चलते ही न्यू मीडियाका स्वरूप अद्वितीय रूप से लोकप्रिय हो गया है।

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न्यू मीडिया
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न्यू मीडिया'संचार का वह संवादात्मक (Interactive)स्वरूप है जिसमेंइंटरनेट का उपयोग करते हुए हम पॉडकास्ट, आर एस एस फीड, सोशल नेटवर्क (फेसबुक, माई स्पेस, ट्वीट्र), ब्लाग्स, विक्किस, टैक्सट मैसेजिंग इत्यादिका उपयोग करते हुए पारस्परिकसंवाद स्थापित करते हैं। यह संवाद माध्यमबहु-संचार संवाद का रूप धारण कर लेता है जिसमें पाठक/दर्शक/श्रोता तुरंतअपनी टिप्पणी न केवल लेखक/प्रकाशक से साझा कर सकते हैं, बल्कि अन्य लोग भीप्रकाशित/प्रसारित/संचारित विषय-वस्तु पर अपनी टिप्पणी दे सकते हैं। यहटिप्पणियां एक से अधिक भी हो सकती है अर्थात बहुधा सशक्त टिप्पणियांपरिचर्चा में परिवर्तित हो जाती हैं। उदाहरणत: आप फेसबुक को ही लें - यदिआप कोई संदेश प्रकाशित करते हैं और बहुत से लोग आपकी विषय-वस्तु पर टिप्पणीदेते हैं तो कई बार पाठक-वर्ग परस्पर परिचर्चा आरम्भ कर देते हैं और लेखकएक से अधिक टिप्पणियों का उत्तरदेता है।
न्यू मीडिया वास्तव में परम्परागत मीडिया का संशोधित रूप है जिसमें तकनीकी क्रांतिकारी परिवर्तन व इसका नया रूप सम्मलित है।
न्यू मीडिया संसाधन
न्यू मीडिया का प्रयोग करने हेतु कम्प्यूटर, मोबाइल जैसे उपकरण जिनमेंइंटरनेट की सुविधा हो, की आवश्यकता होती है। न्यू मीडिया प्रत्येक व्यक्तिकोविषय-वस्तु का सृजन, परिवर्धन, विषय-वस्तु का अन्य लोगों से साझा करने काअवसर समान रूप से प्रदान करता है। न्यू मीडिया के लिए उपयोग किए जाने वालेसंसाधन अधिकतर निशुल्क या काफी सस्ते उपलब्ध हो जाते हैं।
न्यू मीडिया का भविष्य
यह सत्य है कि समय के अंतराल के साथ न्यू मीडियाकी परिभाषा और रूप दोनोबदल जाएं। जो आज नया है संभवत भविष्य में नया न रह जाएगा यथा इसे और संज्ञादे दी जाए। भविष्य में इसके अभिलक्षणों में बदलाव, विकास या अन्य मीडियामें विलीन होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
न्यू मीडियाने बड़े सशक्त रूप से प्रचलित पत्रकारिता को प्रभावित किया है।ज्यों-ज्यों नई तकनीक,आधुनिक सूचना-प्रणाली विकसित हो रही हैत्यों-त्योंसंचार माध्यमों व पत्रकारिता में बदलाव अवश्यंभावी है।
वेब पत्रकारिता
इंटरनेट के आने के बाद अखबारों के रुतबे और टीवी चैनलों की चकाचौंध के बीचएक नए किस्म की पत्रकारिता ने जन्म लिया। सूचना तकनीक के पंख पर सवार इसमाध्यम ने एक दशक से भी कम समय में विकास की कई बुलंदियों को छुआ है। आजऑनलाइन पत्रकारिता का अपना अलग वजूद कायम हो चुका है। इसका प्रसार औरप्रभाव करिश्माई है। आप एक ही कुर्सी पर बैठे-बैठे दुनिया भर के अखबार पढ़सकते हैं। चाहे वह किसी भी भाषा में या किसी भी शहर से क्यों न निकलता हो।सालों और महीनों पुराने संस्करण भी महज एक क्लिक दूर होते हैं।
ऑनलाइन पत्रकारिता की दुनिया को मोटे तौर पर दो भागों में बांट सकते हैं।१. वे वेबसाइटें जो किसी समाचार पत्र या टीवी चैनल के वेब एडिशन के रूप मेंकाम कर रही हैं। ऐसी साइटों के अधिकतर कंटेंट अखबार या चैनल से मिल जातेहैं। इसलिए करियर के रूप में यहां डेस्क वर्क यानी कॉपी राइटर या एडिटर कीही गुंजाइश रहती है।
२. वे वेबसाइटें जो न्यूजपोर्टल के रूप मेंस्वतंत्र अस्तित्व रखती हैं। यानी इनका किसी चैनल या पेपर से कोई संबंधनहीं होता। भारत में ऐसी साइटों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। काम के रूपमें यहां डेस्क और रिपोर्टिंग दोनों की बराबर संभावनाएं हैं। पिछले दिनोंकई ऐसे पोर्टल अपनी ऐतिहासिक रिपोर्टिंग के लिए चर्चा में रहे।
अगरआप खेल, साहित्य, कला जैसे किसी क्षेत्र विशेष में रुचि रखते हैं, तो ऐसीविशेष साइटें भी हैं, पत्रकारिताके क्षितिज को विस्तार दे सकती हैं।
स्टाफ के स्तर पर डॉट कॉम विभाग मुख्य रूप से तीन भागों में बंटा होता है।
जर्नलिस्ट : वे लोग जो पोर्टल के कंटेंट के लिए जिम्मेदार होते हैं।
डिजाइनर : वेबसाइट को विजुअल लुक देने वाले।
वेब डिवेलपर्स/प्रोग्रामर्स : डिजाइन किए गए पेज की कोडिंग करना, लिंक देना और पेज अपलोड करना।
इंटरनेट पत्रकारिता में वही सफल हो सकता है, जिसमें आम पत्रकार के गुणोंके साथ-साथ तकनीकी कौशल भी हो। वेब डिजाइनिंग से लेकर साइट को अपलोड करनेतक की प्रक्रिया की मोटे तौर पर समझ जरूरी है। एचटीएमएल और फोटोशॉप कीजानकारी इस फील्ड में आपको काफी आगे ले जा सकती है। आपकी भाषा और लेखन शैलीआम बोलचाल वाली और अप-टु-डेट होनी चाहिए।
यह एक फास्ट मीडियम है, यहां क्वॉलिटी के साथ तेजी भी जरूरी है। कॉपी लिख या एडिट कर देना ही काफीनहीं, उसे लगातार अपडेट भी करना होता है।
वेब पत्रकारिता लेखन व भाषा
वेब पत्रकारिता, प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में आधारभूत अंतर है। प्रसारणव वेब-पत्रकारिता की भाषा में कुछ समानताएं हैं। रेडियो/टीवी प्रसारणोंमें भी साहित्यिक भाषा, जटिल वलंबे शब्दों से बचा जाता है। आप किसीप्रसारण में, 'हेतु, प्रकाशनाधीन, प्रकाशनार्थ, किंचित, कदापि, यथोचितइत्यादि'जैसे शब्दों का उपयोग नहीं पाएँगे।कारण? प्रसारण ऐसे शब्दोंसे बचने का प्रयास करते हैं जो उच्चारण की दृष्टि से असहज हों या जन-साधारणकी समझ में न आएं। ठीक वैसे ही वेब-पत्रिकारिता की भाषा भी सहज-सरल होतीहै।
वेब का हिंदी पाठक-वर्ग आरंभिक दौर में अधिकतर ऐसे लोग थे जो वेबपर अपनी भाषा पढ़ना चाहते थे, कुछ ऐसे लोग थे जो विदेशों में बसे हुए थेकिंतु अपनी भाषा से जुड़े रहना चाहते थे या कुछ ऐसे लोग जिन्हें किंहींकारणों से हिंदी सामग्री उपलब्ध नहीं थी जिसके कारण वे किसी भी तरह कीहिंदी सामग्री पढ़ने के लिए तैयार थे। आज परिस्थितिएं बदल गई हैं मुख्यधारावाला मीडिया आनलाइन उपलब्ध है और पाठक के पास सामग्री चयनित करने काविकल्प है।
इंटरनेट का पाठक अधिकतर जल्दी में होता है और उसे बांधेरखने के लिए आपकी सामग्री पठनीय, रूचिकर व आकर्षक हो यह बहुत आवश्यक है।यदि हम ऑनलाइन समाचार-पत्र की बात करें तो भाषा सरल, छोटे वाक्य वपैराग्राफ भी अधिक लंबे नहीं होने चाहिएं।
विशुद्ध साहित्यिक रुचिरखने वाले लोग भी अब वेब पाठक हैं और वे वेब पर लंबी कहानियां व साहित्यपढ़ते हैं। उनकी सुविधा को देखते हुए भविष्य में साहित्य डाऊनलोड करनेकाप्रावधान अधिक उपयोग किया जाएगा ऐसी प्रबल संभावना है।साहित्यि कवेबसाइटें स्तरीय साहित्यका प्रकाशन कर रही हैं और वे निःसंदेह साहित्यिकभाषा का उपयोग कर रही हैं लेकिन उनके पास ऐसा पाठक वर्ग तैयार हो चुका हैजो साहित्यिक भाषा को वरियता देता है।
सामान्य वेबसाइट के पाठक जटिलशब्दों के प्रयोग वसाहित्यिक भाषा से उकता जाते हैं और वे आम बोल-चाल कीभाषा अधिक पसंद करते हैं अन्यथा वे एक-आध मिनट ही साइट पर रूककर साइट सेबाहर चले जाते हैं।
सामान्य पाठक-वर्ग को बाँधे रखने के लिए आवश्यकहै कि साइट का रूप-रंग आकर्षक हो, छायाचित्र व ग्राफ्किसअर्थपूर्ण हों, वाक्य और पैराग्राफ़ छोटे हों, भाषा सहज व सरल हो। भाषा खीचड़ी न हो लेकिनयदि उर्दू या अंग्रेज़ी के प्रचलितशब्दों का उपयोग करना पड़े तो इसमेंकोई बुरी बात न होगी। भाषा सहज होनी चाहिए शब्दों का ठूंसा जाना किसी भीलेखन को अप्रिय बना देता है।
हिंदी वेब पत्रकारिता में भारत-दर्शन की भूमिका
इंटरनेट पर हिंदी का नाम अंकित करने में नन्हीं सी पत्रिका भारत-दर्शन कीमहत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1996से पहली भारतीय पत्र-पत्रिकाओं की संख्यालगभग नगण्य थी। 1995 में सबसे पहले अँग्रेज़ी के पत्र, 'द हिंदू'ने अपनीउपस्थिति दर्ज की और ठीक इसके बाद 1996 में न्यूज़ीलैंड से प्रकाशितभारत-दर्शन ने प्रिंट संस्करण के साथ-साथ अपना वेब प्रकाशन भी आरंभ करदिया। भारतीय प्रकाशनों में दैनिक जागरण ने सबसे पहले 1997 में अपनाप्रकाशन आरंभ किया और उसके बाद अनेक पत्र-पत्रिकाएं वेब पर प्रकाशितहोनेलगी।
हिंदी वेब पत्रकारिता लगभग 15-16 वर्ष की हो चुकी है लेकिनअभी तक गंभीर ऑनलाइन हिंदी पत्रकारिता देखने को नहीं मिलती। न्यू मीडियाका मुख्य उद्देश्य होता है संचार की तेज़ गति लेकिन अधिकतर हिंदीमीडिया इसबारे में सजग नहीं है। ऑनलाइन रिसर्च करने पर आप पाएंगे कि या तो मुख्यपत्रों के सम्पर्क ही उपलब्ध नहीं, या काम नहीं कर रहे और यदि काम करते हैंतो सम्पर्क करने पर उनका उत्तर पाना बहुधा कठिन है।
अभी हमारेपरम्परागत मीडिया को आत्म मंथन करना होगा कि आखिर हमारी वेब उपस्थिति केअर्थ क्या हैं? क्या हम अपने मूल उद्देश्यों में सफल हुए हैं? क्या हम केवलइस लिए अपने वेब संस्करण निकाल रहे है क्योंकि दूसरेप्रकाशन-समूह ऐसेप्रकाशन निकाल रहे हैं?
क्या कारण है कि 12 करोड़ से भी अधिकइंटरनेट के उपभोक्ताओं वाले देश भारत की कोई भी भाषाइंटरनेट पर उपयोग कीजाने वाली भाषाओं में अपना स्थान नहीं रखती? मुख्य हिंदी की वेबसाइटस केलाखों पाठक हैं फिर भी हिंदी का कहीं स्थान न होना किसी भी हिंदी प्रेमी कोसोचने को मजबूर कर देगा कि आखिर ऐसा क्यों है! हमें बहुत से प्रश्नों केउत्तर खोजने होंगे और इनके समाधान के लिए ठोस कदम उठाने होंगें।
न्यू मीडिया विशेषज्ञ या साधक?
आप पिछले १५ सालों से ब्लागिंग कर रहे हैं, लंबे समय से फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब इत्यादि का उपयोग कर रहे हैं जिसके लिए आप इंटरनेट, मोबाइल वकम्प्यूटर का प्रयोग भी करते हैं तो क्या आप न्यू मीडिया विशेषज्ञ हुए? ब्लागिंग करना व मोबाइल से फोटो अपलोड कर देना ही काफी नहीं है। आपको इनसभी का विस्तृत व आंतरिक ज्ञान भी आवश्यक है। न्यू मीडिया की आधारभूतवांछित योग्यताओं की सूची काफी लंबी है और अब तो अनेक शैक्षणिक संस्थानकेवल'न्यू मीडिया'का विशेष प्रशिक्षण भी दे रहे हैं या पत्रकारिता मेंइसे सम्मिलित कर चुके हैं।
ब्लागिंग के लिए आप सर्वथा स्वतंत्र हैलेकिन आपको अपनी मर्यादाओं का ज्ञान और मौलिक अधिकारों की स्वतंत्रता कीसीमाओं का भान भी आवश्यक है। आपकी भाषा मर्यादित हो और आप आत्मसंयम बरतेंअन्यथा जनसंचार के इन संसाधनों का कोई विशेष अर्थ व सार्थक परिणाम नहींहोगा।
इंटरनेट पर पत्रकारिता के विभिन्न रूप सामने आए हैं -
अभिमत - जो पूर्णतया आपके विचारों पर आधारित है जैसे ब्लागिंग, फेसबुक या टिप्पणियां देना इत्यादि।
प्रकाशित सामग्री या उपलब्ध सामग्री का वेब प्रकाशन- जैसे समाचारपत्र-पत्रिकाओं के वेब अवतार।
पोर्टल व वेब पत्र-पत्रकाएं (ई-पेपर और ई-जीन जिसे वेबजीन भी कहा जाता है)
पॉडकास्ट - जो वेब पर प्रसारण का साधन है।
कोई भी व्यक्ति जो 'न्यू मीडिया'के साथ किसी भी रूप में जुड़ा हुआ हैकिंतु वांछित योग्यताएं नहीं रखता उसे हम 'न्यू मीडिया विशेषज्ञ'न कह कर'न्यू मीडिया साधक'कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं।
आचार संहिता
प्रेस परिषद् अधिनियम, 1978 की धारा 13 2 ख्र द्वारा परिषद् को समाचारकर्मियों की संहायता तथा मार्गदर्शन हेतु उच्च व्ययवसायिक स्तरों के अनुरूपसमाचारपत्रों; समाचारं एजेंसियों और पत्रकारों के लिये आचार संहिता बनानेका व्यादेश दिया गया है। ऐसी संहिता बनाना एक सक्रिय कार्य है जिसे समय औरघटनाओं के साथ कदम से कदम मिलाना होगा।
निमार्ण संकेत करता है किप्रेस परिषद् द्वारा मामलों के आधार पर अपने निर्णयों के जरिये संहितातैयार की जाये। परिषद् द्वारा जनरूचि और पत्रकारिता नीत...
रेडियो का इतिहास

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दिसंबर 1906 की शाम कनाडाई वैज्ञानिक रेगिनाल्ड फेसेंडेन ने जब अपनावॉयलिन बजाया और अटलांटिक महासागर में तैर रहे तमाम जहाजों केरेडियोऑपरेटरों ने उस संगीत को अपने रेडियो सेट पर सुना, वह दुनिया मेंरेडियो प्रसारण की शुरुआत थी।
इससे पहले जे सी बोस ने भारत में तथामार्कोनी ने सन 1900 में इंग्लैंड से अमरीकाबेतार संदेश भेजकर व्यक्तिगतरेडियो संदेश भेजने की शुरुआत कर दी थी, पर एक से अधिक व्यक्तियों को एकसाथसंदेश भेजने या ब्रॉडकास्टिंग की शुरुआत 1906 में फेसेंडेन ...
गुटनिरपेक्ष समाचार नेटवर्क -
गुटनिरपेक्ष समाचार नेटवर्क (एनएनएन) नया इंटरनेट आधारित समाचार औरफोटोआदान - प्रदान की व्‍यवस्‍था गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सदस्‍य देशों कीसमाचार एजेंसियों कीव्‍यवस्‍था है
अप्रैल, 2006 से कार्यरत एनएनएन कीऔपचारिक शुरूआत मलेशिया के सूचना मंत्री जैनुद्दीनमेदिन ने कुआलालंपुर में 27 जून 2006 को की थी। एनएनएन ने गुटनिरपेक्ष समाचार एजेंसियोंके पूल (एनएएनपी) का स्‍थान लिया है, जिसने पिछले 30वर्ष गुटनिरपेक्ष देशों केबीचसमाचार आदान प्रदान व्‍यवस्‍था के रूप
यूनाइ‍टेड न्‍यूज़ ऑफ इंडिया-
यूनाइटेड न्‍यूज़ ऑफ इंडिया की स्‍थापना 1956के कंपनी कानून के तहत 19 दिसम्‍बर, 1959को हुई। इसने 21मार्च, 1961से कुशलतापूर्वक कार्य करनाशुरू कर दिया। पिछले चारदशकों में यूएनआई, भारत में एक प्रमुख समाचारब्‍यूरो के रूप में विकसित हुई है। इसनेसमाचार इकट्ठा करने और समाचार देनेजैसे प्रमुख क्षेत्र में अपेक्षित स्‍पर्धा भावना को बनाएरखा है।
यूनाइटेड न्‍यूज़ ऑफ इंडिया की नए पन की भावना तब स्‍पष्‍ट हुई, जब इसने 1982में पूर्ण रूपसे हिंदी तार सेवा 'यून...
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वेब मीडिया और हिंदी का वैश्विकपरिदृश्य





 वेब मीडिया और हिंदी का वैश्विक  परिदृश्य - इस विषय पे एक पुस्तक  प्रकाशित करने क़ी योजना पे काम  कर रहा हूँ . आप काआलेख  पुस्तक  के लिए महत्वपूर्ण  है , आप से अनुरोध  है क़ि आप अपना आलेख भेज  कर इस प्रकाशन  कार्य  में सहयोग  दें . आलेख  ३० अगस्त  तक  भेजने क़ी कृपा करें . आलेख के लिए कुछ उप विषय इस प्रकार हैं -


मीडिया का बदलता स्वरूप और इन्टरनेट

व्यक्तिगत पत्रकारिता और वेब मीडिया

वेब मीडिया और हिंदी
 
हिंदी के विकास में वेब मीडिया का योगदान
 
भारत में इन्टरनेट का विकास
 
वेब मीडिया और शोसल नेटवरकिंग साइट्स
 
लोकतंत्र और वेब मीडिया
 
वेब मीडिया और प्रवासी भारतीय
 
हिंदी ब्लागिंग स्थिति और संभावनाएं
 
इंटरनेट जगत में हिंदी की वर्तमान स्थिति
 
हिंदी भाषा के विकाश से जुड़ी तकनीक और संभावनाएं
 
इन्टरनेट और हिंदी ; प्रौद्योगिकी सापेक्ष विकास यात्रा
 
व्यक्तिगत पत्रकारिता और ब्लागिंग
 
हिंदी ब्लागिंग पर हो रहे शोध कार्य
 
हिंदी की वेब पत्रकारिता
 
हिंदी की ई पत्रिकाएँ
 
हिंदी के अध्ययन-अध्यापन में इंटरनेट की भूमिका
 
हिंदी भाषा से जुड़े महत्वपूर्ण साफ्टव्येर
 
हिंदी टंकण से जुड़े साफ्टव्येर और संभावनाएं
 
वेब मीडिया , सामाजिक सरोकार और व्यवसाय
 
शोसल नेटवरकिंग का इतिहास
 
वेब मीडिया और अभिव्यक्ति के खतरे
 
वेब मीडिया बनाम सरकारी नियंत्रण की पहल
 
वेब मीडिया ; स्व्तंत्रता बनाम स्वछंदता
 
इन्टरनेट और कापी राइट
 
वेब मीडिया और हिंदी साहित्य
 
वेब मीडिया पर उपलब्ध हिंदी की पुस्तकें
 
हिंदी वेब मीडिया और रोजगार
 
भारत में इन्टरनेट की दशा और दिशा
 
हिंदी को विश्व भाषा बनाने में तकनीक और इन्टरनेट का योगदान
 
बदलती भारती शिक्षा पद्धति में इन्टरनेट की भूमिका
 
लोकतंत्र , वेब मीडिया और आम आदमी
 
सामाजिक न्याय दिलाने में वेब मीडिया का योगदान
 
भारतीय युवा पीढ़ी और इन्टरनेट
 
वेब मीडिया सिद्धांत और व्यव्हार


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आप इस साहित्यिक अनुष्ठान मे जिस तरह भी सहयोग देना चाहें, आप अवश्य सूचित करें ।

डॉ मनीष कुमार मिश्रा
अध्यक्ष - हिंदी विभाग
के . एम . अग्रवाल महाविद्यालय 421301
गांधारी विलेज, पडघा रोड , कल्याण - पश्चिम
महाराष्ट्र
8080303132


manishmuntazir@gmail.com

प्रस्तुति-  अमन कुमार अमन 

मोदी के बीजेपी में जेडीयू का साथ रहना गवारा नहीं : केसी त्यागी

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22 साल के बाद राज्यसभा के रास्ते संसद में जनतादल( यूनाईटेड) के नेता केसी त्यागी की राजनीति की मुख्यधारा में फिर से वापसी हुई है। इनकी छवि वेस्ट यूपी के एक दिग्गज और धाकड़ नेता की है। तमाम बड़े और दिग्गज नेताओं की कसौटी पर भी ये हमेशा खरे साबित हुए है।  कुशल संयोजक और हर तरह के हालात को मैनेज करने में दक्ष जुझारू और मशहूर होना इनकी सबसे बड़ी खासियत है। तमाम धाकड़ नेताओं में लोकप्रिय रहे राष्ट्रीय यूनाईटेड  के सांसद (  राज्यसभा  )  और अब प्रवक्ता केसी त्यागदीसे 2013 में अनामी शरण बबलने लंबी बातचीत की। उस समय जेडीयू और भाजपा कहे या एनडीए से तलाक हो चुका था। दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने और आरोप प्रत्यारोप  लगाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते थे। मगर सुशासन कुमार के बिहार के दबंग और राजद लालटेन छाप नेता लालू यादव से भी तलाक हो गया। तलाकशुदा जेडीयू पलक झपकते ही पहले सनम एनडीए की अंकशायिनी हो गयी। बदले हाल और हालात में भाजपाईयों पर कटाक्ष को देखना सुनना और पढ़ने का एक अलग सुख होता है। पेश है चार साल पहले लिए गए इंटरव्यू के  मुख्य अंश  : -अनामी शरण बबल-  

सवाल – राष्ट्रीय  जनतांत्रिक गठबंधन ( एनडीए) से जनतादल यूनाईटेड के अलगाव के बाद नयी योजना या रणनीति क्या है ?
जवाब—एनडीए से अलग होना एक बेहद कष्टदायक फैसला रहा, जिसको लेकर घोषना करने में करीब एक साल का समय लग गया। आजादी के बाद गैरकांग्रेसवाद का यह सबसे लंबा और टिकाउ गठबंधन बना था। रोजाना इस तरह के गठबंधन नहीं बनते हैं, जिसमें एक कार्यक्रम को लेकर 17 साल तक साथ साथ रहे। गठबंधन टूटने के बाद भाजपा का रूख हमलावर हो गया है और वो पूरी तरह जेड़ीयू को दोषी ठहराना चाहती है। जिसके खिलाफ बिहार और खासकर अपने इलाके में गोष्ठी सेमिनार पैदल यात्रा जुलूस जनसभा वाद विवाद और नुक्कड़ सभाओं के जरिये बीजेपी की चाल को रखाजा रहा है। हम जनता को बताना चाहते हैं कि इस गठबंदन को तोड़ना क्यों जरूरी हो गया था।
सवाल – जरा हमें भी बताइए न कि क्या ऐसी मजबूरी आ गई कि जब लगने लगा कि बस अब मामला बर्दाश्त से बाहर हो चला है ?
जवाब – देखिए, जब तक बीजेपी में माननीय अटल बिहारी बाजपेयी और लाल कृष्ण आड़वाणी का प्रभाव और दबदबा था, तब तक सामान्य तौर पर हमें कोई तकलीफ नहीं थी, क्योंकि वे लोग आदर के साथ गठबंधन की मर्यादा को समझते थे।  मगर इन वरिष्तम नेताओं के बाद की पीढ़ी में गठबंधन को लेकर पहले जैसा सम्मान नहीं रह गया था।
सवाल – क्यों राजनाथ सिंह का यह दूसरा कार्यकाल है और वे तो इन सीमाओ की मर्यादा को जानते है ?
जवाब-  राजनाथ जी भले ही वहीं है, पर भाजपा ही पूरी तरह बदल गयी है। एक समय दिवगंत श्रीमती इंदिरा गांधी को अपने आप पर इतना घमंड़ हो गया था कि खुद अपने आप को ही इंदिरा इज इंड़िया मानने लगी थी।.इंदिरा इज इंड़िया और कांग्रेस का फल तो आपलोगो ने 1975 के बाद देख ही लिया। यही हाल आजकल भाजपा की हो गयी है।, अटल जी और आड़वणी की जोड़ी से भाजपा एक अलग दिशा में चलती थी, मगर आज बीजेपी मोदी की हो गयी है।  मोदी इज बीजेपी या बीजेपी इज मोदी के इस आधुनिक  संस्करण को कम से कम जेड़ीयू तो बर्दाश्त नहीं कर सकती है। , लिहाजा हमें एनड़ीएक को और बदतर या बदनाम होने से ज्यादा जरूरी यह लगा कि इसको अब तोड़ दिया जाए या इसका साथ छोड़ दिया जाए।
सवाल— एनडीए से अलग होने के बाद आपलोंगों की भावी योजना और रणनीति पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
सवाल--  इस पर चिंतन और मंथन हो रहा। सही मायने में देखे तो एनडीए छोड़कर तो हमलोग सड़क पर आ गए है। छत से बाहर निकलने पर तो आशियाना बनाने की नौबत और जरूरत आ पड़ी है।.इस दौर में अपने आप को सुरक्षित रखने की बीजेपी से ज्यादा जरूरत और खतरा तो हमलोंगों के साथ है।
सवाल – इतनी बुरी हालत भी नहीं है त्यागी जी  एक तरफ राहुल गांधी का नीतिश प्रेम जगजाहिर हो चुका है ?
जवाब— (मुस्कुराते हुए)देखिए जब कोई एक जवान लड़की सड़क पर आकर खड़ी हो जाती है, तो उसके पीछे लाईन मारने वालों की फौज लग जाती है। जेड़ीयू के सामने कई ऑफर है, मगर हमें यह तो सोचने का मौका और अधिकार है कि कौन सा बंधन हमारे लिए सबसे भरोसेमंद रहेगा।
सवाल– अच्छा, इसीलिए पूरे ताव के साथ एनडीए को छोड़ भी दिया और गरिया भी रहे है ?
जवाब--  नहीं एकदम नही। आपके आरोप में कोई सत्यता नहीं है। .यह एक दिन का फैसला नहीं था, और ना ही रोज रोज इस तरह के गठबंधन बनते हैं। एनडीए के संयोजक भी शरद यादव जी थे, लिहाजा अपनी पकड़ और प्रभाव भी था,। मैंने पहले भी जिक्र किया था कि अटल और आड़वणी के रहते कभी भी दिक्कत नहीं हुई। 2002 में गुजरात दंगों के बाद एनडीए में तनाव हुआ था, मगर अटल जी ने पूरे मामले को संभाला और काफी हद तक मामले को शांत भी कर दिया। मोदी का प्रसंग सामने आकर भी  मंच से बाहर हो गया। उस समय गठबंधन के अनुसार हमलोग भी इसे  एक राज्य का मामला मान कर छोड़ देना पड़ा। मगर 2011 से ही मोदी प्रकरण उभरने लगा और देखते ही देखते मोदी सब पर भारी होते चले गए। बार बार कहने पर भी मामले को साफ नहीं किया गया, जिससे मोदी को लेकर एनडीए में विवाद हुआ।
सवाल—  यह तोएकदम सच हो गया कि मोदी के चलते ही यह अलगाव हुआ है ?
जवाब – नहीं इस बात में पूरी सत्यता नहीं है। मोदी एक मुद्दा रह है। हमारे बार बार कहने के बाद भी पीएम को लेकर उनकी दुविधा से जनता के बीच भी भम्र बढ़ रहा था। आड़वाणी द्वारा बेबसी जाहिर करने या गतिविधियों को लेकर बीजेपी की उपेक्षा के चलते ही एनडीए में पहले वाली सहजता नहीं रह गयी थी। कई बड़े नेताएं की उदासीनता से संवाद खत्म हो गया था। बीजेपी के नये चेहरो में भी इसको लेकर उत्सुकता नहीं थी, जिसके चलते हमलोगों को एनड़ीए से बाहर होना पड़ा। और हमलोंगो को इसका कोई मलाल भी नहीं है।
सवाल – 2013 में होने वाले कई राज्यों में विधानसभा चुनावऔर 2014 के लोकसभा चुनाव को आप किस तरह देख और आंक रहे है ?  
जवाब – इन चुनावों को लेकर अभी कोई रणनीति नहीं बनी है।  हम 2013 विधानसभा के परिणाम को देखकर ही अपनी तैयारी और कार्यक्रमों को अंतिम रुप देंगे। 100 से भी कम लोकसभा सीटों पर हमारे प्रत्याशी होंगे, लिहाजा सबों को समय पर मैनेज कर लिया जाएगा।
सवाल – भाजपा के साथ मिलने पर बिहार में जेड़ीयू एक पावर थी, मगर साथ खत्म होने पर आज दोनों कुछ नहीं है। क्या 2015 में होने वाले विधानसभा चुनाव में लालू यादव और रामविलास  पासवान समेत बीजेपी से टकराना क्या जेडीयू के लिए नुकसानदेह हो सकता है ?
जवाब – हो सकता है। इन  तमाम खतरों के बाद भी केवल अपने लाभ या स्वार्थ के लिए घटक में बने रहना हमें गवारा नहीं था। बिहार में 2015 के चुनावी परिणाम कुछ भी हो सकते है। हमें नुकसान भी हो सकता है, इसके बावजूदमोदी के बीजेपी में रहना जेडीयू को गवारा नहीं है।पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से व्यक्तिगत संबंध अलग है मगर पार्टी के संबंधों की एक लक्ष्मण रेखा होती है। फिर अध्यक्ष होकर भी राजनाथ बेबस है। आप देख रहे हैं कि आज हालत यह है कि जो मोदी का जाप करेगा, वही बीजेपी में रहेगा। 1996
सवाल – यानी जेडीयू को लगा कि मोदी से मामला संतुलित नहीं हो पा रहा था ?
जवाब –  गुजरात में मोदी को लेकर कोई दिक्कत नहीं थी, मगर एक विवादास्पद आदमी को एक राज्य में तो सहन किया जा सकता है, मगर एकदम नेशनल हीरो की तरह पेश करने के मामले में जेडीयू बीजेपी के साथ कभी नहीं है।
सवाल –तो क्या मान लिया जाए कि देश में अब विपक्ष की भूमिका समाप्त सी हो चली है ?
.जवाब --  जी नहीं विरोध और खासकर लोकतंत्र में विपक्ष और विरोध कभी खत्म नहीं हो सकता। लोकतंत्र में विरोध और विपक्ष संजीवनी की तरह है, लिहाजा यह तो एक राजनैतिक परम्परा है और यह खत्म नहीं हो सकती। 1969-70 में दीन दयील उपाध्याय और तमाम गैरकांग्रेसी नेताओं ने पूरे देश में इस तरह की हवा बनायी कि देश के करीब 10 राज्यों में गैरकांग्रेसी दलों की सरकार बनी  थी। लिहाजा विपक्ष की भूमिका कब एकाकएक मुख्य हो जाए यह कहना आसान नहीं है।

सवाल -- शायद अब फिर इस तरह का मुहिम ना हो ?
जवाब –  राजनीति में इस तरह का कोई दावा करना बेकार है।
सवाल --   बीजेपी द्वार नरेन्द्र मोदी को फोकस करने के बाद पूरा विपक्ष जिस तरह मोदी के खिलाफ हमलावर होकर पीछे पड़ गयी है, , विरोध के इस शैली को किस तरह देख रहे है ?
जवाब – मोदी का जिस तरह विरोध हो रहा है, मैं उसको एक स्वस्थ्य परम्परा नहीं मान रहा हूं।  चारो तरफ मोदी विरोध की धूम है। मोदी पर इस तरह कांग्रेस हमलावर हो गयी है कि जबरन विवाद  के लिए विवाद हो रहा है। इससे मैं काफी आहत और चकित भी हूं कि एकाएक यह क्या हो रहा है। इसके कई खतरे है। हो सकता है कि जनमानस में मोदी को लेकर इस तरह की इमेज भी बने कि मोदी के बहाने बीजेपी को भी लोग नकार दे और काफी नुकसान हो सकता है , मगर इसका उल्टा असर भी हो सकता है। विरोध करने वाले तमाम नेता जनता की कसौटी पर परखे गए है, मगर नेशनल स्तर पर मोदी एक नया फेस है। विरोध को देखते हुए यह भी मुमकिन है कि बाकी दलों को भारी नुकसान झेलना पड़े और जनता मोदी सहित बीजेपी की नैय्या पार लगा दे। कांग्रेस समेत सभी दलों को इस खतरे पर गौर करना होगा।   
सवाल --  और क्या क्या खतरे है ?
जवाब --   कांग्रेस को भी मोदी विरोध को और हवा देने में मजा आ रहा है, क्योंकि मोदी का हौव्वा इतना बड़ा बन गया है कि पीएम मनमोहन सिंह के 10 साला कुशासन पर कहीं कोई चर्चा नहीं है। करप्शन से बेहाल कांग्रेस की सारी असफलता छिप गयी है। यूपीए के कुशासन और देश बेचने की साजिश का मुद्दा ही गौण हो गया है। मंहगाई मुद्दे को लेकर कहीं कोई धरना प्रदर्शन नहीं हो रहा है। देश बंद करने की बात ही छोड़ दीजिए। जनहित के तमाम मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं है। कांग्रेस की इससे पहले कोई भी इतनी खराब लाचार बेबस और दिशाहीन जनविरोधी सरकार नहीं बनी थी। मोदी को मुद्दा बनाकर यूपीए सत्ता में फिर आने का रास्ता बना रही है।
सवाल –  आपलोग भी तो यूपीए के बैंड बाजा बाराती के संग जुड़ने के लिए अपनी बारी देख रहे है ? राहुल गांधी तो सालों से नीतिश कुमार पर लाईन दे रहे है ?
जवाब --  नहीं इस मामले में अभी कुछ भी नहीं कह सकते। नीतिश को पसंद करने का मतलब केवल व्यक्तिगत माना जा सकता है।
सवाल – नीतिश कुमार पीएम के एक साईलेंट प्रत्याशी की तरह है, जो खुद को खुलकर ना पेश कर पा रहे हैं, ना ही किसी और को बर्दाश्त कर पा रहे है ?  
जवाब –  एकदम नहीं ,नीतिश जी बार बार और हर बार इसका खंड़न करते आ रहे है, और मात्र 30-32 सांसद के बूते पीएम बनने का सपना देखना भी उनके लिए संभव नहीं है। वे लगातार कहते रहे हैं और मैं फिर आज कहना चाहूंगा कि इस तरह की बातें करने वाले लोग और नेता जेडीय के सबसे बड़े दुश्मन है।, जिससे सावधान रहने की जरूरत है। नीतिश जी बिहार को लाईन पर लाने के मिशन में लगे हैं और यहीं उनका मकसद है, बस्स।
सवाल --   कमाल है  माना तो यह जा रहा है कि मंत्रीमंडल के विस्तार में आप सहित कई लोग मनमोहन के सहयोगी बनने जा रहे है ?
जवाब --  ( मुस्कुराते हुए) हमें तो पत्ता नहीं है , मगर जब आपको कोई जानकारी मिले तो हमें भी सूचना दे दीजिएगा।।





राजरंग में है फूलों की खुश्बू

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रंग बिरंगे फूलों से सुसज्जित एक मोहक गुलदस्ता

अनामी शरण बबल

साक्षात्कार लेना सरल नहीं होता। पत्रकार एक हमलावर सा उन तमाम सवालों को सामने रखता है, जिससे अमूमन सामने वाला व्यक्ति साफ बचना चाहता है। आरोपों-प्रत्यारोपों, हमलावर सवालों और साफ साफ बच निकलने की यथा-कोशिशों के बीच ही मूलत: साक्षात्कार केंद्रित होता है। ज्यादातर आम पाठकों को भी साक्षात्कार पढ़ने की ललक होती है। बिना लाग लपेट साफ साफ बातों की प्रस्तुति ही एक साक्षात्कार की सफलता और पत्रकार की कार्यकुशलता वाकपट्टुता, हाजिरजवाबी, तथा अपने कार्य की निष्ठा को प्रदर्शित करता है।

आम पाठकों में काफी लोकप्रिय होने के बाद भी आमतौर पर साक्षात्कारों पर आधारित या बहुत सारे साक्षात्कारों को संकलित करके एक किताब की तरह प्रस्तुत करने की परम्परा अभी खासकर हिन्दी जगत में प्रचलित नहीं है। यही कारण है कि कविता कहानी नाटक उपन्यास आदि की तो अनगिनत किताबें बाजार से लेकर रेहड़ी पटरी की दुकानों पर पुरानी किताबों के बाजारों मेलों में मिल जाएंगी, मगर साक्षात्कारपरक पुस्तकों का नितांत अभाव है। प्रकाशन क्षेत्र में इस दुर्लभ श्रेणी की परम्परा को पाठकों के बीच हाजिर करने की इस महत्ती प्रयास की  सराहनीय है। बतौर एक पत्रकार 20-25 पहले किए गए साक्षात्कारों को इतने लंबे समय तक सहेजकर रखने और इसकों किताब के रूप में प्रस्तुत करने की ललक के लिए पत्रकार संजय सिंह को बहुत बहुत बधाई कि महानगरीय पत्रकार का चोला ओढने के बाद भी इनके भीतर का एक कोमल संवेदनशील पत्रकार अभी जिंदा है।

किसी कथा कहानी संग्रह की तरह ही इस किताब राजरंग को भी साक्षात्कार संग्रह ही कहा जाना ही इस किताब की मान्यता और इस रचनात्मक परम्परा के प्रति ज्यादा न्याय-संगत  होगा। साक्षात्कार संग्रह राजरंग में कुल 25 लोगों के 32 साक्षात्कार संकलित है। ज्यादातर इंटरव्यू बहुत लंबें नहीं है,,जिससे पाठकों को पल भर में देख लेने की एक और सुविधा मिलती है। मगर आकार प्रकार में लंबोदर नहीं होने के बाद भी इंटरव्यू की गुणवत्ता सहजता सरलता सटीकता और मारक प्रभावी उद्देश्यों से कहीं भी कोई इंटरव्यू  कहीं भटकता हुआ नहीं दिखता है। हर इंटरव्यू का एक उद्देश्य परिलक्षित होता है। खासकर बेहद बेहद पुराने और लगभग अप्रांसगिक से हो गए इंटरव्यू को ( हर साक्षात्कार के साथ) एक समकालीन टिप्पणी के साथ यह बताया गया है कि लिया गया इंटरव्यू कब और क्यों है और उस समय की तात्कालिक स्थितियां कैसी थी। इस तरह के परिचायक टिप्पणी के बाद पुराने इंटरव्यू को पढ़ने देखने और समझने की मानसिकता को बल मिलता है। लगभग अप्रांसगिक से हो गए उसी इंटरव्यू के प्रति फिर नजरिया भी बदल जाता है।
खासकर लालू यादव और शरद यादव के तीन तीन इंटरव्यू है। जिसमें लालू की तीन हालातों में बयान और टिप्पणियों पर भी अलग छाया दिखती है। खुद को ईमानदार और बेदाग दिखने दिखाने की उत्कंठा के बीच लालू यादव एक ताकतवर नेता होने के बाद भी आमलोगों के लिए प्रेरक कभी नहीं बन सके। दूसरों की केवल गलती देखने की भूख ने ही यादव परिवार को सपरिवार कटघरे में खड़ा कर दिया है। इसके बावजूद सपरिवार लालू यादव में आत्म मूल्यांकन से बचने की कमी ही इस परिवार की विफलता का मुख्य वजह है। पत्रकार संजय के साथ अनौपचारिक रिश्तों के कारण ही लालू में ही यह दम था (और है) कि कांग्रेस मुखिया के आसपास घेरा डाले कुर्सीछाप नेताओं पर कमेंट्स करके भी वे सोनिया के लिए संकटमोचक बने रहे। शरद यादव के भी इसमें तीन इंटरव्यू है। ज्ञान जानकारी और शिष्टता के मामले में काफी संयमित (आक्रामक भी) संतुलित से शरद यादव के इंटरव्यू को पढ़ना ज्यादा रोचक लगता है। कहीं कहीं पर आक्रामक तो कभी मीडिया से भी शिकायत करने और रखने वाले शरद की बातों में एक खास तरह की सहजता है जिससे तीखी बातें भी बहुत खराब नहीं लगती। समय की पदचाप को भांपने में विफल या देश को ज्यादा प्रमुऱता देने वाले शरद इस समय एनडीए के सहयोगी बनकर मंत्री बन सकते थे। ताजा मंत्रीविस्तार में जेडीयू को केंद्र में कोई जगह नहीं मिली। शायद शरद यदि जेडीयू में होते तो प्रधानमंत्री इनकी उपेक्षा नहीं कर पाते, क्योंकि शरद यादव में ही परिणाम की परवाह किए बगैर यह  कहने का दम है कि देश की सबसे बड़ी बीमारी जातिवाद है।

दलित आधारित साक्षात्कार होने के बाद भी रामविलास पासवान के मानवीय संस्कार और पारिवारिक धरातल को खंगालने की पहल ज्यादा है। पसंद नापसंद विफल अभिनेता बेटे और सिनेमा आदि पर भी पासवान के जवाब पाठकों को सुकून देता है। दलबदल और समय के साथ समझौता नहीं हो पाने या मुलायम परिवार के प्रस्ताव को यह कहकर नकार देना कि मेरी कर्मभूमि बिहार है। यह निष्ठा ही पासवान की सबसे बड़ी ताकत है कि बिहार की राजनीति में (से) इनको कभी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
कर्नाटक में कई बार मुख्यमंत्री रहे समाजवादी नेता और पूर्व पीएम चंद्रशेखर के बतौर शिष्य की तरह मान्य रामकृष्ण हेगडे के इंटरव्यू से इस किताब की शुरूआत होती है। इस बेहतरीन इंटरव्यू में एक नेता के राजनीतिक सामाजिक पारिवारिक वैज्ञानिक सोच तथा साहित्यिक संस्कारों की रोचक अभिव्यक्ति हुई है. बहुत सारे सवालों को जिस सहजता और सौम्यता के साथ जवाब दिया गया है वह हेगड़े के कद को ज्यादा सम्मानजनक बनाता है। यह हेगडे जैसे ही बड़े दिल वाला कोई नेता कहने का साहस कर सकता है कि तमाम दलों और नेताओं के प्रति अपनी क्या धारणा है। इसे पढना हर पाठक को सुहाएगा।
दिल्ली की सीएम से भूत (पूर्व) सीएम हो गयी शीला दीक्षित के इंटरव्यू में चालाकी और दूसरों के प्रति निंदारस झलकता है। शांत और बेहतरीन व्यावहार कुशल होने की यह कौन सी खासियत (?) है कि नाना प्रकारेण आरोपों के बाद भी खुद को बेदाग और जमाने को चोर कहकर निकल जाए। यह पब्लिक सब जानती है मैड़मजी कि यदि 70 सदस्यीय विधानसभा में आप को 67 /3 के सुपर जीत के परिणाम में यदि कांग्रेस का खाता भी ना खुले और खुद शीला जी भी चुनावी भौसागर में डूब जाए तो इस हाल में बेदाग कहना अपनी ही बेइज्जती मानी जाएगी।     
चमत्कारी व्यक्तित्व के स्वामी योगी आदित्य का इंटरव्यू भी बेहद रोचक और पठनीय है। सांसद और यूपी के सीएम के तौर पर काम कर रहे योगी के इंटरव्यू पर लिखित टिप्पणी भी बेहद रोचक और संबंधों को नया आयाम देता है। पौड़ी गढ़वाल से किस तरह गोरखपुर आए और बतौर गोरक्षपीठ के महंत से लेकर सासंद और अब मुख्यमंत्री का दायित्व संभाल रहे योगी को गोरखपुर में लोग महाराज जी कहते है। इनसे अपने संबंधों की निकटता को प्रदर्शित करते हुए पत्रकार नें एकदम खांटी पत्रकार बनकर इंटरव्यू किया है। जहां पर रिश्तों का संकोच नहीं दिखता। संबंधों को दरकिनार करके पत्रकारीय मूल्यों के साथ न्याय करना संभव नहीं होता मगर चरण स्पर्श करके मान देने वाले पत्रकार संजय सिंह का यह बेलौस धाकड़ इंटरव्यू इनकी पेशेगत ईमानदारी को सम्मानजनक बनाता  है।
कांग्रेसी नेताओं में बौद्धिक इमेज रखने वाले जयराम रमेश का इंटरव्यू दलगत खाने से बाहर निकलने वाले एक नेता की छवि को मजबूत करता है। ज्यादातर सवाल आप और केजरीवाल पर ही है मगर लगता है कि दिल्ली के सीएम ने जयराम रमेश की एक बात मान ही ली है । रमेश ने केजरीवाल को एक सलाह दी थी वे प्रॉमिस कम करे, काम ज्यादा करे। गवर्नेस इज नॉट राकेट साइंस। ही शुड टॉकलेस। लगता है कि सलाह मानकर ही अब केजरीवाल बातें कम और काम ज्यादा करने की नीति को अपना सूत्र बना लिया है। सलमान खुर्शीद के इंटरव्यू में भी पार्टी के भीतर मुस्लिमों अल्पसंख्यकों के वोट छिटकने का दर्द है, तो इस वोट को सहेजने की चिंता भी है । वहीं महाराष्ट्रीयन पृष्टभूमि से आने वाले अब्दुल रहमान अंतुले का इंटरव्यू भी पठनीय है। भारत के मुस्लमानों की सामाजिक आर्थिक शैक्षणिक दशा दिशा पर सच्चर समिति की रिपोर्ट के संसद में रखे जाने के बाद यह इंटरव्यू लिया गया है। जिसमें तमाम विवादों हालातों तथा सामाजिक हालातों पर बातचीत की गयी है। बातचीत जितनी उम्दा और सारगर्भित बनती जा रही थी उसके हिसाब से यह एक संक्षिप्त और पाठकों को प्यासा रखने वाला  इंटरव्यू है। इसको और विस्तार देने की जरूरत थी, ताकि बहुत सारे प्रसंग और स्पष्ट हो पाते। उतराखंड के सीएम रहे हरीश रावत के इंटरव्यू से भी इनकी पीडा और दुर्बलता जाहिर होती है।
हरियाणा के राज्यपाल रहे महावीर प्रसाद और किस्मत से बिहार के मुख्यमंत्री बन गए जीतनराम मांझी  का इंटरव्यू आत्मश्लाघा से प्रेरित है। अपने आपको महाबलि समझने की भूल करने वाले इन नेताओं को अपने बौनेपन का अहसास नहीं होना भी भारतीय लोकतंत्र का एक कमजोर पक्ष है। किताब में स्वामी प्रसाद मौर्य मोहम्मद युनूस, क्रिकेटर कीर्ति आजाद, नरेश अग्रवाल, दिनेश त्रिवेदी, डा. सैफुद्दीन सोज, और जोलम ओरम के इंटरव्यू से अलग अलग पीडा और चिंता सामने आती है। मगर इंटरव्यू की संक्षिप्तता से पाठकों का मन नहीं भरेगा।
कुछ अलग हटकर देखे तो जवाहरलाल नेहरू यूनीवर्सिटी के छात्र नेता रहे डी.पी.त्रिपाठी के इंटरव्यू में इस शिक्षा संस्थान की सोच और खुलेपन को समझने में आसानी होगी। पत्रकार से एक नेता की दूसरी बीबी बनी और बाद में वैवाहिक खटास के बाद खुद को राजा मतंग सिंह कहलवाने के शौकीन मंतग सिंह की नंगई और उससे संघर्ष कर रही बीबी नंबर टू मनोरंजना सिंह की पीड़ा और सामाजिक हालात के विरूद्ध होकर युद्ध करने की मानसिकता को समझना रोचक लगेगा। समलैंगिको के अधिकारों के लिए संघर्षशील नाज फाउण्डेशन इंडिया की अंजलि गोपालन का साक्षात्कार और लंबा होता तो और बेहतर बन पाता। महामंडलेश्वर सच्चितानंद गिरि महाराज की आत्मस्वीकृति ही इनकी सबसे बड़ी ताकत और साहस का परिचायक है। किस किस तरह के लोग किस तरह महामंडलेश्वर बन जा रहे हैं यह जानना आस्थावान लोगों के विश्वाल पर गहरा आघात से कम नहीं है। और अंत में यूपी के दिवंगत मुख्यमंत्री वीरवहादुर सिंह के बेटे फतेह बहादुर सिंह का अति संक्षिप्त इंटरव्यू इस बात को जगजाहिर नहीं कर पाता कि किस तरह कांग्रेसियों ने इनके पिता और केंद्रीय संचार मंत्री की फ्रांस पेरिस में दौरे के समय हत्या करायी थी?
साक्षात्कारों के संग्रह की इस किताब की भूमिका हिन्दी के युवा आलोचक  डा. ज्योतिष जोशी और वरिष्ठ पत्रकार अरूणवर्धन की है। डा. जोशी की यह टिप्पणी सौ फीसदी सही है कि कहना न होगा कि संजय सिंह जैसे कर्मठ और विचारवान  पत्रकार ने इस पुस्तक के माध्यम से भारतीय नागरिकों को सचेत करने के साथ साथ नागरिक धर्म के प्रति जिम्मेदार बनाने का कार्य किया है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। जबकि  अरूणवर्धन की यह टिप्पणी बड़ी मूल्यवान है कि पुस्तक इस दृष्टि से अर्थवान है कि इसमें संकलित नेताओं की चर्चा के बिना भारतीय राजनीति की कोई भी चर्चा अधूरी मानी जाएगी। सबसे महत्वपूर्ण है कि इस पुस्तक कगा प्रकाशन ऐसे मोड़ पर हो रहा है जबकि भारतीय राजनीति के मुहाबरे बदल रहे हैं। शाहदरा के लोकमित्र प्रकाशक ने बड़ी लगन के साथ इस पुस्तक को प्रकाशित किया है। मगर इससे भी ज्यादा उल्लेखनीय पत्रकार संजय सिंह का यह कहना है कि मैं न अपने अतीत में जीता हूं और न भविष्य मे। मैं तो बस अपने वर्तमान से मतलब रखता हूं। और आभार जताने में कहीं से भी किसी से भी कोई कोताही ना करने और रखने वाले पत्रकार संजय की यही खासियत है जो उन्हें भीड़ से अलग करके एक स्वायत्त पहचान देती और दिलाती है।
अंतत इस पुस्तक में भारतीय राजनीति और समाज के विभिन्न प्रकारेण के रंग बिरंगे फूलों को संयोजित करके एक जगह एक सुदंर मोहक और आर्कषक मनभावन गुलदस्ते का रूप दिया गया है। जिसमें कई तरह की खुश्बू और गंध मिश्रित है। कुलमिलाकर सामाजिक संदर्भो को समझने में यह एक उपयोगी और पठनीय संकलन है. जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।

कुलपति डा. प्रियरंजन त्रिवेदी से अनामी की बातचीत

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बीए ऑनर्स को चार साल का करना एक गलत फैसला है : ड़ा. त्रिवेदी





दो यूनीवर्सिटी के कुलपति डा. प्रियरंजन त्रिवेदी से 2013 में अनामी शरण बबल ने बातचीत की। पेश है बातचीत के मुख्य अंश




दिल्ली यूनीवर्सिटी  द्वारा 2013 -14 से बीए विद ऑनर्स  पाठ्यक्तम को चार साल का कर दिया गया है। इसको लेकर  यूनीवर्सिटी सहित इसका जमकर विरोध भी हो रहे है। चार साला पाठ्यक्रम का देश के जाना माने शिक्षाविद डॉ प्रियरंजन त्रिवेदी  ने कड़ा विरोध जताया है। वे इस पैसले को ही बेकार और केवल समय की बर्बादी माना है। देश में दो दो यूनीवर्सिटी ग्लोबल ओपन युनिवर्सिटी (नागालैण्ड)  तथा इंदिरा गांधी टेक्नोलॉजिकल एंड मेडिकल साइंसेज यूनिवर्सिटी (अरुणाचल प्रदेश)  के संस्थापक कुलाधिपति डॉ प्रियरंजन त्रिवेदी एक अनूठे चिंतक हैं। शैक्षणिक चिंतक होने के साथ साथ पर्यावरण और कृषि विशेषज्ञ डा. त्रिवेदी ज्यादातर देशी समस्याओं पर गहरी पकड़ और बेबाक नजरिया से तल्ख टिप्पणी करते है। इनकी टिप्पणियों में तलख्यित के साथ साथ सरकार और नौकरशाही की बेऱूखी को लेकर काफी रोष है.। जल जंगल जमीन जानवर जनजीवन पर्यावरण प्रदूषण बाढ़ सूखा अकाल  और प्राकृतिक – मानवीय आपदा पर भी ये काफी चिंतित हैं। मगर शिक्षा और सेहत के अंधाधुंध व्यावसायिक करण से स्वास्थ्य और शैक्षणिक वातावरण में पैसे की चमक दमक से  डा. त्रिवेदी  विचलित है। तमाम ज्वलंत मुद्दों पर संस्थापक कुलाधिपति डॉ प्रियरंजन त्रिवेदीसे वरिष्ठ  पत्रकार अनामी शरण बबलने लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है बातचात के मुख्य अंश: ---
सवाल– इसी साल से दिल्ली यूनीवर्सिटी ने बैचलर कोर्सेज विद ऑनर्स के तीन साल के पाठ्यक्रम को चार साल का कर दिया है। इसे आप किस तरह देखते है ?
जवाब– यह एक गलत और बेकार सा फैसला है, जिसे दो चार साल के बाद वापस लेना पड़ सकता है।   दिल्ली यूनीवर्सिटी जैसे केंद्रीय यूनीवर्सिटी  द्वारा इस तरह के अवैज्ञानिक और अतार्किक फैसलों से ही शिक्षा में अंतरविरोध बढ़ता और पनपता है। चार साल के पाठ्यक्रम से छात्रों को केवल एक साल की बर्बादी के अलावा कुछ और नहीं हासिल होने वाला है।. एक तरफ सरकार के पास नौकरियों की कमी है लिहाजा मुझे तो लग रहा है कि ज्यादा से ज्यादा समय तक छात्रों को पढ़ाई में व्यस्त रखने की यह केवल एक सरकारी चाल भी हो सकती है। ,जिसे दिल्ली यूनीवर्सिटी के जरिये लागू किया जा रहा है। एक तरफ सरकार नौकरियों की उम्र सीमा तो बढ़ा नहीं रही है ?  लिहाजा सरकार का यह फैसला लाखों छात्रों के कैरियर को प्रभावित करने वाला है।
सवाल– डीयू के इस फैसले के खिलाफ क्या होना चाहिए  ?
जवाब– आप देखते रहे हमलोगों को कुछ करने से ज्यादा काम दो एक साल के अंदर ही यहां के छात्रों,  छात्र संगठनो और पोलिटिकल पार्टियां ही कर देंगी। यह समय का तकाजा और मांग भी है कि इस तरह के बेकार और एक साल बेकार करने वाले पाठ्यक्रमों को समाप्त कराने  में लोग एकजुट होकर खड़ा हो।
सवाल– सरकार से इस मामले में क्या अपेक्षा रखते है ?
जवाब – सरकार से क्या उम्मीद करेंगे ?   सारा फितूर ही सरकार का करा कराया है। डीयू चूंकि राजधानी में है लिहाजा इसको लेकर होने वाले हंगामे को सरकार अपने सामने ही देखना चाहती है।  एक तरफ चुनावी फायदे के लिए सरकार नौकरी की उम्र बढ़ाकर 65 साल करने पर आमादा है तो दूसरी तरफ देश में करोड़ो बेकार और बेरोजगार युवक उबल रहे है। सरकार का ध्यान इनकी तरफ नहीं है। सत्ता के मोह से बाहर  निकल कर अब देश हित के लिए काम  करने का समय आ गया है।  
सवाल– भारत की शिक्षा नीति पर आपकी क्या धारणा है ?
जवाब --  यह पूरी तरह दोषपूर्ण अवैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला है ।. शिक्षा को बाजार और समय के साथ जोड़ा ही नहीं गया है। शिक्षा को केवल कागजी ज्ञान का माध्यम बनाया गया है.। शिक्षा में सुधार के नाम पर इसको और बदतर किया जा रहा है। तकनीकी शिक्षा के नाम पर छात्रों को तकनीक का प्रवचन पिलाया जाता है, बगैर यह जानने की मनोवैज्ञानिक पहल  किए कि  तकनीकी शिक्षा को एक छात्र द्वारा कितना और किस स्तर तक ग्रहण किया गया। एक इंजीनियर भी मौके पर रहते हुए काम को अपने सामने निरीक्षण करने की अपेक्षा एक हेड मिस्त्री या कारीगर की दक्षता पर निर्भर करता है। इनलोगों की कार्यदक्षत्ता पर देश के बड़े बड़े प्रोजेक्ट की मजबूती का पैमाना तय होता है.।  एक तकनीकी शिक्षा प्राप्त अधिकारी केवल कागजों पर पूरी योजना को साकार करता है, मगर उसको वास्तविक आकार में एक कारीगर ही साकार रूप देता है। , जो रोजाना के अनुभव से दक्ष या माहिर होकर पारंगत बनता है। मौजूदा शिक्षा नीति की यह दुखदाई हालत है कि शिक्षा समाप्त होने के बाद एक छात्र अपना बायोडॉटा बनवाने के लिए भी वह कोई साईबक कैफे के उपर निर्भर होता है.। शिक्षा में प्रैक्टीकल शिक्षा या अभ्यास की भारी कमी है। इस वजह से एक छात्र सही मायने में चार पांच साल की पढ़ाई को अपने जीवन और कैरियर में उतार नहीं पाता। . कागजी शिक्षा से नौकरी तो मिल जाती है, मगर वहां पर भी किसी क्लर्क या सहायक द्वारा ही काम को बताया जाता है।
सवाल– इसमें क्या खराबी है ? कोई भी आदमी किसी काम को समझने पर ही तो बेहतर तरीके से कर सकता है ?
जवाब– क्या आपको इसमें कोई खराबी नजर नहीं आती। एक डॉक्टर, इंजीनियर या वैज्ञानिक को गहन विषयों के बारे में सामान्य सी जानकारी कोई टेक्निशियन या कोई हेल्पर बताएगा ?  यह हमारी शिक्षा प्रणाली का क्या दोष नहीं है कि वह पांच छह साल में भी एक छात्र को पारंगत नहीं कर पाता ?
सवाल – देश की शिक्षा में एकरूपता की भारी कमी है। हर राज्य का अपना अलग शिक्षा बोर्ड या परिषद है। राष्ट्रीय स्तर पर भी सीबीएसई के अलावा और भी कई बोर्ड या परिषद है। अलग अलग जातियों या खास समुदायों के अपने पाट्यक्रम और शिक्षा संविधान तक है। इस विभिन्नता या अनेकता को क्या एक दायरे  में करने की जरूरत नहीं लगती ?  
जवाब--  देखिए , अगर किसी देश में शिक्षा के कई बोर्ड या परिषद है तो इसमें को खराबी नहीं है, और ना किसी को इस पर कोई आपति ही होनी चाहिए। हमारा देश अधिक आबादी वाला एक विशाल और विभिन्नताओं वाला देश है। हर प्रांत और उसमें रहने वाले लोगों का अपनी संस्कृति, मान्यता  .लोकाचार और भाषा का अलग संस्कार होता है, जिसे जीवित रखना और संरक्षित करना भी आवश्यक है। इस तरह स्थानीय बोर्ड अकादमी या शैक्षणिक माध्यमों के जरिये ही इन पर पूरा ध्यान दिया जा सकता है। मगर मेरी मान्यता है कि देशज संस्कारों को सहेजने के साथ साथ प्रांतीय लोगों के दृष्टिकोण को राष्ट्रीय और  वक्त के साथ उनको भी अवगत कराने की जरूरत है. एक आधुनिक राष्ट्रीय नजरिये के बिना देश की शिक्षा के स्तर को एकरूप नहीं किया जा सकता। छात्रों पर ज्यादा निगरानी रखने के लिए अलग अलग बोर्ड या राज्य शैक्षणिक बोर्डो का होना आवश्यक है जो एक दूसरे के लिए सहायक भी है। मगर पाठ्यक्रमों में एकरूपता और परीक्षा प्रणाली को लेकर भी एक समान दृष्टि का होना जरूरी है, तभी तो कोई छात्र चाहे मुबंई से हो या किसी दूरदराज इलाके से हो , मगर सबके अध्ययन का पैमाना एक समान ही हो। मगर इसको लेकर देश में अभी तक एक नजरिया नहीं हो सका है । सरकारी और निजी स्कूलों के पाठ्यक्रमों और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी एक रूपता का घोर अभाव है। देश के सभी संस्थानों को इसमें पहल करनी चाहिए।।
सवाल– पहले तो केवल प्राईवेट स्कूल होते थे मगर आज तो देश में एक दो नहीं सैकड़ों प्राईवेट यूनीवर्सिटी भी खुल चुके है. जहां पर लाखों छात्र पढ़ाई कर रहे है ?
जवाब --  प्राईवेट यूनीवर्सिटी से कोई आपति नहीं है , मगर सरकार को यूनीवर्सिटी या डीम्ड यूनीवर्सिटी या इसके समतुल्य मान्यता देते समय पाठ्यक्रमों में एक समान संयोजन की नीति को अनिवार्य करना होगा। मगर आज जितने यूनीवर्सिटी हैं उतने ही प्रकार के प्रयोग और एक दूसरे से बेहतर पाठ्यक्रम को लागू करने की अंधी प्रतियोगिता हो रही है। यह जाने बगैर कि इसका एक छात्र पर क्या असर पड़ रहा है। छात्रों की परवाह किए बगैर केवल अपनी इमेज को औरों से बेस्ट करने की नीयत के पीछे एक छात्र को एक क्लासरूम की बजाय एक शैक्षणिक अनुसंधान के प्रयोगशाला में बैठा दिया जाता है,। जहां पर होने वाले रोजाना के प्रयोगों से एक छात्र किस तरह किस रूप में बाहर निकल रहा है यह किसा से छिपा नहीं है। एक छात्र को उसकी मौलिकता उसके विचारों और उसके नजरिये का सम्मान होना चाहिए। मगर,उसको अपनी प्रतिभा के आधार पर विकसित होने का मौका नहीं दिया जा रहा है।
सवाल–  इसका कारण आप क्या मान रहे हैं ?
जवाब– दरअसल लगभग सभी अभिभावकों को अपने बच्चों पर भरोसा नहीं है। . उनको निजी स्कूल ट्यूशन या ट्यूटर पर ज्यादा यकीन होता है। पढाई के अलावा किसी बच्चें की मौलिक प्रतिभा का परिवार द्वारा अनादर किया जाता है। केवल कागजी ज्ञान या कट पेस्ट की पढ़ाई को ही परिवार टैलेंट की तरह देखता है। बच्चे की मौलिकता के प्रति सामाजिक और पारिवारिक दृष्टिकोण में बदलाव की जरूरत है। खेलों को ज्यादातर परिवारों में सबसे बेकार और बुरा माना जाता है, मगर केवल खेल की वजह से ही दर्जनों खिलाड़ी घर घर के हीरो माने जा रहे है। पारिवारिक समर्थन के बगैर क्या कोई सचिन या धोनी सामने उभर पाते। मेरी धारणा है कि केवल खेल ही नहीं हर तरह की विभिन्नता और लीक से अलग चलन को प्रथा को सम्मान और प्रोत्साहन देना होगा।
सवाल -- शिक्षा में क्या होना चाहिए ?
जवाब– शिक्षा पर लॉर्ड मैकाले के सांस्कृतिक हमले को खत्म करना होगा।. देश को बर्बाद और  विनाश करने की मैकाले पद्धति को हटाना होगा। मैकाले ने शिक्षा को औजार बनाकर देश की संस्कृति पर हमला किया था। हमें बाबूओं वाली शिक्षा से हटकर एक आधुनिक शिक्षा को पढाई में शामिल करना होगा। .शिक्षा को सर्वसुलभ करना और बनाना होगा। आज की शिक्षा गरीबों को केवल अंगूठाटेक साक्षर करने की है। पढ़ाई काफी महंगी हो गयी है, जिसको सबके लिए बनाना होगा। नहीं तो जिसके पास पैसा है वहीं आज पढ़ और अफसर बन रहा है। इससे समाज में असंतुलन की खाई और चौड़ी होगी। सरकार को पहल करनी होगी। हमारे ग्लोबल यूनीवर्सिटी में 3000 पाठ्यक्रम है। .45 पाठ्यक्रम स्पेशल है। ग्रामीणों किसानों को कृषि पर पढाई का पूरा संचार है। ओपन यूनीवर्सिटी में करीब 50 हजार छात्र है जिनको पाठ्यक्रम और गाईड के माध्यम से जोडा जाता है।यह एक अनोखा और अनूठा प्रयास है, जहां पर पैसे से ज्यादा गुण और कौशल को तराशने की चेष्टा की जाती है। पढाई बाजार की जरूरत है।  विदेशों में उसका उपयोग किया जाता है, जबकि हमारे यहां शिक्षा बाजार और रोजगार से ना जुड़कर व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का आधार माना जाता है। यही वजह है कि पढ़ा लिखा आदमी सामाजिक ना होकर समाज के लिए सबसे बेकार हो जाता है, क्योंकि उसकी कोई उपयोगिता ही नहीं रह जाती। मूल्यपरक शिक्षा होने पर ही एक आदमी को अपनी सामाजिक उपयोगिता और दायित्व का भान होगा। जिसके ले सामाजिक समरसता और कार्य के प्रति सम्मान को भाव होना जरूरी है। सरकार को युवाओं के रोजगार के लिए बाजार देना होगा तभी तो समाज का हर तरह का आदमी कुटीर उधोग के मार्फत भी समाज के साथ जुड़ा रहेगा।
सवाल – आपने दो दो यूनीवर्सिटी की स्थापना की है । इसकी क्या जरूरत पड़ी और आपके ये यूनीवर्सिटी औरों से अलग और बेहतर किस तरह है ?
जवाब– हमने देखा कि शिक्षा के नाम पर जो होना चाहिए वो नहीं हो पा रहा है, तभी मैंने  द ग्लोबल ओपन युनिवर्सिटी (नागालैण्ड)  तथा इंदिरा गांधी टेक्नोलॉजिकल एंड मेडिकल साइंसेज यूनिवर्सिटीअरुणाचल प्रदेश की स्थापना की  मैं इसका संस्थापक कुलाधिपति हूं। इसमें सैकड़ों वो पाठ्यक्रमों को लागू किया गया है जो कहीं नहीं शिक्षा का आधार बना है। मैनें शिक्षा को रोजगार और बाजार से जोड़ा है.। 2100 से ज्यादा पाठ्यक्रमों की मान्यता के लिए मेरी फाईले सरकारी टेबलों पर रूकी पड़ी है। जिससे सरकार को अपनी शिक्षा में दोशी मान्यताओं से जोड़ने का मौका मिलेगा। देश की प्राचीनतम 355 दवा रहित चिकित्सा प्रणालियों की मान्यता के लिए मैं सालों से सरकार से लड़ रहा हूं। मगर मैंने पहले ही कहा था कि हम नवीनती पर विचार करने की बजाय पीछलग्गू की तरह पुरानी लीक पर ही चलना चाहते है। 355 पैरामेड़िकल चिकित्सा प्रणाली की मान्यता से सरकार को घाटा तो नहीं है पर करोड़ों लोगों को इसका फायदा तो मिल सकता है। इसकी पढाई होगी और तमाम साधनों को एक पहचान मिलेगी। इससे लाखो लोग रोजगार पाएंगे। ये चिकित्सा पद्धति हमारे देश में प्रचलित भी है पर सरकार को इसको अपना मानकर दावा करना चाहिए। इस पर दुनियां भर में काम हो रहे है और लाखो लोग इसके इलाजा से ठीक भी हो रहे है। मगर सरकार की उपेक्षा कब टूटेगी ? यही इच्छाशक्ति सरकार और नौकरशाहों में नहीं है।हमारे देश में हजारों कॉलेजों की कमी है। तमाम तकनीकी संस्थानों को देश के उधोगों से जोडा जाना चाहिए ताकि वे एक छात्र को तराश कर अपने यहां रोजगार दे और उनको प्रशिक्षित करने का खर्चा वहन करे। शिक्षा के व्यय को कम किया जा सकता है, मगर इसके लिए सरकार को ही तो उपाय और साधनो को आकार देना होगा।
सवाल– सरकारी लापरवाही या उदासीनता को आप किस तरह देखते है ?
जवाब --   आज देश का हाल बेहाल ही उदासीनता या काम को फौरन करने  की बजाय कल पर टालने की नीति से हो रही है।  कड़ाके  की ठंड़ में भी देश की रक्षा के लिए हौसले को बनाए रखना पड़ता है।  मगर देश के नौकरशाह और सरकार का रवैया इन बहादुरों के प्रति भी नकारात्मक है। पड़ोसी देशों से रिश्ते जगजाहिर है।. बांग्लादेश जैसा देश जिसको अलग देश बनवाने में भारत की भूमिका रही है वो भी हमारे सैनिकों को मारकर जानवरों की तरह फेंकता है और हमारे नेता केवल रेड़ियों और न्यूज चैनलों पर धमकी देकर चुप हो जाते है। पाकिस्तान के सामने हम पिछले सात दशक से दब्बू बने हुए है।  मामला बाहरी या आंतरिक सुरक्षा का हो मगर, हर मामले को निपटारे से पहले लाभ हानि को देखा और परखा जाता है। देश के भीतर ही देखिये लगभग हर राज्य में कोई ना कोई बड़ी समस्या उबल रही है। उदासीनता या वोट बैंक की वजह से मामले को दशकों तक लटकाया जाता है। बाद में वही समस्या भयानक हो जाती है, तब जाकर मामले पर गौर किया जाता है. ।  
सवाल–  इसे जरा और स्पष्ट करे ?
जवाब– देश को आजाद हुए करीब करीब 70 साल होने वाले है।  इस दौरान 14 दफा लोकसभा चुनाव हुए.। देश में करीब 50 साल से भी अधिक समय तक एक ही पार्टी सत्ता में रही है, इसके बावजूद एक सभ्य  समाज और देश के विकास के लिए सबसे जरूरी पानी बिजली परिवहन सड़क शिक्षा सफाई और  स्वास्थ्य की सुविधाओं का भी पूरा इंतजाम नहीं किया जा सका है। गांव हो या शहर या फिर राजधानी दिल्ली हो या कोई भी महानगर,  हर जगह नागरिकों को इसकी कमी है। इंतजाम पर करोड़ों खर्च होने के बाद भी सुविधा का अभाव क्या दर्शाता है।. सरकारी स्कूल हो या कॉलेज,  सरकारी अस्पताल की बजाय लोग प्राईवेट अस्पताल में जाना ज्यादा पसंद करते है। काम के प्रति लापरवाही का मुख्य कारण एक कर्मचारी के मन से नौकरी के खतरे का भय का नहीं होना है. जिससे एक कर्मचारी बेखौफ होकर उदंड़ हो जाता है।  


सवाल -- चलिए मान लेते है कि हर जगह गलत और गलत ही हो रहा है, मगर शिक्षा नीति से कोई समाधान आपके पास है ?
जवाब – क्यों नहीं। भारतकी दोषपूर्ण शिक्षा नीति या प्रणाली से बेकारी अशांति हिंसा आतंकवाद और प्रदूषण की समस्या सिर उठा चुकी है. इनके सामने सरकार और सरकारी आलाकमानों ने समर्पण सा कर दिया है। इसको नियोजित तरीके से ही समाधान किया जा सकता है। बेकारी से समाज में अशांति का माहौल बढ़ता है। . अशंति में हिंसा आंतकवाद और तस्करी बढ़ जाती है। युवावर्ग को छोटे छोटे साधनों और स्वार्थो के लिए खरीदा जा रहा है। समाज में हर तरफ प्रदूषण का साम्राज्य है. हर तरह का प्रदूषण का बोलबाला है। यहां पर सबसे अच्छा समाधान है कि इन तमाम समस्याओं को आपस में मैत्री करा दी जाए। इससे तमाम समस्याओं में एक समन्वय संतुलन पैदा होगा। समाज में इको  फ्रेणडली इकोलॉजी पनपेगा। देश भर में नर्सरी बनाए जाए। पौधों की नर्सरी से समाज में पर्यावरणीय प्रबंधन को लेकर नयी दृष्टि का विकास होगा। कचरा प्रबंधन को लेकर समाज में नये उधोग का विकास होगा। इस तरह बेकारी अशांति हिंसा अपराध और लूटमार की बजाय कूड़ा सबके लिए रोजगार और कमाई का साधन बन जाएगा। इससे जैविक खाद्य बनाया जाएगा और देश भर में एक नए समाज की रूपरेखा प्रकट होगी। विदेशों में भी कचरा प्रबंधन को लेकर शोध होंगे। ( हंसते हुए ) पाकिस्तान को यदि इस कचरा प्रबंधन और जैविक खाद्य के बारे में पत्ता चल जाए तो आतंकवाद और सोने की तस्करी को छोड़कर इसके माध्यम से अपने देश की तकदीर बदलने में लग जाएगी.।
सवाल---, एक सौ मे 99 बेईमान, फिर भी अपना भारत महान, चारो तरफ जय जयकार है और आदमी यहां पर बेबस लाचार है। इस तरह की छवि और आम धारणा के बीच आप देश और देश के संचालकों नीति नियंताओं पर क्या राय रखते है ?
जवाब– देश एक गंभीर संकट के दौर में है। स्वार्थी शासकों लालची नौकरशाहों और अदूरदर्शी संचालकों की समाज निर्माण के प्रति उदासीन नीतियों से देश संचालित हो रहा है। देश को विकासशील देशों की कतार में लाने की ठोस पहल की बजाय नेताओं की जुबानी बयान से ही देश आगे बढ़ रहा है। देश की सुरक्षा को लेकर भी यहीं जुबानी जंग जारी है।  पूरी दुनियां हमारे देश के नेताओं और नौकरशाहों की कागजी बहादुरी को जान गयी है। सरकार  किसी समस्या को सुलझाने की बजाय उसे यथावत बनाए रखना चाहती है। देश को बेहतर बनाने की बजाय कोई आफत ना हो। बस इसी सावधानी से सरकार चलाते है। डर डर कर सरकार चलाने वाली पार्टियां करप्शन घोटालो और देश को बेचने वाली नीतियों को लागू करते समय तो नहीं डरती है पर देश हित के लिए कोई भी कड़ा फैसला लेते समय वोट बैंक का ख्याल करके लाचार हो जाती है। इस तरह के शासकों से देश को कभी आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी नहीं बनाया जा सकता।  
सवाल—इसका देश पर क्या असर पड़ता है ?
जवाब – इसका असर तो आप हर तरफ हर स्तर पर देख ही रहे है।. नेताओं के चरित्र को देखकर सत्ता की पूरी कमान आज नौकरशाहों और बाबूओं के हाथों में चली गयी है। इनके भीतर शासकों का डर खत्म हो गया है। यहां पर शासकों में ही नौकरशाहों और बाबूओं को लेकर डर व्याप्त है। सत्ता में रहने वाली हर पार्टी के नेता अपनी पसंद के ब्यूरोक्रेट को अपना सारथी बनाता है। मंत्री अपने सारथी नौकरशाह पर निर्भर रहते है और वो ब्यूरोक्रेट अपनी अंगूलियों पर नेता को नचाता है.। उसको लाभ पहुंचाता है और मंत्री के नाम पर अपने खजाने और ताकत को बढ़ाता रहता है। उसके लिए अपने मंत्री को खुश रखना और चापलूसी करके उस पर कायम अपने विश्वास को अटल बनाये ऱखना जरूरी है। हमारे नेताओं का नौकरशाहो पर निर्भर होने का ही नतीजा है, कि वे लोग एक दूसरे के रक्षक बनकर लूटमार में लगे है। सत्ता, नौकरशाहों और बाबूओं की तिकड़ी के एक साथ हो जाने का असर सरकारी सेवाओं साधनों और संस्थानों पर दिखने लगता है। खुलेआम करप्शन और सुविधा शुल्क के बगैर कामकाज नहीं हो पाता। लोग लाचार बेबस है फिर भी ज्यादातर सरकारी कर्मचारियो में डर संकोच नहीं रह गया है। लोगों की लाचारी पर भी सरकार और नौकरशाहों का ध्यान नहीं जाता।  
सवाल– क्या आप अपने विचारों और साधनों को लेकर सरकार से कभी वार्ता की है  ?
जवाब– एक बार नहीं कई बार, मगर सरकारी प्लानरों और विशेषज्ञों को इन चीजों में ना कोई दिलचस्पी है और ना ही वे इस तरह के समाधान को लेकर कोई उत्सहित है। देश की बेकारी से लेकर तमाम ज्वलंत मुद्दों पर भी नौकरशाहों की उदासीनता सबसे बड़ी कठिनाई बन जाती है।
सवाल– विदेशों में आपके विचारों और उपायों को लेकर क्या धारणा है  ?
जवाब -  मैं एक भारतीय हूं, लिहाजा मेरी पहली जिम्मेदारी और सपना अपने देश के लिए है। विदेशों में तो नवीन विचारों मौलिक उपायों को गंभीरता से सुना और लिया जाता है। वहां की ब्यूरोक्रेसी और पोलटिशियन को लगता है कि इससे देश का भला हो सकता है तो त्तत्काल एक कमेटी द्वारा उसका विशेलेषण किया जाता है और खर्चे से लेकर अंतिम निराकरण और लाभ घाटे का हिसाब लगाकर मान्यता दी जाती है , या ज्यादा लाभप्रद ना मानकर उसको रद्द कर दिया जाता है। इसके बावजूद दोनों ही हालात में छोटे स्तर पर एक पायलेट प्रोजेक्ट शुरू होता है। पूरी टीम की मेहनत और सलाह मशविरा के उपरांत चर्चा होती है। उसको ज्यादा लाभप्रद और बजट पर लेकर माथा पच्ची की जाती है। तब कहीं जाकर उसको देश में लागू किया जाए या लंबित रखा जाए इसका फैसला किया जाता है। यह सब हमारे देश में संभव नहीं है। हम नयेपन को तरजीह देने की अपेक्षा पीछे पीछे चलने के रास्ते को ज्यादा आरामदेह मानते है। यही वजह है कि देश की प्रतिभाएं देश से बाहर जाकर ही अपना सिक्का मनवा पाती है। देश में नाना प्रकार की दिक्कतों और उदासीनता से जूझने के बाद जब देश का टैलेंट बाहर जाकर नया काम करते हुए नाम कमाता है तब कहीं जाकर हमारा देश उसकी आरती उतारने और सम्मान देकर भारतीय होने पर गौरव मान लेती है। देश की प्रतिभाओं ने विदेशों में जाकर हर जगह अपना ड़ंका बजाया है, और बजा रहे है, मगर देश में उनको तमाम साधनों के ज्यादा समस्याओं से लड़ना पड़ता है। हमें नकलची बनने की बजाय टैंलेंट को मान सम्मान देना होगा । केवल जुबानी बयानबाजी या महज औपचारिकता के लिए बयान देने की बजाय सार्थक तरीके से काम करना होगा।
सवाल– क्या आपको यह मुमकिन लग रहा है ?
जवाब— नामुमकिन तो इस संसार में कुछ भी नहीं है, मगर उसके लिए स्वार्थ और दलगत भावना से उपर उठकर देश समाज और आम नागरिकों के लिए कुछ कर गुजरने की चाहत जरूरी है। हमारे यहां युवा आ तो रहे है, मगर नया कुछ करने की बजाय करप्शन में नया नया रिकार्ड बना रहे है। इस तरह के नैतिक मंद युवाओं से देश का तो कभी भला हो ही नहीं सकता। इसके लिए शिक्षा कार्यप्रणाली में आमूल परिवर्तन की नए सोच की और देश को एक समय के भीतर टारगेट मानकर काम करने की जरूरत है। फिर देश में इस समय युवाओं की तादाद काफी है, लिहाजा उनको अपने साथ लेकर कुछ करना होगा। पर्यावरण, खेती किसान और पैदावार को बचाना होगा। देश की नदियों को लेकर सरकार को गंभीर होना पड़ेगा। तभी पर्यावरण और देश की कृषि को नया जीवन मिलेगा। हर राज्य में किसानों की असेम्बली बनानी होगी तथा किसाल और उनकी समस्.ओं को मुख्यधारा में रखना पड़ेगा। विकास तो मानवीय बनाना होगा, मगर देश में विकास की नीति ही मानव विरोधी है।. पेड़ों पहाड़ों नदियों प्राकृतिक संसाधनों को खत्म करके हमारे देश में जो विकास का मॉडल है वो पूरी तरह सामाजिक नरसंहार जैसै है. पेयजल सहित जल जंगल और पर्यावरण की चिंता किए बगैर किया जा रहा है। यह कैसा विकास है जहां पर मानव ही सुरक्षित ना हो।  पर्यावरण शिक्षासे ही धरती माता को बचाया जा सकता है,  जिसके लिए युवाओं को आगे आना होगा।विश्व पर्यावरण महासम्मेलन के आयोजनों को पूरी दुनियां में लगातार करते रहना होगा, तभी इसके प्रति लोगों में जागरूकत्ता आएगी.
सवाल–  लोकतंत्र की धारणा है कि यह जनता द्वारा जनता की जनता के लिए बनाई गई सरकार होती है , और इसमें सबसे बड़ी भूमिका एक जनता की ही होती है ?    
जवाब – आपका कहना एकदम सही है। देखने में तो यह सत्ता की एक अनोखी परम्परा सी दिखती है, मगर लोकतंत्र वास्तव में एक समय के बाद भीड़तंत्र या अराजक आपराधिक चेहरों की समूह बन जाती है।  तमाम दलों को अपने वोटरों के रूख और समर्थन का पत्ता होता है। ज्यादातर पार्टियां पूरे देश को अपना मानने की बजाय एक खास वर्ग या समूह को ही सत्ता की पूंजी मान लेती है। यहां पर सोच का दायरा सिकुड़ जाता है। छोटे छोटे दलों का एक महाजनी चेहरा प्रकट होता है जो भले ही देश की बात करते हो, मगर उनका पूरा ध्यान केवल अपने इलाके अपने वोट बैंक और अपने हितों पर रहता है। और वे सत्ता में ज्यादा से ज्याद ब्लैकमेल करके अपनी मांगे मनवाने पर ध्यान देते हैं।
सवाल– लगता है कि हमारी बातचीत का पूरा लाईन ही चेंज हो गया है । कहां तो बातचीत शिक्षा से शुरू होनी थी और हमलोग कहां आकर ठिठक गए ?  
जवाब – नहीं हमें तो लग रहा है कि बातचीत पटरी पर है, क्योंकि जब जीवन बचेगा समाज है और समाज की मुख्यधारा में आशाओं और विश्वास की संजीवनी बची रहेगी, तब तक लोगों में और समाज में संघर्ष का माद्दा भी बना रहेगा। शिक्षा तो समाज और लोगों के उत्थान की केंद्र बिंदू है। मगर आज तो समाज और इसके मुख्य स्त्रोतो को बचाने की जरूरत है। हमारे यहां की नदियां सूख चली है. देश के 90 फीसदी तालाब झील और गांवो के पोखर सूख गए है। जलस्तर पाताल में चले जाने से हैंड़पंप और कुंए बेकार हो गए। शहरी कचरा नदी के किनारे के शहरों और बस्तियों को लील रही है। जीवन दायिनी होने की बजाय नदियां मानव विनाशकारी हो गयी है। पानी की कमी को पूरा करने के लिए गंदे पानी को रीट्रीट करके गंदे पानी को ही शोधित पेयजल के तौर पर दिया जा रहा है। खाने के नाम पर हमलोग जहर खाने को लाचार है.। खेतो में खाद और कीटनाशक दवाईयों के नाम पर पेस्टीसाईज का जम कर छिड़काव हो रहे है, जिससे खेतों की उर्वरा क्षमता पर ही असर पड़ रहा है। दवाईयों के नाम पर जिस तरह मानव सेहत से  खिलवाड़ हो रहा है। बिजली की कमी को पूरा करने के लिए बड़ी बड़ी नदियों के प्रवाह को रोका जा रहा है, तो पहाड़ों को काटा जा रहा है । बिजली के नाम पर भूकंप जलप्रलय और विभीषिका को हमारे प्लानर और इंजीनियर न्यौता दे रहे हैं। उत्तराखंड विनाश के भयानक तांड़व से भी कुछ  सीखने के लिए हम तैयार नहीं है। है। ।  

बेव पत्रकारिता के मायने/ प्रियदर्शन

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लेखक- प्रियदर्शन

प्रस्तुति- अमन कुमार अमन



वेब पत्रकारिता ने शायद मान लिया है कि उसे कोई गंभीरता से लेने वाला नहीं है और वह एक अधपढ़े और संस्कृतिविहीन वर्ग की कुंठाओं को शांत करने का सामान भर है
कई सम्मान प्राप्त कर चुकी युवा पत्रकार प्रियंका दुबे इस शनिवार को एक हिंदी अख़बार की वेबसाइट पर अपनी तस्वीर देखकर हैरान रह गईं. वेबसाइट पर एक चटपटी सी ख़बर छपी थी कि पति की पिटाई देखकर पत्नी ने कुछ ऐसा किया कि सब शर्मिंदा हो उठे. जाहिर है, पत्नी की इस तथाकथित ‘शर्मिंदा’ कर देने वाली हरकत की कोई तस्वीर नहीं थी और इसलिए संपादकों ने इंटरनेट की मदद ली और एक ऐसी लड़की का फोटो उठा लिया जिसका इस वाकये से दूरदराज का भी वास्ता नहीं था.
दिलचस्प यह है कि इस वेबसाइट की ख़बर एक टीवी चैनल की वेबसाइट ने ज्यों की त्यों उठा ली और वहां भी यही तस्वीर चिपका दी. चूंकि संपादकों की फिक्र बस एक मसालेदार ख़बर पेश करने की थी इसलिए उन्हें इस बात की कतई परवाह नहीं थी कि ख़बर के साथ फोटो किसका जा रहा है और कहां से लिया गया है.
टीवी के फॉर्मेट की एक सीमा है कि वहां किसी 'खबर'के साथ सिर्फ न्यूज चैनल ही खेल कर सकता है. लेकिन वेब पर मौजूद किसी भी सामग्री को एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय होने की सुविधा है.
प्रियंका दुबे ने दोनों वेबसाइट्स को फोन मिलाया और वहां लंबी बहस - और कानूनी कार्रवाई की चेतावनी - के बाद वे अपनी तस्वीर हटवाने में कामयाब रहीं. लेकिन उन्होंने बताया कि दोनों जगहों पर किसी को अपनी गलती का एहसास ही नहीं था. उनसे कहा गया कि उनका चेहरा नहीं, सिर्फ पीठ दिख रही है, इसलिए कोई फ़र्क नहीं पड़ता. अगर उन दोनों टीमों को यह एहसास नहीं हुआ होता कि अनजाने में उन्होंने अपनी ही बिरादरी की एक सदस्य की - यानी एक पत्रकार की - तस्वीर लगा डाली है तो शायद दूसरी किसी लड़की की वे परवाह भी नहीं करते.
यह बस एक मिसाल है कि इन दिनों हम कैसी हड़बड़ाई हुई पत्रकारिता कर रहे हैं. यह हड़बड़ी क्या सिर्फ डेडलाइन पूरी करने के दबाव का नतीजा है या कुछ और भी है? इस सवाल पर विचार करें तो हमारे सामने इस छोटी सी, मामूली सी लगने वाली ख़बर के कहीं ज़्यादा संजीदा पहलू खुलने लगते हैं. कहा जा रहा है कि ऑनलाइन पत्रकारिता आने वाले कल की पत्रकारिता है जिसमें कंप्यूटर से मोबाइल तक, छोटे-छोटे न्यूज़ कैप्सूल और वीडियो क्लिप सबसे महत्त्वपूर्ण होने वाले हैं. इसे ध्यान में रखते हुए सारे अख़बारों और टीवी चैनलों ने अब तक उपेक्षित रहे अपने ऑनलाइन माध्यमों में अचानक ही पैसा लगाना शुरू कर किया है. दुर्भाग्य से हिंदी भाषी वेब पत्रकारिता के बड़ा होने के इस दौर में सफल वेब पत्रकारिता की इकलौती कसौटी ‘हिट्स’ जुटाना बन गया है.
यह खेल टीवी चैनलों की टीआरपी रेस से ज़्यादा ख़तरनाक है, क्योंकि टीवी के फॉर्मेट की एक सीमा है कि वहां किसी 'खबर'के साथ सिर्फ न्यूज चैनल ही खेल कर सकता है. लेकिन वेब पर मौजूद किसी भी सामग्री को एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय होने की सुविधा है. इस बहुलता का सम्मान कर, इसे सही तरीके से इस्तेमाल करने की जगह हिंदी वेब पत्रकारिता क्या कर रही है? ज़्यादातर वेबसाइट्स का एक कोना बहुत ही घिनौने ढंग से सेक्स की कुत्सित चर्चा में लीन मिलता है और उनके मुख्य पन्नों पर भी जहां-तहां ऐसी ही छौंक दिखाई पड़ती है.
ख़बरों को चटपटा बनाने का खेल धीरे-धीरे संपादकीय नीति का हिस्सा हो बन गया है जिसके पीछे यह नज़रिया काम कर रहा है कि अगर आप किसी विषय को गंभीरता से लेंगे तो पाठक भाग जाएगा.
अनजाने में ही हम पाते हैं कि यह पूरी पत्रकारिता अपने पूरे चरित्र में भयानक स्त्री विरोधी और संस्कृति विरोधी हो उठी है. हिट्स जुटाने के लिए ख़बरों को चटपटा बनाने का खेल धीरे-धीरे संपादकीय नीति का हिस्सा हो बन गया है जिसके पीछे यह नज़रिया काम कर रहा है कि अगर आप किसी विषय को गंभीरता से लेंगे तो पाठक भाग जाएगा. यानी वहां गंभीर विषयों का भी तमाशा ही बनाया जा सकता है.
बेशक, यह बीमारी अख़बारों और टीवी चैनलों में भी दिखने लगी है, लेकिन वेब तो इस पर कुरबान है. उसने जैसे मान लिया है कि उसे कोई गंभीरता से देखने-पढ़ने वाला नहीं है, कि वह एक अधपढ़े, खा-पीकर अघाए और संस्कृतिविहीन वर्ग की कुंठाओं को शांत करने का सामान है जो अपने मोबाइल पर चटपटी लड़ाइयां और वे तस्वीरें देखता रहता है जो सेक्स शिक्षा के नाम पर उसे परोसी जा रही हैं. इस क्रम में किसी अनजान लड़की की पीठ दिख कहीं दिख भी गई तो क्या हुआ?
इस तरफ ध्यान खींचना इसलिए ज़रूरी है कि आने वाला दौर इसी पत्रकारिता का होना है. अगर इसकी कमान गैरपेशेवर, मूलतः प्रतिगामी और स्त्री विरोधी लोगों के हाथों में रही तो अभी अपने चुटकुलों में मगन तथाकथित वेब पाठक अपने लिए नया शगल मांगेगा और इसके जवाब में जब यह मीडिया कोई नया नशा मुहैया कराना चाहेगा तो उसके कहीं ज़्यादा विकृत और तकलीफदेह रूप सामने आने लगेंगे.
आप अपनी राय हमें  इस लिंक  या mailus@satyagrah.com के जरिये भेज सकते हैं.

हिन्दी पुस्तकों की सूची

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प्रस्तुति-  स्वामी शऱण

सुभाषित सहस्त्र

Article 1

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कार्टून और only cartoon

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 प्रस्तुति-  अखौरी प्रमोद 

"कार्टून"श्रेणी में पृष्ठ

इस श्रेणी में निम्नलिखित 54 पृष्ठ हैं, कुल पृष्ठ 54

दिक्चालन सूची

भारतीय संस्कृति

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प्रस्तुति- स्वामी शरण

"भारतीय संस्कृति"श्रेणी में पृष्ठ

इस श्रेणी में निम्नलिखित 84 पृष्ठ हैं, कुल पृष्ठ 84

कैलेंडर की पहेली

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प्रस्तुति - स्वामी शरण

*यह कैसा नया वर्ष* ❓🤔

*एक जनवरी को क्या नया हो रहा है ?* 🤔
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*👉🏻 न ऋतु बदली.. न मौसम*
*👉🏻 न कक्षा बदली... न सत्र*
*👉🏻 न फसल बदली...न खेती*
*👉🏻 न पेड़ पौधों की रंगत*
*👉🏻 न सूर्य चाँद सितारों की दिशा*
*👉🏻 ना ही नक्षत्र।।*

*एक जनवरी आने से पहले ही सब नववर्ष की बधाई देने लगते हैं। मानो कितना बड़ा पर्व है।नया केवल एक दिन ही नही होता.. कुछ दिन तो नई अनुभूति होनी ही चाहिए। आखिर हमारा देश त्योहारों का देश है।*

*ईस्वी संवत का नया साल एक जनवरी को और भारतीय नववर्ष (विक्रमी संवत) चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है।* *आईये देखते हैं दोनों का तुलनात्मक अंतर:*

*1. प्रकृति-*
एक जनवरी को कोई अंतर नही जैसा दिसम्बर वैसी जनवरी..
*👌चैत्र मास में चारो तरफ फूल खिल जाते हैं, पेड़ो पर नए पत्ते आ जाते हैं। चारो तरफ हरियाली मानो प्रकृति नया साल मना रही हो I*

*2. वस्त्र-*
दिसम्बर और जनवरी में वही वस्त्र, कंबल, रजाई, ठिठुरते हाथ पैर..
*👌 चैत्र मास में सर्दी जा रही होती है, गर्मी का आगमन होने जा रहा होता है I*

*3. विद्यालयो का नया सत्र-*
दिसंबर जनवरी वही कक्षा कुछ नया नहीं..
*👌जबकि मार्च अप्रैल में स्कूलो का रिजल्ट आता है नई कक्षा नया सत्र यानि विद्यालयों में नया साल I*

*4. नया वित्तीय वर्ष-*
दिसम्बर-जनबरी में कोई खातो की क्लोजिंग नही होती..
*👌 जबकि 31 मार्च को बैंको की (audit) कलोसिंग होती है नए वही खाते खोले जाते है I सरकार का भी नया सत्र शुरू होता है I*

*5. कलैण्डर-*
जनवरी में नया कलैण्डर आता है..
*👌चैत्र में नया पंचांग आता है I उसी से सभी भारतीय पर्व, विवाह और अन्य महूर्त देखे जाते हैं I इसके बिना हिन्दू समाज जीवन की कल्पना भी नही कर सकता इतना महत्वपूर्ण है ये कैलेंडर यानि पंचांग I*

*6. किसानो का नया साल-*
दिसंबर-जनवरी में खेतो में वही फसल होती है..
*👌जबकि मार्च-अप्रैल में फसल कटती है नया अनाज घर में आता है तो किसानो का उत्साह बढ़ जाता है I*

*7. पर्व मनाने की विधि-*
31 दिसम्बर की रात नए साल के स्वागत के लिए लोग डिस्को पार्टीज पे जाते हैं, जमकर शराब पीते हैं, हंगामा करते हैं, रात को पीकर गाड़ी चलाने से दुर्घटना की सम्भावना, छेड़छाड़ जैसी वारदात, पुलिस प्रशासन बेहाल और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का विनाश होता है..
*👌जबकि भारतीय नववर्ष व्रत से शुरू होता है पहला नवरात्र होता है घर घर मे माता रानी की पूजा होती है शुद्ध सात्विक वातावरण बनता है I*

*8. ऐतिहासिक महत्त्व-*
1जनवरी का कोई ऐतेहासिक महत्व नही है..
*👌जबकि चैत्र प्रतिपदा के दिन महाराज विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत् की शुरुआत, भगवान झूलेलाल का जन्म, नवरात्रे प्रारंम्भ, ब्रहम्मा जी द्वारा सृष्टि की रचना इत्यादि का संबंध इस दिन से है I*

*9 अंग्रेजी कलेंडर की तारीख और अंग्रेज मानसिकता के लोगों के अलावा कुछ नही बदला..
*👌अपना नव संवत् ही नया साल है I*

*👌जब ब्रह्माण्ड से लेकर सूर्य चाँद की दिशा, मौसम, फसल, कक्षा, नक्षत्र, पौधों की नई पत्तिया, किसान की नई फसल, विद्यार्थी की नई कक्षा, मनुष्य में नया रक्त संचरण आदि परिवर्तन होते है। जो विज्ञान आधारित है I*

*💐अपनी संस्कृति और विज्ञान आधारित भारतीय काल गणना को पहचाने। स्वयं सोचे की क्यों मनाये हम एक जनवरी को नया वर्ष..?*

*"केवल कैलेंडर बदलें.. अपनी संस्कृति नहीं"*

जानने-समझने की जरूरत

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 ऐतिहासिक तथ्य

 1. खगोल विज्ञान के जनक: आर्यभट्ट;  कार्य - आर्यभट्टीयम् ।

 2. ज्योतिष के जनक: वराहमिहिर, कार्य;  पंचसिद्धांतिका, बृहत् होराशास्त्र ।

 3. सर्जरी के जनक: चरक और सुश्रुत, कार्य: चरकसंहिता व अन्य ।

 4. शरीर रचना विज्ञान  (एनाटॉमी) के जनक: पतंजलि, कार्य: योगसूत्र ।

 5. अर्थशास्त्र के जनक: चाणक्य, कार्य: अर्थशास्त्र ।

 6. परमाणु सिद्धांत के जनक: ऋषि कणाद, कार्य: कणाद सूत्र ।

 7. वास्तुकला के जनक : विश्वकर्मा, कार्य: सूर्यसिद्धांतिका ।

 8. वायुगति शास्त्र (एयरोस्पेस प्रौद्योगिकी) के जनक : भारद्वाज ऋषि, कार्य : विमान शास्त्र ।

 9. चिकित्सा के जनक: धन्वंतरि, पहले आयुर्वेद का प्रचार किया ।

 10. व्याकरण के जनक: पाणिनि, कार्य: व्याकरण दीपिका, अष्टाध्यायी ।

 11. नाट्यशास्त्र का जनक: भरतमुनि, कार्य: नाट्यशास्त्र ।

 12. काव्य परम्परा के जनक (साहित्य): कृष्ण द्वैपायन (वेदव्यास);  कार्य - महाभारत, अष्टादशा पुराण ।

 13. नाट्यलेखन के जनक: कालिदास, कार्य: मेघदूतम, रघुवंशम, कुमारसम्भवम आदि।

 14. गणित के जनक: भास्कर द्वितीय, कार्य: लीलावती ।

 15. युद्ध कला (वारफेयर और वेपनरी )के जनक: परशुराम, कार्य: कलरीपायतु व सुलबा सूत्र ।

 16. कहानी लेखन के जनक: विष्णु शर्मा, कार्य : पंचतंत्र ।

 17. राजनीति के जनक : चाणक्य, कार्य : अर्थशास्त्र व नीतिशास्त्र ।

 18. कामदर्शन (सेकसुअल एनेटोमी) का जनक: वात्स्यायन, कार्य: कामसूत्र ।

 19. दर्शनशास्त्र के जनक : भगवान श्रीकृष्ण, कार्य: श्रीमदभगवदगीता ।

 20. अद्वैतवाद के जनक: आदि गुरु शंकराचार्य, कार्य: टीका (भाष्य), पंचदशी, विवेकचूडामणि आदि ।

 21. रसायन शास्त्र (ऐल्कमि) के जनक: नागार्जुन, कार्य : प्रज्ञापारमिता सूत्र ।

22. ब्रह्मांड विज्ञान के जनक : कपिल ऋषि, कार्य : सांख्यसूत्र ।

 उपरोक्त सूची केवल एक अंश मात्र है जैसे गागर में सागर ।
इस जानकारी को सबके साथ साझा करने में हमें गर्व है कि हमारे पूर्वजों ने कितना महान कार्य किया ।

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