पीछे हटने का मतलब
सैन्य और राजनयिक दोनों स्तरों पर काफी लंबी खींचतान और वार्ताओं का फिलहाल यह नतीजा सुखद ही कहा जाएगा कि गलवान घाटी में चीन की सेना ने अपने कदम पीछे खींच लिए हैं। दोनों पक्षों की आपसी समझ के तहत भारत ने भी अपनी सेना पीछे कर ली है। यानी, आमने सामने का टकराव टल गया है और दोनों देश दोनों सेनाओं के बीच 'बफर ज़ोन'बनाने पर राजी हो गए हैं।
भारत पहले से ही चीन से यही चाहता रहा है कि वह अपनी हद में रहे, ताकि हमें हद पार न करनी पड़े। सरहद पर शांति रखने का यह सामान्य सा सिद्धांत है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा के दोनों ओर का जो इलाका सैनिक गतिविधियों के लिए वर्जित (नो मैंस लैंड) है, किसी भी पक्ष को उसमें घुसपैठ नहीं करनी चाहिए। लेकिन, डोकलाम हो या गलवान, दोनों बार चीन ने इस सिद्धांत का अतिक्रमण किया। भारत ने उसे रोका। फलतः अवांछित झड़पें हुईं। इस बार तो बात इतनी बढ़ गई कि हमें अपने 20 वीर सपूत खोने पड़े और व्यापक युद्ध की रणभेरी बज उठने का खतरा पैदा हो गया।
सयाने बता रहे हैं कि चीन के पीछे हटने के लिए राजी होने का स्पष्ट अर्थ यह है कि चीन पर दबाव बनाने की भारत की चौतरफा रणनीति कारगर हुई है। सामरिक और कूटनीतिक ही नहीं, आर्थिक घेरेबंदी के भारत के सधे कदमों ने ही चीनी नेतृत्व को तनाव घटाने के लिए सम्मानजनक और लचीले रास्ते पर आने को मजबूर किया। उसकी समझ में यह भी आ गया है कि भारत से सीधे सैन्य संघर्ष का जोखिम उठाना न आसान है, न बुद्धिमत्ता। इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन अपनी सैन्य शक्ति दिखाकर दादागीरी के ज़ोर पर वास्तविक नियंत्रण रेखा को पुनः पारिभाषित करने की चाल चल रहा था। लेकिन सही समय पर भारत ने उसे जता दिया कि हम युद्ध के लिए तैयार हैं। इसके लिए भारत ने अपने सैनिकों को अग्रिम मोर्चों पर तमाम-अस्त्र शस्त्रों यानी टैंकों और मिसाइलों से लेकर हाई स्पीड बोट तक के साथ उतार दिया। भारतीय वायुसेना के सुखोई, मिग, मिराज और जगुआर लड़ाकू जेट विमानों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर उड़ान भर कर भारत के बुलंद हौसलों का परिचय दिया। इससे चीन के हौसले पस्त हुए और आपसी वार्ता के रास्ते में जमी बर्फ पिघल सकी।
कुल मिलाकर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दृढ़ता, सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की वार्ता कुशलता, विदेशमंत्री एस.जयशंकर की विश्व बिरादरी का समर्थन जुटाने की सुविचारित कूटनीति और भारत के नागरिकों की चीन को यादगार जवाब देने के लिए दिखाई गई एकजुटता ने चीन को नरम पड़ने और कदम पीछे खींचने को विवश कर ही दिया। रूस और अमेरिका के भारत समर्थक रुख ने भी चीन पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया, इसमें दो राय नहीं। दोनों सेनाओं के पीछे हटने के समाचार से शायद शंकालु आलोचकों की भी समझ में यह आ जाए कि चीन भारत की किसी चौकी पर अधिकार जमाए नहीं बैठा था, बल्कि दोनों सेनाओं के लिए निषिद्ध क्षेत्र में घुस आया था। बदले में भारत ने भी यही किया। इसीलिए इतने दिन दोनों फौजें आमने सामने थीं। अब भी हालात सामान्य होने में दो-तीन सप्ताह और लग सकते है। सयाने वैसे यह भी कह रहे हैं कि सीमा पर भले ही सामान्य स्थिति बहाल हो रही हो, चीन अब विश्वासपात्र नहीं रहा! तो भी इतनी तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि सेनाओं के पीछे हटने और तनाव कम करने की यह प्रक्रिया स्थायी और वास्तविक होगी। दोनों ओर बने अस्थायी ढांचों को हटाने से तो यही संकेत मिलते दिख रहे हैं। 000