ज्ञानयुग प्रभात 'का उदय/ टिल्लन रिछारिया
ज्ञानयुग प्रभात 'का उदय ! ज्ञानयुग प्रभात का उदय हो रहा था , यह नाम महर्षि महेश योगी जी का ही दिया हुआ था । वे कहते थे कि अखबार में रचनात्मक , प्रेरणादायी , समाज में उत्साह भरने वाली सात्विक खबरें प्रमुखता से छापिए । हताशा और अपराध वाली खबरें ज्यादा बढ़ा चढ़ा कर नहीं छपनी चाहिए । समाजिक शुभ्रता बढ़ाने वाली खबरों को प्रमुखता देना चाहिए । तब वहां उन्नत टेक्नोलॉजी वाली आधुनिकतम प्रिंटिंग व्यवथा थी । ...अखबार के रूप स्वरूप की प्रक्रिया चल रही थी । 6 कॉलम वाले पेज की प्लानिंग की गई थी , जनसत्ता बहुत बाद में 6 कॉलम के साथ आया था । ...मेरे जिम्मे सम्पादकीय पेज की जिम्मेदारी थी । ज्ञानरंजन जी लगभग रोज ही आते थे । खाली हाथ नहीं कोई न कोई लेख जरूर लाते थे । कहते और क्या लिख दूं ।...याद पड़ता है , दिनमान में विश्व कविता यानी विदेशी कविताओं के अनुवाद छपा करते थे । मैंने भी ऐसी कविताओं का आग्रह किया था।कई महीनों छपती रही ऐसी कविताएं । शहर में खासा उत्साह था लिखने वालों में , नए नए युवक भी खूब आते थे अपनी रचनाओं के साथ । ऑफिस सहकर्मियों में भी में मैंने गति भर दी थी । ट्रिक ये अपनाई थी कि एक दो दिन पहले मैं फोटो सहित पेज में लिखने वाले सहकर्मी का नाम छप देता था । संतोष अरे ये अब तक नहीं लिखे आपको फंसा देंगे । मैं कहता ये न लिखेंगे तो इनके नाम से हम लिख देंगे ।...अपना गैंग तगड़ा था , राजेश नायक , अरविंद उप्रेती ,दिनेश जुआल , हरि भटनागर , राकेश दीक्षित , अरुण पांडेय साथ थे , मल्टी पर्पज लेखन के लिए दिनेश खरे और विश्वभावन देवलिया मुस्तैद रहते थे । हमारे रणनीतिक सलाहकार होते थे स्टाफ के फोटोग्राफर औए हमारे अजीज ब्रजभूषण शकरगाय । शकरगाय ग्लाइडर उड़ाते थे , बहुधन्धी , कुशाग्र और जुझारू प्रकृति के थे । ...कौन सो काज कठिन जग माहीं...की हुंकार लगा दी जाए बस , दिन रात एक करके काम अंजाम पाता ही था । रात सिटी एडीसन का अखबार जीप में लाद कर पहले रेलवे स्टेशन फिर अखबार छोड़ते फिर बस अड्डे पर ।इस अवसर पर हमारे गैंग लीडर शकरगाय होते , दो एक पुरुषार्थी सहज ही साथ होजाते । फिर 4 से सुबह 6-7बजे तक बस अड्डे पर ही संगत जमती । चाय नमकीम के साथ भांति भांति के धुंआ उगलते व्यसन । सिर्फ आनंद राग बजता और बरसात ।...पूरी रात इस तरह पार करने का खास मकसद था घर के रास्ते पर शमशान था जो रात में भी दहकता रहता था किसी साथ थ तो ठीक वार्ना बस अड्डे से बेहतर और रौनकदार जगह क्या हो सकती है । सुबह घर पहुंचे , दोपहर 2 बजे फिर दफ्तर के लिए निकल लिए , खाना पीना सब बाहर ही था । और 2 बजे पहुंच काम पर थोड़े लगाना होता था । दरअसल मुझे करते हुए बहुत कम लोग ही देख पाए हैं ।यहां भी मैं डाक और सिटी एडिशन के बीच अपना काम निबटाता था ।...हमारे सहकर्मियों में एक विद्वान पत्रकार राजेन्द्र गुप्ता थे , वे पहला पेज देखते थे ।
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