‘वे दिन वे लोग’-
हर बड़ी घटना के गवाह रहे त्रिलोक ‘दिनमान’ दीप
शायद पहली बार दिनमान को कनॉट प्लेस की सेंट्रल न्यूज एजेंसी (सीएनए) में 1980 में देखा था। उसके पन्ने पलटे। सब कुछ गंभीर लगा। वही था दिनमान से पहला साक्षात्कार । मैं सीएनए से स्पोर्ट्सवीक, स्पोर्ट्स स्टार या माधुरी लेने जाता था। उसके बाद मिन्टो रोड में बनवारी जी का परिवार शिफ्ट कर गया। उनके घर आने-जाने लगा। वहां पर दिनमान मिलने लगी। दिनमान के पुराने अँक भी पढ़ने लगा। दिनमान को पढ़ने के बाद देश-दुनिया को जानने समझने में मदद मिलने लगी। सर्वेशवर दयाल सक्सेना जी , त्रिलोक दीप जी , प्रयाग शुक्ल जी, बनवारी भाई साहब देखते-देखते मेरे प्रिय लेखक बनते चले गए। दिल्ली में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगों पर बहुत से पत्रकारों ने लिखा। पर राहुल बेदी ( इंडियन एक्सप्रेस), त्रिलोक दीप (दिनमान) और आलोक तोमर ( जनसत्ता) की उन आँखों देखी रिपोर्टों को पढ़ने के बाद ये सब मेरे नायक बन चुके थे।
इन सबको पढ़-पढ़कर अपने मन में भी पत्रकार बनने की इच्छा जाग चुकी थी। संयोग से डीयू के दिनों में ही मित्र रमण नंदा ने संतोष तिवारी जी से मिलवाया। संतोष जी दिनमान में आए-आए थे। मैं उनके दफ्तर में गया तो वहां पर मैंने संतोष जी से पहला सवाल पूछा- क्या त्रिलोक दीप जी बैठे हैं? इससे पहले कि संतोष जी जवाब देते जसविंदर ( जस्सी जी) ने इशारा करते हुए बताया कि वे टाइप करने वाले सज्जन ही त्रिलोक दीप हैं। पहले सोचा कि उनका आटोग्राफ ले लूं। पर उनकी धीर- गंभीर पर्सनेल्टी को देखकर हिम्मत जवाब दे गई।
इस बीच मैं भी नाम –निहाद पत्रकार बन चुका था। त्रिलोक दीप को दिनमान के बाद संडे मेल में पढ़ रहा था। वे थोक के भाव से लिख रहे थे। कुछ माह पहले श्री शंभूनाथ शुक्ल जी के माद्यम से उनसे परिचय हुआ। त्रिलोक जी ने अपनी ताजा किताब ‘वे दिन वे लोग पढ़ने’ को दी। यकीन मानिए कि 194 पेजों की किताब दो-ढाई दिनों में पढ़ गया। गजब का प्रवाह है।
त्रिलोक दीप जी ने 1965 से लेकर 1989 की लंबी पारी दिनमान में खेली। वे अज्ञेय जी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मनोहर श्याम जोशी, नंदन जी की शख्सियतों पर विस्तार से लिखते। त्रिलोक दीप कहते हैं कि मनोहर श्याम जोशी हेडिंग लगाने में बेजोड़ थे। दिनमान की मेन स्टोरीज के शीर्षक वे ही लगाते थे। पंजाब के मुख्यमंत्री कैंरो के हत्यारे सुच्चा सिंह को गिरफ्तार किया गया तो जोशी जी ने हैडिंग लगाया- ‘सुच्चा सिंह हाजिर हो’। उनकी इस किताब में गजब की बेबाकी मिलती है। पर लगता है कि वे नंदन जी को लेकर अपने दिल की बात कहने से बचते रहे।
त्रिलोक दीप जी को मैं कुलदीप नैयर का गुटका संस्करण या हिन्दी का कुलदीप नैयर कहना चाहूंगा। वे विगत पचास वर्षों की हरेक बड़ी घटना को कवर कर रहे हैं। इसमें भारत-पाक युद्ध से लेकर लोकसभा चुनाव, पंजाब में आतंकवाद को दौर शामिल है। वे महत्वपूर्ण पात्रों से मिल रहे हैं। वे खान अब्दुल गफ्फार खान का इंटरव्यू ले रहे हैं, नेहरु जी को संसद में बोलते हुए सुन रहे हैं, अटल जी से लेकर इंद्र कुमार गुजराल के परिचित हैं, वे डा. लोहिया और मधु लिमये जी को जानते हैं।
दिनमान को ज्वाइन करने से पहले वे लोकसभा में लगभग दस साल तक काम करते रहे। उस दौरान उनकी हरिवंश राय बच्चन, महादेवी वर्मा, दिनकर जी से भी मित्रता रही। वे घुमक्कड़ भी है। वे देश-दुनिया को कई बार नाप चुके हैं।
अंत में एक बात और। उनसे बातचीत हुई तो पता चला कि वे रावलपिंड़ी से हैं। उस शहर में मेरे बुजुर्ग 1896 में बसे गए थे। त्रिलोक दीप जी रावलपिंडी के उसी डेनिस हाई स्कूल में पढ़े जिसमें मेरे पापा जी डा.गोपाल कृष्ण शुक्ला भी पढ़े। देश के विभाजन के बाद उनका परिवार रायपुर में बसा, मेरा दिल्ली में।