एक जीवन यात्रा - जन संचार की राह पर-1
मैं पत्रकार कैसे बना? जब मैं इस प्रश्नं का उत्त र ढूंढने के लिए अपनी अतीत की गलियों में प्रवेश करता हूं तो याद आती है, अजमेर (राजस्थानन) के रामगंज बाजार में स्थित मैथिल ब्राह्मण पाठशाला। मैंने वहां से वर्ष 1953 के मार्च महीने में आठवीं कक्षा पास की थी, 13 वर्ष की उम्र में। वहां से विद्यालय पत्रिका नहीं निकलती थी। उसी साल सेठ गोरखराम राम प्रताप चमडि़या इंटर कॉलेज में नवीं कक्षा में भर्ती होने के लिए अपने गृहनगर फतेहपुर शेखावाटी लौट आया। वहां कॉलेज की वार्षिक पत्रिका निकलती थी।
अपने गृहनगर में मुझे दो सुविधाएं मिलीं। पहली, दो पुस्तेकालयों का लाभ। दूसरी, अपने दो अध्याापकों का मार्ग दर्शन। इन दोनों पुस्तककालयों में जयपुर से प्रकाशित होनेवाले दैनिक समाचार पत्र और साप्तारहिक पत्रिकाएं आती थीं। हमारे कॉलेज के पुस्तककालय में भी शायद दैनिक समाचार पत्र आते थे। उन दिनों जयपुर से 'लोकवाणी', 'राष्ट्रददूत'और 'नवयुग'छपते थे। 'राष्ट्र दूत'वैद्यनाथ आयुर्वेद भवन वालों का था। 'नवयुग'बाद में मुख्य मंत्री बने श्री मोहनलाल सुखाडि़या का था। मैं इस बात को समझ गया था कि समाचार पत्र व्यालपक जनसमुदाय पर असर डालते हैं, इसलिए पत्रकारों के हाथ में जनता की शक्ति होती है। वे किसी से भी मिल सकते हैं, राजनेता, बड़े सरकारी अधिकारी, उद्योगपति, मजदूर नेता, संगीतकार, खिलाड़ी, अभिनेता, कलाकार। इसलिए उनके बड़े मजे रहते हैं। मगर मैं यह बाद में महसूस कर पाया कि यह कड़ी मेहनत, सतत अध्यरवसाय और खतरे वाला व्यावसाय है। यह बात अलग है कि जो एक बार पत्रकार बन गया, वह बाद में कोई और धंधा नहीं कर सकता। संपादकीय विभाग में बैठा हर पत्रकार इस गुमान में रहता है कि दुनिया दो ही लोग चलाते हैं। एक भगवान, दूसरा पत्रकार। भगवान भी कई बार फेल हो जाता है, मगर पत्रकार नहीं। हर चीज में उसे घोटाला लगता है। दुनिया की हर घटना की सूचना सबसे पहले दैनिक समाचार पत्रों, संवाद समितियों, रेडियो केन्द्रों और टी.वी. स्टू डियो में पहुंचती है।
मेरे गृहनगर के इंटर कॉलेज के दो अध्यांपक मुझे वक्ता् बनने के लिए प्रोत्सानहित करते थें। हिम्मंत करके मैंने पत्रकार बनने की इच्छाल एक एक करके अपने इन दोनों अध्यातपकों को बताई। हिन्दीं के अध्याकपक पंडित रामस्वपरूप शर्मा ने कहा कि तुम्हाकरी हिन्दीन अच्छी् है। मुझे रोज कुछ लिखकर दिखाया करो। मैं नवीं कक्षा में 'सूरज उगने ही वाला है'की जगह लिखता था, 'भगवान भास्क र देदीप्युमान होने ही वाले थे।'इसके बाद मैंने कॉलेज की डिबेटिंग सोसाइटी के प्रभारी श्री रामगोपाल वर्मा को पत्रकार बनने की इच्छाइ बताई। उन्हों ने कहा- कुछ लिखा हुआ दिखाओ। मैंने 'भगवान भास्कबर देदीप्यइमान होने ही वाले थे'वाला लेख उनके हाथ में थमा दिया। उन्होंेने कहा- ऐसी भाषा कौन बोलता है? पहले बताओ अखबार पढ़ता कौन है? अखबार स्कूभलों और कॉलेजों के शिक्षकों से लेकर स्टे शन के प्लेअटफार्म पर अगली गाड़ी का इंतजार करता हुआ कुली या दुकानों पर ग्राहकों के आने तक दुकानदार पढ़ते हैं। इसलिए वही भाषा लिखनी चाहिए जिसे तीनों तरह के लोग समझ सकें। इसलिए एक काम करो। एक नोटबुक, दो पेंशिल और एक रबड़ लेकर एक दिन स्टे शन जाओ, दूसरे दिन बस स्टैंऔड और तीसरे दिन बाजार जाओ। फिर ध्या्न से सुनो और नोट करो कि वे क्यास भाषा बोलते हैं। उनके बोले गए शब्दोंय के आधार पर यह लेख फिर लिखो और मुझे दिखाओ। कॉलेज के पुस्तंकालय में रोज बैठकर कोई न कोई अखबार पढ़ो। पूरा का पूरा। रोज अखबार से नये शब्द छांटों। संपादकीय पृष्ठप ध्यापन से पढो। अखबार एक तरफ रख दो और उस संपादकीय के विषय पर खुद कुछ लिखो। कल मेरे पास दोनों चीजें लाना- छपा हुआ संपादकीय और उसी विषय पर तुम्हादरा लिखा हुआ लेख। संपादकीय रोज नये विषय पर लिखा जाता है, इसलिए तुम्हेंआ रोज नये विषय की जानकारी मिलेगी। इससे तुम्हें भाषण लिखने में भी मदद मिलेगी। जब पढ़ोगे तभी बोलोगे या लिखोगे। इसलिए रोज अखबार पढ़ना जरूरी है। कोशिश करो कि अलग अलग देशों के बारे में पढ़ सको। यह आदत डालो कि रोज अलग अलग विषय की किताब पढ़नी है। कभी साहित्यस की, कभी कला की, कभी राजनीति की, कभी खेलों की। तुम्हेंत किताब घर ले जानी हो तो मुझे बताना, मैं दिला दूंगा। मगर पढ़ो तो सही। मैंने मन ही मन कहा- गुरू बिन ज्ञान नहीं।
दूसरे दिन मैं अखबार और अपना लिखा हुआ संपादकीय लेकर श्री रामगोपाल वर्मा से मिला। उन्होंखने मेरे लिखे हुए संपादकीय को सुधारा और कहा- कल अखबार के पहले पृष्ठं पर ऐसे दस शब्दद ढूंढ कर लाना जिनका अर्थ तुम नहीं जानते। परसों अखबार के पहले पृष्ठप पर छपे हुए देशों के नामों की सूची बनाकर लाना। उसके बाद पहले पृष्ठे पर छपे हुए भारत के राज्यों की सूची बनाना। ऐसा हर पृष्ठद पर करना है। इसके बाद कॉलेज की वार्षिक पत्रिका में छपने लायक लेख तैयार करो। अब मेरे जैसे विज्ञान के विद्यार्थी के समझ में आने लगा कि पत्रकार बनने में कड़ी मेहनत लगती है।
वर्मा जी कड़े अनुशासन वाले थे। जिस दिन मैं उन्हेंत नजर नहीं आता था किसी न किसी को भेजकर मुझे ढूंढवाते। बोलते- जो काम कल बताया था, वह किया। नहीं किया तो अभी पुस्तेकालय में जाओ और करके मुझे दिखाओ। वह मुझमें पत्रकारिता के बीज डालने के लिए तुल गए थे। इस बीच कॉलेज की वार्षिक पत्रिका का वह अंक छपकर आ गया, जिसमें मेरा पहला लेख शामिल किया गया था। मुझे एक नये स्वआतंत्र पत्रकार के पैदा होने की खुशी हुई।
मुद्रित माध्याम के पहले मैं मौखिक संचार यानी भाषण कला से उसी दिन जुड़ गया था, जिस दिन मैंने आजादी के बाद बने राजस्थाान के पहले मुख्य मंत्री श्री हीरालाल शास्त्री के स्वाेगत में लगभग आठ साल की उम्र में जांगिड वैदिक विद्यालय के वार्षिकोत्सीव में भाषण दिया था।
कई कॉलेजों से वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेने के निमंत्रण आने के कारण पत्रकारिता का मेरा प्रशिक्षण कार्यक्रम रूक गया। हर कॉजेल में हमारी संस्थात का प्रतिनिधित्व् करने के लिए वर्मा जी मुझे ही भेजते थें। मेरे साथ हर बार कोई नया साथी होता था। थोड़ा हट्टा कट्टा, जो दो विस्त र रेलवे स्टेीशन से तांगा या स्कूाटर स्टैंाड तक ढो सके। कुली का खर्चा नहीं मिलता था इसलिए मजबूरी थी। वर्ष 1955 से मार्च 1957 तक अपने गृहनगर में पत्रकारिता की बारह खड़ी सीख कर मैंने महाराजा कॉलेज, जयपुर में बी.एस.सी. (प्रथम वर्ष) में प्रवेश ले लिया।
मेरे गृहनगर में पत्रकारिता की बारह खड़ी सिखाने वाले मेरे अध्याेपक वर्मा जी की तरह मैंने भी 12 दिसम्बीर 1979 को भारत में पहला और एकमात्र स्नारतकोत्त1र हिन्दीब पत्रकारिता विभाग खोलने के बाद एक छात्र को पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेाशन के सामने की पटरी पर रात भर सुलाकर पत्रकारिता का 'पहलवान'बनाया। मामला यों था कि बिहार के छोटे से गांव सहरसी थाना अलोली जिला खगडि़या का एक नौजवान मनोरंजन भारती हमारे भारतीय जन संचार संस्था़न, जवाहरलाल नहरू विश्वतविद्यालय नया परिसर, नई दिल्लीा में हिन्दीं पत्रकारिता पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए आया। सहमते हुए मुझसे उसने पूछा-सर! सर क्या मैं पत्रकार बन सकता हूं? मैंने कहा- जरूर बन सकते हो। मगर हिम्म त की परीक्षा देनी होगी। उसने कहा- सर! जैसा आप कहेंगे, करूंगा। मैंने कहा- तुम बिना कोई सामान लिए हुए आज की रात पुरानी दिल्ली रेलवे स्टे शन के सामने बनी दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के साथ की पटरी पर पहुंच जाओ और तुम्हें रातभर वहां सोने के दौरान उसी पटरी पर तुम्हाररे साथ सोने वाले कौन हैं, वे क्यान करते हैं, दिल्लीर में कब से हैं और पटरी पर क्यों सो रहे हैं, इन सब सवालों के जवाब ढूंढने हैं। तुम्हालरे द्वारा मैं दिल्लीस की गरीबी का वह बदनुमा चेहरा दिखनाचाहता हूं जो दक्षिणी दिल्ली की संभ्रान्तक कॉलोनियों के लोगों ने अब तक नहीं देखा है। हमारी खबर का शीर्षक होगा, 'रात की बाहों में दिल्लीह'। कोई पूछे तो बताना है कि बिहार से अभी अभी रेल से आया हूं। किसी को दिल्ली् में जानता नहीं। इसलिए इसी पटरी पर आज रात बिताने की मजबूरी है। रात के नौ बजे और पटरी के 'ठेकेदार'ने उसे ठेला। पूछा- कहां से आए हो। उसने वही बातें बोल दी, जो मैंने सिखाई थी। ठेकेदार ने कहा कि जेब में जितने पैसे है निकालो। यहां पर तुम्हासरी जेब भी कट सकती है लिहाजा सारा माल दे दो। इस पटरी का ठेका मेरा है। पैसों के बदले तुम्हें सोने के लिए दरी, पीने के लिए पानी से भरी सुराही, और गश्तह करने वाले सिपाही से सुरक्षा मिलेगी। मनोरंजन ने सुबह आकर रातभर के अपने सारे अनुभव लिख डाले। खबर छपी। उसने काफी सनसनी मचाई। पटरीवालों को रैन बसेरों में भेजा गया। आज मनोरंजन भारती भारत के मीडिया जगत का बड़ा 'पहलवान'है। एनडीटीवी न्यूरज चैनल का राजनीतिक संपादक और एंकर। प्रेस क्लेब ऑफ इंडिया, नई दिल्ली का पूर्व उपाध्यसक्ष। 'बाबा का ढाबा'उनका लोकप्रिय कार्यक्रम है।
( डॉक्टर रामजीलाल जांगिड, भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में हिंदी पत्रकारिता विभाग के संस्थापक अध्यक्ष रहे। अपने कई दशकों के शिक्षण काल में उन्होंने हजारों पत्रकारों को प्रशिक्षित किया है जो देश दुनिया के मीडिया संस्थानों में शीर्ष पदों पर कार्यरत हैं। )