पुलिस हिंसा बनाम मानव अधिकार
तमिलनाडु के तूतिकोरिन में गत दिनों पुलिस हिरासत में पिता-पुत्र की मृत्यु पर नामी-गिरामी हस्तियों के बयानों के बावजूद वैसी कोई हलचल बौद्धिक और सामाजिक जगत में नहीं दिखाई दी, जैसी दीखनी चाहिए थी। यह चिंताजनक इसलिए है कि शायद हम भारतवासी ऐसी हिंसा को पुलिस के चरित्र का स्वाभाविक हिस्सा मानने लगे हैं। इसीलिए तो हम ह्यूस्टन की पुलिस पर तो उँगली उठाते हैं, लेकिन तूतिकोरिन की पुलिस की ओर से आँख मूँद लेते हैं। फिर भला क्यों न पुलिस अपने आप को कायदे कानून से ऊपर समझे? गौरतलब है कि तूतिकोरिन पुलिस ने पी. जयराज और उनके बेटे जे. फेनिक्स को तय समय से ज़्यादा अपनी मोबाइल एक्सेसरी की दुकान खुली रखने के आरोप में गिरफ्तार किया और मजिस्ट्रेट से रिमांड माँगी।
कोरोना संक्रमण के मद्देनज़र लागू 'लॉकडाउन'के नियम के उल्लंघन के आरोपी इन पिता-पुत्र के साथ पुलिस लॉक अप में क्या किया गया, यह तो जाँच के बाद ही पता चलेगा। लेकिन उनके रिश्तेदारों ने आरोप लगाया है कि पुलिसकर्मियों ने सातनकुलम थाने में उनकी बुरी तरह से पिटाई की। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मजिस्ट्रेट ने आरोपियों को 'देखे बिना ही' रिमांड दे दी। जबकि नियमों के मुताबिक रिमांड पर भेजने से पहले मजिस्ट्रेट आरोपियों को खुद देखते हैं कि उन्हें किसी तरह की चोट तो नहीं लगी है। गिरफ्तारी के चार दिन बाद दोनों को अलग अलग समय पर अस्पताल में भर्ती किया गया, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई। कई महत्वपूर्ण हस्तियों के आवाज़ उठाने के बाद इस मामले में पाँच पुलिस कर्मियों को निलंबित कर दिया गया, जिनमें एक निरीक्षक और दो उप निरीक्षक शामिल हैं। फिलहाल मामला सीबीआई को सौंप दिया गया बताते हैं।
पुलिस की कथित बर्बरता और अदालत की कथित उपेक्षा के अलावा चिंता का विषय जाँच के दौरान पुलिस की हेकड़ी भी है। जाँच अधिकारी को पुलिस ने किस कदर हड़काया होगा, इसका अंदाज़ प्रसिद्ध अभिनेता रजनीकांत के रोषपूर्ण बयान से लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा है कि, “पिता और पुत्र को प्रताड़ित कर उनकी 'नृशंस हत्या'से मानवता शर्मसार हुई है। (न्यायिक) दंडाधिकारी के सामने जिस प्रकार का बर्ताव कुछ पुलिस कर्मी कर रहे थे और बोल रहे थे, उससे मुझे झटका लगा है। जो लोग भी घटना में शामिल हैं, उन्हें उचित दंड मिलना चाहिए। उन्हें किसी भी कीमत पर छोड़ा नहीं जाना चाहिए।” दंड तो खैर भविष्य की बात है, लेकिन इस पूरे घटनाचक्र ने भारतीय लोकतंत्र में पुलिस के चरित्र और अदालत की भूमिका पर एक बार फिर बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।
कहना ज़रूरी है कि हिरासत में मौत की खबरें देश के अलग अलग कोनों से प्रायः आती रहती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, 2018 में पुलिस हिरासत में 70 लोगों की मौत हुई। इसी तरह, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) में 2019 में पुलिस हिरासत में कम से कम 117 लोगों की मौत की रिपोर्ट दर्ज की गई। लेकिन ऐसे ज़्यादातर मामलों में अंततः कोई न कोई तकनीकी बहाना मिल जाता है और पुलिस सुर्खरू बाहर निकल आती है। फलतः मानव अधिकारों की धज्जियाँ उड़ाने का यह सिलसिला रुकता नहीं है। धीरे धीरे जनता स्वीकार कर लेती है कि यह तो कानून और व्यवस्था की 'संरक्षक'पुलिस का जन्मसिद्ध अधिकार है। फिर तूतिकोरिन के इन पुलिस वालों ने तो वैसे भी 'जो कुछ'किया, कोरोना महाकाल के प्रकोप से देश को बचाने के लिए लागू किए गए लॉकडाउन के नियम का पालन कराने के लिए ही तो किया! सयानों को अचरज नहीं होना चाहिए, अगर कल इन 'कोरोना योद्धाओं'को इस 'कर्तव्य निष्ठा और पराक्रम'के लिए पुरस्कृत करने वाला भी कोई सामने आ जाए! आपात स्थितियों में तो मानव अधिकार स्थगित हो जाते हैं न? 000