लाचार!
(लघुकथा)
लॉकडाउन में कोई ऐसा दिन नहीं गया जब घर की सफ़ाई करते समय वो इस तरह न बड़बड़ाती हों-देखो तो डेढ़ सौ गज में बना मकान,हमारे बच्चे यहाँ थे तो कितना छोटा लगता था ,अब कितना बड़ा हो गया है .कमर टूट रही है मेरी झाड़ू लगाते लगाते.
उनके पति सहायक बने पीछे पीछे चलते,फ़र्नीचर पर जमी धूल साफ़ करते,कुर्सी मेज़ खिसकाते (इस प्रकिया में दो बार पैर का अंगूठा घायल कर बैठे) वह हरबार एक ही उत्तर देते-घर बड़ा नहीं हो गया है,बच्चों के जाने से ख़ाली हो गया है और तुम बूढ़ी भी तो हो गई हो .
एक सुबह फिर यह संवाद चला.बस अंतर इतना रहा कि पति का उत्तर सुन कर वो बिलख उठीं-हाँ बूढ़ी हो गईं हूँ मैं,नहीं होता काम मुझसे और तो और यह कोरोना भी हम बूढ़ों को अधिक डराता है .
पति बोले -अपनी सुरक्षा के लिए यही ठीक है कि बाहर से कोई न आए.
वो कातर भाव से बोलीं -हे गोपाला ! तू भी नहीं सुनता.
पति ने व्यंग किया -बेचारा गोपाला हर दिन किस किस की पुकार सुनें.
तभी मानो चमत्कार हुआ ,दरवाज़े की घंटी घनघना उठी.दोनों ने एक दूसरे को संशकित होकर देखा.
उन्होंने दरवाजा खोला ,सामने चम्पा खड़ी थी.अपने दुपट्टे से सिर और मुँह ढ़के ,बस आँख चमक रही थीं .
चम्पा बोली -अम्मा जी! दो महीने हो गए घर बैठे .बच्चे भूखे मर जाएँगे .अब तो लॉकडाउन भी खुल रहा है .काम पर आ जाऊँ ?
उनके पति दृष्टि चुरा कर चुप बैठे रहे .
वो बोलीं-तू भूख से मर रही है,मैं काम कर कर के .जब मरना ही है तो कैसे भी मरें मरेंगे ही .जा लॉन के नल पर साबुन से हाथ पैर धोकर अंदर आ.
चम्पा का शरीर उमंग से भर गया .साबुन से रगड़ रगड़ कर हाथ पैर धोए ,अपनी चप्पल उतार कर उनके द्वारा रखी गई चप्पल पहनीं और झाड़ू लेकर काम में जुट गई.
रश्मि पाठक