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प्रतिदिन/आलोक तोमर

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 मां के पांव छुओ, बृजलाल!


भारतीय दंड विधान का दंड यानी डंडा जिसके हाथ में आ जाता है वह अपने आपको खुदा से कम नहीं समझता। बीट

कांस्टेबल अपने हिस्से के इलाके का खुदा होता है, थानेदार एक पूरी बस्ती का खुदा

होता है, डीएसपी एक इलाके का खुदा होता है और एसपी पूरे

जिले का खुदा होता है। 


आम तौर पर ये खुदा

गरीबों और हमारे आपके जैसे आम लोगों को अपनी इबादत करने पर मजबूर कर देते हैं।

छोटे खुदा बड़े खुदाओं की बंदगी करते हैं और बड़े खुदा जो वर्दी में शेर नजर आते हैं

वे मुख्यमंत्री और ताकतवर राजनैतिक हस्तियों के सामने दूम हिलाते, अपने आपको पतित से पतित

साबित करते और वफादारी के बदले में मैडल और मन चाहे पद पाते नजर आते हैं। पूरे देश

में कई अपवादों को छोड़ कर इन छोटे बड़े खुदाओं की कतार लगी हुई है और खुदा से आम बंदा

क्या सवाल करे कि आपने जो किया वो क्यों किया? खुदा की

मर्जी के आगे किसकी चलती है? 


बात फिलहाल गाजीपुर

के एसपी रवि कुमार लोकू की हो रही है जिनके अंदर झूठ बोलने की इतनी प्रतिभा और

साहस है कि दर्जनों फोन आ जाने, पत्रकारों द्वारा सवाल कर लिए जाने, बड़े अधिकारियों के बेचैन हो जाने के बावजूद वह इतना बड़ा सफेद झूठ बोल

सकता है जिसका सच पूरे देश में पता लग गया है। मामला दिल्ली में पत्रकारों की

पत्रकारिता करने वाले यशवंत सिंह का है जो अपनी खिलाड़ी लेकिन साहसी छवि के लिए

पहचाने जाते हैं और किसी मामले में उनके भाई की तलाश के दौरान गाजीपुर जिले के एक

थाने में यशवंत सिंह उनके चचेरे भाई और एक और वांछित व्यक्ति की मां को और यशवंत

के भाई की पत्नी को भी थाने में तब तक बंद रखा गया जब तक पुलिस के हाथों मुजरिम

नहीं लग गया। 


मायावती के चरणों में

सैंडिल पहनाने वाले उत्तर प्रदेश पुलिस के सबसे चर्चित आईपीएस यानी अतिरिक्त पुलिस

महानिदेशक बृजलाल की खामोशी समझ में आती है। उनकी नावर्दी को राजनैतिक शिलाजीत

मायावती से ही मिलता है और वहीं से उनके सारे गुनाहों की कुंडली शुरू होती है। मगर

गॉड मदर मायावती के राज में कर्मवीर सिंह को क्या हो गया कि सारे जीवन की एक बेदाग, साफ और साहसी छवि को एक

दरोगा के हाथों मिट्टी में मिलवाने पर तुल गए? नहीं मालूम

कि उनकी क्या मजबूरी है और यह भी नहीं मालूम कि गाजीपुर के नंदगंज थाने का थानेदार

इतना ताकतवर हो गया कि एसपी से ले कर आईजी और बृजलाल जैसे भाड़ -मीरासियो से ले कर

कर्मवीर सिंह जैसे अधिकारियों जिनके नाम की कसम खाई जाती है, उसके खिलाफ बोलने तक से डरने लग गए। 


लेकिन एक बार सोच कर

देखिए तो कि वर्दी वाले ये गुंडे सिर्फ एक इस मामले में दोषी नहीं है। वह तो मामला

यशवंत सिंह का हैं जिन्हें देश के सारे पत्रकार जानते हैं और मानते हैं और इसीलिए

अलग अलग कोनों से जहां से उम्मीद तक नहीं थी, आवाजें उठना शुरू हुई है। मगर उससे क्या होता है,

खुदा तो खुदा रहेंगे। यह यशवंत की मां का मामला है इसलिए पूरे

देश को पता भी चल रहा है लेकिन जिस मामले की तस्वीरें और वीडियों मौजूद हैं,

फोन का रिकॉर्ड मौजूद हैं, जिसमें हिंदी

विश्वविद्यालय चला रहे विभूति नारायण राय जैसे उत्तर प्रदेश पुलिस के बृजलाल से

बड़े अधिकारी सवाल उठा रहे हैं वहां इतने सब हंगामे का असर सिर्फ इतना होता हैं कि

बयान लेने पुलिस वाले गांव पहुंच जाते हैं और साबित करने की कोशिश करते हैं कि

न्याय हो रहा है। कम से कम न्याय का अभिनय तो हो रहा है। देश के 99 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में तो यह अभिनय ही नहीं होता। बृजलाल अपने

बंगले में स्कॉच पीते हैं और दरोगा जी ठेके से सिपाही भेज कर अपने नशे का इंतजाम

करते हैं। लोकतंत्र का क्या है, उसमें बहुत सारे यशवंत

हैं और बहुत सारी मांए हैं। 


मुझे पक्का भरोसा है

कि यशवंत और उनके परिवार की स्त्रियों को गिरफ्तार दिखाया ही नहीं गया होगा।

अभियुक्त को शरण देने का मामला अगर बनाया गया होता तो जमानत तक नहीं होती। हिरासत

में रखने का कानून में बगैर गिरफ्तारी के कोई प्रावधान नहीं है मगर भारत की और खास

तौर पर गाजीपुर की पुलिस कब से प्रावधानों की परवाह करने लगी? वहां तो इल्जाम भी

खुदाओं का, गवाह भी खुदाओं के और फैसले भी खुदाओं के।

असली खुदा बेचारा शर्मिंदा हो रहा होगा उस अपनी कायनात को देख कर जहां थानेदार और

उनके माई बाप खुदा बन बैठे हैं। 


बृजलाल जी भी नावाकिफ

नहीं होंगे क्योंकि हमारी चंबल घाटी के पड़ोस में इटावा में वे तैनात रह चुके हैं।

चंबल घाटी में वर्दी वाले गुंडो से निपटने के दो ही तरीके हैं। एक तो यह कि उन्हें

पामेरियन कुत्ते की तरह खरीद लिया जाए और बिस्किट खिला कर दुलारा जाए। दूसरा तरीका

यह है कि बंदूक, बंदूक से बात करें। इटावा जिले के ही एक गांव में जब पुलिस ने तलाशी के

नाम पर घर की महिलाओं को सताना शुरू कर दिया था तो डरे हुए परिवार वालों ने भी

पुलिस वालों की बंदूकें छीन कर उनके जनाजे निकाल दिए थे। यह धमकी नहीं है बृजलाल।

हकीकत है। तुम भी जानते हो। कल तुम्हारी गॉड मदर सड़क पर आ गई या सीबीआई की हवालात

में पहुंच गई तो तुम नया बाप तलाशोगे। 1977 में आईपीएस

बने थे इसलिए रिटायरमेंट को बहुत वक्त नहीं बचा है और रिटायर हो चुके पुलिस वाले

किस कदर आम हो जाते हैं और दूसरे लोगों से ज्यादा सताएं जाते हैं यह तुम्हे बताने

की जरूरत नहीं है। 


सबसे आसान और

न्यायपूर्ण उपाय यही होता कि उत्तर प्रदेश की पुलिस शर्मिंदगी जाहिर करती, जिन महिलाओं को निपट

अन्याय के दायरे में ला कर हवालात में दो किस्तों में रखा गया, उनसे दरोगा जी पांव छू कर माफी मांगते और इसके बाद हो सकता है कि यशवंत

ही नहीं, हमारा दयालु समाज माफ कर देता। आखिर वर्दी में

हो तो क्या हुआ, हैं तो बेचारे चपरासी ही और गरीबों के

प्रति मन में गांठ बांध कर रखना किसी भी क्षत्रियता के खिलाफ है। 


वरना अब सब तैयार हो

जाए। लड़ाई शुरू हो चुकी है। यह लड़ाई सिर्फ यशवंत सिंह और उनके भाई की मां के अपमान

की लड़ाई नहीं है। यह पूरे देश की पुलिस को यह बताने की जंग हैं कि जब आम आदमी

प्रतिशोध लेने पर उतारू होता है तो उसका प्रतिकार झेलने की ताकत बड़े बड़े

तीसमारखाओं में भी नहीं होती। मायावती को हाथी और मूर्तियों के अलावा कुछ दिखता

नहीं मगर उनके चौकीदार की हैसियत से कम से कम बृजलाल उन्हें आइना दिखाने की कोशिश

कर सकते है। माना कि कायरों में इतनी हिम्मत नहीं होती मगर उम्मीद करने में बुराई

ही क्या है?


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