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ऐसा देश है मेरा / डॉ सुरेश कांत

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 ऐसा देश है मेरा


जैसा कि हममें से बहुत-से लोग जानते होंगे, अपने इस प्यारे देश का नाम इंडिया है और यहाँ की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी है। कुछ सिरफिरे लोग इसे भारत या हिंदुस्तान कहकर भी पुकारते हैं और यहाँ की राष्ट्रभाषा हिंदी होने की गलतफहमी पैदा करने की कोशिश करते हैं, पर शुक्र है भगवान का कि विदेशी ही नहीं, देशवासी भी उनकी बातों में नहीं आते। 

इंडिया, चलिए भारत ही सही, पहले कृषि-प्रधान देश था, अब कुर्सी-प्रधान देश है। पहले सोने की चिड़िया था, अब सोने के अंडे देने वाली मुर्गी है, खासकर कॉरपोरेट की नजर में। अरुण जेटली ने लिखा भी है, “अरुण यह मधुमय देश हमारा। जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।” यह अनजान क्षितिज और कुछ नहीं, कॉरपोरेट का प्रतीक है। अलबत्ता कुछ विद्वान् इस कविता को अरुण शौरी का लिखा हुआ भी मानते हैं। विवाद खड़ा करने के शौकीन कुछ लोग इसे जयशंकर प्रसाद की भी बताते हैं। 

देश के अस्सी प्रतिशत लोग लोग खेती पर और बाकी राहत-कार्यों पर निर्भर हैं। हमारे पास संसाधनों का कोई अभाव नहीं। कोयले, लोहे, ताँबे, अभ्रक आदि के विशाल भंडार हैं। जमीन से कोयला निकाला जाता है, तो कोयले के साथ घोटाला अनायास निकल आता है। 

भारत भारत है, यहाँ नदियों की जगह नदियाँ, पहाड़ों की जगह पहाड़ और मैदानों की जगह मैदान हैं, जिनमें सबसे ज्यादा फसल राजनीति की होती है। यह फसल वहाँ भी उगाई जा सकती है, जहाँ कुछ नहीं उगता। यहाँ हर आदमी हर क्षेत्र में और हर विषय पर राजनीति करता है और ऐसा करते हुए दूसरे को टोकता भी रहता है कि इस मामले में राजनीति मत करो। देश में इफरात में पैदा होने वाली अन्य फसलों में बेईमानी, तस्करी, घोटाले, दलबदल, रिश्वतखोरी, सेक्स-स्कैंडल, अफीम और कच्ची शराब आदि प्रमुख हैं। कहीं-कहीं गेहूँ, मक्का, बाजरा आदि भी पैदा होता है, जिसके लिए किसान बारहों महीने पछताता है। 

भारत में तीन ओर समुद्र है, जो तस्करों और आतंकवादियों को जान जोखिम में डालकर भी देश को अपनी बहुमूल्य सेवाएँ देने का अवसर उपलब्ध कराता है। भारत में रेगिस्तान भी हैं, जिनमें सबसे काम की चीज रेत होती है जो अमीर-गरीब दोनों के बहुत काम आती है। अमीर उसकी मदद से अपने महल खड़े करते हैं, तो गरीब भूख लगने पर उसे फाँक सकते हैं। जहाँ पर रेगिस्तान नहीं, वहाँ पर वन हैं और जहाँ पर वन हैं, वहाँ पेड़-पौधे हैं जिन्हें काटकर ईंधन के तौर पर तो जलाया ही जाता है, बहुओं-दलितों-आदिवासियों को जिंदा जलाने के काम में भी लाया जाता है। जहाँ-तहाँ बलात्कार होते रहते हैं, जिनमें किसी का हाथ-मुँह काला नहीं होता। 

पहले भारत में घी-दूध की नदियाँ बहती थीं, अब उन नदियों में प्रदूषण की बाढ़ आई रहती है। जबसे दूध यूरिया और साबुन से बनने लगा है, गाएँ दूध देने के कम, दंगा करवाने के काम ज्यादा आने लगी हैं। जीते-जी गाय मनुष्य के जितने काम आती है, मरकर उससे भी ज्यादा काम आती है। इसलिए समझदार लोग इधर बूचड़खाने चलाते हैं, उधर गाय के मरने पर दंगे करवाकर गोभक्ति का परिचय देते हैं।

दिल्ली देश की राजधानी है, इसलिए देश का हर नागरिक दिल्लीमुखी है, यहाँ तक कि हरेक की अपनी अलग दिल्ली है। देश में कई बड़े नगर हैं, जिन्हें सुविधा के लिए महानगर कहा जाता है, हालाँकि वहाँ असुविधाएँ ज्यादा होती हैं। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई ऐसे ही महानगर हैं, जहाँ अट्टालिकाओं में तस्कर और झुग्गी-झोंपड़ियों में बेबस मानवता रहती है।

हमारा प्रमुख व्यवसाय एक-दूसरे की आलोचना करना है। एक की टाँग खींचना, दूसरे के मामले में टाँग अड़ाना, तीसरे से हाथापाई और हाथापाई के बाद जूतम-पैजार करना हमारा पसंदीदा शगल है। यह जूतम-पैजार लोग कभी-कभी नेताओं के साथ भी कर देते हैं। तब नेता भी धन्य हो जाते हैं और जूते भी। जूता जब पूरी ताकत के साथ नेता पर जाकर पड़ता है, तो नेता का न तो ‘ने’ रह जाता है, न ‘ता’। 

देश में शिक्षा की बाढ़-सी आ गई है। इस क्षेत्र में हमने इतनी तरक्की कर ली है कि विद्यार्थी जिस विषय में चाहे, टॉप कर सकता है, यहाँ तक कि कई बार तो उसे खुद पता नहीं चलता कि उसने किस विषय में टॉप किया है। टॉप करना पास होने से भी ज्यादा आसान हो गया है। शिक्षा की उन्नति में सरकार का सहयोग लोगों ने भी हर गली-मुहल्ले में पब्लिक स्कूल खोलकर दिया, जिनका आम पब्लिक से कभी कोई नाता नहीं रहा। सहायक उद्योगों के रूप में कोचिंग उद्योग और नक़ल उद्योग ही नहीं, फर्जी डिग्री उद्योग भी पनप आए, जिन्होंने डिग्री पाने के लिए पढ़ना अप्रासंगिक बना दिया।       

भारत में रेल-परिवहन काफी विकसित है। समूचे देश में रेल की पटरियों का जाल-सा बिछा है। इन पटरियों का हमारे निजी जीवन में भी बड़ा महत्त्व है। इन पर नित्यकर्म से निवृत्त हुआ जा सकता है। खुले में शौच न करने और घर में ही शौचालय बनवाने के सरकारी आदेश का पालन चूँकि बेघर लोग चाहकर भी नहीं कर सकते, लिहाजा स्टेशन के निकट झुग्गी-झोपड़ियों में और फुटपाथों आदि पर बसे लोगों का सहारा रेल की पटरियाँ ही बनती हैं। रेल की पटरियों में फिश-प्लेटें भी होती हैं, जो उखाड़े जाने के काम आती हैं। रेल की पटरियों का एक गौण-सा उपयोग और भी है, उन पर रेलगाड़ियाँ चलती हैं। 

इधर हमारे देश ने कई क्षेत्रों में काफी तरक्की की है। सरकारी प्रयासों से बचत भी बढ़ी है। स्थिति यह हो गई है कि लोगों को बाजार जाने पर पता चलता है कि वे अपनी आय का उपयोग बचत करने के अलावा और किसी चीज के लिए कर ही नहीं सकते। 

हमारा देश एक विकासशील देश है और यह बात हम कुछ इस गर्व से कहते हैं कि विकसित देश तक डर जाते हैं। पिछले दिनों हमने यही बात दोहरा-दोहराकर अमेरिका से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक सबकी मिट्टी खराब कर दी। सब विकसित देश सोच में पड़ गए कि विकासशील होना कहीं विकसित होने से भी ज्यादा श्रेयस्कर तो नहीं?             

इस प्रकार, देश समृद्ध है और जनता खुशहाल। कहीं कोई भूखा-नंगा नजर नहीं आता। जी तरसकर रह जाता है भूखे-नंगों के साथ सेल्फी लेने के लिए। कहीं-कहीं तो लोग इतने संपन्न हैं कि लँगोटी तक पहनते हैं। सभी के लिए आवास उपलब्ध है। अपनी-अपनी रुचि के अनुसार कुछ लोग छतों के नीचे रहते हैं, तो बाकी गरीबी की रेखा के नीचे।

ऐसा देश है मेरा! सोणा देश है मेरा! l l 


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