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यादों में, सपनों में पापा / विवेक शुक्ल

 

मार्च के महीने का दूसरा हफ्ता शुरू होते ही जीवन में अजीब सा खालीपन महसूस होने लगता है। कुछ भी करने का मन नहीं करता। और फिर 14 मार्च को तो लगता है कि कहीं किसी कोने में जाकर रो लूं। मेरे लिए 14 मार्च, 2003 सच में काला दिन था। उस दिन सुबह करीब साढ़े पांच बजे मां ने मेरे कमरे का दरवाजा जोर से खटकाया। मैं फौरन उठा। मां ने कहा, विवेक, जल्दी आओ। देख अपने पापा को। मैंने पापा जी को कई बार आवाजें दीं और हिलाया। मां और पत्नी पापा जी के मुंह में गंगाजल डाल रहे थे। पापा जी का शरीर ठंडा पड़ चुका था। मैं समझ रहा था कि पापा जी नहीं रहे। पर मां को बताने का साहस नहीं था।


इसी दौरान मेरा पड़ोस में रहने वाला एक डाक्टर दोस्त आ चुका था। उसने चेक किया और कुछ ही पलों के बाद कहा, पापा जी नहीं रहे। मैंने पापा जी और मां के साथ रात को खाना खाया था। वे पूरी तरह से स्वस्थ थे। मैंने उन्हें एक दिन भी अस्वस्थ या बीमार नहीं देखा था। वे 75 साल तक निरोगी रहे थे। कभी कोई दवा नहीं ली।


उन्हें दिवंगत हुए आज 20 साल हो रहे हैं। उनके जाने के बाद समझ आया था कि पिता के बगैर जीना कितना कठोर और कष्टकारी है। उनके जाने के बाद उनके मित्रों का घर आना बंद हो गया। वे फोन पर मेरे से बात करते रहते।


अब भी जब कभी दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स या हंसराज क़ॉलेज के आसपास से गुजरता हूं, तो ठिठक जाता हूं। वे देश के बंटवारे के बाद दिल्ली आए तो वे बीए फर्स्ट ईयर पास कर चुके थे रावलपिंडी के गॉर्डन कॉलेज से। उस कॉलेज में उनके सीनियर भीष्म साहनी जी थे। वहां से ही पाक के हाल ही में रिटायर हुए जनरल कमर जावेद बावजा पढ़े थे। पापा जी ने अपनी बीए कैंप कॉलेज से पूरी की। पंजाब यूनिवर्सिटी ने दिल्ली में शरणार्थी परिवारों के बच्चों के लिए कैंप कॉलेज शुरू किया था ताकि वे अपनी पढ़ाई पूरी कर लें। उन्होंने बीए के बाद डी स्कूल से एमए किया और हंसराज कॉलेज में कुछ समय तक पढ़ाने के बाद फाइनेंस मिनिस्ट्री के बजट डिवीजन से जुड़ गए। वे एग्रीकल्चर इकोनॉमिस्ट थे। वे करीब 37 सालों तक केन्द्रीय बजट बनाने वाली टीम के कोर मेंबर रहे। कई प्रधानमंत्रियों तथा वित्त मंत्रियों के साथ काम किया।


मलकागंज में रावलपिंडी सनातन धर्म स्कूल है। वे इसकी मैनेजमेंट कमेटी के सालों अध्यक्ष रहे। वे Central Secretariat Club के भी अध्यक्ष रहे। आत्मा राम सनातन धर्म कॉलेज से भी जुड़े रहे.  आत्मा राम का परिवार उन्हें बहुत मान ता था. 


 पापा जी का कोई भाई-बहन नहीं था। उनके चाचा जी का एक पुत्र दिल्ली में ही हुआ। यानी वे दो परिवारों में अकेले बच्चे थे। मुझे लगता है कि इसलिए उन्हें अकेलापन नापसंद था। उस अकेलेपन को दूर करने के लिए उन्होंने बहुत सारे दोस्त बना लिए थे। उनकी मित्रमंडली में समाचारवाचक देवकीनंदन पांडे, जयदेव त्रिवेदी, डाक्टर आर.के. करौली, के.एन.राव के अलावा लाहौर, मुल्तान और रावलपिंडी से दिल्ली आए दोस्तों की फौज थी। उनमें सागर सूरी तो उनके बालसखा थे ही। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने कभी किसी खास कवि सम्मेलन ( हिंदी और पंजाबी) तथा मुशायरों को मिस किया हो।

रामधारी सिंह 'दिनकर' 24 अप्रैल, 1974 को चेन्नई में अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले ही सप्रु हाउस में डीएसएम कवि सम्मेलन में भाग लेने आए थे।  वे उस कवि सम्मेलन में मौजूद थे। पंजाबी के शिखर कवि शिव बटालवी उनके निजी मित्र थे। उन्हें हिन्दी,पंजाबी और उर्दू की सैकड़ों कविताएं और शेर याद थे। वे चार भाषाओं में समान रूप से लिख-पढ़ लेते थे। उन्होंने रावलपिंडी में 1947 में भड़के दंगों को देखा था। पर उनकी सेक्युलर मूल्यों और विचारों को लेकर आस्था विचलित नहीं हुई। वे जाति के कोढ़ पर बार-बार वार करते रहे। उन्हें मिस तो करता हूं, पर उनसे अपने को कभी दूर नहीं पाता हूं।   

Vivek Shukla


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